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मौलिक अधिकार भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
भारत का संविधान देश की जनता के विचार की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति और विश्वास को सुरक्षित करना चाहता है और स्थिति और अवसरों व स्तरों (पदों) की समानता एवं व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित करना चाहते है। इस उद्देश्य के साथ मौलिक अधिकार प्रस्तावित किये गये हैं।
17 वीं सदी में, राजनीतिक दर्शनिक के मन में विचार आया कि ‘‘जन्म से आदमी के कुछ अधिकार हैं जो सार्वभौमिक और अपरिहार्य होते हैं। उसे उनसे वंचित नहीं किया जा सकता’’। अमेरिकी आजादी की घोषणा 1776 कहती है कि सभी लोग समान बनाये जाते हैं, वे कुछ अविच्छेद अधिकारों के साथ अपने निर्माता द्वारा संपन्न किये गये हैं। जीवन, स्वाधीनता और खुशियों की तलाश आवश्यक हैं, जिससे मानव स्वतंत्रता को संरक्षित किया जा सके, मानव व्यक्त्तिव का विकास हो सके और एक प्रभावी सांस्कृतिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक जीवन को बढ़ावा दिया जा सके।
1.1 इंग्लैंड में स्थिति
इंग्लैंड का संविधान अलिखित है। मौलिक अधिकारों की कोई नियमावली मौजूद नहीं है। इंग्लैंड में संसद की संप्रभुता के सिद्धांत में संसद की शक्ति को सीमित करने का विचार नहीं है जो कि कानून बनाने के लिए स्वतंत्र है। यहाँ उद्देश्य मौलिक अधिकारों की रक्षा संवैधानिक गारंटी के रूप में नहीं जनता के विचार, लोगों की अच्छी भावना, मजबूत आम कानून, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सरकार के संसदीय स्वरूप के रूप में हैं।
1.2 अमेरिका में स्थिति
अमेरिकी संविधान के निर्माता न केवल कार्यकारी के, बल्कि विधानमंडल के संभावित अत्याचार से भयभीत थे। अमेरिकी, विधानमंडल से बेहतर एक कानून बनाने पर जोर देने के लिये आगे बढे़ और यह कहा कि केवल ऐसे ही सर्वोपरि लिखित कानून का संयम उन्हें मानव प्रकृति में विद्यमान पूर्ण शक्ति और निरंकुशता की ज्यादतियाँ की आशंका से बचा सकता है।
1.3 भारत में स्थिति
भारत के संबंध में, साइमन कमीशन और संयुक्त संसदीय समिति ने मौलिक अधिकार की अभिनीत घोषणा के विचार को इस के आधार पर खारिज कर दिया था कि भावात्मक घोषणाएं व्यर्थ हैं। भारत अधिनियम 1935 की सरकार के तहत ब्रिटिश संसद द्वारा लोगों की मांग को अभी तक पूरा नहीं किया गया था। इसके बावज़ूद भी संविधान में इस तरह के अधिकार होने के लिए लोगों का उत्साह बना रहा। 16 मई 1946 में नेहरू समिति की सिफारिशों से कैबिनेट मिशन द्वारा संविधान में शामिल किया गया था।
2.0 मौलिक अधिकारों की अवधारणा का विकास
मौलिक अधिकारों की अवधारणा का विकास - यह अवधारणा कि मनुष्य के कुछ विशिष्ट अविच्छेद्य अधिकार हैं - भूतकाल की कुछ प्रमुख ऐतिहासिक और राजनीतिक घटनाओं में खोजा जा सकता है।
2.1 अधिकार विधेयक (बिल ऑफ राइट्स) (इंग्लैंड)
अधिकार विधेयक ब्रिटिश संसद का एक अधिनियम है, जो 16 दिसंबर 1689 को पारित किया गया था और जो कुछ विशिष्ट मूलभूत नागरिक अधिकारों को निर्धारित करता है। यह अधिनियम, और साथ ही मैग्ना कार्टा, अधिकारों की याचिका (पिटीशन ऑफ राइट्स), 1679 का बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम और विभिन्न अन्य अधिनियम असंहिताबद्ध ब्रिटिश संविधान का मूल दस्तावेज हैं। यह विधेयक शक्ति का पृथक्करण करता है, राजा और महारानी की शक्तियों को सीमित करता है, लोकतांत्रिक चुनाव में वृद्धि करता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ाता है। यह अधिनियम दृढ़तापूर्वक निर्धारित करता है कि कुछ प्राचीन अधिकार और स्वतंत्रताएं अस्तित्व में रही हैं, जिनके संदर्भ में यह अधिनियम घोषणा करता है कि
- कानूनों को संसद की सहमति के बिना समाप्त या निलंबित नहीं किया जाना चाहिए;
- संसद से प्राप्त अधिकार के बिना कोई भी कर अधिरोपित नहीं किया जाना चाहिए;
- सम्राट के समक्ष याचिका किसी प्रतिशोध के भय के बिना दायर हो सकती है;
- संसद की सहमति के बिना शांतिकाल के दौरान कोई भी सेना बनाये नहीं रखी जानी चाहिए;
- वह प्रजा जो प्रोटेस्टेंट है वह कानून द्वारा प्रदान की गई अनुमति के अनुरूप आत्मरक्षा की दृष्टि से हथियार रख सकती है;
- संसद सदस्यों का निर्वाचन मुक्त होना चाहिए;
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं संसद के भीतर की बहस या प्रक्रियाओं पर महाभियोग नहीं चलाया जा सकता और न ही संसद के बाहर किसी भी न्यायालय में इनपर प्रश्न उठाये जाने चाहियें;
- अत्यधिक जमानत की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, और न ही अत्यधिक जुर्माने अधिरोपित किये जाने चाहियें और न ही निर्दयी और असामान्य दंड दिए जाने चाहियें;
- जूरी सदस्यों का उचित नाभिकायन (एम्पैनलमेंट) किया जाना चाहिए और उच्च राजद्रोह के मामलों के जूरी सदस्य संपूर्ण रूप से स्वतंत्र होने चाहियें;
- दोषसिद्धि के पूर्व जुर्माने के वादे या जब्ती शून्य हैं;
- संसद के अधिवेशन नियमित रूप से आयोजित होने चाहियें।
अधिकार का विधेयक और 1701 का उत्तराधिकार का अधिनियम सभी राष्ट्रमंडल देशों में आज भी प्रभावी है। वर्ष 2011 में हुए पर्थ समझौते के बाद इन दोनों को संशोधित करने वाला कानून सभी राष्ट्रमंडलीय देशों में 26 मार्च 2015 को प्रभावी हुआ।
2.2 अधिकार का विधेयक (संयुक्त राज्य अमेरिका (Bill of Rights)
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में अधिकार का विधेयक संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में हुए पहले दस संशोधनों को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया नाम है। अधिकार का विधेयक लोकतंत्र के कुछ सुरक्षा उपाय जोड़ता है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों के कुछ विशिष्ट आश्वासन प्रदान करता है, न्यायिक प्रक्रियाओं में संसद की शक्तियों को सीमित करता है और इसमें कुछ सुस्पष्ट रूप से व्यक्त उद्घोषणाएं हैं जिनके अनुसार वे सभी शक्तियां जो संविधान द्वारा विशिष्ट रूप से कांग्रेस को हस्तांतरित नहीं की गई हैं वे सभी शक्तियां राज्यों के लिए संरक्षित हैं। अमेरिका की प्रतिनिधि सभा के एक सदस्य जेम्स मैडिसन को व्यापक रूप से इन संशोधनों का जनक माना जाता है।
सदन ने 17 संशोधनों का अनुमोदन किया। इन 17 संशोधनों में से सीनेट ने 12 को मंजूरी प्रदान की। ये 12 संशोधन अगस्त 1789 में अनुमोदन के लिए राज्यों को भेजे गए। इन 12 संशोधनों में से 10 संशोधनों को शीघ्र ही राज्यों का अनुमोदन (या प्रतिपुष्टि) प्राप्त हो गया। वर्जिनिया की विधायिका 15 दिसंबर 1791 को इन संशोधनों को अनुमोदन प्रदान करने वाली अंतिम विधायिका थी।
ये दस संशोधन संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में मौलिक अधिकारों के आधारस्तंभ बने। शिक्षा परिसरों में होने वाली गोलीबारी और अन्य हिंसक घटनाओं में वृद्धि के परिणामस्वरूप दूसरे संशोधन के तहत लोगों के हथियार रखने के अधिकार पर वर्तमान में अमेरिका में काफी बहस छिड़ी हुई है।
2.3 फ्रांस की व्यक्ति के अधिकारों की उद्घोषणा (Declaration of the Rights of Man)
