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भारत में साहित्य
1.0 उत्तर भारतीय भाषाएँ और साहित्य
मध्यकाल तक भारतीय भाषाएँ विकास की प्रक्रिया से गुजर रहीं थी। प्राचीन अपभ्रंश ने कुछ क्षेत्रों में नया रूप ले लिया था, व कुछ दूसरे क्षेत्रों में अपने आप को विकसित कर रही थी। दो स्तरों पर भाषाओं का विकास हो रहा थाः लेखन की, व बोलचाल की। अशोक के दौर की प्राचीन ब्राम्ही-लिपि में बड़ा परिवर्तन हो रहा था। अशोक के काल में वर्णमाला के अक्षर आकार में अस्त-व्यस्त थे जबकि हर्ष के शासनकाल तक, अक्षरों का आकार समान और व्यवस्थित हो गया था जो सभ्यता के विकास का परिचायक था।
1.1 फारसी और उर्दू
एक स्वतंत्र भाषा के रूप में उर्दू का उदय 14वीं शताब्दी के अन्त में हुआ। तुर्क और मंगोलों के आगमन के साथ-साथ भारत में अरबी व फारसी भी आईं। फारसी कई सदियों तक दरबार की या राजभाषा रही। फारसी और हिन्दी के मिलन से उर्दू का उदय हुआ। दिल्ली पर विजय (1192) के पश्चात तुर्क इस क्षेत्र में बस गये। उर्दू का उदय, इन नवीन रहवासियों और सैनिकों के स्थानीय नागरिकों के साथ हुए व्यवहार का परिणाम है। प्रारम्भ में यह एक बोली थी, लेकिन जैसे लेखकों ने फारसी लिपि के साथ इसका उपयोग करना प्रारम्भ किया, इसमें भाषा के सारे गुण आ गये। इसे अहमदनगर, गोलकुण्ड़ा, बीजापुर और बरार के बहमनी राज्यों में बहुत महत्व मिला। यहां इसे दक्षिणी (डेक्कनी) कहा गया। समय के साथ यह दिल्ली में लोकप्रिय हो गयी।
प्रांरभिक 18 वीं शताब्दि में उर्दू ज्यादा लोकप्रिय हुई। लोगों ने उत्तर-मुगलकाल का वर्णन उर्दू में ही किया है। धीरे-धीरे इसमें पद्य एवं गद्य के साथ, साहित्य का विकास हुआ। अन्तिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर ने अपनी शायरी उर्दू में ही रची। हिन्दी उर्दू बोलने वालों के बीच उनके कुछ शेर बडे़ प्रसिद्ध हैं।
कई प्रसिद्ध शायर जिन्होनें आने वाली पीढ़ी के लिए अमिट शायरी छोड़ी है, ने उर्दू को उसका गौरवपूर्ण स्थान दिलवाया। अमीर खुसरो (1253-1325) सबसे प्रारम्भिक उर्दू शायर माने जाते हैं। उन्होंने सुलतान बलबन के शासनकाल में शायरी प्रारम्भ की और वह निजाम-उद-दीन औलिया के शार्गिद थे। उन्होंने अलग-अलग विषयों पर 99 किताबें लिखी। लैला-मजनू और आइना-ए-सिकन्दरी जो अल्लाउद्दीन ख्वाजा को समर्पित है उनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। गालिब, ज़ॉक़ और इकबाल उर्दू के प्रमुख शायरों में से हैं। इकबाल की उर्दू रचनाएँ उनके संग्रह बंग-ए-दारा में संग्रहित हैं। ”सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा” उनके द्वारा रचित महान गीत है जिसे हर राष्ट्रीय समारोह में गाया जाता है।
1.2 मुगलकाल के दौरान साहित्य का विकास
मुगल काल के दौरान साहित्य का खूब विकास हुआ। बाबर और हुमायूं साहित्य प्रेमी थे। बाबर स्वंय भी फारसी साहित्य के विद्वान थे। उनकी आत्मकथा तुज़क-ए-बाबरी को तुर्क साहित्य में ऊँचा स्थान प्राप्त है। हुमायूं ने इसका अरबी अनुवाद किया। वह स्वंय भी पढ़ने लिखने के शौकीन थे, और उन्होंने एक पुस्तकालय की स्थापना भी की थी। उनके समय की पुस्तक ”हुमायूं नामा” प्रसिद्ध है। अकबर भी विद्याध्यन के शौकीन थे। ”अकबरनामा” ”सुरसागर” व ”रामचरित मानस” उनके शासनकाल में रची गयी महान रचनाएँ हैं। मलिक मोहम्मद जायसी की पदमावत् और केशव की राम चन्द्रिका भी इसी समय रची गयी।
