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भारतीय संविधान के प्रमुख अनुच्छेद, एवं एतिहासिक मामले भाग-2
11.0 विवादित मामले
11.1 के.एम. नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य
कवास मानेकशॉ नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य मामला 1959 का भारतीय न्यायालीन मामला था जिसमें भारतीय नौसेना के कमांडर नानावटी पर उनकी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा की हत्या के आरोप में मुकदमा चला। चूंकि नानावटी अक्सर अभियानों पर बाहर रहते थे, तो उनकी अकेली रहने वाली पत्नी सिल्विया को नानावटी के एक मित्र प्रेम भगवानदास आहूजा से प्यार हो गया।
जनता और ज्यूरी की सहानुभूति नानावटी के प्रति थी, जिनका भारतीय नौसेना में एक सुसज्जित करियर और उदाहरण देने लायक चरित्र था। जनता और ज्यूरी को लगता था कि उन्होंने एक सम्मानजनक व्यवहार किया था। पूरे मुकदमे के दौरान सिल्विया अपने पति के समर्थन में दृढ़ता पूर्वक खडी थी। उन्होंने आहूजा के प्रति अपनी आसक्ति पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। बचाव पक्ष की ओर से सिल्विया और नानावटी प्रमुख गवाह थे। ऐसा बताया गया कि गवाही के दौरान सिल्विया की ऑंखें आँसुओं से भरी हुई थीं। उनके द्वारा प्रेम आहूजा को लिखे गए सभी पत्र सार्वजनिक हो गए थे, और साक्ष्य के रूप में न्यायालय में प्रस्तुत किये गए थे। सफेद साड़ी पहनी हुई सिल्विया का कटघरे में खडे़ होकर गवाही देने का पूरा समय बहुत ही कष्टदायक था।
बचाव पक्ष ने 34 वर्षीय अविवाहित प्रेम आहूजा का एक चित्र न्यायालय में प्रस्तुत किया जिसके द्वारा उसे एक गैर-जिम्मेदार व्यक्ति और हत्या को एक दुर्घटना बताने की कोशिश की गई। श्री करंजिया द्वारा चलाया जाने वाला समाचार पत्र ब्लिट्ज जोरदार शब्दों में नानावटी का समर्थन करता रहा था, और इसी प्रकार पारसी पंचायत और भारतीय नौसेना भी नानावटी के समर्थन में थी। नानावटी बयान देने के लिए दो दिनों तक लगातार कटघरे में खडे़ थे।
सिंधी समाज मैमी आहूजा के समर्थन में खडा था। उसने अपने भाई की ओर से गवाही दी। उसका तर्क था कि ‘‘वह सिल्विया के साथ विवाह करने वाला था बशर्ते वह नानावटी को तलाक दे देती’’। अभियोजन पक्ष की दलील थी कि हत्या पूर्व नियोजित थी और नानावटी को सख्त से सख्त सजा दी जानी चाहिए।
देश के लिए यह एक बहुत ही रोचक समय था, नेहरू प्रधानमंत्री थे, विजयलक्ष्मी पंडित महाराष्ट्र की राज्यपाल थीं, भारत औपनिवेशिक मानसिकता से रेंगते हुए बाहर आने का प्रयत्न कर रहा था, और मुंबई एक नई पहचान प्राप्त कर रही थी। शाम 7 बजे ज्यूरी अपने ‘‘दोषी नहीं’’ फैसले के साथ वापस लौटी।
जब नानावटी न्यायालय से बाहर आये तो भीड़ पागल हो रही थी। उनपर लिपस्टिक से सने हुए 100-100 रुपये के नोटों की बरसात हो रही थी। उन्हें पहले से ही महिलाओं की ओर से विवाह के प्रस्ताव प्राप्त हो रहे थे, जो यह सोच रही थीं कि वह अपनी अंग्रेज़ पत्नी को तलाक दे देंगे और विवाह के लिए उपलब्ध होंगे। वह एक हीरो बन गए थे। एक वास्तविक हीरो।
न्यायाधीश ने मामला उच्च न्यायालय में निर्दिष्ट कर दिया और एक अपील दाखिल की गई। एक निष्पक्ष ज्यूरी मिलने में आने वाली समस्याओं, और न्यायाधीश के निर्देशों को सही ढंग से समझने वाली ज्यूरी उपलब्ध होने की समस्याओं के मद्देनजर देश में ज्यूरी पद्धति को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया गया! यह भारत का ज्यूरी परिक्षण पद्धति से लडा गया अंतिम मामला था। उच्च न्यायालय में, और बाद में सर्वोच्च न्यायालय में एक न्यायाधीश ने मामले में फैसला सुनाया। यह सारा मामला इस बात के इर्द-गिर्द घूम रहा था, कि 27 अप्रैल 1959 के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन स्नानगृह में क्या हुआ था। अभियोजन पक्ष की दलील थी कि यह घटना पूर्व नियोजित थी, जबकि बचाव पक्ष अचानक गोली चलने के अपने कथन पर कायम था।
