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1857 की बगावत
1.0 प्रथम स्वातंत्र्य संघर्ष
वह विद्रोह, जिसने भारत में ब्रिटिश शासन को गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया इसे इतिहासकारों ने कई नामों से वर्णित किया है जिसमें सिपाही विद्रोह, महान विद्रोह और 1857 का विद्रोह आदि शामिल हैं जबकि अधिकांश इसे ‘भारतीय आजादी का पहला संघर्ष’ कहना ज्यादा पसंद करते हैं। निःसंदेह यह ब्रिटिश साम्राज्य की कई दशकों की सामाजिक और आर्थिक नीतियों के विरुद्ध भारतीय जन भावना का प्रस्फुटन था। विद्रोह तक, ब्रिटिश कई दंगे और कबीलाई लड़ाईयों को दबाने में सफल हुए थे, या 1857 के ग्रीष्म माह तक उनको कुछ सुविधाएँ या छूट देकर सफल रहे थे। यह संघर्ष वायसरॉय लॉर्ड कैनिंग के कार्यकाल के दौरान हुआ था।
1.1 कारण
[हालांकि 1857 के भारतीय विद्रोह का तात्कालिक कारण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों द्वारा प्रयोग किये गए हथियारों में एक छोटा सा परिवर्तन था, इसके कई अन्य धार्मिक और आर्थिक कारण थे जिनके कारण यह विद्रोह जंगल की आग की तरह फैल गया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने नई पद्धति की 1853 एनफील्ड राइफल में उन्नयन किया था, जिसमें चर्बीयुक्त कागज़ कारतूसों का उपयोग किया जाता था। कारतूसों को खोलने के लिए और उन्हें राइफल में भरने के लिए सिपाहियों को कागज को चबाना पड़ता था, और उसे अपने दांतों से फाड़ना पड़ता था।
1856 में इस प्रकार की अफवाहें फैलना शुरू हुईं कि कारतूसों पर लगी हुई चर्बी गौमांस वसा और सूअर के मांस की चर्बी के मिश्रण से बनी हुई थी; निश्चित ही हिंदू धर्म में गौमांस का सेवन निषिद्ध है, जबकि सूअर के मांस का सेवन इस्लाम के अनुसार हराम है। इस प्रकार, इस छोटे से परिवर्तन से ब्रिटिशों ने हिंदू और मुस्लिम, दोनों सैनिकों को गंभीर रूप से आहत कर दिया था।
इसके अलावा कुछ अन्य कारण भी थे। ब्रिटिशों की ‘विलय के सिद्धांत’ (Doctrine of Lapse) की नीति के अनुसार गोद लिए हुए बच्चे सिंहासन के उत्तराधिकारी बनने के लिए अपात्र थे। इस सिद्धांत के आधार पर ब्रिटिशों ने अनेक रियासतों का विलय कर लिया था। यह अनेक रियासतों में उत्तराधिकार को नियंत्रित करने का एक प्रयास था, जो ब्रिटिश सत्ता से नाममात्र के लिए स्वतंत्र थे।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने जमींदारों की जमीन बडे़ पैमाने पर जब्त की थी, और उसे किसानों को वितरित कर दिया था। हालांकि उन्होंने किसान समुदाय पर भारी कर भी अधिरोपित कर दिए थे। इसके कारण किसान और जमींदार दोनों नाराज थे। अवध विशेष रूप से अस्थिर था क्योंकि अवध से बड़ी संख्या में सिपाही ब्रिटिश सेना में थे, और इसने उनके परिवारों को सीधे प्रभावित किया।
ब्रिटिशों के सुधारवादी उत्साह ने भी संकट को भड़काने में और अधिक योगदान दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने कई धार्मिक प्रथाओं और परंपराओं को प्रतिबंधित कर दिया, जिनमें सती प्रथा या विधवाओं को पति की चिता के साथ जलाना शामिल था, इसके कारण अनेक हिंदुओं का गुस्सा उबल रहा था। कंपनी ने जाति व्यवस्था को भी कमजोर करने का प्रयास किया, जो प्रबोधन के बाद की ब्रिटिश संवेदनाओं को अन्यायपूर्ण प्रतीत हो रही थी। इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश अधिकारियों और धर्म प्रचारकों ने हिंदू और मुस्लिम सिपाहियों के बीच ईसाई धर्म का उपदेश देना शुरू किया, साथ ही धर्म परिवर्तन भी शुरू हो गया थे। भारतीयों को लगने लगा, और यह तार्किक भी था, कि हमारे धर्मों पर ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा आक्रमण किया जा रहा था।
