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भारतीय संविधान के ऐतिहासिक आधार
‘‘स्वराज ब्रिटिश संसद का एक मुफ्त उपहार नहीं होगा, यह भारत की पूर्ण आत्म-अभिव्यक्ति की घोषणा होगी। यह सच है कि यह संसद के एक अधिनियम के माध्यम से व्यक्त किया जाएगा लेकिन यह लोगों की घोषित इच्छा का एक विनम्र अनुसमर्थन होगा जैसा कि दक्षिण अफ्रीका के संघ के मामले में किया गया था’’।
-महात्मा गांधी
1.0 प्रस्तावना
गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 का अधिनियम परिणाम था वैधानिक आयोग की विफलता का और गोलमेज सम्मेलन का, जिसके परिणामस्वरूप, 1935 में सरकारी तौर पर कांग्रेस द्वारा मांगी गयी, बिना बाहरी हस्तक्षेप के भारतीयों के बनाए संविधान की बढ़ती मांग को संतुष्ट करना आवष्यक था। 1938 में पंड़ित नेहरू ने संविधान सभा की अपनी मांग रखी थी।
‘‘राष्ट्रीय कांग्रेस स्वतंत्र और लोकतांत्रिक राज्य का समर्थन करती है। वह स्वतंत्र भारत के संविधान का प्रस्ताव करती है, जिसे कि बाहरी हस्तक्षेप के बिना, वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनी गयी एक संविधान सभा द्वारा तैयार किया जाना चाहिए।’’
2.0 प्रारंभिक प्रयास
भारत के लिए एक संविधान के निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत को साइमन कमीशन के भारत आगमन के समय से जोड़ा जा सकता है जिसकी नियुक्ति भारत के लिए संवैधानिक व्यवस्थाओं की समीक्षा करने और उनमें परिवर्तन सुझाने की दृष्टि से 1927 के ब्रिटिश भारत में की गई थी। हालांकि इस आयोग में किसी भी भारतीय का समावेश नहीं होने के कारण भारत में ‘‘साइमन वापस जाओ‘‘ के विरोध प्रदर्शनों से इसका स्वागत हुआ। ब्रिटिश सरकार द्वारा यह तर्क दिया गया कि भारत के विभिन्न समूहों के बीच भयंकर फूट, असामंजस्य और वैमनस्य था, अतः इस आयोग में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया। विदेश सचिव लॉर्ड बर्केनहेड ने भारतीय नेताओं के समक्ष एक चुनौती पेश की थी कि वे एक ऐसे संविधान का मसौदा तैयार करें जो सभी दलों की आम सहमति वाला हो।
2.1 नेहरू रिपोर्ट
मई 1928 में एक सर्व दलीय सम्मेलन आयोजित किया गया जिसने संविधान के मसौदे की योजना तैयार करने के लिए एक समिति की नियुक्ति की। इस समिति के सदस्य थे एम. एस. अनेय, शुऐब कुरैशी, सरदार मंगल सिंह, जी. आर. प्रधान, सर तेजबहादुर सप्रू, सर अली ईमान और सुभाष चन्द्र बोस। इस समिति के अध्यक्ष श्री मोतीलाल नेहरू थे, अतः इस समिति द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट कहा गया।
नेहरू समिति की सिफारिशों का स्वरुप आमतौर पर सर्वसम्मति पर आधारित था, हालांकि एक पहलू पर इसमें मत-भिन्नता थी - जबकि बहुसंख्य सदस्य ‘‘अधिराज्य दर्जे‘‘ के पक्षधर थे, वहीं नेताओं का एक वर्ग ‘‘संपूर्ण स्वराज्य‘‘ का पक्षधर था।
नेहरू रिपोर्ट की मुख्य सिफारिशें निम्नानुसार थींः
- नेहरू रिपोर्ट ने स्वयं को ब्रिटिश भारत के दायरे में सीमित रखा था। ब्रिटिश भारत और शाही रियासतों का जुड़ाव भविष्य में किया जाना था।
- ब्रिटिश भारत ब्रिटिश भारत के अधिराज्य के रूप में कार्य करेगा।
- अलग-अलग निर्वाचक समूह नहीं होंगे। इतिहासकार इसे 1916 के लखनऊ समझौते का उत्क्रमण मानते हैं जिसमें अलग-अलग निर्वाचक समूहों की नींव रखी गई थी। नेहरू रिपोर्ट ने मुस्लिम अल्पसंख्यक क्षेत्रों के लिए केंद्र एवं प्रांतों में मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटों के साथ ही एक संयुक्त निर्वाचक समूह की सिफारिश की थी (न कि पंजाब और बंगाल जैसे उन क्षेत्रों के लिए जहाँ मुस्लिम जनसंख्या बहुसंख्य थी), इन आरक्षित सीटों की संख्या उन क्षेत्रों की मुस्लिम जनसंख्या के अनुपात में होगी। उन्हें अतिरिक्त सीटों पर चुनाव लड़ने का अधिकार भी प्राप्त होगा।
- ब्रिटिश भारत को भाषा के आधार पर प्रांतों में विभाजित किया जायेगा। बाद में स्वतंत्र भारत ने भाषा के आधार पर राज्यों को मान्यता प्रदान करने की नीति का अनुसरण किया।
- उन्नीस मौलिक अधिकारों की भी सिफारिश की गई थी जिनमें महिलाओं के लिए समान अधिकार, मजदूर संगठनों के निर्माण का अधिकार, और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार जैसे प्रावधान भी शामिल किये गए थे।
- भारत की केंद्रीय संसद की सदस्य संख्या 500 निर्धारित की गई थी - जिसमें वयस्क मताधिकार के माध्यम से निर्वाचित प्रतिनिधि सभा होगी और प्रांतीय परिषदों द्वारा निर्वाचित 200 सदस्यीय सीनेट होगी। प्रतिनिधि सभा का कार्यकाल 5 वर्षों का होगा जबकि सीनेट का कार्यकाल 7 वर्षों का होगा।