उच्च न्यायालय ने नानावटी को सदोष मानव वध का दोषी पाया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई। सर्वोच्च न्यायालय ने भी 11 नवंबर 1961 को उच्च न्यायालय के निर्णय को कायम रखा। नानावटी को नौसेना की अपनी नौकरी से त्यागपत्र देना पडा। उन्होंने अपनी सारी चीजें- कार, रेफ्रीजिरेटर, कैमरा, सिल्विया के गहने न्यायिक खर्चों के भुगतान के लिए पहले ही बेच दी थीं। बच्चों को विद्यालय में बहुत ही कठिन समय का सामना करना पड रहा था, और अंततः उन्हें विद्यालय से निकालना पडा।
पारसी पंचायत ने एक विशाल रैली निकाली और एक याचिका दाखिल की कि नानावटी को नौसेना की अभिरक्षा में स्थानांतरित किया जाये, परंतु यह हो नहीं सका। जब सजा सुनाई गई तो नानावटी अडिग थे और उन्होंने अपनी भावनाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया। अपनी प्यारी पत्नी को अलविदा चुम्बन देकर वह आर्थर रोड जेल के फाटक के पीछे लुप्त हो गए।
11.2 राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी
दिग्गज समाजवादी और इंदिरा गांधी के घोर विरोधी राज नारायण ने 1971 का आम चुनाव इंदिरा गांधी के विरुद्ध लड़ा था, जो लोक सभा में राय बरेली निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती थीं। इंदिरा जी राय बरेली से लोकप्रिय मतों के आधार पर दो-से-एक के अंतर से पुनर्निर्वाचित हुई थीं, और उनकी कांग्रेस (आर) पार्टी दो तिहाई के विशाल बहुमत से लोक सभा के चुनाव में विजयी हुई थी। राज नारायण ने इस आधार पर न्यायलय में एक याचिका प्रस्तुत की कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में अनुचित लाभ उठाने के उद्देश्य से रिश्वत, सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग जैसे अनुचित साधनों का चुनाव में प्रयोग किया था। राज नारायण ने विशेष रूप से इंदिरा गांधी पर सरकारी कर्मचारियों का चुनावी एजेंटों के रूप में उपयोग करने का और सरकारी कर्मचारियों के नौकरी में रहते हुए चुनाव प्रचार आयोजित करने और उसमें भाग लेने का आरोप लगाया था।
इलाहबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी को चुनावी भ्रष्टाचार का दोषी पाया था, और श्रीमती गांधी ने 26 जून को राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की और आकाशवाणी पर यह घोषित किया कि ‘‘जब से मैंने भारत के सामान्य स्त्री-पुरुषों के हित में कुछ प्रगतिशील कदम उठाना शुरू किये हैं तभी से एक गहरा और व्यापक षड्यंत्र रचा जा रहा है। अतः यह आवश्यक था।’’ जय प्रकाश नारायण, जॉर्ज फर्नांडिस, अटल बिहारी वाजपेयी, जैसे विपक्ष के तेजतर्रार नेताओं सहित हजारों लोगों को मीसा- आंतरिक सुरक्षा अधिनियम, (जिसे इंदिरा और संजय गांधी का सुरक्षा अधिनियम करार दिया गया था) के अंतर्गत बंदी बना लिया गया।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस फैसले की तुलना ‘‘एक यातायात चालान के लिए प्रधान मंत्री को निकाल देने’’ से की थी। कांग्रेस (आर) पार्टी ने भी इंदिरा के समर्थन में कई विरोधी प्रदर्शन किये। हालांकि इस फैसले ने विपक्षी राजनीतिक दलों को इकठ्ठा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिन्होंने इंदिरा गांधी के तत्काल त्यागपत्र की मांग की। विपक्षी राजनीतिक दलों के गठबंधन जनता मोर्चा के नेता जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन की आवाज उठाई। 25 जून 1975 को भारत के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद द्वारा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह के अनुसार आपातकाल की घोषणा की गई।
