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सुभाषचन्द्र बोस एवं आज़ाद हिंद फौज
1.0 प्रस्तावना
कांग्रेस ने 1937 के चुनाव जीते और कई प्रांतों में लोकप्रिय मंत्रालयों का गठन किया। समाजवादी विचारों के विकास ने राष्ट्रवादी खेमे में एक नया गर्मजोषी का वातावरण बना दिया था। पुनरूत्थान हेतु यह योग्य समय था तथा जनआंदोलन निकट ही था। लेकिन जैसा कि पहले भी दो बार हो चुका था, कांग्रेस को शीर्ष पर एक संकट से गुजरना पड़ा।
2.0 भारत में बोस का राजनीतिक जीवन
2.1 सुभाष चंद्र बोस का प्रारंभिक जीवन
सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक में हुआ। उन्होंने 1919 में भारत से ग्रेट ब्रिटेन की ओर प्रस्थान किया और अपने पिता से वादा किया कि वे भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में शामिल होंगे। उन्होंने फिट्ज़विलियम कॉलेज, कैंब्रिज में पढ़ते हुए 19 नवंबर 1919 को मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे सिविल सेवा परीक्षा में भी चुने गए मगर वे ऐसी सरकार की सेवा नहीं करना चाहते थे जो स्वयं ब्रिटिश शासन की सेवा में लगी हो। उन्होंने शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया और भारत लौट आए। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर उन्होंने ‘स्वराज्य‘ समाचारपत्र प्रारंभ किया और बंगाल प्रांतीय कांग्रेस समिति के प्रचार-प्रसार का कार्य अपने हाथ में ले लिया। देशबंधु चित्तरंजन दास उनके गुरु थे जो बंगाल में आक्रामक राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रवक्ता थे। सन् 1923 में सुभाष को आल इंडिया युवा कांग्रेस का अध्यक्ष और बंगाल स्टेट कांग्रेस का सचिव चुना गया।
2.2 बोस और कांग्रेस आंदोलन (1921 से 1939)
सुभाष ने 1921 में गांधीजी द्वारा प्रेरित असहयोग आंदोलन में भाग लेने का मन बनाया मगर जब चौरीचौरा कांड़ के बाद गांधी ने अपना आंदोलन एकदम स्थगित कर दिया तो यह सुनकर सुभाषस्तब्ध रह गए। उनके शब्दों में, ‘‘जब सारे देशवासियों का उत्साह चरम सीमा पर था और वे स्वतंत्रता आंदोलन में जी-जान लगा रहे थे, इस समय एकदम आंदोलन बंद करके कदम पीछे लेने का निर्णय किसी राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं है।’’ बाद में बोस को चित्तरंजन दास द्वारा स्थापित नेशनल कॉलेज का प्राचार्य बनाया गया। एक परिवर्तनकारी की भूमिका निभाते हुए उन्होंने 1923 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ कानून की हदों में रहकर लड़ने के चित्तरंजन दास के निर्णय का समर्थन किया। बोस ने चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू को स्वराज पार्टी के गठन में भी सहयोग किया। कलकत्ता के निगम चुनाव में चित्तरंजन दास जीते और कलकत्ता के महापौर चुने गए और सुभाष को मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। 1925 में चित्तरंजन दास की मृत्यु के बाद सुभाष बंगाल में कांग्रेस के निर्विवाद नेता बन गये। जब वेल्स के राजकुमार कलकत्ता भ्रमण पर आए तो सुभाष ने सफलतापूर्वक उनका बहिष्कार किया और शासन के क्रोध को निमंत्रण दिया। 1924 में बोस को मेंडलो में कैद किया गया मगर अपनी अनुपस्थिति के बाद भी वे बंगाल विधान सभा के लिए चुने गए। उनकी अस्वस्थता के कारण उन्हें जेल से रिहा किया गया।