- केंद्र सरकार का नेतृत्व ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त गवर्नर जनरल द्वारा किया जायेगा, परंतु जिसका वेतन भारत के राजस्व में से प्रदान किया जायेगा। गवर्नर जनरल संसद के प्रति उत्तरदायी केंद्रीय कार्यकारी परिषद की सलाह पर कार्य करेगा।
- प्रांतीय परिषदों का कार्यकाल पांच वर्षों का होगा, जिनका नेतृत्व प्रांतीय कार्यकारी परिषद की सलाह पर कार्य करने वाले गवर्नर द्वारा किया जायेगा।
- मुस्लिमों के सांस्कृतिक और धार्मिक हितों को संपूर्ण संरक्षण प्रदान किया जायेगा।
- राज्य का धर्म से पूर्ण पृथक्करण होगा।
1928 में नेहरू रिपोर्ट को मंजूरी प्रदान करने के लिए एक सर्व दलीय सम्मेलन कलकत्ता में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन के दौरान जिन्ना ने नेहरू रिपोर्ट में चार संशोधन सुझाये थे जिन्हें कलकत्ता संशोधन कहा जाता है। इनमें से एक प्रमुख संशोधन यह था कि अवशिष्ट शक्तियां प्रांतों के क्षेत्राधिकार में निहित होंगी। नेहरू रिपोर्ट के अनुसार अवशिष्ट शक्तियां संघ के क्षेत्राधिकार में निहित रहने वाली थीं। हालांकि सम्मेलन में हुए मतदान के दौरान इन प्रस्तावों के विरोध में अधिक मत पडे़। संभवतः जिन्ना ने इसे मुस्लिम समुदाय के अपमान के रूप में लिया होगा। भारतीय मुख्यधारा के बीच अनेक ऐसे वर्ग थे जो इस रिपोर्ट के विभिन्न पहलुओं के विरोधी थे, परंतु फिर भी उन्होंने इस रिपोर्ट को स्वीकार किया।
2.2 जिन्ना के 14 बिंदु
दिसंबर 1927 में बड़ी संख्या में मुस्लिम नेताओं की दिल्ली में बैठक हुई और उन्होंने मूलभूत मांगों का एक समूह बनाया था जिसे दिल्ली प्रस्ताव के नाम से जाना जाता था। ये प्रस्ताव निम्नानुसार थेः
- सिंध को बम्बई प्रांत से अलग किया जाए और उसे एक स्वतंत्र प्रांत बनाया जाए।
- बलूचिस्तान और उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत (एनडब्लूएफपी) में भी अन्य सभी प्रांतों के समान सुधार शुरू किये जाएँ। केवल उसी स्थिति में इस प्रकार से स्थापित सभी प्रांतों में मुस्लिम समुदाय संयुक्त निर्वाचक मंडल को स्वीकार करने के लिए तैयार थे, साथ ही वे सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत के हिंदू अल्पसंख्यकों को वे सभी रियायतें प्रदान करेंगे जो हिंदू बहुसंख्य लोग मुस्लिम अल्पसंख्यकों को अन्य प्रांतों में प्रदान करने को तैयार हैं।
- पंजाब और बंगाल में प्रतिनिधित्व का अनुपात जनसंख्या पर आधारित होना चाहिए। केंद्रीय विधायिका में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व एक-तिहाई से कम नहीं होना चाहिए, और वह भी एक मिश्रित निर्वाचक मंडल के आधार पर।
जिन्ना ने उपरोक्त तीन मांगों को शामिल करके मुस्लिम लीग की एक बैठक में कुल 14 बिंदु रखे। जिन्ना के ये 14 बिंदु निम्नानुसार थेः
- भविष्यकालीन संविधान का स्वरुप संघीय होना चाहिए, जिसमें अवशिष्ट शक्तियां प्रांतों में निहित होंगी।
- सभी प्रांतों को स्वायत्तता के समान उपाय प्रत्याभूत (आश्वस्त) किये जायेंगे।
- देश की सभी विधायिकाओं और अन्य निर्वाचित निकायों का गठन सभी प्रांतों में अल्पसंखयकों के पर्याप्त और प्रभावी प्रतिनिधित्व के निश्चित सिद्धांत के आधार पर ही किया जायेगा और किसी भी प्रांत में बहुमत को अल्पसंख्य या यहां तक कि समानता के रूप में भी कम नहीं किया जायेगा।
- केंद्रीय विधायिका में मुस्लिम प्रतिनिधित्व एक-तिहाई से कम नहीं होगा।
- सांप्रदायिक समूहों का प्रतिनिधित्व वर्तमान के स्वतंत्र निर्वाचक मंडल के ही आधार पर भविष्य में भी जारी रहेगा बशर्ते कि यह किसी भी समुदाय के लिए खुला होगा कि वह संयुक्त निर्वाचक मंडल के पक्ष में अपने स्वतंत्र निर्वाचक मंडल के अधिकार का त्याग कर सकेंगे।
- भविष्य में आवश्यक किसी भी प्रकार का प्रादेशिक वितरण या परिवर्तन मुस्लिम बहुमत को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करेगा।
- सभी समुदायों को संपूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता, अर्थात, आस्था की स्वतंत्रता, उपासना और मान्यताओं की स्वतंत्रता, प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता, संगठन और शिक्षा की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाएगी।
- यदि किसी विधायिका या किसी भी अन्य निर्वाचित निकाय में संबंधित समुदाय के तीन-चौथाई सदस्य ऐसा विधेयक या प्रस्ताव या उसका कोई भी भाग संबंधित समुदाय के हितों के प्रतिकूल है इस आधार पर विरोध करते हैं तो ऐसा विधेयक या प्रस्ताव उस विधायिका या निर्वाचित निकाय में पारित नहीं किया जायेगा, इसके विकल्प के रूप में ऐसे अन्य उपाय ढूंढें जायेंगे जो संबंधित मामलों से निपटने के लिए उचित, व्यवहार्य और तर्कसंगत माने जायेंगे।
- सिंध को बम्बई प्रांत से पृथक किया जाना चाहिए।
