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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं और विदेशियों की भूमिक
1.0 प्रस्तावना
स्वतंत्रता संग्राम का सम्पूर्ण इतिहास हमारे देश की हजारों महिलाओं के साहस, त्याग और राजनीतिक समझदारी से भरपूर है। संग्राम में उनकी सहभागिता 1817 की शुरूआत में प्रारंभ हो गई थी जब भीमाबाई होलकर ने ब्रिटिश कर्नल मैल्कम को गोरिल्ला युद्ध में हराया था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी जब तेजी से सम्पूर्ण भारत में अपना साम्राज्य फैला रही थी और टीपू सुल्तान (1799) की हत्या हो चुकी थी, मराठों का गर्व चकनाचूर (1815) हो गया था, ऐसे निर्णायक समय में राजा मल्ल सर्जा की विधवा चेन्नमा ने कर्नाटक के बेलगाम जिले के अपने छोटे से राज्य कित्तूर को बचाते हुए ब्रिटिश साम्राज्य के कुचक्र को विफल किया था। वह विशाल ब्रिटिश सेना के विरूद्ध लड़ीं व सफल हुइंर्। भारतीय इतिहास में कई ऐसे साहसिक साक्ष्य हैं जब महिलाएँ अपनी प्रतिष्ठा के लिए लड़ीं।
2.0 रानी लक्ष्मीबाई
भारतीय इतिहास की महिला योद्धाओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का भारतीय समाज पर सर्वाधिक गहरा प्रभाव है। वह झांसी के राजा गंगाधर राव की दूसरी पत्नी थी, जिन्होंने उस समय के वाइसरॉय लॉर्ड ड़लहौजी द्वारा प्रतिपादित ’पतन के सिद्धांत’ का घोर विरोध किया था। झांसी का त्याग उन्हें अस्वीकार्य था इसलिए 1857 के संग्राम में नरवेष में ब्रिटिश सेना से उन्होंने लोहा लिया व युद्ध भूमि पर ही वीरगति को प्राप्त हुईं। उनके साहस ने कई भारतीयों को विदेशी शासन के विरूद्ध खड़े होने की प्रेरणा दी।
सन् 1842 में उनका विवाह झांसी के राजा, राजा गंगाधर राव निवालकर से हुआ था। विवाह पश्चात् उन्हें लक्ष्मीबाई नाम दिया गया। सन् 1853 में गंगाधर बीमार हुए और बहुत कमजोर हो गए, इसलिए दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय लिया। ब्रिटिश गोद लेने की प्रक्रिया पर सवाल ना करें इसलिए लक्ष्मीबाई ने सक्षम प्रक्रिया स्थानीय ब्रिटिश प्रतिनिधि के समक्ष करवाई। 21 नवम्बर 1853 को महाराज गंगाधर राव का निधन हो गया।
उस समय लॉर्ड ड़लहौजी ब्रिटिश इंडिया का गर्वनर जनरल था। दत्तक पुत्र का नाम दामोदार राव रखा गया। हिन्दू परंपरा के अनुसार अब वह कानूनी वारिस था। किंतु अंग्रेज़ों ने उसका कानूनी उत्तराधिकार मानने से इंकार कर दिया। ’पतन के सिद्धांत’ के अनुसार लार्ड ड़लहौजी ने झांसी राज्य को जब्त करने का निर्णय लिया। रानी लक्ष्मीबाई एक ब्रिटिश अधिवक्ता के पास गईं व उससे विचार विमर्श किया। तत्पश्चात्, अपने पक्ष की सुनवाई के लिए पुनर्विचार अपील लंदन में की, परंतु उनकी प्रार्थना निरस्त कर दी गई। ब्रिटिश शासकों ने राज्य के जेवरात जब्त कर लिए एवं आदेश दिया कि रानी झांसी का किला छोड़ रानी महल में रहे। परन्तु लक्ष्मीबाई अपने राज्य झांसी की रक्षा के लिए दृढ़ थी।
झांसी विद्रोह का मुख्य बिन्दु बन गया था। झांसी की रानी अपनी स्थिति को मजबूत करने में जुट गई थी। दूसरों के समर्थन से उन्होंने स्वयंसेवक सेना का गठन किया। उस सेना में सिर्फ पुरूष ही नहीं, महिलाओं की भी सक्रिय भागीदारी थी। महिलाओं को भी युद्ध करने का प्रशिक्षण दिया गया। इस संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई के साथ उनके सेनापति भी थे।
सितम्बर-अक्टूबर 1857 के समय, रानी ने अपने पड़ोसी राज्यों ओरछा व दतिया के आक्रमण से भी झांसी की रक्षा की थी। जनवरी 1858 में ब्रिटिश सेना झांसी की तरफ चली। युद्ध दो महीने चला, व अंततः ब्रिटिश झांसी को अपने शासन में सम्मिलित करने में सफल हुए परन्तु रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र के साथ पुरूष छद्म वेष में भागने में सफल रहीं।