जहाँगीर साहित्य के संरक्षक थे। कई अध्येता उनके दरबार की शान थे। वह स्वंय भी उच्चकोटि के विद्धान थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा ”तुज़क-ए-जहाँगिरी” लिखी। शाहजहाँ के शासनकाल में अब्दुल हमीद लाहोरी नामक प्रसिद्ध विद्धान थे, जिन्होंने बादशाहनामा लिखा। औरंगजेब के शासनकाल में साहित्यिक गतिविधियाँ ठप हो गई।
मुगल सल्तनत के अंतिम दौर में उर्दू साहित्य का विकास आरम्भ हुआ, जिसका
श्रेय सर सैय्यद अहमद खाँ और मिर्जा गालिब को जाता है। सर सैय्यद अहमद खां
की भाषा बहुत सरल और प्रभावशाली थी। उनकी रचनाओं ने दूसरे शायर मिर्जा
गालिब, जो उस दौर के प्रसिद्ध व महान शायर थे, को भी प्रेरित किया। उन्होने
उर्दू शायरी को उच्च स्थान दिलाने में महान कार्य किया। कुछ और लेखक भी थे
जिन्होने उर्दू शायरी और साहित्य को समृद्ध किया। उनमें से कुछ, मौलवी
अल्ताब हुसैन अली, अकबर इलाहबादी और डॉ. मोहम्मद इकबाल प्रसिद्ध नाम हैं।
मध्ययुग में फारसी को दरबारी भाषा का दर्ज़ा मिला। कुछ ऐतिहासिक विवरण, प्रशासनिक दस्तावेज और तत्संबंधी साहित्य भी इसी भाषा में मिलता है। मुगल शासक साहित्य व कला के संरक्षक थे। बाबर की आत्मकथा ”तुजुक-ए-बाबरी” तुर्क भाषा में है, किन्तु उनके पोते अकबर ने उसका अनुवाद फारसी में करवाया। अकबर ने कई विद्वानों को सरंक्षण दिया। उन्होंने महाभारत का भी फारसी अनुवाद करवाया।
जहाँगीर की आत्मकथा ”तुजुक-ए-जहाँगीरी” फारसी में है और साहित्य की उत्कृष्ट कृति है। यह कहा जाता है कि नूरजहाँ एक कुशल शायरा थीं। मुगल दरबारियों द्वारा भी अच्छा फारसी साहित्य रचा गया। अबुल फज़ल का ‘अकबरनामा’ और ‘आइना-ए-अकबरी’ उच्चकोटि का साहित्य है, जहाँ से हमें अकबर के बारे में कई जानकारियाँ मिलती हैं। फैज़ी ने भी सुन्दर फारसी साहित्य रचा। मुगलकाल के पत्रों का संग्रह ”इंशा” भी हमें उपलब्ध है जो मुगल इतिहास पर प्रकाश ड़ालने के अलावा, पत्र-लेखन की विभिन्न शैलियाँ भी बताते हैं। चन्द्रभान पद्य और इतिहास लेखन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण नाम है जो शाहजहाँ के समकालीन था। उसी प्रकार ”तबकत-ए-आलमगिरी” औंरगजे़ब पर प्रकाश ड़ालती है। बदायूंनी अकबर के काल का लेखक है। 20 वीं शताब्दी में इकबाल ने फारसी में साहित्य रचा। ये सब अब भारतीय संस्कृति और विरासत का हिस्सा है।
कबीर, तुलसीदास, सूरदास और रहीम इस काल के प्रसिद्ध व उल्लेखनीय हिन्दू कवि हैं। कबीर के दोहे अभी भी लोकप्रिय है जबकि तुलसीकृत ”रामचरित मानस” हिन्दूओं की पवित्र पुस्तक मानी जाती है। बिहारी की ‘सतसई’ अकबर के शासनकाल में रची गई। केशव मिश्र के द्वारा ‘अंलकार शेखर’, अकबर के दरबार में लिखी गई। यह लेखन शैली पर महान संस्कृत ग्रंथ है। अकबर ने कई संस्कृत पुस्तकां जैसे भगवतगीता और उपनिषदों का फारसी अनुवाद करवाया।
1.3 हिन्दी साहित्य