सुभाष गांधी का बहुत सम्मान करते थे मगर दोनों के विचारों और रणनीति में बडे़ मतभेद थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वामदलीय सोच के नेता थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और श्रीनिवास अय्यंगर के साथ मिलकर 1928 में मोतीलाल नेहरु की रिपोर्ट में दिए गए औपनिवेशिक स्वातंत्र्य प्रस्ताव (डॉमिलियन स्टेटस) का विरोध करते हुए पूर्ण स्वराज को राष्ट्रीय कांग्रेस के लक्ष्य के रूप में स्थापित किया। लाहौर में 1929 में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने रचनात्मक परिवर्तन के साथ साथ सामाजिक परिवर्तन की भी मांग रखी। 1931 में कराची अधिवेशन में उन्होंने समाजवादी गणराज्य की मांग रखी और राजनीतिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता की मांग रखी। आर्थिक योजनाएं, भूमि सुधार, आधारभूत शिक्षा और सामाजिक स्वतंत्रता को कांग्रेस के भावी लक्ष्यों के रूप में स्पष्ट किया।
सुभाष 1933 से 1936 तक यूरोप में रहे और वहां ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लोगों को जागरुक करने और जनमत जुटाने के काम में लगे रहें। उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। सुभाष ऑल इंडिया ट्रेड़ यूनियन कांग्रेस और युवा कांग्रेस तथा अन्य संस्थाओं के अध्यक्ष रहे। वे कांग्रेस में युवा अतिवादी समूह का प्रतिनिधित्व करते थे।
2.3 गांधीजी के साथ अनबन
सुभाष और गांधीजी के संबंधों में दरार पडने की शुरुआत 1938 से हुई जब यूरोप में युद्ध की संभावनाएं ज़ोर पकड़ने लगी थीं। सुभाष और वामपंथी लोग इसे एक अवसर के रूप में देखते हुए सरकार को तात्कालिक रियायतों के लिए मजबूर करना चाहते थे मगर गांधीजी और अन्य नरम दल के लोग अपना रुख कमजोर रखते हुए युद्ध घोषित होने की स्थिति में सरकार के स्वयं ही किसी निर्णय पर पहुंचने का इंतजार करना चाहते थे। बोस और उनके साथियों ने हार मानने से इनकार कर दिया जिससे गांधीजी क्रोधित हो गए। बोस भले ही उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे मगर गांधीजी अघोषित महा अध्यक्ष की भूमिका निभा रहे थे और उन्हें बोस की यह अवज्ञा बिलकुल पसंद नहीं आई।
1938 तक सुभाष कांग्रेस के नेता के रूप में पहली पसंद बन चुके थे। वे 1939 के चुनाव में पुनः खडे़ हुए। इस बार भी उन्होंने नवीन विचारधारावाले अतिवादी समूह के प्रवक्ता के रूप में चुनाव लड़ने का निश्चय किया। बोस ने 21 जनवरी 1939 को अपना नामांकन प्रस्तुत करते हुए कहा कि ‘‘वे उस नई विचारधारा, नई सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके जरिए भारत में चलाए जा रहे साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन की धार तीखी की जा सकेगी।‘‘
उन्होंने तय किया कि अध्यक्षीय चुनाव निष्चित समस्याओं और कार्यक्रमों के आधार पर ही लड़े जाएंगे जबकि कांग्रेस कार्यकारी समिति ने सुभाष के प्रस्ताव को यह कहकर खारिज किया कि इस चुनाव में किन्हीं मुद्दों और कार्यक्रमों की बात करना निरर्थक है क्योंकि ये मुद्दे दल के विभिन्न कांग्रेस के घटकों द्वारा तय किए जाते हैं जबकि अध्यक्ष संविधान के प्रमुख के समान है जो कि देश की एकता और अखंडता का प्रतीक है। उन्होंने गांधीजी के आशीर्वाद के साथ पट्टाभी सीतारमैया को चुनाव में अपना उम्मीदवार घोषित किया।
बोस औपनिवेशिक सरकार को भारत को स्वतंत्र करने की अंतिम चेतावनी देना चाहते थे और सरकार के न मानने पर असहयोग आंदोलन को पुनः प्रारंभ करना चाहते थे। गांधीजी और उनके सहयोगियों का मत इससे भिन्न था। इस सारे विरोध के बाद भी बोस ने 29 जनवरी को पट्टाभी सीतारमैया को 1377 के मुकाबले 1580 वोटों से हराया।
