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1.0 प्रस्तावना
वैदिक ग्रन्थ प्राचीन भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक साहित्य के रूप में जाने जाते हैं। ‘वेद’ मुख्यतः संस्कृत में रचित पुस्तकों का संग्रह है जिनमें भौतिक ज्ञान (सांसारिक), धार्मिक ज्ञान (अनुष्ठान) व आध्यात्मिक ज्ञान (Indology) पाया जाता है। ‘वैदिक’ शब्द का जन्म, संस्कृत शब्द ‘वेद’ से हुआ है, जिसका अर्थ है ‘‘ज्ञान का प्रकटन’’। वैदिक इतिहास के अनुसार ये ग्रन्थ लगभग 5000 वर्ष पूर्व रचे गये। आधुनिक विचारक इस रचनाकाल को स्वीकार नहीं करते हैं, किन्तु वास्तव में इस तथ्य का कोई महत्व नहीं है कि इनका रचनाकाल क्या है, क्योंकि इन ग्रन्थों में संग्रहित ज्ञान इनके लेखन से कहीं पहले से अस्तित्व में था।
वैदिक ज्ञान को आत्मसात करके वेदों को सरलता से समझा जा सकता है। यह ‘वैदिक आत्म-ज्ञान’ आधुनिक पाठकों के लिए एक अजूबा हो सकता है। वेदों के उद्गम व इतिहास के बारे में विभिन्न मत वेदपाठी विद्धानों और आधुनिक विचारकों की सोच में आधारभूत अन्तर होने से है।
भारतीय विद्या (Indology) के अनुसार ‘‘वैदिक ग्रन्थों’’ का तो अस्तित्व ही नहीं है। आधुनिक भारतीय विद्या के अनुसार पुस्तकों का संग्रह एक सतत् बनाया गया ज्ञान नहीं है, बल्कि वह तो केवल विभिन्न स्त्रोतों से एकत्र किये गये लेख मात्र हैं। भारतीय विद्या (Indology) दावा करती है कि वेद 1500-1000 ई.पू. तब लिखे गये जब विभिन्न जनजाति समूहों से वैदिक संस्कृति का निर्माण हुआ एवं इसकी षुरूआत उस काल्पनिक आर्य आक्रमण काल से होती है जब वे भारतीय उपमहाद्वीप में आये। यदि हम इस परिदृष्य पर विश्वास करें तो यह मानना स्वाभाविक होगा कि भारतीय ग्रन्थ एक अव्यवस्थित, पौराणिक पाठों का समूह मात्र हैं।
वैदिक ग्रन्थ प्राचीन संस्कृतियों, कालनिरपेक्ष श्रुतियों एवं दिव्य अवतारों का एक अलग ही चित्र निर्मित करते हैं। वैदिक ज्ञान एक सुव्यवस्थित संरचना है जिसके उद्देश्य सुपरिभीत है और यह उन ऋशियों द्वारा संग्रहित किया गया जिनके मुखिया वेद व्यास (श्री कृष्ण के ही एक अवतार) माने जाते हैं। लगभग 5000 वर्ष पूर्व इन ऋशियों ने इस ज्ञान को आने वाले छल-छद्म रूपी कलयुग से बचाने के लिये व्यवस्थित रूप से लिखा। कलयुग को विवाद और पाखंड का युग तथा काल चक्र का सबसे गिरा हुआ युग माना जाता हैं।
वैदिक ग्रन्थों की तुलना एक अनेक चरणों वाली सीढ़ी से की जा सकती है। प्रत्येक चरण के लिए विशिष्ट ग्रन्थ हैं। वैदिक ग्रंथ लक्ष्य एवं उस लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग भी बताते हैं। वेद पंथहीन हैं क्योंकि वे सभी ‘वर्गों‘ के लोगों के उत्थान के बारे में बताते हैं और सभी को अगली सीढ़ी पर चढ़ने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। यहां कोई परिवर्तन या दबाव नहीं होता क्योंकि प्रत्येक को स्वयं ही आगे बढ़ना होता है। वेद कहते हैं कि ‘‘पक्षियों के एक झुंड में भी हर पक्षी को स्वयं ही उड़ना होता है।‘‘
