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भारतीय संविधान के प्रमुख अनुच्छेद, एवं एतिहासिक मामले भाग-1
1.0 प्रस्तावना
भारत के संसदीय इतिहास में, अक्सर ऐसा हुआ है कि जब -जब विधायिका या कार्यपालिका अपने संवैधानिक कर्तव्यों के निर्वहन में विफल रही है, या उन्होनें अधिकारातीत (ultra vires) व्यवहार किया है, तब न्यायपालिका ने हमारे संविधान के प्रावधानों की रक्षा के लिए कदम उठाया है (कुछ लोगों इसे ‘दखल दिया’ ऐसा मानते हैं)।
ब्रिटिश संसदीय प्रणाली ने अपनी औपनिवेशिक विरासत के कारण भारतीय संविधान पर एक स्थाई प्रभाव छोड़ा है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अवधारणा अमेरिका से ली गई है। अमेरिका ने न्यायपालिका को व्यापक अधिकार और शक्ति प्रदान की थी और न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका के पक्षपातपूर्ण प्रभाव से मुक्त रखा था। अमेरिका ने समस्त विश्व के समक्ष न्यापालिका की स्वतंत्रता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
यह बताना उपयुक्त होगा कि अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय आधुनिक लोकतांत्रिक विश्व में सबसे प्राचीन है। अमेरिका ऐसे देशों में से एक है जिन्होंने ‘‘शक्ति के विभाजन के सिद्धांत’’ को अपनाया है। एक स्पष्ट और विशिष्ट रेखा है जो तीन प्रमुख अंगों को अलग करती है - कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। इसके परिणामस्वरूप अमेरिका के पास 200 वर्षों की शांति, प्रगति और सामंजस्य का एक शानदार इतिहास है। इसका प्रमुख कारण यह है कि शासन के तीनों अंगों के अधिकार संविधान में स्पष्ट रूप से लिखित रूप में विद्यमान हैं।
चूंकि विधायिका लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, सरकार पर नियंत्रण करती है और कानून बनाती है, अतः कोई भी उसके इन कार्यों को करने की स्वतंत्रता और अधिकार में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। हालांकि न्यायपालिका को विवादों में न्याय निर्णय करना पड़ता है, संविधान की व्याख्या करनी पड़ती है, ‘‘कानून की घोषणा करनी पड़ती है’’ और ‘‘संपूर्ण न्याय प्रदान करने के लिए’’ आवश्यक आदेश जारी करने पड़ते हैं। किसी कानून के प्रावधानों की व्याख्या करने और उनकी घोषणा करने के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार अंतिम होता है। कोई भी कानून जो संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है उसे रद्द कर दिया जाता है। न्यायिक समीक्षा (judicial review) का अधिकार हमेशा से सर्वोच्च न्यायालय के पास रहा है, और उसे वापस नहीं लिया जा सकता। कार्यपालिका विधायिका द्वारा निर्मित कानून का क्रियान्वयन करती हैं और उसका प्रवर्तन करती है। हालांकि हमारे देश के संसदीय इतिहास में ऐसे अनेक अवसर आये हैं जब विधायिका और न्यायपालिका के बीच रस्साकशी की स्थिति उत्पन्न हुई है। वास्तविकता तो यह है कि जब से न्यायालयों की स्थापना हुई है तभी से कार्यकारी सरकार और न्यायपालिका के बीच रस्साकशी की स्थिति निरंतर रही है।
भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है जब विधायिका या कार्यपालिका अपने संवैधानिक कर्तव्यों असफल रही हैं तो हमारे संविधान के प्रावधानों की और जनता के व्यापक हितों की रक्षा करने के लिए न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा है। चूंकि ऐसा माना जाता है कि उच्च-पदस्थ नौकरशाहों और राजनेताओं के बीच भ्रष्टाचार अत्यंत अनियंत्रित है, अतः न्यायपालिका से आम जनता की बढ़ती अपेक्षाओं को आसानी से समझा जा सकता है।
प्रशासन और आर्थिक विकास में पारदर्शिता की कमी के परिणामस्वरूप कुंठित जनता सरकारों की गड़बड़ को सुलझाने के अनिवार्य आदेश देने के लिए अदालतों की ओर मुड़ी है। विधायकों की कार्यकुशलता में आई भयंकर गिरावट ने उन्हें न्यायपालिका की जांच के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है, और नेहरू से लेकर अब तक निर्विरोध रहे सरकारी वर्चस्व को चुनौती दी गई है। विशेषज्ञों का कहना है, कि समाजवादी राज के अंतर्गत पदाधिकारियों के कई गुटों, आश्रितों और शासन तंत्र के कई चापलूसों ने विधायकों के वर्चस्व को मजबूत किया था, जो अब सवालों के घेरे में हैं। यह भी स्पष्ट है, कि राजनीतिक अभिजात्य वर्ग के संरक्षण में औसत दर्जे के कई ऐसे लोग हैं जो उनकी कृपा से प्रतिष्ठित पदों पर पहुँच गए हैं जहाँ वे पदोन्नति के उचित साधनों से नहीं पहुँच सकते, और ये लोग सांसदों के वर्चस्व के मिथक का समर्थन जारी रखे हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों में-विशेषतः मीडिया और सामाजिक मीडिया के प्रादुर्भाव के बाद-इस असामंजस्य की स्थिति को जनता ने करीब से समझा है।
2.0 न्यायिक समीक्षा की अवधारणा
सर्वोच्च न्यायालय में न्यायिक समीक्षा का अधिकार निहित है। इसका अर्थ यह है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने स्वयं के निर्णयों की भी समीक्षा कर सकता है। न्यायिक समीक्षा को कानून के किसी न्यायालय की उस क्षमता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके तहत वह किसी विधायी अधिनियमिति की वैधानिकता या उसे अन्यथा घोषित कर सकता है।
मौलिक अधिकारों का संरक्षक होने, और संघ और राज्यों के बीच उनकी शक्तियों के विभाजन के संबंध में उठने वाले संवैधानिक विवादों का न्यायकर्ता होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह संसद और राज्यों की विधानसभाओं द्वारा निर्मित वैधानिक अधिनियमिति की समीक्षा करे।
वैधानिक अधिनियमितियों को अमान्य घोषित करने के न्यायालय के अधिकार का सुस्पष्ट प्रावधान संविधान द्वारा अनुच्छेद 13 के तहत किया गया है, जो घोषित करता है कि कोई भी प्रचलित कानून या भविष्य में जारी किया जाने वाला प्रत्येक कानून, जो मौलिक अधिकारों से विसंगत है या उनकी मर्यादा भंग करने वाला है, वह शून्य माना जायेगा। संविधान के अन्य अनुच्छेदों (131-136) ने भी संघ और राज्यों की वैधानिक अधिनियमितियों की समीक्षा करने के सर्वोच्च न्यायालय में निहित अधिकारों का सुस्पष्ट रूप से उल्लेख किया है।
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्रधिकार को संविधान के 42वें संशोधन (1976) के माध्यम से अनेक प्रकार से कम किया गया था। परंतु इनमें से कुछ संशोधनों को 43वें संशोधन अधिनियम, 1977 द्वारा निरसित किया गया। परंतु फिर भी 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जारी किये गए कुछ अन्य प्रावधान ऐसे हैं, जिनका अभी तक निरसन नहीं किया गया है।
ये प्रावधान निम्नानुसार हैंः
- अनुच्छेद 323 ए-बी - इन नए अनुच्छेदों का उद्देश्य यह था कि अनुच्छेद 32 के तहत प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के आदेशों और निर्णयों पर से सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को हटाया जाए। हालांकि इन अनुच्छेदों का क्रियान्वयन केवल कानून बना कर ही किया जा सकता था। अनुच्छेद 323 ए का क्रियान्वयन प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम, 1985 द्वारा किया गया है।
- अनुच्छेद 368 (4)-(5) - ये दो उपनियम अनुच्छेद 368 में इस उद्देश्य से प्रविष्ट किये गए थे ताकि सर्वोच्च न्यायालय को किसी संवैधानिक संशोधन अधिनियम को संविधान की ‘‘मूलभूत विशेषताओं‘‘ के सिद्धांत पर अमान्य घोषित करने से प्रतिबंधित किया जा सके।
इन उपनियमों को स्वयं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही प्रभावहीन किया गया है, व उन्हें इस आधार पर खारिज किया गया है कि वे संविधान की निम्न दो ‘‘मूलभूत विशेषताओं‘‘ का उल्लंघन करते हैंः
- अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन करने के अधिकार की सीमितता और
- मिनर्वा मिल मामले में की गई न्यायिक समीक्षा।
