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मौलिक अधिकार भाग - 2
7.0 आरक्षण व्यवस्था और भारतीय संविधान
भारतीय संविधान की आत्मा का सार समानता में है। प्राचीन समय से ही भारत में जाति व्यवस्था प्रचलित रही है जिसका परिणाम कुछ वर्गों से संबंधित व्यक्तियों के विरुद्ध शिक्षा और रोजगार के विभिन्न अवसरों में भेदभाव और और वंचितता में हुआ है। अतः भारत के संविधान में अनेक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आरक्षणों का प्रावधान किया गया है।
संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के तहत जातियों, धर्मों इत्यादि से पार सभी सामाजिक समूहों से संबंधित महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किये जा सकते हैं ताकि उन्हें सभी क्षेत्रों में उन्नति और कल्याण के अवसर उपलब्ध हो सकें।
अनुच्छेद 15 (4) के तहत किन्हीं भी सामाजिक या शैक्षणिक दृष्टि से पिछडे़ वर्गों और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान किये जा सकते हैं। यहां ‘‘उत्थान‘‘ शब्द का अर्थ है किसी भी क्षेत्र में। अनुच्छेद 15 का यह उप-नियम (4) 1951 के एक संशोधन द्वारा प्रविष्ट किया गया था।
अनुच्छेद 16 (4) राज्य को ऐसे किसी भी पिछडे वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों में आरक्षण का प्रावधान करने की अनुमति प्रदान करता है जिन्हें राज्य की राय में उसकी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है। इस उप-नियम में उल्लिखित ‘‘पिछड़ा वर्ग‘‘ शब्द की व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस अर्थ में की गई है जिसका संबंध ‘‘सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा‘‘ से है जैसा कि अनुच्छेद 15 के बाद में प्रविष्ट उप-नियम (4) में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।
अनुच्छेद 46 राज्य को निर्देश देता है कि वह विशेष सावधानीपूर्वक ‘‘समाज के कमजोर वर्गों के लोगों‘‘ के शैक्षणिक और आर्थिक हितों का संवर्धन करे, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के लिए, साथ ही यह अनुच्छेद राज्य को यह निर्देश भी देता है कि वह उनका ‘‘प्रकार के सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से संरक्षण करे।‘‘
अनुच्छेद 335 कहता है कि संघ और किसी भी राज्य के मामलों से संबंधित सेवाओं और पदों के संबंध में नियुक्तियां करते समय निरंतर रूप से प्रशासन की कुशलता को बनाये रखने के साथ ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों को ध्यान में रखा जाए।
ये प्रावधान कानून के समक्ष नागरिकों की समानता के अधिकार या अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदान किये गए कानून के समान संरक्षण के अपवाद प्रतीत हो सकते हैं। हालांकि एक गहरा अध्ययन दर्शाता है कि ये प्रावधान राज्य को पिछडे़ वर्गों की विशाल जनसंख्या के समानता के अधिकार को वास्तविकता में परिवर्तित करने में सक्षम बनाता है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ ही ये वर्ग देश की जनसंख्या के 85 प्रतिशत हैं। ये अपवाद विकास के लाभ समाज के वंचित वर्गों तक पहुंचाने में राज्य को सक्षम बनाते हैं। यह समानता के सिद्धांत को भी प्रभावशाली बनाता है क्योंकि ये अपवाद हमारे समाज जैसे किसी भी ऐसे असमान समाज में अनिवार्य बन जाते हैं जिसका उद्देश्य समानता लाना है।
संविधान में निर्मित किये गए अपवाद कुछ विशिष्ट प्रयोजनों के लिए चार वर्गों के पक्ष में हैं, चाहे शर्तों के साथ या बिना किसी शर्त के -
- सामान्य रूप से महिलाऐं और बच्चे, अर्थात वर्ग, जाति, वंश, धर्म इत्यादि {अनुच्छेद 15 (3)}, से परे सभी सामाजिक समूहों और समाज के सभी वर्गों की महिलाओं और बच्चों के लिए, अर्थात निश्चित रूप से उनके सर्वांगीण कल्याण और विकास के लिए।
- सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछडे़ वर्ग {उनके उत्थान के लिए, अनुच्छेद 15 (4)}।
- अनुसूचित जातियां एवं अनुसूचित जनजातियां।
- ‘‘कमजोर वर्ग‘‘ जिनमें विशेष रूप से अनुसूचित जातियां एवं अनुसूचित जनजातियां शामिल हैं, ताकि विशेष सावधानीपूर्वक उनके शैक्षणिक और आर्थिक हितों की आवश्यकताओं का अधिक सावधानीपूर्वक संवर्धन किया जा सके और साथ ही सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण किया जा सके {अनुच्छेद 46}
अनुच्छेद 46 में किये गए उल्लेख के अनुसार कमजोर वर्गों में शामिल किये जाने के लिए व्यक्तियों के वर्गों की पहचान निम्न आधारों पर की जाती हैः
- जिनके शैक्षणिक और आर्थिक हितों का संवर्धन विशेष सावधानीपूर्वक किया जाना आवश्यक है, और
- जिन्हें सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित किया जाना आवश्यक है।
समाज के वे वर्ग जो केवल आर्थिक रूप से निर्बल या पिछडे़ हैं, वे अनुच्छेद 46 के आवरण के तहत उनके हितों के संवर्धन की दृष्टि से पात्र नहीं होंगे। हालांकि अनुच्छेद 46 उन कमजोर वर्गों की बात करता है जिनके ‘‘आर्थिक‘‘ हितों का भी उनके ‘‘शैक्षणिक‘‘ हितों के साथ ही विशेष सावधानीपूर्वक संवर्धन किया गया है, साथ ही यह अनुच्छेद उनका ‘‘सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण‘‘ से ‘‘संरक्षण‘‘ करने की बात भी करता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण पर दिए गए अपने सभी निर्णयों में अनुच्छेद 16 (4) में प्रयुक्त ‘‘पिछडे़ वर्गों‘‘ शब्द की व्याख्या ‘‘सामाजिक दृष्टि से और शैक्षणिक दृष्टि से‘‘ पिछडे़ के अर्थ में की है। साथ ही न्यायलय ने स्पष्ट रूप से ‘‘आर्थिक पिछडे़पन‘‘ को अनुच्छेद 16 (4) के तहत आरक्षण प्राप्त करने के लिए एकमात्र या प्राथमिक मापदंड के रूप में अस्वीकार किया है और यह व्यवस्था दी है कि आर्थिक पिछड़ापन सामाजिक और शैक्षणिक पिछडे़पन के कारण ही होना चाहिए।
आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था ‘‘वर्गों‘‘ के पक्ष में है न कि व्यक्तियों के पक्ष में। और व्यक्तियों को इनके लिए पात्र होने के लिए उनका इन वर्गों से संबंधित होना अनिवार्य है। कोई भी ऐसा एकमात्र या विशेष ‘‘वर्ग‘‘ नहीं है जो आर्थिक रूप से पिछड़ा है। सभी वर्गों और सामाजिक समूहों में आर्थिक दृष्टि से पिछडे़ व्यक्ति हैं। परंतु केवल इसी एक आधार पर वे पिछड़ा वर्ग कहलाने के लिए पात्र नहीं हो जाते।
8.0 वाक्-स्वातंत्र्य (Freedom of Speech)
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भारतीय संविधान में बहुत ज़ोर दिया गया है। संविधान की प्रस्तावना खुद सभी नागरिकों को सोच की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा करने की आज़ादी सुनिश्चित करती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वप्रथम संविधान की प्रस्तावना में होती है और अनुच्छेद 19(1) (क) में मौलिक और मानव अधिकार (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के रूप में तब्दील हो जाती है। एक व्यापक दृष्टिकोण में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मुँह के शब्द से, या लिखित रूप में, या श्रव्य दृश्य उपकरणों के माध्यम से भी हो सकती है। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब मुंह, लेखन, मुद्रण, चित्र या किसी अन्य विधि के द्वारा स्वतंत्र रूप से अपने प्रतिबद्धता और राय व्यक्त करने का अधिकार है। इस प्रकार यह एक विचार को किसी भी संक्रामक माध्यम या दृश्य प्रतिनिधित्व के माध्यम से संकेत द्वारा अभिव्यक्त करना हो सकता है।