व्यक्तिगत विकास एक जन्म तक ही सीमित नहीं होता। वेदों की पुनर्जन्म की अवधारणा के अनुसार इस प्रतीकात्मक सीढ़ी का प्रत्येक चरण ही एक जीवन होता है। ‘‘सहिष्णुता’’ की हिन्दू अवधारणा एक दृढ़ दार्शनिक विश्वास पर आधारित है और इसे विलय, उपेक्षा तथा ‘सब एक है‘ के सिद्धांत से विमूढ़ नही किया जा सकता।
सतही तौर पर, वैदिक साहित्य बिखरा हुआ और विरोधाभासी प्रतीत हो सकता है, किन्तु अन्ततः ज्ञात होता है किस प्रकार वेद ‘परमज्ञान’ के साथ ‘परम लक्ष्य’ की व्याख्या करते हैं।
2.0 अर्थ
‘वेद’ शब्द की व्युत्पत्ति मूल धातु ‘विद’ से होती है जिसका अर्थ है ‘‘जानना’’ या ‘‘सम्यक ज्ञान’’। इसे ‘‘श्रुति’’ कहा जाता है, जो वैदिक साहित्य की एक विशिष्ट शाखा है, जिसका अर्थ है ‘‘पवित्र ज्ञान’’ या ‘‘दिव्य ज्ञान’’। यद्यपि ‘‘श्रुति’’ की स्तुतियाँ विशिष्ट ऋशियों द्वारा रचित हैं, तब भी परम्परानुसार ये उन्हें बताई गई मानी गई हैं न कि उनके द्वारा निर्मित। अतः वेद अपुरूशेय (मनुश्य द्वारा निर्मित नहीं) और नित्य (सदैव विद्यमान) माने जाते हैं तथा ऋशि मंत्रदृष्टा जिन्होने परमात्मा से ये ज्ञान अपनी दृष्टि से सीधे प्राप्त किया।
2.1 संरचना
वैदिक साहित्य दो भागों, संहिता व ब्राह्मण, में बांटा गया है। पुनश्च ब्राह्मण भी तीन भागोंः ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिशदों में विभाजित है।
2.1.1 संहिताः संहिता विभिन्न देवताओं की प्रशंसा में गाई जाने वाली स्तुतियाँ होती हैं। ये वैदिक साहित्य का अति महत्वपूर्ण भाग हैं। ये चार हिस्सों - ऋग्वेद, संहिता, सामवेद संहिता, यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता, में विभाजित हैं।
ऋग्वेद (अर्थात् प्रशंसा का वेद) में 1017 सूक्त हैं, जिनके 11 पूरक सूक्त हैं जिन्हें वलखिल्य कहा जाता है, इसे 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। प्राचीनतम सूक्त मण्डल II से मण्डल VII में रखे गये हैं, (जिन्हें कुल ग्रंथ भी कहा जाता है क्योंकि इनकी रचना का स्त्रोत गृत्समद, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज और वशिष्ठ जैसे ऋशियों को माना जाता है)। जबकि मण्डल I और X में नवीनतम सूक्त हैं। ऋग्वेद (अर्थात् स्तुति का वेद) सभी वेदों में प्राचीनतम व सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं इसके सुक्तों में विभिन्न कुलों के ऋशियों द्वारा अलग-अलग कालों के निर्माण का वर्णन किया गया है। यह एक पूर्णतः धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें देवताओं का आहवान किया गया है। कुछ सूक्तों व रचनाओं में ‘‘दान-स्तुति’’ से संबंधित रचना है जो समकालीन वैदिक राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक जीवन पर भी प्रकाष डालती है। यह मानव मस्तिश्क के विकास के उस दौर का प्रतिनिधित्व करते हैं जब प्राकृतिक घटनाओं को ईष्वरीय रूप मान लिया गया। कला के रूप में भी इसका विश्व साहित्य में उत्कृष्ट स्थान है। इसके तीसरे मण्डल में, (विश्वमित्र द्वारा रचित), प्रसिद्ध गायत्री मंत्र है, जो सूर्य की देवी सावित्री को समर्पित है।