स्वतंत्रता के पहले दशक के दौरान सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक समीक्षा के अपने अधिकारों का उपयोग करने के प्रति काफी अनिच्छुक और सतर्क था, जिस दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद द्वारा पारित किये गए कुल 694 अधिनियमों में से केवल एक को अमान्य घोषित किया गया था।
स्वतंत्रता के दूसरे दशक (1960) के दौरान न्यायालय ने अपने अधिकार का उपयोग बिना किसी झिझक के अधिक दृढ़तापूर्वक किया जो प्रसिद्ध गोलक नाथ मामले और और केशवानंद भारती मामले में प्रतिबिंबित होता है। इन मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान निर्माता की भूमिका निभाई। भारतीय न्यायपालिका 43 वें और 44 वें संशोधनों की सहायता से उस प्रतिबंध पर काबू करने में सक्षम हुई है जो उसपर 42 वें संशोधन द्वारा लगाया गया था। अब भारतीय न्यायपालिका की संकट मोचक के रूप में योग्यता इस प्रकार की हो गई है कि भविष्य की कोई भी सरकार उसके पर कतर नहीं सकती, या न्यायिक समीक्षा के उसके अधिकार को कमजोर नहीं कर सकती। बल्कि वास्तविकता यह है कि अब ‘‘न्यायिक समीक्षा‘‘ को ही संविधान की मूलभूत विशेषताओं में से एक माना जाने लगा है।
2.1 न्यायिक समीक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान ने न्यायिक समीक्षा अवधारणा को अमेरिकी संविधान के आधार पर अपनाया। भारत संविधान के तहत संसद सर्वोच्च नहीं है। इसकी शक्तियां इस आधार पर सीमित हैं कि ये शक्तियां केंद्र और राज्यों के बीच विभाजित हैं।
साथ ही सर्वोच्च न्यायालय को ऐसी स्थिति प्राप्त है जो उसे केंद्रीय संसद और राज्यों की विधानसभाओं, दोनों द्वारा अधिनियमित किये गए वैधानिक अधिनियमितियों की समीक्षा करने का अधिकार प्रदान करती है। यह न्यायालय को संविधान के तहत न्यायिक समीक्षा का एक शक्तिशाली साधन प्रदान करती है।
राजनीतिक सिद्धांत और संविधान की इबारत, दोनों ने न्यायपालिका को कानूनों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार प्रदान किया है। वे संवैधानिक प्रावधान जो कानूनों की न्यायिक समीक्षा को सुनिश्चित करते हैं वे हैं अनुच्छेद 13, 32, 131-136, 143, 145, 226, 246, 251, 254 और 372।
- अनुच्छेद 372 (1) संविधान पूर्व के कानूनों की न्यायिक समीक्षा को स्थापित करता है।
- अनुच्छेद 13 यह घोषणा करता है कि कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों के भाग के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करता है, वह शून्य माना जायेगा।
- अनुच्छेद 32 और 226 सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों के संरक्षक और प्रत्याभूतदाता की भूमिका प्रदान करते हैं।
- अनुच्छेद 251 और 254 कहते हैं कि संघ और राज्यों के कानूनों के बीच विसंगति की स्थिति में राज्य के कानून शून्य माने जायेंगे।
- अनुच्छेद 246 (3) यह सुनिश्चित करता है कि राज्य सूची से संबंधित मामलों में राज्य की विधायिका को अनन्य अधिकार प्राप्त होंगे।
- अनुच्छेद 245 कहता है कि संसद और राज्यों की विधानसभाओं, दोनों के अधिकार संविधान के प्रावधानों के अधीन होंगे।
किसी भी कानून की वैधता को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि उस विशिष्ट मामले के संबंध में कानून पारित करने के लिए विधायिका पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं है; संबंधित कानून संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध है; या संबंधित कानून किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
अनुच्छेद 131-136 न्यायालय को व्यक्तियों के बीच के, व्यक्तियों और राज्य के बीच के और राज्य और संघ के बीच के विवादों में न्यायनिर्णय करने का अधिकार प्रदान करते हैं; परंतु न्यायालय को संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करने की आवश्यकता पड़ सकती है, और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रदान की गई संविधान की व्याख्या कानून बन जाती है जिसका देश के सभी न्यायालय सम्मान करते हैं।
कानूनों को रद्द करने के न्यायालयों को दिए गए अधिकार के लिए हमारे संविधान में कोई सुस्पष्ट प्रावधान नहीं है, परंतु संविधान ने शासन के प्रत्येक अंग पर कुछ निश्चित सीमाएं अवश्य अधिरोपित की हैं, जिनका उल्लंघन संबंधित कानून को शून्य बना देगा। किसी संवैधानिक सीमा का उल्लंघन हुआ है अथवा नहीं इसका निर्णय करने का कार्य न्यायालय को सौंपा गया है।
3.0 मूलभूत संरचना का विवाद
संसद की संशोधन की शक्तियां मूल सीमाओं के अधीन हैं, यह बहस पहली बार 1951 में शंकरी प्रसाद देव विरुद्ध भारत सरकार के प्रकरण में उठी थी। संवैधानिक चुनौती संविधान के तीसरे भाग के सम्बन्ध में पैदा हुई थी, जिसमें जीवन का अधिकार, समानता का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इत्यादि जैसे मौलिक अधिकारों का समावेश है। शंकरी प्रसाद मामले में चुनौती का मुख्य आधार संविधान के भाग III की शब्द संरचना थी, जो राज्य को किसी भी ऐसे कानून की निर्मिति से प्रतिबंधित करती है जो अनुच्छेद 13 में वर्णित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो। तर्क दिया गया था कि संवैधानिक संशोधन ठीक तरह से कहा गया ‘‘कानून‘‘ था, अतः अनुच्छेद 13 के अंतर्गत राज्य के लिए संविधान के तीसरे भाग में संशोधन अननुज्ञेय था। सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने तर्क को सर्वसम्मति से अस्वीकार कर दिया। पीठ के निर्णय के अनुसार, संसद को बिना किसी अपवाद के, संविधान के किसी भी प्रावधान में संशोधन करने का अधिकार था।
यह प्रश्न चौदह वर्ष बाद एक बार फिर सज्जन सिंह विरुद्ध राजस्थान राज्य (1964) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने संविधान पीठ के सम्मुख प्रस्तुत हुआ। मुख्य न्यायाधीश श्री गजेंद्रगडकर ने अपनी ओर से और अन्य दो न्यायाधीशों की ओर से फैसला सुनाते हुए शंकरी प्रसाद फैसले को ही कायम रखा। हालाँकि न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह और न्यायमूर्ति मुधोलकर ने फैसले के प्रति शंकाएं जाहिर कीं। न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने मत प्रदर्शित किया कि संविधान के तीसरे खंड में दिए गए अनेक आश्वासनों ने मौलिक अधिकारों को ‘‘एक विशेष बहुमत के हाथ का खिलौना बना दिया है‘‘, यह आकलन करना अत्यंत कठिन है। न्यायमूर्ति मुधोलकर का कथन था कि संविधान निर्माताओं का अभिप्राय शायद कुछ ‘‘मौलिक विशेषताओं‘‘ को, उदाहरणार्थ राज्य के तीनो अंगों, अधिकारों के विभाजन, इत्यादि को, स्थायित्व प्रदान करना रहा हो सकता है। उनका यह भी प्रश्न था कि क्या संविधान की मूलभूत विशेषताओं में परिवर्तन को धारा 368 के अंतर्गत ‘‘संविधान संशोधन‘‘ माना जा सकता है, या इसे संविधान का पुनर्लेखन ही माना जायेगा।
1967 के गोलखनाथ विरुद्ध पंजाब राज्य मामले में कानून की स्थिति उलट गई थी। सर्वोच्च न्यायलय के ग्यारह न्यायमूर्तियों की पीठ ने छह न्यायमूर्ति विरुद्ध पाँच के अल्प बहुमत से, और बहुमत में भी विभाजित मतप्रदर्शन से यह निर्णय दिया, कि संसद को कोई अधिकार नहीं है। अगले दो दशकों में यह सिद्धांत और अधिक पुष्ट हुआ। फैसलों की एक श्रृंखला ने, जिन्हे संयुक्त रूप से न्यायाधिकरण मामले कहा जा सकता है, यह स्थापित किया कि अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की समीक्षा और अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों की समीक्षा एक मूलभूत विशेषता थी। न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता की मूलभूत विशेषता को सभी धर्मों को समान रूप से देखने की संकल्पना के रूप में विकसित किया और एस.आर. बोम्मई विरुद्ध भारतीय गणराज्य मामले में पहली बार उसे प्रतिपादित किया, और फिर इस्माइल फ़ारूखी विरुद्ध भारतीय गणराज्य, और अरुणा रॉय विरुद्ध भारतीय गणराज्य मामलों के निर्णयों में उसे दृढ़ स्थापित किया। आय. आर. कोएल्हो विरुद्ध तमिलनाडु राज्य मामले में न्यायलय ने मूलभूत विशेषताओं की सूची में अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (मूलभूत स्वतंत्रताएँ) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) और जोड़ दिए।