इसके अलावा, यह महत्वपूर्ण है कि एक की स्वतंत्रता से दूसरों की स्वतंत्रता पर आघात नहीं लगना चाहिए। पतंजलि शास्त्री, जे. ने ए. के. गोपालन मामले में माना, ‘‘व्यक्ति एक तर्कसंगत प्राणी के रूप में कई काम करने की इच्छा करता है, लेकिन एक सभ्य समाज में उन इच्छाओं को अन्य व्यक्तियों द्वारा इसी तरह की इच्छाओं के पूर्तिकरण के साथ नियंत्रित किया जाना है’’। इसलिए इसमें किसी के दृष्टिकोण को प्रिंट मीडिया के माध्यम से, या किसी भी अन्य संचार चैनल उदाहरण के माध्यम से प्रचार करने का अधिकार भी शामिल है। इस देश का हर नागरिक मुद्रण और इलेक्ट्रानिक मीड़िया विषय के माध्यम से अपने विचार रखने का अधिकार रखता है, संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत लगाए गए प्रतिबंध के तहत्। संक्षेप में, यह मौलिक सिद्धांत लोगों के जानकारी पाने के अधिकार को शामिल करता है। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इसलिए उन सभी से उदार सहायता प्राप्त कर सकता है। जो प्रशासन में लोगों की भागीदारी में विश्वास रखते है। हम निम्नलिखित मदों के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देख सकते हैं।
8.1 वाक्-स्वातंत्र्य (मीडिया)
अनुच्छेद 19 प्रेस की स्वतंत्रता के प्रावधान व्यक्त नहीं करता है, लेकिन प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में निहित है। एक्सप्रेस समाचार पत्र (मुंबई) (प्रा) लिमिटेड बनाम भारत संघ के प्रसिद्ध मामले में अदालत ने प्रेस के उपयुक्त महत्व को माना है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा है कि ‘‘आज की मुक्त दुनिया में प्रेस की स्वतंत्रता सामाजिक और राजनीतिक समागम का हृदय है। प्रेस ने अब एक सार्वजनिक शिक्षक की भूमिका में विकासशील विश्व में औपचारिक व अनौपचारिक शिक्षा का प्रसार करना प्रारंभ कर दिया है, जहाँ टीवी और अन्य प्रकार के आधुनिक संचार समाज के सभी वर्गों के लिए अभी भी उपलब्ध नहीं हैं। प्रेस का उद्देश्य तथ्यों और विचारों का प्रकाशन है, द्वारा जिसके बिना लोकतांत्रिक मतदाता, जिम्मेदार निर्णय नहीं ले सकते। समाचार पत्र, समाचार और विचारों के प्रसारकर्ता होने से बहुत बार ऐसी सामग्री छाप सकते हैं जो सरकार और अन्य अधिकारियों को स्वीकार्य नहीं होगी’’।
सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त कथन दिखाते हैं कि प्रेस की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक प्रक्रिया के समुचित कार्य के लिए आवश्यक है। लोकतंत्र का मतलब लोगों की, लोगों द्वारा और लोगों के लिए, सरकार है। यह स्पष्ट है कि प्रत्येक नागरिक को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने का हक है और उसे समझदारी से एक विकल्प बनाने के अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए सक्षम करना चाहिये। सार्वजनिक मामलों में स्वतंत्र और सामान्य चर्चा जरूरी है। यह भारत में प्रेस की स्वतंत्रता के संवैधानिक दृष्टिकोण को समझाता है।
8.2 प्रतिबंध के आधार
जिस प्रकार एक लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखना और रक्षा करना आवश्यक है, उसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध लगाना आवश्यक है, क्योंकि किसी स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से अप्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है। तद्नुसार, भारत संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत, राज्य ऐसा कानून बना सकता है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रयोग पर निम्नलिखित आधार पर जनहित में पाबंदी लगा सकता हैः
(भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 की धारा (2) में आधार होता है जिस पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकते हैं)
(1) राज्य की सुरक्षाः राज्य की सुरक्षा का महत्व सर्वोपरि है और एक सरकार के पास इसे प्रभावित करने वाली गतिविधि पर प्रतिबंध लगाने की शक्ति होनी चाहिए। अनुच्छेद 19(2) के तहत राज्य की सुरक्षा के हित में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है। हालांकि ‘‘सुरक्षा’’ बहुत महत्वपूर्ण शब्द है। ‘‘राज्य की सुरक्षा’’ केवल सार्वजनिक व्यवस्था की गंभीर स्थितियों को संदर्भित करता है जैसे विद्रोह, राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ना, आदि, ना कि साधारण सार्वजनिक अव्यवस्था जैसे जनता की सुरक्षा का उल्लंघन, अवैध सभा, दंगा, हंगामा। इस प्रकार एक व्यक्ति की ओर से भाषण या अभिव्यक्ति, जिसका उद्देश्य हिंसक अपराधों को प्रोत्साहित करना है, जैसे हत्या, तो वे राज्य की सुरक्षा को कमजोर करेगा।
(2) विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधः वर्तमान वैश्विक दुनिया में, एक देश अन्य देशों के साथ अच्छे और अनुकूल संबंध बनाए रखना चाहता है। जो कुछ इस तरह के रिश्ते को प्रभावित करने की क्षमता रखता है उसकी सरकार द्वारा जाँच की जानी चाहिए। मन में इस बात को ध्यान में रखते हुए, यह आधार संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 के द्वारा जोड़ा गया है। इस प्रावधान के पीछे एक विदेशी अनुकूल राज्य के खिलाफ अनर्गल कुप्रचार निषेध करने का उद्देश्य है, जो भारत और उस राज्य के बीच अच्छे संबंधों को खतरे में डाल सकता है।
ऐसा प्रावधान दुनिया के किसी भी अन्य संविधान में मौजूद नहीं है। भारत में, विदेश संबंध अधिनियम (1932 की बारहवीं) में विदेशी गणमान्य व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय नागरिकों द्वारा अपमानजनक व्यक्तव्य के लिए सजा का प्रावधान करता है। विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों का अधिकार राज्य सरकार की विदेश नीति की निष्पक्ष आलोचना के दमन का अधिकार नहीं देता। हालांकि यह दिलचस्प है कि संविधान के उद्देश्य के लिये पाकिस्तान सहित राष्ट्रमंड़ल के सदस्य विदेशी राज्य नहीं है। परिणाम यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ‘पाकिस्तान के लिए प्रतिकूल है’ के आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।
(3) लोक व्यवस्थाः संविधान द्वारा निर्धारित अगला प्रतिबंध सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए है। यह आधार संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम के द्वारा जोड़ा गया है। ‘लोक व्यवस्था’ व्यापक अर्थ की एक अभिव्यक्ति है और बताती है कि ‘‘राज्य की शांति जो राजनीतिक समाज के सदस्यों के बीच उनकी सरकार द्वारा स्थापित किये आंतरिक नियमों के एक परिणाम के रूप में प्रचलित है’’।
यहाँ ‘‘लोक व्यवस्था’’ का अर्थ समझना होगा। लोक व्यवस्था साधारण कानून और व्यवस्था बनाए रखने से कुछ अधिक है। ‘लोक व्यवस्था’ जनता की शांति, सुरक्षा और शांति का पर्याय बन गया है। कुछ भी जो सार्वजनिक शांति को भंग करता है वह सार्वजनिक व्यवस्था में बाधा डालता है। इस प्रकार, सांप्रदायिक गड़बड़ी और हड़ताल जिनका एकमात्र उद्देश्य जनता के बीच अशांति के वातावरण का निमार्ण करना है, वह लोक व्यवस्था के विरूद्ध अपराध है। सार्वजनिक व्यवस्था का तात्पर्य है हिंसा की अनुपस्थिति में नागरिकों का जीवन शांतिपूर्ण और सामान्य बनाना। सार्वजनिक व्यवस्था में जनता की सुरक्षा भी शामिल है। इस प्रकार आंतरिक विकार या विद्रोह र्सावजनिक व्यवस्था और जनता की सुरक्षा को प्रभावित करेगा। लेकिन सरकार की आलोचना मात्र से सार्वजनिक व्यवस्था को चोट नहीं पहुंचती है।
‘सार्वजनिक व्यवस्था’ यह शब्द न केवल इस तरह के बयान को इंगित करता है जो सीधे अव्यवस्था फैला सकते हैं वरन् वे भी जो अव्यवस्था फैला सकने की प्रवृत्ति रखते है। इस प्रकार एक कानून जानबूझकर किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के इरादे के साथ कहे गये भाषण को दंडित करने के लिये किया गया है। अतः यह सार्वजनिक व्यवस्था के हित में व्यक्तियों के मुक्त भाषण के अधिकार पर प्रतिबंध लगाता है। क्योंकि ऐसे भाषण या लेखन सार्वजनिक विकार पैदा करने की प्रवृत्ति लिये हैं। सार्वजनिक व्यवस्था की उपलब्ध्यिं और प्रतिबंध के बीच रिश्ते बहुत स्पष्ट होने चाहिए।
