यूपीएससी तैयारी - भारतीय संविधान - व्याख्यान - 6

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मूलभूत कर्तव्य एवं राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत 

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1.0 प्रस्तावना

भारतीय संविधान के भाग IV(A) की धारा 51ए के अन्तर्गत नागरिकों से कुछ मूलभूत कर्तव्यों की अपेक्षा की जाती हैं जो राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को बनाए रखने के साथ-साथ राष्ट्रवाद की भावनाओं को प्रबल करती हैं। इन कर्तव्यों को व्यक्तिगत के साथ-साथ सामूहिक अवचेतन को ध्यान में रखकर निर्मित किया गया है। यद्यपि मूल कर्तव्यों का पालन, विधि सम्मत बाध्यता नहीं है, फिर भी नागरिकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे इनका पालन करें। 1976 में संविधान के 42 वें संशोधन के द्वारा मूल-कर्तव्यों को शामिल किया गया। 

संविधान की धारा 51ए के अंतर्गत नागरिकों के 10 मूल कर्तव्य माने गए हैं। इन कर्तव्यों को विभिन्न भागों में जैसे पर्यावरण के प्रति, राज्य एवं राष्ट्र के प्रति एवं स्वयं के प्रति भी, वर्गीकृत किया गया है। इन कर्तव्यों को संविधान में शामिल करने का मूल उद्देश्य नागरिकों में राष्ट्रीय भावनाओं का विकास करना है। 

मानव अधिकारों का वैश्विक घोषणा पत्र तथा नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीय अनुबंध जैसे अन्तर्राष्ट्रीय उपकरण भी इन मूल कर्तव्यों हेतु संदर्भ बिन्दु का कार्य करते हैं। मूल-कर्तव्य ऐसे वचन हैं जिनका विस्तार नागरिकों के साथ-साथ राज्य तक होता है। मूल कर्तव्यों के अनुसार, सभी नागरिकों को भारतीय संविधान और राष्ट्रीय चिन्हों का सम्मान करना चाहिए। राज्य के मूल कर्तव्यों का उद्देश्य समानता के अधिकार को बढ़ावा देना, पर्यावरण और सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना, लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ाना, हिंसात्मक वृत्ति का दमन, उत्कृष्टता की ओर बढ़ाना तथा सभी को अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना होता है। इसके अतिरिक्त 2002 में 86 वें संविधान संशोधन के द्वारा 11 वें मूल कर्तव्य को जोड़ा गया, जो कहता है कि प्रत्येक नागरिक जिनके बच्चों की उम्र 6-14 वर्ष के बीच है, ने अपने बच्चों/पाल्यों को शिक्षा का अवसर प्रदान करना चाहिए।


मौलिक कर्तव्य मूल भारतीय संविधान का हिस्सा नहीं थे। वर्ष 1976 में आपातकाल लागू किये जाने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सरदार स्वर्ण सिंह समिति का गठन किया गया था। इस समिति का उद्देश्य था पूर्व के अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में संविधान में संशोधन करने के प्रश्न का अध्ययन करना और ऐसे संशोधनों के संबंध में सिफारिशें करना। 42 वें संशोधन अधिनियम ने, जिसे ‘‘लघु संविधान‘‘ भी कहा जाता है, अनेक अनुच्छेदों को संशोधित किया और यहां तक कि संविधान की प्रस्तावना में भी संशोधन किए। यह सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों का ही परिणाम थी। सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर 1976 के 42 वें संविधान संशोधन द्वारा 10 मौलिक कर्तव्यों को भी संविधान में जोडा गया। मौलिक कर्तव्यों की सूची संविधान के खंड प्ट ए के अनुच्छेद 51 ए में दी गई है। 

मौलिक कर्तव्य पूर्व सोवियत संघ के संविधान से प्रेरित हैं। चूंकि मौलिक कर्तव्यों को संविधान के खंड IV में शामिल किया गया है, अतः ये स्वचालित रूप से प्रवर्तित नहीं की जा सकती हैं, और न ही इन मौलिक कर्तव्यों को न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से प्रवर्तित किया जा सकता है। अतः यह कहा जाता है कि मौलिक कर्तव्यों का स्वरुप गैर प्रवर्तनीय और गैर-न्यायोचित है। इसका अर्थ यह है कि किसी नागरिक को किसी मौलिक कर्तव्य के उल्लंघन के लिए न्यायालय द्वारा दण्डित नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से मौलिक कर्तव्य संविधान के खंड IV में निहित संविधान के निर्देशक सिद्धांतों के समान ही हैं। संविधान के निर्देशक सिद्धांत राज्य द्वारा पालन किये जाने वाले कुछ उच्च आदर्शों को निर्धारित करते हैं। उसी प्रकार, अनुच्छेद 51 में शामिल मौलिक कर्तव्य देश के नागरिकों द्वारा पालन किये जाने वाले कुछ उच्च आदर्शों को निर्धारित करते हैं। दोनों ही मामलों में उल्लंघन किसी भी प्रकार के दंड को आकर्षित नहीं करता। यह काफी महत्वपूर्ण है कि मौलिक कर्तव्यों को संविधान के खंड III के अंत में रखने के बजाय संविधान के खंड IV के अंत में रखा गया है। जबकि खंड III जिसमें मौलिक अधिकार समाविष्ट हैं, न्यायोचित है वहीं खंड IV, जिसमें मौलिक कर्तव्य समाविष्ट हैं, न्यायोचित नहीं है। 

2.0 मौलिक कर्तव्यों के संबंध में संवैधानिक प्रावधान

51क - मूल कर्तव्य - भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-

  • (क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे;
  • (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे;
  • (ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे; 
  • (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे; 
  • (ड) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरूद्ध है; 
  • (च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करें; 
  • (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे; 
  • (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे; 
  • (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे; 
  • (ट) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाईयों को छू ले;
  • (ठ) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करे 