अंततः सभी जातियों और धर्मों के भारतीयों को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधियों के दमन और उनके द्वारा किये जाने वाले अपमान की अनुभूति होने लगी। कंपनी के जो अधिकारी भारतीयों को गलियां देते थे या उनकी हत्या भी कर देते थे, उन्हें शायद ही उचित सजा मिलती थी; यदि उनपर मुकदमे चलाये भी जाते थे, तो भी उन्हें दोषी करार दिया जाना दुर्लभ था, और जो अपील करने में सक्षम थे, वे लगभग अनिश्चित समय तक अपील करते रहते थे। ब्रिटिशों के बीच जातीय श्रेष्ठत्व की सामान्य भावना ने देशभर के भारतीयों को आक्रोशित कर दिया था।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक नीतियां भी व्यापक और प्रचलित असंतोष का कारण बन गई थीं। किसान उच्च राजस्व की मांग और राजस्व संग्रहण की कठोर नीति के कारण व्यथित थे। शिल्पकार और कारीगर भारत में आयात होने वाले सस्ते ब्रिटिश विनिर्मित माल के कारण तबाह हो गए थे, जिसके कारण उनके हाथ से बने सामान निर्माण की दृष्टि से भी महंगे हो गए थे। जो लोग धार्मिक और सांस्कृतिक कार्य करके उदर निर्वाह करते थे उनका निर्वाह का स्रोत ही नष्ट हो गया था क्योंकि पुराने शासक वर्ग के प्रतिस्थापित होने के कारण उन्हें प्राप्त होने वाला राजाश्रय समाप्त हो चुका था। भ्रष्ट और अनुत्तरदायी प्रशासन ने लोगों के दुखों में और अधिक वृद्धि की थी। अतः सारे कारको को निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत कर सकते हैंः]
- अंग्रेज़ों द्वारा आर्थिक उत्पीड़न
- अंग्रेज़ों भू-राजस्व नीति और कानून व्यवस्था एवं प्रशासन
- भारतीय इतिहास पर श्रेष्ठता की ब्रिटिश प्रवृत्ति
- क्षेत्रों पर अधिकार करने की ब्रिटिश नीति - अवध का अधिग्रहण और विलय की नीति ने प्रांतीय शासकों को नाराज कर दिया
- विद्रोह का तात्कालिक कारण सेना की बदतर स्थिति के कारण उनमें उत्पन्न अंसतोष था
- इनफील्ड राइफल को शामिल करना जिसके कारतूसों में स्नेहक आवरण था जो जानवरों के मांस से बना था (हिंदू और मुसलमान दोनों आहत थे क्योंकि उनकी धार्मिक भावनाएं आहत होती थीं)
- ईसाई धर्म के प्रसार का भय।
1.2 विद्रोह का आरंभ
29 मार्च 1857 को 34 रेजीमेंट के एक सिपाही मंगल पांडे ने बैरकपुर में परेड़ के दौरान दो ब्रिटिश अधिकारियों को मार दिया। मौजूद भारतीय सिपाहियों ने आज्ञा मानने से इनकार कर दिया और मंगल पांडे को गिरफ्तार करने से इन्कार कर दिया। हालांकि उसे बाद में गिरफ्तार किया गया, मुकदमा चला और फांसी दे दी गई। यह खबर जंगल की आग की तरह देश की सभी छावनियों में फैल गई और जल्द ही देशव्यापी सिपाही विद्रोह लखनऊ, अम्बाला, बहरामपुर और मेरठ में फैल गया।