सरकार का तर्क था कि राजनीतिक उग्रवाद देश की सुरक्षा के लिए खतरा है। आपातकाल की आज्ञप्ति द्वारा प्रदत्त व्यापक अधिकारों का उपयोग करते हुए, हजारों विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया गया, प्रेस सेंसरशिप थोप दी गई, और चुनावों को स्थगित कर दिया गया। इस अवधि के दौरान, इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आर) पार्टी ने संसद में अपने बहुमत का उपयोग करते हुआ संविधान में संशोधन किया, और जिस कानून के उल्लंघन का आरोप उन पर लगा था, उसे अधिलेखित किया गया। अंततः जब 1977 में सरकार ने चुनाव करवाये, तो विपक्षी गठबंधन की जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आर) पार्टी को पराजित कर दिया। राज नारायण ने इंदिरा गांधी को राय बरेली निर्वाचन क्षेत्र से 55,200 मतों से पराजित किया।
11.3 ताज कॉरिडोर मामला
ताज विरासत कॉरिडोर मामला एक तथाकथित घोटाला है, जिसमें 2002-2003 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्य मंत्री मायावती और उनके मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये गए। ताज कॉरिडोर परियोजना का उद्देश्य ताज महल के निकट पर्यटन सुविधाओं में सुधार करना था, और इनका क्रियान्वयन उनके मुख्य मंत्रित्व काल में किया जाना था। केंद्र की तत्कालीन भाजपा सरकार ने ताज महल के निकट परियोजना के लिए आवश्यक पर्यावरण अनापत्ति प्रदान कर दी थी। लेकिन बाद में भाजपा सरकार अपने निर्णय से यह कहते हुए पलट गई कि पर्यावरण मंत्रालय ने परियोजना को अनुमोदन प्रदान नहीं किया था, और मायावती पर ताज महल के निकट निर्माण कार्य शुरू करने का आरोप लगाया।
ऐसा कहा जाता है कि मायावती ने इस परियोजना के लिए समर्पित राशि का गबन किया है। वर्तमान में यह मामला केंद्रीय अन्वेषण विभाग के अन्वेषण में है। शुरू में मामले में तीव्र प्रगति हुई, जब सीबीआई ने उनके विभिन्न पाटों पर तलाशियां लीं, और हालांकि उन्होंने अपने मुख्य मंत्रित्व काल में केवल 11 मिलियन रुपयों का दवा किया था, परंतु उनके एक ही बैंक खाते में 25 मिलियन रुपयों से अधिक की रकम जमा पायी गई, और उनकी कुल संपत्ति का आंकलन 150 मिलियन रुपयों तक का किया गया है। एक समय उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट की संभावना बन गई थी, परंतु उन्हें स्टे मिल गया।
सितंबर 2003 में परियोजना के पूर्व शासकीय अधिवक्ता अजय अग्रवाल ने मायावती पर कॉरिडोर परियोजना के माध्यम से अपनी संपत्ति बढाने के आरोप लगाने शुरू कर दिए, और उन्होंने यह भी कहा कि मायावती ने हाल ही में अपने स्वयं के नाम पर और अपने परिजनों के नाम पर संपत्ति क्रय की थी।
हालांकि 2003 के आखिर से ऐसा लगता है की अन्वेषण में काफी शिथिलता आई। मीडिया में अफवाह थी कि राजनीतिक हस्तक्षेप किया गया, और सर्वोच्च न्यायालय ने भी अनेक अवसरों पर सीबीआई को मामले में उनकी सुस्त प्रगति के लिए फटकार लगाई। मीडिया सूत्रों के हवाले से बताया गया कि इस मामले में अन्वेषण करने वाले विभिन्न अधिकारियों को अन्य विभागों में स्थानांतरित कर दिया गया। जून 2007 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल टी वी राजेश्वर राव ने इस आधार पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इंकार कर दिया, कि मायावती और अन्य आरोपियों के विरुद्ध पर्याप्त सबूत उपलब्ध नहीं हैं।