इस घटना ने कांग्रेस के त्रिपुरी सम्मेलन में एक अवरोध और विवाद की स्थिति पैदा कर दी। सुभाष भले ही कांग्रेस के नेता घोषित किए गए थे मगर कांग्रेस की कार्यकारी समिति के सदस्य गांधीजी के नेतृत्व को खोना नहीं चाहते थे। उनकी मर्जी के बिना अध्यक्ष कुछ भी नहीं कर सकते थे; यह अमेरिकी सरकार की तरह संतुलन-व-नियंत्रण पर आधारित व्यवस्था थी।
कार्यकारी समिति ने त्यागपत्र दे दिया। कार्यकारी समिति के पक्ष में एक नियम पत्र पारित किया गया और सुभाष को गांधीजी की इच्छानुसार नई कार्यकारी समिति का गठन करने को कहा गया। सुभाष के लिए गांधीजी के विरोध में जाकर नई समिति गठित करना कठिन था अतः उन्होंने गांधी जी के साथ समझौता करने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने यह भी प्रस्ताव रखा कि यदि गांधीजी उनके तत्काल स्वतंत्रता के प्रस्ताव को मान लें तो बोस उन्हें अपने मन मुताबिक कार्यकारी समिति बनाने की सहमति दे सकते हैं। मगर गांधीजी ने बोस पर अपनी मर्जी की कार्यसमिति थोपने के प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया। अब बोस के पास त्यागपत्र देने के अलावा और कोई चारा नहीं था, अतः उन्होंने ऐसा ही किया और निर्वाचन के केवल चार माह बाद पद छोड़ दिया।
बोस ने शायद अपनी जीत का गलत अर्थ निकाल लिया था। उनके जीतने का मुख्य कारण उनकी नई आक्रामक विचारधारा, नई सोच था न कि उन्हें कांग्रेस द्वारा महानतम नेता के रूप में स्वीकार किया जाना।
इस समस्त घटनाक्रम में रोचक बात यह थी कि बोस ने इस मतभेद के लिए गांधी जी से ज्यादा नेहरू को दोषी माना। गांधीजी के साथ उन्होंने अपने रिश्ते पूरी तरह से खत्म नहीं किए मगर नेहरू को उन्होंने इस बात के लिए कभी क्षमा नहीं किया कि उन्होंने इस सारे घटनाक्रम में उनकी कोई मदद नहीं की।
2.4 फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना
बोस ने कांग्रेस से त्यागपत्र दिया और मई 1939 में फॉरवर्ड ब्लॉक नामक दल का गठन किया। सुभाष के अनुसार फॉरवर्ड ब्लॉक को ‘‘वास्तव में कांग्रेस के ही आंतरिक हिस्से के रूप में नियोजित किया गया था जिसे एक प्रगतिशील और नवीन विचारधारा वाली पार्टी का रूप दिया गया था और इसके झंडे़ के नीचे सभी वामदलीय विचारधारा के लोग एकजुट होने थे।‘‘ मगर सुभाष और गांधीजी के बीच के मतभेद इतने गहरे थे कि समझौता होने की कोई संभावना नहीं बनती थी। बोस गांधी जी की राजनैतिक विचारधारा और कार्यप्रणाली के बडे़ आलोचक थे। जल्दी ही फॉरवर्ड ब्लॉक एक नए दल के रूप में स्थापित हो गया। 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के प्रारंभ होते ही फारवर्ड़ ब्लॉक ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ तीव्र आंदोलन की शुरुआत कर दी। अंग्रेजों की परेशानी भारत के लिए अवसर है, ऐसा उनका मानना था जिसपर कांग्रेस के नेताओं को सख्त ऐतराज था।
बोस के लिए अब घटनाएं तेजी से घटती जा रही थीं। 1940 में उन्हें कलकत्ता के ब्लैक होल पीड़ितों के स्मारक को हटाने की मांग को लेकर पद यात्रा (मार्च) निकालने के निर्णय के कारण उन्हें जुलाई में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने भूख हड़ताल कर दी और दिसंबर में उन्हें रिहा कर दिया गया।
अंतिम बार कैद किए जाने से पहले ही सुभाष ने भारत से बाहर जाने के बारे में सोचना शुरु कर दिया था। भारत में जिस तरह की परिस्थितियां व्याप्त थीं इसमें उन्हें लगने लगा था कि ऐसी स्थिति में वे देश की स्वतंत्रता के लिए खास कुछ कर नहीं पाएंगे। कांग्रेस में उनका प्रभाव भी लगभग खत्म हो चला था और कांग्रेस उनकी इच्छानुसार नहीं चलना चाहती थी। सुभाष के विचार से युद्ध के हालात अपनी बात मनवाने का सुअवसर था जिसे गंवाना उचित नहीं था। अतः उन्होंने एक योजना बनाई जिसके अनुसार वे भारत से निकलकर सोवियत यूनियन और फिर जर्मनी जाएंगे और भारत से ब्रिटिश राज्य का खात्मा करने के लिए जर्मनी से मदद की गुहार करेंगे।