व्यक्ति के अधिकारों की उद्घोषणा, जिसका अनुमोदन फ्रांस की राष्ट्रीय असेंबली द्वारा 26 अगस्त 1789 को किया गया था, फ्रांसीसी क्रांति का मूल दस्तावेज है और इसे मानव एवं नागरिक अधिकारों के विकास में एक युगांतरकारी घटना माना जाता है। यह उद्घोषणा बताती है कि व्यक्ति के कुछ विशिष्ट अधिकार हैं जो प्राकृतिक हैं, अविच्छेद्य हैं, और पवित्र हैं जो किसी भी विधायी या कार्यकारी शक्ति द्वारा छीने नहीं जा सकते। यह उद्घोषणा आगे जाकर इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले सत्रह अधिकारों की घोषणा करती है। अमेरिकी क्रांतिकारी युद्ध के एक फ्रांसीसी नायक मार्की द लफायत ने फ्रांस के लिए नियुक्त तत्कालीन अमेरिकी मंत्री थॉमस जेफरसन के साथ विचार-विमर्श के बाद इस उद्घोषणा का मसौदा तैयार किया था।
2.4 आयरिश संविधान का विकासआयरलैंड का संविधान, जो 29 दिसंबर 1937 से प्रभावशाली हुआ, अपने नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार सुनिश्चित करता है और इसे भी मौलिक अधिकारों की अवधारणा के विकास में एक महत्वपूर्ण युगांतरकारी घटना माना जाता है। ये अधिकार प्राकृतिक मानवाधिकार हैं और संविधान इनकी पुष्टि करता है और इनका संरक्षण करता है। यह संविधान पंद्रह मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करता है जिनमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एकत्रित होने और संगठन बनाने की स्वतंत्रता, जूरी द्वारा मुकदमा, निजता का अधिकार, आजीविका अर्जित करने का अधिकार, यात्रा करने का अधिकार, कानून के समक्ष समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार इत्यादि अधिकार शामिल हैं। इनमें से अनेक अधिकार सीधे तौर पर भारतीय संविधान में प्रतिबिंबित होते हैं।
2.5 भारत में मौलिक अधिकारों की अवधारणा का विकास
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की अवधारणा की उत्पत्ति को भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में खोजा जा सकता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अगस्त 1918 के अपने बम्बई अधिवेशन में यह मांग की थी कि नए भारत शासन अधिनियम में भारतीय नागरिकों के अधिकारों को ब्रिटिश नागरिकों के अधिकारों के रूप में घोषित करने को शामिल किया जाए। अन्य बातों के अलावा इस उद्घोषणा में कानून के समक्ष समानता, स्वतंत्रता, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा, अभिव्यक्ति एवं प्रेस की स्वतंत्रता और संगठन बनाने का अधिकार इत्यादि भी शामिल किये गए थे। वर्ष 1927 के मद्रास अधिवेशन के दौरान कांग्रेस ने एक अन्य प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा गया था कि मौलिक अधिकारों की घोषणा भविष्यकालीन भारतीय संविधान का आधार होनी चाहिए।
वर्ष 1927 की नेहरू रिपोर्ट में भी ऐसे कुछ अधिकार शामिल किये गए थे जो प्रत्येक भारतीय नागरिक को प्राप्त होने चाहिए थे। भारत शासन अधिनियम, 1935 के अनुच्छेद 295 और 297-300 भारत में ब्रिटिश प्रजा को कुछ विशिष्ट अधिकार और संरक्षण प्रदान करते थे। संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को उद्देश्यों के प्रस्ताव को अंगीकार किया जिसमें कहा गया था कि एक ऐसा संविधान तैयार किया जायेगा जिसमें "भारत के सभी लोगों के लिए न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, दर्जे और अवसरों की समानता और कानून के समक्ष सुनिश्चित और संरक्षित की जाएगीः विचारों, अभिव्यक्ति, श्रद्धा, उपासना, पेशे, संगठन और कार्य की स्वतंत्रता, कानून और सार्वजनिक नैतिकता के अधीन सुनिश्चित और संरक्षित की जाएगी।"
मौलिक अधिकारों का मसौदा फरवरी 1947 में जे बी कृपलानी की अध्यक्षता में गठित संविधान सभा की सलाहकार समिति की उप-समिति द्वारा तैयार किया गया था। इस उप-समिति ने मौलिक अधिकारों का मसौदा तैयार किया और अपनी रिपोर्ट समिति को अप्रैल 1947 तक प्रस्तुत कर दी थी, और बाद में उसी महीने में समिति द्वारा इसे संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, जिसने अगले वर्ष भर के दौरान इसपर बहस और चर्चा की। मसौदा समिति द्वारा तैयार किये गए मौलिक अधिकारों को संविधान के प्रथम मसौदे (फरवरी 1948) में, दूसरे संविधान मसौदे (17 अक्टूबर 1948) में और अंतिम और तीसरे संविधान मसौदे (26 नवंबर 1949) में शामिल किया गया था। प्रारंभ में संविधान द्वारा सात मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया था - समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार, संपत्ति का अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
3.0 भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार
अनुच्छेद - 12
परिभाषाः इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, ‘‘राज्य’’ के अन्तर्गत भारत की सरकार और संसद् तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार औरविधान-मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं।
अनुच्छेद - 13
मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियांः
1. इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग के उपबंधों से असंगत हैं।2. राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड़ के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।
3. इस अनुच्छेद में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,-
- ‘‘विधि’’ के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में विधि का बल रखने वाला कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि या प्रथा है;
- ‘‘प्रवृत्त विधि’’ के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले पारित या बनाई गई विधि है जो पहले ही निरसित नहीं कर दी गई है, चाहे ऐसी कोई विधि या उसका कोई भाग उस समय पूर्णतया या विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवर्तन में नहीं है।
अनुच्छेद - 14
विधि के समक्ष समताः राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
अनुच्छेद - 15
धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेधः
1. राज्य, किसी नागरिक के विरूद्ध के केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
2. कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर -
- ए. दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों, और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या
- ब. पूर्णतः या भागतः राज्य-निधि से प्रोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग, के संबंध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा।
3. इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
4. इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नती के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
अनुच्छेद - 16
लोक नियोजन के विषय में अवसर की समताः
1. राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी।
2. राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा।
3. इस अनुच्छेद की कोई बात संसद् को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो ख्किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र की सरकार के या उसमें से किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन वाले किसी वर्ग या वर्गों के पद पर नियोजन या नियुक्ति के संबंध में ऐसे नियोजन या नियुक्ति से पहले उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के भीतर निवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती है।,
4. इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधत्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
(4ए) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, राज्य के अधीन सेवाओं में ख्किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर, पारिणामिक ज्येष्ठता सहित, प्रोन्नति के मामलों में, आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
(4ब) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को किसी वर्ष में किन्हीं न भरी गई ऐसी रिक्तियों को, जो खंड (4) या खंड (4क) के अधीन किए गए आरक्षण के लिए किसी उपबंध के अनुसार उस वर्ष में भरी जाने के लिए आरक्षित हैं, किसी उत्तरवर्ती वर्ष या वर्षों में भरे जाने के लिए पृथक् वर्ग की रिक्तियों के रूप में विचार करने से निवारित नहीं करेगी और ऐसे वर्ग की रिक्तियों पर उस वर्ष की रिक्तियों के साथ जिसमें वे भरी जा रहीं हैं, उस वर्ष की रिक्तियों की कुल संख्या के संबंध में पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा का अवधारण करने के लिए विचार नहीं किया जाएगा।
5. इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी जो यह उपबंध करती है कि किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था के कार्यकलाप सेसंबंधित कोई पदधारी या उसके शासी निकाय का कोई सदस्य किसी विशिष्ट धर्म का मानने वाला या विशिष्ट संप्रदाय का ही हो।
अनुच्छेद - 17
अस्पृश्यता का अंतः ‘‘अस्पृश्यता’’ का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। ‘‘अस्पृश्यता’’ से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
अनुच्छेद - 18
उपाधियों का अंतः
- राज्य, सेना या विद्या संबंधी सम्मान के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
- भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
- कोई व्यक्ति, जो भारत का नागरिक नहीं है, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
- राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
अनुच्छेद - 19
वाक्-स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण -
1. सभी नागरिकों को-
- (क) वाक्-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का,
- (ख) शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन का,
- (ग) संगम या संघ बनाने का,
- (घ) भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का,
- (ड) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का, ख्और,
- (छ) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने का, अधिकार होगा।
3. उक्त खंड के उपखंड (ख) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर ख्भारत की प्रभुता और अखंडता या, लोक व्यवस्था के हितों में युक्तियुक्तनिर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि आरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी।
4. उक्त खंड के उपखंड (ग) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर ख्भारत की प्रभुता और अखंडता या, लोक व्यवस्था या सदाचार के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी।
5. उक्त खंड के {उपखंड (घ) और उपखंड (ड)} की कोई बात उक्त उपखंडों द्वारा दिए गए अधिकारों के प्रयोग पर साधारण जनता के हितों में या किसी अनुसूचित जनजाति के हितों के संरक्षण के लिए युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रर्वतन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी।
6. उक्त खंड के उपखंड (छ) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर साधारण जनता के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमानविधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रर्वतन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी और विशिष्टताया ख्उक्त उपखंड की कोई बात-पण्कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने के लिए आवश्यक वृत्तिका या तकनीकी अर्हताओं से, या
पपण्राज्य द्वारा राज्य के स्वामित्व या नियंत्रण में किसी निगम द्वारा कोई व्यापार कारोबार, उद्योग या सेवा, नागरिकों का पूर्णतः या भागतः अपवर्जन करके या अन्यथा, चलाए जाने से, जहां तक कोई विद्यमान विधि संबंध रखती है वहां तक उसके प्रर्वतन पर प्रभाव नहीं डालेगी या इस प्रकार संबंध रखने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी।
अनुच्छेद - 20
अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण
- कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि का अधीन अधिरोपित की जा सकती थी।
- किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा।
- किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरूद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद - 21 - प्राण और दैहिक स्वातंत्रता का संरक्षण
किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
अनुच्छेद - 21 ए - शिक्षा का अधिकार
{राज्य, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का ऐसी रीति में, जो राज्य विधि द्वारा, अवधारित करे, उपबंध करेगा।,}
अनुच्छेद - 22 - कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण
1. किसी व्यक्ति को जो गिरफ्तार किया गया है, ऐसी गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बिना अभिरक्षा में निरूद्ध नहीं रखा जाएगा या अपनी रूचि के विधि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा।
2. प्रत्येक व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है, और अभिरक्षा में निरूद्ध रखा गया है, गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर ऐसी गिरफ्तारी से चौबिस घंटे की अवधि में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा और ऐसे किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना उक्तअवधि से अधिक अवधि के लिए अभिरक्षा में निरूद्ध नहीं रखा जाएगा।
3. खंड (1) और खंड (2) की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं होगी जो-
- क. तत्समय शत्रु अन्यदेशीय है; या
- ख. निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन गिरफ्तार या निरूद्ध किया गया है।
4. निवारक निरोध का उपबंध करने वाली कोई विधि किसी व्यक्ति का तीन मास से अधिक अवधि के लिए तब तक निरूद्ध किया जाना प्राधिकृत नहीं करेगी जब तक कि -
- क. ऐसे व्यक्तियों से, जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे हैं या न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्हित हैं, मिलकर बने सलाहकार बोर्ड ने तीन मास की उक्तअवधि की समाप्ति से पहले यह प्रतिवेदन नहीं दिया है कि उसकी राय में ऐसे निरोध के लिए पर्याप्त कारण हैंः
- ख. के अधीन संसद् द्वारा बनाई गई विधि द्वारा विहित की गई है; या (ख) ऐसे व्यक्ति को खण्ड (7) के उपखंड (क) और उपखंड (ख) के अधीन संसद् द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अनुसार निरूद्ध नहीं किया जाता है।
5. निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन किए गए आदेश के अनुसरण में जब किसी व्यक्ति को निरूद्ध किया जाता है तब आदेश करने वालाप्राधिकारी यथाशक्य शीघ्र उस व्यक्ति को यह संसूचित करेगा कि वह आदेश किन आधारों पर किया गया है औा उस आदेश के विरूद्ध अभ्यावेदन करने के लिए उसे शीघ्रातिशीघ्र अवसर देगा।
6. खंड (5) की किसी बात से ऐसा आदेश, जो उस खंड में निर्दिष्ट है, करने वाले प्राधिकारी के लिए ऐसे तथ्यों को प्रकट करना आवश्यक नहीं होगा जिन्हें प्रकट करना ऐसा प्राधिकारी लोकहित के विरूद्ध समझता है।
7. संसद् द्वारा विहित कर सकेगी कि-
- क. किन परिस्थितियों के अधीन और किस वर्ग या वर्गों के मामलों में किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन तीन मास सेअधिक अवधि के लिए खंड (4) के उपखंड (क) के उपबंधों के अनुसार सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किए बिना निरूद्ध किया जा सकेगा;
- ख. किसी वर्ग या वर्गों के मामलों में कितनी अधिकतम अवधि के लिए किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन निरूद्ध किया जा सकेगा; और
- ग. खंड (4) के उपखंड (क) के अधीन की जाने वाली जांच से सलाहकार बोर्ड द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया क्या होगी।
अनुच्छेद - 23
मानव के दुर्व्यापार और बलात्श्रम का प्रतिषेध
- मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
- इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवलधर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
अनुच्छेद - 24
कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिरोध
चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा।
अनुच्छेद - 25
अंतःकरण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता
1. लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।
2. इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रर्वतन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो-
क. धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तिय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करती है;
ख. सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए या सार्वजनिक प्रकार की हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए खोलने काउपबंध करती है।
स्पष्टीकरण 1 - कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा।
स्पष्टीकरण 2 - खंड (2) के उपखंड (ख) में हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तदनुसार लगाया जाएगा।
अनुच्छेद - 26
धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता
लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को -
- क. धार्मिक और पूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का,
- ख. अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का,
- ग. जंगम और स्थावर संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का, और
- घ. ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का, अधिकार होगा।
अनुच्छेद - 27
किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता
किसी भी व्यक्ति को ऐसे करों का संदाय करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा जिनके आगम किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय करने के लिए विनिर्दिष्ट रूप से विनियोजित किए जाते हैं।
अनुच्छेद - 28
कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता
- राज्य-निधि से पूर्णतः पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
- खंड (1) की कोई बात ऐसी शिक्षा संस्था को लागू नहीं होगी जिसका प्रशासन राज्य करता है किंतु जो किसी ऐसे विन्यास या न्यास के अधीन स्थापित हुई है जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है।
- राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए या ऐसी संस्था में या उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहीं किया जाएगा जब तक कि उस व्यक्ति ने, या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने, इसके लिए अपनी सहमति नहीं दे दी है।
अनुच्छेद - 29
अल्पसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण
- भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा।
- राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद - 30
शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार
1. धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक-वर्गों को अपनी रूचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
{(1क) खंड (1) में निर्दिष्ट किसी अल्पसंख्यक-वर्ग द्वारा स्थापित और प्रशासित शिक्षा संस्था की संपत्ति के अनिवार्य अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधि बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसी संपत्ति के अर्जन के लिए ऐसी विधि द्वारा नियत या उसके अधीन अवधारित रकम इतनी हो कि उस खंड के अधीन प्रत्याभूत अधिकार निर्बन्धित या निराकृत न हो जाए}
2. शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरूद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक-वर्ग के प्रबंध में है।
अनुच्छेद - 31
{संपत्ति का अनिवार्य अर्जन स,-संविधान (चवालिसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 6 द्वारा (20-6-1979 से) निरसित।}
अनुच्छेद - 31क
कुछ विधियों की व्यावृत्ति
31क संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति-
अनुच्छेद 13 में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भीः
क. किसी संपदा के या उसमें किन्हीं अधिकारों के राज्य द्वारा अर्जन के लिए या किन्हीं ऐसे अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए, या
ख. किसी संपत्ति का प्रबंध लोकहित में या उस संपत्ति का उचित प्रबंध सुनिश्चित करने के उद्देश्य से परिसीमित अवधि के लिए राज्य द्वारा ले लिए जाने के लिए, या
ग. दो या अधिक निगमों को लोकहित में या उन निगमों में से किसी का उचित प्रबंध सुनिश्चित करने के उद्देश्य से समामेलित करने के लिए, या
घ. निगमों के प्रबंध अभिकर्ताओं, सचिवों और कोषाध्यक्षों, प्रबंध निदेशको, निदेशकों या प्रबंधकों के किन्ही अधिकारों या उनके शेयरधारकों के मत देने के किन्हीं अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए, या
ड. किसी खनिज या खनिज तेल की खोज़ करने या उसे प्राप्त करने के प्रयोजन के लिए किसी करार, पट्टे या अनुज्ञप्ति के आधार पर प्रोद्भूत होने वाले किन्हीं अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए या किसी ऐसे करार, पट्टे या अनुज्ञप्ति को समय से पहले समाप्त करने या रद्द करने के लिए, उपबंध करने वाली विधि इस आधार पर शून्य नहीं समझी जाएगी कि वह ख्अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19, द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसे छीनती है या न्यून करती हैः
परंतु जहां ऐसी विधि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि है वहां इस अनुच्छेद के उपबंध उस विधि को तब तक लागू नहीं होंगे जब तक ऐसी विधि को, जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखी गई है, उसकी अनुमति प्राप्त नहीं हो गई हैंः,