अपने 23 पन्नों के आदेश में उन्होंने कहाः ‘‘यह तथ्य कि मिशन प्रबंधन बोर्ड, जिसमें केंद्र और राज्य सरकार दोनों के अधिकारी शामिल हैं, नियमित रूप से बैठकें करते थे और परियोजना पर चर्चा करते थे, साथ ही यह तथ्य भी, कि रुपये 170 मिलियन की रकम (2.8 मिलियन अमेरिकी डॉलर) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम एनपीसीसी के माध्यम से व्यय की गई, ये सभी तथ्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि मायावती और मंत्री पर जो गंभीर आरोप लगे हैं, वे जांच में खरे नहीं उतरते।’’ सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआय की याचिका खारिज कर दी और राज्यपाल को उन पर मुकदमा चलाने के निर्देश देने से मना कर दिया। 5 नवंबर 2012 को, इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने निचली अदालत के मुकदमा चलाने की अनुमति के अभाव में मामला बंद करने फैसले को कायम रखा। माना तो यह जा रहा था, कि मामला मुकदमा शुरू होने से पहले ही बंद हो गया था। हालांकि, 28 जनवरी 2013 को, सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति एच.एल. दत्तू और रंजन गोगोई की पीठ ने मामले के पुनर्परीक्षण की सहमति दी और संबंधित पक्षों को अपनी प्रतिक्रियाएं देने के निर्देश दिए।
11.4 जेएमएम रिश्वत मामला
जुलाई 1993 में केंद्र की नरसिंहा राव सरकार अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही थी, क्योंकि विपक्ष को लगता था कि सरकार के पास अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए सांसदों का पर्याप्त समर्थन नहीं था। ऐसा कहा जाता है, कि श्री राव ने विश्वास प्रस्ताव के समर्थन में मतदान करने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के संसद सदस्यों और संभवतः जनता दल से अलग हुए गुट के सदस्यों को करोड़ों रुपयों की रिश्वत की पेशकश की थी। जिन सदस्यों ने रिश्वत स्वीकार की थी उनमें से एक सदस्य शैलेन्द्र महतो सरकारी गवाह बन गया। 1996 में श्री राव का कार्यकाल समाप्त होने के पश्चात, मामले में सही रूप से जांच शुरू हुई। वर्षों की कानूनी कार्यवाही के पश्चात 2000 में एक विशेष अदालत ने श्री राव और उनके सहयोगी बूटा सिंह (जिनके बारे में कहा गया कि वे संसद सदस्यों को प्रधानमंत्री के पास ले गए थे) को दोषी करार दिया।
भ्रष्टाचार के लिए श्री राव को तीन वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई। न्यायमूर्ति ने अपने आदेश में कहा, ‘‘मैं आरोपी पी.वी. नरसिंम्हाराव और बूटा सिंह को तीन वर्ष के सश्रम कारावास और एक लाख रुपये के जुर्माने की सजा सुनाता हूँ।’’ राव ने इस फैसले के विरुद्ध दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील दायर की और जमानत पर छूट गए। 2002 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने महतो के कथन की विश्वसनीयता पर आशंका के चलते (जिनमें अनेक विसंगतियां थीं) निचले न्यायालय के निर्णय को पलट दिया, और राव और बूटा सिंह, दोनों को आरोपों से दोष मुक्त कर दिया।
12.0 भाषाओं से संबंधित प्रावधान
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 343 (1) कहता है कि भारत संघराज्य की आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी। इस प्रावधान की अनिवार्यता की पूर्ति करने के लिए भारत सरकार ने और संचार मंत्रालय ने सभी शासकीय विभागों में, और केंद्र शासन के दस्तावेजों में एक हिंदी कक्ष की स्थापना का निर्णय किया है, ताकि आधिकारिक दस्तावेजों में और संचार में हिंदी के उपयोग को प्रोत्साहित किया जा सके। तदनुसार, उसने संविधान के अनुच्छेद 309 के अंतर्गत कुछ नियम बनाये हैं। इस मामले में न्यायसंगतता का कोई प्रश्न नहीं है, क्योंकि यह तय है, कि यदि कोई विवाद है, तो कानून न्यायसंगतता पर भरी होगा। न्यायसंगतता कानून की अनुपूरक हो सकती है, किंतु इसे हटा नहीं सकती। जैसा कि लैटिन सूत्रवाक्य कहता है, ‘‘ड्यूरा लेक्स सेड़ लेक्स’’ जिसका अर्थ है, ‘‘कानून कठोर होता है, परंतु वह कानून होता है’’। संविधान का अनुच्छेद 343 कहता है, कि देवनागरी लिपि में हिंदी देश की आधिकारिक भाषा है। आम गलतफहमी है कि यह राष्ट्र भाषा है। अनुच्छेद यह भी कहता है कि शासकीय कामकाज के लिए अंग्रेजी अतिरिक्त भाषा है।