उन्होंने कालपी में शरण ली जहाँ वे तात्या टोपे से मिलीं, जो कि स्वयं एक वीर योद्धा थे। ग्वालियर में युद्ध के दौरान 17 जून को उनकी मृत्यु हुई। ऐसा माना जाता है जब वे युद्ध क्षेत्र में बेहोश पड़ी थीं तो एक ब्राह्मण ने उन्हें देखा व आश्रम ले आए, जहाँ पर उनकी मृत्यु हुई। उनके अदम्य साहस के कारण उन्हें ‘भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन की प्रतिमा कहा जाता है’। सम्पूर्ण विद्रोह में रानी का मुख्य उद्देश्य अपने दत्तक पुत्र दामोदर के लिए राज्य को संरक्षित करना था। आगे के क्रांतिकारियों के लिए उनकी कहानी मशाल स्वरूप बन गई। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर कई साहित्य लिखे गए हैं। उनके सम्मान में महान कविताएँ भी रची गईं जिसमें सुभद्रा कुमारी चौहान रचित ’’खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’’ भी शामिल है।
3.0 प्रीतिलता वड्डेदार
प्रीतिलता वड्डेदार समर्पण व न्यौछावर का साकार रूप थीं। उनका जन्म 5 मई 1911 में उच्च-सांस्कृतिक मध्यम वर्ग परिवार में धालघाट गाँव चित्तगोंग (चत्तोग्राम) में हुआ था। ये एक ऐसी विशिष्ट जगह थी जहाँ कई साहसिक आंदोलनकारी हुए जो मानते थे कि सशस्त्र संघर्ष से ही भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराया जा सकता है। यह अविभाजित भारत के, अविभाजित बंगाल में था जो अब बांग्लादेश के दक्षिण समुरा के उप जिले पटिया, चित्तगोंग में है। उनके माता-पिता थे श्री जगबंधु और श्रीमती प्रतिभा जिन्होंने अपनी बेटी की शिक्षा के लिए सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध सुविधाएँ जुटाई और उसे डॉ. खस्तोगीर स्कूल (बच्चों का नामचीन स्कूल) में सीधे कक्षा प्प्प् में दाखिला दिलाया जहाँ उन्हें छात्रवृत्ति मिली व उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता को प्रमाणित किया। उन्होंने मैट्रिक परीक्षा व (उस समय की विद्यालय छोड़ने की परीक्षा) पास की व 1928 में ढ़ाका के ईडन कॉलेज में प्रवेश लिया। उसके पश्चात् अंग्रेजी में ग्रेजुएशन के लिए कोलकाता (कलकत्ता) लौट आई और प्रसिद्ध बीथुन कॉलेज में प्रवेश लिया व सफलतापूर्वक बी.ए. की परीक्षा पास की। स्नातक होने के पश्चात् वह सीधे चित्तगोंग के अपर्णा चरण कन्या विद्यालय की प्रधानाध्यापिका बना दी गईं।
उनका करियरः जब वह कक्षा VIII में थीं तो उन्होंने रेलवे का पैसा लूटने वाले क्रांतिकारी सूर्य सेन को ब्रिटिश पुलिस द्वारा गिरफ्तार होते देखा। ब्रिटिश पुलिस का क्रांतिकारियों पर अत्याचार देख उनके मन में देशभक्ति की भावना जागृत हुई। धीरे-धीरे उन्होंने क्रांतिकारी दर्शनशास्त्र की किताबें व महान क्रांतिकारी नेताओं की जीवनियाँ एकत्र कीं। ढ़ाका में पढ़ाई करते वक्त उन्होंने अपने आपको एक गुप्त क्रांतिकारी महिला आंदोलन ’दीपाली संघ’ से जोड़ रखा था। वह क्रांतिकारी नेताओं से सीधे सम्पर्क में थीं, जिससे वे और भी साहसिक बनीं। जब वे बीथुन कॉलेज की छात्रा थीं, तब वे ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों में सक्रिय भाग लेती थीं।
इस दौरान वे रामकृष्ण बिस्वास से मिली, जो महान क्रांतिकारी थे व अलीपुर जेल में उनको फांसी होने वाली थी। वह अपना परिचय उनकी बहन के रूप में देतीं, प्रतिदिन आतीं, व चालीस बार के लंबे वार्तालापों ने उनमें मजबूत क्रांतिकारी बौद्धिक नींव डाली। इस चर्चा ने उन्हें विश्वास दिलाया कि सही मायने में स्वतंत्रता के लिए क्रांति लाना अति आवश्यक है। गोपनीय तरीके से वह शस्त्र एकत्र करने लगीं व सफलतापूर्वक चित्तगोंग पहुँचाकर शस्त्र संघर्ष को बढ़ावा दिया। स्नातक पश्चात् वह हमेशा के लिए अपनी जन्मभूमि पर आ गई और अपने क्रांतिकारी गुरू मास्टरदा सूर्य सेन का इंतजार करने लगीं, और यह गोपनीय मुलाकात सावित्री देवी के घर हुई। [सूर्य सेन बंगाली स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उन्हांने 1930 में चित्तगोंग शस्त्रागार लूट का चित्तगोंग, बंगाल में नेतृत्व किया था। सेन विद्यालय में आध्यापक भी थे व ’मास्टर दा’ के नाम से प्रसिद्ध थे]
