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संविधान संशोधन
1.0 संविधान संशोधन की आवश्यकता
प्रत्येक कानून विकास की प्रक्रिया से गुजरता है। समाज और उसके आदर्श बदलते हैं और कानून निर्माताओं के लिए यह परीक्षण करना आवश्यक हो जाता है कि मौजूदा कानून जनता की आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त है या नहीं। इसलिए प्रत्येक संविधान में ऐसे प्रावधान होते हैं जिसके द्वारा उसमें संशोधन किया जा सके। ये प्रावधान भविष्य में आने वाली संवैधानिक समस्याओं को दूर करने के लिए बनाये जाते हैं।
पण्डित जवाहरलाल नेहरु का यह कथन हमें संविधान निर्माताओं की संशोधनों की प्रकृति के संबंध में सोच की अन्तर्दृष्टि के बारे में बताता है।
‘‘हम जबकि एक दृढ़ और स्थायी संविधान बनाना चाहते हैं, और हम बना भी सकते हैं, तब भी हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि पूर्ण स्थायित्व नहीं होता। कुछ लचीलापन होना ही चाहिए। यदि आप किसी चीज को स्थाई और दृढ़ बनाते है तो लोगों के समूह के रुप में एक राष्ट्र की जीवंतता समाप्त हो जाती है। किसी भी परिस्थिति में हम ऐसा संविधान नहीं बना सकते जो परिवर्तनों को स्वीकार नही कर सके। जब सारा संसार एक संक्रमण काल से गुजर रहा हो तो आज जो हम कर रहे हैं जरुरी नहीं कि वह कल भी उतना सामयिक रहे।’’
यद्यपि प्रत्येक संविधान में संशोधन की प्रक्रिया होती है, एक कठोर संविधान में यह प्रक्रिया, किसी सामान्य अध्यादेश को लागू करने की अपेक्षा ज्यादा जटिल होती है। किसी लचीले संविधान में संशोधन की प्रक्रिया किसी सामान्य कानून को लागू करने जैसी आसान होती है। संविधान संशोधन के प्रावधान, भविष्य में आने वाली समस्याओं की संभावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए बनाए जाते हैं। लोगों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियाँ बदलती रहती हैं अत; देश का संवैधानिक कानून भी बदलना चाहिए। यदि संविधान संशोधन के प्रावधान नहीं होगे तो लोग संवैधानिक रीतियों के परे जाकर संशोधनों का मार्ग ढूँढेंगे। भारतीय संविधान के निर्माता एक ऐसे मसौदे को लेकर व्याकुल थे जो कि बढ़ते हुए राष्ट्र के साथ स्वयं भी विकसित हो सके और बदलती परिस्थितियों में स्वयं को अनुकूल रख सके। एक गतिहीन संविधान अंतत; राष्ट्र के विकास में बाधा बन जाता है।
1.1 अन्य संविधानों में संशोधनों के प्रावधान
अमेरिकाः संयुक्त राज्य अमेरिका में संविधान संशोधन का प्रस्ताव केवल कांग्रेस द्वारा दोनों सदनां, (कांग्रेस और सीनेट) में दो तिहाई बहुमत से या दोनां सदनों के कुल सदस्यों के दो-तिहाई सदस्यों की अनुमति से बुलाई गई सभा में पारित हो सकता है। प्रस्तावित संशोधनों को कुल राज्यों की विधायिकाओं की संख्या के तीन चौथाई सदस्यों द्वारा भी अनुमोदित होना चाहिए।
अमेरिका का संविधान 17 सितंबर 1787 को स्वीकार किया गया और इसमें 27 बार संशोधन हो चुके हैं। पहले 10 संशोधन कांग्रेस के द्वारा 25 सितंबर 1789 को प्रस्तावित किये गये और आवश्यक तीन चौथाई राज्यों के द्वारा 15 दिसम्बर 1791 को मंज़ूर करने के बाद स्वीकार कर लिये गये। ये पहले 10 संशोधन ’बिल ऑफ राइटस’ के नाम से जाने जाते हैं।
स्विट्जरलैंडः यहाँ कोई भी संविधान संशोधन बिना जनमत संग्रह के लागू नहीं होता है।
आस्ट्रेलियाः यहाँ संविधान संशोधन का विधेयक संसद के दोनां सदनों में पूर्ण बहुमत के द्वारा, या किसी परिस्थिति में कोई एक सदन इसे पारित करने से इंकार करता है तो, किसी एक सदन के पूर्णबहुमत द्वारा 3 माह के अन्तराल के बाद दूसरी बार में पारित किया जा सकता है। उस परिस्थिति में विधेयक को प्रत्येक राज्य में जनमत संग्रह से गुजरना होता है। यदि बहुमत के राज्यों में, मतदाता बहुमत से उस संशोधन को स्वीकार करते हैं तो इसे गवर्नर जनरल के सामने शाही मंज़ूरी हेतु रखा जाता है।
1.2 भारतीय संविधान संशोधन के तीन तरीके
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन प्रावधान निहित हैं। इस धारा 368 के कारण भारतीय संविधान न तो कठोर और न ही लचीला माना जाता है किन्तु वास्तव में यह आंशिक रुप से कठोर और आंशिक लचीला है। संविधान संशोधन के तीन तरीके इस प्रकार हैं :
- संसद में साधारण बहुमत द्वारा (द्वितीय अनुसूची, अनु. 100(3), 105, 11, 124, 135, 81, 137)
- विशिष्ट बहुमत द्वारा, अर्थात् प्रत्येक सदन की सदस्य संख्या का बहुमत और प्रत्येक सदन के उपस्थित वोट कर रहे सदस्यों की संख्या का दो-तिहाई बहुमत, या
- विशिष्ट बहुमत के बाद राज्य विधानसभा परिषदों के परिवर्धन द्वारा (धारा 73,162, भाग 5 का अध्याय 4, भाग 6 का अध्याय 5, सातवीं अनुसूची, संसद में राज्य का प्रतिनिधित्व और संविधान संशोधन के प्रावधान)
अनुच्छेद 368 - संविधान का संषोधन करने की संसद् की शक्ति और उसके लिये प्रक्रिया -
(1) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, संसद् अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करते हुए इस संविधान को किसी उपबंध का परिवर्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन इस अनुच्छेद में अधिकथित प्रक्रिया के अनुसार कर सकेगी।