10 मई 1857 को मेरठ में सैनिकों ने नई इनफील्ड राइफल के कारतूसों को छूने से इनकार कर दिया। नागरिकों के साथ सैनिकों ने एक क्रोधोन्मन नारा लगाया-मारो फिरंगी को। उन्होंने जेल तोड़ दी यूरोपीय महिला और पुरुषों को मार डाला उनके घरों को जला दिया और दिल्ली की ओर बढ़ चले। अगली सुबह दिल्ली में मार्च करते सैनिकों की उपस्थिति स्थानीय सैनिकों के लिए एक संकेत थी। उन्होंने भी विद्रोह कर दिया शहर पर कब्जा कर लिया और 80 वर्षीय वृद्ध बहादुरशाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया।
दिल्ली पर कब्जा करने के एक महीने के भीतर विद्रोह देश के अन्य भागों में भी फैल गया जैसे - कानपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, बरेली, जगदीशपुर और झांसी। किसी भी नेता के न होने के कारण विद्रोही भारतीय समाज के पारंपरिक नेताओं के पास गए। कानपुर में अंतिम पेशवा बाजी राव 11 के दत्तक पुत्र-नाना साहेब ने सैनिकों का नेतृत्व किया। झाँसी में रानी लक्ष्मी बाई, लखनऊ में बेगम हजरत महल और बरेली में खान बहादुर अन्य नेतृत्वकर्ता थे। यद्यपि ब्रिटिश शासक के खिलाफ एक सामान्य घृणा के अलावा विद्रोहियों का कोई राजनीतिक विचार या भविष्य के लिए कोई निश्चित दृष्टि नहीं थी। वे सभी अपने अतीत के कैदी थे और प्रमुखतः अपनी खोई सुविधाओं को पुनः प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। यह आश्चर्य की बात नहीं कि वे नए राजनीतिक क्रम को समझ पाने में असमर्थ साबित हुए। जॉन लारेंस ने सत्य कहा है कि ‘‘अगर उनमें से एक भी योग्य नेता हुआ होता तो हम लोग पूर्ण रूप से हार चुके होते।’’
1.3 विद्रोह का विस्तार
1857 के विद्रोह के उत्केंद्र दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बरेली, झाँसी और बिहार के आरा थे। दिल्ली में नाममात्र और प्रतीकात्मक नेतृत्व सम्राट बहादुर शाह के पास था परंतु वास्तविक नेतृत्व सैनिकों के एक विचारमंच के पास था जिसका नेतृत्व सेनापति बख्त खान कर रहे थे, जिन्होंने बरेली की टुकड़ियों का नेतृत्व किया और उन्हें दिल्ली लाये। ब्रिटिश सेना में वे केवल तोपखाने में एक सामान्य सैनिक थे। इस विचारमंच में दस सदस्य थे जिनमें से छह सदस्य सेना से थे और अन्य चार सदस्य अन्य नागरिक विभागों से थे। सभी निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते थे। यह विचारमंच ‘‘दिल्ली की सरकार के सम्राट के नाम से‘‘ राज्य के सभी कार्य करता था। हालांकि बहादुर शाह के कमजोर व्यक्तित्व, उनकी वृद्धावस्था और नेतृत्व गुणों के अभाव ने विद्रोह के मुख्य केंद्र में एक राजनीतिक दुर्बलता निर्मित की और इसके कारण इस विद्रोह को काफी क्षति हुई।
कानपुर में बाजी राव द्वितीय के दत्तक पुत्र अंतिम पेशवा नाना साहेब ने विद्रोह का नेतृत्व किया। उन्होंने अपने सैनिकों की सहायता से ब्रिटिशों को कानपुर से बाहर कर दिया और स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया। उसी समय उन्होंने बहादुर शाह को भारत का सम्राट स्वीकार किया और स्वयं को उनका गवर्नर घोषित किया। नाना साहिब की ओर से लड़ते हुए युद्ध की मुख्य ज़िम्मेदारी नाना साहेब के सबसे विश्वस्त सैनिकों में से एक, तात्या टोपे, के कंधों पर थी। कानपुर पर कब्जे के दौरान नाना साहिब के वफादार सैनिकों ने उस क्षेत्र में छिपी ब्रिटिश सेना पर आक्रमण किया। अंततः अनेक ब्रिटिश सैनिक या तो बंदी बना लिए गए या वे युद्ध में