यह मुलाकात खतरनाक मुसीबत लेकर आई, क्योंकि मुलाकात की सूचना ब्रिटिश सेना पुलिस को लग चुकी थी और उन्होंने उस घर पर छापा मारा, जहाँ से मास्टर दा व प्रीतिलता सामने आई मौत से बच निकले। कुछ महान क्रांतिकारी-अपूर्व सेन भोला, निर्मल सेन और कैप्टन कैमरून (कुख्यात ब्रिटिश पुलिस अधिकारी) सीधे हमले में मारे गए। ब्रिटिश पुलिस को इस घटना में उन पर ही शंका थी इसलिए वे मास्टर दा के निर्देश पर गुप्तवास पर चली गई थीं। इसके बाद मास्टार दा ने पहाड़ी इलाके वाले यूरोपीय क्लब (पहाड़टोली), जो कि नस्लीय भेदभाव की जड़ थी, पर हमला किया पर असफल रहे। तब मास्टरदा ने प्रीतिलता को क्लब पर आगामी हमलों की नेतृत्व कमान सौंपी।
वह समुद्र किनारे कोतोवाली पर शस्त्र प्रशिक्षण हेतु गईं व यूरोपीय क्लब पर गोरिल्ला हमले की रूपरेखा बनाई। 24 सितम्बर 1932 को अपनी सेना के साथ उन्होंने क्लब पर हमला किया। सफल हमले के पश्चात् भागते वक्त उन्हें गोली लगी। ब्रिटिश पुलिस से गिरफ्तार होने के बजाय उन्होंने मौत को गले लगाया। उन्होंने सायनाइड कैप्सूल खा लिया (जो वह हमेशा अपने पास रखती थी) ताकि वह पकड़ी ना जाएं। उस समय वह महज 21 वर्ष की थीं! उनके त्याग ने आने वाले समय में कई महिलाओं को शस्त्र संघर्ष के लिए आंदोलित किया था।
4.0 कल्पना दत्ता
कल्पना दत्ता भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदार सूर्यसेन के ’शस्त्र प्रतिरोध’ आंदोलन की सदस्या थीं, व चित्तगोंग शस्त्रागार आक्रमण, 1930 में शामिल थीं।
उनका जन्म चित्तगोंग जिले के श्रीपुर में 27 जुलाई 1913 को मध्यम वर्ग परिवार में हुआ था। चित्तगोंग से 1929 में मैट्रिक करने के बाद कल्पना दत्ता कलकत्ता गईं व बीथुन कॉलेज में प्रवेश लिया। महान क्रांतिकारियों क्षत्रिय बसु और कन्हाईलाल दत्ता के उदाहरणों से प्रभावित होकर वे जल्द ही छत्री संघ से जुड़ गईं। पुरतेन्दु दस्तीदार ने उन्हें मास्टर दा सूर्यसेन की क्रांतिकारी परिधि पर आकृष्ट किया। चित्तगोंग शस्त्रागार आक्रमण 18 अप्रैल 1930 को हुआ और कल्पना जल्द ही चित्तगोंग आ गईं व मई 1931 में सूर्यसेन के सम्पर्क में आई। आक्रमण के कई नेता जैसे अनन्त सिंह, गणेश घोष और लोकनाथ बल इस बीच गिरफ्तार हो चुके थे व उन पर मुकदमे चल रहे थे।
इन सब के मध्य कल्पना को भारी ज्वलनशील सामग्री सुरक्षित कलकत्ता से लाने की जिम्मेदारी सौपी गई। उन्होंने गोपनीय तरीके से ‘गन-कॉटन’ बनाई व डायनामाइट फ्यूज को कोर्ट भवन और जेल के अंदर लगाने की योजना बनाई जिससे क्रांतिकारी नेताओं को आज़ाद कराया जाए जो कि व्यक्तिगत रूप से विशेष न्यायिक प्राधिकरण का सामना कर रहे थे।
योजना के उजागर होने पर कल्पना की गतिविधियों पर सीमाएँ थोपी गई, फिर भी उन्होंने सूर्यसेन के गाँव सतत् जाने की व्यवस्था कर रखी थी। कई बार मध्य रात्रि में भी वे जाती थीं। अपनी साथी प्रीतिलता वड्डेदार के साथ उन्होंने भी रिवॉल्वर चलाने का प्रशिक्षण लिया था।
सितम्बर 1931 में सूर्यसेन ने चित्तगोंग के यूरोपीय क्लब पर हमले की जिम्मेदारी कल्पना व प्रीतिलता को सौंपी। हमले के एक हफ्ते पहले कल्पना को हिरासत में ले लिया जब वे लड़कों के वेष में सर्वेक्षण कर रही थीं। जेल में उन्हें पहाड़टोली हमला व प्रीतिलता की साहसिक आत्महत्या के बारे में बताया गया। जमानत मिलने पर वह सूर्यसेन के कहने पर गुप्त वास पर चली गईं। 17 फरवरी 1933 की अलसुबह पुलिस ने उनकी जगह चिन्हित कर घेर ली। सूर्यसेन पकड़े गए परन्तु कल्पना, महिंद्रा दत्ता के साथ बच निकलीं।