(2) इस संविधान के संशोधन का आरंभ संसद् के किसी सदन में इस प्रयोजन के लिए विधेयक पुरःस्थापित करके ही किया जा सकेगा और जब वह विधेयक प्रत्येक सदन में उस सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया जाता है तब (वह राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, जो विधेयक को अपनी अनुमति देगा और तब) संविधान उस विधेयक के निबंधनों के अनुसार संशोधित हो जाएगाः
परंतु यदि ऐसा संषोधन -
(क) अनुच्छेद 54, अनुच्छेद 55, अनुच्छेद 73, अनुच्छेद 162 या अनुच्छेद 241 में, या(ख) भाग 5 के अध्याय 4, भाग 6 के अध्याय 5 या भाग 11 के अध्याय 1 में, या
(ग) सातवीं अनुसूची की किसी सूची में, या
(घ) संसद् में राज्यों के प्रतिनिधत्व में, या
कोई परिवर्तन करने के लिए है तो ऐसे संशोधन के लिए उपबंध करने वाला विधेयक राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिए प्रस्तुत किए जाने से पहले उस संशोधन के लिए कम से कम आधे राज्यों के विधान मंडलों द्वारा पारित इस आशय के संकल्पों द्वारा उन विधान मंडलों का अनुसमर्थन भी अपेक्षित होगा।
(3) अनुच्छेद 13 की कोई बात इस अनुच्छेद के अधीन किए गए किसी संशोधन को लागू नहीं होगी।
(4) इस संविधान का (जिसके अंतर्गत भाग 3 के उपबंध हैं) इस अनुच्छेद के अधीन (संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 55 के प्रारंभ से पहले या उसके पश्चात्) किया गया तात्पर्यित कोई संशोधन किसी न्यायालय में किसी भी आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा।
(5) शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि इस अनुच्छेद के अधीन इस संविधान के उपबंधों का परिवर्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन करने के लिए संसद् की संविधायी शक्ति पर किसी प्रकार का निर्बन्धन नहीं होगा।
भारतीय संविधान की अनुच्छेद 368 संशोधन की शक्ति और प्रकिया के बारे में बताती है। इस संबंध में पालन की जाने वाली प्रक्रिया न तो कठोर और न ही लचीली है, और जब संघ के ढ़ांचे से जुड़ा मुद्दा हो, तो अलग प्रक्रिया होती है। कोई संशोधन विधेयक किसी भी सदन के पटल पर रखा जा सकता है। भारत में सारे संविधान संशोधन विधेयक सामान्यत स्पष्ट बहुमत द्वारा ही प्रभावी होते हैं अर्थात् इसे दोनों ही सदनों द्वारा, कुल सदस्यों के 50 प्रतिशत से ज्यादा बहुमत एवं मौजूद व वोट डाल रहे सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जा सकता है।
अनुच्छेद 368 का उपबंध 2, उपरोक्त निर्दिष्ट के अतिरिक्त कुछ निश्चित परिस्थितियों को दर्शाता है, जिनमें आधे से अधिक संख्या में राज्यां से सहमति की आवश्यकता होती है। वे हैं
- राष्ट्रपति का चुनाव
- केन्द्र या राज्य के कार्यपालन अधिकारों का विस्तार
- उच्चतम न्यायालय से संबंधित प्रावधान
- राज्य एवं केन्द्रशासित प्रदेशों के उच्च न्यायालयों से संबंधित प्रावधान
- राज्य एवं केन्द्र के मध्य विधायी शक्तियों के वितरण का अधिकार
- राज्यों का केन्द्र में प्रतिनिधित्व
- सातवीं अनुसूची
- धारा 368 स्वयं भी
2.1 संसद के संविधान संशोधन के अधिकारों पर अकुंश, और न्यायालयीन समीक्षा
संसद को संविधान संशोधन के असीमित अधिकार देना, अधिकार न देने के समान ही खतरनाक हो सकता है। भारतीय संविधान के निर्माता इस तथ्य को जानते थे अतः उन्होने एक मध्यमार्ग चुना। यह न तो आवश्यक संशोधनां को स्वीकारने हेतु कठोर है और न ही अनिच्छित परिवर्तनों के लिए लचीला। संविधान के अनुसार, भारत में संसद और राज्य की विधायिका को अपने प्राधिकार क्षेत्रों में कानून बनाने का अधिकार है। यह अधिकार सर्वोच्च नही है। संविधान ने न्यायपालिका को कानूनों की संवैधानिक वैधता को परखने का अधिकार दिया है। यदि संसद या राज्य की विधायिका के द्वारा बनाया गया कोई कानून संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता हो, तो उसे अवैध या ‘अल्ट्रा वाइरस’ घोषित करने का अधिकार है। इसलिए कानूनी विधेयकों की न्यायिक परीक्षण की प्रक्रिया, न्यायिक समीक्षा कहलाती है। संविधान की धारा 368 एैसी छवि बनाती है कि संसद के संशोधन अधिकार सर्वोच्च हैं और वह सभी मसौदों से परे हैं। किन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतंत्रता के पश्चात् से ही संविधान निर्माताओं द्वारा पोषित मूल उददेश्यों को संरक्षित रखने के इरादे से विधायिका के इस अति उत्साह को नियंत्रित रखा है। एक लोकतांत्रिक देश में जब कभी संसद द्वारा पारित कोई कानून संविधान का उल्लंघन करता है या नागरिकों के मूल अधिकार बाधित करता है तो सर्वोच्च न्यायालय के पास यह अधिकार होता है कि वह उस कानून या विधेयक को खारिज कर सके। सर्वोच्च न्यायालय का यह विशेषाधिकार संविधान के मूलभूत गुणधर्मों की रक्षा के लिए अनिवार्य है।
2.2 सर्वोच्च न्यायालय और संशोधन अधिकार (कुछ एतिहासिक मामले)