86 वें संविधान संशोधन विधेयक 2002 के द्वारा 51क(ट) मूल कर्तव्य जोड़ा गया था।

मूल कर्तव्य, भूतपूर्व सोवियत संघ के संविधान से प्रेरित हैं। क्योंकि मूलभूत कर्तव्य संविधान के भाग प्ट में शामिल है इसलिए ये स्वतः स्फूर्त नहीं है और ना ही इनकी कोई वैधानिक बाध्यता है। भारतीय संविधान, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के समान ही इन्हें नागरिकों की इच्छा पर छोड़ देता है। प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ डी.डी. बसु के अनुसार भारतीय संविधान इन कर्तव्यों को मानने के लिए बाध्य नहीं करता है। यद्यपि नागरिकों से यह आशा की जाती है कि यदि विधायिका इस संबंध में कोई कानून बनाकर इन विधानों को अनिवार्य घोषित करती है तो धारा 14 और धारा 19 के साथ असमंजस बता कर इसे अवैधानिक नहीं माना जा सकता। डी.डी. बसु के अनुसार मूल कर्तव्य उन लोगों के लिए चेतावनी हैं जो भारतीय संविधान का सम्मान नहीं करते हैं और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। उच्चतम न्यायालय भारतीय नागरिकों को इन विधानों का गंभीरतापूर्वक पालन करते हेतु चेतावनी जारी कर सकती है। विधायिका भी इन विधानां को अनिवार्य घोषित कर सकती है। वस्तुतः कई सारे नियम हैं जो इन कर्तव्यों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लागू करते हैं। उदाहरण के लिये सार्वजनिक संपत्ति, पर्यावरण व वन्य जीवन की सुरक्षा का नियम मौजूद है।

सर्वोच्च न्यायालय ने सूर्या बनाम भारत सरकार मामले में 1992 में यह व्यवस्था दी कि मूल कर्तव्यों को मानने के लिए विपधि सम्मत बाध्यता नहीं है। विजय एमैनुएल बनाम केरल राज्य (1987) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय के फैसले को नकारते हुए निर्णय दिया कि यद्यपि संविधान के अनुसार राष्ट्र गीत का सम्मान करना सभी नागरिकों का कर्तव्य है तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि राष्ट्र गीत को गाना ऐसे सम्मान का हिस्सा है। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्र गीत के गायन के समय इसे स्वयं गाये बिना उचित मुद्रा में खड़ा भी हो तो यह सम्मान प्रदर्शन ही कहलाएगा। 

2.1 सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भ 

हालांकि मौलिक कर्तव्य न्यायोचित नहीं हैं फिर भी माननीय सर्वोच्च ने अक्सर इन्हें संदर्भित किया है। 

एम. सी. मेहता (2) बनाम भारत संघराज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि संविधान के अनुच्छेद 51-ए (जी) के तहत केंद्र सरकार का यह कर्तव्य है कि वह देश की सभी शिक्षण संस्थाओं में प्रा.तिक पर्यावरण के संरक्षण और सुधार पर हर हते कम से कम एक घंटे के व्याख्यान की शिक्षा अनिवार्य करना शुरू करे।

अखिल-भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान छात्र संघ बनाम अखिल-भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मामले में संविधान के अनुच्छेद 51-ए में अंतर्निहित मौलिक कर्तव्यों के महत्त्व पर बोलते हुए और अखिल-भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में 33 प्रतिशत संस्थागत आरक्षण और संकाय वार 50 प्रतिशत आरक्षण को खारिज करते हुए माननीय न्यायालय ने कहा था कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है और आगे न्यायालय ने यह भी कहा था कि मौलिक अधिकारों के समान ही मौलिक कर्तव्य भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। 

मोहन कुमार सिंघानिया बनाम भारत संघराज्य मामले में न्यायालय ने उस सरकारी निर्णय को संविधान के अनुच्छेद 51-ए (आई) से समर्थन लेते हुए उचित ठहराया था जिसके अनुसार भारतीय प्रशासनिक सेवा के चयनित उम्मीदवारों को प्रशिक्षण कार्यक्रम को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करने का आदेश जारी किया गया था। न्यायालय ने कहा था कि सरकार का निर्णय मौलिक कर्तव्यों में से एक कर्तव्य से सुसंगत था।

ग्रामीण मुकदमे एवं पात्रता केंद्र बनाम उत्तरप्रदेश राज्य मामले में मसूरी की पहाडियों में उत्खनन गतिविधियों पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध करने और उन्हें बंद करने के सरकार के निर्णय को संविधान के अनुच्छेद 51-ए (जी) से समर्थन लेते हुए धारणीय बताया गया था। न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि पर्यावरण का संरक्षण और पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को अबाधित रखना एक ऐसा कार्य है जो न केवल सरकार को बल्कि सभी नागरिकों को भी करना ही चाहिए। यह सरकार का और सभी व्यक्तियों का व्यक्तिगत सामाजिक दायित्व है। 

2.2 मौलिक अधिकारों की प्रवर्तनीयता

अनुच्छेद 51-ए के अंतर्गत समाविष्ट मौलिक कर्तव्यों को व्यक्तियों के साथ ही नगर निकायों सहित निर्वाचित और गैर-निर्वाचित संस्थाओं और नागरिकों के संगठनों के विधायी और कार्यकारी कार्यों का मार्गदर्शन भी करना चाहिए। मौलिक कर्तव्यों की कानूनी उपयोगिता राज्य के दिशा निर्देशक सिद्धांतों के समान ही है। जबकि निर्देशक सिद्धांत राज्य को संबोधित करते हैं, उसी प्रकार मौलिक कर्तव्य नागरिकों को संबोधित करते हैं हालांकि उनके उल्लंघन पर कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं है। यह उम्मीद की जाती है कि नागरिक को मौलिक अधिकारों का उपयोग करते हुए स्वयं अपना उपदेशक होना चाहिए। उसे यह ध्यान में चाहिए कि अनुच्छेद 51-ए में अंतर्निहित कर्तव्य राज्य के प्रति उसका उत्तरदायित्व है, और यदि वह इन कर्तव्यों की परवाह नहीं करेगा तो वह अधिकार प्राप्त करने का अधिकारी भी नहीं है। 

मौलिक कर्तव्यों का एक अन्य कानूनी उपयोग यह है कि हालांकि वे कानूनी दृष्टि से न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं हैं फिर भी यदि कर्तव्यों के उल्लंघन के कार्यों या व्यवहार को प्रतिबंधित करने के लिए कोई कानून बनाया गया है, तो वह संबंधित मौलिक अधिकारों पर एक तर्कसंगत और उचित प्रतिबंध है। संविधान इन कर्तव्यों का प्रवर्तन करने के लिए या नागरिकों द्वारा इन कर्तव्यों के उल्लंघन को प्रतिबंधित करने के लिए स्वचालित रूप से कोई प्रावधान नहीं करता। हालांकि यह अपेक्षा की जाती है कि यदि इन प्रावधानों का प्रवर्तन करने के लिए विधायिका द्वारा कोई कानून अधिनियमित किया गया है, तो केवल अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 के प्रावधानों से असंगत होने के आधार पर ऐसे कानून को असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता। 

चूंकि मौलिक कर्तव्य राज्य को संबोधित नहीं किये गए हैं, अतः कोई नागरिक यह दावा नहीं कर सकता कि राज्य द्वारा उसे उचित रूप से सुसज्जित किया जाए ताकि वह अनुच्छेद 51-ए में अंतर्निहित कर्तव्यों का निष्पादन कर सके। हालांकि अनुच्छेद 51-ए (जी) को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यों को निर्देश जारी किये गए हैं। 