- अन्य प्रांतों के समान ही उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत और बलूचिस्तान में भी सुचार कार्य शुरू किये जाएंगे।
- संविधान में अन्य भारतीयों के समान ही मुस्लिमों को भी राज्य और स्थानीय स्वशासित निकायों की सेवाओं में पर्याप्त हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व प्रदान करने के प्रावधान किये जाने चाहिये जिसमें कौशल की उनकी योग्यता पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए।
- संविधान में मुस्लिम संस्कृति के संरक्षण और मुस्लिम शिक्षा, भाषा, धर्म, वैयक्तिक कानूनों और मुस्लिम धर्मादाय संस्थाओं के संरक्षण और संवर्धन के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय किये जाने चाहिये साथ ही राज्य और स्थानीय स्वशासी संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले सहायता अनुदानों में भी उनकी उचित हिस्सेदारी का ध्यान रखा जाना चाहिए।
- कम से कम एक तिहाई अनुपात के मुस्लिम मंत्रियों के समावेश के बिना केंद्र या प्रांतों के किसी भी मंत्रिमंडल का गठन नहीं किया जाना चाहिए।
- भारतीय संघराज्य के राज्यों की सहमति की स्थिति को छोड़कर केंद्रीय विधायिका द्वारा संविधान में कोई भी संशोधन नहीं किया जायेगा।
2.3 नेहरू रिपोर्ट और जिन्ना के 14 बिंदुओं के बीच के अंतर
इन दोनों में कुछ बिंदुओं पर (सिंध को बम्बई से पृथक करना) सहमति थी जबकि इन दोनों में असहमति के अनेक बिंदु भी थे। असहमति के प्रमुख बिंदु निम्नानुसार थेः
- जबकि नेहरू रिपोर्ट ने अल्पसंख्यकों के लिए स्वतंत्र निर्वाचक मंडल के विचार को अस्वीकार किया था, वहीं जिन्ना के 14 बिंदुओं ने विभिन्न समुदायों के लिए स्वतंत्र निर्वाचक मंडल की मांग की थी।
- नेहरू रिपोर्ट ने केंद्र में मुस्लिमों के लिए एक-चौथाई प्रतिनिधित्व की सिफारिश की थी, जबकि जिन्ना के 14 बिंदुओं में केंद्र में मुस्लिमों के लिए एक-तिहाई प्रतिनिधित्व की मांग की गई थी।
- नेहरू रिपोर्ट के अनुसार बंगाल और पंजाब में समुदायों के लिए आरक्षित सीटें नहीं होंगीं। हालांकि ऐसे प्रांतों में, जहां मुस्लिम जनसंख्या कम से कम 10 प्रतिशत थी, मुस्लिमों को आरक्षित सीटें प्रदान की जाएँगी। वहीं जिन्ना के 14 बिंदुओं में यह मांग की गई थी कि सभी प्रांतों में मुस्लिमों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए चाहे फिर उनकी जनसंख्या 10 प्रतिशत से कम ही क्यों न हो। दिल्ली प्रस्ताव ने सिफारिश की थी कि गैर-मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्रों की प्रांतीय विधायिकाओं में मुस्लिमों के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित रखी जानी चाहियें, और आरक्षित सीटों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में होनी चाहियें।
- इनके अतिरिक्त भी जिन्ना के 14 बिंदुओं में अन्य अनेक मांगें शामिल थीं; उदाहरणार्थ, किसी भी मंत्रिमंडल में एक निश्चित प्रतिशत में मुस्लिम मंत्री होने चाहियें, जबकि नेहरू रिपोर्ट में इस प्रकार की सिफारिश नहीं की गई थी; इसके परिणामस्वरूप इन दोनों रिपोर्ट्स के बीच काफी विषयों पर संघर्ष की स्थिति बनी।
यहां एक और बात जो ध्यान में रखी जानी चाहिए वह यह है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों पार्टियों में भी अनेक आतंरिक मत भिन्नताएं थीं। कांग्रेस के एक वर्ग का मानना था कि 1927 में पूर्ण स्वराज्य की मांग करने के बाद नेहरू रिपोर्ट में अधिराज्य दर्जे को मान्य करना एक कदम पीछे हटने के समान था। इस प्रकार का विचार व्यक्त करने वाले नेताओं में प्रमुख नेता थे सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू।
हालांकि इसमें से कोई भी प्रयास भारत के लिए एक संविधान निर्माण करने की दृष्टि से फलीभूत नहीं हो पाया, परंतु इन प्रयासों ने हमारे संविधान के लिए ज़मीन अवश्य तैयार की, और इन प्रयासों ने एक व्यापक रूपरेखा की ओर इशारा अवश्य किया जिसके आधार पर भारत का शासन चलाया जाना था।
3.0 क्रिप्स मिशन
संविधान सभा के लिए मांग का ब्रिटिश सरकार द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के फैलने तक विरोध किया गया था, जब बाह्य परिस्थितियों ने उन्हें भारतीय संवैधानिक समस्या को हल करने के लिए मजबूर कर दिया। मार्च 1942 में, जब जापानी सैनिक भारत के दरवाजे पर थे, तब उन्होंने कैबिनेट के एक सदस्य सर स्टैफोर्ड क्रिप्स को ब्रिटिश सरकार के प्रस्तावों पर एक मसौदे की घोषणा के साथ भेजा जो कि दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों (कांग्रेस और मुस्लिम लीग) के समझौते करने पर ही स्वीकार किया जा सकता था।
प्रस्ताव थेः
- कि भारत के संविधान को भारतीय लोगों की एक निर्वाचित संविधान सभा द्वारा तैयार किया जाना था