परंतु यह और कि जहां किसी विधि में किसी संपदा के राज्य द्वारा अर्जन के लिए कोई उपबंध किया गया है और जहां उसमें समाविष्ट कोई भूमि किसी व्यक्ति की अपनी जोत में है वहां राज्य के लिए ऐसी भूमि के ऐसे भाग को, जो किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के अधिन उसको लागू अधिकतम सीमा के भीतर है, या उस पर निर्मित या उससे अनुलग्न किसी भवन या संरचना को अर्जित करना उस दशा के सिवाय विधिपूर्ण नहीं होगा जिस दशा में ऐसी भूमि, भवन या संरचना के अर्जन से संबंधित विधि उस दर से प्रतिकर के संदाय के लिए उपबंध करती है जो उसके बाजार-मूल्य से कम नहीं होगी।
इस अनुच्छेद मेंः
क. ‘‘संपदा’’ पद का किसी स्थानीय क्षेत्र के संबंध में वही अर्थ है जो उस पद का या उसके समतुल्य स्थानीय पद का उस क्षेत्र में प्रवृत्त भू-धृतियों से संबंधित विद्यमानविधि में है और इसके अंतर्गत-
- कोई जागीर, इनाम या मुआफी अथवा वैसी ही अन्य अनुदान और तमिलनाड्डु और केरल राज्यों में कोई जन्म् अधिकार भी होगा;
- रैयतबाड़ी, बंदोबस्त के अधीन धृत कोई भूमि भी होगी;
- कृषि के प्रयोजनों के लिए या उसके सहायक प्रयोजनों के लिए धृत या पट्टे पर दी गई कोई भूमि भी होगी, जिसके अन्तर्गत बंजर भूमि, वन भूमि, चरागाह या भूमि के कृषकों, कृषि श्रमिकों और ग्रामीण कारीगरों के अधिभोग में भवनों और अन्य संरचनाओं के स्थल हैं;,
ख. ‘‘अधिकार’’ पद के अंतर्गत, किसी संपदा के संबंध में, किसी स्वत्वधारी, उप-स्वत्वधारी, अवर स्वत्वधारी, भू-धृतिधारक, रैयत, अवर रैयत, या अन्य मध्यवर्ती में निहित कोई अधिकार और भू-राजस्व के संबंध में कोई अधिकार या विशेषाधिकार होंगे।
31ख - कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यकरण -
अनुच्छेद (31क) में अंतविष्ट उपबंधों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, नवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट अधिनियमों और विनियमों में से और उनके उपबंधों में से कोई इस आधार पर शून्य या कभी शून्य हुआ नहीं समझा जाएगा कि वह अधिनियम, विनियम या उपबंध इस भाग के किन्हीं उपबंधों द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से अंसगत है या उसे छीनता है या न्यून करता है और किसी न्यायालय या अधिकरण के किसी प्रतिकूल निर्णय, डिक्री या आदेश के होते हुए, प्रवृत्त बना रहेगा।
31ग - कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति -
अनुच्छेद 13 में किसी बात के होते हुए भी, कोई विधि, जो {भाग 4 में अधिकथित सभी या किन्हीं तत्वों, को सुनिश्चित करने के लिए राज्य की नीति को प्रभावी करने वाली है, इस आधार पर शून्य नहीं समझी जाएगी कि वह {अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19, द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसे छीनती है या न्यून करती है और कोई विधि, जिसमें यह घोषणा है कि वह ऐसी नीति को प्रभावी करने के लिए है, किसी न्यायालय में इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि वह ऐसी नीति को प्रभावी नहीं करती हैः
परंतु जहां ऐसी विधि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि है वहां इस अनुच्छेद के उपबंध उस विधि को तब तक लागू नहीं होंगे जब तक ऐसी विधि को, जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखी गई है, उसकी अनुमति प्राप्त नहीं हो गई हैंः
31घ - {राष्ट्र विरोधी क्रियाकलाप के संबंध में विधियों की व्यावृत्ति।, - संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 2 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित।
अनुच्छेद - 32
इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उपचार -
- इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।
- इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे निर्देश या आदेश या रिट, जिनके अन्तर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, जो भी समूचित हो, निकालने की शक्ति होगी।
- उच्चतम न्यायालय को खंड (1) और खंड (2) द्वारा प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद, उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (2) के अधीन प्रयोक्तव्य किन्हीं या सभी शक्तियों का किसी अन्य न्यायालय को अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रयोग करने के लिए विधि द्वारा सशक्त कर सकेगी।
- इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत अधिकार निलंबित नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद - 32ए
{राज्य विधियों की सांविधानिक वैधता पर अनुच्छेद 32} के अधीन कार्यवाहियों में विचार न किया जाना।, - संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 3 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित।
अनुच्छेद - 33
इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों का, बलों आदि को लागू होने में, उपांतरण करने की संसद् की शक्ति -
संसद्, विधि द्वारा, अवधारण कर सकेगी कि इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से कोई,-
क. सशस्त्र बलों के सदस्यों को, या
ख. लोक व्यवस्था बनाए रखने का भारसाधन करने वाले बलों के सदस्यों को, या
ग. आसूचना या प्रति आसूचना के प्रयोजनों के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी ब्यूरों या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों को, या
घ. खंड (क) से खंड (ग) में निर्दिष्ट किसी बल, ब्यूरों या संगठन के प्रयोजनों के लिए स्थापित दूरसंचार प्रणाली में या उसके संबंध में नियोजित व्यक्तियों को, लागू होने में किस विस्तार तक निर्बन्धित या निराकृत किया जाए जिससे उनके कर्तव्यों का उचित पालन और उनमें अनुशासन बना रहना सुनिश्चित रहे।
अनुच्छेद - 34
जब किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवृत्त है तब इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों पर निर्बन्धन -
इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, संसद् विधि द्वारा संघ या किसी राज्य की सेवा में किसी व्यक्ति की या किसी अन्य व्यक्ति की किसी ऐसे कार्य के संबंध में क्षतिपूर्ति कर सकेगी जो उसने भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी ऐसे क्षेत्र में, जहां सेना विधि प्रवृत्त थी, व्यवस्िा के बनाए रखने या पुनःस्थापन के संबंध में किया है या ऐसे क्षेत्र में सेना विधि के अधीन परित दंडादेश, दिए गए दंड, आदिष्ट समपहरण या किए गए अन्य कार्य को विधिमान्य कर सकेगी।
अनुच्छेद - 35
इस भाग के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए विधान -
इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, -
क. संसद् को शक्ति होगी और किसी राज्य के विधान-मंडल को शक्ति नहीं होगी कि वह-
- जिन विषयों के लिए अनुच्छेद 16 के खंड (3), अनुच्छेद 32 के खंड (3), अनुच्छेद 33 और अनुच्छेद 34 के अधीन संसद् विधि द्वारा उपबंध कर सकेगी उनमें से किसी के लिए, और
- ऐसे कार्यों के लिए, जो इस भाग के अधीन अपराध घोषित किए गए हैं, दंड विहित करने के लिए, विधि बनाए और संसद् इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र ऐसे कार्यों के लिए, जो उपखंड (पपप) में निर्दिष्टि हैं, दंड विहित करने के लिए विधि बनाएगी;