3.0 आज़ाद हिंद फौज (इंडियन नेशनल आर्मी)
3.1 प्रथम चरण
आजाद हिंद फौज के गठन का प्रारंभिक विचार मलाया के भारतीय एक सैन्य अधिकारी मोहन सिंह का था जिसने युद्ध के बाद वापस जाती ब्रिटिश सेना के साथ जाने से इनकार किया और जापान जाकर जापानियों से मदद मांगी। उन्होंने कुछ भारतीय पी. ओ. डब्ल्यू. (युद्धबंदियों) को उसे सौंपा जिन्हें उसने आई.एन.ए. में शामिल कर लिया। 1942 के अंत तक करीब 40,000 हजार लोगों ने इस सेना में शामिल होने की इच्छा जाहिर की थी। इस सेना के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया था कि यह सेना ब्रिटिश सेना के खिलाफ केवल कांग्रेस या भारतीय लोगों के आमंत्रण पर ही युद्ध करेगी। इस सेना को भविष्य में जापान द्वारा भारत पर अधिकार जमाने के इरादे के प्रति ठोस बांध के रूप में भी देखा जा रहा था।
भारत छोड़ो आंदोलन के प्रारंभ होने से आई.एन.ए. में जोश और उत्साह का संचार हो गया। मलाया में ब्रिटिश विरोधी आंदोलन शुरु हो गया और 1 सितंबर 1942 को आई.एन.ए. की पहली बटालियन 16,300 सैनिकों के साथ बनाई गई। तभी आई.एन.ए. और जापान सरकार के बीच सैनिकों की संख्या को लेकर मतभेद हो गया। जापानी जहां 2000 सैनिकों को प्रतीकात्मक रूप से रखना चाहते थे वहीं मोहन सिंह इसे 20,000 सैनिक संख्या वाली पूर्ण सेना का रूप देना चाहते थे। मोहन सिंह और आई.एन.ए. के वरिष्ठ अधिकारी निरंजन सिंह गिल को जापान सरकार ने कैद कर लिया।
3.2 द्वितीय चरण
जेल से रिहा होने के बाद बोस को उनके कलकत्ता वाले घर में नजरबंद कर दिया गया था और वे पुलिस के सघन निरीक्षण में थे। 17 जनवरी 1941 को वे पुलिस की आंखों में धूल झोंककर निकल गये। उनके नजरबंदी से भागने की घटना को आज भी किवदंती के रूप में सुनाया जाता है। भारत से भागने के बाद सुभाष पेशावर, काबुल और मॉस्को होते हुए अन्ततः 28 मार्च 1941 को बर्लिन पहुंचे। उन्होंने मौलवी का वेश बनाकर पुलिस को चकमा दिया था और इटालियन दूतावास की मदद से आर्लेंडो मैजोटा नाम से उनका पासपोर्ट बना और वे जर्मनी पहुंचे।
जर्मनी जाकर उन्होंने वहां रहनेवाले भारतीयों को एकत्र किया। जर्मनी निवासी भारतीयों ने उन्हें नेताजी नाम से पुकारते हुए ‘जय हिंद‘ कहकर उनका स्वागत किया। बर्लिन रेडियो से प्रसारित अपने भाषण में उन्होंने सतत् भारतीयों से ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने की अपील की। बोस के नजरबंदी से भागकर जर्मनी पहुंचने का गांधी जी पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। वे भले ही उनकी कई बातों से सहमत नहीं थे मगर अब वे उनके साहस और पहुंच के प्रति आदरभाव रखने लगे थे।
रूस का गठबंधन सेना में शामिल होना और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच में जापान के जीत हासिल करने से बोस को लगा कि भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाली सेना के गठन के लिए दक्षिण-पूर्व एशिया से अच्छा स्थान नहीं हो सकता। रास बिहारी बोस जो 1915 में जापान में स्थायी रूप से निवास करने लगे थे, उन्होंने मार्च 1942 में टोकियो और जून ‘42 में बैंकाक में एक अधिवेशन का आयोजन किया। इन अधिवेशनों के परिणामस्वरूप भारतीय स्वतंत्रता लीग की स्थापना हुए और भारत को अंग्रेज़ों की दासता से स्वतंत्र करने के लिए एक सेना के गठन का निर्णय लिया गया। रास बिहारी बोस की अध्यक्षता में एक निर्णायक समिति बनी जिसमें मोहन सिंह को सेना का प्रमुख बनाया गया।