मारे गए (बाद में ये हत्याएं ब्रिटिशों के लिए दिल्ली सहित विद्रोह के अन्य केंद्रों पर बडे़ पैमाने पर नरसंहार करने का बहाना बनीं)। जब तक ब्रिटिश सेनाएं कानपुर पहुंचीं तब तक तात्या टोपे और नाना साहेब शहर छोड़ चुके थे। परंतु 1857 का विद्रोह अभी समाप्त नहीं हुआ था। तात्या टोपे ने कहीं अधिक श्रेष्ठ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अपना युद्ध जारी रखा। नवंबर 1857 आते-आते उन्होंने काफी बड़ी सेना इकठ्ठा कर ली थी, जिनमें से अनेक लोग ग्वालियर के विद्रोही थे, और कानपुर को वापस पाने का एक दुःसाहसी प्रयास किया। यह एक भीषण युद्ध था परंतु इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की विजय हुई। विद्रोह का कानपुर संस्करण इसीके साथ लगभग समाप्त हो गया। तात्या टोपे ने फिर से सेना एकत्रित की, व एक समय पर तो उन्होंने झाँसी की प्रसिद्ध रानी लक्ष्मीबाई के साथ हाथ भी मिलाया, जिनकी अंततः युद्ध में मृत्यु हुई।
उन्होंने विभिन्न छोटे राजाओं के साथ मिलकर ब्रिटिशों के विरुद्ध अपना गुरिल्ला अभियान लगभग एक वर्ष तक जारी रखा। उन्होंने ब्रिटिश सेना के विरुद्ध बनास नदी के तट पर सांगानेर के निकट युद्ध किया और अन्य स्थानों के साथ ही छोटा उदयपुर में भी ब्रिटिशों के विरुद्ध युद्ध किया। ऐसे प्रत्येक युद्ध के बाद वे अपनी सेना का पुनर्गठन करते रहे। फिर भी उत्तर और मध्य भारत के अधिकांश क्षेत्रों में विद्रोह को कठोरता से कुचलने के साथ ही वह समय दूर नहीं था जब अपनी दुर्जेय सैन्य क्षमताओं के साथ ब्रिटिश तात्या टोपे सहित अंतिम विद्रोहियों को पकड़ सके। इसके अतिरिक्त तात्या टोपे की सेना बिखर चुकी थी और क्षीण हो चुकी थी। मुख्यधारा इतिहासकारों के दस्तावेजों के अनुसार अंततः एक सहयोगी द्वारा धोखा देने पर अप्रैल 1859 में उन्हें बंदी बना लिया गया, और एक छोटे सैन्य मुकदमे के बाद 18 अप्रैल को ब्रिटिशों द्वारा उन्हें फांसी दे दी गई।
नाना साहेब को कानपुर में पराजित किया गया। वे अंत तक दुःसाहसी बने रहे और उन्होंने आत्मसमर्पण करने से इंकार कर दिया, और 1859 के प्रारंभ में छिप कर नेपाल चले गए, उसके बाद उनके बारे में फिर कोई जानकारी नहीं मिली।
लखनऊ में बेगम हज़रत महल ने अपने युवा पुत्र बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित कर दिया और विद्रोह का नेतृत्व किया। लखनऊ में सिपाहियों की सहायता से और अवध के जमींदारों और कृषकों की सहायता से बेगम ने ब्रिटिशों के विरुद्ध एक पुरज़ोर आक्रमण किया। शहर छोड़ने को मजबूर ब्रिटिशों ने स्वयं को रेज़ीडेंसी भवन में सुरक्षित रूप से बंद कर लिया। अंत में रेज़ीडेंसी का अधिग्रहण असफल हुआ, और छोटी ब्रिटिश सेना ने अनुकरणीय धैर्य और साहस के साथ युद्ध किया। 1857 के विद्रोह के महानतम सेनापतियों में से एक और संभवतः भारतीय इतिहास की महानतम नायिकाओं में से एक थी झाँसी की युवा रानी लक्ष्मीबाई।