2006 के कुलदीप नैयर विरुद्ध भारतीय गणराज्य मामले में यह निर्णय दिया गया, कि राज्य विधान सभाओं के निर्वाचन के लिए गुप्त मतदान और मूल निवासी की आवश्यकता, ये दोनों ही मूलभूत विशेषतायें नहीं हैं। 2002 के एम. नागराज विरुद्ध भारतीय गणराज्य मामले में धारा 16 (4 ए) और 16 (4 बी) प्रस्तुत करने वाले संविधान संशोधन पर बहस हुई। ये धाराएं सकारात्मक कार्रवाई की कुछ बारीकियों से सम्बंधित थीं। इस मत को खारिज करते हुए कि ये प्रावधान समानता को क्षतिग्रस्त करते हैं, न्यायालय ने माना कि वे केवल ‘‘सेवा न्यायशास्त्र‘‘ के कुछ विशिष्ट नियमों को प्रतिपादित करते हैं, और संविधान की धारा 14, 15 और 16 के अंतर्गत समानता की मूलभूत विशेषताओं को प्रभावित नहीं करते।
यह संक्षिप्त अवलोकन निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर प्रकाश डालता हैः पहला, मूलभूत संरचना की समीक्षा संविधान में संशोधन करने के संसद के अधिकार पर एक ठोस परिसीमा है, अर्थात्, संवैधानिक संशोधन कुछ मानकों या मूल्यों के अनुरूप होने चाहिए और संवैधानिक रूप से सच्चे और वैध बने रहने के लिए, कुछ खास मूलभूत सामग्री के उल्लंघन में नहीं होने चाहिए। दूसरी बात, मूलभूत संरचना के सामग्री-आधारित उल्लंघन पहचानने का काम न्यायपालिका द्वारा किया जाना चाहिए। और तीसरा, बुनियादी संरचना के सिद्धांत के घटक, जैसे लोकतंत्र, कानून का राज, धर्मनिरपेक्षता आदि अत्यधिक अमूर्त ढ़ंग से प्रतिपादित किये गए हैं जो बदलती और अलग व्याख्याएं करने की अनुमति देते हैं। मूलभूत संरचना के सिद्धांत की वैधता का विश्लेषण करते समय इस रूपरेखा को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
4.0 शाहबानो मामला
मुस्लिम पूर्व पत्नियों को आर्थिक समर्थन के दायित्वों से मुक्त करने वाला मुस्लिम महिला अधिनियम 1986 (तलाक की स्थिति में संरक्षण), जो शाह बानो मामले के नाम से प्रसिद्ध हुआ, एक महत्वपूर्ण मामला था। यह अधिनियम श्री राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार द्वारा लागू किया गया था, जो भारत को इक्कीसवीं सदी में ले जाना चाहते थे। वे वास्तव में अति रूढ़िवादी मुस्लिम पुरोहित वर्ग के दबाव में झुक गए, जो अक्सर शरीयत कानून के कुछ संस्करणों पर जोर देते थे, जो मुस्लिम महिलाओं के मुख्य धारा में समावेश के घोर विरोधी थे। सर्वोच्च न्यायलय द्वारा जो फैसला दिया गया, उसके द्वारा मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को वे सभी लाभ मुहैया हुए जो अधिकांश हिन्दू महिलाओं को प्राप्त थे। इंदौर, मध्य प्रदेश की एक मुस्लिम मध्य आयु की महिला शाहबानो को उसके पति एम. ए. खान द्वारा निकाह के 43 वर्ष बाद तलाक/तीन बार तलाक दिया गया था। उसने राज्य के उच्च न्यायलय में एक दावा प्रस्तुत किया जिसमें यह मांग की गई थी, कि एक भारतीय नागरिक होने के नाते उसे अपने पूर्व पति से आर्थिक समर्थन प्राप्त करने का अधिकार था। उस मोहताज मुस्लिम महिला ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत अपने पूर्व पति की ओर से भरण-पोषण के साधन उपलब्ध करवाने का दावा प्रस्तुत किया। सर्वोच्च न्यायलय ने निर्णय दिया कि मुस्लिम महिलाओं को भी धारा 125 के अंतर्गत अपने पूर्व पति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है।
उन्होंने माना किः ‘‘धारा 125 के अंतर्गत एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला द्वारा दायर की गई यह प्रार्थना, जो न केवल मुस्लिम महिलाओं, और न ही केवल सामान्य रूप से महिलाओं के लिए, बल्कि उन सभी के लिए, जो महिलाओं और पुरुषों के लिए एक सामान समाज के लिए लड़ रहे हैं, और स्वयं इस धारणा से प्रलोभित हैं कि मानवजाति ने इस क्षेत्र में काफी प्रगति की है, एक सीधा सवाल खड़ा करती है। धारा 125 (1) (ए), के तहत न्यायालय एक ऐसे व्यक्ति को, जिसके पास पर्याप्त साधन हैं, और जो अपनी पत्नी, जिसके पास जीवन यापन के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं, को दुर्लक्षित करता है या उसके भरण-पोषण की जिम्मेदारी स्वीकार करने से इंकार करता है, उसकी पत्नी को भरण-पोषण के रूप में एक रकम, जो 500 रुपये से अधिक ना हो, देने के आदेश दे सकता है। ‘‘पत्नी‘‘ की व्याख्या में ऐसी तलाकशुदा महिला भी शामिल है जिसने पुनर्विवाह ना किया हो।‘‘
न्यायालय ने निर्देशित किया कि जीवन साथी हिन्दू हैं, मुस्लिम हैं, ईसाई हैं, या पारसी हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि धारा 125 दंड प्रक्रिया संहिता का भाग है न कि दीवानी कानून का, जो विशिष्ट धर्मों के व्यक्तियों के अधिकारों और दायित्वों को परिभाषित और नियंत्रित करता है। यह धारा स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ व्यक्तियों को त्वरित राहत प्रदान करने के उद्देश्य से अधिनियमित की गई थी। यह धर्म की बाधाओं से परे जाती है, हालांकि यह सम्बंधित पक्षों के व्यक्तिगत कानूनों का दमन नहीं करती।
सर्वोच्च न्यायलय ने पवित्र कुरान की भी विस्तृत व्याख्या करने का प्रयत्न किया। आयत 241, जो तलाकशुदा महिला के लिए कहती है कि ‘‘भरणपोषण (प्रदान की जानी चाहिए) उचित (पैमाने पर), यह न्याय परायण व्यक्ति का कर्तव्य है।‘‘ उन्होंने आयत 241 के सन्दर्भ में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की यह कठोर ह््रदय दलील भी अस्वीकार कर दी, कि यह हिदायत केवल अधिक धर्मपरायण के लिए थी ना कि सामान्य रूप से सभी मुस्लिमों के लिए। इस फैसले के विरुद्ध काफी आक्रोश उठा, जिसके परिणामस्वरूप पूरे देश में जगह-जगह प्रदर्शन हुए। रूढ़िवादिओं का तर्क था कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 मुस्लिमों पर लागू नहीं होती। शरीयत के अनुसार इद्दत काल के बाद भरण-पोषण स्वीकार करना हराम (अवैध) माना जाता है, क्योंकि इस समय के बाद स्त्री और पुरुष के सभी पति पत्नी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। इद्दत एक तीन महीने का समय है, यह निष्पादित करने के लिए कि महिला गर्भवती तो नहीं है, यदि है तो पिता की ओर से भरण-पोषण का अधिकार केवल बच्चे को है। तीन बार तलाक के बाद महिला का भरण-पोषण या तो उसके रिश्तेदार करेंगे या वक्फ बोर्ड करेगा। उलेमाओं के अनुसार, इस्लाम इद्दत के बाद गुजारे की इजाजत नहीं देता।
रूढ़िवादियों को खुश करने के लिए राजीव गांधी की सरकार यह बात कहने से बचती रही कि तलाक चाहे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार हुआ हो, फिर भी निजी कानून की राहत के अलावा मुस्लिम महलाओं को अतिरिक्त राहत प्रदान की जा सकती है।