बैंकॉक अधिवेशन में सुभाष को पूर्व एशिया आने का निमंत्रण दिया गया और 13 जून 1943 को एक लंबी समुद्री यात्रा के बाद वे टोकियो पहुंचे। जापानी सरकार ने भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने में सुभाष की मदद करने का और भारत को स्वतंत्र हो पाने में पूर्ण सहायता करने का वादा किया। जापान के प्रधानमंत्री टोजो ने सुभाष को आश्वस्त किया कि उनके पास भारत पर कब्ज़ा करने की कोई योजना नहीं है। इसके बाद सुभाष सिंगापुर गए और वहां उन्हें भारतीय राष्ट्रीय लीग का अध्यक्ष बनने और भारतीय राष्ट्रीय सेना का नेतृत्व करने का प्रस्ताव दिया गया। सुभाष को 60,000 सैनिकों की टुकड़ियों की सेना बनाने में जापान ने बड़ी मदद की। उन्होंने स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार बनाने और सेना में अपने शब्दों द्वारा जोश की लहर दौड़ाई, ‘‘स्वतंत्रता के लिए इस अंतिम अभियान में आपको भूख, यहां-वहां फिरना, दौड़भाग जैसी कई तकलीफों का सामना करना पड़ेगा। यदि आप इन सब तकलीफों से पार पा लोगे, तभी विजय का सेहरा आपके सिर होगा।’’
नेताजी के रूप में प्रसिद्ध हो चुके सुभाष ने एक उत्साहपूर्ण नारा दिया, ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’’ 21 अक्तूबर 1943 को उन्होंने सेना के समक्ष ‘दिल्ली चलो‘ का नारा दिया। सुभाष ने स्वतंत्र भारत की तात्कालिक (अस्थाई) सरकार का गठन किया जिसे जल्दी ही जापान, जर्मनी, इटली, बर्मा, थाइलैंड़ और चीन का समर्थन मिल गया। इसका उद्देश्य ब्रिटिश और उनके सहयोगियों को भारत से जाने को मजबूर करना था। जल्दी ही इस नई सरकार को अपने पहले अधिकृत प्रांत के रूप में अडं़मान-निकोबार मिला जिसे जापान ने 6 नवंबर 1943 को सुभाष के हवाले किया। इनका नाम ‘शहीद‘ और ‘स्वराज्य‘ रखा गया। सुभाष ने भारतीय लोगों को सेना का झंड़ा लेकर परेड़ करने की आज्ञा दी और जापानी सेना ने भारतीय सीमा तक उनका पथ सहयोग किया। कोहिमा में मार्च 1944 में भारत का झंड़ा लहराया गया।
6 जुलाई 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर दिए गए अपने पहले वक्तव्य में सुभाष ने गांधी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘भारत का अंतिम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हो चुका है, राष्ट्रपिता। और इस पवित्र कार्य में सफलता हेतु हमें आपका आशीर्वाद और शुभेच्छाएं अपेक्षित हैं।’’
आई.एन.ए. ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ शानदार अभियान शुरु किया। नेताजी एक युद्ध क्षेत्र से दूसरे में घूमते रहे। वे अक्सर टोकियो से मनीला, सिंगापुर से रंगून आते-जाते रहते। दुर्भाग्यवश ऐसी ही एक यात्रा में टोकियो से आते समय 18 अगस्त 1945 को ताइवान में बोस एक विमान दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। मगर तैहाकू हवाई अड्डे पर उनकी मौत के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले। उनकी मौत आज भी एक रहस्य बनी हुई है और इस दुखद त्रासदी का आज तक कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल सका है।
स्वतंत्रता के बाद भी उनकी मौत का रहस्य सुलझाने के लिए कई कमेटियां गठित की गई जैसे 1956 में शाहनवाज कमेटी, 1970 में खोसला कमेटी और 1999 में मुखर्जी कमीशन मगर उनमें से कोई भी उनकी मौत का पुख्ता सबूत न ढूंढ़ सका और अब तक उनकी मौत या उनका गायब हो जाना एक रहस्य ही बना हुआ है।
3.3 आईएनए की रणनीति और सफलताएं