- कि संविधान द्वारा भारत को डोमिनियन स्टेटस यानि कि ब्रिटिश राष्ट्रमंडल की बराबर भागीदारी देगा
- कि एक भारतीय संघ होना चाहिए जिसमे सभी प्रांत और भारतीय राज्य सम्मिलित हों, लेकिन,
- कि जो भी प्रांत (भारतीय राज्य के) संविधान को स्वीकार करने को तैयार नहीं हों, वो अपनी मौजूदा संवैधानिक स्थिति को बनाए रखने के लिए स्वतंत्र होंगे और इस तरह के अस्वीकार करने वाले प्रांतों के साथ ब्रिटिश सरकार अलग संवैधानिक व्यवस्था कर सकती है।
लेकिन दोनों पार्टियांँ प्रस्तावों को स्वीकार करने के लिए एक समझौते पर पहुंचने में विफल रहीं, और मुस्लिम लीग ने आग्रह किया -
- भारत का सांप्रदायिक आधार पर दो स्वायत्त राज्यों में विभाजन किया जाना चाहिए, और श्री जिन्ना द्वारा निर्धारित कुछ प्रांतों को एक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य के रूप में बनाना चाहिए जिसे पाकिस्तान के रूप में जाना जाएगा।
- कि एक संविधान सभा के बजाय दो संविधान सभाएं होनी चाहिए, यानी कि पाकिस्तान के लिए एक अलग संविधान सभा।
4.0 कैबिनेट प्रतिनिधि मंडल
क्रिप्स प्रस्ताव की अस्वीकृति (और तत्पश्चात हुए कांग्रेस के भारत छोड़ो आन्दोलन) के बाद, गवर्नर जनरल लॉर्ड वावेल के कहने पर आयोजित शिमला सम्मेलन सहित, दो पक्षों में सामंजस्य के लिए विभिन्न प्रयास किए गए थे। इनके विफल होने पर ब्रिटिश सरकार ने क्रिप्स सहित अपने तीन सदस्यों को एक और गंभीर प्रयास करने भेजा लेकिन कैबिनेट प्रतिनिधिमंडल भी दोनों पक्षों को एक समझौते पर पहुंचाने में विफल रही और तदनुसार, अपने खुद के प्रस्ताव को आगे रखने के लिए बाध्य हो गयी, जिसकी 16 मई, 1946 को भारत और इंग्लैंड़ में एक साथ घोषणा की गयी थी।
योजना की मुख्य विषेषताएं थीः
- ब्रिटिश भारत और राज्यों, दोनों से बना एक भारत का संघ होगा, और इसका विदेश मामले, रक्षा और संचार के विषयों पर अधिकार होगा। सभी अवशिष्ट शक्तियाँ प्रांतों और राज्यों के पास होंगी।
- संघ में एक कार्यपालिका और प्रांतों और राज्यों के प्रतिनिधियों से मिलकर बना एक विधायिका होगी। लेकिन विधायिका में किसी प्रमुख सांप्रदायिक मुद्दे को उठाने वाले सवाल पर निर्णय लेने के लिए दो प्रमुख उपस्थित समुदायों के प्रतिनिधियों का बहुमत और मतदान और साथ ही सदस्यों की उपस्थित और मतदान की आवश्यकता होगी।
प्रांत को अधिकारियों और विधायिकाओं के साथ समूह बनाने की स्वतंत्रता होगी, और प्रत्येक समूह प्रांतीय विषयों के समूह के संगठन द्वारा चुनाव को निर्धारित करने के लिए सक्षम होगा।
कैबिनेट मिशन द्वारा निर्धारित योजना, तथापि, सिफारिशी थी और यह कि मिशन द्वारा यह विचार किया गया था की इसे दो प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच समझौते के द्वारा अपनाया जाएगा। लेकिन संविधान सभा के गठन के लिए हुए चुनाव के बाद एक विचित्र स्थिति खड़ी हो गयी। मुस्लिम लीग चुनाव में शामिल हो गई और उसके उम्मीदवार भी नामित हुए। लेकिन इस बीच कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच कैबिनेट मिशन द्वारा किये ‘समूहीकरण धरा’ के प्रस्ताव की व्याख्या को लेकर मतभेद हो गया था। ब्रिटिश सरकार ने इस स्थिति में हस्तक्षेप किया, और लंदन में नेताओं को समझाया कि उन्होंने लीग के तर्क को सही माना है, और 6 दिसंबर, 1946 को ब्रिटिश सरकार ने यह बयान प्रकाशित किया।
‘‘यदि संविधान ऐसी संविधान सभा द्वारा तैयार किया जाता है जिसमे भारतीय आबादी के एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं किया गया हो, तो महामहिम की सरकार ऐसे संविधान को देश के अनिच्छुक भागों पर लागू करने का विचार नहीं करेगी’’।
इस प्रकार पहली बार, ब्रिटिश सरकार ने दो संविधान सभाओं और दो राज्यों की संभावना को स्वीकार किया।
4.2 महामहिम की सरकार का 20 फरवरी 1947 का बयान
मुस्लिम लीग ने इस तर्क पर भारत की संविधान सभा को भंग करने के लिए आग्रह किया की यह भारत की जनता के सभी वर्गों का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने 20 फरवरी 1947 के अपने बयान से घोषणा कीः
- कि भारत में ब्रिटिश शासन का जून 1948 तक किसी भी हाल में अंत हो जाएगा, जिसके बाद ब्रिटिश निश्चित रूप से भारतीय हाथों को अधिकार सौंप देंगे।
- कि यदि उस समय तक एक पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने वाली संविधान सभा कबिनेट द्वारा दिए गए प्रस्ताव के अनुसार एक संविधान बनाने में विफल रही तो, महामहिम की सरकार को, यह विचार करना होगा कि ब्रिटिश भारत में केंद्र सरकार की शक्ति नियत तारीख पर किसे सौंपी जाए, या तो ब्रिटिश भारत को पूरी तरह से केंद्र सरकार के किसी रूप को दिया जाये, या मौजूदा प्रांतीय सरकार के कुछ क्षेत्रों में, या इस तरह के किसी अन्य तरीके के रूप में जो सबसे उचित और भारतीय लोगों के सर्वश्रेष्ठ हित में हो।