शंकर प्रसाद बनाम भारत सरकार : इस मामले में पहली बार यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख लाया गया कि क्या मौलिक अधिकार अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधनीय हैं? इस परिस्थ्ति में पहले संविधान संशोधन, जिसके द्वारा धारा 31-़ए और 31-बी संविधान में जोड़ी गई, की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लग गया था। इसमें निहित था कि य़द्यपि मौलिक अधिकारों के संदर्भ में संशोधन का प्रावधान संसद के लिए खुला हो सकता है, तो भी संशोधनों को संविधान की धारा 13(़2) के प्रकाश में परीक्षण करना अनिवार्य है। सर्वोच्च न्यायालय के 5 जजों की खण्डपीठ ने एकमत से इस तर्क को खारिज कर दिया कि जहाँ तक पहले संशोधन द्वारा भाग 3 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के संक्षिप्तिकरण का सवाल उठता है, तो इसे अनुच्छेद 13(2) के प्रावधानों के प्रकाश में खारिज कर देना चाहिए।
यद्यपि पहले संशोधन के होते हुए भी, राज्यों द्वारा उठाये गये कृषि सुधार विधायी कदमों के विरुद्ध उच्च न्यायालयों में वाद दायर किये गये। इसलिए उन कदमों की वैधता को बचाने के लिए दो और संशोधन पारित किये गये। संविधान (चौथा संशोधन) विधेयक, 1955 के द्वारा अनुच्छेद 31-ए में संशोधन किया गया जबकि सत्रहवें संविधान संशोधन विधेयक, 1964 के द्वारा पुनः अनुच्छेद 31-ए में परिवर्तन कर 44 विधान, नौवी अनुसूची में जोड़े गये।
सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार : इस मामले में सत्रहवें संविधान संशोधन की वैधता पर सवाल उठाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की खण्डपीठ के सम्मुख यह तर्क दिया गया कि सत्रहवां सिंवधान संशोधन उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को सीमित करता है, इसलिए धारा 368 के प्रावधानों के तहत आधे राज्यां की वैधानिक सहमति आवश्यक है। न्यायालय ने सर्वसम्मति से इस विवाद का निपटारा किया। साथ ही न्यायालय ने एक दूसरी प्रार्थना पर विचार किया कि शंकरी प्रसाद मामले का पुनर्निरीक्षण होना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश (सी.जे. गजेन्द्रगडकर) ने बहुमत को अभिव्यक्त करते हुए पहले मामले में अपनी सहमति दी। अनुच्छेद 368 के शब्दां ’‘इस संविधान में संशोधन’’ का सीधा और एकमात्र अर्थ है कि संविधान के सभी प्रावधानों में संशोधन।
उन्हांने यह भी निर्दिष्ट किया कि, यदि अनुच्छेद 368 में मौलिक अधिकारों में संशोधन को शामिल नहीं किया गया था तो भी संसद एक उचित संशोधन के द्वारा उन शक्तियों को हासिल कर सकती है। मुख्य न्यायमूर्ति ने अपने निर्णय में 31-बी के शब्दों के अर्थ का भी विश्लेषण किया। उन्होने माना कि यह अनुच्छेद, उन नौंवी अनुसूची में शामिल विधेयकां में संशोधन/परिवर्धन का अधिकार विधायिका पर छोड़ता है। किन्तु अवश्यम्भावी परिणाम यह हांगे कि संशोधित प्रावधान को धारा 31-बी का संरक्षण प्राप्त नहीं होगा और उसकी वैधता, उसके गुणधर्मों के आधार पर निर्धारित करनी होगी।
न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह और मुधोलकर ने अपने एक अलग निर्णय में कहा कि उन्हें, अनुच्छेद 13 दो और अनुच्छेद 368 के अन्तर्सबंध में शंकरी प्रसाद मामले में तर्क स्वीकारने में कठिनाई है। न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने कहा कि उन्हें यह स्वीकार करने के लिए उस मामले में दिये गये तर्कों की अपेक्षा ज्यादा मजबूत तर्क चाहिए कि मौलिक अधिकार वास्तव में मौलिक नहीं हैं, किन्तु संशोधन की शक्तियों की परिसीमा में हैं। संविधान हमें भाग 3 में कई मर्तबा विश्वास दिलाता है अतः यह सोचना भी दूभर होगा कि विशिष्ट बहुमत के लिए ये खेल की चीज होंगे। जस्टिस मुधोलकर के मतानुसार अनुच्छेद 13(2) में निहित शब्द ’कानून’ अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में किये संशोधन पर भी लागू होता है।संविधान की अनुच्छेद 368 यह नहीं कहती है कि जब संसद संविधान में कोई संशोधन करती है तो वह एक नया रूप धर लेती है - संविधान सभा का। विद्वान न्यायाधीश ने यह याद दिलाया कि भारत का लिखित संविधान है जिसने राज्य व केन्द्र स्तर पर कई संस्थान बनाए हैं और जो कुछ अधिकारों को मौलिक मानता है।
सज्जन सिंह के मामले में फैसले से वह रुपरेखा निर्धारित होना थी, और आज भी यह राष्ट्रीय बहस का विषय है, कि किस पद्धति से संविधान में संशोधन होने चाहिए। जैसा एक भारतीय टीकाकार ने लिखा, न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह व मुधोलकर द्वारा सज्जन सिंह मामले में शंकरी प्रसाद निर्णय की वैधता पर उठाई आपत्तियों को अगले मामले (गोलकनाथ) में बहुमत द्वारा पुष्टि कर दी गई। गोलकनाथ का मामला भी केशवानंद भारती मामले में बहुमत से नकार दिया गया, न्यायमूर्ति मुधोलकर के तर्क के पक्ष में कि संविधान के कुछ निश्चित गुणधर्म आधारभूत और अपरिवर्तनीय हैं। केशवानंद मामले मे न्यायाधीश अल्पमत में शंकरी प्रसाद मामले की ओर लौटे जबकि बहुमत में सज्ज्न सिंह की ओर।