इस काल में क्षेत्रीय भाषाओं जैसे हिन्दी, बंगाली, असमीया, उड़िया, मराठी और गुजराती का जबरदस्त विकास हुआ। दक्षिण में, 14 वीं शताब्दी में मलयालम का उदय एक स्वतंत्र भाषा के रूप में हुआ। इन सभी भाषाओं के उदय के कारण संस्कृत का पतन हो गया क्योंकि ये सभी भाषाएँ प्रशासनिक काम करने का माध्यम बन गयी। सन्तों द्वारा भक्ति आन्दोलन के उत्थान में इन भाषाओं के प्रयोग ने इनकी वृद्धि व विकास में योगदान दिया। हमने देखा कि उत्तर व पश्चिम भारत में कई बोलियों का विकास हुआ। ‘पृथ्वीराज रासौ’ हिन्दी की प्रथम पुस्तक मानी जाती है। इसमें पृथ्वीराज चौहान के जीवन का विवरण है। इसकी नकल करते हुए कुछ और रासौ भी रचे गये। क्षेत्र के विस्तार के साथ-साथ इसमें उपयोग में आने वाली भाषाएँ भी बदलती रहीं। नई परिस्थितियों को व्यक्त करने हेतु या तो नये शब्द गढे़ गये, या उन भाषाओं से लिये गये जो उनके प्रभाव में आयी। हिन्दी साहित्य ने संस्कृत की महान रचनाओं से मार्गदर्शन लिया। हिन्दी लेखकों व कवियों के दिमाग में भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ संदर्भ बिन्दु के रूप में रहा। 12 वीं व 13 वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में एक आन्दोलन प्रांरभ हुआ जिसे ‘भक्ति आन्दोलन’ कहा जाता है। जैसे ही इसका प्रभाव उत्तर भारत पहुँचा, इससे हिन्दी में रचे जाने वाले गद्य व पद्य को प्रभावित किया। अब समर्पण प्रकृति का काव्य रचा जाने लगा। तुलसीदास जैसे कवियों ने क्षेत्रीय भाषाओं में कविता रची जबकि कबीर, जो दर-बदर भटकते रहे, ने फारसी व उर्दू का भी उपयोग किया। यह कहा जाता है कि तुलसीदास ने वाल्मिकी कृत रामायण के आधार पर रामचरित मानस की रचना की, तो भी उन्होंने लोकगीतों व कहानियों के आधार पर उसमें कुछ नये दृश्य व परिस्थितियाँ भी जोड़ीं। उदाहरण के तौर पर वाल्मिकी रामायण में सीता का निर्वासन दर्शाया गया था जबकि तुलसीदास ने ऐसा नही किया। तुलसीदास ने अपने आदर्श नायक को ईश्वरत्व दिया जबकि वाल्मिकी के राम मानवीय गुण प्रधान थे।
हिन्दी का विकास 7 वीं व 8 वीं शताब्दी के मध्य अपभ्रंश काल में हुआ। इसे वीरगाथाकाल, अर्थात् वीरकाव्य का काल कहा जाता है। इसे आदि काल भी कहा जाता है। इसे राजपूत शासकों द्वारा संरक्षित किया गया क्योंकि इसने वीरता व कविता का नाम ऊँचा किया। कबीर व तुलसी इस काल के प्रसिद्ध कवि थे। आधुनिक समय में खड़ी बोली ज्यादा लोकप्रिय हो गई और विभिन्न प्रकार का साहित्य इसमें रचा गया था।
इसी प्रकार सूरदास ने सुरसागर की रचना की जिसमें कृष्ण के बालरूप और लड़कपन के साथ युवावस्था का भी चित्रण है। इसमें बताया गया है कि वे कैसे शरारत करते थे, कैसे गोपियां के साथ रास रचाते थे। इन कवियों का श्रोताओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। यदि राम व कृष्ण से संबधित त्योहार इतने महत्वपूर्ण हो गये, तो इसमें इन कवियों का भी योगदान है। उनका काव्य न केवल दूसरे कवियों बल्कि मध्यकालीन चित्रकारों को भी प्रेरित करता है। उन्होने मीराबाई, जो राजस्थानी में गातीं थीं, रसखान जो कृष्णप्रेमी मुस्लिम कवि को भी प्रेरित किया। नन्ददास एक महत्वपूर्ण भक्ति कवि थे। रहीम व भूषण की विषयवस्तु समर्पण न होकर आध्यात्मिक थी। बिहारी ने अपनी सतसई 17 वीं शताब्दी में रची, व इसमें श्रृंगार रस आदि की झलक मिलती है।
