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महत्वपूर्ण प्रावधान
1.0 प्रस्तावना
जब से भारतीय संविधान को स्वीकार किया गया है, तभी से धारा 352-356 में निहित आपातकालीन अधिकारों के कारण कई विवाद उत्पन्न हुए हैं। विडंबना यह है कि जिन्हें संविधान सभा के अध्यक्ष ने अपने भाषणों में मृत-पत्र घोषित किया था, वही प्रावधान सदा लटकती तलवार सिद्ध हुए, जिसके माध्यम से केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी ने, राज्यों में अपनी विरोधी पार्टी/पार्टियों की सरकारों को बर्खास्त करने के लिए इस्तमाल किया। सौ से भी ज्यादा अवसरों पर इन शक्तियों का उपयोग चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया गया, इससे यह सिद्ध हो गया कि ऐसे प्रावधानों के विरुद्ध अभिव्यक्त की गई आशंका पूर्णतः गलत नहीं थी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत सरकार अधिनियम, 1935 में भी ऐसे प्रावधान थे।
संविधान निर्माताओं ने निम्नलिखित कारणों से एकता, अखण्डता एवं संप्रभुता की रक्षा करने की जरूरत पर सारा ध्यान केन्द्रित किया था!
- विभाजन के दौरान, और पूर्व में उत्पन्न साम्प्रदायिक उन्माद;
- विभाजन के कारण उत्पन्न प्रशासनिक कार्य;
- सत्ता हस्तांतरण और शरणार्थियों की पुर्नस्थापना;
- खाद्य और आर्थिक संकट का सामना; और
- रियासतों की समस्या।
इसलिये संविधान निर्माताओं ने सुनिश्चित किया कि संविधान में ऐसी कई अनुच्छेद हों जिनके द्वारा केन्द्र सरकार को राज्य सरकार के मुकाबले अधिक शक्तियां प्रदान की जाएं।
2.0 संवैधानिक प्रावधान
अनुच्छेद 352 - आपातकाल की घोषणा
1. यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाता है कि गंभीर आपात विद्यमान है जिसे युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है, तो वह उद्घोषणा द्वारा संपूर्ण भारत या उसके राज्यक्षेत्र के ऐसे भाग के संबंध में जो उद्घोषणा में विनिर्दिष्ट किया जाए, इस आशय की घोषणा कर सकेगा।
2. खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा या ऐसी उद्घोषणा में किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा परिवर्तन किया जा सकेगा या उसको वापस लिया जा सकेगा।
3. राष्ट्रपति, खंड (1) के अधीन उद्घोषणा या ऐसी उद्घोषणा में परिवर्तन करने वाली उद्घोषणा तब तक नहीं करेगा जब तक संघ के मंत्रिमंडल का (अर्थात उस परिषद का जो अनुच्छेद 75 के अधीन प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल स्तर के अन्य मंत्रियों से मिलकर बनती है) यह विनिश्चय कि ऐसी उद्घोषणा की जाए, उसे लिखित रूप में संसूचित नहीं किया जाता है।
4. इस अनुच्छेद के अधीन की गई प्रत्येक उद्घोषणा संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी और जहां वह पूर्ववर्ती उद्घोषणा को वापस लेने वाली उद्घोषणा नहीं है वहां वह एक मास की समाप्ति पर, यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है तो, प्रवर्तन में नही रहेगीः
परन्तु यदि ऐसी कोई उद्घोषणा (जो पूर्ववर्ती उद्घोषणा को वापस लेने वाली उद्घोषणा नहीं है) उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है या लोक सभा का विघटन इस खंड में निर्दिष्ट एक मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्घोषणा के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात् प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है।
5. इस प्रकार अनुमोदित उद्घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, खंड (4) के अधीन उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाली संकल्पों में से दूसरे संकल्प के पारित किए जाने की तारीख से छह मास की अवधि की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगीः
परंन्तु यदि और जितनी बार ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प संसद् के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है तो और उतनी बार वह उद्घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, उस तारीख से जिसको वह इस खंड के अधीन अन्यथा प्रवर्तन में नहीं रहती, छह मास की और अवधि तक प्रवृत्त बनी रहेगीः
परंतु यह और कि यदि लोक सभा का विघटन छह मास की ऐसी अवधि के दौरान हो जाता है और ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा एक्त
अवधि के दौरान पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात प्रथम बार बैठती है, तस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है।
6. खंड (4) और खंड (5) के प्रयोजनों के लिए, संकल्प संसद के किसी सदन द्वारा उस सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यो में से कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा ही पारित किया जा सकेगा।
7. पूर्वगामी खंडों में किसी बात केहोते हुए भी, यदि लोक सभा खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा या ऐसी उद्घोषणा में परिवर्तन करने वाली उद्घोषणा का, यथास्थिति, अनुमोदन या उसे प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प पारित कर देती है तो राष्ट्रपति ऐसी उद्घोषणा को वापस ले लेगा।
8. जहां खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा या ऐसी उद्घोषणा में परिवर्तन करने वाली उद्घोषणा का, यथास्थिति, अननुमोदन या उसको प्रवृत्त बनाए रखने का अननुमोदन करने वाले संकल्प को प्रस्तावित करने के अपने आशय की सूचना लोक सभा की कुल सदस्य संख्या के कम से कम दसवें भाग द्वारा हस्ताक्षर करके लिखित रूप में, -
(क) यदि लोक सभा सत्र में है तो अध्यक्ष को, या
(ख) यदि लोक सभा सत्र में नहीं है तो राष्ट्रपति को,
दी गई है वहां ऐसे संकल्प पर विचार करने के परियोजन के लिए लोक सभा की विशेष बैठक, यथास्थिति, अध्यक्ष या राष्ट्रपति को ऐसी सूचना प्राप्त होने की तारीख से चौदह दिन के भीतर की जाएगी।
9. इस अनुच्छेद द्वारा राष्ट्रपति को प्रदत्त शक्ति के अंतर्गत, युद्ध या बाह्य आक्रमण या (सशस्त्र विद्रोह) के अथवा युद्ध या बाह्य आक्रमण या (सशस्त्र विद्रोह) का संकट सन्निकट होने के विभिन्न आधारों पर विभिन्न उद्घोषणाएं करने की शक्ति होगी चाहे राष्ट्रपति ने खंड (1) के अधीन पहले ही कोई उद्घोषणा की है या नहीं और ऐसी उद्घोषणा परिवर्तन में है या नहीं।
अनुच्छेद 353 - आपात की उद्घोषणा का प्रभाव - जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब -
(क) संविधान में किसी बात के होते हुए भी, संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को इस बारे में निदेश देने तक होगा कि वह राज्य अपनी कार्यपालिका शक्ति का किस रीति से प्रयोग करें;
(ख) किसी विषय के संबंध में विधियां बनाने की संसद् की शक्ति के अंतर्गत इस बात के हेते हुए भी अकि वह संघ सूची में प्रगणित विषय नहीं है, ऐसी विधियां बनाने की शक्ति होगी जो एस विषय के संबंध में संघ को या संघ के अधिकारियों और प्राधिकारियों को शक्तियों प्रदान करती हैं और उन पर कर्तव्य अधिरोपित करती हैं या शक्तियों का प्रदान किया जाना और कर्तव्यों का अधिरोपित किया जाना प्राधिकृत करती हैः
परन्तु जहां आपात की उद्घोषणा भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग में परिवर्तन में है वहां -
(i) खंड (क) के अधीन निदेश देने की संघ की कार्यपालिका शक्ति का, और(ii) खंड (ख) के अधीन विधि बनाने की संसद् की शक्ति का विस्तार किसी ऐसे राज्य पर भी होगा जो उस राज्य से भिन्न है जिसमें या जिसके किसी भाग में आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में हैं।
अनुच्छेद 354 - जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब राजस्वों के विस्तार संबंधी उपबंधों का लागू होना -
1. जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब राष्ट्रपति, आदेश द्वारा, यह निदेश दे सकेगा कि इस संविधान के अनुच्छेद 268 से अनुच्छेद 279 के सभी या कोई उपबंध ऐसी किसी अवधि के लिए, जो उस आदेश में विनिर्दिष्ट की जाए और जो किसी भी दशा में उस वित्तीय वर्ष की समाप्ति से आगे नहीं बढ़ेगी, जिसमें ऐसी उद्घोषणा प्रवर्तन में नहीं रहती है, ऐसे अपवादों या उपान्तरणों के अधीन रहते हुए प्रभावी होंगे जो वह ठीक समझे।
2. खंड (1) के अधीन किया गया प्रत्येक आदेश, किए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र, संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखा जाएगा।
अनुच्छेद 355 - बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति से राज्य की संरक्षा करने का संघ का कर्तव्य - संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशान्ति से प्रत्येक राज्य की संरक्षा करे और प्रत्येक राज्य की सरकार का इस संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया जाना सुनिश्चित करें।
अनुच्छेद 356 - राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में उपबंध -
1. यदि राष्ट्रपति का किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा, यह समाान हो जाता है क ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा -
(क) उस राज्य की सरकार के सभी या कोई कृत्य और (राज्यपाल) में या राज्य के विधान मंडल से भिन्न राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य सभी या कोई शक्तियां अपने हाथ में ले सकेगा;परन्तु इस खंड की कोई बात राष्ट्रपति को उच्च न्यायालय में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य किसी शक्ति को अपने हाथ में लेने या उच्च न्यायालयों से संबंधित इस संविधान के किसी उपबंध के प्रवर्तन को पूर्णतः या भागतः निलंबित करने के लिए प्राधिकृत नहीं करेगी।
2. ऐसी कोई उद्घोषणा किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या उसमें परिवर्तन किया जा सकेगा।
3. इस अनुच्छेद के अधीन की गई प्रत्येक उद्घोषणा संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी और जहां वह पूर्ववर्ती उद्घोषणा को वापस लेने वाली उद्घोषणा नहीं है वहां वह दो मास की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद् के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता हैः
परन्तु यदि ऐसी कोई उद्घोषणा (जो पूर्ववर्ती उद्घोषणा को वापस लेने वाली उद्घोषणा नहीं है) उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है या लोक सभा का विघटन इस खंड में निर्दिष्ट दो मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्घोषणा के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात् प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है।
4. इस प्रकार अनुमोदित उद्घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, ऐसी उद्घोषणा के किए जाने की तारीख से छह मास की अवधि की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी।
परन्तु यदि और जितनी बार ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प संसद् के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है तो और उतनी बार वह उद्घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, उस तारीख से जिसको वह इस खंड के अधीन अन्यथा प्रवर्तन में नहीं रहती है, छह मास की अवधि तक प्रवृत्त बनी रहेगी, किन्तु ऐसी उद्घोषणा किसी भी दशा में तीन वर्ष से अधिक प्रवृत्त नहीं रहेगीः
परन्तु यह और कि यदि लोक सभा का विघटन छह मास की ऐसी अवधि के दौरान हो जाता है और ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उक्त अवधि के दौरान पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से, जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात् प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता हैः
परन्तु यह भी कि पंजाब राज्य की बात 11 मई, 1987 को खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा की दशा में, इस खंड के पहले परन्तुक में ‘‘तीन वर्ष’’ के प्रति निर्देश का इस प्रकार अर्थ लगाया जाएगा मानो वह पांच वर्ष के प्रति निर्देश हो।
5. खंड (4) में किसी बात के होते हुए भी, खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्घोषणा के किए जाने की तारीख से एक वर्ष की समाप्ति से आगे किसी अवधि के लिए ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प संसद् के किसी सदन द्वारा तभी पारित किया जाएगा जब -
(क) ऐसे संकल्प के पारित किए जाने के समय आपात की उद्घोषणा, यथास्थिति, अथवा संपूर्ण भारत में संपूर्ण राज्य या उसके किसी भाग में प्रवर्तन में है; और(ख) निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर देता है कि ऐसे संकल्प में विनिर्दिष्ट अवधि के दौरान खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखना, संबंधित राज्य की विधान सभा के साधारण निर्वाचन कराने में कठिनाईयों के कारण, आवश्यक है
परन्तु इस खंड की कोई बात पंजाब राज्य की बाबत 11 मई, 1987 को खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा को लागू नहीं होगी।
अनुच्छेद 357 के अधीन की गई उद्घोषणा के अधीन विधायी शक्तियों का प्रयोग -
1. जहां अनुच्छेद 353 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा द्वारा यह घोषणा की गई है कि राज्य के विधान मंडल की शक्तियां संसद् द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोक्तव्य होंगी वहां -
(क) राज्य के विधान मंडल की विधि बनाने की शक्ति राष्ट्रपति को प्रदान करने की और इस प्रकार प्रदत्त शक्ति का किसी अन्य प्राधिकारी को, जिसे राष्ट्रपति इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, ऐसी शर्तों के अधीन, जिन्हें राष्ट्रपति अधिरोपित करना ठीक समझे, प्रत्यायोजन करने के लिए राष्ट्रपति को प्राधिकृत करने की संसद को,(ख) संघ या उसके अधिकारियों और प्राधिकारियों को शक्तियां प्रदान करने या उन पर कर्तव्य अधिरोपित करने के लिए अथवा शक्तियों का प्रदान किया जाना या कर्तव्यों का अधिरोपित किया जाना प्राधिकृत करने के लिए, विधि बनाने की संसद् को अथवा राष्ट्रपति को या ऐसे अन्य प्राधिकारि को, जिसमें ऐसी विधि बनाने की शक्ति उपखंड (क) के अधीन है
2. राज्य के विधान मंडल की श्क्ति का प्रयोग करते हुए संसद द्वारा, अथवा राष्ट्रपति या खंड (1) के उपखंड (क) में निर्दिष्ट अन्य प्राधिकारी द्वारा, बनाई गई ऐसी विधि, जिसे संसद् अथवा राष्ट्रपति या ऐसा अन्य प्राधिकारी अनुच्छेद 356 के अधीन की गई उद्घोषणा के अभाव में बनाने के लिए सक्षम नहीं होता, उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने के पश्चात् तब तक प्रवृत्त बनी रहेगी जब तक सक्षम विधान मंडल या अन्य प्राधिकारी द्वारा उसका परिवर्तन या निरसन या संशोधन नहीं कर दिया जाता है।
अनुच्छेद 358 - आपात के दौरान अनुच्छेद 19 के उपबंधों का निलंबन -
1. जब युद्ध या बाह्य आक्रमण के कारण भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा के संकट में होने की घोषणा करने वाली आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब अनुच्छेद 19 की कोई बात भाग 3 में यथा परिभाषित राज्य की कोई ऐसी विधि बनाने की या कोई ऐसी कार्यपालिका कार्रवाई करने की शक्ति को, जिसे वह राज्य उस भाग में अंतर्विष्ट उपबंधों के अभाव में बनाने या करने के लिए सक्षम होता, निर्बंधित नहीं करेगी, किन्तु इस प्रकार बनाई गई कोई विधि उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर अक्षमता की मात्रा तक उन बातों के सिवाय तुरन्त प्रभावहीन हो जाएगी, जिन्हें विधि के इस प्रकार प्रभावहीन होने के पहले किया गया है या करने का लोप किया गया हैः
परन्तु जहां आपात की ऐसी उद्घोषणा भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग में प्रवर्तन में है वहां, यदि और जहां तक भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा, भारत के उस भाग में या उसके संबंध में, जिसमें आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, होने वाले क्रियाकलाप के कारण संकट में है तो और वहां तक, ऐसे राज्य या संघ राज्यक्षेत्र में या उसके संबंध में, जिसमें या जिसके किसी भाग में आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में नहीं है, इस अनुच्छेद के अधीन ऐसी कोई विधि बनाई जा सकेगी या ऐसी कोई कार्यपालिका कार्रवाई की जा सकेगी।
2. खंड (1) की कोई बात -
(क) किसी ऐसी विधि को लागू नहीं होगी जिसमें इस आशय का उल्लेख अंतर्विष्ट नहीं है कि ऐसी विधि उसके बनाए जाने के समय प्रवृत्त आपात की उद्घोषणा के संबंध में है; या(ख) किसी ऐसी कार्यपालिका कार्रवाई को लागू नहीं होगी जो ऐसा उल्लेख अंतर्विष्ट करने वाली विधि के अधीन न करके अन्यथा की गई है।
अनुच्छेद 359 आपात के दौरान भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन का निलबंन -
1. जहां आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है वहां राष्ट्रपति, आदेश द्वारा यह घोषणा कर सकेगा कि अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 को छोड़कर भाग 3 द्वारा प्रदत्त ऐसे अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए, जो उस आदेश में उल्लेखित किए जाएं, किसी न्यायालय को समावेदन करने का अधिकार और इस प्रकार उल्लेखित अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए किसी न्यायालय में लंबित सभी कार्यवाहियां उस अवधि के लिए जिसके दौरान उद्घोषणा प्रवृत्त रहती है या उससे लघुतर ऐसी अविध के लिए जो आदेश में विनिर्दिष्ट की जाए, निलंबित रहेंगी।
(1क) जब अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 को छोड़कर भाग 3 द्वारा प्रदत्त किन्हीं अधिकारों को उल्लेखित करने वाला खंड (1) के अधीन किया गया आदेश प्रवर्तन में है तब उस भाग में उन अधिकारों को प्रदान करने वाली कोई बात उस भाग में यथापरिभाषित राज्य की कोई ऐसी विधि बनाने की या कोई ऐसी कार्यपालिका कार्रवाई करने की शक्ति को, जिसे वह राज्य उस भाग में अंतर्विष्ट उपबंधों के अभाव में बनाने या करने के लिए सक्षम होता, निर्बंधित नहीं करेगी, किन्तु इस प्रकार बनाई गई कोई विधि पूर्वोक्त आदेश के प्रवर्तन में न रहने पर अक्षमता की मात्रा तक उन बातों के सिवाय तुरन्त प्रभावहीन हो जाएगी, जिन्हें विधि के इस प्रकार प्रभावहीन होने के पहले किया गा है या करने का लोप किया गया हैः