पर्यावरण का संरक्षणः चूंकि नागरिक का कर्तव्य है कि वह वनों, सरोवरों, नदियों और वन्य-जीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण करे और उसका संवर्धन करे, और संविधान के अनुच्छेद 51-ए (जी) के तहत जीव-जंतुओं के प्रति दया एवं सद्भावना रखे, अतः सर्वोच्च न्यायालय ने यह मान्य किया है कि इस प्रावधान को प्रभावशाली बनाने के लिए राज्य को अनेक कदम उठाने चाहियें, और इसके लिए न्यायालय ने केंद्र सरकार को निम्नलिखित निर्देश जारी किये हैंः

  1. संपूर्ण भारत में सभी शिक्षण संस्थाओं को निर्देश दे कि वे पहली दस कक्षाओं में वनों, सरोवरों, नदियों और वन्य-जीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण के संबंध में साप्ताहिक शिक्षण सत्र प्रदान करें 
  2. इस प्रयोजन के लिए पाठ्य पुस्तकों का लेखन करवाये और उनका निःशुल्क वितरण करे 
  3. यह पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए अल्पावधि पाठ्यक्रम चलाये 
  4. केवल केंद्र सरकार ही नहीं बल्कि राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय भी स्वच्छता सप्ताह आयोजित करना शुरू करें जहां कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के सदस्यों के साथ ही सभी नागरिक निःशुल्क सेवाएं प्रदान करें ताकि वे अपने स्थानीय क्षेत्रों को भूमि, जल एवं वायु प्रदूषण से मुक्त रख सकें। 

सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही विधायिका भी मौलिक कर्तव्यों के प्रवर्तन के लिए कानून अधिनियमित करे। ऐसे अनेक कानून विद्यमान हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन कर्तव्यों का प्रवर्तन करते हैं। उदाहरणार्थ, सार्वजनिक संपत्ति और पर्यावरण एवं पशु प्रजातियों के संरक्षण के लिए अनेक कानून विद्यमान हैं। 

सूर्या बनाम भारत संघराज्य (1992) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि न्यायालय द्वारा न्यायिक उपाय के माध्यम से मौलिक कर्तव्य प्रवर्तनीय नहीं हैं। विजॉय इमैनुएल बनाम केरल राज्य (1987) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया था और यह निर्णय दिया था कि हालांकि संविधान के अनुसार यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह राष्ट्र गान का सम्मान करे, फिर भी संविधान में यह प्रावधान नहीं है कि राष्ट्र गान गाना इस प्रकार के सम्मान का हिस्सा है। कोई व्यक्ति राष्ट्र गान के दौरान केवल खडे रहकर (स्वयं राष्ट्र गान का गायन नहीं करते हुए) भी राष्ट्र गान के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर सकता है।

3.0 राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (तत्व)

हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में शासन चला रहीं सरकारों के लिए कुछ दिशा-निर्देश निर्धारित किये हैं। यह दिशा-निर्देश संविधान के भाग 4 में है और राज्य के नीति निदेशक तत्व के नाम से जाने जाते है। 

3.1 उद्देश्य 

नीति निदेशक सिद्धांत प्रस्तावना में दर्शाये आदर्शां का पुनः कथन हैं। वास्तव में यह सरकार के लिए निर्देश हैं कि उन्हें विभिन्न नीतियाँ किस प्रकार बनानी हैं।

देश का शासन करने के लिये ये अनिवार्य तत्व हैं और यह राज्य का कर्तव्य है कि कानून बनाते समय इन्हें लागू करे। यह तत्व नागरिकों के सर्वांगीण विकास में मदद करते हैं और लोक कल्याण को सुनिश्चित करते हुए सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में समान अवसर उपलब्ध करवाने में मदद करते हैं। नीति निदेशक तत्व किसी सरकार की दक्षता को मापने का पैमाना भी होते हैं।

3.2 संवैधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 36 - परिभाषाः इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, ‘‘राज्य‘‘ का वही अर्थ है जो भाग 3 में है। 

अनुच्छेद 37 - इस भाग में अंतर्विष्ट तत्वों का लागू होनाः इस भाग में अंतर्विष्ट उपबंध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे किंतु फिर भी इनमें अधिकथित तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों को ला करना राज्य का कर्तव्य होगा। 

अनुच्छेद 38 - राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगाः राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करें, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा। 

राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसाओं में लगे हए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। 

अनुच्छेद 39 - राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्वः राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से 

  • (क) पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो 
  • (ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूपसे साधन हो 
  • (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संक्रेंद्रण न हो 
  • (घ) पुरूषों और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो 
  • (ड) पुरूष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐेसे रोजगारों में न जाना पड़ें जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों
  • (च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाएं और बालकों ओर अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए। 

अनुच्छेद 39क - समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायताः राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करें कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टतया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा। 

अनुच्छेद 40 - ग्राम पंचायतों का संगठनः राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों। 

अनुच्छेद 41 - कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकारः राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर, काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा।

अनुच्छेद 42 - काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंधः राज्य काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए और प्रसूति सहायता के लिए उपबंध करेगा। 

अनुच्छेद 43 - कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदिः राज्य, उपयुक्त विधान या आर्थिक संगठन द्वारा या किसी अन्य रति से कृषि के, उद्योग के या अन्य प्रकार के सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवनस्तर और अवकाश का संपूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया ग्रामों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेगा। 

अनुच्छेद 43क - उद्योगों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेनाः राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापनों या अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा। 

अनुच्छेद 44 - नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिताः राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। 

अनुच्छेद 45 - बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध - राज्य, इस संविधान के प्रारंभ से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 46 - अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धिः राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा ओर सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उसकी सुरक्षा करेगा। 

अनुच्छेद 47 - पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्यः राज्य, अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में मानेगा और राज्य, विशिष्टयता, मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक औषधियों के, औषधीय प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 48 - कृषि और पशुपालन का संगठनः राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा। 

अनुच्छेद 43क - पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षाः राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 49 - राष्ट्रीय महत्व के संस्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षणः संसद् द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन राष्ट्रीय महत्व वाले (घोषित किये गये) कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरूची वाले प्रत्येक संस्मारक या स्थान या वस्तु का, यथास्थिति, लुंठन, विरूपण, विनाश, अपसारण, व्ययन और निर्यात से संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी। 

अनुच्छेद 50 - कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करणः राज्य की लोक सेवाओं में, न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा। 