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आई.एन.ए. की रणनीति थी प्रत्यक्ष लड़ाइयों से बचना जिनके लिए उनके पास हथियारों और मनुष्य बल, दोनों का अभाव था। प्रारंभ में उसने भारतीय सैनिकों से हथियार प्राप्त करने का भी प्रयास किया और परित्याग करने की सोच रहे भारतीय सैनिकों से ही अपनी सेना की शक्ति बढ़ाने का भी प्रयास किया। उत्तर-पूर्वी भारत के पर्वतीय क्षेत्र से पार आकर गंगा के मैदानों में आने के बाद ऐसी उम्मीद थी कि वे जमीन से दूर रहेंगे और स्थानीय लोगों से सहायता और समर्थन, आपूर्ति और मनुष्य बल प्राप्त करेंगे ताकि अंततः वे एक क्रांति शुरू कर सकें। आई.एन.ए. का मानना था कि हालांकि युद्ध का परिणाम अनिश्चित था, फिर भी भारत के अंदर ही ज़मीनी लोगों की सहायता से एक लोक-सम्मत क्रांति की शुरुआत करके यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि चाहे युद्ध का परिणाम जो भी हो, फिर भी ब्रिटेन अपने औपनिवेशिक अधिकार को पुनः प्रस्थापित करने की स्थिति में नहीं होगा। यही आईएनए का परम उद्देश्य था।
3.4 इम्फाल और कोहिमा का युद्ध
मार्च 1944 में जापान की 15 वीं सेना ने ब्रिटिश के नियोजित बर्मा आक्रमण को रोकने के उद्देश्य से भारत के उत्तर पूर्व की ओर बढ़ना शुरू किया। उनका उद्देश्य ब्रिटेन के इम्फाल के मैदानों पर स्थित रसद आपूर्ति ठिकानों पर कब्जा करने का था। यहां से जापानी चीन की हवाई आपूर्ति को भी रोकने में सक्षम हो जाते। यह उन्हें एक ठिकाना भी प्रदान कर देता जहां से वे भारत के विरुद्ध हवाई आक्रमण कर सकते थे।
प्रारंभ में केवल टोह और प्रचार के लिए जापानियों का उद्देश्य आई.एन.ए. का उपयोग करने का था। हालांकि सुभाष चन्द्र बोस के आग्रह पर आज़ाद हिंद फौज को रणनीतिक जिम्मेदारियां दी गईं। पहली डिवीज़न की टुकड़ियों (प्रारंभ में सुभाष ब्रिगेड़ या प्रथम गुरिल्ला रेजिमेंट) ने 33 वें डिवीज़न की आगे कच के बाएं अंग को घेर लिया। द्वितीय गुरिल्ला डिवीजन को लड़ाई में बाद में यामामोटो बल के साथ जोड़ा गया। आक्रमण के प्रारंभिक चरणों के दौरान विशेष सेवा बल, जिसे बाद में बहादुर बल कहा जाने लगा था, ने उन्नत जापानी टुकड़ियों के साथ जासूसों और पथ-प्रदर्शकों के रूप में कार्य किया। उन्हें ब्रिटिश पंक्तियों में घुसपैठ करने का कार्य करने और ब्रिटिश भारतीय सेना को परित्याग करने के लिए प्रेरित करने का कार्य सौंपा गया था।
जापानी यह मान कर चल रहे थे कि तीन हफ्तों के अंदर सफलता प्राप्त कर ली जाएगी। उस अवधि के बाद पर्याप्त रसद आपूर्ति तभी प्राप्त की जा सकती थी जब जापानी मित्र सेना के रसद ठिकानों पर कब्जा कर लेते। हालांकि विविध कारणों से जापानी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाये और उन्हें कोहिमा और इम्फाल से पीछे हटना पड़ा। कोहिमा और इम्फाल की पराजय जापान के इतिहास में उस समय तक की सबसे बड़ी पराजय थी। उसके 55,000 सैनिक हताहत हुए थे, जिनमें मरने वाले सैनिकों की संख्या 13,500 थी। इनमें से अधिकांश हानि भुखमरी, बीमारी और थकावट का परिणाम थी।
1944 के अंतिम तीन महीनों के दौरान जापानी सेनाएं बर्मा की इरावड़ी के तट तक तक पीछे हट चुकी थीं, जहां उनका विचार डटे रहने का था। जब जापान की 15 वीं डिवीज़न को ब्रिटिशों का विरोध करने को गया, तो नेताजी ने उत्साह से आई.एन.ए. की प्रथम डिवीज़न की सेवाएं पेश कीं। बाद में 2 री डिवीज़न को भी कार्रवाई के लिए तैयार कर लिया गया। फरवरी 1945 में आई.एन.ए. ने बर्मा के मंड़ाले के कुछ क्षेत्रों को पकड़ कर रखा, और कूच करते शत्रु के साथ कड़ा मुकाबला किया। नेताजी की सेना का यह दूसरा अभियान था, और कुछ समय तक उन्होंने न्यांगु को मजबूती से पकड़ कर रखा। हालांकि बाद में मित्र सेनाओं ने विभिन्न स्थानों पर इरावड़ी नदी को पार कर लिया और जापानी और आई.