परन्तु जहां आपात की उद्घोषणा भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग में प्रवर्तन में है वहां, यदि और जहांतक भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा, भारत के राज्यक्षेत्र के उस भाग में या उसके संबंध में, जिसमें आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, होने वाले क्रियाकलाप के कारण संकट में है तो और वहां तक, ऐसे राज्य या संघ राज्यक्षेत्र में या उसके संबंध में, जिसमें या जिसके किसी भाग में आपात की उद्घोषण प्रवर्तन में नहीं है, इस अनुच्छेद के अधीन ऐसी कोई विधि बनाई जा सकेगी या ऐसी कोई कार्यपालिका कार्रवाई की जा सकेगी।
(1ख) खंड (1क) की कोई बात -
(क) किसी ऐसी विधि को लागू नहीं होगी जिसमें इस आशय का उल्लेख अंतर्विष्ट नहीं है कि ऐसी विधि उसके बनाए जाने के समय प्रवृत्त आपात की उद्घोषणा के सबंध में है; या
(ख) किसी ऐसी कार्यपालिका कार्रवाई को लागू नहीं होगी जो ऐसा उल्लेख अंतर्विष्ट करने वाली विधि के अधीन न करके अन्यथा की गई है।
2. पूर्वोक्त रूप में किए गए आदेश का विस्तार भारत के संपूर्ण राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग पर हो सकेगाः
परन्तु जहां आपात की उद्घोषणा भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग में प्रवर्तन में है वहां किसी ऐसे आदेश का विस्तार भारत के राज्यक्षेत्र के किसी अन्य भाग पर तभी होगा जब राष्ट्रपति, यह समाधान हो जाने पर कि भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा, भारत के राज्यक्षेत्र के उस भाग में या उसके संबंध में, जिसमें आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, होने वाले क्रियाकलाप के कारण संकट में है, ऐसा विस्तार आवश्यक समझता है।
3. खंड (1) के अधीन किया गया प्रत्येक आदेश, किए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र, संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखा जाएगा।
अनुच्छेद 359क - इस भाग का पंजाब राज्य को लागू होना - संविधान (63 वां संशोधन) अधिनियम, 1989 की धारा 3 द्वारा (6-1-1990 से) निरसित।
अनुच्छेद 360 - वित्तीय आपात के बारे में उपबंध -
1. यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिससे भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व या प्रत्यय संकट में है तो वह उद्घोषणा द्वारा इस आशय की घोषणा कर सकेगा।
2. खंड(1) के अधीन की गई उद्घोषणा -
(क) किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या परिवर्तित की जा सकेगी;(ख) संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी;
(ग) दो मास की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नही रहेगी यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद् के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता हैः
परन्तु यदि ऐसी कोई उद्घोषणा उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है या लोकसभा का विघटन उपखंड (ग) में निर्दिष्ट दो मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्घोषणा के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उएस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो उद्घोषणा उस तारीख से, जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात् प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है।
3. उस अवधि के दौरान, जिसमें खंड (1) में उल्लेखित उद्घोषणा प्रवृत्त रहती है, संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को वित्तीय औचित्य संबंधी ऐसे सिद्धांतों का पालन करने के लिए निदेश देने तक, जो निदेशों में विनिर्दिष्ट किए जाएं, और ऐसे अन्य निदेश देने तक होगा जिन्हें राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिए देना आवश्यक और पर्याप्त समझें।
4. इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी -
(क) ऐसे किसी निदेश के अंतर्गत
(i) किसी राज्य के कार्यकलाप के संबंध में सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग को व्यक्तियों के वेतनों और भत्तों में कमी की अपेक्षा करने वाला उपबंध;(ii)धन विधेयकों या अन्य ऐसे विधेयकों को, जिनको अनुच्छेद 207 के उपबंध लागू होते हैं, राज्य के विधान मंडल द्वारा पारित किए जाने के पश्चात् राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखने के लिउ उपबंध हो सकेंगे;
(ख) राष्ट्रपति, उस अवधि के दौरान, जिसमें इस अनुच्छेद के अधीन की गई उद्घोषणा प्रवृत्त रहती है, संघ के कार्यकलाप के संबंध में सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग के व्यक्तियों के, जिनके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश हैं, वेतनों और भत्तों में कमी करने के लिए निदेश देने के लिए सक्षम होगा।
3.0 प्रावधानों की व्याख्या
3.1 राष्ट्रीय आपातकाल
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 352 राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने से संबंधित प्रावधानों के विषय में है। राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा उन परिस्थितियों में की जाती है जब भारत या इसके किसी प्रदेश की सुरक्षा को युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण गंभीर खतरा उत्पन्न होता है। इस प्रकार के आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में हुए निर्णय के लिखित अनुरोध के आधार पर की जाती है। हालांकि इसके लिए सुरक्षा उपायों का भी प्रावधान किया गया है जिनके अनुसार संसद का अनुमोदन आवश्यक है।
राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई आपातकाल की प्रत्येक उद्घोषणा को संसद के प्रत्येक सदन के पटल पर रखना आवश्यक है, यदि संसद एक महीने की अवधि में इसका अनुमोदन नहीं करती है तो एक महीने की अवधि समाप्त होने पर यह स्वयमेव समाप्त हो जायेगा। एक समय में आपातकाल केवल छह महीने के लिए ही प्रभावी रहेगा, यदि छह महीने की अवधि समाप्त होने के पूर्व राष्ट्रपति इसे रद्द नहीं करते हैं। आपातकाल के आगे जारी रहने के लिए यह प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा कम से कम दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाना चाहिए।
अनुच्छेद 352 के तहत जब आपातकाल लागू किया जाता है तब कार्यकारी, विधायी और वित्तीय शक्तियां केंद्र सरकार में निहित होती हैं। हालांकि राज्यों की विधानसभाएं निलंबित नहीं की जाती हैं। संविधान के अनुच्छेद 250 के तहत केंद्र को राज्य सूची में शामिल विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार प्राप्त होता है। केवल अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 को छोडकर अन्य सभी मौलिक अधिकार निलंबित रहते हैं। आपातकाल की घोषणा होने के बाद अनुच्छेद 359 के तहत राष्ट्रपति को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय में जाने के नागरिकों के अधिकार को भी निलंबित करने का अधिकार है।
देश में राष्ट्रीय आपातकाल तीन बार लागू किया गया है - वर्ष 1962 में चीनी आक्रमण के दौरान, 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान, और आतंरिक गड़बड़ी के आधार पर वर्ष 1975 में।
3.1.1 आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (Maintenance of Internal Security Act, MISA)
आतंरिक सुरक्षा रखरखाव अधिनियम वर्ष 1971 में संसद द्वारा पारित एक विवादित कानून था, जिसने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी प्रशासन और भारतीय कानून प्रवर्तन अभिकरणों को विशाल शक्तियां प्रदान की थीं, जैसे
- व्यक्तियों की अपरिमित निवारक नजरबंदी,
- वारंट के बिना संपत्ति की तलाशी और जब्ती
- वायरटैपिंग, भारत में बढ़ती राजनीतिक उथल-पुथल के शमन के लिए, साथ ही विदेश-प्रेरित अंतर्ध्वंस, आतंकवाद, छ्ल-कपट और राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे का मुकाबला करने के लिए।
यह कानून मानवाधिकारों के कानूनी और संवैधानिक सुरक्षा उपायों की अनदेखी करने के कारण बदनाम हुआ, और इसका उपयोग श्रीमती इंदिरा गांधी का विरोध करने वाले सभी विपक्षी नेताओं को गिरतार करके जेल भेजने के रूप में राजनीतिक प्रतिशोध के साधन के रूप में किया गया था। राष्ट्रीय आपातकाल (1975-1977) की अवधि के दौरान हजारों निरपराध नागरिकों को कथित रूप से मनमाने ढंग से गिरतार किया गया था, उन्हें यातनाएं दी गेन और कुछ मामलों में उनकी जबरन नसबंदी की गई। इस कानून को इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधकों की गिरतारी को उचित साबित करने के लिए भी लागू किया गया था, जिनमें विरोधी जनता पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी शामिल थे। भारतीय संविधान के 39 वें संशोधन अधिनियम (1975) ने मीसा को संविधान की 9 वीं अनुसूची में रखा, और इस प्रकार इसे किसी भी न्यायिक समीक्षा से मुक्त किया गया य इस आधार पर भी कि यह संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता थाय या संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता था।