19 मई 1933 को कल्पना व उनके साथियों को हिरासत में लिया गया। चित्तगोंग शस्त्रागार आक्रमण की दूसरी सुनवाई में सूर्यसेन और तारकेश्वर दस्तीदार को मौत की सजा सुनाई गई व कल्पना को काला पानी की सजा दी गई। 1939 में रिहाई के बाद 1940 में कलकत्ता युनिवर्सिटी से उन्होंने स्नातक पूर्ण किया। जल्द ही वे सीपीआई से जुड़ गईं व ब्रिटिश शासन के विरूद्ध अपनी लड़ाई फिर आरंभ कर दी। सीपीआई के नेता पी.सी. जोशी से 1943 में शादी कर वे कल्पना जोशी हो गईं। वह चित्तगोंग वापिस गईं व पार्टी के किसान और महिला मोर्चों को संगठित किया। 1946 में बंगाल विधान परिषद के चुनाव में वह लड़ीं पर अप्रभावी रहीं। 1947 के बाद वे भारत आ गई व सक्रिय राजनीति से दूर रहीं।
2010 में दीपिका पादुकोण ने हिन्दी फिल्म खेले हम जी जान से में कल्पना दत्ता की भूमिका निभाई, जो चित्तगोंग आक्रमण व तत्पश्चात् की घटना पर आधारित थी। कल्पना दत्ता ने नई दिल्ली में 8 फरवरी 1995 को आखिरी साँस ली।
5.0 कैप्टन लक्ष्मी सहगल
लक्ष्मी सहगल या जो कैप्टन लक्ष्मी के नाम से जानी जाती थीं; (जन्म 24 अक्टूबर 1914, मद्रास में, मद्रास प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश इंडिया) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सक्रिय कार्यकर्ता थीं। वे नेताजी बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना (आई.एन.ए.) की पूर्व अधिकारी और आजाद हिन्द सरकार के महिला संगठनों की मंत्री थीं। स्वतंत्र भारत में लक्ष्मी सहगल राजनीति में सक्रिय हुई, संसद के उच्च सदन की सदस्य के रूप में और बाद में वाम दलों से राष्ट्रपति पद की दौड़ में भी रहीं।
भारत में उनका उल्लेख कैप्टन लक्ष्मी के नाम से होता था, चूंकि बर्मा में जब उन्हें कैद किया गया था, तब उनकी यही उपाधि थी। युद्ध समाप्त होने पर भारतीय समाचार पत्रों में उनका व्यापक वर्णन हुआ, जिसने जनता का ध्यान आकर्षित किया था।
उनका जन्म लक्ष्मी स्वामीनाथन के रूप में डॉ. एस. स्वामीनाथन के यहाँ हुआ था जो एक अग्रणी न्यायिक अधिवक्ता थे व मद्रास उच्च न्यायालय में अपराध कानून वकालत करते थे। लक्ष्मी सहगल की माँ ए.वी. अम्मूकुट्टी थी जो अम्मू स्वामीनाथन के नाम से जानी जाती थीं। वे एक सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं व केरल में पलघाट के अन्नाकारा के प्रसिद्ध वड़ाक्काठ परिवार से थीं।
लक्ष्मी ने चिकित्सा की पढ़ाई करने का निर्णय लिया था क्योंकि वह गरीबों की सेवा, खास तौर पर गरीब महिलाओं की, करना चाहती थीं। 1938 में उन्हें मद्रास मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस. की उपाधि मिली। साल भर बाद उन्होंने प्रसूतिशास्त्र व दाई शास्त्र में डिप्लोमा लिया।
1940 में वह सिंगापुर गई जहाँ उन्होंने गरीबों के लिए दवाखाना शुरू किया जो मुख्यतः भारत से आए हुए मजदूरों के लिए था। वह शहर की प्रसिद्ध व जानी-मानी गाइनोकोलॉजिस्ट बन गई। वह सिर्फ एक अच्छी डॉक्टर ही नहीं थी बल्कि उन्होंने भारत स्वतंत्रता लीग में सक्रिय भूमिका निभाई जिसका भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान है। 1942 की एतिहासिक घटना जब ब्रिटिश ने सिंगापुर जापानियों को समर्पित कर दिया था, उन्होंने युद्ध में घायल युद्धबंदी कैदियों की सेवा के लिए बहुत कार्य किया। इसी दौरान वे कई भारतीय युद्धबंदीयों के सम्पर्क में आईं, जो स्वतंत्र भारतीय सेना गठन करने का विचार कर रहे थे।
