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आधुनिक भारतीय साहित्य
1.0 प्रस्तावना
विश्व के अधिकांश देशों में, साहित्य हमेशा रूढ़िवादी एवं गैर-रूढ़िवादियों और जड़ एवं गतिशीलों के संघर्षों से प्रभावित होता रहा है। हालांकि भारत में, चूंकि नए आवेग की पहचान एक विदेशी संस्कृति और विदेशी वर्चस्व के साथ की गई थी, अतः निष्ठा का टकराव और अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। पश्चिमी विचारों के प्रभाव मात्र ने एक राष्ट्रवादी चेतना को प्रेरित किया, जिसने विदेशी थोपे जाने का विरोध किया, और आत्म-सम्मान और स्वाभिमान की जड़ों को अपनी विरासत, संस्कृति और धर्म में खोजने का प्रयास किया। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के दौरान भारत ने विभिन्न भाषाओं में अनेक साहित्यिक दिग्गज पैदा किये।
आधुनिक भारतीय साहित्य के दौर की शुरुआत सन 1800 में कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज, और कोलकाता के निकट सेरमपोर में बैप्टिस्ट मिशन प्रेस की स्थापना के समय हुई, ऐसा माना जा सकता है। कॉलेज की स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा ब्रिटिश लोक सेवकों को भारतीय कानून, प्रथाओं, धर्मों, भाषाओं और साहित्य की जानकारी देने के उद्देश्य से की गई थी, ताकि तेजी से बढ़ती प्रशासकीय जरूरतों के साथ तालमेल साधा जा सके। इस प्रकार, ब्रिटिश स्वयं अनजाने में भारतीयों के लिए एक भविष्य के राष्ट्रीय पुनरुत्थान का स्रोत बन गए! इस काल के दौरान, पठनीय सामग्री का अनुवाद संस्कृत कालजयियों और विदेशी साहित्य से किया गया, एवं शब्दकोशों और व्याकरण का संकलन किया गया। बैप्टिस्ट मिशन प्रेस के एक संस्थापक विलियम केरी ने स्वयं एक बंगाली व्याकरण लिखा, व एक अंग्रेजी-बंगाली शब्दकोष और संवादों और कहानियों के दो चयनों का संकलन किया।
2.0 शुरुआत
सन 1817 में हिंदू कॉलेज की स्थापना, कानून की भाषा के रूप में फारसी की अंग्रेजी से प्रतिस्थापना और बंगाली भाषा का अधिक से अधिक उपयोग, कुछ अन्य मील के पत्थर थे, जिन्होंने आधुनिक शिक्षा और सामान्य लोगों की बोली भाषा के विकास को प्रोत्साहित किया। राजा राम मोहन रॉय (1772-1833) को आधुनिक बंगाली गद्य के वास्तविक प्रणेता के रूप में माना जा सकता है। उन्होंने बंगाली गद्य को जो स्वरुप प्रदान किया, उसकी समृद्ध क्षमता ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (1820-1891) और अक्षय कुमार दत्ता (1820-1886) के हाथों प्रकट हुई, जो दोनों ही मूल रूप से समाज सुधारक और शिक्षाविद थे। चूंकि ये दोनों ही गंभीर सिद्धांतवादी थे, जिनके पास कहने के लिए काफी कुछ था, उन्हें संस्कृत से व्युत्पन्न इस भाषा को भड़कीलापन और लफ्फाज़ी प्रकृति प्रदान करने का कोई प्रयोजन नहीं था, और उन्होंने एक ऐसा गद्य तराशा, जो पवित्र और असरदार, दोनों था।
रचनात्मक कलाकारों की बजाय प्रतिमा भंजक (परंपरा को तोड़ने वाले) होने के कारण, उन्होंने इस माध्यम को मानकृत किया, जिसे उनके युवा समकालीन बंकिम चन्द्र चटर्जी (1838-94) ने अपने उपन्यासों और कहानियों के लिए शानदार उत्साह के साथ एक रचनात्मक साधन के रूप में मोड़ दिया। उन्हें भारतीय आधुनिक उपन्यास का जनक माना जाता है, और बंगाल और भारत के अन्य भागों के उनके समकालीनों और उत्तराधिकारियों पर उनका प्रभाव काफी गहरा और व्यापक था। उपन्यास की दो