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्यः सज्जनसिंह मामले में कुछ अल्पमत न्यायाधीशों का यह संदेह कि शंकरी प्रसाद मामले में निर्णय सही नहीं था, को उच्चतम न्यायालय की ग्यारह जजों की पीठ के समक्ष उठाया गया, क्योंकि पहले और सत्रहवें संविधान की वैधता को सर्वोच्च न्यायलय द्वारा जाँचा जाना था कि कहीं यह मूलभूत अधिकारों का हनन तो नहीं था। चौथे संविधान संशोधन विधेयक पर भी वाद दायर किया गया। इस मर्तबा 6 न्यायाधीशों बनाम 5 ने बहुमत से निर्णय दिया कि संसद को संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के किसी प्रावधान के संक्षिप्तिकरण, परिवर्धन या संशोधन का अधिकार नहीं है। यद्यपि बहुमत के साथ समस्या यह थी कि यदि, इन संशोधनों को इतने समय बाद अवैध घोषित किया जाता है तो सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में अराजकता फैल सकती थी। दूसरी ओर न्यायालय ने यह भी माना कि कानून की गलतियों को सुधारना उसका कर्तव्य है। इसलिए यहाँं भावी रद्दकरण का सिद्धांत लागू किया गया कि ये तीनों संशोधन लागू रहेंगे लेकिन संसद को संविधान के भाग 3 के प्रावधानों में परिवर्तन का भविष्य में कोई अधिकार नहीं होगा।
सर्वोच्च न्यायालय के गोलकनाथ मामले में फैसले से निजात पाने के लिए 1971 में संविधान संशोधन का 24 वां विधेयक पारित कराया गया। 24 वें संशोधन से धारा 13 और 368 में निम्न परिवर्तन किये गयेः
(i) अनुच्छेद 13 में एक नया उपबंध जोड़ा गयाः (4) कि धारा 368 के अधीन किया गया कोई भी संविधान संशोधन इस धारा से प्रभावित नहीं होगा।
(ii) अनुच्छेद 368 में किये गये संशोधन
(क) इस अनुच्छेद को नया उपशीर्षक दिया गयाः ’संसद के संविधान संशोधन के प्रक्रियागत अधिकार’।(ख) उपधारा (1) के रुप में एक नया उपबंध जोड़ा गयाः ‘(1) इसके पश्चात से संविधान में दी किसी भी अन्य धारा के होते हुए भी, संसद अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए, संविधान को, इस धारा में दर्शायी गयी प्रक्रिया के अनुसार, संशोधन, परिवर्धन या परिवर्तन आदि कर सकती है।’’
प्रचलित अनुच्छेद 368 {जो अब 368(2) कहलाती है} में महत्वपूर्ण संशोधन यह किया गया कि संसद द्वारा पारित किये गये किसी भी विधेयक को सहमति देना, राष्ट्रपति के विवेकाधिकार की अपेक्षा उनके लिए अनिवार्य कर दिया गया।
2.3 भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना
1973 में एतिहासिक केशवानन्द भारती मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार संविधान की आधारभूत संरचना की व्याख्या की। न्यायालय ने बहुमत से गोलकनाथ मामले को नकार दिया, जिसने नागरिकां के मौलिक अधिकारों में संशोधन के प्रति संसद के अधिकार होने से इंकार कर दिया था। बहुमत ने माना कि धारा 368 में, 24वें संशोधन के पूर्व से ही, संशोधन की शक्तियाँ और प्रक्रिया निहित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि अनुच्छेद 368 संसद को संविधान की आाधारभूत संरचना या मूलभूत ढ़ाँचे में संशोधन का अधिकार नहीं देती है, और संसद अनुच्छेद 368 द्वारा प्रदत्त अपनी संशोधन शक्तियों का अधिकार संविधान के मूल ढ़ांचे को ’नष्ट’, ’कमजोर’, ’नुकसान’,’समाप्त’, या ’परिवर्तन’ करने के लिए नहीं कर सकती। यह निर्णय संवैधानिक विकास की प्रक्रिया में न केवल एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, बल्कि एक निर्णायक मोड़ माना जाता है।
केशवानंद मामले में, बहुमत के भी ’आधारभूत संरचना’ के लेकर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण थे।
मुख्य न्यायाधीश सिकरी ने, बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हुए, आधारभूत संरचना के बारे में बताते हुए लिखा है किः
- संविधान की सर्वोच्चता,
- एक गणतांत्रिक एवं लोकतांत्रिक सरकार,
- स्ंविधान का धर्म-निरपेक्ष स्वरुप,
- शक्तियों के वितरण का संतुलन, और
- संविधान का संघीय स्वरुप।
न्यायमूर्ति शेलत एवं ग्रोवर ने तीन और तत्व जोड दियेः
- राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के निर्देशानुसार एक लोककल्याणकारी राज्य बनाया जाना,
- भारत की एकता एवं अखण्डता की रक्षा करना, और
- राष्ट्र की संप्रभुता।
न्यायमूर्ति हेगड़े एवं मुखर्जी ने अपने दृष्टिकोण से, एक भिन्न और तुलनात्मक रुप से छोटी सूची प्रदान कीः
- भारत की संप्रभुता,
- राजनीति का लोकतांत्रिक गुणधर्म,
- राष्ट्र की एकता,
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आवश्यक तत्व, और
- लोककल्याणकारी राज्य का जनादेश,
न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी, प्रस्तावना को दृष्टिगत रखते हुए कहते हैं कि संविधान के मूलभूत तत्व, प्रस्तावना में ही निहित हैं, और इस प्रकार अभिव्यक्त किये गये हैंः
- एक संप्रभु, लोकतांत्रिक राज्य,
- सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय का प्रावधान,
- विचार, विश्वास एवं आस्था की अभिव्यक्ति की आजादी, और
- अवसर एवं स्तर की समानता।
केशवानन्द भारती वि. केरल राज्यः भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के लिए यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव, और भारतीय न्यायप्रणाली के न्यायिक समीक्षा अधिकार का आधार है, जिसमें भारतीय संसद द्वारा पारित उस संशोधन को समाप्त घोषित कर देने का अधिकार है, जिससे संविधान के मूलभूत ढाँचे के साथ छेड़छाड़ की जा रही हो। यह इस निर्णय से, भारतीय संसद के सम्पत्ति के अधिकार को, भूमिसुधारों और किसानों के बीच जमीन के पुनर्वितरण के आधार पर, सीमित करने के अधिकार की सीमाओं को भी (इस निर्णय को पलटते हुए कि सम्पत्ति के अधिकार को सीमित नहीं किया जा सकता) परिभाषित किया गया।