सामवेद (जिसका शाब्दिक अर्थ है - सामन या सुमधुर गीत) में 1810 सूक्त हैं, जिसमें से 75 को छोड़ सभी ऋग्वेद के आठवें व नौवें मण्डल से लिये गये हैं। इन्हें उद्गात्री ऋशियों द्वारा यज्ञ में आहुति के समय जिस क्रम में गाया जाता है, उसी क्रम में व्यवस्थित किया गया है। इसके मंत्र गेय-पद हैं और भारतीय संगीत का उद्गम भी यहीं से होता है।
यजुर्वेद (यजुया सूत्रों का वेद) उन भिन्न मंत्रों, रचनाओं एवं नियमों का संग्रह है जिसे यज्ञ (बलिदान) में उपयोग किया जाता है। इसका उपयोग अधवर्यु ऋशियों द्वारा यज्ञ रीति समपन्न करने के लिये होता है। प्रसिद्ध राजसूय एवं वाजपीय यज्ञ का जिक्र भी हमें यजुर्वेद में ही मिलता है।
ऋग्वेद व सामवेद के विपरीत यजुर्वेद में पद्य के साथ गद्य भी उपलब्ध है। यह कृश्ण यजुर्वेद (श्याम) व शुक्ल यजुर्वेद (श्वेत) में बांटा गया है। कृष्ण यजुर्वेद तुलानात्मक रूप से प्राचीन है और इसमें रचनाओं (पद्य) के साथ-साथ गद्य भी है। कृष्ण यजुर्वेद में केवल रचनाएँ है। कृष्ण यजुर्वेद की चार संहिताए हैंः कंतुक, कपिस्थल कथा, मैत्रेयी व तैतरीय संहिता, किन्तु शुक्ल यजुर्वेद की केवल एक संहिता - वाजस्नयी है।
अथर्व वेद की रचनाएँ जादू-टोने एवं तंत्र-मंत्र की व्याख्या करती हैं। इसके सूक्त बुरी आत्माओें एवं बीमारियों को दूर करने का रास्ता बताते हैं। यह प्रत्यक्ष रूप से क्षत्रियों से संबंधित है और इसके दो सूक्त युद्ध घोश के लिये हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह अनार्यों द्वारा रचित होने के कारण उनके रीति रिवाजों पर प्रकाश डालता है। यह ‘‘पिप्लाद’’ और ‘‘शौनक’’ नामक दो खण्डों में विभाजित है। ‘‘पिप्लाद’’ के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है जबकि ‘‘शौनक’’ में लगभग 760 रचनाएँ है जिन्हे 20 मण्डलों में बांटा गया है।
2.1.2 ब्राह्मण ग्रन्थः वैदिक साहित्य का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण भाग ‘‘ब्राह्मण ग्रन्थ’’ है। इनमें आहुति व प्रार्थना से संबंधित रचनाएँ हैं। इनमें धार्मिक रीतियों को गद्य में बताया गया है, संक्षेप में, ये यज्ञ व बलि से संबंधित हैं। महत्वपूर्ण ब्राह्मण हैं - (1) ऐतरेय, (2) कौशीतकि, (3) ताण्डयमहा, (4) जैमिनीय, (5) तैत्तिरीय, (6) शतपथ और (7) गोपथ। ऐतरेय एवं कौशीतकि ऋग्वेद से संबंधित हैं। ताण्डयमहा और जैमिनीय सामवेद के, तैत्तिरीय और शतपथ यजुर्वेद के, और गोपथ अथर्व वेद के ब्राहम्ण हैं। तीसरा ब्राह्मण ताण्डयमहा प्राचीनतम है, जिसमें व्रत्युस्तोमा नामक पद्धति का विवरण है जिससे अनार्य लोगों को आर्य कुल में शामिल किया जा सकता था। इन सबमें सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण शतपथ ब्राह्मण है, जिसमें यज्ञ एवं आहुति के रीति-रिवाजों के अतिरिक्त धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और उत्तर वैदिक काल की परम्पराओं की जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के ब्राह्मणों का उपयोग ‘‘होत्र’’ द्वारा किया जाता है, यजुर्वेद के ‘‘अधवर्यु’ द्वारा, जबकि सामवेद के ब्राह्मणों का उपयोग ‘‘उद्गात्री’’ ऋषि करते हैं।