विधाएं, ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास, जिनमें वे पारंगत थे, बंगाली में उनसे पहले भूदेव मुखर्जी और पिआरी चंद मित्रा द्वारा भी लिखे गए था। मित्रा का ‘अलालेर घरेर दुलाल’ सामाजिक वास्तविकता की पहली मौलिक कल्पना का उत्कृष्ट नमूना था, जिसमें बोलचाल की भाषा के मुहावरों का मुक्त हस्त से उपयोग किया गया था, जो, कच्चेपन से ही क्यों ना हो, पर उपन्यास के अगले विकास की पूर्व कल्पना देते थे। फिर भी, वे बंकिम चन्द्र ही थे, जिन्होंने भारत में उपन्यास की एक महत्वपूर्ण साहित्य के रूप में स्थापना की। उनकी अपनी सीमाएं थीं - वे काफी रूमानी, अलंकारपूर्ण और उपदेशात्मक थे, और किसी भी दृष्टि से उनके रूसी समकालीन टॉलस्टॉय और दोस्तोएवस्की के समकक्ष नहीं थे। हालांकि उनके बाद, भारत में कई बेहतर उपन्यासकार हुए हैं, लेकिन उनमें से कोई भी उनकी ऊंचाई को नहीं छू सका और वे सभी उनके कंधों पर खड़े दिखते हैं।
माइकल मधुसूदन दत्त (1824-1873) वह अग्रदूत थे, जिन्होंने देशी परंपरा को पीठ दिखाते हुए रिक्त कविता में अपने महाकाव्य ‘मेघनाद बध काव्य’, जो रामायण के एक प्रकरण पर आधारित है, और जिसकी गैर-पारंपरिक तरीके से और कई कथा गीतों के माध्यम से व्याख्या की गई है, के द्वारा बंगाली कविता में यूरोपीय रूपों को देषीय करने के लिए पहला जागरूक और सफल प्रयोग किया। हालांकि उन्होंने इस मार्ग का नेतृत्व किया किंतु वे एक महत्वपूर्ण परंपरा की स्थापना नहीं कर पाये, क्योंकि उनकी सफलता एक दुर्लभ प्रतिभा की शक्ति का चमत्कार था।
3.0 भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध व्यक्तित्व
घरे बाइरे या घर संसार (जिसे सत्यजित रॉय की एक फिल्म घरे बाइरे के रूप में भी प्रदर्शित किया गया था), भारतीयों में बढती राष्ट्रीयता की भावना का परीक्षण करती है, और इसके खतरों के प्रति सचेत भी करती है, जो स्पष्ट रूप से राष्ट्रीयता के बारे में टैगोर के अविश्वास को दर्शाता है, विशेष रूप से तब जब राष्ट्रीयता में धार्मिक भावनाएं सम्मिलित हों। कुछ अर्थों में गोरा की विषयवस्तु भी इससे मिलती-जुलती है, जो भारतीय पहचान के प्रश्नों को उठाती है। जहां तक घरे बाइरे का प्रश्न है, इसमें एक पारिवारिक कहानी और प्रेम त्रिकोण के माध्यम से आत्म - पहचान, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और धार्मिक मान्यताओं के विषयों को विकसित किया गया है।
शेषेर कोबिता (इसका दो बार अनुवाद किया गया है, एक अंतिम कविता के रूप में और एक बिदाई गीत के रूप में) उनका सर्वाधिक संगीतमय उपन्यास है, जिसमें मुख्य चरित्र (एक कवि) द्वारा रचित कविताएँ और लयबद्ध अंशों का समावेश है। फिर भी, यह टैगोर द्वारा रचित सर्वाधिक व्यंग्यात्मक उपन्यास है, जो आधुनिकता-पश्चात् के तत्वों को प्रकट करता है जिनके द्वारा उपन्यास के कुछ चरित्र एक बूढे़, पुराने ढ़ंग के, दमनकारी रूप से प्रसिद्ध कवि की प्रतिष्ठा पर उपहासात्मक आक्रमण करते हैं (और उस कवि का नाम है रबीन्द्रनाथ टैगोर)।
हालांकि उनके उपन्यासों को जितनी मिलनी चाहिए उतनी प्रशंसा नहीं मिली, फिर भी सत्यजित रॉय, तपन सिन्हा और तरुण मजूमदार जैसे फिल्म निर्देशकों ने उनके उपन्यासों पर फिल्में बना कर उनकी ओर नए सिरे से ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया। इनमें से एक ताजा प्रयोग रहा स्वर्गीय रितुपर्णो घोष द्वारा निर्देशित फिल्में चोखेर बाली और नौकाडूबि, जिसमें से चोखेर बाली में ऐश्वर्या राय ने भूमिका की है। इन निर्देशकों का एक पसंदीदा शगल है, फिल्मों के गीतों में रबीन्द्र संगीत का समावेश।