इंदिरा नेहरु गाँधी वि. राजनारायणः इस निर्णय से भी ’आधारभूत ढ़ांचा-विचार’ सुनिश्चित हुआ। सर्वोच्च न्यायालय ने, 1975 में 39 वें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा धारा 329-ए में जोड़े गये उपबंध 4 को, आधारभूत ढ़ाँचा सिद्धांत को लागू करते हुए इस आधार पर, कि यह संविधान के आधारभूत ढ़ाँचे को नष्ट करता है और यह संसद के संशोधन करने की शक्तियों के परे है, हटा दिया। उपरोक्त संविधान संशोधन, उच्च न्यायालय सहित सभी न्यायालयों के कार्यक्षेत्र के संबंध में, भारत के प्रधानमंत्री के चुनाव के संबंधी विवाद को लेकर बनाया गया था।
पुनश्चः प्रत्येक न्यायाधीश ने ’संविधान के आधारभूत’ ढ़ाँचे के संबंध में अपने विचार रखेः न्यायमूर्ति वाय. वी. चन्द्रचूड़ ने चार मुख्य गुणधर्म बताए जिन्हे वह असंशोधनीय मानते हैंः
- संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य,
- प्रत्येक व्यक्ति के लिए अवसर व स्तर की समानता,
- धर्म निरपेक्षता और धर्म के अनुसार आस्था की स्वतंत्रता, और
- कानून का शासन (ना कि इंसानों का)।
केशवानंद भारती और इंदिरा नेहरु गांधी मामले में निर्णय के बाद संसद द्वारा 42 वाँं संविधान संशोधन विधेयक, 1976 पारित किया गया जिससे धारा 368 में दो नए उपबंध 4 और 5 संविधान में जोड़े गये। इसमें घोषित किया गया कि इस धारा के अन्तर्गत, किसी भी प्रकार के संशोधन, परिवर्धन या परिवर्तन आदि के लिए संसद को पूर्ण अधिकार होगा। यह विधेयक सर्वोच्च न्यायालय या संसद की सर्वोच्चता का विवाद समाप्त घोषित करता है। उपबंध (4) संसद की सर्वोच्यता पर जोर देता है। संसद जनता का प्रतिनिधित्व करती है और यदि जनता संविधान संशोधन चाहती है तो संसद के अधिकार असीमित होंगे। इस संशोधन के द्वारा केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद पर लगाए गए नियंत्रण समाप्त हो गये। यह भी कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया ‘आधारभूत ढ़ाँंचा’ सिद्धांत अस्पष्ट है और इसमें कई कठिनाइयाँं है। इस संशोधन का उद्देश्य उन परिस्थितियों को ठीक करना था।
मिनर्वा मिल बनाम भारत सरकारः इस मामले में 42 वें संविधान संशोधन विधेयक का विरोध, इस आधार पर कि यह संविधान के मूल ढ़ाँचे के लिए विनाशकारी है, किया गया था। सर्वोच्च न्यायलय ने 4-1 के बहुमत से, धारा 368 के उपबंध (4) और (5) को, जो इस संशोधन के द्वारा जोड़ी गयी थीं को हटा दिया। न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद को संशोधन के सीमित अधिकार होना ही आधारभूत ढाँचे का हिस्सा है। इस एतिहासिक निर्णय ने कहा किः
‘‘अनु.31(सी) में 42 वें संशोधन से किये गये बदलाव अवैध हैं क्योंकि वे संविधान का मूल ढ़ांचा बिगाड़ते हैं। धाराएं (4) व (5) दो मूल तत्वों को बिगाड़ती हैंः संशोधन की सीमित शक्ति, एवं न्यायिक समीक्षा। न्यायालयों से समीक्षा का अधिकार नहीं छीना जा सकता। संविधान सर्वोच्च है ना कि संसद। जिस संविधान से संसद का जन्म हुआ व उसे शक्तियाँ मिलीं, उसे बदलने की असीमित शक्ति संसद नहीं रख सकती।’’
2.4 निष्कर्ष
केशवानंद भारती मामले का प्रभावः केशवानंद मामले ने गोलकनाथ मामले को नकार दिया, किन्तु इससे संसद की सर्वोच्चता स्थापित नहीं हुई। इसमें कहा गया कि मौलिक अधिकार संसद के द्वारा संशोधित किये जा सकते हैं, किन्तु सभी नहीं। वो मौलिक अधिकार जो संविधान के मूल ढ़ाँचे को तय हैं, नहीं बदले जा सकते। गोलकनाथ केस ने मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता दी। केशवानंद मामले ने बताया कि कुछ दूसरे प्रावधान भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जो असंशोधनीय, मूलभूत ढ़ाँंचा तैयार करते हैं। संसद अनुच्छेद 368 के अन्तर्गम पूरे संविधान को बदलकर नया संविधान तैयार नहीं कर सकती।
3.0 महत्वपूर्ण संविधान संशोधन विधेयक
संविधान में संशोधन करने के कुल मिलाकर 124 प्रयास हुए हैं जिनमें से 103 प्रयास सफल हुए हैं। हालांकि सफल हुए 103 प्रयासों में भी 99 वां संशोधन (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया है। अतः जनवरी 2019 तक संविधान में किये गए कुल संशोधनों की संख्या 102 है।
भारतीय संविधान में पहला संशोधन 1951 में किया गया। इसके अनुसार अनुच्छेद 15, 19, 85, 87, 174, 176, 341, 342, 376, में संशोधन किया गया और धाराएं 31 अ और 31 ब समाहित की गईं, तथा नौवीं अनुसूची जोड़ी गई।
1971 का 24 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है। इस संशोधन के पश्चात, भारत के राष्ट्रपति किसी भी संविधान संशोधन विधेयक पर अपनी सहमति देने के लिए बाध्य हैं। इस संशोधन विधेयक के द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची में डाल दिया गया।
1973 का 31 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इसके द्वारा लोक सभा की चुनावी क्षमता 525 से बढ़ाकर 545 कर दी गई। इस विधेयक के अन्तर्गत राज्यों के प्रतिनिधियों की संख्या 500 से 525 और केन्द्र शासित प्रदेशों की 25 से 20 हो गई।
