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स्वतंत्रता संग्राम की महत्वपूर्ण हस्तियां
1.0 चक्रवर्ती राजागोपालाचारी
सालेम (तमिलनाडु) के रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में जन्मे सी. राजागोपालाचारी वकील बनकर अपने वकालत पेशे में अच्छे से स्थापित हुए। 1919 में गांधीजी के मिलने के पश्चात् वे राजनीति में आए। उनका राजनीतिक सफर विभिन्न उपलब्धियों से भरा हुआ है। उन्हें प्यार से ‘राजाजी’ पुकारते थे।
1919 में महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, राजाजी उनसे इतने प्रभावित हुए कि उनके अनुयायी हो गए। 1921 में वे कांग्र्रेस के जनरल सेक्रेटरी (महासचिव) के रूप में नियुक्त हुए तब उन्हें जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, मौलाना आज़ाद, राजेन्द्र प्रसाद आदि से परिचित होने का मौका मिला।
गांधीजी के असहयोग आंदोलन के लिए उन्होंने अपनी वकालत छोड़ दी।
1921-22 तक वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव व 1922-24 तक कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के सदस्य रहे। तमिलनाडु में नागरिक अवज्ञा आंदोलन के प्रचार में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई। अपै्रल 1930 में तंजौर तट पर त्रिचिनोपल्ली से वैदरान्यम तक नमक सत्याग्रह का नेतृत्व करने के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया।
1937 के चुनाव में मद्रास में कांग्रेस को उन्होंने विजयी बनाया। 1937-39 मद्रास के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने ये शुरूआतें कीं
- मद्रास मंदिर प्रवेश कानून (1938), और
- राज्य में शराब निषेध।
1942 में क्रिप्स मिशन योजना अस्वीकृत करने पर उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से इस्तीफा दिया। वे श्री भूलाभाई देसाई से सहमत थे कि स्वतंत्रता पश्चात्, यदि मुस्लिम-बहुल प्रांत जनमत-संग्रह के ज़रिये भारत से अलग होना चाहें, तो हो सकते है।
सी. राजागोपालाचारी सूत्र (या सी.आर.सूत्र या राजाजी सूत्र) ब्रिटिश से भारत की स्वतंत्रता के लिए सर्वभारत मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच के अवरोध को हल करने के लिए सी. राजागोपालाचारी ने यह सूत्रित प्रस्ताव रखा था। लीग का मानना था कि अगर भारत को स्वतंत्रता मिलती है तो मुस्लिमों का भी अपना राष्ट्र्र होना चाहिए। कांग्रेस, जिसमें हिन्दू व मुस्लिम दोनों सदस्य थे, भारत के बंटवारे से असहमत थी। द्वितीय युद्ध प्रारंभ होने पर ब्रिटिश शासन दोनों पार्टियों की सहमति चाहता था ताकि युद्ध में भारतीय सहायता ली जा सके।
सी आर सूत्र के नियम
- लीग को भारतीय स्वतंत्रता की मांग को मानना चाहिए व कांग्रेस को स्थिति बदलने तक प्रावधानिक सरकार बनाने में सहयोग करना चाहिए।
- युद्ध समाप्ति पर एक समिति नियुक्त होगी जो उन जिलों को चिन्हित करेगी जहां मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक है, व उन क्षेत्रों में जनमत संग्रह कराया जाएगा जिसमें सभी रहवासी (गैर-मुस्लिम भी) वयस्क मताधिकार के आधार पर शामिल होंगे।
- जनमत-संग्रह के पूर्व विभाजन के मुद्दे पर सभी दल अपनी राय रख सकते हैं।
- यदि विभाजन हुआ, तो कुछ आवश्यक सेवाओं जैसे सुरक्षा, संप्रेषण, व्यापार आदि की निरंतरता बनाए रखने हेतु एक समझौता होगा।
- यदि जनता का स्थानान्तरण करना पड़ा, तो वह पूर्णतः स्वैच्छिक होगा।
- ब्रिटेन द्वारा भारत सरकार को पूर्ण सत्ता हस्तांतरण करने पर ही ये शर्तें लागू होंगी।
राजागोपालाचारी ने गर्वनर के तौर पर बंगाल (अगस्त-नवबंर 1947) में सेवाऐं दीं व गर्वनर जनरल की कार्यकारी परिषद (1946-47) के सदस्य रहे। वे भारत के पहले व आखिरी भारतीय गवर्नर जनरल थे (1948-50)। पहले चुनाव के बाद वे भारत की केन्द्र सरकार में पहले गृहमंत्री नियुक्त हुए (1951)।
1950 में वल्लभभाई पटेल की मृत्यु के पश्चात, राजागोपालाचारी गृहमंत्री बने, लेकिन कुछ मुद्दों पर नेहरू से असहमत होने के कारण 10 महीने में पद छोड़ दिया। बाद में वे मद्रास एसेम्बली के मुख्यमंत्री बने। उनके कार्यकाल के दौरान तेलुगुभाषी लोगों के सतत् आंदोलन से आंध्रप्रदेश राज्य का गठन मद्रास राज्य से अलग होकर हुआ। प्रारंभ में भाषाई आधार पर राज्य विभाजन पर वे सहमत नहीं थे, परंतु घोर विरोध के बाद उन्हें सहमत होना पड़ा। मुख्यमंत्री रहते हुए प्रारंभिक शिक्षा में बदलाव के उनके प्रस्तावों को द्रविड़ दलों ने अस्वीकृत कर दिया था। अप्रैल 1954 में उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था।
1957 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी व दो साल पश्चात् मुरारी वैद्य और मीनू मसानी के साथ स्वतंत्र पार्टी का गठन किया। इस पार्टी को पूर्व राजसी रिसासतों के शासकों का समर्थन था। राजागोपालाचारी द्वारा दिया शब्द ‘‘लाइसेंस परमिट राज’’ सदा के लिए व्यापार के प्रति अमित्रवत सरकारी नीतियों के लिए प्रयुक्त होने लगा। राजागोपालाचारी की मृत्यु के ढ़ाई दशक पश्चात् श्री पी.वी. नरसिम्हाराव की कांग्रेस सरकार ने 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण शुरू किया।