अनुच्छेद 51 - अंर्तराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि - राज्य,

  • (क) अंर्तराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का 
  • (ख) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का 
  • (ग) संगठित लोगों के एक दूसरे से व्यवहारों में अंर्तराष्ट्रीय विधि और संधि - बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का, और 
  • (घ) अंर्तराष्ट्रीय विवादों के माध्यस्थम् द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा।

3.3 राज्य की नीति के दिशा निर्देशक सिद्धांतों का महत्त्व 

दिशा निर्देशक सिद्धांत देश के शासन की दृष्टि से आधारभूत हैं और राज्य का कर्तव्य है कि वह कानून बनाते समय इनका अनुपालन करे। राज्य की नीति के दिशा निर्देशक सिद्धांतों में दिए गए सभी आदर्शों को किसी भी मुद्दे पर नीति बनाते समय नीति निर्माताओं को ध्यान में रखना चाहिए। निर्देशक सिद्धांत भारत शासन अधिनियम, 1935 में उल्लिखित ‘‘निर्देशों के साधन‘‘ के साथ निकट समानता रखते हैं और प्रतिपादित सिद्धांत एक विधि प्रस्तावित करते हैं जिसके माध्यम से ‘‘कल्याणकारी राज्य‘‘ का निर्माण किया जा सकता है। हालांकि उनका स्वरुप गैर-न्यायोचित है फिर भी किसी भी कानून की संवैधानिक वैधता का परीक्षण और निर्धारण करते समय न्यायालय इनका उपयोग करते हैं। 

ऐसे अनेक विविध कारण हैं जिनके कारण इन सिद्धांतों को संविधान में अंतर्निहित नहीं किया जा सका था। इनमें से कुछ कारण निम्नानुसार हैंः

  1. एक देश के रूप में भारत में पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध नहीं हैं जिनके माध्यम से निर्देशक सिद्धांतों में दिए गए निर्देशों का क्रियान्वयन किया जा सके। 
  2. देश में विद्यमान विशाल विविधता और पिछड़ापन इनके क्रियान्वयन में बाधा बने हैं। 
  3. स्वतंत्रता के बाद भारत में अनेक व्यस्तताएं थीं अर्थात, विभिन्न क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट समस्याएं थीं जिनका प्राथमिकता से समाधान करना आवश्यक था। यदि इन निर्देशक सिद्धांतों को अनिवार्य बनाया गया होता तो इसके कारण इन क्षेत्रों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता। 

डॉ बी. आर. अंबेडकर ने निर्देशक सिद्धांतों में अंतर्निहित उद्देश्यों का स्पष्टीकरण करते समय टिप्पणी की थी कि 

‘‘जबकि हमनें राजनीतिक लोकतंत्र स्थापित कर लिया है, हमारी यह भी इच्छा है कि अपने आदर्श के रूप में हम आर्थिक लोकतंत्र का भी निर्धारण करें। हम केवल एक ऐसा तंत्र निर्धारित नहीं करना चाहते ताकि लोग आएं और सत्ता पर कब्जा कर लें। संविधान उन लोगों के समक्ष एक आदर्श भी रखना चाहता है जो सरकार का निर्माण करने वाले हैं। और वह आदर्श है आर्थिक लोकतंत्र, जिसके माध्यम से, जहां तक मेरा संबंध है, मैं इसे इस अर्थ से समझता हूँ कि एक व्यक्ति, एक मत हो। इससे यह स्पष्ट है कि निर्देशक सिद्धांतों का मुख्य उद्देश्य है आर्थिक लोकतंत्र को प्राप्त करना।‘‘

न्यायिक व्याख्या में निर्देशक सिद्धांत तीन विशिष्ट भूमिकाएं निभाते हैं। 

पहला यह कि निर्देशक सिद्धांतों की सेवा में अधिनियमित किया गया कानून यदि संविधान के खंड 3 में प्रतिपादित मौलिक अधिकारों को चुनौती के रूप में परिणमित होता है तो वह ‘‘सार्वजनिक हित‘‘ की चौखट को प्राप्त करता है। दूसरा, यदि कानून एक से अधिक व्याख्या की दृष्टि से बुद्धिमानी से अतिसंवेदनशील है तो उस व्याख्या को अन्य व्याख्याओं पर प्रमुखता दी जानी चाहिए जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के सर्वाधिक निकट है। और अंत में, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत उन विशिष्ट अवधारणाओं का चयन करने में संरचनात्मक भूमिका निभाते हैं जो मौलिक अधिकारों के अध्याय में अंतर्निहित अमूर्त अवधारणाओं की ठोस अभिव्यक्तियाँ हैं। यह न्यायालय के इस कथन को समझने का सर्वश्रेष्ठ तरीका है कि ‘‘मौलिक अधिकारों की व्याख्या राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के परिप्रेक्ष में‘‘ की जानी चाहिए। इस प्रकार संवैधानिक विश्लेषण में निर्देशक सिद्धांतों की भूमिका का स्पष्ट निरूपण किया गया है। 

हालांकि निर्देशक सिद्धांतों के साथ कुछ दोष भी जुडे़ हुए हैं। 

  1. कानूनी रूप से प्रवर्तनीय नहीं हैंः राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की सबसे बड़ी आलोचना यह की जाती है कि इनका स्वरुप न्यायोचित नहीं है। कुछ विद्वानों ने तो इन्हें ‘‘नव-वर्ष के संकल्प से अधिक बेहतर नहीं‘‘ के रूप में भी कहा है। 
  2. तर्कशून्य क्रमांकनः निर्देशक सिद्धांत न तो सही रूप से वर्गीकृत हैं और न ही तर्क पूर्ण ढंग से क्रमबद्ध किये गए हैं। 
  3. रूढ़िवादीः ऐसा कहा जाता है कि निर्देशक सिद्धांतों के अनेक प्रावधान रूढिवादी हैं। शायद वे 20 वीं सदी के लिए उपयुक्त हो सकते थे, परंतु क्या वे 21 वीं सदी के लिए भी उपयुक्त हैं, यह बहस का विषय है।

3.4 राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के कारण होने वाले टकराव


3.5 मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच अंतर

3.6 मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के बीच टकराव पर कुछ महत्वपूर्ण मील के पत्थर