(4) शालीनता या नैतिकताः कुछ व्यक्त करने के लिए या कुछ कहने के लिए एक सभ्य शैली होनी चाहिए। समाज की नैतिकता को प्रतिकूल प्रभावित नहीं करना चाहिए। हमारे संविधान ने शालीनता और नैतिकता के एक आधार के रूप में इस दृष्टिकोण का ख्याल रखा। ‘नैतिकता या शालीनता’ शब्दों के व्यापक अर्थ है। भारतीय दंड विधान की धारा 292 से 294 शालीनता या नैतिकता के हित में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के मानक प्रदान करते हैं। ये धाराएं सार्वजनिक स्थानों में अश्लील शब्दों, आदि के वितरण या प्रर्दशनी को वर्जित करते हैं। नैतिक या शालीन क्या है इसका कोई तय मानक अब तक नहीं बनाया गया है। नैतिकता का मानक समय समय पर और जगह जगह के लिए भिन्न होता है।
(5) कोर्ट की अवमाननाः न्यायपालिका भारत में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसलिए इस तरह के संस्थानों का सम्मान आवश्यक है। इसलिए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है, यदि वह अदालत की अवमानना है। धारा 2 के मुताबिक ‘अदालत की अवमानना’, ‘नागरिक अवमानना’ या ‘आपराधिक अवमानना’ हो सकती है। लेकिन अब भारतीय अवमानना कानून 2006 में संशोधन कर ‘‘सत्य’’ को एक बचाव माना गया है। हालांकि, इस तरह के संशोधन के बाद भी एक व्यक्ति बयान के लिए दंडित किया जा सकता है, जब तक कि वे सार्वजनिक हित में न हों। परोक्ष कर चिकित्सक संघ बनाम आर.के. जैन में यह अदालत द्वारा कहा गया है कि ’’यदि अदालतें अवमानना से संबंधित कार्यवाही करती हैं तो ‘‘सत्य’’ को एक बचाव के रूप में मान्य होना चाहिए’’। शर्त यह है कि इस तरह के बचाव अदालत को बदनाम करने के प्रयास के परिणामों से बचने के लिए नहीं होने चाहिए।
(6) मानहानिः संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रतिष्ठा को एक आधार के रूप में देखता है। एक बयान जो एक आदमी की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाता है, मानहानि के बराबर है। मानहानि, एक व्यक्ति को घृणा, उपहास या अवमानना का पात्र बनाने के लिए होती है। मानहानि से संबंधित नागरिक कानून अभी भी भारत में असंहिताबद्ध, और कुछ अपवादों के अधीन है।
(7) किसी अपराध को शहः यह आधार भी संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया है। जाहिर है, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोगों कोअपराध करने के लिए उत्तेजित करने के लिए एक अधिकार प्राप्त नहीं करा सकता है। ‘अपराध’ शब्द का अर्थ किसी चूक या कार्यवाही से है जिसका कानून द्वारा सजा जिदये जाने का प्रावधान है।
(8) भारत की संप्रभुता और अखंडताः एक राज्य की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखना सरकार का परम कर्तव्य है। इसे ध्यान में लेते हुए, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो किसी भी एक को उन स्थितियों में प्रतिबंधित किया जा सकता है जब देश की एकता या अखंडता को चुनौती दी जा रही हो।
इसलिए, अनुच्छेद 19(2) में दिए प्रतिबंध राष्ट्रीय हित को लेकर या समाज के हित को लेकर हैं। प्रतिबंधों की पहली सूची भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेश राज्य और सार्वजनिक व्यवस्था के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध जैसे राष्ट्रीय हित पर आधारित है, जबकि दूसरी सूची शालीनता, नैतिकता, अदालत की अवमानना, मानहानि और किसी अपराध को शह (सभी समाज के हित) के साथ संबंधित है।
9.0 अपराधों के लिये दोशिसिद्धि के संबंध में संरक्षण
अपराधों के दोषी व्यक्तियों के अधिकारों का अनुच्छेद 20 के प्रावधानों के माध्यम से संरक्षण किया गया है। इस अनुच्छेद के लिए व्यक्तियों में नागरिक, गैर-नागरिक और निगम, तीनों शामिल है। अनुच्छेद 20 एक प्रकार से केंद्र और राज्य सरकारों की विधायी शक्तियों पर प्रतिबंध का कार्य करता है, और न्यायिक निर्णयों की एक लंबी श्रृंखला ने यह मान्य किया है कि यदि संविधान के तहत देश आपातकाल भी लागू हो तो भी अनुच्छेद 20 को निलंबित नहीं किया जा सकता।
9.1 पूर्व कार्योत्तर कानून (Ex-Post facto Law)
अनुच्छेद 20 (1) के अनुसार किसी कृत्य को जारी कानून के तहत अपराध माना गया है, तो उस कानून के उल्लंघन को छोड़कर किसी व्यक्ति को दोषी नहीं माना जा सकता, न ही उसे कृत्य करते समय जारी कानून के तहत किये जाने वाले जुर्माने से अधिकजुर्माना किया जा सकता है। विधायिका को ऐसे कानून बनाने का अधिकार नहीं है जिनमें कानून निर्मिति से पहले किये गए कृत्यों के लिए दंड़ निर्धारित करने का प्रावधान है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि एक नया कानून किसी पुराने कृत्य को दंड़ित नहीं कर सकता।
9.2 दोहरे खतरे का सिद्धांत (Doctrine of Double Jeopardy)
‘‘एक बार के लिए दो बार कोशिश नहीं की जानी चाहिए‘‘ (‘‘नेमो देबेट बिस वेक्सारी‘‘- Nemo debet bis vexari) के सिद्धांत के अनुसार किसी भी व्यक्ति पर एक अपराध के लिए एक से अधिक बार मुकदमा नहीं चलाया जा सकता और उसे एक से अधिक बार दंड़ित नहीं किया जा सकता। यह दोहरे खतरे के सिद्धांत का आधारस्तंभ है। अनुच्छेद 20 (2) का उद्देश्य है उसी अपराध के लिए बार-बार होने वाले आपराधिक मुकदमेबाजी से निर्मित उत्पीड़न से बचाव करना। किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार खतरे में नहीं डाला जा सकता।
खतरे सिद्धांत के दो पहलू हैं ‘‘औट्रेफोइस कन्विक्ट‘‘ (autrefois convict) (इसी अपराध के लिए व्यक्ति पर पहले दोषसिद्धि हो चुकी है) और औट्रेफोइस एक्विट‘‘ (autrefois acquit) (व्यक्ति को उसी अपराध के संबंध में पूर्व में दोषमुक्ति प्राप्त हो चुकी है जिसके संबंध में उसपर मुकदमा चलाया जा रहा है) संविधान एक ही अपराध के लिए दो बार दी जाने वाली सजा को प्रतिबंधित करता है। हालांकि इस प्रकार के अपराधों की दोषसिद्धि किसी दूसरे अपराध की मुकदमेबाजी और दोषसिद्धि को प्रतिबंधित नहीं करती। यह कि दोनों अपराधों के कुछ घटक समान है, अप्रासंगिक तथ्य है।
9.3 आत्म दोषी ठहराने वाला कानून
एक अन्य न्यायिक सिद्धांत ‘‘नेमो टेनेतुर अक्कुसारे से इप्सम निसि कोरम देओ‘‘ (Nemo tenetur accusare se ipsum nisi coram deo) कहता है कि ईश्वर की उपस्थिति में छोड़ कर कोई भी स्वयं पर आरोप लगाने के लिए बाध्य नहीं हो सकता। संविधान का अनुच्छेद 20 (3) कहता है कि किसी अपराध के किसी भी आरोपी को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। ऐसा माना जाता है कि जब तक अपराध सिद्ध नहीं हो जाता तब तक आरोपी निर्दोष है। अभियोजन पक्ष का यह कर्तव्य है कि उसके अपराध या दोष को सिद्ध करे।
10.0 जीवन का अधिकार (Right to Life)
इस अनुच्छेद में कोई शब्द वंचित शब्द के संबंध में इस्तेमाल किया गया है। अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार का उद्देश्य कानून के द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार को छोड़कर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन की हानि पर अतिक्रमण रोकने के लिए है। इसका स्पष्ट रूप से मतलब है कि यह मौलिक अधिकार केवल राज्य के खिलाफ प्रदान किया गया है। यदि एक निजी व्यक्ति के द्वारा अन्य व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता या जीवन के अभाव पर अतिक्रमण होता है, तो पीड़ित व्यक्ति के लिए उपचार संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत होगा या सामान्य कानून के तहत् होगा लेकिन अनुच्छेद 21 के तहत नहीं। लेकिन, जहां निजी व्यक्ति की (राज्य द्वारा समर्थन प्राप्त) किसी अन्य व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता या जीवन का उल्लंघन करता है, तो यह कार्य अनुच्छेद 21 के दायरे में आएगा।