अनुच्छेद 345 कहता है कि भारत राज्य में एक या एक से अधिक भाषाओँ को अंगीकृत कर सकता है, और हिंदी/अंग्रेजी को किसी भी शासकीय काम के लिए भाषा या भाषाओं के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। संघ की आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी किंतु शासकीय कार्यों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली संख्याएं भारतीय संख्याओं का अंतर्राष्ट्रीय स्वरुप होगा [अनुच्छेद 343 (1)] ।
संघ की आधिकारिक भाषा ही दो राज्यों के बीच और राज्यों और संघ के बीच संचार की भाषा होगी (अनुच्छेद 346), परंतु दो या अधिक राज्य आपस में संचार के लिए हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। अनुच्छेद 345 में यह प्रावधान है कि राज्य की विधायिका कानून बना कर किसी एक या एक से अधिक भाषाओं को, या हिंदी भाषा, या भाषाओं को, सभी शासकीय कार्यों के लिए राज्य में उपयोग के लिए स्वीकार कर सकती है। संविधान सभी व्यक्तियों को यह अधिकार भी प्रदान करता है कि अपनी शिकायतों के निराकरण के लिए आवेदन संघ या राज्य के किन्ही भी अधिकारियों को संघ या राज्य में स्वीकृत किसी भी भाषा में कर सकते हैं। [अनुच्छेद 350]
अनुच्छेद 344 आधिकारिक भाषा के लिए आयोग की नियुक्ति का प्रावधान करता है। संविधान के लागू होने के पांच वर्ष पश्चात, और दस वर्ष पश्चात राष्ट्रपति एक आयोग की नियुक्ति करेंगे। आयोग में एक अध्यक्ष और विभिन्न भाषाओँ का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्य होंगे। [अनुच्छेद 344 (4), (5), (6)]
आयोग निम्न विषयों पर राष्ट्रपति को अपनी सिफारिशें देगाः
- संघ के आधिकारिक कार्यों के लिए हिंदी का प्रगामी प्रयोग;
- संघ के किसी भी या सभी आधिकारिक कार्यों के किये अंग्रेजी के उपयोग पर प्रतिबंध;
- सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में प्रयुक्त होने वाली भाषा के संबंध में;
- संघ के किसी विशिष्ट कार्य के लिए उपयोग की जाने वाली संख्याओं के विषय में; और
- राष्ट्रपति द्वारा आयोग को भेजे गए संघ की आधिकारिक भाषा संबंधित किसी भी विषय पर, और संघ और राज्यों के बीच या राज्यों के बीच आपस में संवाद के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा/भाषाओं के संबंध में या उनके उपयोग के संबंध में।
आठवीं सूची में जिन भाषाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है वे हैं
- असमिया,
- बंगाली
- बोड़ो
- डोगरी
- गुजराती
- हिंदी
- कन्नड़
- कश्मीरी
- कोंकणी
- मैथिली
- मलयालम
- मणिपुरी
- मराठी
- नेपाली
- उड़िया
- पंजाबी
- संस्कृत
- संथाली
- सिंधी
- तमिल
- तेलगु
- उर्दू
जनवरी 2010 में व्यावसायिक वस्तुओं की पैकिंग से संबंधित एक शिकायत के संबंध में गुजरात उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि हिंदी राष्ट्र भाषा नहीं है।
उच्च न्यायालय की पीठ ने, जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.जे. मुखर्जी ने की थी, अधिकारियों को यह निर्देश देने से, कि पैकिंग का विस्तृत वर्णन हिंदी में प्रदान किया जाये, यह कहते हुए मना कर दिया था कि हालांकि हिंदी एक आधिकारिक भाषा है, किन्तु यह राष्ट्र भाषा नहीं है। इस निर्णय को अभी तक किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी गई है।
13.0 अनुच्छेद 371-घ और तेलंगाना
जैसा कि हम जानते हैं, तेलंगाना आंदोलन दक्षिण भारतीय आंध्र प्रदेश राज्य से एक स्वतंत्र तेलंगाना राज्य की निर्मिति के समर्थन के लिए संगठित किये गए संबंधित लोगों के एक समूह और राजनैतिक कार्यकर्ताओं से संबंधित है।
अनुच्छेद 371डी, जो कि 32 वें संशोधन के माध्यम से 1973 में जोडा गया था, राष्ट्रपति को समय-समय पर निर्देश देने के अधिकार प्रदान करता है कि देश के विभिन्न भागों में रह रहे लोगों को समान अवसर प्रदान किये जाएँ।