3.7 नीति निदेशक सिद्धांतों का क्रियान्वयन 

  1. नीति निदेशक सिद्धांतों के क्रियान्वयन हेतु अनेक विधान उपलब्ध हैं।
  2. भूमि सुधार विधेयक इस दिशा में पहला कदम था।
  3. इसके पश्चात् आये 4था, 17 वां, 25 वां, 42 वां एवं 44 वां संशोधन। संविधान के 73 वें संशोधन अधिनियम का उद्देश्य अनुच्छेद 40 को क्रियान्वित करना है।
  4. मजदूरों को मानवीय वातावरण उपलब्ध करवाने के लिये कई औद्यौगिक नियम भी बनाए गये।
  5. आर्थिक विकास के लिये कुटीर उद्योगों की स्थापना एवं उन्नयन सरकार की एक प्रमुख नीति है। इस हेतु खादी एवं गा्रम उद्योग का भी गठन किया गया।

3.6 संविधान के नीति निदेशक तत्व (भाग IV(A)) के अलावा

अनुच्छेद 350एः इसके अन्तर्गत राज्य और स्थानीय प्राधिकरणों को निर्देशित किया जाता है कि भाषायी अल्पसंख्यक छात्रों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में उपलब्ध कराई जाए। 

अनुच्छेद 351ः यह केन्द्र को, हिन्दी भाषा का विस्तार व प्रोन्नती करने का निर्देश देती है ताकि यह भारत की सांझा सांस्कृतिक विरासत को अभिव्यक्त करने का उचित माध्यम हो सके।

अनुच्छेद 335ः इसके अनुसार अनुसूचित जाति/जनजाति के उम्मीदवारों हेतु केन्द्र या राज्य की सेवाओं में नियुक्त करते समय, प्रशासनिक दक्षता को बरकरार रखते हुए, उचित अवसर सुरक्षित रखें जाये।

4.0 समान नागरिक संहिता पर बहस 

समान नागरिक आचार संहिता से आशय ऐसी राष्ट्रीय आचार संहिता से हे जो समाज के सभी वर्गो (चाहें वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों) पर समान रूप से लागू होता है। आचार संहिता के अधीन विवाह, तलाक, क्षतिपूर्ति भत्ता, विरासत, सम्पत्ति का उत्तराधिकार और बच्चों को गोद लेने जैसे मुद्दे आते हैं। संविधान के अनुच्छेद 44 के अन्तर्गत समान नागरिक आचार संहिता, एक नीति निदेशक सिद्धांत के तौर पर दर्शायी गई है। समान नागरिक आचार संहिता महिलाओं के स्तर को सुधारने के साथ-साथ उनके सशक्तिकरण पर भी जोर देती है। संविधान के अनुच्छेद 25 व 26 किसी भी धर्म को मानने की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है। समान नागरिक आचार संहिता धर्मनिरपेक्षता के विरूद्ध नहीं है और ना ही इन धाराओं का उल्लंघन करती है। अनुच्छेद 44 इस तथ्य पर आधारित है कि किसी भी सभ्य समाज में धर्म व व्यक्तिगत कानून में कोई आवश्यक संबंध नही देता। विवाह एवं उत्तराधिकार जैसे मामले धर्मनिरपेक्ष होते हैं व इन्हें कानून द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। समान नागरिक आचार संहिता किसी भी परिस्थिति में किसी भी धर्म की आस्थाओं, विशेष तौर पर निर्वाह भत्ता, उत्तराधिकार और विरासत में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, तथापि इन या इन जैसे मामलों हेतु एक समान कानून हो सकता है। अनुच्छेद 25 किसी धर्म को मानने व घोषित करने का अधिकार सुनिश्चित करता है, जबकि अनुच्छेद 44 धर्म को सामाजिक संबंधों तथा व्यक्तिगत कानून से अलग करती है। न्यायमूर्ति आर. एम. सहाय के अनुसार ‘‘धर्म की स्वतंत्रता हमारी संस्कृति की धुरी है, किन्तु ऐसी धार्मिक मान्यताएँ जो मानव अधिकारों तथा मानव गरिमा का हनन कर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लांघती हैं, को अत्याचार माना जाए’’।

4.1 शाहबानो प्रकरण 

  1. मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बैगम, ज़िसे शाहबानो केस के नाम से जाना जाता है, में एक गरीब मुस्लिम महिला ने तलाक के पश्चात् अपराधिक दण्ड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत अपने पति से निर्वहन भत्ते की मांग की थी।
  2. माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एक मुस्लिम महिला को भी धारा 125 के अंतर्गत निर्वहन भत्ता मिलने का अधिकार है।
  3. इस निर्णय के पश्चात् राष्ट्रव्यापी आंदोलन हुए व बहस के दौर शुरू हुए।
  4. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की सरकार ने शाहबानो मामले में न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए मुस्लिम महिला (तलाक पर संरक्षण का अधिकार) विधेयक, 1986 पारित करवाया जिससे मुस्लिम महिलाओं को धारा 125 के तहत् निवर्हन भत्ता मिलने का अधिकार खत्म हो गया।

4.2 सरला मुद्गल केस

  1. सरला मुद्गल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, दूसरा उदाहरण था जब उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 44 को लेकर सरकार को निर्देशत किया। 
  2. इसमें यह प्रश्न था कि क्या कोई हिन्दू पति जिसने हिन्दू विधि से विवाह किया हो, इस्लाम को अपनाकर दूसरा विवाह कर सकता है। 
  3. न्यायालय ने कहा की कोई भी हिन्दू विवाह जो हिन्दू विधि से सम्पन्न हुआ हो, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के द्वारा ही समाप्त घोषित किया जा सकता है।
  4. इस्लाम में धर्मांतरण और पुर्नविवाह हिन्दू विवाह को समाप्त नहीं करता है और इसलिए इस्लाम को अपनाकर दूसरा विवाह करना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के तहत एक अपराध है।

4.3 जॉन वालामत्तन केस 

  1. केरल के पादरी जॉन वालामत्तन ने 1997 में एक याचिका दायर की जिसमें कहा गया की भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 ईसाई धर्म के विरूद्ध है क्योंकि यह बिना किसी कारण से उन्हें अपनी सम्पत्ति को धार्मिक या चैरेटी के कार्यों में स्वेच्छापूर्वक दान देने से रोकता है। 
  2. माननीय उच्चतम न्यायालय ने 2003 में इस खण्ड को अवैधानिक बताते हुए हटा दिया।

इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने कई अवसरों पर सरकार को नीति निदेशक सिद्धांतों की महत्ता बताई है और समान नागरिक अचार संहिता तुरंत लागू करने को कहा है।