1967 में मद्रास में कांग्रेस-रहित सरकार के लिए स्वतंत्र पार्टी ने डीएमके और फॉरवर्ड ब्लॉक से गठबंधन किया था व लोकसभा में 45 सीटें पर विजयी हुए थे। तार्किक व दूरदर्शिता के धनी राजनयिक होते हुए, सी. राजागोपालाचारी एक महान समाजवादी व विद्वान पंड़ित थे। रूढ़िवादी धर्म और रिवाजों की उन्होने निंदा की। मुख्यमंत्री रहते हुए समाज सुधार में मद्रास मंदिर प्रवेश नियम 1939, और मद्य निषेध प्रस्ताव मुख्य स्वतंत्रता पूर्व समाज सुधार रहे। हरिजनों व अन्य दलितों को समतुल्य करने की उन्होंने वकालत की व पूना संधि में उनकी मुख्य भूमिका थी।
वे अद्वितीय विद्वान थे। वे अंग्रेजी साहित्य बहुत पढ़ते थे। और थोरओ (Thoreau) और टॉलस्टॉय (Tolstoy) के लेखन से अत्यन्त प्रभावित थे। कई पत्रिकाओं में अंग्रेजी, तमिल में उनके लेख प्रकाशित हुए। स्वराज्य व सत्यमेव जयते पत्रिकाओं के लेखों में राजनीतिक समस्या पर उनके विचार लेख के रूप में विद्यमान रहे। 1954 में भारत रत्न से सम्मानित हुए राजाजी का 1972 में निधन हुआ।
2.0 गोपाल कृष्ण गोखले
गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई 1866 को कोटालुक, महाराष्ट्र्र में हुआ था। भारत के पश्चिम तट पर स्थित यह राज्य बॉम्बे प्रेसीड़ेंसी के अधीन था।
1889 में गोखले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के, समाज-सुधारक महादेव गोविंद रानाडे़ के संरक्षण में, सदस्य बने। आम आदमी के नागरिक अधिकार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए वे दशकों तक सामयिक नेताओं जैसे बाल गंगाधर तिलक, दादा भाई नौरोजी, विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय और एनी बेसेंट के साथ संघर्षरत रहे। वह अपने विचार व नजरिये से मध्यममार्गी थे। ब्रिटिश शासकों से वार्तालाप व परिचर्चा के द्वारा भारतीयों के हकों पर ब्रिटिशों से विनम्र अनुरोध कर प्रयासरत थे। गोखले आयरलैंड़ भी गये व आयरिश राजनयिक अल्फ्रेड वेब को 1894 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्षीय कार्यभार के लिए राजी किया।
अगले वर्ष गोखले, तिलक के साथ, कांग्रेस के संयुक्त सचिव बने। तिलक व गोखले के आंरभिक जीवन की बहुत सी बाते समानांतर थीं जैसे - दोनों चितपावन ब्राम्हण थे (वैसे तिलक गोखले की अपेक्षा धनी थे), दोनों ही एल्फिंस्टन कॉलेज गये, दोनों ही गणित के प्राध्यापक बने व जब वे दोनों कांग्रेस में सक्रिय थे तब वे डेक्कन शिक्षण सोसायटी के महत्वपूर्ण सदस्य थे। किंतु शीघ्र ही, भारतीयों के जीवन सुधार हेतु उनके विचारों की भिन्नता साफ दिखाई पड़ने लगी।
गोखले का तिलक से पहले बड़ा विवाद उनके प्रिय प्रकल्प ‘द एज ऑफ कंसेंट बिल’ जिसे अंग्रेज़ सरकार ने 1891-92 में प्रस्तावित किया था, को लेकर हुआ। गोखले व उनके उदारवादी सहयोगी स्वयं के हिन्दुत्व में फैले अंधविश्वास व दुरूपयोग को खत्म करना व बाल विवाह जैसे अपराध को कनसेंट बिल के द्वारा बंद कराना चाहते थे। वैसे बिल अतिरेकी नहीं था, उसमें सिर्फ मंजूरी की उम्र 10 से बढा़कर 12 कर दी गई थी पर तिलक को इसमें आपत्ति थी; बाल विवाह को खत्म करने पर नहीं बल्कि हिन्दू रीति रिवाज में ब्रिटिश हस्तक्षेप से। तिलक चाहते थे कि ऐसे कानून भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात् स्वयं पर लगाते, न कि अंग्रेज हुकूमत के तहत ऐसा होता। विरोध के बावजूद गोखले व उनके सहयोगी जीत गये। यह बिल बाम्बे प्रेसीडेंसी में कानून बन गया।
1905 में गोखले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। गोखले ने अपने प्रभाव का उपयोग अपने लंबे समय से विरोधी रहे तिलक को 1906 में कांग्रेस के अध्यक्षीय पद के लिए सहयोग देने से मना कर दिया। अब तक कांग्रेस बंट चुकी थी। कांग्रेस के नेता तिलक व गोखले क्रमशः संयमित और उग्रवादी थे। (‘‘उग्रवादी’’ को अब ज्यादा ठीक पद ‘‘आक्रामक राष्ट्रवादी’’ कहा जाने लगा था)। तिलक ब्रिटिश साम्राज्य को बाहर करने के लिए जनआंदोलन व क्रांति की बात करते थे, वहीं गोखले संयमित सुधारक थे। परिणामस्वरूप कांगेस पार्टी दो भागों में बंट गई व एक दशक तक उसके प्रभाव में कमी आई। गोखले के निधन पश्चात 1916 में दोनों भागों में संधि हुई। 1907 में सूरत में औपचारिक विच्छेद हुआ।
भारत सेवक समाजः 1905 में जब गोखले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, और अपनी राजनीतिक सत्ता के शिखर पर थे, तो उन्होंने भारतीय शिक्षा के विस्तार के अपने दिल के विशेष रूप से करीब के उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए भारत सेवक समाज की स्थापना की। गोखले के अनुसार, वास्तविक राजनीतिक परिवर्तन तभी संभव होगा जब भारत की नई पीढ़ी अपने देश के प्रति और एक दूसरे के प्रति अपनी नागरिक और देशभक्ति की जिम्मेदारी के प्रति सुशिक्षित होगी यह मानते हुए कि विद्यमान शैक्षणिक संस्थाएं और भारतीय लोक सेवा देश के लोगों को इस प्रकार की राजनीतिक शिक्षा प्रदान के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान नहीं कर पा रही हैं, गोखले का विश्वास था कि भारत सेवक समाज इस कमी को पूरा करने में सक्षम होगा। भारत सेवक समाज की अपनी प्रस्तावना में गोखले ने लिखा है कि ‘‘भारत सेवक समाज ऐसे लोगों को प्रशिक्षित करेगा, जो अपना जीवन धार्मिक भावना से देश के लिए समर्पित करने के लिए तत्पर हैं, और जो सभी संवैधानिक तरीकों से भारतीयों के राष्ट्र हितों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रयत्नशील होंगे।‘‘