उपरोक्त वर्णित कवियों ने (कबीर को छोड़कर) अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति अपने पंथ को संतुष्ट करने के लिए की। कबीर को संस्थागत धर्म में आस्था नहीं थी। वह निर्गुण ईश्वर के उपासक थे। उसके नाम का स्मरण उनके लिए सब कुछ था। इन सारे कवियों ने उत्तर भारतीय समाज को नये तरीके प्रभावित किया। गद्य की तुलना में पद्य को स्मरण रखना आसान है अतः ये बहुत लोकप्रिय हो गये। पिछले 150 वर्षो में कई लेखकों ने लगभग सभी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी में लिखकर भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाने में योगदान दिया। महानतम बंगाली कवि, रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले भारतीय थे जिन्हें उनकी कृति ‘गीतांजली’ के लिए 1913 में साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला।
1.4 आधुनिक काल में हिन्दी की प्रगति
हिन्दी भाषाः आधुनिक हिन्दी भाषा का विकास 19 वी शताब्दी में प्रारंभ हुआ। सदासुख लाल और इंशाअल्ला खाँ इस काल के प्रमुख लेखक थे। भारतेन्दु हरीशचन्द ने भी हिन्दी को मजबूती प्रदान की। राजा लक्ष्मण सिंह ने शंकुतला का हिन्दी अनुवाद किया। चूँकि कार्यालयीन काम उर्दू में होते थे तो भी विपरीत परिस्थितियों में भी हिन्दी का विकास होने लगा।
हिन्दी साहित्यः भारतेन्दु हरीशचन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल और श्यामसुन्दर दास हिन्दी साहित्य के प्रमुख गद्य लेखक थे। जयशंकर प्रसाद, मैथलीशरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पंत, पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर और हरिवंश राय बच्चन आदि ने हिन्दी काव्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसी प्रकार प्रेमचन्द, वृंदावन लाल वर्मा और इलाचन्द्र जोशी ने उपन्यास लिखकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया।
यदि हम उपरोक्त लेखकों को देखते हैं तो हम पाते हैं कि वे सब उद्देश्यपूर्ण लेखन करते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू समाज सुधार और रूढ़ियों से मुक्ति के लिए लिखा। मुंशी प्रेमचन्द ने समाज का ध्यान दलितों व गरीबों की ओर आकर्षित करना चाहा और पद्मभूषण महादेवी वर्मा ने समाज में महिलाओं की स्थितियों की ओर ध्यान खींचा। निराला आधुनिक भारत को जागृत करने वाले प्रणेता बने।
1.5 बंगाली, असमिया और उड़िया साहित्य
हिन्दी के साथ साथ सबसे उल्लेखनीय साहित्य बांग्ला में रचा गया। कलकत्ता के निकट 1800 ई. में बेपटिस्ट मिशन प्रेस की स्थापना की गई। इसी वर्ष, इस्ट इण्ड़िया कम्पनी ने फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना भी की। इसमें जनपद सेवाओं के कर्मचारियों को कम्पनी कानून, भारतीय परम्परा, धर्म, भाषा और साहित्य की शिक्षा दी जाती थी ताकि वे कंपनी के हित में ज्यादा दक्षता पूर्ण कार्य कर सकें।