4.4 गीता हरिहरन मामला 

गीता हरिहरन बनाम भारतीय रिजर्व बैंक (1999) मामले में शीर्ष न्यायालय ने हिंदू अल्पसंख्यक एवं अभिभावकता अधिनियम, 1956 और अभिभावक संविधान एवं प्रतिपालित अधिनियम के कुछ प्रावधानों की वैधता पर उस याचिका पर निर्णय दिया था जिसमें यह दावा किया गया था कि ये सभी परिस्थितियों में पिता को बच्चे का प्रा.तिक अभिभावक मानने के कारण से अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हैं। न्यायालय ने निर्णय दिया था कि बच्चे का हित सर्वोपरि है, और कानून का पत्र इस पहलू पर अधिभावी नहीं होगा। हिंदुओं के लिए अभिभावकत्व के मामलों में इसने समानता के सिद्धांत की शुरुआत की थी, जिसमें बच्चे के हित और कल्याण को सर्वोपरि माना गया था। 

4.5  2015 का घटनाक्रम 

वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने एकरूपता के पहलु का दो मामलों में परीक्षण किया था। पहले मामले का संबंध गिरिजाघर न्यायालय को न्यायालय द्वारा मान्यता प्रदान करने की मांग से था, जो कैथोलिक ईसाईयों के लिए बने कैनन कानून के तहत कार्य करता है न कि भारतीय दीवानी कानून के तहत। शीर्ष न्यायालय ने यह प्रश्न उठाया था कि क्या वर्तमान परिस्थितियों में भारत धर्मनिरपेक्ष बना रह सकता है, और उसने दीवानी कानूनों से धर्म को निकालने की मांग की। यह मामला न्यायालय में न्याय प्रविष्ट है। 

दूसरे मामले में न्यायालय ने बच्चे के पिता की सहमति के बिना एक अविवाहित ईसाई माँ को बच्चे का अभिभावकत्व जारी करने के मामले पर विचार किया था। महिला के पक्ष में निर्णय देते हुए न्यायालय ने कहा थाः ‘‘हमारे लिए इस तथ्य को जांच लेना उचित होगा कि हमारे निर्देशक सिद्धांत एक समान नागरिक संहिता के अस्तित्व की कल्पना करते हैं, परंतु यह एक असंबोधित संवैधानिक अपेक्षा बन कर रह गई है।‘‘

समान नागरिक संहिता का निर्माण संसद का अनन्य अधिकार है। परंतु कभी कभी राजनीतिक इच्छाशक्ति राजनीतिक कारणों से कमजोर हो जाती है। भारत के अल्पसंख्यक और विभिन्न धार्मिक संस्थाएं यह विरोध कर सकती हैं कि समान नागरिक संहिता उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करेगी, और इसका परिणाम बहुसंख्यों द्वारा वर्चस्व के रूप में हो सकता है। 

अतः, न्यायपालिका द्वारा बार-बार स्मरण कराने के बावजूद सरकार अभी तक समान नागरिक संहिता का क्रियान्वयन करने में असफल रही है। 

5.0 उपसंहार 

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत और मौलिक कर्तव्य भारतीय संविधान के वे खंड हैं जो राज्य के उसके नागरिकों के प्रति मौलिक दायित्वों और नागरिकों के राज्य के प्रति कर्तव्यों का निर्धारण करते हैं। मौलिक कर्तव्यों को सभी नागरिकों के नैतिक दायित्वों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसके माध्यम से देशभक्ति की भावना को संवर्धित किया जा सके और भारत की एकता को बनाये रखा जा सके। संविधान के खंड 4-ए में प्रतिपादित ये कर्तव्य व्यक्तियों और देश से संबंधित हैं। नागरिकों का संविधान द्वारा नैतिक दृष्टि से इन कर्तव्यों का निर्वहन करने का दायित्व है। हालांकि मौलिक कर्तव्य कानूनी रूप से प्रवर्तनीय नहीं हैं अर्थात, उनके उल्लंघन या गैर-अनुपालन की स्थिति में किसी प्रकार का कानूनी प्रश्रय प्राप्त नहीं है। 

यह आवश्यक है कि सभी नागरिकों के लिए ये कर्तव्य देश के प्रति दायित्व के रूप में हों, बशर्ते कि राज्य एक वैध कानून द्वारा उनका प्रवर्तन करता है, अन्यथा कानून की स्थिति काफी कमजोर हो जाती है। अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में राज्य को निर्देश जारी कर हैं, ताकि इन प्रावधानों को प्रभावी बनाया जा सके और नागरिकों को सही ढंग से उनके कर्तव्यों का निर्वहन करना सुविधाजनक बनाया जा सके। यह परियोजना विभिन्न विधानों के तहत मौलिक कर्तव्यों की प्रवर्तनीयता को रोकने का प्रयास था जो भारतीय संविधान के लिए संदर्भ के रूप में रहे हैं।

गांधी जी के लिए स्वराज का क्या अर्थ था?

गाँधीवादी विद्वान एम.पी. मथाई द्वारा लिखित निबंध के संपादित अंश 

बीसवीं सदी की विशेषता व्यापक लोकतांत्रिक उठाव की सदी के रूप में रही है। इस सदी के उत्तरार्ध में स्वतंत्रता संघर्षों के कारण एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के तख्तापलट हुआ। महात्मागांधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, जिसने संघर्ष के एक साधन के रूप में अहिंसावादी प्रत्यक्ष कार्यवाही सत्याग्रह का उपयोग किया था, द्वारा उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के प्राचीन स्वरूपों को ढ़हाने की प्रक्रिया को गति प्रदान करने और उसमे तीव्रता लाने में निभाई गई भूमिका के लिए इसने काफी प्रशंसा प्राप्त की है। अगले दो दशकों ने नए से स्वतंत्रता प्राप्त उपनिवेशों में राज्यों द्वारा शुरू किये गए उपनिवेशों के पश्चात के परिवर्तनों के भारी प्रयासों का अनुभव किया। एक गहराई तक जड़ें जमा चुकी अवधारणा है कि समाज के गरीब और कमजोर वर्गों की स्थिति को सुधारने में राज्य एक प्रभावी मध्यस्थ है, सामाजिक न्याय और समानता, दलितों की मुक्ति के उद्देश्य के लिए और ‘‘संवृद्धि और विकास के उत्प्रेरक के रूप में, जो समग्र जनता में एक नई नागरिक व्यवस्था की शुरुआत करेगा, जो प्रगति और समृद्धि पर आधारित होगी, जो जीवन और स्वतंत्रता, समानता और प्रतिष्ठा के अधिकार प्रदान करेगी।‘‘ (जैसा रजनी कोठारी ने ‘‘आमजन वर्ग और राज्य‘‘ {मासेस, क्लासेस एंड स्टेट} में दर्शाया है)