परिणाम अपरिहार्य था और लीग ने इस विधानसभा में शामिल होना आवश्यक नहीं समझा, और मुस्लिम भारत के लिए एक और संविधान सभा के लिए दबाव डालना जारी रखा।
इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने सत्ता के हस्तांतरण, जिसकी एक कठोर समय सीमा तय की जा चुकी थी, की तैयारी में तेजी लाने के लिए गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड वावेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजा। लॉर्ड माउंटबेटन कांग्रेस और लीग को निश्चित समझौते पर ले आये कि पंजाब और बंगाल के दो ‘समस्या’ प्रांतों को इस प्रकार विभाजित किया जाएगा कि इन प्रांतों में पूर्ण हिन्दू और मुस्लिम बहुल ब्लॉक बन जाएँगे। तब लीग को असम, पूर्वी पंजाब और पश्चिम बंगाल छोड कर उसका पकिस्तान मिलेगा जिसे कि कैबिनेट मिशन ने बेरहमी से मना कर दिया था, जबकि कांग्रेस जिसे की मुस्लिमों को छोड़ कर बाकी भारत का प्रतिनिधि समझा जाता था, को बाकि का भारत मिलेगा।
5.0 माउन्टबैटन योजना (3 जून, 1947)
भारत के भविष्य को ब्रिटिश सरकार द्वारा 3 जून, 1947 को दिये गए एक बयान ने एक औपचारिक रूप दिया जिससे बताया कि ‘‘बंगाल और पंजाब (यूरोपीय सदस्यों को छोड़कर) की प्रांतीय विधान सभा से दो भागों में मिलने को कहा जाएगा, एक मुस्लिम बहुल जिले का प्रतिनिधित्व करते हुए और अन्य बाकी प्रांत का। प्रांत को विभाजित किया जाना चाहिए या नहीं यह वोट करने का अधिकार अलग बैठे विधान सभा के दो भागों के सदस्यों का होगा। यदि किसी भी भाग का साधारण बहुमत में विभाजन का निर्णय लिया जाता है तो, विभाजन होगा और व्यवस्था की जाएगी। विभाजन होने पर निर्णय लिया जाएगा कि, विधान सभा के प्रत्येक भाग अपने क्षेत्रों की ओर से जिनका वो प्रतिनिधित्व करता है, वह किसमें शामिल होगा मौजूदा संविधान सभा में, या कि एक नयी और अलग संविधान सभा में।
26 जुलाई 1947 को, गवर्नर जनरल ने पाकिस्तान के लिए एक अलग संविधान सभा की स्थापना की घोषणा की। 3 जून 1947 की योजना, को कार्यान्वित करने के पश्चात्, घोषणा के अनुसार ब्रिटिश संसद के कानून में संशोधन करके सत्ता के हस्तांतरण के रास्ते में कोई बाधा नहीं थी।
6.0 भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947
ब्रिटिश संसद ने कोई समय न गंवाते हुए उपरोक्त योजना के आधार पर भारतीय स्वतंत्रता बिल का मसौदा तैयार किया (10 और 11 जियो. टप्ए ब. 30)। बिल को आश्चर्यजनक गति के साथ पास किया गया और भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के रूप में कानून की किताब में जोड़़ा गया। बिल को 4 जुलाई को संसद में पेश किया गया था और इसे 18 जुलाई, 1947 को राजकीय स्वीकृति प्राप्त हुई और उसी तारीख से अस्तित्व में आया।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के सबसे बड़ी विशेषता यह है कि, जबकि भारत सरकार के शासन से जुड़े अधिनियम (जैसे कि 1858 से 1935 तक के भारत सरकार अधिनियम) ने ब्रिटिश संसद की विधायी इच्छा से भारत के शासन के लिए एक संविधान रखने करने की मांग की थी, 1947 के इस अधिनियम में ऐसे किसी भी संविधान को नहीं रखा गया था। अधिनियम के अनुसार 15 अगस्त, 1947 (जो तारीख अधिनियम में ‘नियत दिन’ के रूप से जानी जाती है) को, भारत सरकार अधिनियम 1935 के अनुसार, भारत के स्थान पर, दो स्वतंत्र डॉमिनियनों (अधिराज्यों) को स्थापित किया जाएगा जो कि भारत और पाकिस्तान के रूप में जाने जायेंगे, और प्रत्येक डॉमिनियन की संविधान सभा को किसी भी संविधान को बनाने और अपनाने के लिए और भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम समेत किसी भी ब्रिटिश अधिनियम को निरस्त करने की असीमित शक्ति होगी।
अधिनियम के तहत, भारतीय डोमिनियन को सिंध, बलूचिस्तान, पश्चिम पंजाब, पूर्वी बंगाल के प्रांत और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत और असम में सिलहट जिले (जिसने अधिनियम के अस्तित्व में आने से पहले, एक जनमत संग्रह पर पाकिस्तान के पक्ष में वोट दिया था) को छोड़कर, भारत का अवशिष्ट क्षेत्र मिला।
7.0 भारत की संविधान सभा
जो संविधान सभा अविभाजित भारत के लिए चुनी गई और 9 दिसंबर 1946 को जिसकी पहली बैठक हुई थी, 14 अगस्त 1947 को भारत के प्रभुत्व के लिए संप्रभु संविधान सभा के रूप में पुनः इकट्ठा हुई।
इसकी संरचना के रूप में, यह याद रखना चाहिए कि यह प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष चुनाव द्वारा निर्वाचित की गयी थी। भारत की संविधान सभा देश के प्रांतीय विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा बनाई गई थी।