1977 में जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के गठित होने के बाद इस कानून को निरस्त किया गयाय उसी प्रकार 1987 के 44 वें संशोधन अधिनियम ने मीसा को 9 वीं अनुसूची से निकाल दिया। इस कानून के विवादित उत्तराधिकारियों में आतंकवाद एवं विघटनकारी गतिविधि (निवारक) अधिनियम और आतंकवाद निवारण अधिनियम शामिल हैं, जिनकी आलोचना नागरिक स्वतंत्रता के लिए उचित सुरक्षा उपाय किये बिना आतंरिक और सीमा-पार से होने वाली आतंकवादी गतिविधियों और राजनीतिक हिंसा का मुकाबला करने के लिए किये गए अत्यधिक बल प्रयोग के लिए की जाती है।
3.2 राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता
अनुच्छेद 356 राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता को संबोधित करता है जिसे राष्ट्रपति शासन के नाम से भी जाना जाता है। यदि राज्यपाल से रिपोर्ट प्राप्त होने पर या अन्यथा भी यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हैं कि राज्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि संविधान के प्रावधानों के अनुसार राज्य में शासन चलाना संभव नहीं है तो वे राज्य में आपातकाल जारी कर सकते हैं।
राष्ट्रपति आपातकाल की घोषणा या तो राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर कर सकते हैं या वे स्वयं इस बात से संतुष्ट हैं कि राज्य में आपातकाल जारी किया जाना आवश्यक है। परंतु कभी-कभी राष्ट्रपति तब भी आपातकाल घोषित कर सकते हैं जब राज्यपाल की रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई है। यह कार्य वर्ष 1991 में राष्ट्रपति वेंकटरमण ने तमिलनाडु में किया था जब उन्हें राज्यपाल की ओर से रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई थी।
संविधान के 42 वें संशोधन ने अनुच्छेद 356 के तहत की गई आपातकाल की घोषणा को न्यायिक समीक्षा से मुक्त रखा। परंतु बाद में 44 वें संशोधन ने इस स्थिति को उलट दिया, और राष्ट्रपति शासन की वैधता को चुनौती दी जा सकती थी।
राज्य के आपातकाल के संबंध में उद्घोषणा को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखा जायेगा, और जब तक कि दोनों सदन इसका अनुमोदन नहीं करते तो यह दो महीने की अवधि की समाप्ति के बाद स्वयं समाप्त हो जाएगी। साथ ही इस उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनों द्वारा प्रस्ताव पारित करके प्रत्येक बार 6 महीने की अवधि के लिए बढ़ाया जा सकता है यदि वे मानते हैं कि यह जारी रहना चाहिए। हालांकि एक वर्ष की अवधि के पश्चात यह उद्घोषणा तभी जारी रह सकती है यदि निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित करता है कि संबंधित राज्य या प्रदेश में चुनाव संपन्न कराना संभव नहीं है।
3.2.1 राज्य के आपातकाल के प्रभाव
- राज्य की सभी कार्यकारी शक्तियां स्वयं राष्ट्रपति के पास आ जाती हैं। राज्य का प्रशासन उनके द्वारा या उनके द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति द्वारा चलाया जाता है, आमतौर पर यह शक्ति राज्य के राज्यपाल के पास हस्तांतरित हो जाती है।
- इस प्रकार की उद्घोषणा की अवधि के दौरान राज्य की विधानसभा या तो भंग कर दी जाती है या निलंबित की जाती है। परंतु विधायकों की विधानसभा सदस्यता समाप्त नहीं होती।
- राज्य सूची से संबंधित विषयों पर संसद द्वारा कानून बनाये जाते हैं। संसद ही राज्य का बजट पारित करती है।
- राज्य का उच्च न्यायालय स्वतंत्र रूप से कार्य करता है।
- राष्ट्रपत राज्य में अध्यादेशों की उद्घोषणा भी करते हैं।
राज्य के आपातकाल के दौरान केंद्र शासन का न्यायपालिका को छोड़कर राज्य पर निरपेक्ष नियंत्रण होता है। यदि हम पूर्व की राज्यों के आपातकाल की घटनाओं पर नजर डालें तो तीन आम कारण नजर आते हैं जिनके कारण अनुच्छेद 356 को लागू करना आवश्यक हुआ है - कानून व्यवस्था की स्थिति में व्यवधान, राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार और कुप्रशासन।
रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघराज्य (बिहार विधानसभा भंग करने का मामला) मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 356 के तहत बिहार विधानसभा को भंग करने की राष्ट्रपति की उद्घोषणा असंवैधानिक थी, यह असंगत और अप्रासंगिक आधारों पर आधारित थी। न्यायालय ने कहा था कि राज्य विधानसभा भंग करने की सिफारिश करके राज्य के राज्यपाल द्वारा केंद्र को गुमराह किया गया था।
3.3 वित्तीय आपातकाल
संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत राष्ट्रपति को वित्तीय आपातकाल घोषित करने का अधिकार प्राप्त है, यदि वे संतुष्ट हैं कि भारत या उसके प्रदेश के किसी भाग की वित्तीय स्थिरता या भारत की साख को खतरा है। इसे भी संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना आवश्यक है और यदि दो महीने पूर्ण होने के पूर्व दोनों सदनों के प्रस्ताव पारित नहीं हो पाते तो दो महीने बाद यह स्वयं समाप्त हो जाता है।
वित्तीय आपातकाल लागू होने के दौरान केंद्र की कार्यकारी शक्ति विस्तारित हो जाती है और वह राज्य को कुछ विशिष्ट सिद्धांतों या वित्तीय औचित्य का अनुसरण करने के निर्देश जारी कर सकता है, साथ ही वह ऐसे अन्य निर्देश भी जारी कर सकता है जो राष्ट्रपति उचित समझें। इन निर्देशों में राज्य शासन के कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कटौती करना और राज्य के उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों सहित केंद्र के कार्यों से संबंधित सभी के वेतन और भत्तों में कटौती करने के निर्देश शामिल हैं। भारत में अभी तक वित्तीय आपातकाल लागू करने की कोई घटना नहीं हुई है।
3.4 एस. आर. बोम्मई मामला
कर्नाटक विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते जनता पार्टी ने एस. आर. बोम्मई के नेतृत्व में सरकार का गठन किया। सितम्बर 1988 में, जनता पार्टी और लोकदल का विलय हो गया, नयी पार्टी का नाम जनता दल रखा गया और 13 नये सदस्यों के साथ मंत्रीपरिषद का विस्तार किया गया। दो दिन के भीतर ही, जनता दल विधायक के. आर. मोलाकरी ने दलबदल कर लिया। उन्होंने राज्यपाल को 19 विधायकों का हस्ताक्षर युक्त एक पत्र सौंपा जिसमें मंत्रिमण्डल से समर्थन वापसी बात कही गयी थी। 19 अप्रैल को राज्यपाल ने राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट भेजी जिसमें कहा गया कि सत्ताधारी दल में असंतोष और मतभेद हैं। उन्होंने आगे कहा कि इन 19 विधायकों के समर्थन वापसी के कारण मुख्यमंत्री विधानसभा में बहुमत खो चुके हैं। यह संविधान सम्मत भी नहीं है कि राज्य का प्रशासन ऐसी मंत्री परिषद के अधीन हो जिसे राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त न हो। अतः उन्होनें राष्ट्रपति को अनुशंसा की कि उन्हें धारा 356(1) की शक्तियों को प्रयोग करना चाहिए। यद्यपि अगले ही दिन उन 19 में 7 विधायकों ने राज्यपाल को शिकायती पत्र भेजा कि पूर्व में प्रेषित पत्र में उन्हें भ्रमित कर हस्ताक्षर लिये गये तथा उन्होंने मुख्यमंत्री तथा सरकार में अपना पूर्ण समर्थन व्यक्त किया। मुख्यमंत्री और उनके कानून मंत्री, उसी दिन राज्यपाल से मिले और उन्हें राज्यविधान सभा का विशेष सत्र आहूत करने की सूचना दी ताकि सरकार सदन में अपना बहुमत सिद्ध कर सके। हालांकि, सरकार को अपना बहुमत सिद्ध करने का एक भी अवसर दिये बगैर राज्यपाल ने उसी दिन अर्थात 20-04-1989 को एक अन्य रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजी, जिसमें कहा कि मुख्यमंत्री ने सदन में बहुमत का विश्वास खो दिया है और अनुच्छेद 356(1) के तहत कार्यवाही के अपने अनुरोध को दोहराया। उसी दिन राष्ट्रपति ने उपरोक्त वर्णित तथ्यों के आधार पर उद्घोषणा की। इस उद्घोषणा को धारा 356(3) के अनुसार संसद द्वारा अनुमोदित भी किया गया।
इस उद्घोषणा की वैधता को चुनौती देने वाली एक याचिका 26 अप्रैल 1989 को उच्च न्यायालय में लगाई गयी। कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की एक तीन-सदस्यीय विशेष पीठ ने याचिका को खारिज कर दिया।
उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में, इस शक्ति के स्वेच्छाचारी अनुप्रयोग को तर्कसम्मत नियंत्रण की सीमा में लाने के लिए, अपना निर्णय दिया।
3.4.1 उच्चतम न्यायालय के निर्णय के मुख्य अंश
भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपने 200 पृष्ठीय निर्णय में राष्ट्रपति के धारा 356 के उपयोग संबंधी उद्घोषणा के अधिकार को ’न्यायिक समीक्षा‘ के अधीन घोषित किया और इस धारा के उपयोग पर कुछ प्रतिबंध भी लगा दिये। उन प्रतिबंधों का विवरण निम्नानुसार हैः
- धारा 356 के तहत प्रदत्त शक्तियां असाधारण हैं और इनका उपयोग संयम से किया जाना चाहिए।