1842 में मणिकर्णिका, जो नाम उन्हें उनके माता-पिता द्वारा दिया गया था, का विवाह झाँसी के महाराजा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ, और उसके बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया, एक ऐसा नाम जो इतिहास में स्वर्णाक्षरों लिखा जाना था और जिसे बहुत सम्मान प्राप्त होना था। 1851 में इस युगल को एक पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने दामोदर राव रखा, परंतु दुर्भाग्यवश उनके इस शिशु की मृत्यु चार महीने की आयु में ही हो गई। शिशु अवस्था में अपने पुत्र की मृत्यु के बाद राजा और लक्ष्मीबाई ने गंगाधर राव के चचेरे भाई के आनंद राव नामक पुत्र को गोद लिया और उसका नाम पुनः दामोदर राव रखा। इस दत्तक ग्रहण समारोह के साक्षी एक ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारी भी थे। राजा गंगाधर राव ने इस ब्रिटिश अधिकारी को एक पात्र भी दिया जिसमें अनुरोध किया गया था कि झाँसी की सत्ता लक्ष्मीबाई को उनके जीवन-पर्यंत प्रदान की जाये।
नवंबर 1853 में राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई, और गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के अधीन ब्रिटिशों ने विलय का सिद्धान्त यह कहते हुए अनुप्रयुक्त कर दिया कि वे इस दत्तक पुत्र को राजा के कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता नहीं देंगे और झाँसी का ब्रिटिश प्रदेश में विलय करेंगे। अपने प्रदेश के बारे में ब्रिटिशों द्वारा किये जा रहे इस पक्षपात के प्रतिक्रियास्वरुप लक्ष्मीबाई ने एक ब्रिटिश वकील की सलाह प्राप्त की और यह अनुरोध किया कि उनके मामले की सुनवाई लंदन में की जाए। इस अनुरोध को खारिज कर दिया गया। ब्रिटिशों ने झाँसी के राज्य आभूषण अधिग्रहित कर लिए और 1854 में लक्ष्मीबाई को 60,000 रुपये का निवृत्ति वेतन प्रदान किया और उन्हें अपना महल और किला छोड़ने का आदेश दिया। वे रानी महल नामक महल में चली गईं, जिसे अब एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है।
महल से निष्कासित किये जाने के बाद भी लक्ष्मीबाई झाँसी की ब्रिटिश अधिग्रहण से रक्षा करने के प्रति दृढ़ थीं। लक्ष्मीबाई ने अपनी स्थिति को सुरक्षित करना शुरू किया और पुरुषों और महिलाओं की एक सेना बनाई जिन्हें युद्ध लड़ने का प्रशिक्षण दिया जाता था।
उसके बाद युवा रानी ने अपनी शक्ति विद्रोहियों के साथ लगाने का निर्णय लिया, और अपनी टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए वीरतापूर्वक लडीं। उनकी वीरता, साहस और सैन्य कौशल के किस्सों ने उनके देशवासियों को आज तक प्रेरित किया है। एक भीषण युद्ध, ‘‘जिसमें महिलाऐं भी आक्रमण करती हुई और गोलाबारूद वितरित करती हुई देखी जा रहीं थीं, के बाद ब्रिटिश सेनाओं द्वारा झाँसी के बाहर खदेड़ दिए जाने के बाद रानी ने अपने अनुयाइयों को यह शपथ दिलाई कि ‘‘अपने स्वयं के हाथों से हम अपनी आजादशाही (स्वतंत्र शासन) को दफन नहीं करेंगे।‘‘ तात्या टोपे और अपने विश्वासपात्र अफगान अंगरक्षकों की सहायता से उन्होंने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। ब्रिटिशों के वफादार महाराजा सिंधिया ने रानी के विरुद्ध लड़ने का प्रयास किया परंतु उनकी अधिकांश सेना रानी के साथ जा कर मिल गई। सिंधिया ने आगरा में अंग्रेज़ों की शरण ली।