2 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस सिंगापुर पहुँचे। नेताजी ने कई दिनां तक अपनी सभी सामाजिक सभाओं में अपने संकल्प के बारे में बोला जो था एक महिला रेजिमेंट बनाना - ‘‘झांसी रानी रेजिमेंट’’। वह रेजिमेंट भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को पूर्ण करता।
लक्ष्मी झांसी की रानी रेजीमेंट से जुड़ गईं और उन्हें कर्नल की उपाधि दी गई। इस समूह में सेना के ब्रिगेड़ सी शक्ति थी। सेना में यह महिला सेना एशिया में ऐसी पहली इकाई थी। ब्रिटिश के विरूद्ध यह सेना एक्सिस सेनाओं की ओर से लड़ी। लक्ष्मी मेडिकल के साथ-साथ युद्ध में भी सक्रिय थीं। बाद में वह महिला संगठन अर्ज़ी हुकुमत-ए-आजाद हिन्द (स्वतंत्र भारती की अस्थायी सरकार) की प्रभारी मंत्री बनीं, जो सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में थी।
लक्ष्मी सहगल ने यह पदभार रानी-झांसी-रेजिमेंट के सेनापति के साथ संभाला। 4 मार्च 1946 को लक्ष्मी सहगल गिरफ्तार हुईं व ब्रिटिश इंडिया लाईं गईं, जहाँ उनका भव्य स्वागत किया गया। ब्रिटिश को यह ज्ञात हुआ कि उन्हें बंदी की तरह रखना खतरनाक होगा, इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया।
1998 में भारतीय राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। 97 वर्ष की उम्र में 23 जुलाई 2012 को लक्ष्मी सहगल का देहांत हुआ। वह सही मायनों में भारतीय राष्ट्रवादी नेता थीं जिन्होंने ब्रिटिश को जल्द से जल्द भारत छोड़ने पर मजबूर किया।
6.0 महिला कांग्रेस नेता
सरोजिनी नायडू भारत में महिला स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में सरोजिनी नायडू का नाम गर्व से लिया जाता है। भारतीय महिलाओं को जागृत करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1925 में कानपुर अधिवेशन में इंडियन नेशनल कांग्रेस की वह पहली महिला अध्यक्ष थीं। 1928 में गाँधीजी का अहिंसा आंदोलन का संदेश लेकर वे अमेरिका गई थीं। 1930 में विरोध प्रदर्शन करने पर जब गाँधीजी की गिरफ्तारी हुई थी तब सरोजिनी नायडू ने आंदोलन की जिम्मेदारी ली। 1931 में गोलमेज़ सम्मेलन में गाँधीजी व पंडित एम.एम.मालवीय के साथ उन्होंने भी हिस्सा लिया। 1932 में वह कांग्रेस की प्रभारी राष्ट्रपति थीं। 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के तहत् उन्हें गिरफ्तार किया तथा वे 21 महीने जेल में रहीं। वह अंग्रेजी भाषा की अद्वितीय कवयित्री थीं जो ‘भारत की नाइटएंगल’ के रूप में जानी जाती थी। स्वतंत्रता पश्चात् वह किसी भारतीय राज्य (उत्तरप्रदेश) की प्रथम महिला गवर्नर बनी।
मैडम भीकाजी कामा वे दादाभाई नौरोजी से प्रभावित व यू.के. में भारतीय युवाओं की प्रेरणा थीं। 1907 में स्टुटगार्ट (जर्मनी) में अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन में उन्होंने सर्वप्रथम तिरंगा लहराया, स्वतंत्र भारत संगठन को संगठित किया व अपने क्रांतिकारी विचारों को फैलाने के लिए ’वंदे मातरम्’ पत्रिका शुरू की। वह खूब यात्रा करती थीं व स्वतंत्रता के लिए भारतीयों के संघर्ष के बारे में बताती थीं। वे अमेरिका में मातृभूमि भारत की प्रथम सांस्कृतिक प्रतिनिधि कहलाने योग्य थीं।
रानी गैडिनीलू मणिपुर की महत्वपूर्ण नागा राजनयिक महिला नेता थीं जिन्होंने अंग्रेज़ों के विरूद्ध नागा राजनयिक आंदोलन का नेतृत्व किया। उनका आंदोलन गाँधीजी के नागरिक अवज्ञा आंदोलन के समय सक्रिय था। विदेशियों को मणिपुर से रवाना करना उनका लक्ष्य था। उनके विलक्षणीय देशप्रेम के कारण उन्हें कई राष्ट्रीय नेताओं की प्रशंसा प्राप्त हुई। उन्हें 1932 में गिरफ्तार किया गया व 15 साल बाद भारत के स्वतंत्र होने पर रिहा किया गया। नागाओं के लिए किए गए अभूतपूर्व कार्य व प्रभाव के कारण जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें ‘’नागाओं की रानी’’ की उपाधि दी।