टैगोर की गैर उपन्यास पुस्तकों में यूरोप जातिर पत्रो (‘यूरोप से पत्र‘) और मानुषेर धोर्मो (‘मनुष्य का धर्म‘) अधिक उल्लेखनीय हैं।
3.2 आर.के. नारायण (रासीपुरम कृष्णास्वामी अय्यर नारायणस्वामी)
आर. के. नारायण भारत के कुछ सर्वाधिक प्रसिद्ध और व्यापक रूप से पढे़ जाने वाले उपन्यासकारों में से एक हैं। उनकी कहानियां एक करुणामय मानवतावाद पर आधारित हैं और सामान्य जीवन के हास्य और ऊर्जा को प्रदर्शित करती हैं।
आर. के. नारायण का जन्म 10 अक्टूबर 1906 को मद्रास में हुआ था।
उन्होंने अपने लेखन व्यवसाय की शुरुआत 1935 में ‘स्वामी और उसके मित्र‘ कहानी से की। स्वामी और उसके मित्र सहित उनकी सारी रचनाएँ काल्पनिक कस्बे मालगुड़ी से संबंधित हैं, जिसमें उस बस्ती की अपनी विशेषतायें बनाये रखते हुए बाकी संपूर्ण परिदृश्य ठेठ भारतीय है। आर.के. नारायण की लेखन शैली की विशेषतायें सरलता और सूक्ष्म हास्य हैं। वे बदलते विश्व में अपना सामान्य जीवन जीने का प्रयत्न करने वाले सामान्य लोगों की कहानियां बताते हैं।
नारायण देश में विद्यमान सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार करते हैं, और समाज की बुराइयों का तिरस्कार किये बिना उसका यथार्थवादी चित्रण करते हैं। उनकी रचनायें मुख्य रूप से मध्यम वर्ग के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जिसे वे काफी निकट से जानते हैं, साथ ही साथ उनकी रचनाओं में दलितों की दुर्दशा का भी वर्णन मिलता है। उनकी रचनाओं की मुख्य विशेषता यह है, कि वे अपनी रचनाओं को विदेशी पाठकों के लिए पठनीय बनाने के उद्देश्य से भारत को विदेशी परिदृश्य में दिखाने का कोई प्रयास नहीं करते।
आर. के. नारायण की प्रसिद्ध रचनाओं में कला का स्नातक (1937), अंधेरा कमरा (1938) अंग्रेजी शिक्षक (1945), वित्तीय विशेषज्ञ (1952), गाइड (1958), मालगुड़ी का नर भक्षी (1961), मिठाई बेचनेवाला (1967), मालगुड़ी डेज़ (1982) और दादी माँ की कहानी (1993) प्रमुख हैं।
आर. के. नारायण को उनकी रचनाओं के लिए अनेकों पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। इनमें, 1958 में गाइड के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1964 में पद्म भूषण (बाद में पद्म विभूषण), और 1980 में रॉयल सोसाइटी ऑफ लिटरेचर द्वारा प्रदान किया गया ए.सी. बेनसन मैडल शामिल हैं। 1982 में आर. के. नारायण को अमेरिकन अकादमी और कला और साहित्य संस्थान का मानद् सदस्य चुना गया। 1989 में उन्हें राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया गया। इसके अतिरिक्त, उन्हें मैसूर विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और लीड्स विश्वविद्यालय की मानद डॉक्टरेट की उपाधियों से भी विभूषित किया गया। 2001 में उनकी मृत्यु हुई।
3.3 निराद सी. चौधरी
निराद चन्द्र चौधरी (जन्म 23 नवंबर 1897, किशोरगंज, ब्रिटिश भारत का पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश में), मृत्यु 1 अगस्त 1999, ऑक्सफोर्ड, ऑक्सफोर्डशायर, इंग्लैंड) एक बंगाली लेखक और विद्वान थे, जो भारतीय उपमहाद्वीप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की वापसी, और बाद में, स्वतंत्र भारत में पश्चिमी संस्कृति की अस्वीकृति के विरोधी थे। वे षायद गलत जगह पर और गलत समय में पैदा हुए एक सुषिक्षित और जटिल व्यक्तित्व थे।