2.1.3 अरण्यकः अरण्यक ग्रन्थ रहस्यवाद, प्रतीकात्मकता का महत्व और दर्षन की व्याख्या करता है। अरण्यक में जहाँ एक ओर संहिता व ब्राह्मण ग्रन्थों के समान पौराणिक व रीति संबंधी रचनाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर उपनिशदों की दार्षनिक अन्तर्दृष्टि भी है। कर्मकाण्ड का प्रतीकात्मक महत्व बताया गया है व इस प्रतीक का ज्ञान होना, कर्मकाण्ड करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उपनैशदिक चिन्तन का आरम्भ भी इसी तथ्य से होता है। ऐतरेय व कौशीतकि अरण्यक, ऋग्वेद से संबंधित हैं। कौशीतकि अरण्य ‘‘इह अग्नि होत्म ’’ नामक एक रीति का निश्पादन करता है। इससे पता चलता है कि आंतरिक दान (या त्याग) को बाहरी दान (या त्याग) से पृथक कर देखा जा सकता है। यह तथ्य ब्राह्मण से उपनिशद की परिवर्तन यात्रा में महत्वपूर्ण है।
2.1.4 उपनिशदः उपनिशद दर्शनिक ग्रंथ है जिनमें विश्वात्मा, परम्तत्व, आत्म साक्षात्कार, विश्व का उद्गम, प्रकृति का रहस्य आदि विशयों पर प्रकाश डाला गया है। उपनिशद वैदिक काल में भारतीय चिन्तन के शीर्श को दर्शाते हैं। ये ग्रंथ कर्मकाण्ड़ों और रीतिरिवाजों की आलोचना करते हुए विश्वास और ज्ञान पर बल देते है। सभी उपनिशदों में 12 महत्वपूर्ण हैं। ये हैं - (1) ऐतरेय, (2) कौशीतकि, (3) छांदोग्य, (4) केन, (5) तैत्तिरीय, (6) कठ, (7) ष्वेताष्वतर, (8) बृहदारण्यक, (9) ईष, (10) मुण्डक, (11) प्रश्न, (12) माण्डूक्य (इनमें से (1) और (2) ऋग्वेद से संबंधित हैं, (3) और (4) समावेद से, (5) से (9) यजुर्वेद से, और अंत में (10) से (12) अर्थववेद से)।
उपनिशदों के अनुसार ज्ञान के 2 स्तर होते हैंः उच्च और निम्न। उच्च ज्ञान अनष्वर ब्राह्मण को समझने में मदद करता है जबकि निम्न ज्ञान वेदों और उनके छः वेदांगों से प्राप्त किया जा सकता है। मुंडक उपनिशद परम ब्रह्म और लौकिक ज्ञान के बीच स्पश्ट अंतर बताने के लिये विख्यात है।
परंतु उनमें कुछ सिद्धांत समान हैं। एक ही उपनिशद में विचारों, पद्धतियों और निश्कर्शों में स्पष्ट मतभेद देखा जा सकता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उपनिशद चिन्तन ग्रंथ माने गये हैं। वास्तव में, जैसा की कुछ विद्धानों ने कहा है, उपनिशद अंर्तदृष्टि के सामंजस्य से भरे हुए हैं ना कि तर्क के सामंजस्य से।
यह नहीं माना जा सकता की उपनिशद एक समान या एकीकृत दार्शनिक पद्धति प्रस्तुत करते है, उपनिशदों का एक और महत्वपूर्ण गुण धर्म यह है, विषेश रूप से प्रारंभिक उपनिशदों का, कि उनकी निश्पत्ति वेदों से ही होती है। उपनिशदों को वेदों से भिन्न उनकी मौलिकता के कारण नहीं बल्कि, ब्रह्मांड और मनुष्य के अंर्तसंबंधों की उनके द्वारा की गई सटीक व्याख्या की प्रवृति के कारण जाना जाता है। यहाँ मनुष्य और ब्रह्मांड के बीच का संबंध, कोई कर्म न होकर ज्ञान है।