एन.ए. टुकड़ियां चारों ओर से घिर गईं। इस दौरान कुछ अभित्यजन भी हुए। बहादुरी के अनोखे उदाहरणों के बावजूद और शत्रु के आक्रमण के समक्ष स्वयं की जान को खतरे में डालते हुए युद्ध भूमि में नेताजी की उपस्थिति के बावजूद, आई.एन.ए. के दूसरे अभियान (जो शुद्ध रूप से एक रक्षात्मक अभियान था) को ब्रिटिशों के बर्मा पर हमले के सामने धीरे-धीरे मैदान छोड़ना पड़ा।
3.5 आई.एन.ए. की हार
युद्ध में जापान की हार से आज़ाद हिंद फौज को नुकसान उठाना पड़ा। 7 मई 1945 को जर्मनी के आत्म समर्पण, 6 व 7 जून को हिरोशिमा और नागासाकी पर बम-बारी और नेताजी सुभाष के अचानक लुप्त हो जाने से आई.एन.ए. की कमर टूट गई। 1945 में दक्षिण पूर्व एशिया मे आई.एन.ए. ने ब्रिटिश सेना के सामने समर्पण कर दिया। मगर जब आई.एन.ए. के लोगों को भारत में लाया गया और उन्हें कैद करके उन पर अत्याचार किए गए तो उनके समर्थन में बड़ा जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ।
आई.एन.ए. और सुभाष बोस की विचारधारा आज भी हमारे युवाओं लिए प्रेरणा का स्त्रोत है। भारत की स्वाधीनता के लिए बोस और आई.एन.ए. का संघर्ष इतिहास के पन्नों में अमिट हो गया है। सुभाष ने कर्मयोग के पथ पर चलते हुए आक्रमकता और सेना द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करने का रास्ता दिखाया। हालांकि कुछ लोग आज भी फासीवादियों और नजियों से सहायता लिए जाने के उनके कदम पर आपत्ति उठाते हैं, उनकी आलोचना करते हैं मगर एक देशप्रेमी के रूप में उनका योगदान अतुल्य है। उनकी देश भक्ति, राष्ट्र के प्रति समर्पण और देश के लिए हर तकलीफ सहने के उनके माद्दे ( उन्हें दस बार- कुल आठ वर्षों के लिए जेल भेजा गया) सारा देश उन्हें राष्ट्रीय नेता नायक की तरह याद रखेगा। आई.एन.ए. की स्मृति के अलावा उन्हें हमारे राष्ट्रीय सलाम ‘जय हिंद‘ के लिए भी याद किया जाएगा।
- Chittaranjan Das is generally referred as Deshbandhu which means "Friend of the nation".
- He completed his education in England, where he became a Barrister. His public career began in 1909 when he successfully defended Aurobindo Ghosh on charges of involvement in the Alipore bomb case.
- Das maintained close contact with Bipin Chandra Pal and Aurobindo Ghosh and helped them in publishing the Bande Mataram, an English weekly for propagating the ideals of swaraj.
- Das was politically most active between 1917 and 1925. In 1917, he presided over the Bengal Provincial Conference and put forward a plan for village reconstruction through the establishment of local self-government, cooperative credit societies, and the regeneration of cottage industry.
- Das denounced the Montagu-Chelmsford Reform, which established a diarchy for India, and joined Gandhi's non-cooperation movement (NCM) in 1920 and sacrificed a comfortable life when he became attached to the Indian national freedom movement.
- He initiated a ban on British clothes in Bengal during the Non-Cooperation Movement of 1919 to 1922.
- Das was arrested in the year 1921 with his wife and son and sentenced to six months' imprisonment. He was elected as the president of the Ahmedabad Congress in the same year .