1970 के दशक में चौधरी ने इंग्लैंड़ में बसने के उद्देश्य से भारत छोड़ने का फैसला किया। वहां वह ऑक्सफोर्ड के विश्वविद्यालयीन शहर में बस गए। निर्णय को उन्होंने घर वापसी के रूप में देखा था, किंतु वास्तव में उन्हें इंग्लैंड़ उनके सपनों के देश से काफी भिन्न नजर आया। इंग्लैंड़ में उन्होंने अपने आपको उसी विपरीत स्थिति में पाया, जिस स्थिति में वे भारत में थे। भारत के अधिकांश लोगों के विपरीत इंग्लैंड़ के लोगों ने हालांकि उन्हें इज्ज़त दी, लेकिन वे उनके ‘स्वाभिमानी भारतीयता‘ और ब्रिटिश साम्राज्य की प्राचीन भव्यता के प्रति गहरे विषाद के युग्म को समझ नहीं पाये। इसी प्रकार, चौधरी अंग्रेजी साम्राज्य के पतन के बाद के वर्षों में अंग्रेजों में हुए कायापलट को भी समझ नहीं पाये। और वे अंग्रेजों में उन मूल्यों के संपूर्ण अभाव को देख कर हतप्रद थे, जिन्होंने इंग्लैंड़ को एक महान राष्ट्र बनाया था। उनकी निराशा और मोहभंग की छाया उनकी रचनाओं में प्रकट होती थी। और उनकी आत्मकथा, तेरा हाथ, महान अराजक (1987) दाय हैंड, ग्रेट अनार्क, जो उन्होंने 90 वर्ष की आयु में लिखी थी, के अंतिम खंड़ों में उन्होंने लिखा था, ‘‘अंग्रेज लोगों की महानता हमेशा के लिए चली गई है।‘‘
उन्हें 1990 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई, और 1992 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के हाथों मानद सीबीई (कमांडर ऑफ द आर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर) प्रदान किया गया। उनकी अंतिम पुस्तक, नए सर्वनाश के तीन सवार (1997), जो उनके 100 वें जन्मदिन के कुछ दिन पूर्व प्रकाशित हुई थी, के निबंधों में वे वापस इंग्लैंड के पतन के विषय की ओर आते दिखते हैं, साथ ही इनमें उन्होंने भारतीय नेतृत्व में पतन पर भी कुछ टिप्पणियां की हैं। उनके बाद के वर्षों में ही चौधरी को अपनी मातृभूमि में व्यापक स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त हुई। दक्षिण एशिया में उदित हुए एक संभ्रांत वर्ग ने उनकी आत्मकथा के अंतिम खंड की काफी प्रशंसा की। अपनी आत्मकथाओं और अंग्रेजी भाषा में लिखे गए निबंधों के अतिरिक्त चौधरी ने बंगाली भाषा में भी अनेक रचनाएँ कीं।
4.0 हिंदी साहित्य
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की शुरुआत 19 वीं के मध्य में हुई। इस काल की सबसे बड़ी उत्क्रांति थी खड़ी बोली गद्य का अंकुरण और बृज भाषा के स्थान पर इस हिंदी प्राकृत भाषा का कविता में व्यापक उपयोग। आधुनिक हिंदी साहित्य को चार खंडों में विभाजित किया जा सकता है, जो हैं, भारतेंदु युग या नवजागरण (1868-1893), द्विवेदी युग (1893-1918), छायावाद युग (1918-1937) और समकालीन युग (1937 के पश्चात)।
इस रुझान ने राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य की व्युत्पत्ति में काफी सहयोग किया, जिसके महत्वपूर्ण कवियों में माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन‘, सियाराम गुप्ता और ‘दिनकर‘ जैसे महान कवि थे। इन कवियों ने प्रेम और सौंदर्य की अपेक्षा जीवन के नैतिक पहलुओं पर अधिक बल दिया। कवित्व में प्रेम और सौंदर्य का प्रादुर्भाव कविता की बाद की छायावाद शैली में हुआ।