यदि वे चाहते हैं तो शादी के बिना भी एक आदमी और औरत एक साथ रह सकते हैं। यह समाज द्वारा अनैतिक माना जा सकता है लेकिन यह अवैध नहीं है। इस प्रकार कानून और नैतिकता के बीच एक अंतर है।
10.1 उद्देश्य
अनुच्छेद 21 का मुख्य उद्देश्य यह है कि एक व्यक्ति को राज्य द्वारा उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करने से पहले कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। जीवन के अधिकार का मतलब है, सार्थक, पूर्ण और सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार। यह प्रतिबंधित अर्थ नहीं रखता है। यह महज जीवन, या पशु अस्तित्व से कुछ अधिक है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मतलब है व्यक्ति की शारीरिक क़ैद से स्वतंत्रता। कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का मतलब है राज्य द्वारा अधिनियमित कानून। ‘‘वंचित’’ भी संविधान के तहत विस्तृत अर्थ रखता है। ये तत्व इस प्रावधान की आत्मा हैं। अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार संविधान के तहत् प्रदान किये सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों में से एक है जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘‘मौलिक अधिकारों के हृदय’’ के रूप में वर्णित किया गया है।
10.2 शामिल अधिकार
उन्नी कृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश के राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने खुद अनुच्छेद 21 के तहत कुछ अधिकारों की (पहली घोषणाओं के आधार पर) सूची उपलब्ध कराई, और उनमें से कुछ नीचे सूचीबद्ध हैं :
- विदेश जाने का अधिकार
- निजता के अधिकार
- एकान्त कारावास के खिलाफ अधिकार
- हथकड़ी लगाने के खिलाफ अधिकार
- देरी के मृत्युदंड के खिलाफ अधिकार
- आश्रय का अधिकार
- हिरासत में मौत के खिलाफ अधिकार
- सार्वजनिक फांसी के खिलाफ अधिकार
- डॉक्टर की सहायता
उन्नी कृष्णन के मामले में माना गया है कि अनुच्छेद 21 मौलिक अधिकारों का हृदय है कि और इसने अनुच्छेद 21 का दायरा यह देख कर बढ़ा दिया है कि शिक्षा जीवन का भाग है व शिक्षा के अधिकार ‘जीवन’ के अधिकार से प्रवाह करते हैं।
10.3 दायरे का विस्तार
अनुच्छेद 21 के दायरे के विस्तार के परिणाम के रूप में, जेल में बच्चों के संबंध में जनहित मुकदमे, प्रदूषण और हानिकारक दवाओं की वजह से स्वास्थ्य को खतरा, भिखारियों के लिए आवास, घायल व्यक्तियों की सहायता के लिए तत्काल चिकित्सा, भुखमरी से होने वाली मौतें, जानने का अधिकार, परीक्षण खोलने का अधिकार से संबंधित जनहित याचिकाओं (PIL) ने जगह बना ली है। विभिन्न निर्णयों के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेक नीति-निर्देशक सिद्धांत (संविधान, भाग IV) को शामिल किया, जैसे किः
(क) प्रदूषण मुक्त पानी और हवा का अधिकार
(ख) विचाराधीन को संरक्षण
(ग) पूर्ण विकास के लिए हर बच्चे का अद्यिकार
(घ) सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण
सार्वजनिक स्वास्थ्य के रखरखाव और सुधार, संचार के साधन के सुधार, जेलों में मानवीय स्थिति प्रदान करना व बूचड़खानों में स्वच्छ स्थिति को बनाए रखने को भी अनुच्छेद 21 के विस्तृत दायरे में शामिल किया गया है। यह दायरा आगे बढ़ा कर उन निर्दोष बंधकों को जो मंदिर में आतंकवादियों द्वारा हिरासत में है, एवं राज्य के नियंत्रण से बाहर हैं, शामिल किया गया है।
11.0 शिक्षा का अधिकार (Right to Education)
शिक्षा का अधिकार प्रदान करता हैः
- एक पड़ोस के स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा के पूरा होने तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के लिए बच्चों का अधिकार।
- यह स्पष्ट किया है कि ‘अनिवार्य शिक्षा’ का अर्थ है उपयुक्त सरकार को छह से चौदह आयु वर्ग के हर बच्चे को मुफ्त प्राथमिक शिक्षा दिलाना और प्राथमिक शिक्षा में अनिवार्य प्रवेश कराना, उपस्थिति और प्राथमिक शिक्षा पूरा कराना। ‘मुफ्त’ का मतलब है कोई भी बच्चा किसी भी तरह के शुल्क या भार या खर्च का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा जो उसे प्राथमिक शिक्षा को पूरा करने से रोक सकता है।
- यह एक उम्र उपयुक्त कक्षा में एक गैर भर्ती बच्चे को भर्ती होने के लिए प्रावधान करता है।
- यह उचित सरकारों, स्थानीय प्राधिकारी और माता-पिता के निः शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निर्दिष्ट करता है और केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय और अन्य जिम्मेदारियों के बंटवारे को भी बताता है।
- यह मापदंड देता है - छात्र-शिक्षक अनुपात, बुनियादी ढ़ांचा व इमारतें, स्कूल के कार्य के घंटे, शिक्षकों के कार्य का समय।
- यह शिक्षकों की तर्कसंगत तैनाती के लिए प्रत्येक स्कूल के लिये सुनिश्चित छात्र शिक्षक अनुपात प्रदान करता है, बजाय, राज्य या जिला या ब्लॉक के लिए एक औसत है। इस प्रकार वहाँ शिक्षक नियुक्तियों में शहरी-ग्रामीण असंतुलन नहीं है, यह सुनिश्चित करता है। यह गैर शिक्षण कार्यों के लिए शिक्षकों की तैनाती का निषेध करता है। इसके अपवाद हैं - दस वर्ष की जनगणना, स्थानीय प्राधिकरण, राज्य विधानसभाओं और संसद के लिए चुनाव और आपदा राहत के अन्य काम।
- यह उचित रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति के लिए अर्हता निर्धारित करता है, जैसे अपेक्षित प्रवेश और शैक्षिक योग्यता।
- यह (क) शारीरिक दंड और मानसिक प्रताड़ना, (ख) बच्चों के प्रवेश के लिए स्क्रीनिंग प्रक्रिया, (ग) कैपिटेशन फीस, (घ) बिना मान्यता के स्कूलों को चलाना, (ड़) शिक्षकों द्वारा निजी ट्यूशन, जैसे कार्यो पर प्रतिबंध लगाता है।
- यह एैसे पाठ्यक्रम विकास पर ज़ोर देता है जो संविधान के अनुरूप हो, व जो बच्चे के सर्वांगीण विकास को ज्ञान व क्षमता से विकसित कर सके, एवं बच्चे को भय, चिंता व आघात से मुक्त रखकर छात्र केंद्रित प्रणाली में रख सके।
12.0 गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण (Protection Against Arrest and Detention)
ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य, ए.आई.आर 1950 एस.सी. 27 में, सुप्रीम कोर्ट ने विचार व्यक्त किया था कि अनुच्छेद 19 (एल) (डी) के द्वारा एक गिरफ्तार व्यक्ति स्वतंत्रता का दावा नहीं कर सकता है, यदि यह उनकी नजरबंदी द्वारा उल्लंघन किया गया।
लेकिन अदालत का यह विचार आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ, ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 564ए, और मेनका गांधी के मामले में बदल गया है। अदालत ने इन मामलों में विचार व्यक्त किया है कि निवारक नजरबंदी कानून से संबंधित केवल अनुच्छेद 22 की आवश्यकताओं को पूरा करना नहीं है लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 की आवश्यकताओं को भी पूरा करना है।
12.1 निवारक निरोध (Preventive Detention)
संसद या राज्य विधानसभा की निवारक निरोध का कानून बनाने की क्षमता अनुच्छेद 22 के की धारा 4 से 7 तक सीमित है जो ऐसे निरोध के अधीन एक व्यक्ति के लिए कुछ सुरक्षा उपाय को रख सकता है। इन धाराओं की योजना निवारक नजरबंदी तीन श्रेणीयों में वर्गीकृत करने के लिए है, अर्थात :
(a) एक निवारक निरोध दो महीने तक, जिसके लिए प्रावधान संसद या किसी राज्य विधायिका द्वारा बनाया जायेगा, इस तरह के एक मामले में, एक सलाहकार बोर्ड के लिए कोई संर्दभ नहीं किया जाए तो भी ठीक है।