समाज ने सही मायनों में भारतीय शिक्षा को प्रोत्साहित करने के कार्य को अपने हाथों में लिया और इसकी विभिन्न परियोजनाओं के अंतर्गत चलित पुस्तकालयों का गठन, विद्यालयों की स्थापना, और फैक्ट्री श्रमिकों के लिए रात्रि शालाओं की स्थापना शामिल थीं। हालांकि, गोखले की मृत्यु के बाद समाज का अधिकांश उत्साह ठंडा़ पड़ गया, फिर भी आज यह विद्यमान है, किंतु इसकी सदस्यता अत्यंत अल्प है।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के साथ भागीदारीः हालांकि गोखले भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्राथमिक सदस्यों में से एक थे, परंतु मूलरूप से वे स्वतंत्रता प्राप्ति की अपेक्षा सामाजिक सुधारों के प्रति अधिक चिंतित थे। उनका मानना था कि ऐसे सुधार विद्यमान ब्रिटिश संस्थाओं के भीतर काम करके ही सबसे अच्छे तरीके से हासिल किये जा सकते हैं। उनके इस दृष्टिकोण ने उन्हें तिलक जैसे अधिक प्रखर राष्ट्रवादियों का शत्रु बना दिया। इस प्रकार के विरोध की चिंता किये बिना, अपने सुधार के उद्देश्यों को साध्य करने के लिए गोखले अपने संपूर्ण राजनीतिक जीवन के दौरान ब्रिटिशों के साथ सीधे काम करते रहे।
1899 में, गोखले बॉम्बे विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए, वे वहां 1902 में साम्राज्यवादी विधान परिषद में निर्वाचित होने तक कार्यरत रहे। वहां उनकी प्रतिष्ठा एक अत्यंत विद्वान और ज्ञाता के रूप में बढ़ी और उन्होंने बजट चर्चाओं के दौरान महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रिटिशों के बीच गोखले की प्रतिष्ठा इस हद तक बढ़ी हुई थी, कि उन्हें राज्य सचिव लार्ड जॉन मोर्ले से मिलने के लिए लंदन आमंत्रित किया गया, और जॉन मोर्ले के साथ उनके घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुए। यात्रा के दौरान गोखले ने 1909 में शुरू किये गए मॉर्ले-मिंटो सुधारों को बनाने में भी काफी सहायता प्रदान की 1904 की नव वर्ष प्रतिष्ठितों की सूची में गोखले को सीआयई (भारतीय साम्राज्य के आदेश के साथी) के रूप में नियुक्त किया गया, जो उनकी सेवाओं के लिए साम्राज्य द्वारा प्रदान की गई औपचारिक मान्यता थी।
जिन्ना और गांधी दोनों के प्रतिपालक (Mentor) : अपने रचनात्मक वर्षों के दौरान गोखले महात्मा गांधी के प्रतिपालक के रूप में प्रसिद्ध थे। 1912 में गांधी जी के निमंत्रण पर गोखले ने दक्षिण अफ्रीका की यात्रा की। एक युवा अधिवक्ता के रूप में दक्षिण अफ्रीका में साम्राज्य के विरुद्ध अपने संघर्ष से वापस आने पर गांधी जी को गोखले की ओर से व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, जिसमें भारत के प्रति ज्ञान और भारतीयों के समक्ष की समस्याओं के ज्ञान का समावेश था। 1920 तक गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेता के रूप में उभर कर आये। गांधी ने अपनी आत्मकथा में गोखले को अपने प्रतिपालक और मार्गदर्शक के रूप में निरूपित किया है। गांधी जी ने गोखले की एक प्रशंसनीय नेता और महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञ के रूप में पहचान की और उन्होंने गोखले का वर्णन ‘‘स्फटिक के समान स्वच्छ, मेमने की तरह कोमल, शेर की तरह साहसी और गलती के लिए शौर्यवान और राजनीतिक क्षेत्र में एक निर्दोष व्यक्ति‘‘ के रूप में किया है।
गोखले के प्रति अपनी असीम श्रद्धा के बावजूद, राजनीतिक सुधार प्राप्त करने के लिए पश्चिमी संस्थाओं के प्रति गोखले के विश्वास को गांधीजी ने स्वीकार नहीं किया, और अंततः गोखले के भारत सेवक समाज की सदस्यता ग्रहण करने से अस्वीकार कर दिया।
राजनीति और अर्थशास्त्र का गोखले संस्थान (The Gokhale Institute of Politics and Economics): आमतौर पर गोखले संस्थान कहा जाने वाला यह संस्थान अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अनुसंधान करने वाला देश का सबसे पुराना अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान है। यह महाराष्ट्र के पुणे में डे़क्कन जिमखाना क्षेत्र के बीएमसीसी मार्ग पर स्थित है। यह संस्थान श्री आर आर काले द्वारा भारत सेवक समाज को दिए गए दान की सहायता से स्थापित किया गया। भारत सेवक समाज इस संस्थान के न्यासी हैं।
मृत्युः अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक गोखले राजनीतिक दृष्टि से पूर्ण रूप से सक्रिय रहे। इसमें विस्तीर्ण विदेशी यात्रायें भी शामिल थीं। 1908 की अपनी इंग्लैंड़ की यात्रा के साथ-साथ 1912 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की यात्रा भी की, जहां उनके अनुयायी गांधी वहां रह रहे भारतीय अल्पसंख्यकों की स्थिति सुधारने के लिए काम कर रहे थे। इसी दौरान उनकी भारत सेवक समाज, कांग्रेस और विधान परिषद के साथ संलग्नता भी जारी रही, जबकि वे भारतीय शिक्षा की उन्नति की सदा पैरवी करते रहे। इन सभी तनावों ने अंततः अपना असर दिखाया और 19 फरवरी 1915 में 49 वर्ष की आयु में गोखले का निधन हो गया।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर प्रभावः भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर गोखले का गहरा प्रभाव था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के उच्चतम पदों से अपने संबंधों के माध्यम से गोखले ने औपनिवेशिक स्वामियों को शिक्षित भारतीयों की एक नई पीढ़ी की क्षमताओं को मान्यता प्रदान करने के लिए और उन्हें शासन प्रक्रिया में पहले किसी भी समय से अधिक सम्मिलित करने के लिए मजबूर किया। राजनीति के आध्यात्मीकरण, सामाजिक सुधार और सार्वभौमिक शिक्षा के गोखले के विश्वास ने भारतीय राजनीतिक पटल के अगले महान व्यक्ति मोहनदास गांधी को गहरे तक प्रभावित किया था। पश्चिमी राजनीतिक संस्थाओं और शास्त्रीय उदारवाद के प्रति उनके अंतिम विश्वास को हालांकि गांधी जी ने अस्वीकार कर दिया था, फिर भी यह विड़म्बना ही है कि वह वेस्टमिनिस्टर मॉडल के रूप में फलीभूत हुआ और 1950 में स्वतंत्र भारत ने उसे अंगीकार किया।