पुनर्जन्म की अवधारणा भी सबसे पहले बृहदारण्यक उपनिशद और छांदोग्य उपनिशद में दिखाई पड़ती है। इसके अलावा मृत्यु की अवधारणा की भी बृहदारण्यक उपनिशद में व्याख्या होती है। वह बताता है कि निरंतर मृत्य एक संकल्पना जो पहली बार ब्रह्मांड में पायी गई - को एक निश्चित ज्ञान के माध्यम से दूर किया जा सकता है। प्रसिद्ध विश्व-आत्मा का सिद्धांत छांदोग्य उपनिशद की कहानियों में मिलता है। उनमें से एक कहानी बताती है कि कैसे पाँच गृहपति, महान दार्शनिक उत्कल आरूणी के साथ कैकेय के राजा अष्वपति के पास आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिये जाते हैं। किन्तु इन सब में छांदोग्य उपनिशदों का वह भाग सबसे अहम् है जिसमें उत्कल उनके पुत्र श्वेतकेतु को आत्मा और ब्राहमण के बीच के कोई अन्तर नहीं होने, को समझाता है।
2.1.5 वेदांग और सूत्र-साहित्य : वेदो के छः वेदांग होते हैंः (1) षिक्षा, (2) कल्प, (3) व्याकरण, (4) निरूक्त, (5) छंद, (6) ज्योतिश। वैदिक साहित्य, जिसे ‘‘श्रुति’’ कहा जाता है, के विपरीत वेदांग को स्मृति माना गया है क्योंकि इनका उद्गम मनुश्य के द्वारा होना माना गया है।
वेदांग सूत्र के रूप में लिखे गये हैं। सूत्र से आषय उस संक्षिप्त पद्य से है जिसे स्मरण रखा जा सके। सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का एक भाग न होते हुए भी उसे समझने में हमारी मदद करते हैं। सारे सूत्रों में से केवल कल्प सूत्र उपलब्ध है जिसे 3 हिस्सों में बांटा गया है - (1) श्रौत सूत्र (2) गृह्म सूत्र (3) धर्म सूत्र। पहला सूत्र अग्नि, सोम और पषुओं की बलि प्रथा से संबंधित है; दूसरा गृहस्थ द्वारा किये जाने वाले कर्मों की जानकारी देता है जबकि तीसरा उन रीति-रिवाजों व परम्पराओं की व्याख्या करता है जो लोगों द्वारा अपनायी जानी चाहिए। इतिहासकार तीसरे हिस्से को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं, क्योंकि इसी से ‘‘हिन्दुओं के संविधान’’ मनु स्मृति का निर्माण होता है। इसके साथ-साथ ‘‘सुलभ सूत्र’’ जो ‘‘भारतीय ज्यामिति’’ का सबसे पुराना ग्रन्थ है, भी महत्वपूर्ण सूत्र है। इसमें बलि-वेदी के निर्माण व स्थापत्य की जानकारी है। इन सुत्तों के प्रमुख रचैता हैं बौधायन, उपस्तंब, कात्यायन और मानव।
3.0 धर्म और उपनिषदिक ज्ञान
3.1 उपनिशदों का स्थान
उपनिषद शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना है। ‘‘उप’’ अर्थात् ‘‘निकट’’, ‘‘नी’’ अर्थात् ‘‘नीचे’’ और ‘‘षद’’ मतलब ‘‘बैठो’’। इस प्रकार उपनिषद का अर्थ हुआ ‘‘ज्ञान प्राप्ति के लिये गुरू के चरणों में बैठा हुआ’’।
उपनिषदों से वेदांत (वेदों का अंतिम भाग) का निर्माण होता है, न केवल भौतिक रूप से बल्कि निष्कर्ष के स्तर पर भी। उपनिषद वेदों की उच्चतम् शिक्षा हैं, जब वे उच्चतम पराभौतिक स्तर पर पहुँचते है, जिसके आगे तो केवल शांति का ही वास है।