कांग्रेस पार्टी धर्मशास्त्रियों के दबाव में आ गई और वह 1986 का मुस्लिम महिला अधिनियम लाई। विपक्ष भी औपचारिक विरोध की औपचारिकता निभा कर चुप हो गया और अंग्रेजियत का गुणगान करने वाला तथा कथित प्रगतिशील वर्ग भी खामोशी में डूब गया। यही नहीं, उनमें से कुछ शरीयत की पवित्रता बनाये रखने के लिए कांग्रेस पार्टी की शान में कसीदे भी पढ़ते रहे। बहुत से लोगों के लिए, तथा कथित प्रगतिशीलों के आड़म्बर का यह एक उत्कृष्ट उदहारण था, जो आम तौर पर हिन्दू बहुसंख्यों के लिए बहुविवाह या ज्येष्ठाधिकार जैसे पुराने नियमों से आगे निकल कर 21वीं सदी के नए विचार अंगीकृत करने का प्रलाप करते नहीं थकते थे, लेकिन बिशपों या इमामों के हिसाब से (जो राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक जुटाने में सहायक होते हैं) मुस्लिम और ईसाई धर्मों के रूढ़िवादी विचारों के पक्षधर थे, क्योंकि वे उनके अल्पसंख्य अधिकारों का संरक्षण करते थे। इस प्रकार ऐसा लगता है कि प्रगतिशीलता हिन्दुओं के लिए एक अलग दिशा में थी और मुसलामानों और ईसाईयों के लिए इसके ठीक विपरीत दिशा में थी। यह सोच न केवल प्रगतिशीलता के मूल विचार का क्रूर मजाक है, बल्कि यह अल्पसंख्यकों को भारतीय समाज से पूरी तरह अलग-थलग करती है। शाहबानो अधिनियम ने मुस्लिम महिलाओं के समाजिक पृथक्करण को और स्थिर किया, और चट्टान की तरह अड़िग इमामों के प्रति पूर्ण समर्पण के लिए उन्हें बाध्य कर दिया, जो अब समय-समय पर महिलाओं के विषय में देश के कानून से ऊपर उठ कर फतवे जारी करते हैं। शाहबानो संशोधन के इन परिणामों की बुद्धिवादी वर्ग में या विश्वविद्यालयों के अल्पसंख्यक संबंधित शोध कार्यों में पर्याप्त संवीक्षा नहीं की गई है।
शाह बानो मामला एवं ट्रिपल तलाक कानून
- 2016 में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने ‘‘तीन तलाक’’, ‘‘निकाह-हलाला’’ एवं ‘‘बहुविवाह’’ प्रथाओं की संवैधानिक वैधानिकता को चुनौती देती याचिकाओं पर अर्टोनी जनरल से सलाह मांगी, ताकि तय किया जा सके कि तलाक के मामलों में क्या मुस्लिम महिलायें लिंगभेद का शिकार होती हैं।
- तीन तलाक प्रथा का विरोध दर्शाते हुए, केंद्र ने कहा कि लैंगिंक समानता और पंथ-निरपेक्षता की कसौटी पर इन्हें पुनः परखा जाना चाहिए। इन प्रथाओं को चुनौती देती याचिकाओं पर सुनवाई हेतु उच्चतम न्यायालय ने एक पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ गठित कर दी।
- मार्च 2017 में, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट को कहा कि यह मामला न्यायपालिका के अधिकारक्षेत्र के बाहर है। किंतु 22 अगस्त 2018 को, सुप्रीम कोर्ट में दशकों पुरानी तीन तलाक व्यवस्था को अमान्य करार देते हुए कहा कि वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 व 21 का हनन करती है।
- इस पीठ में पांच न्यायाधीश थे, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर ने की। न्यायालय का आदेश केवल तीन तलाक की
- वैधानिकता तक ही सीमित था और इसमें बहुविवाह और निकाह हलाला के मुद्दे शामिल नहीं किये गये थे। न्यायालय की तीन तलाक को असंवैधानिक बताते हुये आदेश के बावजूद, केंद्र सरकार इस मामले पर आगे चलकर कानून लेकर आई।
- मुस्लिम महिला (विवाह पश्चात अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2018 लोक सभा में 17 दिसंबर, 2018 को प्रस्तुत हुआ। इसने 19 सिंतबर 2018 को जारी एक अध्यादेश को प्रतिस्थापित किया। लोक सभा ने इसे पारित कर दिया।
- इस विधेयक ने तीन तलाक के सभी प्रारूपों को, लिखित या इलेक्ट्रॉनिक स्वरूपों में, अमान्य और अवैध घोषित किया। इसमें तीन तलाक से आशय था तलाक-ए-बिद्दत या ऐसा कोई भी तलाक जिसमें एक मुस्लिम पुरूष एक महिला को त्वरित एवं अंतिम रूप से तलाक दे सकता है। तलाक-ए-बिद्दत किसी मुस्लिम पुरूष द्वारा एक ही बार में तीन बार तलाक कहने की प्रथा है।
- अपराध और दंडः इस विधेयक ने तलाक की घोषणा को संज्ञेय अपराध बनाया, जिसमें दंड के साथ 3 वर्ष तक का कारावास भी हो सकता है।
- आलोचनाः चूंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने इस प्रथा को गैर-कानूनी कर दिया था, इसलिये इस प्रथा का अपराधीकरण करता हुआ कोई कानून आवश्यक नहीं था। यह पहली बार हुआ कि किसी दिवानी मामले में (विवाह), अपराध शामिल किया गया।
5.0 भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए
धारा 498 ए के विशेष प्रावधान एक सामाजिक बुराई को दूर करने के लिए (इस मामले में दहेज प्रथा और विवाहित महिलाओं के प्रति अत्याचार) एक अतिरिक्त कड़ा नियम बनाने के मामले का एक विशिष्ट उदाहरण हैं, जो विवाह सम्बन्धी अत्याचारों के अपराध की व्याख्या करता है। यह 1983 में दण्ड संहिता में एक संशोधन के माध्यम से समाविष्ट किया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधियों को कारावास या जुर्माने की सजा दी जा सकती है। इस अधिनियम के अंतर्गत पीड़ित या उसके सम्बन्धियों द्वारा पुलिस में शिकायत दर्ज करने पर अपराध गैरजमानती, गैर संयोजनीय और संज्ञेय (हस्तक्षेप योग्य) माने गए हैं।
यह धारा अत्याचार (क्रूरता) की व्याख्या निम्न प्रकार से करती हैः
- इरादतन किया गया ऐसा कोई भी कृत्य जो महिला को आत्महत्या करने, या गंभीर चोट पहुँचाने, या उसके जीवन, या शरीर के किसी भी हिस्से या उसके स्वास्थ्य को खतरा पहुँचाने (महिला को शारीरिक या मानसिक रूप से) के इरादे से किया गया हो; या
- महिला का उत्पीड़न, जहाँ ऐसा उत्पीड़न सम्बंधित महिला को या उससे सम्बंधित किसी व्यक्ति को, किसी भी संपत्ति या मूल्यवान जमानत की गैर कानूनी मांग को पूरा करने, या ऐसी किसी मांग को पूरा करने की उसके द्वारा या उसके सम्बन्धी द्वारा विफल होने के लिए मजबूर करता हो।
अत्यंत अच्छे उद्देश्य से बने इस कानून का हश्र बहुत ही विचित्र हुआ। यह कानून सम्बंधित पीड़िता को, विशेष रूप से उनके लिए जो समाज के गरीब और निचले तबके से सम्बंधित हैं, अपेक्षित राहत देने में नाकाम सिद्ध हुआ; साथ ही साथ शहरी क्षेत्रों में, निर्लज्ज महिलाओं और उनके सम्बन्धियों द्वारा, वकीलों की सहायता से, इस कानून का धड़ल्ले से दुरुपयोग किया गया। विसंगतियों पर आधारित विवाह विच्छेद के मामलों में भी वकील आम तौर पर, और अधिकतर आवश्यक रूप से, महिला और उसके सम्बन्धियों को इस कानून का सहारा लेने की सलाह देते हैं, ताकि पति द्वारा चुपचाप उनकी मांगों को स्वीकार किया जा सके।
2003 में पेश की गई मलिमथ समिति की रिपोर्ट जाहिरा तौर पर आपराधिक न्याय प्रणाली की समीक्षा करने के साथ ही धारा 498 ए के ‘‘बेरहम प्रावधानों‘‘ की भी समीक्षा करती है। समिति (16.4.4) ऐसी स्थिति को दर्शाती है जहाँः
‘‘एक कम सहिष्णु और संवेगशील महिला किसी नगण्य मामले में भी एफ.आय.आर. दायर कर सकती है। परिणामस्वरूप पति या उसके सम्बन्धियों को तुरंत गिरफ्तार किया जा सकता है, जिससे उसे नौकरी में निलंबन या नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है। अपराध गैर-जमानती होने के कारण, निर्दोष लोगों को हिरासत में सड़ना पड़ सकता है। आग में घी का काम करने के लिए भरण-पोषण की मांग भी की जा सकती है, विशेष रूप से जब पति भरण-पोषण प्रदान करने में अक्षम हो। बाद में महिला का विचार बदल सकता है, और वह ‘भूल जाओ और माफ करो’ की स्थिति में आ सकती है। पति भी अपनी गलती स्वीकार करके फिर से नए और सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध कायम रखने का विचार कर सकता है। महिला भी समझौते की मांग कर सकती है। किंतु ये सारी बातें कानूनी बाधाओं के चलते संभव नहीं हो सकतीं। वह अपनी शिकायत वापस भी लेना चाहे तो भी, अपराध गैर-संयोजनीय होने के चलते यह संभव नहीं हो पाता। पारिवारिक जीवन में वापस लौटने के दरवाजे बंद हो जाते हैं। इस प्रकार वह अपने मायके के लोगों की दया और रहम पर रह जाती है।‘‘
समिति का सुझाव है कि इस धारा को जमानती और संयोजनीय बनाया जाये, ताकि सुलह के लिए समय और जगह रहे। समिति उपयुक्त रूप से सुझाव देती है कि यह संशोधन महिलाओं के लिए अच्छा है क्योंकि इसके माध्यम से वे उचित भरण-पोषण प्राप्त कर सकती हैं, जो मामले की लंबित अवस्था में नौकरी छूट जाने की इस स्थिति में अमान्य हो जाता है।