3.0 लाला लाजपत राय
प्रसिद्ध लाल-बाल-पाल के ‘‘लाल‘‘, लाला लाजपत राय भारत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लड़ने वाले प्रमुख नेताओं में से एक थे। वे पंजाब केसरी (पंजाब का शेर) के नाम से भी लोकप्रिय थे।
लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी 1865 को आज के पंजाब के मोगा जिले के धुड़ीके गांव में हुआ था। वे मुंशी राधा किशन आजाद और गुलाब देवी की सबसे बडी संतान थे। उनकी माँ ने उन्हें मजबूत नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाया था।
लाला लाजपत राय ने वकालत के अध्ययन के लिए 1880 में लाहौर के शासकीय महाविद्यालय में प्रवेश लिया। महाविद्यालय में अपने अध्ययन के दौरान वे लाला हंसराज और पंड़ित गुरुदत्त जैसे देशभक्तों और भविष्य के स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में आये। ये तीनों पक्के मित्र बन गए और स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्यसमाज के सदस्य बन गए। 1885 में उन्होंने अपनी वकालत की पदवी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की और हिसार में अपनी वकालत शुरू की। वकालत के अलावा लालाजी दयानंद महाविद्यालय के लिए निधि एकत्र करते थे, आर्यसमाज के कार्यक्रमों में भाग लिया करते थे, और कांग्रेस की गतिविधियों में भी भाग लिया करते थे। वे हिसार नगर निगम के सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए, और बाद में, इसके सचिव निर्वाचित हुए। 1892 में वे लाहौर चले गए।
लाला लाजपत राय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन प्रमुख हिंदू राष्ट्रवादी नेताओं में से एक थे। वे प्रसिद्ध लाल-बाल-पाल त्रयी का हिस्सा थे। त्रयी के अन्य दो नेता थे बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चन्द्र पाल। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गोपालकृष्ण गोखले के नेतृत्व वाले उदारवादी गुट के विपरीत उग्रवादी गुट से थे। बंगाल के विभाजन के विरुद्ध आंदोलन में लालाजी ने सक्रियता से भाग लिया। सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, बिपिन चंद्र पाल और अरबिन्दो घोष के साथ, उन्होंने बंगाल और देश को स्वदेशी के प्रति जोरदार अभियान के प्रति प्रेरित किया। रावलपिंड़ी में खलबली मचाने के आरोप में 3 मई 1907 को लालाजी को गिरतार किया गया। उन्हें छह महीने के लिए मंड़ाले के कारावास में रखा गया, और 11 नवंबर 1907 को रिहा किया गया।
लालाजी का मानना था कि राष्ट्र के हित की दृष्टि से आवश्यक था कि विदेशों में प्रचार करके भारत की स्थिति को समझाया जाए, क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन ने एक उग्र रूप ले लिया था। इसी उद्देश्य से अप्रैल 1914 में वे ब्रिटेन के लिए रवाना हो गए। इसी समय द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया और वे भारत वापस नहीं आ पाये। वे भारत के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से अमेरिका भी गए। वहां उन्होंने इंडियन होम लीग सोसाइटी ऑफ अमेरिका की स्थापना की, और ‘‘यंग इंडिया‘‘ नामक एक पुस्तक भी लिखी। पुस्तक में भारत में ब्रिटिश शासन की काफी भर्त्सना की गई थी, और इसके छपने से पहले ही वह ब्रिटेन और भारत में प्रतिबंधित कर दी गई थी। 1920 में विश्व युद्ध समाप्त होने के पश्चात ही वे भारत वापस आ पाये।
भारत वापस आने के बाद, लाला लाजपत राय ने असहयोग आंदोलन के एक भाग के रूप में जलियांवाला कत्लेआम के विरुद्ध पंजाब विरोध का नेतृत्व किया। उन्हें कई बार हिरासत में लिया गया। 1922 के चौरी-चौरा कांड़ के बाद असहयोग आंदोलन को स्थगित करने के गांधीजी के निर्णय के साथ उन्होंने असहमति व्यक्त की, और कांग्रेस स्वतंत्रता पार्टी की स्थापना की, जिसका झुकाव हिंदू उन्मुख था।
1928 में ब्रिटिश सरकार ने संवैधानिक सुधारों पर चर्चा करने के लिए साइमन आयोग को भारत भेजने का फैसला किया। इस आयोग में कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था। इसने भारतीयों को बुरी तरह से नाराज कर दिया। 1929 में जब आयोग भारत आया तो उसके विरुद्ध देश भर में उग्र विद्रोह प्रदर्शन किये गए। ऐसे ही एक प्रदर्शन का नेतृत्व स्वयं लाला लाजपत राय ने किया था। हालांकि प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से निकाला जा रहा था, फिर भी अंग्रेज सरकार ने इस पर निर्दयतापूर्वक लाठी चार्ज कर दिया। लाला लाजपत राय को सिर में गंभीर चोटें लगीं और अंततः 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया। भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ने वाले नेताओं में लाला लाजपत राय एक महत्वपूर्ण और प्रमुख नेता थे। उनके जीवन और कार्यों ने साबित कर दिया कि पंजाब केसरी (पंजाब का शेर) पदवी उनके लिए कितनी सार्थक थी।