संविधान सभा के सदस्यों के चुनाव की योजना
- प्रत्येक प्रांत और प्रत्येक भारतीय राज्य या राज्यों के समूह को लगभग दस लाख के लिए एक के अनुपात में उनकी संबंधित आबादी के लिए आनुपातिक सीटों की कुल संख्या आवंटित की गई थी। नतीजतन प्रांत में 296 सदस्यों का चुनाव करना था और भारतीय राज्यों को 93 सीटें आवंटित की गयी थीं।
- प्रत्येक प्रांत में सीटों को उनकी संबंधित जनसंख्या के अनुपात में तीन प्रमुख समुदायों, मुस्लिम, सिख और सामान्य, के बीच वितरित किया गया।
- प्रांतीय विधान सभा के प्रत्येक समुदाय के सदस्यों ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के द्वारा एकल हस्तांतरणीय मत के साथ अपना स्वयं का प्रतिनिधि चुना था।
पहली बार के लिए डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में, भारतीय संविधान सभा ने भारत का संविधान बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ. सिन्हा के बाद,
डॉ. राजेंद्र प्रसाद सभा के अध्यक्ष बने। 30 से अधिक अनुसूचित वर्ग के सदस्यों सहित, संविधान सभा में ईसाई, एंग्लो इंडियंस और अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ वर्ग भी शामिल थे। हरेंद्र कुमार मुखर्जी ने अल्पसंख्यक समुदाय के अध्यक्ष होते हुए, सफलतापूर्वक ईसाइयों के लिए भी काम किया। श्री एच.पी. मोदी ने पारसी समुदाय का प्रतिनिधित्व किया एवं फ्रैंक एंथोनी ने संविधान सभा में देश के एंग्लो-इंडियन वर्ग का नेतृत्व किया।
सुश्री विजयलक्ष्मी पंड़ित और सरोजिनी नायडू संविधान सभा की प्रमुख महिला हस्तियों में से थीं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बी एन राव और मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद से लेकर के. एम. मुंशी, सरदार पटेल और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर तक हर एक का संविधान सभा के मौजूदा स्वरूप की दिशा में एक प्रमुख योगदान था।
29 अगस्त 1947 को अध्यक्ष के रूप में डॉ. अम्बेडकर के साथ एक आलेखन (ड्रा¬फ्टिंग) समिति, पिछली समितियों द्वारा प्रस्तुत विभिन्न रिपोर्टों के आधार पर बनाई गई थी। वर्ष 1948 में प्रस्तावों के एक क्रम सहित संविधान के एक प्रारूप को संबंधित समिति द्वारा गठित किया गया था। भारत की संविधान सभा ने ड्राफ्ट की धाराओं की जांच करने के लिए फरवरी 1948 और अक्टूबर 1949 में दो बैठकें आयोजित की। अंत में, 14 से 26 नवंबर 1949 तक संविधान सभा ने ड्राफ्ट के हर प्रावधान का विश्लेषण किया। भारत की संविधान सभा के तत्कालीन राष्ट्रपति ने 26 नवंबर 1949 को ड्राफ्ट पर हस्ताक्षर किए।
8.0 भारत के संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका)
भारतीय संविधान की प्रस्तावना को मूल रूप से महात्मा गांधी के सपने को पूरा करने के लिए बनाया गया था यानि कि उनके सपनों का भारत बनाने के लिए। भारतीय संविधान की प्रस्तावना का भारतीय संविधान के अस्पष्ट भागों में से कुछ की व्याख्या करने के लिए प्रयोग किया जाता है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भारत के संविधान का एक हिस्सा माना जाता है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना होने के मुख्य उद्देश्य हैंः
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान के अधिकार के लिए जिम्मेदार स्रोत को संदर्भित करती है।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान के उद्देश्यों का भी वर्णन करती है।
- प्रस्तावना को भारत के संविधान के सबसे महत्वपूर्ण भागों में से एक माना जाता है। भारतीय संविधान के मुख्य उद्देश्य पर केंद्रित, प्रस्तावना में चार उद्देष्य, समानता, न्याय, भाईचारे और स्वतंत्रता शामिल हैं।
इन चार उद्देश्यों के महत्व की चर्चा नीचे की गई हैः
समता - यह सभी के लिए समान अवसर की ओर संकेत करता है।
न्याय - यह राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करता है।
बंधुता - इसका अभिप्राय व्यक्तिगत गरिमा पर विशेष ध्यान के साथ देश की अखंड़ता और शक्ति को बनाए रखने से है।
स्वतंत्रता - यह भारत के हर नागरिक को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन देता है।
प्रस्तावना, जैसा कि इसे भारत के संविधान में प्रस्तुत किया जाता है, नीचे दी गयी हैः
‘‘हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्ववास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंड़ता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर
अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं’’।
8.1 प्रस्तावना का स्पष्टीकरण