1975 का 36 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस विधेयक के द्वारा सिक्किम भारतीय गणराज्य का 22 वाँ राज्य बना दिया गया।
1975 का 37 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस संशोधन के द्वारा भारत के उत्तरपूर्वीय राज्य अरुणाचल प्रदेश की विधान सभा और मंत्री परिषद के गठन को मंजूरी दी गई।
1975 का 39 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस संशोधन के द्वारा भारत के प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष का संसद हेतु चुनाव और राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों को न्यायालयीन समीक्षा के परे घोषित कर दिया गया।
1976 का 40 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस संशोधन के तीन उददेश्य हैंः (1) यह केन्द्र के कुछ कानूनों को न्यायालयीन सीमा से बाहर घोषित करता है। (2) यह इसी प्रकार का संरक्षण राज्य के उन कुछ अधिनियमों को (अधिकांशतः भूमि कानूनों से संबंधित) 9 वीं अनूसूची में डालकर संरक्षण प्रदान करता है। (3) यह व्यवस्था देता है कि राज्यों के बीच जल विवाद, विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र, भारत के समुद्रीय क्षेत्र आदि का निर्धारण भारतीय संसद द्वारा समय समय पर किया जायेगा।
1976 का 42 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह भारत के सबसे समग्र संशोधनों में से एक है, जिसे आंतरिक आपात काल के दौरान लागू किया गया था। संसद के द्वारा इसे 11 नवम्बर 1976 को पारित किया गया और 18 दिसम्बर 1976 को राष्ट्रपति द्वारा इसे सहमति दी गई।
इसके द्वारा सरकार के सभी पक्षों पर संसद की सर्वोच्चता संदेह के परे मान ली गई; इसने नीतिनिदेशक तत्वों को मौलिक अधिकारों से महत्वपूर्ण बना दिया; पहली बार दस मौलिक कर्तव्य संविधान में जोड़े गये। इसके अतिरिक्त इसने न्यायपालिका की शक्तियों और अधिकार क्षेत्रों को सीमित कर दिया; लोकसभा और विधानसभा के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 कर दिया गया; केन्द्रीय सुरक्षा बलों को किसी भी राज्य की कानून और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अधिकृत कियाय राष्ट्रपति को मंत्री परिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य कियाय और सरकारी कर्मचारियों के सेवा संबधी मामलों के निराकरण के लिए प्रशासनिक न्यायाधिकरण के साथ, आर्थिक मुद्दों हेतु अलग से न्यायाधिकरण की स्थापना की। विधेयक में यह व्यवस्था दी गई की किसी भी संविधान संशोधन पर न्यायालय में वाद दायर नहीं किया जा सकता।
1978 का 43 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इसे 13 अप्रैल 1978 को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई। यह विधेयक आपातकाल के दौरान पारित 42 वें संशोधन के प्रावधानों को उलटता है। इसके द्वारा 31-डी, जो संसद को वैध ट्रेड यूनियन गतिविधियों को प्रतिबंधित करने की अनुमति देती है को समाप्त घोषित कर दिया गया।
नये नियम के अनुसार, जिसे आधे से अधिक राज्यों की विधान सभाओं द्वारा परिवर्धीत कर दिया गया था, राज्य को वैधानिक शक्तियाँ प्रदान की गई जिससे की वह राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के विरुद्ध कार्यवाही कर सके। इस प्रावधान के अंतर्गत न्यायपालिका को भी पुनः उचित अधिकार प्रदान किये गये। सर्वोच्च न्यायालय के पास राज्य के कानूनों को अवैध घोषित करने का अधिकार फिर आ गया जो उससे 42 वें संशोधन के द्वारा छीन लिया गया था। राज्य के उच्च न्यायालयों को भी केन्द्रीय कानून की वैधता की समीक्षा का अधिकार दे दिया गया।
1978 का 44 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस विधेयक को 30 अप्रैल 1979 को राष्ट्रपति ने अपनी सहमति दी। इस विधेयक के द्वारा आपात काल के दौरान लागू की गईं सारी संवैधानिक बाधाओं को दूर कर दिया गया। लोकसभा और राज्य विधानसभा का कार्यकाल पुनः 5 साल कर दिया जो आपात काल के दौरान 42 वें संशोधन में राजनैतिक कारणों से 6 वर्ष कर दिया गया था। संम्पत्ति का अधिकार, मौलिक अधिकारों से हटा दिया गया और अब वह केवल एक कानूनी अधिकार रह गया। स्वतंत्रता के बाद पहली बार संसद और राज्य विधायिकाओं के कार्य के प्रकाशन को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया।
इस विधेयक की अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि अब के बाद कोई भी राष्ट्रपति आपात काल की घोषणा तभी करेगा जब केबिनेट के सभी सदस्य लिखित में ऐसा आग्रह करेंगे। राष्ट्रपति बिना केबिनेट की सहमति के केवल प्रधानमंत्री की इच्छा से ऐसा नहीं कर सकते। सुरक्षात्मक उपाय के तौर पर यह भी निश्चित किया गया कि अपातकाल की घोषणा के एक माह के भीतर सरकार को दोनों ही सदनों में दो तिहाई बहुमत से उस प्रक्रिया को पारित कराना होगा। 44 वाँ संशोधन यह सुरक्षात्मक उपाय सुनिश्चित करता है कि संविधान के किसी भी रुप का दुरुपयोग करते हुए कोई तानाशाह न बन सके। इसमें यह प्रावधान भी है कि 1975 के तरह की आपातकाल की घोषणा लगभग असंभव हो जाये।
(26 जून 1975 से 21 मार्च तक का 21 महीने का समय भारतीय आपातकाल का था, जब राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अनुरोध पर, धारा 352 के तहत आपातकाल घोषित किया था। इस दौरान चुनाव व नागरिक अधिकार स्थगित थे। यह समय स्वतंत्र भारत का सबसे विवादित राजनैतिक काल माना जाता है)।