4.0 मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का वास्तविक नाम अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन था। वे मौलाना आज़ाद के नाम से लोकप्रिय थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख और अग्रणी नेता थे। साथ ही वे एक प्रसिद्ध विद्धान और कवि भी थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अरबी, अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी, फारसी और बंगाली जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद एक श्रेष्ठ वक्ता थे, जैसा कि उनके नाम से भी स्पष्ट है। अबुल कलाम का शाब्दिक अर्थ है ‘‘संवाद के ईश्वर।‘‘ धर्म और जीवन की संकीर्ण मानसिकता से मुक्ति के एक प्रतीक स्वरुप उन्होंने आज़ाद उपनाम का अंगीकार किया।
मौलाना अबुल कलाम का जन्म 11 नवंबर 1888 को मक्का में हुआ था। उनके पूर्वज बाबर के समय में हेरात (अफगानिस्तान का एक शहर) से आये थे। आज़ाद विद्धान मुस्लिम परिवार, या मौलाना, के वंशज थे। उनकी माँ एक अरब महिला थी और शेख मोहम्मद जाहेर वत्री की पुत्री थी, और उनके पिता मौलाना खैरुद्दीन, अफगान वंश के एक बंगाली मुस्लिम थे। सिपाही विद्रोह के समय खैरुद्दीन ने भारत छोड़ दिया और वे मक्का जाकर बस गए। 1890 में वे अपने परिवार के साथ भारत वापस आ गए।
उनकी एक रूढ़िवादी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण आज़ाद को पारंपरिक इस्लामिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी। उनकी शिक्षा घर पर ही कराई गई, पहले उनके पिता द्वारा और बाद में नियुक्त शिक्षकों द्वारा, जो स्वयं अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ थे। आज़ाद ने सबसे पहले अरबी और फारसी की शिक्षा ग्रहण की और बाद में दर्शनशास्त्र, ज्यामिति, गणित और बीजगणित की। उन्होंने स्वाध्याय से अंग्रेजी, विश्व इतिहास और राजनीतिशास्त्र का अध्ययन किया।
आज़ाद की शिक्षा-दीक्षा और प्रशिक्षण एक मौलवी बनने की दृष्टि से की गई थी। उन्होंने कुरान की पुनर्व्याख्या करते हुए कई रचनाएँ रचीं। उनकी विद्वत्ता ने उन्हें तक्लीक या अनुसारिता की परंपरा का परित्याग करने और तज़्दीद या नवाचार के सिद्धांतों को स्वीकार करने में सक्षम बनाया। उनकी रूचि जमालुद्दीन अफगानी के अखिल इस्लामी सिद्धांतों और सर सय्यद अहमद खान के अलीगढ़ विचार में विकसित हुई। अखिल इस्लामी सिद्धांतों से ओतप्रोत होकर उन्होंने अफगानिस्तान, इराक, मिस्र, सीरिया, और तुर्की की यात्राएं कीं। इराक में उनकी मुलाकात निर्वासित क्रांतिकारियों के साथ हुई, जो ईरान में एक संवैधानिक सरकार की स्थापना के लिए लड़ रहे थे। मिस्र में उनकी मुलाकात शेख मुहम्मद अब्दुह और सईद पाशा और अरब विश्व के अन्य क्रांतिकारियों के साथ हुई। कांस्टेंटिनोपल (इस्तांबुल) में उन्हें युवा क्रांतिकारियों के आदर्शों और भावनाओं की जानकारी मिली। इन सारे संपर्कों ने उन्हें एक राष्ट्रवादी क्रन्तिकारी के रूप में परिवर्तित कर दिया।
विदेश से वापसी के पश्चात्, आज़ाद बंगाल के दो प्रमुख क्रांतिकारियों, औरोबिन्दो घोष और श्री श्याम सुंदर चक्रवर्ती से मिले और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रान्तिकारी आंदोलन में शामिल हो गए। आज़ाद ने पाया कि क्रन्तिकारी गतिविधियां केवल बंगाल और बिहार तक ही सीमित थीं। दो वर्ष के अंदर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने गुप्त क्रन्तिकारी केंद्र समूचे उत्तर भारत और मुंबई में स्थापित करने में योगदान दिया। उस दौरान उनके अधिकांश क्रान्तिकारी मुस्लिम विरोधी थे, क्योंकि उन्हें लगता था की ब्रिटिश सरकार मुस्लिमों का उपयोग भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के विरुद्ध कर रही थी। मौलाना आज़ाद ने अपने सहयोगियों को समझने की कोशिश की कि वे मुस्लिमों के विरुद्ध शत्रुता को छोड़ दें।
1912 में मौलाना आज़ाद ने क्रांतिकारी संगठन में मुस्लिमों की भर्ती को बढ़ाने के उद्देश्य से अल-हिलाल नामक एक उर्दू साप्ताहिक पत्रिका शुरू की। अल-हिलाल ने मॉर्ले-मिंटो सुधारों के दौरान दोनों समुदायों के बीच बढ़ी हुई शत्रुता को कम करने और हिंदू मुस्लिम एकता को कायम करने की दिशा में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया। अल-हिलाल एक क्रांतिकारियों की आवाज बन गया, जो उग्रवादी विचारधारा को हवा देने का काम करता था। सरकार ने अल-हिलाल को पृथकतावादी विचारों का प्रचारक मान कर 1914 में उस पर प्रतिबंध लगा दिया। उसके बाद मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अल-बलाघ नामक एक और साप्ताहिक की शुरुआत भारतीय राष्ट्रवाद और हिंदू-मुस्लिम एकता पर आधारित क्रांतिकारी विचारों के प्रचार और प्रसार के अपने उसी उद्देश्य से फिर से की। 1916 में सरकार ने इस पत्रिका पर भी प्रतिबंध लगा दिया और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को कलकत्ता से निष्कासित कर दिया और रांची में उन्हें गिरतार कर लिया, जहां से उन्हें 1920 में विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात ही रिहा किया गया।