16 जून 1858 को सेनापति रोज़ की सेना ने मोरार पर कब्जा कर लिया। उसी वर्ष के 17 जून को ग्वालियर के फूल बाग के निकट कैप्टेन हेनगे के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने भारतीय सेना का सामना किया, जिसका नेतृत्व लक्ष्मीबाई कर रहीं थीं, जब वे इस क्षेत्र को छोड़ने का प्रयास कर रहे थे। घुडसवार की पोशाख में पुरुष वेशभूषा में शस्त्रों से पूरी तरह से सुसज्जित, अपने नवजात पुत्र को पीठ पर बाँध कर घोडे पर सवार लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना पर आक्रमण करना शुरू किया। ब्रिटिशों ने प्रति आक्रमण किया और लक्ष्मीबाई बुरी तरह से जख्मी हो गई। चूंकि वे नहीं चाहती कि ब्रिटिश उनके शरीर पर कब्जा करें अतः उन्होंने एक सन्यासी को उन्हें दफनाने के लिए कहा। 18 जून 1858 को उनकी मृत्यु पर उनके शरीर को उनकी इच्छा के अनुसार दफन कर दिया गया। लक्ष्मीबाई की मृत्यु के तीन दिन बाद ब्रिटिशों ने ग्वालियर के दुर्ग पर कब्जा कर लिया।
बिहार में विद्रोह के मुख्य संगठक 80 वर्ष के वृद्ध कुंवर सिंह थे, जो आरा के निकट जगदीशपुर के एक विध्वस्त और असंतुष्ट जमींदार थे। वे संभवतः इस विद्रोह के सबसे असाधारण सैन्य नेता और रणनीतिकार थे। फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह विद्रोह के एक अन्य असाधारण नेता थे। वे मद्रास के रहने वाले थे जहां उन्होंने सशस्त्र विद्रोह के उपदेश देना शुरू किया था। जनवरी 1857 में वे उत्तर की ओर फैजाबाद आ गए जहाँ उन्होंने ब्रिटिश सेना की एक कंपनी के विरुद्ध बडे़ पैमाने पर युद्ध किया, जो उन्हें राजद्रोह के उपदेश से रोकने के लिए भेजी गई थी। मई में जब आम विद्रोह भड़क उठा, तो वे अवध में इसके एक सर्वमान्य नेता के रूप में उभरे।
हालांकि विद्रोह के महानतम नायक वे सिपाही थे जिनमें से कइयों ने युद्धभूमि में अदम्य साहस का परिचय दिया और जिनमें से हजारों ने निस्वार्थ भावना से अपने जीवन का बलिदान दिया। अन्य किसी भी बात से भी अधिक यह उनका दृढ़ संकल्प और बलिदान ही था जिसके कारण ब्रिटिश शासन भारत से लगभग निष्कासित होने की कगार पर आ गया था। देशभक्ति के इस संघर्ष में यहां तक कि उन्होंने अपने गहरे धार्मिक मतभेदों का भी बलिदान कर दिया।
2.0 विद्रोह की कमजोरियां और इसका निर्णायक अंत
1857 का विद्रोह देश के व्यापक प्रदेश में व्याप्त था और यह काफी लोकप्रिय भी था। हालांकि यह पूरे देश को या भारतीय समाज के सभी समुदायों और वर्गों को अपने आगोश में नहीं ले पाया। दक्षिण भारत और अधिकांश पश्चिमी और पूर्वी भारत अपेक्षाकृत शांत रहा। अनेक भारतीय राज्यों के शासकों और बडे़ जमींदारों ने इसमें शामिल होने से इंकार कर दिया। इसके विपरीत उन्होंने इस विद्रोह को दबाने में ब्रिटिशों की सक्रिय रूप से सहायता की। वास्तव में, भारत के केवल एक प्रतिशत प्रधान ही इस विद्रोह में शामिल हुए गवर्नर जनरल कैनिंग ने बाद में टिप्पणी भी की थी कि ‘‘ये शासक और
प्रधान उस तूफान के लिए बांध साबित हुए जो अन्यथा हमें एक विशाल लहर में बहा ले जाता।‘‘ हालांकि मद्रास, बंबई, बंगाल और पश्चिमी पंजाब में प्रचलित भावना इस बात के अनुकूल थी कि ये क्षेत्र अपेक्षाकृत शांत रहे।
अधिकांश संपत्तिशाली वर्ग या तो विद्रोहियों के प्रति उदासीन थे या उनके विरुद्ध सक्रिय रूप से शत्रुतापूर्ण थे। यहां तक कि अवध अनेक तालुकदार (बडे जमींदार), जो विद्रोह में शामिल हुए थे, उन्होंने भी विद्रोह का साथ तब छोड़ दिया जब सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया कि उनकी संपत्तियां उन्हें वापस कर दी जाएँगी। इसके कारण अवध के किसानों और सैनिकों के लिए दीर्घकालीन गुरिल्ला अभियान जारी रखना काफी कठिन हो गया।