भक्ति आन्दोलन के उदय और चैतन्य के भजनों ने बांग्ला के विकास में प्रेरक का काम किया। इस दौर में मंगल काव्य भी प्रसिध्द हुआ। उन्होंने स्थानीय देवताओं, जैसे चण्ड़ी की उपासना का सिध्दान्त प्रतिपादित कर पुराणिक ईश्वर शिव व विष्णु को लोक देवता बना दिया। बांग्ला के विकास में विलियम केरी ने महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करते हुए, बंगाली व्याकरण और इंग्लिश बंगाली शब्दकोश प्रकाशित किया। उन्होंने कई नाटक और कहानियाँ भी लिखी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि शब्दकोश और व्याकरण साहित्य के विकास में मदद करते है। ये पुस्तकें लेखकों को सही-सही वाक्य-विन्यास और उचित शब्द चयन में मदद करती हैं। यद्यपि इसाई मिशन द्वारा संचालित प्रेस का उद्देश्य इसाई धर्म का प्रचार था, किन्तु स्थानीय लोगों द्वारा संचालित दूसरी प्रेसों ने गैर-इसाई साहित्य के फलने-फूलने में मदद की। पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, समाचार-पत्र आदि प्रकाशित किये जाने लगे। इसी समय, बहुत धीमे ही सही, शिक्षा का प्रचार प्रसार होने लगा। 1835, के पश्चात् जब मैकॉले ने प्राच्य समर्थकों के विरूध्द जीत हासिल कर ली, तब से इसकी गति तेज हो गई । 1854 में, सर चार्ल्स वुड का ‘‘लॉर्ड़ डलहौज़ी को संदेश’’ आया। 1857 में कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई।
स्कूल व कॉलेज की पुस्तकों के अलावा, दूसरा साहित्य भी रचा गया। राजा राम मोहन राय ने अंग्रेजी के साथ बंगाली में लिखकर बांग्ला साहित्य को दक्षता प्रदान की। ईश्वर चन्द विद्या सागर (1820-‘91) भी प्रारम्भिक दौर के महत्वपूर्ण लेखक थे। इनके साथ-साथ बंकिम चन्द चटर्जी (1834-‘94), शरतचन्द चटर्जी (1876-1938), और प्रसिध्द इतिहासकार आर.सी. दत्त ने भी बांग्ला साहित्य के निर्माण में योगदान दिया। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति जिसने सम्पूर्ण भारत को प्रभावित किया वह थे - रविन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941)। उनकी कलम से साहित्य की सभी विधाएँ जैसे उपन्यास, नाटक, कहानी, कविता, आलोचना, निबंध, संगीत, आदि रचे गये। अपनी कविता गीतांजली के लिए 1913 में उन्हें साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला ।
19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध व 20वीं
शताब्दी के पूर्वाध मे राष्ट्रवादी साहित्य लिखा गया। इस नवीन प्रचलन में
दो चीजें देखी गईं। पहला, प्राचीन इतिहास व संस्कृति के प्रति मोह और
ब्रिटिश शोषण के विरूध्द जागरूकता। दूसरा भारतीयों से विदेशी शासन को किसी
भी तरीके से उखाड़ फेकनें का आवहान। इस नई परम्परा की अभिव्यक्ति तमिल में
सुब्रमण्यम भारती और बंगाली में काजी नजरूल इस्लाम ने की। दोनों कवियों ने
भारतीयों में राष्ट्रवादी भावनाओं का विकास करने में अमूल्य योगदान दिया।
इनका काव्य कई अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवादित हुआ।
बांग्ला के
समान ही, असमिया भाषा भी भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप विकसित हुई। शंकरदेव,
जिन्होंने असम में वैष्णव धर्म को प्रचलित किया ने असमिया में कविताएँ
लिखीं। पुराणों का भी असमिया अनुवाद हुआ।
प्रारम्भिक असमिया साहित्य
में, बुरंजि की उपलब्धता है। शंकरदेव के कुछ भजनों को लोग आज भी आत्मिक
आनन्द के साथ गाते हैं, किन्तु केवल 1827 के बाद ही उत्कृष्ठ असमिया
साहित्य सृजन हुआ। लक्ष्मीनाथ बेजबरूआ और पद्मनाब गोहेन बरूआ अविस्मरणीय