अपनी रिहाई के बाद, आज़ाद ने मुस्लिम समुदाय को खिलाफत आंदोलन के माध्यम से जगाया। इस आंदोलन का उद्देश्य ब्रिटिश कब्जे वाले तुर्की में खलीफा को प्रमुख के रूप में पुनर्प्रतिस्थापित करना था (प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात्)। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने गांधीजी द्वारा शुरू किये गए असहयोग आंदोलन का समर्थन किया, और 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवेश किया। उन्हें कांग्रेस के दिल्ली के विशेष अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया था (1923)। गांधीजी के नमक सत्याग्रह के एक भाग के रूप में नमक कानून का उल्लंघन करने के आरोप में 1930 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को एक बार फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस दौरान उन्हें ड़ेढ़ वर्ष के लिए मेरठ जेल में रखा गया 1940 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस के अध्यक्ष बने (रामगढ़) और इस पद पर 1946 तक बने रहे। वे विभाजन के घोर विरोधी थे और स्वायत्त प्रांतों के संघ के समर्थक थे, जिनके अपने स्वतंत्र संविधान किंतु समान रक्षा और अर्थव्यवस्था हो। विभाजन ने उन्हें अत्यंत दुखी कर दिया, और उनका एक ऐसे एकीकृत राष्ट्र का स्वप्न टूट गया था, जहां हिंदू और मुस्लिम साथ-साथ रहते और साथ-साथ तरक्की करते।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने 1947 से 1958 के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य किया (स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री)। 22 फरवरी 1958 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हुआ। उनके द्वारा देश को दिए गए अमूल्य योगदान के लिए मौलाना अबुल कलाम आजाद को 1992 में मरणोपरांत देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया।
उनकी पुस्तक इंडिया विन्स फ्रीडम के 30 पृष्ठ उनकी मृत्यु के तीस वर्षों बाद प्रकाशित किये गए। इसमें उन्होंने देश के विभाजन के लिए नेहरू और सरदार पटेल दोनों को दोषी माना है। मौलाना के अनुसार, 1937 में उत्तर प्रदेश में प्रांतीय चुनावों के बाद दो मुस्लिम लीग सदस्यों को मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्रियों के रूप में शामिल करने से इंकार करके नेहरू ने गलती की। इसने जिन्ना को कांग्रेस नेतृत्व के प्रति संशयात्मक बना दिया, जिनका वर्णन वह ‘‘हिंदू‘‘ नेताओं के रूम में करने लगे।
जवाहर लाल नेहरू द्वारा की गई दूसरी गलती उनका जुलाई 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद प्रेस को दिया गया वह वक्तव्य था, जिसमें उन्होंने कहा था कि कैबिनेट आयोग योजना बदली जा सकती है। यह योजना कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों दलों द्वारा स्वीकार की गई थी, और इस प्रकार के संशयात्मक और आपसी अविश्वास के वातावरण में इस प्रकार का वक्तव्य देना निश्चित रूप से गलत था। इसने अंततः जिन्ना को विभाजन की मांग पर अडे़ रहने के लिए मजबूर किया, और अंग्रेजों को वह प्राप्त हो गया था जो उन्हें चाहिए था।
5.0 जे बी कृपलानी और सुचेता कृपलानी
जीवतराम भगवानदास कृपलानी, जो आचार्य कृपलानी के नाम से लोकप्रिय हुए, का जन्म 1988 में हैदराबाद (सिंध) में एक उच्च मध्यम वर्गीय हिंदू क्षत्रिय आमिल परिवार में हुआ था। उनके पिता, काका भगवानदास शासकीय सेवा में एक तहसीलदार (राजस्व और न्यायिक अधिकारी) थे। वह एक कट्टर वैष्णव थे, जो उनके मुख्य पारिवारिक मकान के सामने बनी कुटिया में एक सीधा-सादा जीवन व्यतीत करते थे। उनके परिवार और पड़ोस के लोग उनका काफी सम्मान करते थे, किंतु उस सम्मान में कहीं-ना-कहीं एक भय का तत्व था। क्योंकि एक सम्माननीय व्यक्तित्व के साथ ही वे बहुत गुस्सैल भी थे और गुस्से में किसीको भी नहीं बख्शते थे।
उनके सात पुत्र और एक पुत्री थी, जिनमें जे.बी. कृपलानी उनके छठे पुत्र थे। कृपलानी के दूसरे और तीसरे भाई ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। उनमें से एक की खिलाफत आंदोलन में फरारी के दौरान मृत्यु हो चुकी थी, और ऐसा माना जाता है, कि उन्होंने भारत पर आक्रमण करने के लिए अफगानियों के साथ साजिश की थी। दूसरे भाई की तुर्की में प्रथम महायुद्ध के पहले यूनानियों के विरुद्ध उसकी रक्षा करते हुए मृत्यु हो गई थी। उनके सबसे बडे़ भाई पहले आमिल थे जिन्होंने एक स्वदेशी दुकान खोली थी, और बाद में एक चमड़े की दुकान खोली थी।
उनके सातवें भाई ने सन्यासी का चोला ओढ़ लिया था, और उनमें इतनी आग थी, कि कृपलानी उनसे ड़रते थे (यदि वे किसी से ड़रते थे तो)। कृपलानी जी की बहन ने स्वयं को राष्ट्र के प्रति समर्पित कर दिया था। उनका परिवार भावुक व्यक्तियों का ऐसा परिवार था जो अपनी आँखें हमेशा चौकन्नी और गर्मजोशी से भरा दिल रखता था। ये सभी बहुत ही कम सोते थे, उनकी जुबानें बहुत तीखी थीं, लेकिन वे सभी नापसंदों में भी बहुत ही पसंद किये जाते थे। मूलरूप से यह एक ऐसे समाज में बहुत ही धार्मिक परिवार था, जिसमें धर्म का मूल्य बहुत ही कम था।
सिंध में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, कृपालानी ने उच्च शिक्षा के लिए बम्बई के विल्सन महाविद्यालय में प्रवेश लिया। हालांकि पढ़ाई के प्रति वे बहुत गंभीर नहीं थे, और अंग्रेजी कविता के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों से घृणा करते थे। उन्होंने अंग्रेज कवियों से उतना ही प्रेम किया, जितनी बाद के जीवन में उन्होंने ब्रिटिश शासकों से घृणा की। वह बंगाल के विभाजन का दौर था, जब विद्यार्थियों में अत्यंत विक्षोभ था। कृपलानी भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके, और उन्होंने विल्सन महाविद्यालय के अधिकारियों के लिए इतनी परेशानियां खड़ी कीं कि अंततः उन्हें सिंध के अपेक्षाकृत शांत वातावरण में कराची के डी.जे. सिंध महाविद्यालय में स्थानांतरित होना पडा। यहाँ भी उन्होंने स्वयं को परेशानियों में डाल लिया। यह 1907 का वर्ष था जब कृपलानी बी ए की कक्षा में थे। महाविद्यालय के प्राचार्य ने भारतीयों के प्रति उनके झूठे होने के बारे में कुछ अपशब्द कहे। तुरंत ही हड़ताल की घोषणा कर दी गई, जहाँ कृपलानी और उनके मित्रों ने राजनीतिक आंदोलन का पहला पाठ सीखा। कृपलानी को महाविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया, और चूंकि उन्हें बम्बई के किसी भी अन्य महाविद्यालय में प्रवेश मिलना संभव नहीं था, अतः वे पूना आ गए, और वहां उन्होंने कुछ राष्ट्रवादियों द्वारा चलाये जा रहे फर्गुसन कॉलेज में प्रवेश लिया। कॉलेज के अधिकारियों ने कृपलानी को किसी भी आंदोलन में भाग ना लेने की चेतावनी दी।