साहुकार, जो ग्रामीणों के आक्रमणों के मुख्य लक्ष्य थे, स्वाभाविक रूप से विद्रोह के प्रति शत्रुतापूर्ण थे। धीरे-धीरे व्यापारी भी विमुख होते गए। विद्रोही युद्ध के लिए धन जुटाने के लिए उनपर भारी कर अधिरोपित करने के लिए या सेना को भोजन प्रदान करने के लिए उनके खाद्यान्न भंडारों पर कब्जा करने के लिए मजबूर थे। आमतौर पर व्यापारी अपनी संपत्ति और वस्तुओं को छिपा कर रखते थे और वे विद्रोहियों को मुत आपूर्ति प्रदान करने से इंकार कर देते थे। बंगाल के जमींदार, जो ब्रिटिशों द्वारा ही निर्माण किये गए थे, अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। साथ ही बिहार के किसानों की उनके जमींदारों शत्रुता ने भी बंगाल के जमींदारों को भयभीत कर दिया था। उसी प्रकार, बंबई, कलकत्ता और मद्रास के बडे़ व्यापारियों ने भी ब्रिटिशों का इसलिए किया क्योंकि उन्हें मुख्य लाभ विदेशी व्यापार और ब्रिटिश व्यापारियों के साथ अच्छे संबंधों के कारण ही प्राप्त होता था।
आधुनिक शिक्षित भारतीय विद्रोहियों से उनके अंधविश्वासों के प्रति आग्रहों और प्रगतिशील सामाजिक उपायों के प्रति उनके विरोध के कारण उनसे घृणा करते थे। शिक्षित भारतीय अपने देश से पिछडे़पन को समाप्त करना चाहते थे। उनकी यह गलत धारणा थी कि ब्रिटिश शासन उन्हें आधुनिकीकरण के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होगा, जबकि जमींदारों, पुराने शासकों और सामंतों और अन्य सामंती तत्वों के नेतृत्व में विद्रोही देश को पिछडेपन की ओर ले जायेंगे। उन्हें यह समझने के लिए आगे काफी दशक लगे कि विदेशी शासन देश का आधुनिकीकरण करने में असमर्थ था, इसके विपरीत वह देश को और अधिक गरीबी में धकेल देगा और उसे पिछड़ा ही रखेगा।
इस संबंध में 1857 के क्रांतिकारी अधिक दूरदृष्टा साबित हुए और उनके पास विदेशी शासन की बुराइयों, और उसे हटाने की आवश्यकता की बेहतर स्वाभाविक समझ थी। हालांकि शिक्षित प्रबुद्ध वर्ग के विपरीत वे इस बात को नहीं समझ सके कि देश विदेशी शासन का शिकार इसीलिए हुआ था क्योंकि वह अभी तक सडी गली और अप्रचलित प्रथाओं, परंपराओं और संस्थाओं से चिपका हुआ था। वे यह देखने में असफल रहे कि राष्ट्रीय निर्वाण वापस सामंतवादी साम्राज्य की ओर जाने से नहीं प्राप्त होगा बल्कि यह आधुनिक समाज, वैज्ञानिक शिक्षा और आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की दिशा में आगे बढने से ही प्राप्त हो पायेगा। किसी भी सूरत में यह नहीं कहा जा सकता कि शिक्षित भारतीय राष्ट्र विरोधी या विदेशी शासन के प्रति वफादार थे। जैसे 1858 के बाद की घटनाओं ने दिखाया, वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक शक्तिशाली और आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व करने वाले थे।
भारतीयों के बीच एकता का अभाव भारतीय इतिहास के इस कालखण्ड के दौरान अपरिहार्य था। आधुनिक राष्ट्रवाद अभी भी भारत में अज्ञात था। देशभक्ति का अर्थ था अपने छोटे से मोहल्ले, या क्षेत्र या अधिक से अधिक अपने राज्य के प्रति प्रेम। अखिल भारतीय हित और इस बात के प्रति जागरूकता, कि ये हित ही सभी भारतीयों को एक सूत्र में बांधे रखते हैं, अभी भी हमारे यहां आना बाकी थी। वास्तव में 1857 के विद्रोह ने सभी भारतीय लोगों को साथ लाने में और उनमें यह जागरूकता जगाने में कि वे सभी एक ही देश के निवासी हैं, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