- Das also brought out a newspaper called 'Forward' and later changed its name to Liberty, to fight the British Raj. Netaji Subhas Chandra Bose was the editor of this newspaper. Bose considered Das as his mentor.
- Das was also a voracious reader, he was closely associated with a number of literary societies and wrote poems, apart from numerous articles and essays.
- Das, a few years before his death, gifted his house and the adjoining lands to the nation to be used for the betterment of the lives of women. At present, it is a big hospital called Chittaranjan Seva Sadan and has gone from being a women's hospital to one with multiple specialties.
- Inspired by the French Revolution of 1789 : At a young age, he had his mind preoccupied with ideas of revolution which were only fueled by the revolutionary novel called Ananda Math (The Abbey of Bliss) by Bankim Chandra Chattopadhay, a novelist from Bengal. His passion for revolution was deepened by nationlistic speeches by Swami Vivekanand and Surendranath Banerjee. His teacher, Charu Chand, moulded his mind with revolutionary ideas during Bose’s days of growing up in Chandannagar.
- The Alipore Bomb Case : Rashbehari, like any other Bengali, was deeply angered by the partition of Bengal by Lord Curzon in 1905. Grouped with revolutionary organisations like Yugantar, Rashbehari Bose contributed with his skills of preparing bombs to the mission of bombing Magistrate Kingsford. The two bombers, Khudiram Bose and Prafulla Chaki missed Kingsford, killed two British women instead and were hanged to death after the Alipore Bomb case trial of 1908. Rashbehari managed to escape Bengal for Dehradun, meeting fellow revolutionaries of Punjab and Uttar Pradesh.
- The Delhi Conspiracy Case : In 1912, Rashbehari prepared the plan for bombing the Viceroy of India at that time, Lord Hardinge. Although, it was yet another failed attempt, the incident shook the British Raj to its roots. The British made every effort to pacify revolutionary activities of Punjabis and Bengalis as an aftermath of the attack and Rashbehari managed to escape once again. For the next three years, Rashbehari was seen as an active member of the Ghadar Movement.
- Rashbehari and the Ghadar Movement : It was a party founded by the Punjabis in U.S and Canada with a strong dream of an independent India. By 1914, not only the Indians settled in America and Canada were coming back to India to join the freedom struggle, but they were also bringing ammunition with them. The leadership of the revolution was entrusted with Rashbehari Bose who had planned for a an uprising against the British officers on February 21, 1915. However, intelligence was leaked out and the plan had to be scrapped. Rashbehari, eventually left for Japan where a new chapter of his revolution began.
- Rashbehari Bose and the Black Dragon Society : The Black Dragon Society was one of the most notoriously extremist groups in Japan that was founded in 1901. Dr. Sun Yat-sen, the father of the Republic of China (ROC), introduced Bose to the formidable leader chief of the Black Diamond Society, Toyama Mitsuru. Since Rashbehari believed in violent means to attain freedom just like the Black Dragon Society, the match in ideals led the Society to help Bose with protection during his refuge in Japan while he acquainted the Japanese extremists with the issues faced by the Indians back home.
- Persuaded Japanese authorities to support India : Rashbehari moved to Japan pretending to be a distant relative of Rabindranath Tagore. He married a Japanese woman, worked as a journalist and had a Japanese citizenship by 1923. He, along with A.M Nair, persuaded the Japanese authorities to support the Indian freedom movement outside India. It was during the conference in Tokyo held between 28th to 30th March, 1942, convened by Bose that the decision of establishing the Indian Independence League was taken.
- Handed over the leadership of Azand Hind Fauj to Subhash Chandra Bose : The second conference of the Indian Independence League in 1942 concluded with the decision of inviting Subhash Chandra Bose to the league. At the time of friction between Mahatma Gandhi and Subhash Chandra Bose, Rashbehari handed over the Azand Hind Fauj flag to Bose. Rashbehari was not in power anymore but it was his organisational structure which formed the basis of the Indian National Army or the Azad Hind Fauj led by Netaji Bose.
- Rashbehari – a favourite in Japan : Instituted in 1875 by the Japanese emperor Meiji, Rashbehari Bose was awarded the Order of the Rising Sun by the Japanese government. He was married to a daughter of restaurant owner in Tokyo where he introduced the famous Indian Curry in Japan which is still a delicacy in the country. The restaurant was called Nakamuraya and his famous recipe of the Indian curry earned him then nickname, “Bose of Nakamuraya”.
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