ख. खंड (क) के उपखंड (प) में निर्दिष्ट विषयों में से किसी से संबंधित या उस खंड के उपखंड (प) में निर्दिष्ट किसी कार्य के लिए दंड का उपबंध करने वाली कोई प्रवृत्त विधि, जो भारत के राज्यक्षेत्र में इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रवृत्त थी, उसके निबंधनों के और अनुच्छेद 372 के अधीन उसमें किए गए किन्हीं अनुकूलनों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए तब तक प्रवृत्त रहेगी जब तक उसका संसद् द्वारा परिवर्तन या निरसन या संशोधन नहीं कर दिया जाता है।
स्पष्टीकरण - इस अनुच्छेद में, ‘‘प्रवृत्त विधि’’ पद का वही अर्थ है जो अनुच्छेद 372 है।
4.0 मौलिक अधिकारों की व्याख्या
4.1 अनुच्छेद 12 के तहत ‘‘राज्य‘‘ शब्द का अर्थ समझना
अनुच्छेद 12 के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बहसों में से एक रही है ‘‘राज्य‘‘ शब्द के महत्व को लेकर उठने वाली बहस। समय-समय पर अपने विभिन्न निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य शब्द के दायरे को विस्तारित करके ‘‘राज्य‘‘ शब्द में भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी), तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) जैसे निगमों को भी शामिल किया है क्योंकि वे भी ‘‘शासकीय सदृश या संप्रभु कार्य निष्पादित‘‘ करते हैं। ‘‘राज्य‘‘ शब्द ऐसे किसी भी प्राधिकरण को स्वयं में समाहित करता है जो भारतीय संविधान द्वारा निर्मित है और यदि वह शासकीय या संप्रभु कार्य निष्पादित नहीं भी कर रहा हो फिर भी उसे कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।
संघ और राज्यों की कार्यपालिकाओं और विधायिकाओं के साथ ही राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों को भी ‘‘राज्य‘‘ शब्द की परिधि में समाहित किया जा सकता है क्योंकि वे भी कार्यपालिका का ही हिस्सा होते हैं। ‘‘शासन‘‘ या ‘‘सरकार‘‘ शब्द में सरकार के किसी भी विभाग या उसके नियंत्रण के अधीन किसी संस्था का भी समावेश होता है, उदाहरणार्थ आयकर विभाग।
परिभाषा में उपयोग किये गए अनुसार ‘‘स्थानीय प्राधिकरण‘‘ से तात्पर्य नगरपालिकाओं, पंचायतों या ऐसे ही अन्य प्राधिकरणों से है जिन्हें कानून विनियम बनाने का और उनका प्रवर्तन करने का अधिकार प्राप्त है। ‘‘अन्य प्राधिकरण‘‘ शब्द से तात्पर्य किसी ऐसे निकाय से भी हो सकता है जो शासकीय या संप्रभु कार्य करते हैं।
सांविधिक और गैर-सांविधिक, दोनों ही प्रकार के निकायों को ‘‘राज्य‘‘ माना जा सकता है बशर्ते कि उन्हें वित्तीय संसाधन सरकार से प्राप्त होते हों और ‘‘सरकार पर उनका गहरा प्रसरणशील नियंत्रण हो और जिनकी कार्यशील विशेषता हो।‘‘ ओएनजीसी, दिल्ली परिवहन निगम, आईडीबीआई, विद्युत निगम को भी श्राज्यश् के रूप में संबोधित किया जाता है। हालांकि एनसीईआरटी जैसे निकायों को ‘‘राज्य‘‘ नहीं माना जा सकता क्योंकि उनका पर्याप्त वित्तपोषण सरकार द्वारा नहीं किया जाता और उनपर सरकार का नियंत्रण प्रसरणशील भी नहीं है।
हालांकि अनुच्छेद 12 स्पष्ट रूप से न्यायपालिका का उल्लेख नहीं करता, फिर भी विधि विशेषज्ञों की राय है कि न्यायपालिका को भी ‘‘राज्य‘‘ की परिभाषा में शामिल किया जाना चाहिए। एक विचार के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को नियम बनाने का अधिकार है (न्यायालयों को विनियमित, अनुशीलन करना और उनकी प्रक्रियाएं बनाना), वह अपने कर्मचारियों की नियुक्ति करता है और उनकी सेवा शर्तों पर निर्णय करता है (जैसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 और 146 में उल्लिखित है)। अतः, वह राज्य के कार्य करता है।
अपने हाल के एक अवलोकन के दौरान शीर्ष न्यायालय ने निर्णय दिया है कि न्यायपालिका को उस संदर्भ में ‘‘राज्य‘‘ माना जा सकता है जहां तक उसकी नियम बनाने की शक्ति का संबंध है, परंतु जब न्यायपालिका अपनी न्यायिक शक्तियों का निर्वहन करती है तब उसे राज्य नहीं माना जा सकता।
4.2 मौलिक अधिकारों की सर्वोच्चता
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 बाद के अनुच्छेदों में प्रगणित मौलिक अधिकारों का अन्य कानूनों पर सर्वोच्चता पर बल देता है। अनुच्छेद 13 के माध्यम से संविधान संसद और राज्य की विधायिकाओं को ऐसे कानून बनाने से प्रतिबंधित करता है जो देश के नागरिकों को प्रदान किये गए ‘‘मौलिक अधिकारों को समाप्त कर सकते हैं या उन्हें कम कर सकते हैं‘‘, साथ ही ऐसे कानून को भी शून्य बनाता है जो ‘‘मौलिक अधिकारों से विसंगत हों या उनकी अवमानना करते हों।‘‘
अनुच्छेद 13 न्यायिक समीक्षा को एक संवैधानिक आधार प्रदान करता है क्योंकि यह सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को संविधान पूर्व के कानूनों की व्याख्या करने का अधिकार प्रदान करता है और यह निर्णय करने का भी अधिकार प्रदान करता है कि वे वर्तमान संविधान के सिद्धांतों और मूल्यों के अनुरूप और सुसंगत हैं या नहीं। यदि ऐसे प्रावधान आंशिक रूप से या संपूर्ण रूप से न्यायिक रूपरेखा के विरुद्ध हैं तो उन्हें तब तक अप्रभावी माना जाता है जब तक संशोधन न किया जाये। उसी प्रकार, संविधान को अंगीकार करने के बाद बनाये गए कानूनों को उनकी सुसंगतता सिद्ध करनी होगी अन्यथा उन्हें शून्य माना जायेगा।
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संविधान का कोई भी संशोधन एक विधायी प्रक्रिया है, और अनुच्छेद 168 के तहत किया गया कोई संशोधन संविधान के अनुच्छेद 13 के अर्थों के अंतर्गत ‘‘कानून‘‘ माना जायेगा। अतः यदि कोई संशोधन खंड 3 द्वारा प्रदत्त किसी मौलिक अधिकार को ‘‘समाप्त करता है या कम करता है‘‘ तो वह शून्य है।
इसे निष्प्रभावी बनाने के लिए नवंबर 1971 में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा भारतीय संविधान के 24 वें संशोधन को अधिनियमित किया गया। अनुच्छेद 13 में परिच्छेद (4) को प्रविष्ट किया गया जो कहता हैः ‘‘इस अनुच्छेद में उल्लिखित कोई भी बात इस संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत बनाये गए किसी भी संशोधन पर लागू नहीं होगी।‘‘ इस प्रकार, जहां तक संविधान में संशोधन का प्रश्न है तो यह प्रावधान संसद को और अधिक अधिकार प्रदान करता है। इस संशोधन ने मौलिक अधिकारों को भी संशोधन की प्रक्रिया की परिधि में लाकर रख दिया, और इन संशोधनों की न्यायिक समीक्षा या न्यायिक हस्तक्षेप को प्रतिबंधित कर दिया।
इस संशोधन का न्यायविदों और उस समय संविधान सभा के सभी जीवित सदस्यों द्वारा भी विरोध किया गया। 1971 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 24 वें संशोधन की वैधता के पक्ष में निर्णय दिया। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने मूल संरचना सिद्धांत को निर्धारित किया जिसने अंततः सरकार की संविधान संशोधन की शक्तियों का सीमांकन किया।
4.3 समता का अधिकार (Right to Equality)
अनुच्छेद 14 भारतीय न्यायपालिका में अत्यंत बहस का विषय रहा है।
अनुच्छेद 14 का स्रोत अमेरिकी और आयरिश संविधान में निहित है। यह उल्लेख किया जा सकता है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना ओहदे और अवसर की समानता को प्रकट करता है और यह लेख संविधान में उसी सिद्धांत को लागू करता है। समानता के लिए मांग स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास के साथ जुड़ी हुई है। भारतीय समान अधिकार चाहते थे जिसका आनंद ब्रिटिश अधिकारी भारत में ले रहे थे और नागरिक अधिकारों के लिए इच्छा 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन में निहित थी।