1980 का 45 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए संसद और राज्य विधानसभाओं में अगले 10 वर्षों के लिऐ आरक्षण सुनिश्चित करता है तथा इसके साथ ही नामांकन के द्वारा एंग्लो-इण्डियन लोगां का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है।
1982 का 46 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह सेल्स टैक्स से जुड़े अनेक मुद्दों को परिभाषित एवं समझाता है।
1985 का 52 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक चुनाव जीतने के बाद दूसरे दल में शामिल होने को अवैधानिक बनाता है। कोई भी सदस्य चुनाव जीतने के बाद दूसरे दल में शामिल होता है तो संसद या राज्य विधान सभा से उसकी सदस्यता समाप्त हो जायेगी।
1986 का 53 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक मिजोरम को राज्य का दर्जा प्रदान करता है और क्योंकि वहाँ के सामाजिक अंतर्संबंध जटिल है इसलिए केन्द्र के हस्तक्षेप को नियंत्रित करता है।
1986 का 54 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायलयों के न्यायाधीशों के वेतन में बढ़ोतरी करता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश का वेतन रु.10,000, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का रू. 9,000, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन रू. 9,000, और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का रू. 8,000, वेतन निर्धारित होता है।
1987 का 55 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस विधेयक के द्वारा अरुणाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा प्रदान किया गया जिसके फलस्वरुप वह भारतीय संघ का 24 वाँ राज्य बन गया।
1987 का 56 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस विधेयक के द्वारा गोवा को राज्य का दर्जा प्रदान किया गया जिसके फलस्वरुप वह भारतीय संघ का 25 वाँ राज्य बन गया। दमन व दीव का केन्द्र शासित प्रदेश भी बनाया गया।
1987 का 57 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस विधेयक के द्वारा अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड, मिजोरम, मेघालय में अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष आरक्षण का प्रावधान किया गया। धारा 322 में संसोधन कर सीटों का समायोजन सन 2000 तक के लिये स्थगित कर दिया गया।
1988 का 58 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह सेल्स टैक्स से जुड़े अनेक मुद्दों को परिभाषित एवं समझाता है।
1988 का 59 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक केन्द्र सरकार को आवश्यकता पढ़ने पर पंजाब में आपात काल घोषित करने की शक्ति प्रदान करता है। इस संशोधन के द्वारा राष्ट्रपति शासन की अवधि 2 से बढ़ाकर 3 वर्ष कर दी गई।
1989 का 61 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह मताधिकार की आयु 21 से घटाकर 18 वर्ष करता है।
1989 का 62 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए संसद और राज्य विधान सभाओं में अगले 10 वर्षों के लिए आरक्षण सुनिश्चित करता है, तथा इसके साथ ही नामांकन के द्वारा एंग्लो-इण्डियन लोगां का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है ।
1989 का 63 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह केन्द्र सरकार के 59 वें संशोधन द्वारा प्रदत्त उस विशेषाधिकार को समाप्त घोषित करता है जिससे पंजाब में आपातकाल लगाया जा सकता था।
1990 का 64 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक पंजाब में 6 माह के लिये राष्ट्रपति शासन के विस्तार की घोषणा करता है।
1990 का 66 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक भूमि सुधारों को संविधान की 9 वीं अनुसूची में शामिल करता है।
1991 का 69 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इसके द्वारा दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित किया गया और दिल्ली के लिये विधान सभा और मंत्री परिषद के गठन का प्रावधान किया गया।
1992 का 70 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस विधेयक के पहले अनुच्छेद 54 राष्ट्रपति के चुनाव के लिये केवल संसद और राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यां को मताधिकार प्रदान करती थी। यह संशोधन पाण्डीचेरी एवं दिल्ली की विधानसभा के सदस्यों को भी उसमें शामिल करता है।
1992 का 71 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस विधेयक के द्वारा कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को संविधान की 8 वीं अनुसूची में शामिल किया गया।
1992 का 72 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक त्रिपुरा विधानसभा के लिये अनुसूचित जनजाति की सीटों पर आरक्षण के लिये अस्थाई प्रावधान करता है, जब तक कि अनुच्छेद 170 के अनुसार 2000 के बाद की जनगणना के आधार पर सीटों की पुनर्व्यवस्था नहीं हो जाती।