अभिनीत शब्द ‘‘हम भारत के लोग ... हमारी संविधान सभा में ..., एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं’’, इस लोकतांत्रिक सिद्धांत का प्रतीक है कि शक्ति अंततः देश के लोगों के हाथों में निहित है। यह इस बात पर जोर देता है कि संविधान भारत की जनता द्वारा और जनता के लिए बना है और देश के बाहर किसी भी सत्ता ने उन्हें नहीं दिया है।
संप्रभुः संप्रभु शब्द का अर्थ है - स्वतंत्र मतलब है कि भारत, आंतरिक और बाह्य संप्रभु है। अन्दर इसमें लोगों द्वारा चुनी गयी सरकार है और बाहर से, यह किसी भी विदेशी शक्ति के नियंत्रण से मुक्त है।
समाजवादीः समाजवादी शब्द का तात्पर्य यह है कि सरकार का अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण है। सरकार समान रूप से धन वितरित करने और सभी नागरिकों के जीवन के लिए एक सभ्य मानक प्रदान करने का प्रयास करेगी। एक समाजवादी देश होने के नाते, हमारा देश एक कल्याणकारी राज्य के गठन की दिशा में बढ़ने की प्रतिबद्धता पर जोर देता है।
धर्मनिरपेक्षः धर्मनिरपेक्ष शब्द का अर्थ है सभी धर्मों की समानता और देश में धार्मिक सहिष्णुता। हर व्यक्ति, को उसके चुने गए धर्म का उपदेश देने, अभ्यास और प्रचार करने का अधिकार है। सरकार को देश में किसी भी धर्म के पक्ष में या उसके खिलाफ भेदभाव नहीं करना चाहिए। सभी नागरिक बिना उनकी धार्मिक मान्यताओं के आक्षेप के, कानून की नजर में बराबर हैं।
लोकतंत्रीयः भारत एक लोकतांत्रिक देश है। भारत के लोग अपनी सरकार का चुनाव स्थानीय, राज्य या केंद्रीय, सभी स्तरों पर कर सकते हैं। जाति, धर्म, रंग, लिंग, धर्म या शिक्षा का प्रभाव हुए बिना, 18 साल से ऊपर का हर भारतीय अपने नेता का चुनाव करने के लिए अपने वोट डाल सकता है।
हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली हर सक्षम व्यक्ति को संसद में शामिल होने का मौका देती है। यह वर्णन करती है कि कोई व्यक्ति सत्तारूढ़ प्रणाली से महान नहीं है। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली चीन और उत्तर कोरिया आदि के विपरीत, जो एकल पार्टी राज्य हैं, एक बहुदलीय प्रणाली पर जोर देती है।
गणतंत्रः एक राजशाही में, राज्य के प्रमुख को वंशानुगत आधार पर जीवन भर के लिए नियुक्त किया जाता है। लेकिन एक लोकतांत्रिक गणराज्य एक इकाई है जिसमें राज्य के प्रमुख को एक निश्चित अवधि के लिए लोगों द्वारा सीधे या परोक्ष रूप से चुना जाता है। इसके अलावा, इस तरह कुछ देश हैं जो गणतंत्र हैं लेकिन लोकतांत्रिक नहीं जैसे चीन और म्यांमार। कुछ देश हैं जो लोकतांत्रिक हैं लेकिन गणतंत्र नहीं जैसे ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन का राज्य, आदि।
18 दिसंबर 1976 को भारत में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान के 42 वें संशोधन में कई परिवर्तन लाए। सरदार स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में एक समिति ने संविधान में संशोधन के सवाल का अध्ययन करने के लिए गठित होने के बाद इस संशोधन को पिछले अनुभव के आधार पर अधिनियमित करने की सिफारिश की थी। इस संशोधन के माध्यम से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को ‘संप्रभु‘ और ‘लोकतांत्रिक’ के बीच में जोड़ा गया था और ‘राष्ट्र की एकता शब्दों को ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ से बदला गया।
प्रस्तावना (प्रीएमबल) में संशोधन करनाः भारतीय संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है या नहीं यह प्रश्न केशवानंद भारती मामले में उठाया गया था। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि प्रस्तावना भी भारतीय संविधान का एक हिस्सा है अतः वह भी संशोधन की प्रक्रिया से अछूती नहीं है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 368 में निहित है। हालांकि साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी भी की थी कि ऐसा कोई भी संशोधन नहीं किया जा सकता जो संविधान की मूल विशेषताओं को परिवर्तित करता हो।
भारत का संविधान 2 साल, 11 महीने और 17 दिन की अवधि में तैयार किया गया था।
भारत सरकार के संसदीय स्वरूप को देश के संविधान द्वारा शुरू किया गया था। राष्ट्रपति सहित, भारत की संसद के दो सदन हैं अर्थात् लोक सभा और राज्य सभा। राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख के रूप में संघ की कार्यकारी का नेतृत्व करते हैं। प्रधानमंत्री भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 (1) के अनुसार मंत्रियों की परिषद के प्रमुख होते हैं। भारत के संविधान की 7 वीं अनुसूची इंगित करती है कि विधायी शक्तियां राज्य विधानमंडलों और भारत की संसद दोनों साझा कर रहे हैं।
9.0भारतीय संविधान की अनुसूचियां