पद्मजा नायडू सरोजिनी नायडू की बेटी पद्मजा ने भी अपनी माँ की तरह देश हित में अपने आप को समर्पित कर दिया था। 21 वर्ष की उम्र में वह राष्ट्रीय परिदृश्य में आई व हैदराबाद की इंडियन नेशनल कांग्रेस की संयुक्त संचालक बनीं। उन्हांने विदेशी सामान के बहिष्कार व खादी अपनाने के संदेश को प्रचारित किया। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भाग लेने के कारण 1942 में उन्हें जेल हुई। आजादी के बाद वे पश्चिम बंगाल की राज्यपाल बनीं। आधी सदी तक वे रेड क्रॉस से जुड़ी रहीं। देश के लिए उनकी सेवा व समस्या सुलझाने में उनका मानवीय परोपकारी पक्ष हेमशा जीवंत रहेगा।
सुचेता कृपलानी सामाजिक सोच के साथ एक उत्कृष्ट राष्ट्रवादी, वे जयप्रकाश नारायण की निकट सहयोगी थीं, जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। सेंट स्टीफेंस से पढ़ी इस राजनीतिज्ञ ने 15 अगस्त 1947 में ’वंदे मातरम’ का गान किया। 1946 में वे स्वतंत्र संविधान सभा की सदस्या थीं व 1958-1960 तक इंडियन नेशनल कांग्रेस की जनरल सेक्रेटरी रहीं व साथ ही 1963-1967 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं।
राजकुमारी अमृत कौर 1919 से गाँधीजी की निकट अनुयायी थीं। 1930 में नमक सत्याग्रह व भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी थी। आजादी के बाद वे भारत की प्रथम स्वास्थ्य मंत्री बनीं। वे भारतीय चाइल्ड वेलफेयर काउंसिल की संस्थापक अध्यक्ष व ऑल इंडिया वुमन्स कांग्रेस की संस्थापक सदस्य थीं।
श्रीमती कमलादेवी चटोपाध्याय दिसम्बर 1929 में युवा कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं व राष्ट्रीय कांग्रेस नेताओं का पूर्ण स्वराज का लक्ष्य हासिल करने की घोषणा करने की प्रार्थना की। 26 जनवरी, 1930 को उन्होंने पूरे देश का ध्यान खींचा जब एक झड़प के दौरान वे तिरंगे को बचाने हेतु डटी रहीं। अपने तिरंगे की सुरक्षा के लिए वे लहूलुहान होने पर भी चट्टान की तरह खड़ी रहीं। महिलाओं की ऑल इंडिया काँफ्रेंस को उनकी शक्ति ने गतिशील बनाया।
भारत की स्वतंत्रता में हजारों-लाखों भारतीय महिलाओं के समर्पण के अलावा कई विदेशी महिलाएँ भी थीं, जिन्होंने भारत में विश्व के लिए नई ऊर्जा व आशा देखी। स्वामी विवेकानन्द की ख्यात शिष्या निवेदिता बहन आईरिश थीं, जिनका वास्तविक नाम मिस मार्गरेट नोबेल था जो सत्य की खोज में 1898 में भारत आई थी। उन्होंने अमेरिका व यूरोप में भारत के पक्ष में लहर प्रवाहित की। 1905 में उन्होंने बनारस कांग्रेस अधिवेशन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई व स्वदेशी आंदोलन का सहयोग किया।
7.0 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विदेशी
7.1 एनी बेसेंट
वे एक ब्रिटिश धर्मवेत्ता महिलाओं के अधिकार के लिए सक्रिय, लेखक व वक्ता थीं जो भारतीय और आयरिश स्व राज की समर्थक थीं। 1 अक्टूबर 1847 को मध्यम वर्ग आयरिश परिवार में जन्मी एनी बेसेंट युवावस्था से ही आयरिश परंपरा के प्रति अति-जागरूक थीं, व जीवन पर्यंत आयरिश स्व राज (होम रूल) की समर्थक रहीं। 1893 में बेसेंट थियोसॉफिकल सोसायटी (समाज) का हिस्सा बन भारत गइंर्। भारत में समाज के अमेरिकी वर्ग से विवाद के बाद एक स्वतंत्र संगठन की स्थापना की। एनी बेसेंट ने हेनरी स्टील ऑलकॉट के साथ मूल समाज का नेतृत्व किया जो चेन्नई में आज भी थियोसॉफिकल सोसायटी (समाज) अडयर के नाम से जाना जाता है। समाज के बंटवारे के बाद बेसेंट अपना ज्यादातर समय समाज की उन्नति व भारत स्वतंत्रा संग्राम में बिताने लगीं।