हैं। फकीर मोहन सेनापति और राधानाथ राय, उड़िसा के साहित्य के प्रमुख
हस्ताक्षर हैं। उड़िया साहित्य के इतिहास में उनका लेखन सम्मान पाता है।
उपेन्द्र भांजा (1670-1720) भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उन्होनें उड़िया
साहित्य में नई धारा की शुरूआत की। सरलादास की रचनाओं को उड़िया साहित्य की
पहली रचनाएँ माना जाता है।
1.6 पंजाबी और राजस्थानी साहित्य
पंजाबी
रंग-बिरंगी भाषा है। इसे गुरूमुखी और फारसी दो लिपियों में लिखा जा सकता
है। 19 वीं शताब्दी के अन्त तक गुरूमुखी केवल सिख्खों के पवित्र ग्रन्थ आदि
तक सीमित थी। ग्रन्थी, जो गुरूद्वारों में गुरूमुखी का वाचन करते थे, के
अतिरिक्त बहुत कम लोग इसे जानते थे। यद्यपि पंजाबी मे प्रचुर साहित्य
उपलब्ध था। गुरू नानक पंजाबी के पहले कवि थे। कई सूफी-सन्त कवि अपने भजन इस
भाषा में गाते थे। सारे सूफी कवि अपने कविता के लेखन के समय फारसी लिपि का
उपयोग करते थे। फरीद सबसे महान कवि हैं, जिनकी कविता को आदि ग्रन्थ में
स्थान मिला। आदि ग्रन्थ में चार धर्मगुरूओं की कविताएँ भी संग्रहित हैं। ये
सारा साहित्य 16 वीं व 17 वीं शताब्दी में लिखा गया। बाद में गुरूओं में
से नौंवे गुरू तेग बहादुर ने भी आदि ग्रन्थ में अपना योगदान दिया। गुरू
गोविंद सिंह की शिक्षा पटना (बिहार) में हुई जहाँ उन्होने फारसी और संस्कृत
सीखी। उन्होनें दो सवैया पंजाबी में रची किन्तु ये आदि ग्रन्थ का हिस्सा
नही हैं।
जगत-प्रसिध्द अमर प्रेम कहानियाँ हीर-रांझा, शशि-पुन्नु, और सोहनी-महिवाल इस भाषा में रची गयी । पूरन भगत की कहानी भी रची गयी। कुछ प्रसिध्द और कुछ अनजान कवियों ने बहुत सुन्दर कविताएँ रची। स्थानीय कवियों ने भी सुन्दर काव्यमय कहानियाँ रची। इन लोकगीतों को संरक्षित रखा गया। वारिस शाह की ‘हीर’ इन सब में महत्वपूर्ण हैं। यह प्रारम्भिक कार्यों में सबसे लोकप्रिय है। यह पंजाबी कविता का मील का पत्थर है। सूफी सन्त बुल्ले शाह सबसे लोकप्रिय हैं। उन्होने बड़ी संख्या में गीत लिखे। ‘कफी’ उनकी लोकप्रिय रचना शैली थी, इसे शास्त्रीय संगीत के रूप में गाया जाता है। काफी लोगों द्वारा आनन्दमयी तरीके से गाया जाता था।
20 वीं शताब्दी में
पंजाबी आत्मनिर्भर भाषा हो गई। भाई वीर सिंह ने राना सूरत सिंह नामक
महाकाव्य भी लिखा। पूरन सिंह और डॉ. मोहनसिंह जाने-माने लेखक थे। पंजाबी
साहित्य के निबंध, कहानी, कविता, उपन्यास, आलोचना आदि ने भाषा को खूब
संवारा।
राजस्थानी, हिन्दी की एक बोली, ने भी अपनी भूमिका अदा की।
भाट और चारण एक जगह से दूसरी जगह भटकते थे एवं वीरता की कविताएँ व कहानियाँ
जीवित रखते थे। इस काव्य से ही ले. कर्नल ऑड़ ने राजस्थान की वीरतापूर्ण
कहानियाँ ढूंढ़ी व अपनी पुस्तक ‘एनल्स एंड एंटीक्विटिस ऑफ राजस्थान’ लिखी।
मीराबाई के भक्ति गीतों का इतिहास और भक्ति आन्दोलन दोनो में ही उच्च
स्थान प्राप्त है। मीरा का उनके कृष्ण के प्रति मोह इतना तीव्र था कि वह
श्रोता को नीरस और लौकिक संसार रूपी भवसागर को पार करवा देता था। भक्ति
आन्दोलन के विकास के कारण क्षेत्रीय भाषाओं जैसे हिन्दी, गुजराती, पंजाबी,
कन्नड़, तमिल, और तेलुगू का विकास हुआ ।