यह प्रावधान, जिसका संविधान के अन्य अनुच्छेदों पर अधिभावी प्रभाव है, राज्य के नेताओं की छह बिंदु सूत्र की सहमति के पश्चात 21 सितंबर 1973 को लाया गया था। इस सूत्र का लक्ष्य आंध्र प्रदेश के ‘‘पिछडे़ क्षेत्रों का त्वरित विकास’’, और राज्य के विभिन्न क्षेत्रों को शिक्षा और सार्वजनिक सेवाओं में रोजगार के ‘‘एक समान अवसर’’ प्रदान करना था।
ऐसा माना जाता है कि मंत्री समूह ने तेलंगाना की सीमाओं के पुनर्निर्माण और रायलसीमा के दो जिलों-कुरनूल और अनंतपुर-का तेलंगाना राज्य में समावेश के प्रस्ताव का अध्ययन किया था। इस प्रस्ताव के पश्चात, एकीकृत आंध्र प्रदेश को दो समान भागों में विभाजित किया गया और दोनों राज्यों को प्रत्येक को विधान सभा में 147 सीटें और विधान परिषद में 45 सीटें मिलीं। कुरनूल और अनंतपुर दोनों जिले हैदराबाद के निकट हैं और दोनों में मुस्लिम आबादी का बाहुल्य है। हालाँकि इस प्रस्ताव का तेलंगाना राष्ट्र समिति और भाजपा द्वारा विरोध किया गया, किंतु इसे ऑल इंड़िया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन और आंध्र प्रदेश के कुछ कांग्रेस नेताओं का समर्थन प्राप्त था।
राज्य सरकार को विधेयक केंद्र को वापस भेजने के लिए दिए जाने वाला समय प्रदान करने का विशेषाधिकार - न्यूनतम 10 दिन - राष्ट्रपति के पास है। हालांकि राज्य का प्रस्ताव संविधान के अंतर्गत बंधनकारक नहीं है। जब छत्तीसगढ़ का निर्माण हुआ था, तब एकीकृत मध्य प्रदेश विधान सभा को तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा 40 दिनों की समय सीमा प्रदान की गई थी। 2 जून 2014, को तेलंगाना राज्य अस्तित्व में आया, व उसके प्रथम मुख्यमंत्री बने श्री के. चंद्रषेखर राव। ‘‘जय जय हे तेलंगाना’’ इसका राज्य गीत है एवं हैदराबाद इसकी 10 वर्शों तक संयुक्त राजधानी रहेगी। हाल ही में आंध्र प्रदेष के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबु नायडू ने घोशणा की कि आंध्र प्रदेष की नई राजधानी अमरावती में स्थित होगी।
14.0 उपसंहार
अक्सर विधायिका और न्यायपालिका के बीच विचारों के संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई है। विधायक उनके लोकप्रिय और तुष्टीकरण के चरित्र के चलते अल्प-समय के राजनीतिक लाभ में व्यस्त रहती हैं, लेकिन इसके बावजूद उनकी बहुलवादी सहभागिताओं के चलते सामाजिक स्वाभाव के विषयों के निर्णयों के बारे में भी पूर्ण रूप से तैयार रहती हैं। ये कार्य, न्यायपालिका के उच्च दिमाग और अत्यल्प आधार और गैर-प्रतिनिधित्व राय और प्रभाव की तुलना में, जीवित सामाजिक तापमान के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य करते हैं।
न्यायपालिका हमारे संविधान में निहित सिद्धांतों की अंतिम संरक्षक है। इसे समय-समय पर इस बात का विश्लेषण करना पड़ता है कि विधायिका और कार्यपालिका संविधान के अनुसार अपने दायित्वों का निर्वहन कर रही है या उसके प्रावधानों का उल्लंघन हो रहा है। दूसरी ओर, जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि लोकलुभावन प्रवृत्तिओं के अधीन संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर सकते हैं। उसी समय, तेजी से विकसित होते समाज में स्वीकार्य और अस्वीकार्य की रूपरेखा तेजी से बदल सकती है, जो स्थापित न्यायिक मान्यताओं को अप्रासंगिक बना सकती हैं। इस प्रकार, यह बहस चलती रहेगी। सभी स्तम्भों को अपने कार्यों का समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन करते रहना होगा। यह केवल संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए क्या उचित था इस परिपेक्ष्य में ही नहीं, वरन तेजी से उभरते सामाजिक आर्थिक परिवेश की दृश्टि से भी महत्वपूर्ण है।
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