एनी बेसेंट ने ’ऑल इंडिया होम रूल लीग’ (तिलक के समानांतर) की स्थापना की जो एक राजनीतिक संगठन था जिसका मुख्य लक्ष्य ’स्वयं की सरकार’ था जो ’होम रूल’ के अंतर्गत था। यह लीग चाहती थी कि ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन ही भारत का प्रभुत्व हो जैसा कि उस समय कुछ देशों में था जैसे ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड और न्यूफाउण्डलैंड। बेसेंट की लीग का सर्व भारतीय चरित्र था परन्तु वह बेसेंट के थियोसॉफिकल संबंधों पर आधारित था। इसकी स्थापना 1916 में हुई, व यह 1917 में 27000 सदस्यों के साथ अपने सर्वोच्च पर था। यह होम रूल लीग समय-समय पर लोगों को अपने आंदोलन के उद्देश्य व उसके लक्ष्य के लिए प्रति शिक्षित करने के लिए परिचर्चा का आयोजन, पर्चों का वितरण, व पढ़ने के लिए बैठक व्यवस्था करती थी। इस लीग के सदस्य प्रखर वक्ता थे और हजारों भारतीयों के प्रार्थना पत्र ब्रिटिश अधिकारियों को सौंपे गए थे।
इस होम रूल लीग को तामिल ब्राह्मण समाज व कई अन्य जैसे उत्तर प्रदेश के कायस्थ, काश्मीरी ब्राह्मण, कुछ मुस्लिम, हिन्दू तमिल उप समूह, गुजरात के युवा उद्यमी व व्यापारी, मुम्बई व गुजरात के वकीलों का भरपूर समर्थन था। इस लीग के सिद्धांतों में शामिल थे धर्मज्ञान, समाज सुधार, प्राचीन हिन्दू पाणित्य, व पश्चिम की उपलब्धियों के दावे जो हिन्दू ऋषियों ने उनके होने से पहले ही अनुमानित कर लिए थे। इस लीग ने कई लागों को अपने सिद्धांत से प्रभावित किया, प्रथमतः इसलिए क्योंकि उस समय आर्य समाज व ब्रह्मो समाज को बहुमत समर्थन प्राप्त नहीं था। इस होम रूल आंदोलन ने कई युवाओं को प्रशिक्षित किया जो भारतीय राजनीति में भविष्य के नेता बने। इनमें मुख्यतः चेन्नई के सत्यामुरि, कोलकाता के जितेन्द्र लाल बनर्जी, इलाहाबाद के जवाहरलाल नेहरू, और खली खुज्जामान, जमुनादास द्वारकादास, इंदुलाल याज्ञनिक आदि थे।
मुम्बई में होम रूल लीग के 2600 सदस्य थे। परन्तु वहाँ की सभाओं में, जो शांताराम चाल में होती थी, 10,000 से 12,000 लोग उपस्थित होते थे। इसमें सरकारी कर्मचारी व औद्योगिक मजदूर भी शामिल होते थे। सिंध, गुजरात, युनाइटेड प्रोविंस, बिहार, उड़ीसा जैसी जगहों पर इस लीग की वजह से राजनीतिक जागरूकता आई। 1917 के अंत में एनी बेसेंट की गिरफ्तारी ने आंदोलन को और मजबूती दी व भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भी इसकी उपस्थिति दर्ज हुई। 1917 के अंत में एनी बेसेंट मोंटेग के ’जिम्मेदार सरकार’ के वायदे से बहुत प्रभावित हुई, और उनकी विश्वस्त अनुयायी बनने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा।
मोंटेग चेम्सफोर्ड (मोंटफोर्ड) सुधार, असहयोग आंदोलन, व विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर उनके गाँधीजी से वैचारिक मतभेद थे। अपने जीवन के अंतिम 10 वर्षां में उन्होंने सक्रिय राजनीति व स्वतंत्रता संग्राम से सन्यास ले लिया था।
7.2 चार्ल्स फ्रीयर ’’दीनबंधु’’ एंड्रयूज़
वे एक अंग्रेजी पंडित, शिक्षक और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जो मुख्यतः गाँधीजी के सहयोगी के रूप में जाने जाते हैं। एंड्रयूज़ युवा मोहनदास गाँधी के सिद्धांतों से बहुत प्रभावित थे। गाँधीजी के दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने की कथा के वे मुख्य पात्र थें, जब गाँधीजी वहाँ भारतीयों के हक के लिए लड़ रहे थे।
चार्ल्स फ्रीयर एंड्रयूज़ आज भी भारतीय वाणिज्य संघ कांग्रेस के अपने कार्य के कारण सिर्फ भारत ही नहीं सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य में भी जाने जाते हैं। भारत में कई जगहें उनके नाम पर हैं जैसे स्कूल, कॉलेज, गाँव, व दिल्ली के एक इलाके का तो नाम ही है एंड्रयूज़गंज, एवं उनकी जन्म शताब्दी पर डाक टिकट भी निकाला गया।
1925 से 1927 तक एंड्रयूज़ सर्व भारत वाणिज्य संघ के अध्यक्ष चुने गए। लंदन में दूसरी राउण्ड टेबल कांफ्रेंस (गोलमेज़ सम्मेलन) में वे गाँधीजी के साथ थे व ब्रिटिश सरकार से भारत की स्वायत्रता पर समझौता कराने में उनकी अहम् भूमिका थी।