स्वतंत्रता का तीसरा दशक (1970 का दशक) मोहभंग और सामान्यीकरण का काल था। यह स्पष्ट हो चुका था कि सरकार की सकारात्मक और हस्तक्षेप की भूमिका और जनता और सरकार के बीच परिकल्पित गठबंधन पूर्णतः मिथ्या साबित हुआ है। जैसा कि कोठारी ने दर्शाया है ‘‘आज ऐसा माना जा रहा है कि सरकार ने जनता को धोखा दिया है, क्योंकि वह प्रभावशाली वर्गों और उनके अंतर्राष्ट्रीय संरक्षकों की गुलाम बन गई है, और साथ ही वह बढ़ते रुप में जन-विरोधी बन गई है। तीसरे विश्व के राज्य, कुछ देशों के समर्पित नेताओं के कुछ साहसी प्रयासों के बावजूद, एक तकनीकज्ञ मशीन के रूप में पतित हो गए हैं जो केवल एक संकुचित शक्तिशाली गुट की सेवा कर रहे हैं, जो सर्वोच्च स्तर पर सुरक्षा कर्मियों और दमन और आतंक द्वारा और निचले स्तर पर करोड़ों कठोर परिश्रमी लोगों द्वारा सत्ता में बने हुए हैं, जिन्हें व्यवस्था के लिए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन जारी रखना अनिवार्य है, क्योंकि यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो सब कुछ बिखर जायेगा।‘‘

इस पर पीड़ितों की ओर से तीव्र प्रतिक्रिया उठी। वे अब नए सामाजिक आंदोलनों/कार्य दलों/जन आंदोलनों के तहत संगठित किये जा रहे हैं और एकत्रित किये जा रहे हैं, और ये आंदोलन दमनकारियों को हिंसक और शांतिपूर्ण संघर्षों में उलझा रहे हैं। ये आंदोलन दलितों, आदिवासियों विस्थापित लोगों के और पर्यावरणीय आंदोलन, क्षेत्रीय स्वायत्तता के आंदोलनों और वैश्वीकरण के विरुद्ध आंदोलनों इत्यादि में परिवर्तित हो गए हैं। 

हम कह सकते हैं कि गाँधीवादी युग के पश्चात के भारत के प्रमुख अहिंसक/शांतिपूर्ण संघर्ष गांधी जी द्वारा दक्षिण अफ्रीका और भारत में आयोजित अपने जाति विरोधी और उपनिवेशवाद विरोधी सत्याग्रह अभियानों के जैविक विस्तार थे। वास्तव में देखा जाए तो विश्व के किसी भी हिस्से में पिछले पचास वर्षों के दौरान शायद ही ऐसा कोई अहिंसक संघर्ष हुआ होगा जिसपर गाँधीवादी अहिंसा की व्यापक छाप और प्रभाव नहीं रहा है। 

भारत की स्वतंत्रता के लिए गांधी जी के नेतृत्व में किया गया उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष कई मायनों में अद्वितीय था। यह कि यह मुख्य रूप से एक अहिंसक आंदोलन था, यह बात बार-बार कही जा चुकी है। यहां मैं जो दर्शाना चाहता हूँ वह इसका एक दूसरा ही पहलू है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन बहुआयामी था। गांधी जी ने इसे भारत में ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के एक सूत्री कार्यक्रम के रूप में सीमित नहीं किया था। निश्चित रूप से गांधी जी के कार्यक्रम में विदेशी वर्चस्व को समाप्त करना इसका एक महत्वपूर्ण और मुख्य उद्देश्य था। हालांकि उनके लक्ष्य अधिक उच्च और अधिक महत्वाकांक्षी थे। वे जो प्राप्त करना चाहते थे वह था स्वराज, पूर्ण स्वराज या संपूर्ण स्वतंत्रता। 

स्वराज से गांधी जी का क्या तात्पर्य था इसका यहां स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। हालांकि स्वराज शब्द का अर्थ है स्वशासन, परंतु गांधी जी ने इसे एक अविभाज्य क्रांति का तत्व प्रदान किया जो जीवन के सभी क्षेत्रों को समाविष्ट करता है। ‘‘व्यक्तिगत स्तर पर स्वराज का संबंध निष्पक्ष स्वमूल्यांकन, अथक आत्म शुद्धिकरण और स्वदेशी की वृद्धि या आत्मनिर्भरता से है‘‘ (युवा भारत में गांधी जी, 1928)। राजनीतिक दृष्टि से स्वराज का अर्थ है स्वशासन न कि सुशासन (गांधी जी के लिए सुशासन स्वशासन का पर्याय नहीं है) और इसका अर्थ है शासन के नियंत्रण से स्वतंत्र होने के लिए किया जाने वाला निरंतर प्रयास, फिर वह शासन विदेशी हो या राष्ट्रीय शासन हो। दूसरे शब्दों में, यह शुद्ध नैतिक अधिकार पर आधारित लोगों की संप्रभुता है। आर्थिक दृष्टि से पूर्ण स्वराज का अर्थ है करोड़ों परिश्रमी लोगों के लिए संपूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता। गांधी जी के लिए, लोगों के लिए स्वराज का अर्थ है व्यक्तिगत स्वराज (स्वशासन) का कुल जमा, और इसलिए उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि उनके लिए स्वराज का अर्थ था उनके निर्धनतम देशवासी के लिए स्वतंत्रता। और इसके पूर्ण अर्थ में स्वराज सभी बंधनों से मुक्ति से कहीं अधिक है, इसका अर्थ है स्वशासन, आत्म नियंत्रण और इसे हम मोक्ष या निर्वाण के समतुल्य मान सकते हैं।

स्वराज किस प्रकार प्राप्त किया जाना है इस बात ने भी गांधी जी का ध्यान गंभीरता से आकृष्ट किया था। उन्होंने अपने सहयोगियों को याद दिलाया था कि स्वराज आसमान से नहीं टपकेगा बल्कि यह धैर्य और सहनशीलता, दृढ़ता, अथक प्रयासों, साहस और वातावरण की बुद्धिमान समझदारी का फल होगा। उन्होंने अपने सहयोगियों को यह भी याद दिलाया कि स्वराज का अर्थ है विशाल संगठन क्षमता, केवल ग्रामीणों की सेवा के उद्देश्य से गांवों में पैठ बनाना। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है राष्ट्रीय शिक्षा अर्थात जन शिक्षा। और गाँधीवादी उपदेश में जन शिक्षा का अर्थ है अंतर्विवेकशीलता, संगठन और सशक्तिकरण, लोगों को किसी भी शक्ति के समक्ष खड़े रहने के लिए सक्षम और दृढ़निश्चयी बनाना। उन्होंने कहा था। ‘‘वास्तविक स्वराज सत्ता के अधिग्रहण से नहीं बल्कि जब अधिकार या सत्ता का दुरूपयोग है तो सभी में उस दुरूपयोग का विरोध करने की क्षमता के अधिग्रहण से आएगा। दूसरे शब्दों में स्वराज जनता को सत्ता को विनियमित करने और नियंत्रित करने की क्षमता के बारे में शिक्षित करके प्राप्त किया जाना है।‘‘