हरिवंश राय बच्चन को इस कविता शैली का सबसे महान माना जाता है, जिसमें प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी जैसे कवि भी थे, जिन्हें हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के छायावाद युग के चार स्तंभ कहा जाता था। इस आंदोलन के पतन के बाद, कालानुक्रमिक अर्थों में वाम विचारधारा ने अपना सिर उठाना शुरू किया, जिसे हिंदी काव्य में दो विरोधाभासी शैलियों की आवाज मिली। इनमें से एक थी प्रगतिशीलता और प्रयोगवाद, या जिसे बाद में नयी कविता कहा गया। दूसरे को प्रगतिवाद कहा गया। इनमें से प्रयोगवाद मार्क्स के सामाजिक वास्तववाद को कला में अनुवादित करने का प्रयास था। इस आंदोलन के सबसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व थे सुमित्रानंदन पंत। प्रगतिवाद ने काफी मनोयोग से कलात्मक स्वतंत्रता की रक्षा करने के प्रयास किये और यह एक नई काव्य सामग्री और प्रतिभा लाया, जिसमें आधुनिक ग्रहणशीलता परिलक्षित होती थी। इस रुझान के अग्रणी थे अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, और धर्मवीर भारती। व्यक्ति गीत नामक एक अन्य शैली का भी प्रादुर्भाव हुआ, जिसका लक्ष्य मुक्त और सहज मानवीय अभिव्यक्ति था, जिसका नेतृत्व हरिवंश राय बच्चन ने किया। हरिवंश राय बच्चन ने अपने तीन उत्कृष्ट संग्रहों द्वारा हिंदी कविता विश्व को वास्तव में समृद्ध बनाया, जिनमें मधुशाला (1935), मधुबाला (1936) और मधुकलश (1936) शामिल थे। बच्चन जी की कवितायें छायावाद की रूमानियत और प्रगतिवाद की उत्तेजना से हट कर थीं। उनकी कविता शैली को समकालीन हिंदी कविता युग में कभी-कभी ‘हृदयवाद‘ या जुनूनी कविता भी कहा गया।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की अवधि के निरंतर और समकालीन विकास का प्रतिनिधित्व जयशंकर प्रसाद (छाया, आकाशदीप), राय कृष्ण दास और महादेवी वर्मा ने किया है। उपन्यास के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद (1880-1936) महानतम नाम था। उपन्यासों में उनकी अमर रचनाओं में सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, कायाकल्प, रंगभूमि, गबन और गोदान शामिल हैं। उनके अंतिम उपन्यास गोदान का अनुवाद सभी संभव भारतीय भाषाओं में किया गया। समकालीन काल के अन्य महत्वपूर्ण उपन्यासकारों में, जैनेन्द्र कुमार (सुनीता, त्यागपत्र, सुखद और विवर्त), फणीश्वर नाथ रेणु (मैला आँचल), सच्चिदानंद वात्स्यायन (शेखर एक जीवनी), धर्मवीर भारती (सूरज का सातवां घोडा), यशपाल (दादा-कॉमरेड, देशद्रोही, दिव्या और मनुष्य के रूप), जगदंबा प्रसाद दीक्षित (मुर्दाघर) और राही मासूम रजा (अंधा गाँव) शामिल हैं। साहित्यिक समालोचकों में डॉ. नागेन्द्र और डॉ. नामवर सिंह का नाम काफी आदर से लिया जाता है। प्रसिद्ध हिंदी नाटककारों में, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क‘, जगदीश चन्द्र माथुर (कोणार्क), लक्ष्मीनारायण लाल (सूखा सरोवर) और मोहन राकेश (आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे) के नाम उल्लेखनीय हैं।
4.1 हिंदी साहित्य में प्रगतिशील वास्तववाद (Progressive realism)