हालांकि, संविधान (44 वां संशोधन अधिनियम, 1978) के द्वारा धारा (4) के लिए एक नई धारा प्रतिस्थापित कि गई है जो अब अधिकतम अवधि कम कर देती है (जिसके लिये एक व्यक्ति सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त करने के बिना 3 महीने से 2 महीने के लिए हिरासत में लिया जा सकता है)। 2 महीने से लंबी अवधि के लिए सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त करने के बाद ही एक व्यक्ति का निरोध बनाया जा सकता है।
(b) किसी व्यक्ति का 3 महीने से अधिक का निवारक निरोध जो कि हाई कोर्ट में कार्य करने योग्य न्यायाधीशों द्वारा बना हुआ सलाहकार बोर्ड अपनी निगरानी में करता है। जब तक यह बोर्ड कारण तय ना कर दे, ऐसा निवारक निरोध संभव नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने पूरणलाल लाखन लाई बनाम भारत संघ ए.आई.आर. 1958 एस.सी. 163, में तय किया है कि सलाहकार बोर्ड समय सीमा तय नहीं करेगा वरन् निरोध जायज़ है या नहीं यह तय करेगा।
(c) एक सलाहकार बोर्ड की रक्षा के बिना पिछले तीन महीनों से अधिक का निवारक निरोध। इस तरह की नजरबंदी संभव है यदि संसद विधि द्वारा वे परिस्थितियाँ निर्धारित कर दे जिसके तहत, एक व्यक्ति सलाहकार बोर्ड के संदर्भ के बिना तीन महीने के लिए हिरासत में लिया जा सकता है।
संसद भी मामले (इ) एवं (ब) में हिरासत में लिए व्यक्ति की अधिकतम हिरासत अवधि तय कर सकती है। यह प्रावधान महज अनुमोदक है और संसद को किसी भी अधिकतम अवधि को निर्धारित करने के लिये बाध्य नहीं करता। इसके अलावा, संसद कानून द्वारा धारा (4) के तहत एक जांच में एक सलाहकार बोर्ड द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया तय कर सकती है।
12.2 रक्षा उपाय (Safeguards)
नजरबंदी के आधार सूचित किये जाने चाहिएः अनुच्छेद 22(5) नजरबंद व्यक्ति को अपनी गिरफ्तारी के आधार जानने का पूरा अधिकार देता है। निवारक निरोध प्राधिकारी की यह जिम्मेदारी है कि वो गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के कारण एवं स्वयं का प्रतिनिधित्व करने का मौका शीघ्रातिशीघ्र दे। यह अनुच्छेद 22 की धारा (5) में दिया गया है। गिरफ्तारी के कारण स्पष्ट एवं समझने योग्य होने चाहिए।
राम बहादुर बनाम बिहार राज्य ए.आई.आर. 1975 एस.सी. 245, के मामले में यह तय हुआ कि यदि गिरफ्तारी के कारण अलग (पृथक) हैं और उनमें से कोई भी अस्पष्ट या अप्रासंगिक है, तो पूरा निर्णय पास्त माना जाएगा।
प्रतिनिधित्व का अधिकारः अनुच्छेद 22 की धारा (5) नजरबंद व्यक्ति को प्रतिनिधित्व करने का अवसर देने के लिए सरकार पर एक दायित्व लगाती है। यह केवल दो महीने और कम समय के लिए, और एक लंबी अवधि के लिए हिरासत में रखने के आदेशों के बीच कोई फर्क नहीं करती।
दायित्व दोनों प्रकार के आदेश के लिए लागू होते हैं। अनुच्छेद 22 की धारा (4) और (5) से स्पष्ट है कि यहाँ सरकार पर दोहरा दायित्व है और नज़रबंद के पक्ष में दोहरे अधिकार हैय अर्थात, (i) उसका प्रतिनिधित्व करने का अधिकार चाहे नजरबंदी की लंबाई कुछ भी होय और (ii) मामले की परिस्थितियों के आलोक में एक बार फिर बोर्ड द्वारा विचार करने के लिए, इससे पहले कि यह अपनी राय दे।
प्रतिनिधित्व की रोशनी में, बोर्ड यदि पाता है कि निरोध के लिए कोई पर्याप्त कारण नहीं है, तो सरकार को नजरबंदी के आदेश को रद्द करना होगा और नज़रबंद को स्वतंत्र करना होगा।
सलाहकार बोर्डः अनुच्छेद 22 कहता है कि निवारक निरोध कानून के तहत नज़रबंद को उसका प्रतिनिधित्व करने का अधिकार होगा जिसमें वह बोर्ड की समीक्षा के खिलाफ खड़ा हो। यदि सलाहकार बोर्ड रिर्पोट करता है कि निरोध उचित नहीं है तो नज़रबंद तत्काल रिहा किया जाना चाहिए। यदि सलाहकार बोर्ड रिपोर्ट करता है कि हिरासत जायज़ है, तो सरकार नजरबंदी के लिए अवधि तय कर सकती हैं।
सलाहकार बोर्ड को शीघ्र अपनी र्कायवाही समाप्त करना चाहिए और अपनी राय कानून द्वारा निर्धारित समय के भीतर व्यक्त करना चाहिए। ऐसा करने में विफलता निरोध को अवैध बनाता है। अपनी राय के साथ, पूरे रिकार्ड सरकार को आगे देने होंगे। जो पूरे रिकार्ड के अवलोकन पर निर्णय लेगी।
संविधान (44 वां संशोधन अधिनियम, 1978) ने अनुच्छेद 22 में संशोधन किया है और वो अधिकतम अवधि कम की है, जिसके लिए एक व्यक्ति सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त करने के बिना 3 महीने से 2 महीने के लिए हिरासत में लिया जा सकता है।
यह बोर्ड के ढ़ांचे को भी बदल चुका है जिसमें अब एक अध्यक्ष और दो अन्य सदस्य होंगे। अध्यक्ष उपयुक्त उच्च न्यायालय के एक वर्तमान न्यायाधीश होने चाहिए और अन्य सदस्य उच्च न्यायालय के वर्तमान या सेवानिवृत न्यायाधीश होंगे।
नज़रबंद को सलाहकार बोर्ड के समक्ष कार्यवाही में कानूनी सहायता का कोई अधिकार नहीं है। किंतु यदि सरकार को एक सुविधा प्राप्त है तो यह उतनी ही नजरबन्द के लिए भी की जानी चाहिए।
अनुमति देने या ना देने का बोर्ड का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 व 21 के तहत् किया जाना चाहिए। नंद लाल बनाम पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1921 एस.सी. 2041, में यह निर्धारित किया गया है कि इस विवेक का प्रयोग मनमानें ढ़ंग से नहीं हो सकता है।
संविधान संशोधन (44 वां, 1978) अब यह कहता है कि आपातकाल के दौरान भी अनुच्छेद 21 को निलंबित नहीं किया जा सकता है। अतः नजरबंदी को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
13.0 धर्म की स्वतंत्रता (Religious Freedom)
धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 27 और 28, खंड 3 के तहत प्रत्याभूत किया गया है यह एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की पृष्ठभूमि पर प्रदान की गई धार्मिक स्वतंत्रता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को निम्नानुसार समझाया हैः
‘‘धर्मनिरपेक्षता न तो ईश्वर-विरोधी है और न ही ईश्वर का समर्थन करती है यह धर्मनिष्ठ, धर्म-विरोधी और नास्तिक के साथ समान व्यवहार करती है। यह राज्य के मामलों से ईश्वर को अलग कर देती है और सुनिश्चित करती है कि धर्म के आधार पर किसी के विरुद्ध किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा।
इन कुछ प्रावधानों के माध्यम से ही भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता की भावना को बनाये रखता है। अनुच्छेद 25 संविधान द्वारा प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों के आधारभूत स्तंभों में से एक है। इस कानून का औचित्य लाभ समझा जा सकता है जब व्यक्ति देश के बहुलतावादी लोकाचार और विभिन्न धर्मों के सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व को समझता है।
13.1 अनुच्छेद 25 का अर्थ और इसका कार्यक्षेत्र
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति ‘‘अंतरात्मा की स्वतंत्रता का हकदार है’’ और उसे ‘‘अपनी पसंद के धर्म का प्रसार करने, उसका अनुसरण करने और उसका प्रचार करने का अधिकार है, बशर्ते कि इससे ‘‘सार्वजानिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य‘‘ को कोई हानि नहीं पहुँचती है। जहां तक धार्मिक प्रथाओं से संबंधित आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों के संबंध में कानून बनाने का प्रश्न है, यह अनुच्छेद सरकार पर कोई भी निर्बंध अधिरोपित नहीं करता। हालांकि किसी भी धर्म का अनुसरण करने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है, फिर भी इस स्वतंत्रता के साथ यह उत्तरदायित्व भी अंतर्निहित है कि इस प्रक्रिया के दौरान सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के साथ कोई समझौता नहीं किया जायेगा।