1992 का 73 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक पंचायतों के प्रत्यक्ष चुनाव सुनिश्चित करता है और अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था करता है तथा पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिये एक तिहाई आरक्षण सुनिश्चित करता है।
1992 का 74 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक नगर निगमों और नगर पालिकाओं में प्रत्यक्ष चुनाव सुनिश्चित करता है।
1994 का 75 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक राज्य-स्तरीय ग्रह भाड़ा प्राधिकरण स्थापित करने का निर्देश देता है जो अनुच्छेद 136 के अनुसार सभी न्यायालयों के कार्यक्षेत्र से बाहर हों (उच्चतम न्यायालय छोड़कर)।
1994 का 76 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक शैक्षणिक संस्थाओं और राज्य सरकार के अधीन सेवाओं में पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति /जनजाति के आरक्षण के संबंध में है। सर्वोच्च न्यायालय ने 16 नवंबर 1992 को व्यवस्था दी कि धारा 16-(40) के अंतर्गत आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
1995 का 77 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक सरकार को अनुसूचित जाति और जनजाति के पदों को पदोन्नती से भरने की वर्तमान नीति जारी रखने का निर्देश देती है।
1995 का 78 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक भूमि सुधार कानूनों को 9 वीं अनुसूची में शामिल करता है ताकि उनके विरुद्ध न्यायालयों में वाद दायर नही किया जा सके।
1999 का 79 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए संसद और राज्य विधान सभाओं में अगले 10 वर्षो के लिऐ आरक्षण सुनिश्चित करता है तथा इसके साथ ही नामांकन के द्वारा एंग्लो-इण्डियन लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है ।
2000 का 80 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक केन्द्र और राज्यों के करों के बटवारे की वैकल्पिक व्यवस्था करता है।
2000 का 81 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक अनुसूचित जाति जनजाति के लिये सुरक्षित रखे गये पदों के रिक्त रहने की स्थ्ति में अनुच्छेद 16 के अनुसार रिक्त ही माने जायेंगे और उन्हें अगले वर्षों की रिक्तियों में नहीं जोड़ा जायेगा।
2000 का 82 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः इस विधेयक के अनुसार अनुच्छेद 355 का कोई प्रावधान राज्य को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को परीक्षा/नौकरी/पदोन्नती हेतु नियमों मे छूट देने से नहीं रोक सकता।
2000 का 83 वाँ संविधान संशोधन विधेयकः यह विधेयक अनुच्छेद 243 में प्रावधान देता है कि अरुणाचल प्रदेश की पंचायतों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये कोई आरक्षण नहीं होगा जहां संपूर्ण जनसंख्या ही अनुसूचित जनजाति की है।
संविधान (84 वां संशोधन) अधिनियम, 2000ः इसका संबंध झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल के हाल के नए राज्यों के निर्माण से है।
संविधान (86 वां संशोधन) अधिनियम, 2002ः एक पूर्णतः नए अनुच्छेद 21 ए की प्रविष्टि का प्रावधान किया जिसके अनुसार यह प्रावधान किया गया था कि राज्य 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा कानून द्वारा निर्धारित के अनुसार प्रदान करेगा।
संविधान (91 वां संशोधन) अधिनियम, 2003ः मंत्रिमंडल की संख्या को विधायी सदस्यों के 15 प्रतिशत तक सीमित किया और दल-बदल विरोधी कानून को सुदृढ़ किया।
संविधान (93 वां संशोधन) अधिनियम, 2005ः सरकारी एवं निजी शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछडे़ वर्गों के लिए आरक्षण (27 प्रतिशत) का प्रावधान करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 15 में संशोधन किया।
संविधान (95 वां संशोधन) अधिनियम, 2009ः लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण को साठ वर्ष से बढ़ाकर सत्तर वर्ष किया।
संविधान (96 वां संशोधन) अधिनियम, 2011ः ओरिया को ओडिया से प्रतिस्थापित किया
संविधान (97 वां संशोधन) अधिनियम, 2012ः अनुच्छेद 19 (1) (सी) में ‘‘या यूनियन‘‘ शब्द के बाद शब्द ‘‘या सहकारी सोसायटियां‘‘ जोड़ा गया और सहकारी सोसायटियों के संवर्धन से संबंधित अनुच्छेद 43 बी प्रविष्ट किया, और इसमें खंड-9 बी अर्थात सहकारी समितियां जोडा।
संविधान (98 वां संशोधन) अधिनियम, 2013ः हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र के विकास के लिए कदम उठाने के लिए कर्नाटक के राज्यपाल को शक्ति प्रदान करने के लिए।
संविधान (99 वां संशोधन) अधिनियम, 2014ः यह संशोधन एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान करता है। हालांकि इस संशोधन को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया है।
संविधान (100 वां संशोधन) अधिनियम, 2015ः बांग्लादेश के साथ कुछ अंतःक्षेत्रों की अदला-बदली और भारत और बांग्लादेश के बीच भूमि सीमा समझौते पर हस्ताक्षर होने के परिणामस्वरूप इन अंतःक्षेत्रों के निवासियों को नागरिकता के अधिकार प्रदान करना।
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