1.7 गुजराती साहित्य
14
वीं व 15 वीं शताब्दी का गुजराती साहित्य भक्ति गीतों के रूप में उपलब्ध
है। इसमें अभी भी गुजरात की प्रसिध्द परम्परा की झलक मिलती है। इस क्षेत्र
में नरसी मेहता का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। गुजरात के लोग इन भक्ति
गीतों को अपने लोक नृत्यों और धार्मिक कार्यो में उपयोग करते थे।
नर्मदा
शंकर लालशंकर दवे की कविता ने गुजराती साहित्य को नया पथ सुझाया। गोवर्धन
राम का उपन्यास सरस्वती चन्द एक महान रचना है जिसने दूसरे लेखको को भी कुशल
बनाया। डॉ. के. एम. मुंशी का नाम भी अविस्मरणीय है। वह एक उपन्यासकार,
निबंधकार और इतिहासकार थे और उन्होने ऐतिहासिक उपन्यासों का एक बड़ा संग्रह
अपने पीछे छोड़ा। उनके उपन्यासों में वास्तविकता और कल्पना का मिश्रण किया।
पृश्वी वल्लभ उनका एक उत्कृष्ट उपन्यास है। नरसी मेहता का उल्लेख किया ही
जाना चाहिए जिनके गीतों में कृष्ण की भक्ति ने न केवल उन्हें लोकप्रिय
बनाया बल्कि गुजराती भाषा को भी जनप्रिय बनाया।
2.0 ईसाई मिशनरी की भूमिका
विदेशियों
के भारत आगमन के साथ-साथ विभिन्न विदेशी भाषाएँ जैसे अंग्रेजी, फ्रेंच, ड़च
और पुर्तगाली भी भारत आई जिन्होने भारतीय भाषाओं को समृध्द किया, क्योंकि
इन्होने भारतीय भाषाओं में अपने शब्दकोश से नए शब्द जोडे़।
भारतीय
साहित्य के विकास में इसाई मिशनरीयों का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है ।
उन्होंने स्थानीय भाषाओं के लिए शब्दकोश और व्याकरण की पुस्तकें प्रकाशित
की। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तके यूरोप से आने वाले पादरियों के लिए थी। इन
पुस्तकों ने इन पादरियों के साथ, स्थानीय लेखकों की भी मदद की।
दूसरी
महत्वपूर्ण भूमिका लिथो ग्राफिक प्रिंटिग प्रेस की थी जो कि 19 वीं
शताब्दी के आरम्भ में भारत में आई। विदेशियों ने इन प्रेसों की स्थापना
धर्मान्तरित होने वाले लोगों के लिए की। अतः, साहित्य के विकास में
प्रिंटिग प्रेस की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
तीसरा महत्वपूर्ण
बिंदू था मिशनरीस के द्वारा स्कूल व कालेजों की स्थापना। यहाँ अंग्रेजी के
अतिरिक्त, स्थानीय भाषाएँ भी पढ़ाईं जाती थीं। शायद उनका उद्देश्य ईसाई
धर्म का प्रचार-प्रसार था किन्तु इससे एक नए शिक्षित वर्ग का उदय भी हुआ,
जिसकी साहित्य पढ़ने की इच्छा थी। भारतीय भाषाओं एवं साहित्य का इतिहास
लिखते हुए मिशनरीस् की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता।
2.1 अंग्रेजी साहित्य के मुख्य भारतीय लेखक
भारत
में अंग्रेजी साहित्य के कई लेखक थे। भारतीयों ने 1835 के पश्चात अंग्रेजी
लिखना प्रारम्भ किया, जब अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम बनी। कई भारतीय लेखकों
ने अंग्रेजी में अपना लेखन किया। कुछ ने अपनी रूचि कविता में दिखाई, तो
कुछ ने गद्य लेखन किया। माईकल मधुसुदन दत्त, तारा दत्त, सरोजिनी नायडु और
रविन्द्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजी काव्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, जवाहरलाल नेहरू और फिरोजशाह मेहता ने अंग्रेजी गद्य
लिखा।
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