प्रारंभिक उपनिषद भी वेदों का हिस्सा है अतः वे श्रुति का ही हिस्सा कहलाते हैं। ये वैदिक दर्शन का निर्माण करते हैं। यह एक ऐसा संग्रहित ज्ञान है जिसमें विश्व के उद्गम की व्याख्या, ब्रम्हा व आत्मा का स्वभाव, तथा मन और जीव के संबंध आदि हैं। अतः उपनिषदों का मुख्य विषय उस सर्वोच्च ज्ञान की व्याख्या करना है जो ब्रम्हा और जीवात्मा से संबंधित है। छांदोग्य उपनिषद कहता है - ‘तत् त्वम् आसि’ (तुम यह हो)’ और मुण्डक उपनिषद द्वैत में अद्वैत का पक्ष लेता है। उपनिषद पहला ग्रन्थ है जहाँ याज्ञवल्कय द्वारा ‘‘कर्म की गति का नियम’’ निष्पादित होता है (बृहदारण्यक)।
उपनिषदों का मुख्य गुण धर्म उनकी वैश्विक स्वीकार्यता होने के साथ-साथ किसी ‘‘मतांधता’’ का न होना है। उपनिषद मानव मस्तिष्क द्वारा निष्पादित उच्चमत दर्शनिक ग्रंथ हैं। कुल मिलाकर 108 उपनिषद हैं, जिसमें से 12 वैदिक साहित्य का हिस्सा हैं।
- बारह महत्वपूर्ण उपनिशद हैंः
- ऋगवेद के ऐतरेय व कौशीतकी उपनिशद
- सामवेद के छांदोग्य
- यजुर्वेद के तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक व ईश उपनिशद
- अथर्व वेद के प्रश्न, मुंडक और मांडुक्य उपनिशद
- तेइस सामान्य वेदान्त उपनिशद
- बीस योग उपनिशद
- सत्रह समंणस्य उपनिशद
- चौदह वैश्णव उपनिशद
- चौदह शैव उपनिशद
- आठ शुक्ल उपनिशद।
3.2 उपनिशदिक विचारों की प्रकृति
उपनिषद, भारतीय दर्शन के आम संदर्भ बिन्दु को लेते हुए आध्यात्मिक शिक्षण व खोज को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें नास्तिक विचारकों का वह समूह भी है, जो वेदों की ग्रंथिक सत्त्ता को नकारता है। महान दर्शनिक शंकर ने 11 उपनिषदों की विस्तृत विवेचना लिखी जो अति प्रसिद्ध हुई।
उपनिषदिक परम्परा की जड़ें यद्यपि रहस्यवादी हैं तो भी इसका निष्कर्ष तार्किक एवं बुद्धिमत्ता से पूर्ण है। उपनिषदिक ऋषि वैदिक परम्परा के हैं, न केवल भाषा के उपयोग के स्तर पर, बल्कि वे उन्हीं रूढ़िवादी सीमाओं में बँधे प्रतीत होते हैं जहाँ वैदिक ऋषि खड़े थे। वे एक सतत् रूप से कर्मकाण्ड विधानों की आलोचना करते थे और उनमें से कुछ ने तो मुक्ति हेतु किये जाने वाले यज्ञ और आहुति की प्रथा को भी नकारा। फिर भी वे वैसा ही करते दिखाई देते है जैसे की वैदिक ऋषि यज्ञ और आहुति के माध्यम से मानव जीवन की व्याख्या करते थे। इन सब के बावजूद उपनिषदिक ऋषि वैदिक साहित्य से इतर एक नये धार्मिक विचारों को प्रस्तुत करते है और यहां अंतर साफ देखा जा सकता है।
उपनिषदिक परम्परा को लेकर मंतातर रहे हैं जबकि प्रारंभिक उपनिषद बौद्ध काल के पूर्व के है, तो कुछ उसके समकालीन और कुछ उसके बाद के भी। जहाँ एक ओर बौद्ध एवं जैन धर्मों ने रूढ़िवादी विचारों पर प्रहार किया, वहीं अनेक अन्य गुरूओं ने भी उपनिषदिक शिक्षा की सत्यता के इंकार के विचार दिये। हमें देखना होगा कि उपनिषद एक ऐसे काल का निर्माण नहीं थे जहाँ ऋषिगण आत्मनल से भरपूर थे, वरन् एक ऐसे काल से थे जहाँ रूढ़िवाद पर हमला बोला जा रहा था। अतः ऋषियों को अपने मत के प्रति निष्ठावान रहते हुए भी उसका विश्लेषण करना पड़ रहा था। नास्तिकों की भांति वे पूजा पाठ व कर्मकांड़ों की पंड़िताई का विरोध तो कर रहे थे, किन्तु अपनी वैदिक संस्कृति के प्रति निष्ठावान भी बने रहे थे।
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