1908 में उन्होंने फर्गुसन कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। बाद में उन्होंने इतिहास और अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर का अभ्यास किया।
कृपलानी ने शिक्षा को अपने पेशे के रूप में चुना। 1912 से 1917 तक उन्होंने बिहार के मुजफ्फरपुर महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में सेवाएं दी। कुछ थोडे़ समय के लिए उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया (1919-1920) और 1920 से 1927 तक उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ में प्राचार्य के रूप में काम किया। 1927 से वे पूरी तरह से आश्रम के कामों में और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिक आंदोलनों में जुट गए। गुजरात विद्यापीठ के अपने कार्यकाल के दौरान उन्हें आचार्य कहा जाने लगा, वह उपाधि जो अंत तक उनके नाम के साथ जुड़ी रही। अपने राजनीतिक सहयोगियों के बीच उन्हें ‘‘दादा’’ या बड़ा भाई कहा जाता था।
कृपलानी पहली बार गांधीजी के संपर्क में 1917 के चंपारण सत्याग्रह के दौरान आये, और वही उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। वे गांधीजी से 1915 में शांतिनिकेतन में भी मिले थे, किंतु उस समय उन्होंने गांधीजी के विचारों के बारे में अधिक नहीं सोचा। वह चंपारण सत्याग्रह ही था जिसने उन्हें पूर्ण रूप से गाँधीवादी बना दिया। उसके बाद से कृपलानी गांधी के अनन्य और समर्पित अनुयायी और गांधी के दर्शन के प्रतिपादक बन गए।
हालांकि वे सामान्य गाँधीवादी नहीं थे। शायद वे गाँधीवादी पंथ से कहीं अधिक गांधी से एक व्यक्ति के रूप में प्रेम करते थे। आमतौर पर एक महापुरुष के अनुयायी शीघ्र ही अपने जीवित स्वामी को एक मृत मूर्ती के रूप में परिवर्तित कर देते हैं, परंतु कृपलानी को अनेक वर्ष जीवित रह कर अपने गुरु को उनकी मृत्यु के बाद भी जीवित रखना था।
उनके जीवन का एक और महत्वपूर्ण मोड़ था 1936 में सुचेता के साथ उनका विवाह। उस समय वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाया करती थीं। उनके चचेरे भाई कृपलानी द्वारा बनारस में स्थापित गांधी आश्रम के सचिव थे, और उन्हीं के माध्यम से वे अपनी होने वाली पत्नी के संपर्क में आये। विवाह गांधी जी के आशीर्वाद के साथ संपन्न हुआ, और नेहरू परिवार के आनंद भवन में भी इसके उपलक्ष में एक कार्यक्रम रखा गया था।
यह उनके जीवन की सबसे प्रसन्न भागीदारी साबित हुई। लगभग चार शतकों तक दोनों पति-पत्नी के बीच गहरी समझदारी कायम रही और हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात दोनों के राजनीतिक विचारों और पार्टी संलग्नता में भिन्नता थी, फिर भी इन मत भिन्नताओं ने उनके पारिवारिक जीवन को लेशमात्र भी प्रभावित नहीं किया।
1920 के दशक के उत्तरार्ध से, कृपलानी ने स्वयं को पूर्ण रूप से कांग्रेस के कामों में समर्पित कर दिया। धीरे-धीरे उन्होंने संगठन में अपना स्थान निर्माण किया, और 1934 से 1945 तक इसके महासचिव रहे। हालांकि वे संगठन में हमेशा अपने आपको पृष्ठभूमि में रखते थे, और उन्होंने कभी भी कुछ अन्य नेताओं की तरह अपने आपको प्रकाश में लाने का प्रयत्न नहीं किया। गांधीजी के शिष्य के रूप में वे एक खामोश कार्यकर्ता के रूप में संतुष्ट थे। 1938 में सुभाष चंद्र बोस के अध्यक्ष चुने जाने के दौरान कांग्रेस पार्टी में पड़ी दरार के दौरान वे गांधीजी के पक्षधर रहे।
1921 से उन्होंने कांग्रेस के सभी आंदोलनों में भाग लिया और विभिन्न अवसरों पर उन्होंने अपने हिस्से की कई जेल यात्रायें भी कीं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, उन्हें गिरफ्तार किया गया, और 1945 में अन्य कांग्रेस नेताओं के साथ ही रिहा किया गया। नवंबर 1946 में वे कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित हुए और सत्ता हस्तांतरण के महत्वपूर्ण काल में उन्होंने कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व किया।
नवंबर 1947 में उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की एक महत्वपूर्ण बैठक की अध्यक्षता की, जहाँ उनके अपने अनेक पूर्व सहयोगियों के साथ मतभेद हुए। कृपलानी ने कांग्रेस पार्टी के संसदीय अंग की तुलना में संगठन अंग को मजबूत करने पर जोर दिया, जिसका नेहरू, पटेल और उन अन्य नेताओं ने विरोध किया, जो अब शासन में थे। पार्टी को मतभेद, असामंजस्य और फूट से बचाने के लिए अंततः कृपलानी ने पार्टी अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। डॉ राजेंद्र प्रसाद अध्यक्ष के रूप में उनके उत्तराधिकारी बने।