- भारत का संघीय ढाँचा संविधान में अंतर्निहित एक आवश्यक तत्व है और किसी भी ऐसी राज्य सरकार को जिसे जनता का विश्वास प्राप्त हो स्वेच्छाचारी तरीके से बर्खास्त नहीं किया जाना चाहिए।
- इस शक्ति का अनुप्रयोग अंतिम विकल्प के रूप में तब किया जाना चाहिए जबकि सामान्य स्थिति बहाल करने के धारा 356 के अधीन अन्य सारे विकल्प असफल हो गये हां, और यह जरूरी कदम अत्यावश्यक हो गया हो।
- इस शक्ति का अनुप्रयोग तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि एक विधिवत् गठित सरकार जिसे बहुमत का समर्थन प्राप्त हो और वह सुशासन के पैमानों का पालन कर रही हो ।
- इस शक्ति का अनुप्रयोग इस आधार पर नहीं किया जाना चाहिए कि राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी ने लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। यदि ऐसा होता है तो इसे स्पष्ट रूप से एक असंवैधानिक व्यवहार माना जाना चाहिए।
- किसी राज्य सरकार को बर्खास्त करने के पूर्व उसे राष्ट्रपति की ओर से एक चेतावनी जारी होना चाहिए ताकि तत्संबंधी राज्य को स्वयं में सुधार करने का एक अवसर उपलब्ध हो। यद्यपि इस किस्म की चेतावनी चरम आवश्यकता के समय टाली भी जा सकती है। यदि ऐसा नहीं होता है तो इसके परिणाम घातक भी हो सकते हैं।
इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि धारा 356 को निम्न परिस्थितियों में लागू नहीं किया जाना चाहिएः
- यदि कोई राज्य राष्ट्रपति से चेतावनी मिलने के पश्चात स्वयं में सुधार कर लेता है;
- किसी भी राज्य सरकार को वित्तीय अनियमितताओं भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से राहत देने के लिए;
- सत्तारूढ़ दल के विवादों, आतंरिक मतभेदों या समस्याओं को सुलझाने के लिए;
- केन्द्र में सत्तारूढ़ राजनैतिक दल के फायदे और राज्य सरकार के नुकसान के लिए;
- संवैधानिक योजना के लोकतांत्रिक और संघीय ताने-बाने को नष्ट करने के लिए;
- जब तक की सशस्त्र विद्रोह की कोई स्थिति पैदा नहीं हो जाती और न की आंतरिक अव्यवस्था की साधारण स्थिति।
इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट कर दिया गया कि ‘‘धारा 356 के उपबंध(3) में निहित प्रावधान संसद के अधीन परिक्षण योग्य हैं और इसी धारा के उपबंध (1) में निहितराष्ट्रपति की शक्तियां भी।’’ अतः धारा 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन की घोषणा को संसद के दोनो सदनों की सहमति मिलना एक आवश्यक पूर्व शर्त के रूप में रखी गयी। अतः इस शक्ति का मनमाना प्रयोग केन्द्र सरकार के लिए अब आसान रूप से उपलब्ध नहीं रहा।
4.0 धारा 370
जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी उपबंध
इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी -
1. अनुच्छेद 238 के उपबंध जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में लागू नहीं होंगे;
2. उक्त राज्य के लिए विधि बनाने की संसद् की शक्ति -
(i) संघ सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों तक सीमित होगी जिनको राष्ट्रपति, उस राज्य की सरकार से परामर्श करके, उन विषयों के तत्स्थानी विषय घोषित कर दे जो भारत डोमिनियन में उस राज्य के अधिमिलन को शासित करने वाले अधिमिलन पत्र में ऐसे विषयों के रूप में विनिर्दिष्ट हैं जिनके संबंध में डोमिनियन विधान मंडल उस राज्य के लिये विधि बन सकता है; और(ii) उक्त सूचियों को उन अन्य विषयों तक सीमित होगी जो राष्ट्रपति, उस राज्य की सरकार की सहमति से, आदेश द्वारा, विनिर्दिष्ट करे।
स्पष्टीकरण - इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, उस राज्य की सरकार से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जिसे राष्ट्रपति से, जम्मू-कश्मीर के महाराजा की 5 मार्च, 1948 की उद्घोषणा के अधीन तत्समय पदस्थ मंत्रि परिषद की सलाह पर कार्य करने वाले जम्मू-कश्मीर के महाराजा के रूप में तत्समय मान्यता प्राप्त थी;
3. अनुच्छेद 1 और इस अनुच्छेद के उपबंध उस राज्य के संबंध में लागू होंगे;
4. इस संविधान के ऐसे अन्य उपबंध ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे, उस राज्य के संबंध में लागू होंगे;
परंतु ऐसा कोई आदेश जो उपखंड (ख) के पैरा (1) में निर्दिष्ट राज्य के अधिमिलन पत्र में विनिर्दिष्ट विषयों से संबंधित है, उस राज्य की सरकार से परामर्श करके ही किया जाएगा, अन्यथा नहींः
परंतु यह और कि ऐसा कोई आदेश जो अंतिम पूर्ववर्ती परंतुक में निर्दिष्ट विषयों से भिन्न विषयों से संबंधित है, उस सरकार की सहमति से ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
2. यदि खंड (1) के उपखंड (ख) के पैरा (2) में या उस खंड के उपखंड (घ) के दूसरे परंतुक में निर्दिष्ट उस राज्य की सरकार की सहमति, उस राज्य का संविधान बनाने के प्रयोजन के लिए संविधान सभा के बुलाए जाने से पहले दी जाए तो उसे ऐसी संविधान सभा के समक्ष ऐसे विनिश्चय के लिए रखा जाएगा जो वह उस पर करे।
3. इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकेगा कि यह अनुच्छेद प्रवर्तन में नहीं रहेगा या ऐसे अपवादों और उपांतरणों सहित ही और ऐसी तारीख से, प्रवर्तन में रहेगा, जो वह विनिर्दिष्ट करें
परंतु राष्ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना निकाले जाने से पहले खंड (2) में निर्दिष्ट उस राज्य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक होगी।
5.0 अनुच्छेद 370 की व्याख्या
भारत के संविधान के भाग XXI में ‘‘अस्थाई, संक्रमणकालीन और विशिष्ट प्रावधानों’’ का उल्लेख है। धारा 370 इसी भाग के अंतर्गत वर्णित है। इस धारा के अनुसार, जम्मू एवं कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्रदान किया गया है। यहां तक कि पहली अनुसूची में 15वें राज्य के रूप में शामिल होने के बावजूद संविधान के सभी प्रावधान जो अन्य सभी राज्यों पर लागू होते हैं जम्मू एवं कश्मीर पर लागू नहीं होते।
5.1 धारा 370 के छः प्रमुख प्रभाव
- जम्मू और कश्मीर को राज्य के प्रशासन के लिए संविधान के प्रावधानों से छूट दी गई है। जम्मू एवं कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर अपने स्वयं के संविधान की अनुमति दी गई थी।
- जम्मू और कश्मीर के लिए भारतीय संसद की विधायी शक्तियां केवल तीन विषयों- रक्षा, विदेश और संचार तक ही सीमित हैं। राष्ट्रपति इन्हें एक संवैधानिक ढाँचा उपलब्ध कराते हुए विस्तारित भी कर सकता है, यदि वे प्रावधान विलय की शर्तों के अनुसार हैं तो। इसके लिए राज्य सरकार के साथ केवल परामर्श आवश्यक था क्योंकि राज्य विलय के समय अन्य शर्तें स्वीकार कर चुका हैं।
- किंतु यदि अन्य संवैधानिक प्रावधान या अन्य संघीय शक्तियों का विस्तार कश्मीर में किया जाना है तो इसके लिए राज्य सरकार की पूर्व सहमति आवश्यक है।
- यह सहमति राज्य की संविधान सभा द्वारा अनुमोदित होनी चाहिए। धारा 370(2) में स्पष्ट रूप से कहा गया हैः ‘‘राज्य के संविधान के निर्माण के उद्देश्य के लिए बुलाई गयी सभा के पूर्व ही राज्य सरकार तत्संबंधी सहमति संविधान सभा के पूर्व दे सकती है, संविधान सभा के आहूत होने की स्थिति में यह निर्णय केवल सभा में ही हो सकता है’’।
- ‘सहमति‘ देने का राज्य सरकार का अधिकार केवल तब तक होता है जब तक कि राज्य की संविधान सभा आहूत न हो। राज्य सरकार की यह केवल एक अंतरिम शक्ति है। संविधान सभा की बैठक के समय राज्य सरकार अपनी ओर से सहमति नहीं दे सकती। फिर भी केवल तब तक संविधान सभा स्थगित हो अनुमति दी जा सकती है। इसके अतिरिक्त भारत के राष्ट्रपति अनिश्चितकाल के लिए कश्मीर में भारतीय संविधान का विस्तार करने की अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकते।
- धारा 370 (3) राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह इसे निराकृत या परिवर्तित कर सके। किन्तु इसके लिए भी राष्ट्रपति की अधिसूचना जारी करने के पूर्व से भी राज्य की संविधान सभा की अनुमति आवश्यक है।
यद्यपि, धारा 370 को दूसरे अन्य राज्यों में लागू धारा 368 के अधीन संविधान संशोधन के प्रावधानों के समान निराकृत या संशोधित नहीं किया जा सकता अर्थात् कश्मीर के संबंध में धारा 368 का प्रावधान कहता है कि संविधान संशोधन से आशय जम्मू एवं कश्मीर के संबंध में तभी प्रभावी होगा जब तक कि राष्ट्रपति धारा 370 के अधीन आदेश जारी नहीं करते। अतः यहाँ राज्य सरकार और संविधान सभा के अनुसमर्थन की सहमति आवश्यक है।
6.0 राष्ट्रपति की विधायी शक्तियां
संसद के विश्रांतिकाल में अध्यादेश प्रख्यापित करने की राष्ट्रपति की शक्तिः
1. उस समय को छोड़कर जब संसद् के दोनों सदन सत्र में हैं, यदि किसी समय राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियां विद्यमान है जिनके कारण तुरंत कार्रवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है तो वह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उसे उन परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों।
2. इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित अध्यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो संसद् के अधिनियम का होता है, किन्तु प्रत्येक ऐसा अध्यादेश-
(क) संसद् के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा और संसद के पुनः समवेत होने से छह सप्ताह की समाप्ति पर या यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले दोनों सदन उसके अनुनमोदन का संकल्प पारित कर देते हैं तो, इनमें से दूसरे संकल्प के पारित होने पर प्रवर्तन में नहीं रहेगा; और
(ख) राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय वापस लिया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण - जहां संसद् के सदन, भिन्न-भिन्न तारीखों को पुनः समवेत होने के लिए, आहूत किए जाते हैं वहां इस खंड के प्रयोजनों के लिए, छह सप्ताह की अवधि की गणना उन तारीखों में से पश्चात्वर्ती तारीख से की जाएगी।
3. यदि ओर जहां तक इस अनुच्छेद के अधीन अध्यादेश कोई ऐसा उपबंध करता है जिसे अधिनियमित करने के लिए संसद इस संविधान के अधीन सक्षम नहीं है तो और वहां तक वह अध्यादेश शून्य होगा।
7.0 अध्यादेशों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 123 भारत के राष्ट्रपति को तब अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्रदान करता है जब कुछ विशिष्ट परिस्थितियां विद्यमान हों। अध्यादेश ऐसे किसी भी विषय से संबंधित हो सकते हैं जिनपर संसद को कानून बनाने का अधिकार है। परंतु इस अधिकार का उपयोग केवल निम्न परिस्थितियों में ही किया जा सकता हैः
- जब विधायिका का अधिवेशन जारी नहीं हैः राष्ट्रपति तभी अध्यादेश जारी कर सकते हैं जब संसद के किसी भी सदन का अधिवेशन नहीं चल रहा हो।
- तत्काल कार्यवाही आवश्यक हैः हालांकि राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है, फिर भी जब तक वे स्वयं संतुष्ट नहीं हो जाते कि देश में परिस्थितियां ऐसी हैं जहां उन्हें तत्काल कार्यवाही करना आवश्यक है, तब तक अध्यादेश जारी नहीं किये जा सकते।
- संसद द्वारा अनुमोदन आवश्यक हैः अध्यादेश जारी होने के बाद यह आवश्यक है कि संसद का अधिवेशन शुरू होने के छह सप्ताह के अंदर संसद द्वारा इसका अनुमोदन किया जाए। यदि अध्यादेश को किसी भी सदन द्वारा अस्वी.त कर दिया जाता है तो यह निरस्त हो जायेगा।
राष्ट्रपति अपने इस अधिकार का उपयोग केवल प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिमंडल की सहमति के साथ ही कर सकते हैं। हालांकि वे किसी भी अध्यादेश को किसी भी समय वापस ले सकते हैं। अध्यादेश भूतलक्षी (पूर्वप्रभावी) भी हो सकते हैं साथ ही वे संसद के किसी भी अधिनियम या अन्य अध्यादेश को संशोधित या निरस्त भी कर सकते हैं। हालांकि अध्यादेशों के माध्यम से संविधान में संशोधन नहीं किया जा सकता।
7.1 अध्यादेश जारी करने की प्रवृत्ति
वर्ष 1950 से 2008 की अवधि के दौरान जारी किये गए अध्यादेशों में वित्तीय क्षेत्र (कुल अध्यादेशों की संख्या 129), श्रम (46), वाणिज्य एवं उद्योग (28), गृह मंत्रालय से संबंधित मामले (102) और कानून एवं न्याय (29) का आधिक्य रहा है। इन सभी में से केवल कुछ अध्यादेशों को ही वास्तविक अपातकालों, अतः एक संवैधानिक दायित्व के रूप में आवश्यक, के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है।
जबकि पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी लोकसभा के पर्यवेक्षण के तहत जारी किये गए अध्यादेशों की संख्या क्रमशः 39, 20, 31 और 34 थी, वहीं पांचवीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान जारी किये गए अध्यादेशों की संख्या तिगुनी हो गई, अर्थात इस लोकसभा के कार्यकाल के दौरान कुल 90 अध्यादेश जारी किये गए।
अध्यादेशों की संख्या की ऊपर जाती प्रवृत्ति को जनता दल ने उलट दिया, जिसने 1977-1979 के दौरान शासन के अपने तीन वर्षों के कार्यकाल के दौरान केवल 34 अध्यादेश जारी किये। अगली दो सरकारों ने प्रति वर्ष औसत 10 अध्यादेश जारी किये।
वर्ष 1991 से 1996 तक अधिकार पर रही नरसिंहा राव सरकार ने प्रति वर्ष औसत 21 अध्यादेश जारी किये, और इनमें से किसी भी अध्यादेश का संबंध भ्रष्टाचार और घोटालों या विद्यमान राजनीतिक अस्थरिता से नहीं था। वास्तविकता तो यह थी कि इनमें से किसी भी अध्यादेश को विधेयक के रूप में संसद के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया था। वर्ष 1998 से 2004 के दौरान जारी एनडीए सरकार ने प्रति वर्ष औसत 14.6 अध्यादेश जारी किये, और बाद में 2004 से 2009 के दौरान चली यूपीए सरकार ने प्रति वर्ष औसत केवल 6.8 अध्यादेश जारी किये। वर्ष 2009 से 2014 के दौरान जारी किये गए अध्यादेशों की कुल संख्या केवल 25 थी।
7.2 राष्ट्रपति की संतुष्टि
अध्यादेश जारी करने के अधिकार के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है राष्ट्रपति की संतुष्टि का विषय यह कि ऐसी परिस्थितियां विद्यमान होनी चाहियें जहां ‘‘राष्ट्रपति द्वारा‘‘ तत्काल कार्यवाही आवश्यक है। शीर्ष न्यायालय ने अभी तक ‘‘राष्ट्रपति की संतुष्टि‘‘ को परिभाषित नहीं किया है और न ही इस बात को परिभाषित किया है कि क्या राष्ट्रपति की व्यक्तिपरक संतुष्टि को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। इंदिरा गांधी की नेतृत्व वाली सरकार ने 38 वां संविधान (संशोधन)
अधिनियम, 1975 पारित किया था, जिसके माध्यम से राष्ट्रपति की व्यक्तिपरक संतुष्टि को न्यायिक समीक्षा की परिधि से बाहर रखा गया है। हालांकि 44 वें (संशोधन) अधिनियम, 1978 ने इस खंड को यह कहते हुए हटाया है कि यदि राष्ट्रपति की संतुष्टि बदनीयत, भ्रष्ट प्रयोजन या दुर्भावना पर आधारित है तो इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
ए के रॉय बनाम भारत संघराज्य (1982) 1 एससीसी 271 मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि राष्ट्रपति की व्यक्तिपरक संतुष्टि पूर्ण रूप से गैर-न्यायोचित नहीं है। बाद में वेंकट रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1985) 3 एससीसी 198 मामले में शीर्ष न्यायालय ने अपने निर्णय को उलट दिया और व्यवस्था दी कि राष्ट्रपति की संतुष्टि पर न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाये जा सकते और यह न्यायिक समीक्षा की परिधि से बाहर है।
7.3 महत्वपूर्ण मामले
आर सी कूपर बनाम भारत संघराज्य (बैंक राष्ट्रीयकरण मामला) मामले में 25 वें संशोधन अधिनियम, 1971 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी, जो व्यक्ति के संपत्ति के अधिकार में कटौती करता था और सार्वजनिक उपयोग के लिए सरकार द्वारा अधिग्रहण की अनुमति देता था, क्षतिपूर्ति के भुगतान पर, जिसका निर्धारण संसद को करना था न कि न्यायालय को। सर्वोच्च न्यायालय ने बैंकिंग कंपनी अध्यादेश, 1969 की वैधानिकता का परीक्षण किया, जिसके माध्यम से भारत की 14 वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना था। न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि राष्ट्रपति की संतुष्टि पर न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता और यह न्यायिक समीक्षा की परिधि से बाहर है।
ए के रॉय बनाम भारत संघराज्य मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश, 1980 की संवैधानिकता का परीक्षण करते हुए, जिसे कुछ मामलों में निवारक नजरबंदी के लिए जारी किया गया था, न्यायालय ने तर्क दिया था कि अध्यादेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की परिधि से बाहर नहीं है। हालांकि न्यायालय मामले के मुद्दों पर आगे विचार नहीं पाया क्योंकि राष्ट्रपति के अध्यादेश को एक अधिनियम द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया था। न्यायालय ने यह भी निर्देशित किया कि केवल ठोस आधारों पर ही राष्ट्रपति के निर्णय पर न्यायिक समीक्षा आवश्यक है और प्रत्येक ‘‘अनौपचारिक चुनौती‘‘ पर इसकी आवश्यकता नहीं है।
एस के जी शुगर लिमिटेड बनाम बिहार राज्य मामले में यह निर्णय दिया गया था राज्यपाल द्वारा अध्यादेश जारी करना पूर्णरूप से उनकी व्यक्तिपरक संतुष्टि पर आधारित है और अध्यादेश जारी करने की अनिवार्यता पर विचार करने के लिए वे अकेले निर्णयकर्ता हैं। उनकी संतुष्टि न्यायोचित मामला नहीं है।
टी वेंकट रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में याचिकाकर्ता ने आंध्र प्रदेश अंशकालिक ग्राम अधिकारी पद उन्मूलन अध्यादेश, 1984 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। इसमें एक आधार यह था कि यह अध्यादेश इस आधार पर शून्य था क्योंकि राज्यपाल द्वारा इस पर दिमाग का उपयोग नहीं किया गया था, और इसके जारी होने के समय से ही राज्य की विधानसभा इसे अस्वीकृत करती जा रही थी। ऐसा कहा जाता है कि अध्यादेश राष्ट्रपति द्वारा जारी करने के साथ ही प्रभावी हो जाता है और एक विधायी अधिनियम द्वारा ही यह निरस्त होता है।