मलिमथ समिति की रिपोर्ट प्रस्तुत होने के बाद, सावित्री देवी विरुद्ध रमेशचन्द्र एवं अन्य के मामले में 19 मई 2003 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘‘दुरुपयोग‘‘ के विषय की समीक्षा की। माननीय न्यायमूर्ति जे. डी. कपूर, जिन्होनें इस विषय को अपनी पुस्तक विवाह में कानून और खामियांः खुशहाल वैवाहिक जीवन कैसे जियें, में भी उठाया है, ने अपने निर्णय में धारा 498 ए का परामर्श लिया है। वे ‘‘इस पर टिप्पणी करने के लिए विवश महसूस करते है‘‘, क्योंकि यह विवाह की नींव पर ही प्रहार करता है, और आम तौर पर समाज के स्वास्थ्य पर कोई अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ता।‘‘ उनके लिए धारा 498 ए हज़ारों विवाह विच्छेद प्रकरणों पर, विशेष रूप से परिवार के सदस्यों की गिरफ्तारी के परिणामस्वरूप, विवाह बचाने की संभावना को बंद कर विपरीत प्रभाव डालती है, इसलिए एक सामाजिक आपदा निर्माण करती है।
वे मानते हैं कि भारतीय व्यवस्था में पुनर्विवाह आसान नहीं है, और जो महिलायें आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हैं, वे अपने परिवार और भाइयों पर बोझ बन जाती हैं। वे यह भी मानते हैं कि धारा 498 ए का दुरुपयोग शिकायतकर्ता महिलाओं और पुलिस द्वारा किया जाता है। वे मानते हैं कि पुलिस ‘‘बुरी और अकुशल स्वामी है,‘‘ जिनके ‘‘लोहे के और भारी हाथों‘‘ में घरेलू हिंसा के ‘‘नाजुक और पेचीदा मामले‘‘ नहीं दिए जाने चाहिए। उसी प्रकार महिलाओं द्वारा इस धारा के प्रावधानों का ‘‘दुरुपयोग‘‘ केवल शिकायत में परिवार के सभी सदस्यों को लपेटने की बढ़ती हुई प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है। अंत में वे मान्य करते हैं कि ‘‘हालांकि इस धारा के प्रावधान अच्छे उद्देश्य से बनाये गए थे, इनके कार्यान्वयन ने बहुत ही बुरा प्रभाव छोड़ा है और यह कदम प्रतिकूल साबित हुआ है।‘‘ वे सुझाव देते हैं कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए/406 जमानती तो बनायीं जाएँ, साथ ही निश्चित रूप से संयोजनीय बनायीं जाएँ।
सर्वोच्च न्यायलय में एक विशेष अनुमति याचिका 19 जुलाई 2005 को सुशील कुमार शर्मा विरुद्ध भारतीय गणराज्य और अन्य के मामले में दायर की गई/उद्धरणः जे टी 2005 (6) एस सी 266, दावा क्र. रिट याचिका (सी) क्र 2005 की 141 फैसलाः 19 जुलाई 2005-इसमें याचिका कर्ता द्वारा याचिका लगाई गई थी, कि धारा 498 ए को असंवैधानिक और अनधिकारातीत घोषित किया जाय, और इसके ऐवज में दिशा निर्देश बनाये जाएँ, ताकि निर्दोष व्यक्तियों को अनैतिक लोगों द्वारा झूठे आरोप लगा कर अनुचित ढ़ंग से पीड़ित ना बनाया जा सके। आगे यह भी प्रार्थना की गई थी, कि जब कोई भी न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि धारा 498 ए के अंतर्गत आरोपित अपराध निराधार हैं, तो आरोप लगाने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध कठोर से कठोर कार्रवाई की जाये।
6.0 आरक्षण के मामलों में टकराव
आरक्षण के कानूनों की वैधता और संवैधानिकता के सन्दर्भ में, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय, 1963 के एम. आर. बालाजी विरुद्ध मैसूर राज्य के मामले के दृष्टिकोण से काफी आगे बढ़ चुका है, जिसमें न्यायालय ने नगन गौड़ा समिति की रिपोर्ट पर सवाल उठाते हुए 68 प्रतिशत आरक्षण की अनिवार्यता को नकार दिया था। बाद के, इंदिरा साहनी विरुद्ध भारत गणराज्य, अशोक कुमार ठाकुर विरुद्ध भारत गणराज्य, एम. नागराज विरुद्ध भारत गणराज्य, और अभी हाल ही के भारतीय चिकित्सा संघ विरुद्ध भारत गणराज्य, मामलों में न्यायालय ने आरक्षण के विधानों/संविधान संशोधनों के मामलों में सामाजिक कार्यकर्ताओं और विधिक सुधारकों की प्रसन्नता बढ़ाते हुए काफी उदार दृष्टिकोण अपनाया है।
नए प्रस्थापित मामलों के कानून में न्यायालयों ने कार्यपालिका को, यह कहते हुए, लगभग स्वतंत्रता प्रदान की है कि जब तक आरक्षण किसी साफ तौर पर गलत या पक्षपातपूर्ण नीति पर आधारित नहीं है, यह समितियों या आयोगों के तथ्यपूर्ण निष्कर्षों पर आधारित है, और सामाजिक न्याय के बड़े आदर्शों का पोषण करते हैं, तब तक न्यायालय कार्यपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप करने की उत्सुक नहीं होगी। सद्भावी तरीके से अपने अधिदेश का पालन करने और दिए गए अधिकारों का दुरुपयोग ना करने के ‘‘कार्यपालिका पर भरोसा‘‘ व्यक्त करने के इसी प्रकार के न्यायशास्त्र का उदाहरण मुख्य न्यायाधीश न्यामूर्ति शास्त्री की अनवर अली सरकार (ए.आय.आर. 1952 एस सी) मामले की असहमति में, मगनलाल छगनलाल विरुद्ध बृहन्मुंबई महानगर पालिका (ए.आय.आर. 1974 एस सी 2009) मामले के बहुमत निर्णय में और बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में (ए.आय.आर. 1976 एस सी 1207) के मामले में बहुमत की राय में देखा जा सकता है। आरक्षण कानूनों के सन्दर्भ में इस दृष्टिकोण का सक्रियतावादियों और नागरिक समाज द्वारा स्वागत किया गया, कि सर्वोच्च न्यायलय अब अंततः समय के साथ चल रहा है, और समाजिक न्याय के अपने दायित्व को समझ रहा है।
हालाँकि, बाल्को कर्मचारियों के संघ विरुद्ध भारत गणराज्य मामले (2002 (2) एस सी सी 333), में न्यायालय का यही दृष्टिकोण, जहाँ उसने कार्यपालिका की नीति के प्रति यही उदार और भरोसे का दृष्टिकोण अपनाया है, इन्हीं सक्रियतावादियों ने न्यायालय के न्यायिक संयम के दृष्टिकोण की आलोचना की है। यह सच है कि इन मामलों में कई मायनों में भारत की प्रस्तावित समाजवाद और सामाजिक न्याय की नीति से एक उल्लेखनीय प्रस्थान की नीतियों का प्रतिनिधित्व शामिल है, दोनों ही मामलों में चुनौती का सार कार्यकारी की नीति पसंद करने के लिए था। पहले मामलों में सक्रियतावादियों ने न्यायालय के इंकार का जश्न मनाया, अशोककुमार ठाकुर मामले में भारत में आरक्षण के सिद्धांतों की सख्त जांच पर ये सक्रियतावादी ही देश में आर्थिक सुधारों की इसी प्रकार की सामान सख्त जांच विधान/कार्यकारी की कार्रवाई निर्धारित करने की अनुशंसा करते हैं।
हाल ही के एक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने, भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के संकाय संघ की याचिका पर सुनवाई करते हुए मत प्रदर्शित किया कि चिकित्सा संस्थानों के भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे सुपर स्पेशियलिटी डिवीजनों में आरक्षण लागू ना किया जाये। इस पर प्रसिद्ध इंदिरा कुमार साहनी मामले, जिसमे सार्वजनिक संस्थानों में मंडल आयोग की सिफारिशों पर विचार किया गया था, का हवाला देते हुए, इसे अनिवार्य बताया।
उसने उन्हीं दिशा-निर्देशों का हवाला दिया जिनमें कहा गया था कि, ‘‘आरक्षण की सलाह नहीं दी जा सकती। उदाहरणार्थ, विशेषज्ञ और अतिविशेषज्ञ चिकित्सा, अभियांत्रिकी और ऐसे अन्य पाठ्यक्रमों, भौतिक विज्ञानों, और गणित, सुरक्षा सेवाओं और इनसे सम्बंधित अनुसंधान और विकास संस्थाओं/ विभागों/संकायों के तकनीकी पदों पर।‘‘ यह स्पष्ट रूप से अवधारणात्मक विकृतियों का सूचक है कि कुछ समुदायों में कुशाग्र बुद्धि या बौद्धिक संकायों का उत्पादन करने की क्षमता नहीं है, जैसा कि, इंद्र साहनी के मामले में संदर्भित किया गया है। इसी ‘‘इंदिरा साहनी विरुद्ध भारत गणराज्य‘‘ मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने ‘‘नवोन्नत वर्ग‘‘ (क्रीमी लेयर) की संकल्पना प्रतिपादित की थी, जिसमें उसी समाज के व्यक्तियों में उनके आर्थिक अभाव और सशक्तिकरण के आधार पर भेदभाव किया गया था। लोकसभा ने इसे अपनी सर्वोच्चता पर आक्रमण और देश की अस्सी प्रतिशत जनसँख्या के विरोध के रूप में लिया।
तमिलनाडु सरकार के रोजगार और शैक्षणिक संस्थाओं में 69 प्रतिशत कोटे की संवैधानिक वैधता पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिए कि इस कोटा नियम से प्रभावित प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के लिए एम.बी.बी.एस. के प्रथम वर्ष में अतिरिक्त सीटें निर्माण की जाएँ। न्यायमूर्ति के. एस. राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए. के. सिकरी की पीठ ने ये निर्देश आर. हर्षिणी द्वारा दायर याचिका पर दिए, जो 911वीं रैंक हासिल करने के बावजूद एम बी बी एस में प्रवेश प्राप्त नहीं कर पायी थी।
आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों हेतु आरक्षण - 2019
- जनवरी 2019 के महीने में संविधान संशोधन हेतु सरकार ने तेज़ी से कार्यवाही करते हुये समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों हेतु सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में सीटों के आरक्षण हेतु प्रावधान लाया, जहां आज तक कोई आरक्षण उपलब्ध नहीं था (अर्थात यह प्रावधान अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी हेतु नहीं था)।
- लोकसभा और राज्य सभा ने तेज गति से इस विधेयक को पारित करते हुए सरकारी नौकरियों और गैर-अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण दे दिया, और यह ‘‘समाज के गरीब वर्गों के लिये है’’।
- इस विधेयक का शीर्षक था - ‘‘संविधान (124वां) विधेयक’’। यह संविधान का एक सौ तीसरा संशोधन बना, जो 12 जनवरी 2019 को पारित हुआ।
- इस विधेयक ने संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 को संशोधित किया और इसी के साथ उच्चतम न्यायालय द्वारा तय की गई 50 प्रतिशत की उपरी सीमा भी पार कर दी। इस कानून को अंततः न्यायिक समीक्षा से गुजरना होगा।
कॉलेजियम पद्धति के अंतर्गत, न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की एक पीठ द्वारा किये जाते हैं। हालांकि भारतीय संविधान में इसका उल्लेख नहीं मिलता है।
अनुच्छेद 124 सर्वोच्च न्यायलय के न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के सम्बन्ध में है। यह कहता है कि नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायमूर्तियों की सलाह पर की जायेगी जिन्हें राष्ट्रपति आवश्यक समझें। भारत के प्रधान न्यायाधीश की सलाह, उनकी अपनी नियुक्ति को छोड़कर, सभी नियुक्तियों में ली जाएगी।
अनुच्छेद 217 उच्च न्यायालयों के न्यायमूर्तियों की नियुक्ति से सम्बंधित है। यह कहता है कि उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और सम्बंधित राज्य के राज्यपाल की सलाह पर की जायेगी। सम्बंधित राज्य के उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की सलाह भी ली जाएगी।
कॉलेजियम पद्धति की उत्पत्ति तीन निर्णयों की श्रृंखला द्वारा हुई, जिसे संयुक्त रूप से ‘‘तीन न्यायमूर्तियों का मामला‘‘ कहा जाता है। 30 दिसंबर 1981 का एस. पी. गुप्ता का मामला ‘‘पहला न्यायमूर्तियों का मामला‘‘ कहा जाता है। इसने घोषित किया कि सर्वोच्च न्यायालय के ‘‘प्रधान‘‘ न्यायाधीश द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सलाह को ‘‘ठोस कारणों‘‘ के आधार पर दर किनार किया जा सकता है। इसने, न्यायपालिका की नियुक्तियों में कार्यपालिका के वर्चस्व के पक्ष में एक बदलाव लाया, जो अगले 12 वर्षों के लिए न्यायपालिका की नियुक्तियों में लागू रहा।
6 अक्टूबर 1993 को सर्वोच्च न्यायालय के दर्ज अधिवक्ताओं के संघ विरुद्ध भारत गणराज्य मामले में के नौ सदस्यीय पीठ का निर्णय आया - इसे ‘‘दूसरा न्यायमूर्तियों का मामला‘‘ कहा गया। यही कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत बना। न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा द्वारा लिखित बहुमत का निर्णय कहता है, ‘‘न्यायविद्ता‘‘ और ‘‘प्रधानता‘‘ की यह मांग है कि ‘‘प्रधान‘‘ न्यायाधीश को नियुक्तियों में ‘‘मौलिक‘‘ भूमिका दी जाये। इसने एस. पी. गुप्ता फैसले को यह कहते हुए पलट दिया कि, ‘‘प्रधान न्यायाधीश की भूमिका मौलिक है, क्योंकि यह विषय न्यायालय परिवार से सम्बंधित है, कार्यपालिका की इसमें बराबरी की राय नहीं हो सकती। यहाँ ‘परामर्श‘ शब्द नगण्य हो जाएगा। यदि कार्यपालिका को बराबरी की भूमिका दी गई, और अनेक प्रस्तावों में विचलन हुआ तो न्यायपालिका में अनुशासनहीनता के कीडे़ उत्पन्न हो जाएंगे।‘‘
न्यायमूर्ति वर्मा के बहुमत निर्णय में प्रधान न्यायाधीश की भूमिका के सन्दर्भ में पीठ में ही आंतरिक मतभेद दिखाई दिए। न्यायमूर्तियों के दूसरे मामले में दिए गए पांच निर्णयों में से न्यायमूर्ति वर्मा ने केवल स्वयं अपना और चार अन्य न्यायाधीशों का मत प्रदर्शित किया। न्यायमूर्ति पांडियन और न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह ने बहुमत के निर्णय का समर्थन करते हुए व्यक्तिगत फैसले लिखे। न्यायमूर्ति अहमदी ने असहमति दर्शायी, और न्यायमूर्ति पंछी ने विचार व्यक्त किया कि प्रधान न्यायाधीश अपने आप को दो न्यायमूर्तियों तक सीमित ना रखें (जैसा कि निर्णय में कहा गया था) और जितने चाहें उतने न्यायमूर्तियों की सलाह ले सकते हैं, या यदि वे ना चाहें तो किसी की भी सलाह ना लेने के लिए स्वतंत्र हैं।
अगले पांच वर्षों तक न्यायिक नियुक्तियों और स्थनांतरणों में मुख्य न्यायाधीश और अन्य दो न्यायाधीशों की भूमिका के विषय में असमंजस की स्थिति बनी रही। कई मामलों में मुख्य न्यायमूर्तियों ने बाकी दोनों न्यायाधीशों से सलाह किये बिना इकतरफा निर्णय लिए। इसके अलावा राष्ट्रपति मात्र अनुमोदक बन कर रह गए।
1998 में राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने सर्वोच्च न्यायालय को राष्ट्रपति भवन का एक सन्दर्भ भेजा, जिसमें पूछा गया था कि, अनुच्छेद 124, 217 और 222 (उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानांतरण सम्बन्धी) में ‘‘परामर्श‘‘ शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है। प्रश्न यह था कि ‘‘परामर्श‘‘ शब्द का अर्थ कई न्यायाधीशों से ‘‘परामर्श‘‘ करके प्रधान न्यायाधीश का मत बनाना था, या इन अनुच्छेदों का अर्थ केवल प्रधान न्यायाधीश का वैयक्तिक मत परामर्श का अर्थ बनाता था। इसके जवाब में सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्तियों और स्थनांतरणों के कोरम के कामकाज के लिए नौ दिशानिर्देशों की एक रूपरेखा तैयार की। यही आज के समय के कॉलेजियम का स्वरुप है।
इसके अलावा, दिनांक 28 अक्टूबर 1998 के न्यायमूर्ति एस. पी. भरूचा द्वारा लिखित नौ न्यायाधीशों की पीठ ने एक निर्णय में कार्यपालिका के ऊपर सर्वोच्च न्यायपालिका की ‘‘प्रमुखता‘‘ की संकल्पना को अच्छी तरह स्थापित करने के लिए इस मौके का फायदा उठाया। इसे ‘‘तीसरा न्यायाधीशों‘‘ का मामला कहा जाता है।
जुलाई 2013 में नवनियुक्त प्रधान न्यायाधीश पी. सदाशिवम ने कॉलेजियम प्रणाली के बदलाव के विरुद्ध बातें कहीं।
5 सितम्बर 2013 को राज्यसभा ने संविधान (120 वाँ संशोधन) विधेयक पारित किया, जो 1950 के भारतीय संविधान की धारा 124 (2) और धारा 217 (1) को संशोधित करता है और एक न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन करता है, जिसकी अनुशंसा पर राष्ट्रपति न्यायपालिका के उच्च न्यायाधीशों की नियुक्तियां करेंगे। नई व्यवस्था का महत्वपूर्ण पहलू, जो इस संशोधन के द्वारा सरकार हासिल करना चाहती है वह है न्यायिक आयोग की रचना, जिसकी जिम्मेदारी यह संशोधन संसद को सौंपता है कि वह नियमित विधायी कार्यों के रूप में अधिनियमों द्वारा, नियमों व विनियमों द्वारा, इसका निर्वहन करे।
31 दिसंबर 2014 को, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (NJAC Act) को राष्ट्रपति की सहमति मिल गई। 13 अप्रैल, 2015 को यह कानून अधिसूचित कर दिया गया। शीघ्र ही, उच्चतम न्यायालय में इसे चुनौती देती कई जनहित याचिकाएं लगीं। 16 अक्टूबर 2015 को, उच्चतम न्यायालय ने इस कानून को रद्द कर दिया!
8.0 अनुच्छेद 8 (4) के सन्दर्भ में बहस
सर्वोच्च न्यायालय के अनुच्छेद 8 (4) को संविधान के अधिकारातीत (अल्ट्र वायरस) घोषित करने का विवाद एक कानूनी विवाद बनता जा रहा लगता है। विधिक विशेषज्ञ यह प्रश्न उपस्थित कर रहे हैं कि जब कि एक संविधान पीठ ने इन प्रावधानों को ‘‘अनुचित नहीं‘‘ करार दिया है तो एक खण्ड पीठ इस प्रकार का आदेश किस प्रकार पारित कर सकती है?