हालांकि वे संविधान सभा के सदस्य बने रहे, फिर भी कृपलानी अपने पूर्व सहयोगियों से दूर होते गए, और अंत में 1951 में उन्होंने पार्टी छोड़ दी। उसके पश्चात उन्होंने विजिल ;टपहपसद्ध नामक एक साप्ताहिक की शुरुआत की और कृषक मजदूर प्रजा पार्टी नामक एक नयी राजनीतिक पार्टी गठित की, जो आगे चलकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में विलीन हो गई। परंतु 1954 में उन्होंने उससे भी त्यागपत्र दे दिया और उनके बचे हुए संपूर्ण संसदीय जीवन में एक निर्दलीय बने रहे।
वे एक वयोवृद्ध और अनुभवी सांसद के रूप में विकसित हुए और किसी भी विपक्षी पार्टी के सदस्य ना होते हुए भी एक प्रतिष्ठित विपक्ष के नेता बने रहे। 1971 में उनके संसदीय जीवन का अंत हुआ, क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव के समय उनका समर्थन करने को तैयार नहीं था। कृपलानी ने गांधीजी के दर्शन पर कई पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें से अधिक उल्लेखनीय थीं ‘‘अहिंसावादी क्रांति‘‘, ‘‘गांधीजी का मार्ग‘‘, ‘‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस‘‘, ‘‘निर्णायक वर्ष‘‘, ‘‘चरखे की राजनीति‘‘, ‘‘कांग्रेस के जनक‘‘ और ‘‘गाँधीवादी समालोचना‘‘।
सुचेता कृपलानी का जन्म हरियाणा के अंबाला में 1908 में हुआ था। वे एक बंगाली परिवार से थीं। विवाह से पूर्व उनका उपनाम मजूमदार था। वे श्री एस.एन. मजूमदार की पुत्री थीं, जो स्वयं एक चिकित्सक और एक राष्ट्रवादी थे। सुचेता कृपलानी की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज और सेंट स्टीफेंस कॉलेज से हुई। इसके पश्चात उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में नौकरी कर ली। 1936 में सुचेता कृपलानी महान समाजवादी नेता आचार्य कृपलानी के संपर्क में आयीं और उन्होंने उनके साथ विवाह कर लिया। उन्होंने उनके साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की सदस्यता भी ली, और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया।
1946 में, गांधीजी की सलाह पर उन्हें कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट के संगठन सचिव के पद पर नियुक्त किया गया। इस नियुक्ति के माध्यम से उन्हें ठक्कर बाप्पा के साथ अखिल भारतीय स्तर पर निरंतर यात्राएं करने का अवसर मिला, जिनकी नियुक्ति ट्रस्ट के सचिव पद पर की गई थी। इसी वर्ष गांधीजी ने दादा कृपलानी को नोआखाली भेजा, जहां जातीय दंगे हुए थे जिसने वहां की स्थिति अत्यंत विस्फोटक बना दी थी। 1942 में उन्होंने अरुणा आसफ अली और उषा मेहता के साथ भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। जातीय हिंसा के दौरान सुचेता कृपलानी गांधीजी के साथ नोआखाली गयीं और वहां उन्होंने बहुत मेहनत की। सुचेता ने उनके साथ जाने की जिद की और दादा के वापस आने के बाद भी वे वहीं बनी रहीं और अत्याचार पीड़ितों की वास्तविक माँ बनी।
1952 में दादा कृपलानी ने नेहरू के साथ मतभेदों के चलते कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया, और 1952 के आम चुनावों से ठीक पहले कृषक मजदूर प्रजा पार्टी नामक एक नए राजनीतिक दल की स्थापना की। इन चुनावों में सुचेता कृपलानी नई दिल्ली की एक सीट से कृषक मजदूर प्रजा पार्टी के उम्मीदवार के रूप में निर्वाचित हुईं। इससे पहले वे संविधान सभा की सदस्य भी रहीं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भी काम किया।
सुचेता कृपलानी एक बहुत ही कुशल संगठक थीं और उन्होंने जे.बी. कृपलानी द्वारा कांग्रेस छोड़ने के बाद के जीवन में संलग्न सभी पार्टियों के संगठन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की तब दादा कृपलानी ने ऐसा नहीं किया। सुचेता जी ने पार्टी के दिल्ली और अन्य स्थानों पर संगठन के कार्य में काफी मदद की। 1974 जब विद्यार्थी आंदोलन शुरू हुआ, तो उन्होंने इसमें सक्रिय रूचि ली। चूंकि वे दोनों अलग-अलग पार्टियों के सदस्य थे, वे बहुत ही व्यावसायिक (कार्य-लक्षित) थे, और हालांकि वे अपने पति के पक्ष में प्रचार में हिस्सा नहीं लेती थीं, फिर भी वे उनके साथ थीं। वे उनका हर प्रकार का ख्याल रखती थीं, उनकी सुविधाओं के प्रति और उनके स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहती थीं।
वे एक बहुत ही काबिल सांसद थीं, और लोक सभा की चर्चाओं में एक स्पष्ट वक्ता थीं। हालांकि परिस्थितियों ने उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य की स्थानीय राजनीति में खींच लिया, जहां कांग्रेस दो गुटों में विभाजित थी, जिनमें से एक का नेतृत्व कमलापति त्रिपाठी कर रहे थे, व दूसरे का सी.बी. गुप्ता कर रहे थे। उनके सत्ता संघर्ष ने सी.बी. गुप्ता को सुचेताजी को दिल्ली छोड़कर उत्तर प्रदेश आने की, और मुख्यमंत्री का पद संभालने के लिए विनती करने के लिए मजबूर कर दिया, क्योंकि वे चुनाव हार गये थे। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया और उन्होंने अपने आपको एक कुशल प्रशासक, और काबिल राजनेता के रूप में साबित किया। वे बुद्धिमान, परिश्रमी और अध्ययनशील थीं और उनकी बहुत ही अध्ययनशील आदतें थीं। साथ ही वे एक ईमानदार और निष्ठावान महिला थीं। इस प्रकार, आज भी, पुराने लोगों के बीच वे उत्तर प्रदेश की सबसे कुशल मुख्य मंत्री के रूप में जानी जाती हैं। उनकी जीवन शैली एक मुख्यमंत्री के पद के विपरीत, एक अत्यंत सरल और सीधे व्यक्ति की थी।
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