स्वराज के लक्ष को प्राप्त करने के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता एक अनिवार्य पूर्वशर्त और पहला कदम थी, परंतु यह केवल पहला कदम ही थी। राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए गांधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ और उसके माध्यम से कार्य किया, परंतु गांधी जी और कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं, विशेष रूप से नेहरू, के बीच गंभीर तात्विक और वैचारिक मतभेद थे। गांधी जी द्वारा कल्पना किया गया विकास मॉडल, जिसे हिंद स्वराज में अंतर्निहित किया गया था, और गांधी जी का घोषणापत्र कहा गया, और बाद में उनके द्वारा विकसित की गई रणनीति नेहरू और उनकी कांग्रेस को पूरी तरह अस्वीकार्य थे। नेहरू ने हिंद स्वराज को ‘‘पूर्णतः अवास्तविक‘‘ कह कर खारिज़ कर दिया था और घोषणा की थी कि न तो उन्होंने और न ही कांग्रेस ने कभी भी उसमें प्रस्तुत किये गए चित्र का विचार किया था। हालांकि गांधी जी के लिए हिंद स्वराज में प्रस्तुत किया गया दृष्टिकोण आदर्श था और उसे प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था। वे इस मॉडल को यहां प्रस्तुत करने के बाद भारत का पुनर्निर्माण करना चाहते थे। इसके लिए केवल ब्रिटिश शासन को समाप्त करने से कहीं अधिक की आवश्यकता थी। 

जिसे उनकी अंतिम इच्छा या वसीयतनामा कहा जाता है, उसमें गांधी जी ने सुझाव दिया था कि कांग्रेस को एक राजनीतिक मंच के रूप में विघटित कर दिया जाना चाहिए और इसे एक रचनात्मक संगठन के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। उन्होंने इसके लिए लोक सेवक संघ नाम सुझाया था ताकि लोगों को स्वराज की दिशा में काम करने और संघर्ष करने के लिए कर्तव्यनिष्ठ बनाया जा सके और जोड़ा जा सके। दलीय राजनीति की प्रवृत्ति वाले कांग्रेस जनों ने महात्मा जी की सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया। हालांकि गांधी जी की हत्या  के बाद विनोबा भावे के नेतृत्व में रचनात्मक कार्यकर्ताओं ने स्वराज के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सर्व सेवा संघ और क्षेत्रीय और राज्य स्तर पर सर्वोदय संघों की स्थापना की। भारत में सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक क्रांति के लिए दो अहिंसावादी आंदोलन वास्तव में सर्वोदय आंदोलन के तत्वावधान में आयोजित किये जिनमें से एक था विनोबा भावे के नेतृत्व में किया गया भूदान-ग्रामदान आंदोलन और दूसरा था संपूर्ण क्रांति आंदोलन जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया था। निकट से देखने पर यह देखा जा सकता है कि गांधी जी द्वारा स्थापित रचनात्मक संगठन और सर्वोदय मंड़ल और सर्व सेवा संघों ने भारत के विभिन्न भागों में बाद में चलाये गए जन आंदोलनों, स्वेच्छा संगठनों और कुछ गैर सरकारी संगठनों के लिए प्रणेता और अनुकरणीय आदर्श के रूप में कार्य किया है।

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concepts,11,Inda,1,India,29,India Agriculture and related issues,1,India Economy,1,India's Constitution,14,India's independence struggle,19,India's international relations,4,India’s international relations,7,Indian Agriculture and related issues,9,Indian and world media,5,Indian Economy,1248,Indian Economy – Banking credit finance,1,Indian Economy – Corporates,1,Indian Economy.GDP-GNP-PPP etc,1,Indian Geography,1,Indian history,33,Indian judiciary,119,Indian Politcs,1,Indian Politics,637,Indian Politics – Post-independence India,1,Indian Polity,1,Indian Polity and Governance,2,Indian Society,1,Indias,1,Indias international affairs,1,Indias international relations,30,Indices and Statistics,98,Indices and Statstics,1,Industries and services,32,Industry and services,1,Inequalities,2,Inequality,103,Inflation,33,Infra projects and financing,6,Infrastructure,252,Infrastruture,1,Institutions,1,Institutions and bodies,267,Institutions and bodies Panchayati Raj,1,Institutionsandbodies,1,Instiutions and Bodies,1,Intelligence and security,1,International Institutions,10,international relations,2,Internet,11,Inventions and discoveries,10,Irrigation Agriculture Crops,1,Issues on Environmental Ecology,3,IT and Computers,23,Italy,1,January 2020,26,January 2021,25,July 2020,5,July 2021,207,June,1,June 2020,45,June 2021,369,June-2021,1,Juridprudence,2,Jurisprudence,91,Jurisprudence Governance and Institutions,1,Land reforms and productivity,15,Latest Current Affairs,1136,Law and order,45,Legislature,1,Logical Reasoning,9,Major events in World History,16,March 2020,24,March 2021,23,Markets,182,Maths Theory Booklet,14,May 2020,24,May 2021,25,Meetings and Summits,27,Mercantilism,1,Military and defence alliances,5,Military technology,8,Miscellaneous,454,Modern History,15,Modern historym,1,Modern technologies,42,Monetary and financial policies,20,monsoon and climate change,1,Myanmar,1,Nanotechnology,2,Nationalism and protectionism,17,Natural disasters,13,New Laws and amendments,57,News media,3,November 2020,22,Nuclear technology,11,Nuclear techology,1,Nuclear weapons,10,October 2020,24,Oil economies,1,Organisations and treaties,1,Organizations and treaties,2,Pakistan,2,Panchayati Raj,1,Pandemic,137,Parks reserves sanctuaries,1,Parliament and Assemblies,18,People and Persoalities,1,People and Persoanalities,2,People and Personalites,1,People and Personalities,189,Personalities,46,Persons and achievements,1,Pillars of science,1,Planning and management,1,Political bodies,2,Political parties and leaders,26,Political philosophies,23,Political treaties,3,Polity,485,Pollution,62,Post independence India,21,Post-Governance in India,17,post-Independence India,46,Post-independent India,1,Poverty,46,Poverty and hunger,1,Prelims,2054,Prelims CSAT,30,Prelims GS I,7,Prelims Paper I,189,Primary and middle education,10,Private bodies,1,Products and innovations,7,Professional sports,1,Protectionism and 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Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - भारतीय संविधान - व्याख्यान - 6
यूपीएससी तैयारी - भारतीय संविधान - व्याख्यान - 6
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