भारत राष्ट्रमंड़ल विधेयक 1925 की धारा 8 में, कानून के समक्ष परस्पर समानता की मांग की और कहा कि केवल लिंग के आधार पर निरर्हता या निर्योगिता नहीं होनी चाहिए, एवं सभी व्यक्तियों को सड़कों के उपयोग करने के समान अधिकार के साथ, न्याय की अदालतें और व्यापार या जनस्थानों के इस्तेमाल की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
सप्रू रिपोर्ट (1945), सपू्र समिति के प्रस्ताव को शामिल करती है। ‘‘अल्पसंख्यकों’’ पर जोर देते हुए मौलिक अधिकार और रिपोर्ट के पृष्ठ 260 में उच्चारित है कि, प्रस्तावित नएसंविधान के मौलिक अधिकारों का वर्णन सभी के लिये एक चेतावनी के रूप में किया है कि संविधान क्या मांग और उम्मीद करता है। वह समुदायों के बीच एक परिपूर्ण समानता और अन्य राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के विषय में, स्वतंत्रता और सुरक्षा की समानता, धर्म, पूजा और जीवन की दैनंदिन गतिविधियों में पूर्ण समानता चाहता है।
समानता, और कानून के समक्ष समानताः अनुच्छेद 14 में निहित समानता खंड का बड़ा महत्व है। यह कानून के समक्ष समानता या भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर कानूनों के समान संरक्षण की गारंटी देता है। खंड 14 में समानता का लेख एक सकारात्मक अवधारणा रखता है और इस तरह की समानता का दावा अवैधता में नहीं किया जा सकता। समानता को जब लागू नहीं किया जा सकता है जब यह अवैधता से उत्पन्न होती है।
अभिव्यक्ति ‘कानून के समक्ष समानता’ भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सभी व्यक्तियों की समानता की घोषणा है, जिससे जिसका अर्थ किसी भी व्यक्ति के पक्ष में कोई विशेष विशेषाधिकार का अभाव है। हर एक व्यक्ति, उसका स्थान जो भी हो, साधारण अदालतों के क्षेत्राधिकार के अधीन है। दूसरी अभिव्यक्ति ‘कानून का समान संरक्षण’ अमेरिकी संविधान के 14 वें संशोधन के पहले अनुभाव के अंतिम खंड पर आधारित है कि समान संरक्षण देश के सभी व्यक्तियों को प्राप्त हो। अनुच्छेद 14 केवल नागरिकों तक सीमित नहीं सभी वरन् व्यक्तियों पर लागू होता है। लेकिन यहाँ कुछ भ्रम है कि सभी व्यक्ति सभी मामलों में समान नहीं हैं। इसलिए उन सभी के लिए एक ही कानून का आवेदन समानता के सिद्धांत के साथ असंगत है।
समान और असमानः पिछड़े वर्ग में ‘‘मलाईदार परत’’ को अगड़े वर्गों के साथ ‘‘बराबर’’ का माना जाएगा और वे आरक्षण के लाभ के हकदार नहीं हैं। यदि ‘‘क्रीमी लेयर’’ को हटाया नहीं जाता है तो अनुच्छेद 14 ओर 16(1) का भेदभाव और उल्लंघन होगा क्योंकि अगड़े और क्रीमी लेयर में भेदभाव संभव नहीं है। फिर क्रीमी लेयर का अबहिष्कार भी, अनुच्छेद 14, 16(1) और 16(4) का उल्लंघन होगा क्योंकि क्रीमी लेयर को पिछड़ो के साथ बराबर नहीं रखा जा सकता हैं। असमान के साथ समान बर्ताव भी असमानता है। दोनों श्रेणियों को बराबर रखना, पूरी तरह अनुचित, मनमाना और असंवैधानिक है व इससे संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन किया जा रहा है।
समानता का परीक्षणः वैधानिक प्रावधानों की वैधता का निर्धारण करने में, भारत में अदालतों ने सामान्य सिद्धांत का पालन किया है कि कानूनों की समान सुरक्षा का मतलब है एक सी परिस्थितियों में समान व्यवहार करने का अधिकार। अदालतों ने भेदभावपूर्ण प्रावधानों को कई प्रकरणों में सही ठहराया है जहाँ भेदभाव उचित आधार पर आधारित है।
दोनों ही वाक्यांश ‘‘कानून के समक्ष समानता‘‘ तथा ‘‘कानूनो के समान संरक्षण’’ ‘‘दर्जे और अवसरों की समानता‘‘ की पैरवी करते हैं। वास्तव में ‘‘कानूनों का समान संरक्षण‘‘ भी समान स्थितियों में समान व्यवहार पर बल देता है। इस प्रकार, अनुच्छेद 14 विधायिकाओं द्वारा पारित किन्हीं भी मनमाने या भेदभावपूर्ण कानूनों के विरुद्ध खडा होता है। जब कभी भी राज्य की कार्यवाही में मनमानापन या भेदभाव दिखाई देता है तो व्यक्ति अनुच्छेद 14 का सहारा ले सकता है।
अनुच्छेद 14 इस तथ्य पर भी ध्यान देता है कि सभी कानूनों का स्वरुप जातिगत नहीं होना चाहिए और यह भी कि सभी समान कानून सभी लोगों पर लागू नहीं होते। अतः इसमें इस बात का प्रावधान किया गया है कि यदि परिस्थितियों की मांग है तो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न व्यवहार किया जाना चाहिए। हालांकि यह विशिष्ट साध्यों को प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों, वस्तुओं, और लेन-देनों के ‘‘उचित वर्गीकरण‘‘ की अनुमति प्रदान करता है, तथापि यह ष्वर्गी.त कानूनष् को प्रतिबंधित करता है जो ‘‘व्यक्तियों के एक विशिष्ट वर्ग को विशिष्ट विशेषाधिकार प्रदान‘‘ करके भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण अपनाता है।
5.0 विभेद का प्रतिशेध (Prohibition of Discrimination)
पिछड़ा हुआ वर्ग (Backward Class) : अनुच्छेद 15 की धारा (4) पहली नजर में एक व्यापक प्रावधान प्रतीत हो सकती है जो यहाँ पर उल्लेखित वर्गों के लाभ के लिए विशेष प्रावधान की प्रकृति में दिखती है। हालांकि, उन सवालों के अलावा कि एक विशेष वर्ग को वैध तरीके से पिछड़े वर्ग के रूप में कब-कब माना जा सकता है, इस तरह के भेदभावपूर्ण प्रावधान को अनुचित परिस्थितयों में निषेध किया जा सकता है।
अनुच्छेद 15 (4) के आधार पर कार्यकारी आदेश से आरक्षण बनाने में, राज्य को ध्यान रखना है कि यह अनावश्यक रूप से विस्तृत नहीं हो। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा, राज्य द्वारा बनाये गए आरक्षण प्रावधानों के पात्र हैं, ‘‘सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों’’ की श्रेणी।
5.1 93 वां संविधान संशोधन, 2005
2005 अधिनियम का संशोधन अनुच्छेद 15(5) राज्य की कार्यपालिका शक्ति के साथ हस्तक्षेप नहीं है और केवल अनुच्छेद 368 के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं करने की वजह से अवैध नहीं है।
5.2 विभेद (Discrimination)
इस लेख में महत्वपूर्ण शब्द ‘भेदभाव’ है जिसका मतलब ‘एक प्रतिकूल भेद के बनाने के संबंध में’ या ‘नकारात्मक ढंग से दूसरों से खास’।
अनुच्छेद 15 में वर्जित भेदभाव केवल इस तरह के भेदभाव हैं, जो इस आधार पर हैं कि एक व्यक्ति धर्म विशेष के अंतर्गत आता है। यह अधिकार अनुच्छेद 15 धारा (1) के द्वारा प्रदत्त केवल एक नागरिक होने पर लागू होता है, जो व्यक्तिगत अधिकार के समान है (गारंटी के माध्यम से) जो, एक नागरिक के रूप में अधिकारों, विशेषाधिकारों और संबंधित उन्मुक्ति के मामले में भेदभाव करने के लिये जारी नहीं किया जा सकता है।
लिंग के आधार पर विभेदः बिजली कर्मचारियो की अनूठी जिम्मेदारियों को देखते हुए, महिलाओं का इस क्षेत्र से निषेध लिंग-आधारित न होकर, संविधान के अनुछेद 15 का उल्लंघन नहीं है।
समस्तरीय और लंबरूप आरक्षणः सिद्धांत कहता है कि एक आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार एक अनारक्षित पद पर नियुक्त हो तो यह आरक्षित कोटे का लाभ नहीं गिना जाएगा। यह केवल उर्ध्वाधर आरक्षण (लंबरूप) पर लागू होता है लेकिन महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों के लिये समस्तरीय आरक्षण के लिये नहीं।
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षणः राज्य सरकार मेडिकल कॉलेजों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण पर सवाल तय करने के लिए एक सक्षम प्राधिकारी है।