अंत में, एक बढ़ती पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद, और विश्व भर में उसकी शक्ति की ऊँचाई, और अधिकांश भारतीय राजाओं और सामंतों द्वारा किया गया उसका समर्थन, सैन्य दृष्टि से विद्रोहियों के लिए काफी मजबूत और अधिक शक्तिशाली साबित हुआ। ब्रिटिश सरकार ने देश में मनुष्यों, धन और शस्त्रों की असंख्य आपूर्ति की, हालांकि बाद में भारतीयों को अपने स्वयं के दमन की संपूर्ण कीमत चुकानी पड़ी।
इतिहास ने हमें बार-बार यह दिखाया है कि एक शक्तिशाली कृत संकल्प शत्रु के विरुद्ध युद्ध केवल साहस के बूते पर ही नहीं जीता जा सकता, जिसने अपने प्रत्येक कदम की व्यवस्थित योजना बनाई हुई है। विद्रोहियों को प्रारंभिक आघात तब लगा जब 20 सितंबर 1857 को एक लंबे और भीषण युद्ध के बाद ब्रिटिशों ने दिल्ली पर कब्जा किया। वृद्ध सम्राट बहादुर शाह को बंदी बना लिया गया। शाही राजकुमारों को बंदी बनाकर वहीं निर्ममतापूर्वक उनकी हत्या कर दी गई। सम्राट पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें रंगून निष्कासित कर गया जहां 1862 में अपनी उस दुर्दशा पर विलाप करते हुए, जिसने उसे उसके जन्मस्थान के शहर से बहुत दूर दफन किया था, उनकी मृत्यु हुई। इसी के साथ मुगलों के उस महान घराने का अंत हुआ जिसकी अधिकांश महानता औरंगजेब के बाद ही नष्ट हो गई थी।
दिल्ली के पतन के साथ ही विद्रोह का केंद्रबिंदु ही नष्ट हो गया। विद्रोह के अन्य नेताओं ने वीरतापूर्ण परंतु असमान संघर्ष जारी रखा, जिसमें ब्रिटिशों ने उनके विरुद्ध शक्तिशाली आक्रमण किये। जॉन लॉरेंस, आउट्रम, हेवलॉक, नील कैंपबेल और ह्यूग रोज कुछ ऐसे ब्रिटिश सेनापति थे जिन्हें इस अभियान के दौरान सैन्य प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। एक के बाद एक इस विद्रोह के सभी महान नेताओं का पतन हुआ।
1859 के अंत तक भारत पर ब्रिटिशों का अधिकार पूर्णतः पुनः प्रस्थापित हो गया, परंतु विद्रोह पूरी तरह बेकार नहीं गया। यह हमारे इतिहास का श्रेष्ठ मील का पत्थर है। हालांकि यह पुराने तरीकों से और पारंपरिक नेतृत्व के अधीन भारत को बचाने का एक अतिसाहसिक प्रयास था, फिर भी यह भारतीय लोगों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वतंत्रता के लिए किया गया पहला संघर्ष था। इसने आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव का मार्ग प्रशस्त किया।
1857 के ओजस्वी और देशभक्तिपूर्ण संघर्ष, और इसके पहले की विद्रोहों की श्रृंखला ने भारत के लोगों के दिलोदिमाग पर एक अविस्मरणीय छाप छोडी है, इसने ब्रिटिश शासन के विरोध की बहुमूल्य स्थानीय परंपराओं की स्थापना की है, और बाद के स्वतंत्रता के संघर्ष में एक सर्वकालिक प्रेरणा स्रोत का कार्य किया है। इस विद्रोह के नायक शीघ्र ही देश भर में पारिवारिक नाम बन गए, हालांकि उनके नामों के उच्चारण मात्र से शासकों की त्योरियां चढ़ जाती थीं।
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