हिंदी सहित्य का प्रगतिशील वास्तववाद कई कारकों का मिश्रण था, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण था राष्ट्रवादी आंदोलन के दौर का वातावरण। महात्मा गांधी ने हिंदी या उर्दू के बजाय हिंदुस्तानी भाषा का राष्ट्रभाषा के रूप में समर्थन करके हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की कटुता और संघर्ष को कम करने का प्रयास किया। उर्दू ने हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद को प्रोत्साहित किया और दोनों समुदायों को विभक्त रखा था।
गांधी जी का मानना था, कि चूंकि हिंदुस्तानी भाषा का प्रयोग हिंदुओं और मुस्लिमों, दोनों द्वारा किया जाता था, अतः वह दोनों समुदायों के बीच अलगाव को कम करके राष्ट्रीय एकात्मता को प्रेरित करेगी। हालांकि यह हिंदुस्तानी भाषा देवनागरी में होनी थी, अरबी में नहीं। इस निर्णय ने, हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदायों के प्रगतिवादी बुद्धिजीवियों में काफी असंतोष पैदा किया। इस मोहभंग को और अधिक भड़काने का काम गांधी जी की अहिंसावादी नीति ने किया। कई लोगों के लिए, विशेष रूप से वामपंथियों के लिए, अहिंसावाद ने निर्णायक परिणाम नहीं दिए थे। उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवादी विचारों, प्रथम विश्व युद्ध, 1930 के दषक की मंदी, और औपनिवेशिक शोषण में हो रही निरंतर वृद्धि ने एक सक्रिय राजनीतिक वातावरण निर्माण किया। मार्क्स के विचारों से प्रभावित और 1917 की बोल्शेविक क्रांति की सफलता से प्रेरित होकर लेखकों ने अपना पुराना गाँधीवादी दृष्टिकोण, एक अधिक क्रन्तिकारी विचारधारा के विचारों से बदल दिया। इसी से हिंदी साहित्य में प्रगतिशील वास्तववाद की शुरआत हुई।
कई असंतुष्ट बुद्धिजीवी और लेखक थे, जिन्होंने 1936 में प्रगतिशील लेखक संगठन की स्थापना का निर्णय लिया, जिसके अग्रणी सदस्य थे मुंशी प्रेमचंद। ‘‘वह सब कुछ जो हमारे अंदर एक समालोचनात्मक भावना का संचार करता है‘‘, के रूप में ‘‘प्रगतिशील‘‘ की परिभाषा करते हुए, लेखकों ने साहित्य को उपनिवेशवाद के विरुद्ध युद्ध में एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का प्रस्ताव रखा। प्रगतिशील विचारधारा के लेखकों का लक्ष्य एक वास्तववादी अभिव्यक्ति के माध्यम से हाशिये पर धकेल दिए गए लोगों की समस्याओं के यथार्थ स्वरुप को चित्रित करना था। यह साहित्य उस भाषा में रचित किया जाना था, जो सामान्य लोगों को आसानी से समझ में आ सके। इसने साहित्य में रूढ़िवादी साहित्यकारों द्वारा प्रचारित ‘‘उच्च‘‘ या संस्कृतिक भाषा के स्थान पर हिंदुस्तानी भाषा के उपयोग को प्रतिस्थापित कर एक नवीन परिवर्तन किया। वास्तववाद की ओर रुझान के इस कदम ने उपन्यास को लेखकों की राजनीतिक प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करने के एक माध्यम के रूप में स्थापित किया। इस परिवर्तन के संदर्भ में प्रेमचंद अपनी कातिल जैसी कहानियों के माध्यम से उपनिवेशवाद की बुराइयों को प्रगतिशील, यथार्थवादी शैली से मार्क्सवादी विचारों के प्रभाव को प्रदर्शित करने वाले अग्रणी लेखक बने। कातिल, गांधी द्वारा सुझाये गए अहिंसा के मार्ग से, एक अधिक क्रांतिकारी मार्ग के वैचारिक स्थित्यंतर को प्रकट करती है। प्रेमचंद का उपन्यास प्रेमाश्रम (1922) भी औपनिवेशिक शोषण से संबंधित समस्याओं पर ही केंद्रित था, जिसमें बेगारी, और रईस जमींदारों द्वारा गरीब किसानों और उनकी पत्नियों और परिवारों के शोषण के बारे में विस्तार से वर्णन किया हुआ है।