उपरोल्लिखित मामले में न्यायालय द्वारा जो एक प्रश्न उठाया गया था वह यह थाः कि ‘‘क्या जारी किये गए अध्यादेश की वैधता का परीक्षण उन्हीं समान आधारों पर किया जा सकता है जिन आधारों पर कार्यपालिका या न्यायपालिका के कार्यों का परीक्षण किया जाता है।‘‘ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा के नागराज बनाम कर्नाटक राज्य मामले में दिए गए अपने ही निर्णय का हवाला दिया था, और निर्णय दिया गया कि अध्यादेश निर्माण का कार्य एक विधायी कार्य है अतः कानून बनाने से संबंधित मामलों को जिन आधारों पर चुनौती दी जा सकती है उन्हीं आधारों पर कार्यकारी या न्यायिक निर्णयों को भी चुनौती दी जा सकती है।
आगे एस आर बोम्मई बनाम भारत संघराज्य मामले में न्यायिक समीक्षा की व्याप्ति को विस्तारित किया गया। न्यायालय ने माना कि जहां राष्ट्रपति द्वारा प्रसंगोचित सामग्री के बिना कोई कार्यवाही की जाती है, तो वे निर्णय ‘‘स्पष्ट रूप से विकृत‘‘ की श्रेणी में आएंगे और इस कार्य को बदनीयत से किया गया कार्य माना जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 356 (1) के तहत अध्यादेश जारी करने के अधिकार का राष्ट्रपति द्वारा किया गया उपयोग न्यायोचित है और दुर्भावना के आधार पर इसे दी गई चुनौती न्यायिक समीक्षा के दायरे में आती है।
उडीसा राज्य बनाम भूपेंद्र कुमार बोस मामले में न्यायालय ने माना कि अध्यादेश द्वारा निर्मित अधिकार और दायित्व उसी समय से प्रभावी हो गए जब अध्यादेश जारी किया गया और इन्हें तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक कोई विधायी निकाय अध्यादेश के इन अधिकारों और दायित्वों को समाप्त नहीं करता। हालांकि जब कोई अध्यादेश अधिकारों का दुरूपयोग करके जारी किया जाता है, और जो संविधान के साथ किया गया एक प्रकार का धोखा है तो इस प्रकार की उद्घोषणा से निर्मित स्थिति को तुरंत सुधारा जाना चाहिए। किसी अध्यादेश को निम्न आधारों पर चुनौती देने के लिए खुला किया जायेगाः
- इसका अर्थ छलपूर्ण कानून है; या
- यह हमारे संविधान में उल्लिखित किन्ही मौलिक अधिकारों का हनन करता है; या
- यह हमारे संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधानों का उल्लंघन करता है जैसे अनुच्छेद 301; या
- इसकी पूर्वप्रभाविता असंवैधानिक है।
हालांकि अध्यादेश एक कार्यकारी निकाय द्वारा बनाये जाते हैं, जिसे एक एकल, एकीकृत संस्था कहा जाता है। राष्ट्रपति कार्यकारी निकाय का प्रमुख होता है जो मंत्रिमंडल की सलाह पर अध्यादेश की उद्घोषणा करता है। अध्यादेश की उद्घोषणा की सबसे महर्वपूर्ण आवश्यकता है ‘‘तुरंत कार्यवाही करने की अनिवार्यता‘‘। तब राष्ट्रपति की संतुष्टि सुनिश्चित करने के कोई कठिनाई नहीं होगी कि अध्यादेश जारी करने की वास्तविक आवश्यकता कब है।
आगे, डी सी वाधवा बनाम बिहार राज्य मामले में बिहार सरकार द्वारा बार-बार अध्यादेश जारी करने और पुनः जारी करने के कार्य को चुनौती दी गई थी क्योंकि अध्यादेशों की उद्घोषणाएं ‘‘विशाल पैमाने‘‘ पर की जा रही थीं। वर्ष 1967 से 1981 के बीच 256 अध्यादेश जारी किये गए और पुनः-पुनः जारी किये गए और इनमें से कुछ अध्यादेश 14 वर्षों तक अस्तित्व में रहे। इस पर न्यायमूर्ति पी एन भगवती ने निम्न टिप्पणी की थीः
‘‘अध्यादेश जारी करें का अधिकार एक असामान्य स्थिति से निपटने के लिए दिया गया है, और इसे किसी व्यक्ति के राजनीतिक साध्यों को प्राप्त करने के लिए उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि कार्यकारी द्वारा कानून बनाने का कार्य लोकतांत्रिक मानदंडों के विरोध में है परंतु राष्ट्रपति को यह शक्ति आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए प्रदान की गई है अतः इसे के विशिष्ट समय के लिए ही सीमित रखा जाना चाहिए।‘‘
अध्यादेशों की न्यायिक समीक्षा के अधिकार की चर्चा एक बार फिर से वर्ष 1998 के कृष्णा कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में की गई थी। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ी संख्या में अध्यादेशों को यह कहते हुए खारिज किया था कि इन मामलों में राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति का कोई विशिष्ट आधार नहीं दिखाया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘‘कि एक अध्यादेश के ऊपर दूसरा अध्यादेश जारी करने के लिए कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया था।‘‘
हालांकि राष्ट्रपति के अध्यादेश जारी करने की शक्ति की केवल व्यभिचारिता ने शीर्ष न्यायालय को कुछ हद तक न्यायिक समीक्षा करने के लिए बाध्य किया है, फिर भी राष्ट्रपति या राज्यपालों द्वारा जारी किये जाने वाले अध्यादेशों पर न्यायालय द्वारा न्यायिक समीक्षा के दायरे के विषय में अभी भी कोई स्पष्टता नहीं है।
अधिकांश मामलों में अध्यादेश जारी करने की शक्ति एक विवादित और चर्चा का विषय रही है। यह संवैधानिक व्यवस्था में एक प्रकार के मनमानेपन के कारण कार्यपालिका और विधायिका के बीच के संतुलन और कानून के शासन को बिगाड़ने का प्रयास करती है। जब कभी भी किसी कार्यकारी निकाय द्वारा अध्यादेश जारी करने की इस शक्ति का उपयोग किया जाता है तो ऐसे समय वह विधायिका के प्रति अवहेलना प्रदर्शित करता है। अभी तक केवल कुछ आधार ही स्थापित हो पाये हैं जिनके आधार पर अध्यादेशों की वैधता को चुनौती दी जा सकती हैः
- जब यह सीधे तौर पर संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है,
- जब राष्ट्रपति द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण किया गया है,
- राष्ट्रपति ने अपनी शक्तियों का छलपूर्ण उपयोग किया है।
8.0 महत्वपूर्ण सिद्धांत
8.1 ग्रहण का सिद्धांत (The Doctrine of Eclipse)
ग्रहण के सिद्धांत में प्रावधान है कि ऐसे मामले में जहाँ कोई कानून भारत के संविधान का मसौदा तैयार होने से पूर्व से अस्तित्व में था वह संविधान में पतिष्ठापित मौलिक अधिकारों से विसंगत है तो ऐसे कानून उनकी विसंगतियों की सीमा तक अमान्य होंगे। यहाँ ध्यान देने योग्य मुख्य मुद्दा यह है कि संविधान निर्माण के पूर्व का कानून आरंभ से ही शून्य नहीं हो जाता, बल्कि यह केवल उस सीमा तक शून्य होता है जिस सीमा तक टकराव है। जब कोई न्यायालय किसी कानून के किसी भाग को अमान्य कर देता है, तो यह उस सीमा तक अप्रवर्तनीय हो जाता है जिस सीमा तक न्यायालय द्वारा उसे अमान्य किया गया है। अतः यह कहा जाता है कि ऐसे कानून पर ग्रहण लग गया है। ऐसा कानून केवल अमान्य हो जाता है परंतु उसका अस्तित्व बना रहता है। ऐसे कानून पर से ग्रहण तब उठता है जब कोई अन्य न्यायालय (संभवतः एक अधिक उच्च स्तरीय न्यायालय) फिर से उस कानून को मान्य बना देता है या उसमे विधान के माध्यम से कोई संशोधन किया जाता है। यदि संविधान में बाद में किया गया कोई संशोधन इस विद्यमान कानून की मौलिक अधिकारों के साथ हुई विसंगति या टकराव को दूर कर देता है तो इसका ग्रहण दूर हो जाता है और ऐसा कानून एक बार फिर से सक्रिय हो जाता है।
केशव माधव बनाम बम्बई राज्य मामले में मुद्दा यह था कि पहले से एक कानून था जिसका भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (जी) में निहित स्वतंत्रता के अधिकार के साथ टकराव था। संविधान निर्माण के पूर्व के कानून में अधिरोपित प्रतिबंधों को अनुच्छेद 19 की उपधारा (6) द्वारा स्पष्ट किये गए अनुसार न्यायोचित नहीं माना जा सकता था। माननीय न्यायालय ने माना कि इसके कारण संविधान निर्माण के पूर्व के कानून को पूर्णतः शून्य नहीं बनाता बल्कि वह केवल विसंगति की सीमा तक ही इसे शून्य बनाता है।
भिकाजी नारायण धाकरस बनाम मध्यप्रदेश राज्य के मामले में भी न्यायालयों द्वारा यही रुख अपनाया गया था। इस मामले में माननीय न्यायालय द्वारा टिप्पणी की गई थी कि ‘‘अनुच्छेद 13 (1) को उसकी भाषा के कारण इस प्रकार से नहीं पढ़ा जा सकता कि उसने विसंगत कानून को विरूपित है या उसे पूरी तरह से विधान पुस्तक से नष्ट कर दिया है। ऐसा कानून संविधान निर्माण की तारीख से पूर्व भी इससे पूर्व के सभी लेन-देन के समय और अधिकारों और देयताओं के प्रवर्तन के लिए भी अस्तित्व में था। और उन लोगों के संबंध में, जो देश के नागरिक नहीं थे और जो मौलिक अधिकारों पर दावा पेश नहीं कर सकते थे संविधान के लागू हो जाने के बाद भी यह कानून प्रभावी बना रहा।’’ भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पी. रतिनम मामले में भारतीय दंड संहिता, 1860 के अनुच्छेद 309 को असंवैधानिक माना है। अतः इस अनुच्छेद पर ग्रहण लगा हुआ था। हालांकि ज्ञान कौर मामले में एक संविधान पीठ ने इस निर्णय को उलट दिया और अनुच्छेद को संवैधानिक माना जिसके कारण इस अनुच्छेद का ग्रहण हट गया और यह पुनः एक प्रभावी कानून बन गया।
8.2 प्रतिकूलता का सिद्धांत (The Doctrine of Repugnancy)
संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में प्रतिकूलता, विरुद्धता या जुगुप्सा को किसी कानून के दो या अधिक भागों के बीच संघर्ष या टकराव के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 254 दृढ़तापूर्वक प्रतिकूलता के सिद्धांत को भारतीय संविधान में संरक्षित करता है। अनुच्छेद 254 कहता है कि संसद संसद भारत के एक भाग या पूरे देश के लिए कानून बना सकती है और राज्यों की विधायिकाएं उस राज्य के किसी भाग या संपूर्ण राज्य के लिए कानून बना सकती हैं। यह आगे कहता है कि संसद द्वारा निर्मित किसी भी कानून को केवल इस कारण से अमान्य नहीं माना जा सकता कि उसकी प्रभाविता राज्यक्षेत्रातीत हो सकती है।