अनुच्छेद 8 (4) सिद्धदोष संसद सदस्यों, विधायकों और विधान परिषदों के सदस्यों को उनके पदों पर बने रहने की अनुमति देता है, बशर्ते कि उन्होंने अपनी दोष सिद्धि/सजा के खिलाफ निचली अदालत के फैसले के तीन महीनों के अंदर सक्षम न्यायलय में अपील दायर की हो।
वरिष्ठ अधिवक्ता और डी. एम. के पार्टी के पूर्व राज्यसभा सदस्य षण्मुगसुन्दरम ने हिन्दू अखबार को बताया कि उन्हें शक है कि हाल का फैसला कानून की परीक्षा में खरा उतरेगा। क्योंकि जनवरी 11, 2005 के के. प्रभाकरन विरुद्ध जयराजन मामले में संविधान पीठ ने कहा था कि, ‘‘जो व्यक्ति इन दोनों गुटों में समाविष्ट हैं जो चुनाव के पूर्व सिद्धदोष हैं, और जिन पर उनके संसद सदस्य, विधायक या विधान परिषद के सदस्य के कार्यकाल में दोष सिद्ध हुआ है, इन दोनों गुटों की व्यवस्थित व्याख्या की गई है, और ये दोनों निर्धार्य गुट हैं, इसलिए दो अलग वर्ग बनाये जाने चाहिए। इस प्रकार के वर्गीकरण को अनुचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये एक व्यवस्थित रूप से प्रस्थापित वैशिष्टय पर आधारित हैं और इसके द्वारा एक सार्वजनिक उद्देश्य के साथ गठजोड़ हासिल करने की मंशा है।‘‘
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आर. सी. लाहोटी की अध्यक्षता में और सदस्यों के रूप में न्यायमूर्तिगण शिवराज वी पाटिल, के. जी. बालकृष्णन, बी. एन. श्रीकृष्ण और जी. पी. माथुर ने भी यह माना कि अनुच्छेद 8 (4) एक ‘‘अपवाद‘‘ था। उप-धारा 4 ‘‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 8 (4) की उप-धारा (1), (2), और (3) में से शिल्प कर निकाला हुआ एक अपवाद है।‘‘
एक अन्य अधिवक्ता और तमिलनाडु प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बी. एस. गणनादेसीकन का कहना था कि अब जो कानूनी मसला था वह यह था कि क्या खण्ड पीठ संविधान पीठ के निर्णय से अलग चल सकती है। अनुच्छेद 8 (4) के अनुसार चुने हुए प्रतिनिधियों को अयोग्यता से जो छूट मिली हुई थी (अर्थात वे तीन महीनों के अंदर अपील दायर करते हैं तो) वह देश के हित में एक अच्छी तरह सोचा समझा प्रावधान था। श्री गणनादेसीकन का सुझाव था कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि संबंधित न्यायालय इस प्रकार की अपीलों (दोषसिद्धि के विरुद्ध) का निपटारा एक महीने के अंदर कर सकें इसके लिए एक विशेष कानून पारित किया जाये।
विधिक विशेषज्ञों ने इंगित किया है कि 2005 में अनुच्छेद 8 (4) पर विचार करते समय संविधान पीठ ने माना हैः
‘‘एक बार चुनाव हो जाते हैं और सदन अस्तित्व में आ चुका होता है, उस समय ऐसा हो सकता है कि एक सदस्य के विरुद्ध दोष सिद्ध हो जाता है और उसे सजा हो जाती है। ऐसी स्थिति से बिलकुल अलग ढंग से निपटना होगा। यहाँ प्रश्न संबंधित व्यक्ति के चुनाव लड़ने के अधिकार या सदस्य के रूप में अपना कार्यकाल जारी रखने का नहीं है, बल्कि प्रश्न सदन के अस्तित्व और लोकतांत्रिक तरीके से गठित सदन के कार्य करते रहने मात्र का है।
‘‘यदि एक सदस्य को दोष सिद्धि का फैसला सुनाये जाते ही और कारावास की सजा सुनाई जाते ही, उसकी सदन की सदस्यता निरस्त होना आवश्यक हो जाता है, जिससे उसे सदन में बैठने और सदन की कार्रवाई में भाग लेने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है, ऐसे समय में दो परिणाम सामने आ सकते हैं। पहला, सदन की सदस्य संख्या कम हो जायेगी, उसी प्रकार सिद्धदोष सदस्य जिस पार्टी का सदस्य है उस पार्टी के सदस्यों की संख्या भी सदन में कम हो जायेगी। सत्ता में बैठी सरकार बहुमत के हाशिये पर हो सकती है, जहाँ एक-एक सदस्य का महत्व है, मात्र एक सदस्य की अपात्रता से सरकार के काम काज पर विपरीत प्रभाव हो सकता है।‘‘
‘‘दूसरे, एक उप-चुनाव की आवश्यकता निर्माण होगी। शायद यह प्रक्रिया भी निरर्थक हो सकती है, व स्थिति और भी पेचीदा हो सकती है यदि सजायफ्ता सदस्य ऊपरी कोर्ट से बरी हो जाता है। शायद इन्हीं कारणों से संसद को सदनों के सदस्यों को एक विशेष श्रेणी में रखने की आवश्यकता पड़ी होगी।’’
‘‘अपात्रता के प्रावधानों का प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्यों के साथ पर्याप्त और उचित गठजोड़ होना चाहिए, और इन प्रावधानों का विश्लेषण इसके पारित करने के वास्तविक कारणों और उद्देश्यों के परिपेक्ष्य में करना उचित होगा।‘‘
‘‘उप-धारा 4 ‘‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम धारा 8 की उप-धारा (1), (2), और (3) में से खोद कर निकाला हुआ एक अपवाद है। स्पष्ट रूप से उपधाराओं (1), (2) और (3) की कार्रवाई से मिली बचत सदन की सदस्यता की बात के बाद पर स्थापित की गई है। इस प्रकार का अपवाद निकालने का उद्देश्य किसी सदस्य को लाभ पहुंचाना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य सदन की रक्षा करना है‘‘।
उपरोक्त हिन्दू दैनिक दिनांक 13 जुलाई 2013 से लिया गया है।
9.0 भारत में खनन पर प्रतिबन्ध के आर्थिक निहितार्थ
लौह अयस्क का निर्यात व परिवहन 2010-11 के 198 मिलियन टन की तुलना में 2012-13 में 18 मिलियन टन तक गिर गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खनन पर प्रतिबन्ध लगाने के परिणाम स्वरुप अर्थव्यवस्था और निर्यात पर गहरा असर पड़ा है। इसके अलावा आयातित कोयले पर देश की निर्भरता बढ़ी है।
वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनंद शर्मा के अनुसार खनन प्रतिबन्ध ने अर्थव्यवस्था पर गहरा आघात किया है। इसने निर्यात पर बहुत विपरीत असर डाला है, विशेष रूप से लौह अयस्क के निर्यात पर। इसने हमारी कोयले आयात की निर्भरता को बढ़ा दिया है। श्री शर्मा के अनुसार यदि प्रतिबन्ध ना होता तो हम 100 मिलियन टन लौह अयस्क के निर्यात से कमाई कर सकते थे।
‘‘हमें बहुमूल्य विदेशी मुद्रा और हम भारत में जिसका खनन कर सकते थे उससे वंचित रहना पड़ा है’’। मंत्री महोदय ने आगे कहा कि, ‘‘जहाँ तक कोयले का प्रश्न है, हमारा कोयला आयात का बिल बिलियन डॉलर से भी अधिक था’’। उनके अनुसार ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनके बारे में गंभीरता से विचार करना आवश्यक हो गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक में जुलाई-अगस्त 2011 में और गोवा में अक्टूबर 2012 में लौह अयस्क के खनन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इससे पहले श्री शर्मा ने न्यायपालिका की सक्रियता पर चिंता व्यक्त की थी, और कहा था, ‘‘भारत को न्यायिक सुधारों की नितांत आवश्यकता है।‘‘ लौह अयस्क का पोतलदान 2010-2011 के 168 मिलियन टन की तुलना में 2012-13 में 18 मिलियन टन तक गिर गया। प्रतिबन्ध से पहले भारत लगभग 7 बिलियन डॉलर का लौह अयस्क निर्यात करता था।
जहाँ तक कोयले का प्रश्न है, पर्यावरणीय प्रतिबंधों ने देश के कोयला उत्पादन पर काफी प्रभाव डाला है। परिणामस्वरुप हमारी निर्भरता आयातित कोयले पर बढ़ गई। निर्यात में आई गिरावट ने व्यापार घाटे और चालू खाते के घाटे को बढ़ा दिया है।
जबकि 2012-2013 में व्यापार घाटा बढ़ कर 191 बिलियन डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया, चालू खाता घाटा 4.8 बिलियन डॉलर या सकल घरेलू उत्पाद के 4.8 प्रतिशत के स्तर तक पहुँच गया। खनन क्षेत्र, जिसका औद्योगिक उत्पादन सूची (आय आय पी) में वजन 14 प्रतिशत है, इस वर्ष अक्टूबर में 3.5 प्रतिशत से आकुंचित हुआ जो पिछले वित्तवर्ष के उसी महीने के 0.2 प्रतिशत की तुलना में कहीं अधिक था। अप्रैल-अक्टूबर अवधि में उत्पादन में एक प्रतिशत संकुचन की तुलना में 2.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। कोयला उत्पादन, जिसका औद्योगिक उत्पादन सूची में वजन 4.5 प्रतिशत है, इसके उत्पादन में अक्टूबर में 3.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई।
खनन प्रतिबंध
- पारंपरिक रूप से, केवल सरकारी कंपनियों को खनन लाईसेंस मिलते थे। किंतु जैसे-जैसे मांग बढ़ी निजी कंपनियोंं को अनुमति मिली। माईनिंग लाईसेंस कम से कम 20 वर्ष और अधिकतम 30 वर्ष हेतु दिये जाते हैं, और अधिकतम 10 वर्ग कि.मी. क्षेत्र हेतु।