भारत के संविधान की अनुसूचियों को संशोधन के माध्यम से जोड़ा जा सकता है। भारत के संविधान की जो बारह अनुसूचियां वर्तमान में प्रभावी हैं, नीचे दी गई हैंः
1. प्रथम अनुसूचीः यह अनुसूची राज्यों और भारत के संघ राज्य क्षेत्रों के बारे में है।
2. द्वितीय अनुसूचीः इस अनुसूची में, राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों, लोक सभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष, राज्य सभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष, विधान सभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष, राज्यों की विधान परिषद के सभापति व उप-सभापति, सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, और भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक केप्रावधानों का वर्णन है।
3. तृतीय अनुसूचीः शपथ या प्रतिज्ञान के फार्म इस अनुसूची में वर्णित हैं।
4. चतुर्थ अनुसूचीः इस अनुसूची में राज्यों की परिषद में सीटों के आवंटन को निर्दिष्ट किया गया है।
5. पांचवीं अनुसूचीः अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के नियंत्रण एवं प्रषासन के प्रावधान इस अनुसूची में वर्णित हैं। अनुसूची का संशोधन भी अनुसूची के भाग डी में शामिल है।
6. छठी अनुसूचीः इस अनुसूची में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित प्रावधान है।
7. सातवीं अनुसूचीः सूची प् या संघ सूची, सूची प्प् या राज्य सूची और सूची प्प्प् या समवर्ती सूची को इस अनुसूची में शामिल किया गया है।
8. आठवीं अनुसूचीः भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में चयनित 22 भाषाएँ इस अनुसूची में वर्णित हैं।
9. नौवीं अनुसूचीः कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यकरण इस अनुसूची में वर्णन है।
10. दसवीं अनुसूचीः संसद सदस्यों और राज्य विधान मंडलों के सदस्यों के दल परिवर्तन के आधार पर निरर्हता के उपबंध, इस अनुसूची में वर्णित हैं।
11.ग्यारहवीं अनुसूचीः पंचायतों की शक्तियों, अधिकार और जिम्मेदारियों के बारे में इस अनुसूची में वर्णन है।
12.बारहवीं अनुसूचीः नगर पालिकाओं की शक्तियों, अधिकारों और जिम्मेदारियों को इस अनुसूची में परिभाषित किया गया है।
10.0 भारतीय संविधान के स्रोत
भारत के संविधान किसी भी तरह से एक मूल दस्तावेज नहीं है। संविधान निर्माताओं ने उस समय के प्रभावशाली देशों के संविधानों का अध्ययन कर प्रासंगिक भागों का चयन किया और समय की मांग के अनुसार उन्हें संशोधित किया। भारतीय संविधान के प्रमुख प्रेरणास्त्रोत निम्नलिखित हैंः
- रूसी क्रांति 1917ः समाज, शिक्षा, आर्थिक और राजनीतिक में न्याय का आदर्श
- फ्रांसीसी क्रांति 1789-1799ः स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के आदर्श
- भारत सरकार अधिनियम 1935 सेः संघीय संरचना, राज्यपाल, न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, आपातकाल, प्रशासनिक विवरण
- ब्रिटिश संविधानः सरकार का संसदीय स्वरूप, कानून का शासन, विधान, एकल नागरिकता, सामूहिक जिम्मेदारी और प्रादेश, और द्विसदनीय व्यवस्था
- अमेरिकी संविधानः मौलिक अधिकार, स्वतंत्र न्यायपालिका, न्यायिक समीक्षा, राष्ट्रपति का महाभियोग, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हटाना, उप-राष्ट्रपति पद
- आयरिश संविधानः राज्य के नीति निर्देषक सिद्धांत (क्च्ैच्), राज्य सभा के सदस्यों का नामांकन, निर्वाचन कार्यालय और राष्ट्रपति चुनाव की विधि
- कनाडा (शुद्ध संघीय देश) : मजबूत केंद्र के साथ संघ, केंद्र के साथ अवशिष्ट शक्ति, केंद्र द्वारा राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति
- ऑस्ट्रेलियाः समवर्ती सूची, व्यापार, वाणिज्य और अंतर राज्य व्यापार की स्वतंत्रता, संसद की संयुक्त बैठक
- सोवियत संघः मौलिक कर्तव्य, प्रस्तावना
- दक्षिण अफ्रीकाः संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया, राज्य सभा के सदस्यों का चुनाव
- जापानः कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाएं
- जर्मनी का वाईमर (Weimar) संविधानः आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन
न्यूज़ीलैंड दुनिया में केवल तीन देशों में से एक है जो असंहिताबद्ध, ‘अलिखित’ संविधान (इसराइल और ब्रिटेन अन्य हैं) के साथ चलता है। यह समय के साथ बदलता एक लचीला, जैविक निर्माण है। इसके कुछ भाग लिखे जाते है, लेकिन वे किसी भी एक दस्तावेज में नहीं मिलते हैं। इसकी मोर्चाबंदी नही होती और संसद (ना कि संविधान) संप्रभु है। ज्यादातर विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि अदालतों को न्यायिक समीक्षा की शक्ति नहीं है।
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