अनुच्छेद 246 संसद और राज्यों की विधायिकाओं की विधायी शक्तियों के विषय में कहता है। यह कहता है किः
- संसद को पहली सूची में दर्शाये गए या सातवीं अनुसूची में दर्शाये गए किसी भी मामले पर कानून निर्माण की अनन्य शक्ति प्राप्त है।
- किसी भी राज्य की विधायिका को ऐसे राज्य की दूसरी सूची या सातवीं अनुसूची की दूसरी सूची में दर्शाये गए किसी भी मामले पर कानून निर्माण की अनन्य शक्तियां प्राप्त हैं।
- संसद और किसी भी राज्य की विधायिका को तीसरी सूची में शामिल या सातवीं अनुसूची की समवर्तती सूची में शामिल किसी भी मामले पर कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है।
- संसद को भारत के किसी भी प्रदेश के किसी भी भाग के उन मामलों पर कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त है जो किसी राज्य में शामिल नहीं है, बशर्ते कि ऐसा मामला राज्य सूची में शामिल है।
एम. करूणानिधि बनाम भारत संघ राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 254 (1) को संक्षेपित किया है। उसने कहा था कि ‘‘जहाँ समवर्तती सूची में शामिल मामले में यदि केंद्रीय कानून और राज्य के कानून बीच संपूर्ण विसंगति है और उनमें सुसंगति होना असंभव है, तो केंद्रीय अधिनियम राज्य के अधिनियम पर प्रबल होगा और राज्य का अधिनियम प्रतिकूलता के दृष्टिकोण से शून्य हो जायेगा।‘‘ न्यायालय ने प्रतिकूलता उत्पन्न होने से पहले उन स्थितियों और शर्तों को भी निर्धारित किया, जो निम्नानुसार हैं
- केंद्रीय अधिनियम और राज्य के अधिनियम के बीच सुस्पष्ट और प्रत्यक्ष विसंगति है।
- ऐसी विसंगति में समझौते की कोई गुंजाईश नहीं है।
- दोनों अधिनियमों के प्रावधानों के बीच की विसंगति ऐसी होनी चाहिए जिससे दोनों अधिनियम एक दूसरे के साथ प्रत्यक्ष संघर्षरत नजर आते हैं और ऐसी स्थिति निर्मित हो गई है जहां एक का पालन करने के लिए दूसरे की अवहेलना न करना असंभव है।
- ऐसी स्थिति में जहाँ कोई विसंगति नहीं है परन्तु एक कानून है जो उसी क्षेत्र पर बना हुआ है और वह भिन्न और अलग अपराध का निर्माण करता है, तो प्रतिकूलता का प्रश्न निर्माण नहीं होता और दोनों कानून उसी क्षेत्र में कार्यरत रह सकते हैं।
8.3 विच्छेदनीयता का सिद्धांत (The Doctrine of Severability)
विच्छेदनीयता का सिद्धांत बताता है कि यदि किसी अधिनियमन को उसकी संवैधानिकता के साथ सुसंगति का अर्थ समझाने के माध्यम से बचाया नहीं जा सकता तो यह देखना चाहिए कि क्या उसे आंशिक रूप से बचाया जा सकता है या नहीं। यदि कानून का कोई भाग शून्य साबित हो जाता है तो उस शून्यता का प्रभाव बाकी बचे हुए अधिनियम की वैधता को प्रभावित नहीं करेगा।
आर. एम. डी. चमरबॉगवाला बनाम भारत संघ राज्य मामले में न्यायालय ने कहा था कि संवैधानिकता के निर्धारण का महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि न्यायालय किसी कानून को केवल असंवैधानिकता के आधार पर अवैध घोषित करने के प्रति उदासीन हैं। न्यायालय उस व्याख्या को स्वीकार करेंगे जो संवैधानिकता के पक्ष में होगी न कि उस व्याख्या को जो उस कानून को ही असंवैधानिक बना देगी। किसी कानून को असंवैधानिक होने से बचाने के लिए न्यायालय कानून के पठन के मार्ग का सहारा ले सकते हैं। परंतु ऐसा करते समय वे कानून के सार को परिवर्तित नहीं कर सकते और न ही कोई ऐसा कानून बना सकते हैं जो उनकी राय में अधिक वांछनीय है।
सुरेश कुमार कौशल एवं अन्य बनाम नाज प्रतिष्ठान एवं अन्य के मामले में न्यायालय ने यह टिप्पणी की थी कि हालांकि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 377 की संवैधानिकता की समीक्षा करने और उसकी संविधान के साथ विसंगति से जुडे भाग को शून्य बनाने का अधिकार है परंतु ऐसी स्थिति में आत्म नियंत्रण रखना आवश्यक है और विश्लेषण का मार्गदर्शन संवैधानिकता की प्रकल्पना द्वारा होना चाहिए।
भिकाजी नारायण धाकरस एवं अन्य बनाम मध्यप्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में माननीय न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि ‘‘अनुच्छेद 13 (1) को उसकी भाषा के कारण इस प्रकार से नहीं पढ़ा जा सकता कि उसने विसंगत कानून को विरूपित है या उसे पूरी तरह से विधान पुस्तक से नष्ट कर दिया है। ऐसा कानून संविधान निर्माण की तारीख से पूर्व भी इससे पूर्व के सभी लेन-देन के समय और अधिकारों और देयताओं के प्रवर्तन के लिए भी अस्तित्व में था। और उन लोगों के संबंध में, जो देश के नागरिक नहीं थे और जो मौलिक अधिकारों पर दावा पेश नहीं कर सकते थे संविधान के लागू हो जाने के बाद भी यह कानून प्रभावी बना रहा।’’
8.4 संभाव्य या आभासी विधान का सिद्धांत (The Doctrine of Colourable Legislation)
संभाव्य या आभासी विधान का सिद्धांत इस तर्क पर आधारित है कि जो बात प्रत्यक्ष रूप से नहीं की जा सकती वह अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं की जा सकती। यदि कोई ऐसी विभायिका कानून बनाती है जिसे ऐसे कानून के निर्माण का वैधानिक अधिकार नहीं है और उसके लिए ऐसे छलावरण का निर्माण करता है ताकि वह कानून उसके अधिकारक्षेत्र का है ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसे कानून को संभाव्य या आभासी विधान माना जा सकता है।
के. सी. गजपति राजू बनाम ओडिशा राज्य मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि ‘‘यदि किसी राज्य का संविधान विधायी क्षेत्रों का विशिष्ट विधायी प्रविष्टियों के माध्यम से वितरण करता है या यदि विधायी शक्ति पर मौलिक अधिकारों के रूप में किसी प्रकार की कमियां या सीमाएं हैं तो ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या कानून की किसी विषयवस्तु से संबंधित या उस कानून के निर्माण की प्रक्रिया से संबंधित किसी विशिष्ट मामले में विधायिका ने उसे संविधान द्वारा प्रदत्त संवैधानिक शक्ति का अतिक्रमण किया है या नहीं। इस प्रकार का अतिक्रमण अव्यक्त प्रकट और प्रत्यक्ष हो सकता है परन्तु साथ ही यह विशिष्ट, ढंका हुआ और अप्रत्यक्ष भी हो सकता है और इन्हीं दूसरे वर्ग के मामलों में उक्ति ‘‘संभाव्य या आभासी विधान‘‘ को कुछ न्यायिक निर्णयों में लागू किया गया है।‘‘ समय के साथ विभिन्न न्यायिक निर्णयों के उन परीक्षणों का निर्धारण जो यह निर्धारित करते हैं कि कोई विशिष्ट विधान संभाव्य या आभासी विधान है या नहीं। ये परीक्षण निम्नानुसार हैंः
- न्यायालय को विवादित कानून के सार पर ध्यान देना चाहिए न कि इसके नाम पर जो उसे विधायिका द्वारा प्रदान किया गया है।
- एक संभाव्य या आभासी विधान का इसके प्रयोजन से अधिक संबंध नहीं है। उसकी मुख्य चिंता यह है कि क्या यह कानून विधायिका के अधिकारातीत है। साथ ही यदि विधायिका इस विशिष्ट कानून का अधिनियमन करने में सक्षम है अतः वे प्रयोजन जिन्होंने इसके अधिनियमन के लिए विधायिका को उत्प्रेरित किया है अप्रासंगिक हो जाते हैं।
8.5 अधित्याग का सिद्धांत (The Doctrine of Waiver)
अधित्याग का सिद्धांत इस तर्क पर आधारित है कि जो व्यक्ति कानूनी दायित्व के अधीन नहीं है वह अपने स्वहित का सर्वोत्तम निर्णयकर्ता होता है। मौलिक अधिकारों की अवधारणा भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। हालांकि ये अधिकार पवित्र और रक्षणीय हैं, किन्तु उनका स्वरुप निरपेक्ष नहीं है। हमारा संविधान मौलिक अधिकारों के उपयोग पर विभिन्न तर्कसंगत निर्बंध अधिरोपित करता है। अधित्याग के सिद्धांत के अनुसार किसी अधिकार के संबंध में छूट दी जा सकती है बशर्ते कि इसमें कोई सार्वजनिक हित शामिल नहीं है। हालांकि मौलिक अधिकारों के संबंध में अधित्याग के सिद्धांत का कार्यक्षेत्र कुछ हद तक अलग है। मौलिक अधिकारों को संविधान में केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए ही शामिल नहीं किया गया है, हालांकि अंततः वे व्यक्तिगत अधिकारों का विचार करने के संदर्भ में ही प्रयुक्त किये जाते हैं। इन अधिकारों को संविधान में एक सार्वजनिक नीति के रूप में शामिल किया गया है, और ‘‘अधित्याग का सिद्धांत’’ ऐसे कानून के प्रावधानों पर लागू नहीं होता जिसका अधिनियमन एक संवैधानिक नीति के रूप में किया गया है। यह टिप्पणी माननीय न्यायालय द्वारा बशेशर बनाम आयकर आयुक्त मामले में की गई थी।
अनुच्छेद 14 का अधित्याग नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एक सार्वजनिक नीति की दृष्टि से राज्य की भर्त्सना है जिसका उद्देश्य है समानता की सुनिश्चितता का क्रियान्वयन। संविधान के अनुसार व्यक्तिगत लाभ के लिए अधिनियमित मौलिक अधिकारों और सार्वजनिक हितों की दृष्टि से अधिनियमित किये गए मौलिक अधिकारों के बीच किसी प्रकार का अंतर नहीं है।
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