- कुछ निजी कंपनियों ने पट्टे की भूमि के आगे जाकर खनन किया। उन्होनें रॉयल्टी और कर भी अदा नहीं किये, और अपशिष्ट निपटान में पर्यावरण मानकों को भी तोड़ा। ‘‘अवैध खनन’’ का जन्म हो चुका था। इन खदानों के पास रहने वालों को प्रदूषण ने काफी नुकसान पहुंचाया।
- गोवा के खदान उद्योग को 2012 के बाद प्रतिबंध झेलना पड़ा जब एम.बी. शाह पेनल की रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश जारी किये, जिसमें दावे थे कि 2005 से 2012 के बीच राज्य में रू. 35000 करोड़ का अवैध खनन हुआ था।
- यह उद्योग अक्टूबर 2012 से अप्रैल 2014 तक 19 महीनों के लिये प्रतिबंधित रहा, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अनेको शर्तें लगाते हुये इसे चलाने की अनुमति दी।
- किंतु राज्य सरकार द्वारा इन शर्तों का अनुपालन न होने से, फरवरी 2018 में, गोवा राज्य में लोह अयस्क खनन पर सुप्रीम कोर्ट ने पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया।
10.0 धारा 377 और सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
भारतीय दंड़ संहिता 1860 की धारा 377 कुछ कृत्यों को गैर कानूनी बनाती है। यह एक पुरातन औपनिवेशिक कानून है जो अंग्रेजों द्वारा लाया गया था। यह धारा इस मामले में तटस्थ है कि यह कुछ यौन कृत्यों का अपराधीकरण करता है न कि व्यक्तियों या उनकी पहचानों का। हालांकि इसका इस्तेमाल कभी भी सहमत विषमलैंगिक व्यक्तियों के विरुद्ध नहीं किया गया और समलैंगिक व्यक्तियों के विरुद्ध इसका दुरूपयोग किया गया है। इस कानून के प्रावधानों की मूलभूत समस्या यह है कि यह उम्र और सहमति को विचार में ही नहीं लेता। इसीलिए यह वयस्क व्यक्तियों द्वारा सहमति के साथ किये गए समलैंगिक कृत्यों को अपराध बनाता है। न्यायालयों के समक्ष धारा 377 के विरुद्ध लड़ाई 2001 से जारी है। यह लड़ाई दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष नाज़ फाउण्डेशन द्वारा दायर याचिका से शुरू हुई। बाद में अन्य याचिकाकर्ता भी जुडे। दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाज़ फाउण्डेशन बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अपना फैसला ससुनाया।
उच्च न्यायालय ने घोषित किया कि ‘‘भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जहां तक यह वयस्कों द्वारा निजी जीवन में किये गए सहमत लैंगिक कृत्यों को अपराध बनाती है, संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है।‘‘ उच्च न्यायालय ने धारा 377 के दुरूपयोग की व्याख्या करने के लिए हलफनामों, प्राथमिकियां और निर्णयों और आदेशों का सहारा लिया। उन्होंने शैक्षिक साहित्य, वैज्ञानिक चिकित्सकीय साहित्य, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों, संविधान सभा के तर्क-वितर्कों, तुलनात्मक क्षेत्राधिकारों और भारत के श्रेष्ठ न्यायालयों के निर्णयों का भी आधार लिया।
उच्च न्यायालय ने यह माना कि जीवन के अधिकार को बहुमत क्या सोचता है इसके आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता, और धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त प्रतिष्ठा और निजित्व के अधिकार का उल्लंघन करती है। न्यायालय ने आगे यह भी माना कि किसी के साथ भी उनके लैंगिक अभिविन्यास के आधार पर पक्षपात नहीं किया जा सकता, और यह प्रावधान समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया और निर्णय दिया कि धारा 377 संविधान का उल्लंघन नहीं करती, अतः यह वैध है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय को अनेक आधारों पर तार्किक बनाया। पहला, उन्होंने निर्णय दिया कि संविधान के अनुसार संसद द्वारा प्रतिपादित किये गए सभी कानून वैध माने गए हैं। इसका अर्थ यह है कि किसी कानून को अवैध मानने के लिए यह साक्ष्यों द्वारा दिखाना पडे़गा कि कानून संविधान का उल्लंघन करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह ग्राह्य माना कि यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 संविधान के अंतर्गत अवैध है। न्यायालय ने यह भी माना कि इस बात के बहुत ही कम साक्ष्य उपलब्ध हैं कि इन प्रावधानों का पुलिस द्वारा दुरूपयोग किया जा रहा है। और यह भी सत्य है कि केवल इस कारण से कि पुलिस किसी कानून का दुरूपयोग कर रही है, स्वतः यह नहीं माना जा सकता कि कानून अवैध है। इसके लिए स्वतः कानून के स्वरुप में ऐसा कुछ होना अनिवार्य है जो असंवैधानिक है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, कानून को दुरूपयोग के बिना लागू किया जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह तर्क दिया गया कि चूंकि धारा 377 कुछेक लैंगिक कृत्यों पर लागू होती है, अतः इसका अनिवार्य रूप से यह अर्थ है कि समलैंगिक व्यक्तियों [LGBT], द्वारा की गई सभी लैंगिक अभिव्यक्तियाँ अप्राकृतिक हैं। इसका अर्थ यह होगा कि ऐसे व्यक्तियों द्वारा किये गए कोई भी लैंगिक कृत्य गैर कानूनी होंगे। अतः धारा 377 समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा की गई सभी लैंगिक अभिव्यक्तियों को प्रतिबंधित करती है। सर्वोच्च न्यायालय इस तर्क से सहमत नहीं हुआ और उसने निर्णय दिया कि धारा 377 केवल लैंगिक कृत्यों की बात करती है, यह लैंगिक अभिविन्यास या लैंगिक पहचान की बात नहीं करती। इसका अर्थ यह होगा कि असमलैंगिक व्यक्ति भी यदि धारा 377 में समाविष्ट कृत्य करते हुए पाये जाते हैं तो वे भी सजा के पात्र होंगे। अतः यह धारा समलैंगिकों को एक वर्ग के रूप में लक्षित नहीं करती। [LGBT = समलैंगिक महिलाएं, समलैंगिक पुरूष, अभयलिंगी, परालैंगिक]
आगे सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिकों (एल जी बी टी) के तथाकथित अधिकारों की रक्षा की चिंता में अन्य देशों के मामलों का आधार लिया है। उनका यह मत था कि अन्य देशों के मामलों का भारत के संदर्भ में सीधे उपयोग नहीं किया जा सकता। अतः दक्षिण अफ्रीका, फिजी, नेपाल, अमेरिका इत्यादि, जहां समलैंगिकता को गैर-कानूनी नहीं माना जाता है, उन देशों से लिए गए महत्वपूर्ण मामलों को सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान में नहीं लिया।
कानूनों को वैध माना जाता है अतः कानून में परिवर्तन करने का उत्तरदायित्व संसद का है। इस मामले में भी संसद धारा 377 को समाप्त करने या उसमें
संशोधन करने के लिए स्वतंत्र है। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि इतने वर्षों के बावजूद और ऐसा करने के कई अवसर मिलने के बाद भी संसद ने इस कानून में परिवर्तन नहीं किया। इन सभी तथ्यों को संज्ञान में लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया और धारा 377 को कायम रखा।
धारा 377
- 24 अगस्त 2017 को, उच्चतम न्यायालय ने निजता के अधिकार को मान्यता दी (9-0 का आदेश), और महत्वपूर्ण पुट्टस्वामी निर्णय में निजता को संविधान में मूल अधिकार निरूपित किया।
- न्यायालय ने समानता को जायज़ ठहराया और भेद-भाव की आलोचना की, और यह कहा कि लैगिंग अभिविन्यास संरक्षण मूल अधिकारों के हृदय में बसता है, और एल.जी.बी.टी. आबादी के अधिकार वास्तविक हैं और संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप भी।
- इस निर्णय का मतलब था कि धारा 377 असंवैधानिक हुई।
- जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के अपने ही नाज़ फाउण्डेशन निर्णय की पुनः सुनवाई मंजूर की। 6 सितंबर 2018 को, कोर्ट ने नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत संघ मामले में एकमत निर्णय सुनाते हुए कहा कि धारा 377 असंवैधानिक है ‘‘जहां तक यह एक ही लिंग के वयस्कों के बीच सहमति से हुए यौन आचरण को आपराधिक बनाता है’’। इस प्रकार एक लंबी लड़ाई का पटाक्षेप हुआ।
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