यह संवैधानिक प्रावधान व्यक्तियों को पशुओं की बलि चढ़ाने का अधिकार प्रदान नहीं करता, और न ही भीड़-भाड़ वाली ऐसी सड़कों पर धार्मिक अनुष्ठान करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है जिनके कारण अन्य लोगों को किसी भी प्रकार की असुविधा हो। उसी प्रकार, मंदिरों या मस्जिदों में ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के उपयोग को भी अनुच्छेद 25 में प्रत्याभूत नहीं किया गया है। धार्मिक आयोजनों के अवसरों पर पटाखे चलाना और धार्मिक पूजा-पाठ के दौरान ध्वनि-विस्तारकों का उपयोग करना सर्वोच्च न्यायालय के निदर्शन में लाया गया था जिसने पटाखे चलाने के समय पर निर्बंध लगाए थे।
अनुच्छेद 25 को निरपेक्ष या असीमित नहीं माना जाना चाहिए। हालांकि अनुष्ठान संपन्न करने के अधिकार को इसके द्वारा संरक्षित किया गया है, फिर भी राज्य को यह अधिकार है कि वह ऐसी ष्आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिकष् और अन्य गतिविधियों को विनियमित करने के लिए कानून बनाये जो प्रत्यक्ष रूप से धर्म से संबंधित नहीं हैं। यही कारण है कि सरकार कुछ मंदिरों के प्रबंधन को नियंत्रित करती है।
13.2 अनुच्छेद 25 में संशोधन की मांग
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संवैधानिक विशेषज्ञों की राय है कि अनुच्छेद 25 धर्मनिरपेक्षता के उस महत्त्व को कम करता है जिसकी अधिकांश भारतीय शपथ लेते हैं। इस अनुच्छेद के संबंध में उनकी आलोचना इस तथ्य से उठती है कि यह सिक्खों, जैनियों और बौद्ध धर्म का अनुसरण करने वालों को हिंदुओं का ही एक वर्ग मानता है, और इन धर्मों को स्वतंत्र धर्म नहीं मानता।
अनुच्छेद 25 के उपनियम (बी) को संशोधित करने की मांग जोर पकड़ती जा रही है जहां सिख समुदाय से जुडे सांसदों और नेताओं द्वारा फिर से इस अनुच्छेद में संशोधन करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इस मांग की आग में घी डालने के कार्य में एक अमेरिका स्थित मानवाधिकार समूह ने अधिक समर्थन जुटाने के प्रयोजन से एक ऑनलाइन याचिका शुरू की है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के अध्यक्ष के अनुसार सिख धर्म एक ऐसा धर्म है जिसकी अपनी विशिष्ट परंपराएं और दर्शन हैं और इस अनुच्छेद के कारण सिखों को उनके न्यायोचित अधिकार से वंचित रखा जा रहा है।
अनुच्छेद 26 (ए) के तहत आने वाला अधिकार अधिकारों का एक समूह है और यह सभी धार्मिक संप्रदायों को उपलब्ध है। अनुच्छेद 26 का उपनियम (बी) प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को धर्म से संबंधित अपने सभी कार्य प्रबंधित करने का अधिकार प्रत्याभूत करता है। ‘‘धर्म से संबंधित मामले‘‘ शब्द में वे सभी ‘‘धार्मिक प्रथाएं, अनुष्ठान और आयोजन शामिल जो उस धर्म का अनुसरण करने की दृष्टि से अनिवार्य हैं‘‘।
एक महत्वपूर्ण मामला, जिसमें एक धार्मिक संप्रदाय को अपने धार्मिक कार्य प्रबंधित करने के अधिकार का संबंध था वह था वेंकटरमना बनाम मैसूर राज्य मामला । इस मामले में वेंकटरमना मंदिर गौड़ सारस्वत ब्राह्मण समुदाय से संबंधित मंदिर था। मद्रास मंदिर प्रवेश प्राधिकृति अधिनियम, जिसे संविधान के अनुच्छेद 25 का भी समर्थन प्राप्त था, द्वारा राज्य के सभी हिंदू मंदिर हरिजनों के प्रवेश के लिए खुले कर दिए गए थे। इस संप्रदायवादी मंदिर के न्यासियों ने हरिजनों को प्रवेश करने देने से इस आधार पर इंकार कर दिया कि धार्मिक ग्रंथों के अधिकार के अनुसार भावी भक्तों की जाति धर्म से संबंधित एक सुसंगत मामला था और संविधान के अनुच्छेद 26 (बी) के तहत उनको धर्म से संबंधित उनके धार्मिक कार्य प्रबंधित करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि यह एक धर्म से संबंधित मामला था, परंतु जब इसका अनुच्छेद 25 (2) (बी) से टकराव हुआ तो उसने एक समझौतावादी व्यवस्था दी जो काफी हद तक हरिजनों के पक्ष में झुकी हुई थी, और आतंरिक स्वायतत्ता बनाये रखने के धार्मिक संप्रदाय के अधिकार को एक नाममात्र की रियायत दी।
साथ ही अनुच्छेद 26 (सी) और (डी) कानून के अनुसार धार्मिक संप्रदाय के चल-अचल संपत्ति के स्वामित्व, अधिग्रहण और व्यवस्थापन के अधिकार को मान्यता देते हैं। हालांकि सूर्य पाल सिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया गया था कि इस प्रतिभूति का निहितार्थ यह नहीं है कि इस प्रकार की संपत्ति का अधिग्रहण करने का अधिकार उत्तरप्रदेश जमींदारी उन्मूलन अधिनियम के तहत राज्य सरकार को प्राप्त नहीं है। इसी प्रकार, उडीसा में भी भूमि सुधारों का परिणाम एक गांव और एक हिंदू देवता के रखरखाव के लिए समर्पित आसपास की कृषि भूमि के स्वामित्वहरण में हुआ था। चूंकि क्षतिपूर्ति का भुगतान किया गया था, अतः उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि इसके संपत्ति के स्वरुप में परिवर्तन हुआ है।
अनुच्छेद 25ः कुछ महत्वपूर्ण मामले
- डॉ बलवंत सिंह बनाम पुलिस आयुक्त एवं अन्य, दीवानी अपीलीय क्षेत्राधिकार, दीवानी अपील क्रमांक 10024, वर्ष 2014, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय निर्णय दिनांक 7 नवंबर 2014
- क्रिस्चियन चिकित्सा महाविद्यालय वेल्लोर एवं अन्य बनाम भारत संघराज्य एवं अन्य, दीवानी मूल क्षेत्राधिकार, टी सी (सी) क्रमांक 98, वर्ष 2012
- भारत साबुन एवं प्रसाधन सामग्री निर्माता संघ बनाम ओजैर हुसैन एवं अन्य, दीवानी अपीलीय क्षेत्राधिकार, दीवानी अपील क्रमांक 5644, वर्ष 2003, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय निर्णय दिनांक 7 मार्च 2013
13.3 पूजा के स्थल
के. मुकुंदराय भेनॉय बनाम मैसूर राज्य मामले में न्यायालय ने किसी धार्मिक संप्रदाय द्वारा अपने आराधना स्थल के रखरखाव के अधिकार को मान्य किया है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि कोई कानून किसी धार्मिक संप्रदाय को मंदिर के व्यवस्थापन के अधिकार से पूर्ण रूप से वंचित कर देता है और उसे किसी अन्य निकाय के हाथ में अंतर्निहित कर देता है तो यह कृत्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत प्रदान किये गए अधिकार का उल्लंघन माना जायेगा।
अंगप्पा गौंडन बनाम कुप्पाम्मल मामले के एक बाद के निर्णय में न्यायालय ने हिंदू सार्वजनिक मंदिरों के प्रश्न पर विचार किया है। न्यायालय ने मुकुंदराय मामले का संज्ञान लिया और एक खंड पीठ ने निर्णय दिया कि व्यापक दृष्टि से, हिंदुओं के सभी वर्गों को शामिल करते हुए, हिंदू भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और 26 के अर्थों में एक धार्मिक संप्रदाय है।
13.4 सीमाएं
सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्यः अनुच्छेद 25 और 26 के तहत प्रदान किये गए अधिकार निरपेक्ष नहीं हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसे धार्मिक .त्य नहीं कर सकता जो सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। उदाहरणार्थ किसी भी व्यक्ति को मानव बलि देने का अधिकार नहीं है। ऐसे व्यस्त महामार्गों या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर पूजा करने का अधिकार किसीको नहीं है जो व्यापक रूप से समस्त समुदाय को परेशान करते हैं। हालांकि अनुष्ठानों पर प्रतिबंध नहीं है, फिर भी राज्य कानून द्वारा ऐसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य गतिविधियों को विनियमित कर सकता है जो प्रत्यक्ष रूप से धर्म का हिस्सा नहीं है।
उदाहरणार्थ, मंदिरों का प्रबंधन राज्य द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। शोर मचाने के लिए ध्वनि-विस्तारकों का उपयोग संविधान द्वारा प्रत्याभूत नहीं है। इस विचार के समर्थकों ने अनुच्छेद 19 (1) के भाषण के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रश्रय लिया है। हालांकि कोई भी व्यक्ति ध्वनि प्रक्षेपकों की सहायता से अपने भाषण को परिवर्धित करके शोर मचाने के अधिकार का मौलिक अधिकार के रूप में उपयोग नहीं कर सकता। इस संदर्भ में दिवाली पर पटाखे चलाना और प्रातःकाल अजान के लिए ध्वनि प्रक्षेपकों का उपयोग करना भी सर्वोच्च न्यायालय की जांच के दायरे में आये हैं। न्यायालय ने पटाखे चलाने के समय को प्रतिबंधित किया है और न्यायालय द्वारा जारी किया गया यह प्रतिबंध किसी भी प्रकार से संविधान के अनुच्छेद 25 द्वारा प्रदत्त धार्मिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है।