भारतीय स्वतंत्रता के लिए कार्य करते हुए एंड्रयूज़ ने इसाई व हिन्दूओं में परिचर्चा करवायी। कवि व दार्शनिक रविन्द्रनाथ टैगोर के साथ वार्तालाप करने के लिए वे अपना बहुत सा समय शांति निकेतन में व्यतीत करते थे। उन्होंने अछूत-नीच जाति हटाने वाले आंदोलन का समर्थन किया। 1925 में वे वैकम सत्याग्रह से जुड़े व 1933 में दलितों के हक के लिए बी.आर. अम्बेडकर के सहयोगी रहे। उन्होंने तहेदिल से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता की व ब्रिटिश की गलत व जातीय विभाजन योजनाओं की आलोचना की।
दक्षिण अफ्रीका, पूर्व अफ्रीका, वेस्ट इंडिज़, फीजी व विश्व में अन्य अंग्रेज़ उपनिवेशों में उन्होंने भारतीय प्रवासियों के हक में बोला व इंग्लैण्ड में अपने प्रभाव से अप्रवासी शोषण के विरूद्ध जनमत जुटाया।
1935 के पश्चात् एंड्रयूज़ अपना ज्यादातर समय ब्रिटेन में बिताने लगे व सम्पूर्ण देश में यीशु के अपने अनुयायियों के बुलावे पर उपदेश देने लगे। गाँधीजी ने प्यार से उनका नाम ‘क्राइस्ट के विश्वसनीय अग्रदूत’ रखा जो उनके नाम के प्रारब्ध अक्षर सी.एफ.ए. से बना था। वह गाँधीजी के घनिष्ठ मित्र के रूप में जाने जाते हैं, और शायद वह ही अकेले थे जो गाँधीजी को ’मोहन’ नाम से संबोधित करते थे।
चार्ल्स एंड्रयूज़ का निधन 5 अप्रैल 1940 में कलकत्ता यात्रा के दौरान हुआ व उन्हें क्रिश्चियन कब्रिस्तान, कलकत्ता में दफनाया गया।
7.3 मीराबेन (मैड़लिन स्लेड़)
वे एक अंग्रेज़ी शाही परिवार की बेटी थीं। फ्रांस के ख्यात उपन्यासकार व निबंधकार रोमन रोलां के द्वारा 1924 में गाँधीजी की आत्मकथा पढ़कर, वे अहिंसावाद को मानने लगीं।
आश्रम में आने के पश्चात् गाँधीजी ने उन्हें मीराबेन (बहन मीरा) का नाम, हिन्दू धर्म में कृष्ण भक्त मीरा बाई से, दिया। मीराबहन गाँधीजी की हर यात्रा में उनके साथ होतीं व उनकी जरूरतों का ख्याल रखती थीं। वह गाँधीजी की विश्वसनीय थीं व ब्रिटिश सरकार से भारत की स्वतंत्रता में उनका भी योगदान था। वे 1931 में लंदन की राउण्ड टेबल कांफ्रेंस में गाँधीजी के साथ थीं।
मीराबेन एक समर्पित कार्यकर्ता व अहिंसा को प्रचारित करने में सक्रिय भूमिका निभाने वाली रहीं, व ब्रिटिश मानते हैं कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में उनका भी मुख्य योगदान था। 1932-33 में नागरिक अवज्ञा के दौरान वे कई बार गिरफ्तार हुईं। उन पर आरोप था कि वे यूरोप व अमेरिका में भारत की स्थिति की खूफिया सूचना प्रेषित करती थीं। 1942 में आगा खान महल, पुणे, में वे गाँधीजी व उनकी पत्नी कस्तूरबा (जिनका निधन 1944 में हुआ) के साथ हिरासत में रहीं।
1946 में मीराबहन को उत्तरप्रदेश सरकार की विशेष सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया एवं कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने वाले आंदोलन पर उनसे मार्गदर्शन लिया गया। 1947 में ऋषिकेष के पास उन्होंने आश्रम की स्थापना की। 1948 में गाँधीजी की हत्या उपरांत भी मीराबेन ने भारत में रहने का निर्णय लिया।
1959 में मीराबेन इंग्लैण्ड लौट गईं व एक साल बाद वियना के एक घर बस गईं, व 1982 में अपनी मृत्यु तक वहीं रहीं। उनकी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया जो भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।
उनके कई लेखनों में से ‘न्यू एण्ड़ ओल्ड़ ग्लीनिंग’ का प्रकाशन 1960 में हुआ (जो ‘ग्लीनिंग गैदर्ड एट बापूस् फीट’, जो 1949 में प्रकाशित हुआ था का नया संकलन था), व उनकी आत्मकथा ‘द स्पीरिट्स पीलग्रिमेज़’ थी, जो 1960 में प्रकाशित हुई।
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