अधिवास (स्थायी निवास) के आधार पर आरक्षणः एक अंतर, जो संविधान के निर्माताओं द्वारा खुद बनाया गया है, वह है कि ‘जन्म की जगह’ की अभिव्यक्ति ‘स्थायी निवास’ की पर्याय नहीं है और वे दो अलग अवधारणाओं को दर्शाते हैं। यह सच हो सकता है कि दोनों भाव संविधान सभा के कुछ सदस्यों को पर्याय दिखाई दिये होय लेकिन यह मार्गदर्शक कारक नहीं हो सकता। भारत के संविधान में अधिवास के आधार पर आरक्षण अनुच्छेद 15 की धारा (1) के मामले में नाजायज़ नहीं है।
आरक्षण के भीतर आरक्षणः राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित सरकारी सेवा से चयन किये हुए उम्मीदवारों के लिए कोटा की सीटों का आवंटन (स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रम में) एक ‘‘आरक्षण’’ नहीं है। यह सीटें भरने के लिये एक निर्धारित स्रोत है और अनुच्छेद 15 (1) के भीतर वर्गीकृत है।
अनुसूचित जातिः अनुसूचित जाति के दर्जे की प्राप्तिः अकेले शादी की ही वजह से एक व्यक्ति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं बन सकता।
विश्वविद्यालय के आधार पर आरक्षण
- विश्वविद्यालय के आधार पर वरीयता मान्य है यदि वह उचित है।
- अधिवास के आधार पर वरीयता मान्य है यदि यह उचित सीमा से अधिक न हो।
- कॉलेज के आधार पर वरीयता बुरी है।
महिला आरक्षणः महिला उम्मीदवारों के पक्ष में 50 प्रतिशत पद का आरक्षण मनमाना नहीं है। महिलाओं के लिए विशेष रूप से कुछ पदों का आरक्षण अनुच्छेद 15(3) के तहत मान्य हैं। अनुच्छेद 15 राज्य कार्यवाही के हर क्षेत्र को शामिल करता है।
6.0 अवसर की समता (Equality of opportunity)
6.1 संविधान (77 वां संशोधन) अधिनियम, 1995
16 नवम्बर, 1992 के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत नियुक्ति या पदों का आरक्षण प्रारंभिक नियुक्ति तक ही सीमित है और पदोन्नति के मामले में आरक्षण का विस्तार नहीं कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के हितों को प्रभावित करने वाला माना जाता था। चूंकि राज्य में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँच सका, इसलिए इनके मामलों में पदोन्नति को आरक्षण देने की मौजूदा व्यवस्था जारी रखने को आवश्यक माना गया था। प्रतिबद्धता को देखते हुए इनके हितों की रक्षा के लिये सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पदोन्नति में आरक्षण की मौजूदा नीति को जारी रखने का फैसला किया। यह करने के लिये, अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति के पदोन्नति के लिये संविधान के अनुच्छेद 16 में एक नई धारा (4ए) डालना आवश्यक थी। संविधान (77 वां संशोधन) अधिनियम, 1995 इस उद्देश्य को हासिल करने का प्रयास है।
6.2 आरक्षण और पदोन्नति
अनुच्छेद 16(4) और 16(4ए) कोई मौलिक अधिकार प्रदान नहीं करते हैं और न ही वे किसी भी संवैधानिक कर्तव्यों को थोपते हैं, लेकिन राज्य में एक विवेक निहित करते हैं कि सक्षम में परिस्थितियों में आरक्षण पर विचार करने के लिये राज्य को अधिकार है।
6.3 कहीं भी जाने के लिये और किसी भी व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार
जनवरी 2016 में एक मामले के संदर्भ में अनुच्छेद 16(2) हैदराबाद उच्च न्यायालय की खंड-पीठ के समक्ष आया जिसने तेलंगाना राज्य के सभी चार विद्युत निगमों में सहायक कार्यपालन यंत्रियों की भर्ती की चयन प्रक्रिया पर अस्थायी स्थगनादेश जारी कर दिया। चल्ला नरसिंहा रेड्डी एवं अन्य द्वारा टीएस जेंको, टीएस ट्रांस्को, टीएसएसपीडीसीएल और टीएसएनपीडीसीएल द्वारा भर्ती नियमों में किये गए ऐसे संशोधनों को चुनौती देने वाली याचिकाएं दायर की गई जिनके अनुसार इन विद्युत निगमों में रोजगार केवल तेलंगाना राज्य के नागरिकों को ही प्राप्त हो सकेगा। किये गए परिवर्तनों के अनुसार कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसका जन्म या तो राज्य के दो क्षेत्रों में हुआ है या जिसने इन दोनों क्षेत्रों में से किसी एक क्षेत्र में 6 वर्षों से अधिक समय तक शिक्षा प्राप्त की है उसे उस क्षेत्र के लिए ‘‘स्थानीय उम्मीदवार‘‘ कहा जायेगा और स्थानीय और गैर-स्थानीय उम्मीदवारों के बीच का अनुपात 70ः30 है।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि संविधान के अनुच्छेद 16(2) के अनुसार पदों के आरक्षण और किसी नागरिक के स्थानीय दर्जे का निर्धारण केवल संसद के पास सुरक्षित है और वह अधिकार कंपनी अधिनियम के तहत पंजीकृत किसी कंपनी को नहीं है।
1975 में एक राष्ट्रपति का आदेश जारी किया गया था जो तत्कालीन आंध्र प्रदेश राज्य के रायलसीमा, तेलंगाना और तटीय आंध्र प्रदेश क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों के नागरिकता के दर्जे को निर्धारित करता था। राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार स्थानीय दर्जे का आधार किसी विशिष्ट क्षेत्र में न्यूनतम चार वर्षों की शिक्षा या निवास अनिवार्य किया गया था। आंध्र प्रदेश राज्य के विभाजन के बाद यह आदेश विद्यार्थियों और कर्मचारियों के लिए स्थानीय दर्जे और अधिवास के निर्धारण की दृष्टि से एक विवादित मुद्दा बन गया है।
याचिकाकर्ताओं का यह भी कथन था कि राष्ट्रपति का आदेश विद्युत निगमों पर बिलकुल भी लागू नहीं होता है। राष्ट्रपति का आदेश केवल शासकीय कर्मचारियों पर ही लागू होता है और किसी संविधि के तहत निर्मित निगमों पर लागू नहीं होता है।
इस अन्नुछेद के अधिनियमन द्वारा स्वतंत्र भारत की सरकार ने अस्पृश्यता की बुराई को दूर करने का कार्य ईमानदारी से किया है। इस कानून का प्रयोजन समाज को ऐसी रूढ़िवादी मान्यताओं और रस्मों से मुक्त करना है जिनकी कानूनी और नैतिक प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। संविधान निर्माताओं ने न केवल सभी प्रकार के सामाजिक भेदभाव के
अपराधीकरण का प्रावधान किया है बल्कि उन्होंने इस प्रकार के भेदभावों का व्यवहार करने वालों को दण्डित करने का प्रावधान भी किया है।
अनुच्छेद 17 के संवैधानिक प्रावधानों को सशक्त बनाने के उद्देश्य से संसद द्वारा नागरिक अधिकारों का संरक्षण अधिनियम, 1955 अधिनियमित किया गया (जिसे पूर्व में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम कहा जाता था) जो सभी प्रकार की अस्पृश्यता के अपराधों को दण्डित करता है, जिसमें धार्मिक और सामाजिक विकलांगता, किसी व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती करने से मना करना, और गैर-कानूनी अनिवार्य श्रम शामिल है। इस अधिनियम के अनुसार इस प्रकार का अपराध करने वाले अपराधी को ‘‘न्यूनतम एक महीने और अधिकतम छह महीने के कारावास की सजा दी जाएगी।‘‘
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अधिनियमन के माध्यम से अनुच्छेद 17 के दायरे को और अधिक विस्तारित किया गया। नए अधिनियम का अधिनियमन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध हो रहे अधिक हिंसक जाति-प्रेरित अत्याचारों से निपटने के लिए किया गया था।
यहां यह बात ध्यान देने लायक है कि अनुच्छेद 17 पूर्ण रूप से जाति-प्रथा को समाप्त करने का प्रयास नहीं करता। यह केवल अस्पृश्यता के निवारण की बात करता है जो जाति-व्यवस्था के अनेक परिणामों में से एक है।
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