भारत में ईश्वर के चर्च बनाम के के आर मैजेस्टिक कॉलोनी कल्याण संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने की दृष्टि से न्यायालय निर्देश जारी कर सकता है फिर चाहे यह शोर किन्ही धार्मिक गतिविधियों का प्रत्यक्ष परिणाम या उनसे संबंधित ही क्यों न हो। इस अधिदेश में निम्न पंक्तियाँ शामिल थींः ‘‘निर्विवाद रूप से कोई भी धर्म यह निर्धारित नहीं करता कि प्रार्थना इस प्रकार की जाए जिससे वह दूसरों की शांति में व्यवधान उत्पन्न करे और न ही धर्म यह प्रतिपादित करता है कि प्रार्थनाएं ध्वनि प्रक्षेपकों के माध्यम से या नगाडे बजाकर ही की जाए। हमारी राय में एक सभ्य समाज में धर्म के नाम पर ऐसी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती जो वृद्धों या दुर्बल व्यक्तियों, विद्यार्थियों या बच्चों को प्रातः के समय उनकी नींद को बाधित करती हों या दिन के समय अन्य व्यक्तियों को उनकी आम गतिविधियों को करने में परेशानी पैदा हों।‘‘
अनुच्छेद 26 कानून के अनुसार प्रत्येक धार्मिक समूह को धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों को स्थापित करने और उनका रखरखाव करने, उनकी गतिविधियों और संपत्तियों को प्रबंधित करने का अधिकार प्रदान करता है। यह अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को ही प्रदान किया गया है, विदेशियों को नहीं।
अनुच्छेद 25 और 26 के विषय पर न्यायपालिका ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से निम्न बातें निर्धारित की हैंः
- ध्वनि प्रक्षेपकों का उपयोग धर्म का अंतरंग हिस्सा नहीं है अतः सरकार अजान या भजन-कीर्तन के लिए ध्वनि प्रपक्षेपकों के उपयोग को निषिद्ध कर सकती है।
- किसी विशिष्ट धर्म के अनुयाइयों को अन्य धर्मों के जुलूसों को रोकने का अधिकार केवल इस आधार पर नहीं है कि वे बाधा उत्पन्न करते हैं।
- राज्य ‘‘गोहत्या‘‘ का उन्मूलन कर सकता है क्योंकि बकरईद पर गोहत्या धर्म का हिस्सा नहीं है।
- कृपाण धारण करना सिख धर्म के पालन का एक अनिवार्य अंग है और या सिखों का संरक्षित अधिकार है। (अनुच्छेद 25 स्पष्टीकरण 1)
- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना संसद के अधिनियम के अंतर्गत हुई थी। अतः मुस्लिम यह दावा नहीं कर सकते कि उन्हें इस विश्वविद्यालय का संचालन करने का अनन्य अधिकार प्राप्त है।
- कोई भी अधिकार यह प्रत्याभूत नहीं करते कि हिंदू धर्म के अनुष्ठान केवल ब्राह्मण ही संचालित कर सकते हैं।
14.0 संस्कृति एवं शिक्षा के अधिकार (Cultural and Educational Rights)
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 28 पूर्ण रूप से सरकारी निधियों से प्रबंधित विद्यालयों (सत्वजनिक विद्यालयों) में धार्मिक शिक्षा प्रदान करने पर निर्बंध लगाता है। राज्य द्वारा मान्यताप्राप्त या सरकारी निधियों से अनुदान और सहायता प्राप्त विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाला कोई भी व्यक्ति इस बात के लिए बाध्य नहीं है कि वह ऐसे विद्यालयों में प्रदान की जा रही या पढ़ाई जा रही धार्मिक शिक्षा में हिस्सा ले या ऐसे संस्थान में या उसके द्वारा किसी अन्य स्थान पर आयोजित किसी धार्मिक प्रार्थना में शामिल हो। अवयस्कों के मामले में उनके पालकों को इसके लिए अनुमति देना आवश्यक है। इस प्रकार, अनुच्छेद 28 सरकार के स्वामित्व वाले या राज्य की निधि पर संचालित होने वाले या राज्य से अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक पाठ्यक्रम संचालित करने पर प्रतिबंध लगाता है।
वर्ष 2013 में मध्यप्रदेश राज्य सरकार ने एक अधिसूचना जारी की थी जिसके अनुसार यह अधिसूचित किया गया था कि वर्ष 2013-14 से विद्यालयों में भगवदगीता पढाई जाएगी। हालांकि सभी वर्गों से हुई आलोचनाओं के कारण सरकार को इस अधिसूचना को वापस लेना पड़ा था।
अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों को कुछ विशिष्ट अधिकार प्रत्याभूत करते हैं। अनुच्छेद 29 में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए यह प्रावधान बनाया गया है कि कोई भी नागरिक/नागरिकों का वर्ग, जिसकी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति है उसे उसका संरक्षण करने का अधिकार है। अनुच्छेद 29 यह अधिदेशित भी करता है कि धर्म, नस्ल, जाति, भाषा या इनमें से किसी एक के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 30 यह अधिदेशित करता है की भाषा या धर्म के आधार पर आधारित सभी अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शिक्षा संस्थानों की स्थापना करने और उनका व्यवस्थापन करने का अधिकार होगा। अनुच्छेद 30 को शैक्षणिक अधिकारों का शिक्षा चार्टर कहा जाता है। मदरसों का व्यवस्थापन अनुच्छेद 30 द्वारा किया जाता है। अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को यह अनन्य अधिकार प्रदान करता है कि वे अपने भाषाई और धार्मिक संस्थान स्थापित कर सकते हैं और उसी समय वे बिना किसी भेदभाव के सरकार से सहायता अनुदान भी प्राप्त कर सकते हैं।
अल्पसंख्यक संस्थानों से संबंधित मुद्देः अनुच्छेद 30 (1 ए) 44 वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा प्रविष्ट किया गया था। इस अनुच्छेद में यह प्रावधान है कि यदि कोई कानून बनाते समय, जिसमें अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित और संचालित किसी शैक्षणिक संस्थान की संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण का प्रावधान किया गया है, राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे कानून के तहत संबंधित संपत्ति के अधिग्रहण के लिए निर्धारित धनराशि ऐसी होनी चाहिए जो उस उपनियम के तहत प्रत्याभूत अधिकार को सीमित या निरा.त नहीं करे। यह उपनियम यह स्पष्ट करता है कि ऐसे अधिग्रहण के लिए पर्याप्त क्षतिपूर्ति प्रदान करना आवश्यक है।
केरल शिक्षण विधेयक, 1957 के संदर्भ में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘‘अनुच्छेद 30 यह नहीं कहता कि धर्म आधारित अल्पसंख्यकों को केवल ऐसे शिक्षण संस्थान स्थापित करने चाहियें जिनमें केवल उनकी भाषा या उनके धर्म की शिक्षा प्रदान की जाती हो। अल्पसंख्यकों की भी यह चाह होगी कि उनके बच्चे भी उच्च विश्वविद्यालीन शिक्षा के योग्य बन सकें और अल्पसंख्यकों के शिक्षा संस्थानों में सामान्य धर्मनिरपेक्ष शिक्षा भी शामिल की जाएगी।‘‘
15.0 सांविधानिक उपचार (Constitutional Remedies)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 में मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध संवैधानिक उपायों का प्रावधान है और इसका उल्लेख डॉ अंबेडकर द्वारा ‘‘संविधान की आत्मा‘‘ के रूप में किया गया है। अनुच्छेद 32 के उपनियम 2 में यह प्रावधान किया गया है कि ‘‘मौलिक अधिकारों द्वारा प्रदत्त किन्ही भी अधिकारों के प्रवर्तन के लिए निर्देश या आदेश या बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार-पृच्छा और निकष के प्रादेश (रिट) सहित संबंधित मामले में उचित प्रादेश (रिट) जारी करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास होगा।‘‘ मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में नागरिकों को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जाने का अधिकार है। संवैधानिक उपायों का अधिकार स्वयं एक मौलिक अधिकार है।
बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, निकष और अधिकार-पृच्छा के विभिन्न प्रादेश (रिट) निम्नानुसार हैंः
बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) - बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबीस कार्पस) का शाब्दिक अर्थ है मानव व्यक्ति पवित्र है। अतः किसी भी व्यक्ति को गैर-कानूनी ढंग से बंदी बनाकर नहीं रखा जा सकता। जब कभी भी किसी व्यक्ति को इस प्रकार से बंदी बनाया जाता है तो उसे न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना अनिवार्य है। यह प्रादेश मनमानी गिरतारी और हिरासत के विरुद्ध एक शक्तिशाली सुरक्षा उपाय है।
परमादेश (Mandamus) - का अर्थ है श्आदेश देनाश् परमादेश लोक सेवकों को कुछ उत्तरदायित्व निभाने का आदेश देता है। इस प्रकार, परमादेश कर्तव्य में कमी की स्थिति में जारी किया जाता है।
प्रतिषेध (Prohibition) - जैसा कि निषेध शब्द दर्शाता है कि यह प्रादेश केवल सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों द्वारा उस स्थिति में जारी किया जाता है, जब अधीनस्थ न्यायालयों को उनके अधिकारक्षेत्र के उल्लंघन से निषिद्ध करना आवश्यक है।
उत्प्रेषण (Certiorari) - यह वरिष्ठ न्यायालयों को इस योग्य बनाता है कि वे अधीनस्थ न्यायालय को संबंधित मुकदमे की प्रक्रियाओं से संबंधित दस्तावेज वरिष्ठ न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए बाध्य करें।
अधिकार-पृच्छा (Quo Warranto) - इसका शाब्दिक अर्थ है किस अधिकार के द्वारा। यह प्रादेश किसी व्यक्ति के सार्वजनिक पद के दावे की वैधता निर्धारित करने के लिए जारी किया जाता है। इस प्रादेश का प्रयोजन है किसी अवांछनीय या अयोग्य व्यक्ति द्वारा किसी सार्वजनिक पद के बलापहार को प्रतिबंधित करना।
मौलिक अधिकारों की ही तरह अनुच्छेद 32 के तहत प्रदत्त संवैधानिक उपायों का अधिकार भी सीमाविहीन या असीमित नहीं है। इसकी सबसे महत्वपूर्ण सीमा यह है कि अनुच्छेद 359 राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान करता है कि वे मौलिक अधिकारों के परावर्तन के लिए न्यायालय में जाने के अधिकार को निलंबित कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 359 राष्ट्रपति को अनुच्छेद 32 के निलंबन का अधिकार प्रदान करता है। हालांकि ऐसा आदेश संसद में प्रस्तुत करना होता है और संसद को राष्ट्रपति के आदेश को अमान्य करने का अधिकार है।
16.0 मौलिक अधिकारों का निरसन (Abrogation of Fundamental Rights)
अनुच्छेद 33 और 34 भारतीय संसद को यह अधिकार प्रदान करते हैं कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में वह इस भाग के प्रावधानों को परिवर्तित कर सकती है। ये विशिष्ट परिस्थितियां निम्नानुसार हैंः
अनुच्छेद 33 संसद को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह सशस्त्र बलों, अर्धसैनिक बलों, पुलिस इत्यादि के संबंध में मौलिक अधिकारों के अनुप्रयों को सीमित या निराकृत कर सकती है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि यह अनुच्छेद ही किसी अधिकार को निराकृत करेगा। इस अनुच्छेद की कार्यशीलता संसदीय कानून पर निर्भर है, हालांकि इन कानूनों को इस अनुच्छेद का संदर्भ लेने की आवश्यकता नहीं है। भारतीय संसद के ऐसे कानून समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे किसी भी मौलिक अधिकार की कार्यशीलता को सीमित कर सकते हैं। ऐसा ही एक अनुच्छेद है पुलिस बल (अधिकारों का प्रतिबन्ध) अधिनियम, 1966। हालांकि इस अधिनियम को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी जा चुकी है परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसकी वैधता को स्वीकार किया है। थल सेना अधिनियम, 1950, नौसेना अधिनियम, 1950, वायुसेना अधिनियम, 1950 जैसे कुछ अधिनियम भारतीय संसद द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 33 के अनुसार अधिनियमित किये गए हैं।
संसद को यह अधिकार है कि वह इस बात का निर्धारण करे कि ‘‘किसी अधिकार के अनुप्रयोग को (ए) सशस्त्र बलों के सदस्यों या (बी) सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए उत्तरदायी सशस्त्र बलों के सदस्यों के संबंध में किस हद तक प्रतिबंधित किया जाए‘‘ ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह उचित रूप में करने में सक्षम हों। उन्हें अनुशासन बनाये रखना अनिवार्य है और यही इस अनुच्छेद की मांग है।
अनुच्छेद 34 का संबंध इस भाग द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के उस समय प्रतिबंध से है जब किसी भी क्षेत्र में सैन्य कानून प्रवर्तित है। यह अनुच्छेद सैन्य कानून के दौरान किये गए कार्यों के संदर्भ में विधि द्वारा छूट या मुक्ति प्रदान करता है। यदि कोई लोक सेवक सैन्य कानून जारी क्षेत्र में अपना कर्तव्य कर रहा है तो अपने कर्तव्य के निर्वहन के दौरान उसके द्वारा कानून व्यवस्था बनाये रखने के संबंध में किये गए कार्य के संबंध में उसे छूट या मुक्ति प्राप्त होगी। मुक्ति के इस कार्य को किसी भी न्यायालय में मौलिक अधिकारों के विरुद्ध होने के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
पूर्व के प्रावधानों के तहत अधिनियमित मौलिक अधिकारों को प्रभावशाली बनाने के लिए अनुच्छेद 35 अधिनियमित किया गया है। यह निर्धारित करता है कि कुछ विशिष्ट मौलिक अधिकारों को प्रभावशाली बनाने के लिए कानून बनाने की शक्ति केवल संसद के पास ही निहित होगी राज्यों की विधायिकाओं को यह शक्ति प्राप्त नहीं है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि उन मौलिक अधिकारों और उनके उल्लंघन के लिए दंड के स्वरुप के संबंध में संपूर्ण देश में एकरूपता है। इस दिशा में अनुच्छेद 35 में निम्न प्रावधान किये गए हैंः
1. संसद को निम्न मामलों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार होगा (और राज्य की विधायिका को यह अधिकार नहीं होगा)
- किसी राज्य, केंद्र शासित प्रदेश या स्थानीय प्राधिकरण या अन्य प्राधिकरण के किन्हीं विशिष्ट रोजगारों या नियुक्तियों के लिए आवास का निर्धारण करना (अनुच्छेद 16)
- सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों को छोडकर अन्य न्यायालयों को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए निर्देश, आदेश और सभी प्रकार के प्रादेश के अधिकार प्रदान करना (अनुच्छेद 32)
- सशस्त्र बलों पुलिस बलों इत्यादि के सदस्यों द्वारा मौलिक अधिकारों के अनुप्रयोग को प्रतिबंधित करना या निराकृत करना (अनुच्छेद 33)
- किसी भी शासकीय कर्मचारी या किसी भी व्यक्ति को सैन्य कानून लागू होने के दौरान किये गए कर्तव्य पालन के काम के संबंध में मुक्ति प्रदान करना (अनुच्छेद 34)
2. संसद को अधिकार होगा (और राज्य की विधायिका को यह अधिकार नहीं होगा) कि वह उन कार्यों के लिए दंड निर्धारित करने के संबंध में कानून बनाये जिन्हें मौलिक अधिकारों के अंतर्गत अपराध घोषित किया गया है। इनमें निम्न कार्य शामिल हैंः
- अस्पृश्यता (अनुच्छेद 17)
- मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी (बेगार) (अनुच्छेद 23)
साथ ही, संविधान लागू होने के पश्चात संसद उपरोक्त .त्यों के लिए दंड निर्धारित करने के लिए कानून बनाएगी। इस प्रकार संसद के लिए यह बंधनकारक बनाया गया कि वह इस प्रकार के कानून बनाये।
संविधान के लागू होते समय यदि उपरोल्लिखित मामलों से संबंधित कोई कानून प्रभावशाली था तो वह तब तक प्रभावशाली रहेगा जब तक कि संसद द्वारा उसे परिवर्तित, रद्द या संशोधित नहीं किया जाता।
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