प्रगतिशील लेखक संगठन ने हिंदी लघु कथाओं को भी मजबूत बनाया, एक ऐसा माध्यम जिसका उपयोग प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद द्वारा पहले ही किया जा चुका था। एक संपूर्ण विस्तृत उपन्यास की तुलना में लघु कथा संक्षेप में राजनीतिक संदेश लोगों तक पहुँचाने में सक्षम थी। यशपाल जैसे कुछ लेखकों ने अपने क्रन्तिकारी विचार लोगों तक पहुँचाने के लिए इस माध्यम का बखूबी इस्तेमाल किया।
1930 और 1940 के दशकों में, एक ओर जहां गद्य साहित्य अभिव्यक्ति का प्रभावी माध्यम बना रहा, वहीं दूसरी ओर प्रगतिशील नाट्य ने भी विद्यमान शक्ति संरचना को ध्वस्त करने के प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उपेन्द्र नाथ अश्क ने छटा बेटा, जय पराजय, आदि और मार्ग जैसे नाटक लिखे। पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र जैसे अन्य नाटककारों ने अपने सामाजिक-राजनीतिक मनमुटाव को सन्यासी, राक्षस का मंदिर, मुक्ति का रहस्य, और सिंदूर की होली (नागेन्द्र, 1988, 645) जैसे ‘‘समस्या प्रधान‘‘ नाटकों द्वारा व्यक्त किया। प्रेमचंद के संग्राम और प्रेम की वेदी (1933) जैसे नाटकों के माध्यम से, अन्य बातों के अलावा, किसानों, जमींदारों, पुलिस, अंतर-जाति विवाह जैसी समस्यों का विरोध व्यक्त हुआ।
1920 के दशक के उत्तरार्ध और 1930 के दशक ने हिंदी एकांकिकाओं के विस्तार को देखा, इनमें से कई नाटक विभिन्न पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए। इसका एक उदाहरण है जयशंकर प्रसाद की एक घूँट । प्रेमचंद द्वारा सम्पादित पत्रिका हंस ने 1938 में कई एकांकिकाएँ प्रकाशित कीं। पूर्ण लंबाई के नाटकों का एकांकिकाओं द्वारा प्रतिस्थापन, प्रगतिशील नाटककारों द्वारा सत्ता संरचनाओं के विरुद्ध छेडे़ गए शिष्टाचारप्रधान संघर्ष के प्रतीकात्मक था। इस पूर्ण लंबाई के शास्त्रीय संस्कृत नाटकों से एक विराम भी प्रदान किया, जिन्होंने हिंदू राष्ट्रवादी लेखकों द्वारा सांस्कृतिक हिंदी नाटकों के निर्माण के प्रयासों के कारण लोकप्रियता हासिल की थी।
इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) ने एक हिंदुस्तानी दल की स्थापना की जिसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद, यूरोप में फासीवाद, जमींदारों की समस्याएं, उद्योगों में श्रमिकों का शोषण, 1943 का बंगाल अकाल और 1944 की हैजे की महामारी जैसे विभिन्न विषयों पर अनेक नाटकों का विभिन्न स्थानों पर मंचन किया। बलराज साहनी और के.ए. अब्बास ने जुबैदा, यह अमृत है, इत्यादि जैसे नाटक लिखे और उनका मंचन किया। हिंदी लेखन पर मार्क्सवाद का प्रभाव 1940 के दशक में जारी रहा। अपने प्रगतिवादी दृष्टिकोण के साथ अन्य लेखों के अलावा, सोहनलाल द्विवेदी और सुमित्रानंदन पंत जैसे लेखकों ने अपने लेखन द्वारा पूंजीवादी शोषण, उपनिवेशवाद और जमींदारी के दुष्परिणामों पर अपने हमले जारी रखे।
उपनिवेशवादियों पर सबसे तीक्ष्ण हमला 1943 के बंगाल के अकाल के बाद शुरू हुआ, क्योंकि राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले लेखकों का यह विश्वसनीय मत था, कि यह स्थिति अंग्रेजी हुकूमत ने 1942 के भारत छोडो आंदोलन के बाद जानबूझ कर निर्मित की थी। इस अकाल के गंभीर परिणाम हुए, जिसने लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित किया। यशपाल ने इन विषयवस्तुओं को अपने दादा कॉमरेड, देशद्रोही, पार्टी कॉमरेड और मनुष्य के रूप जैसे उपन्यासों के माध्यम से उठाया। इस प्रकार, हिंदी साहित्य में प्रगतिवादी वास्तववाद एक क्रांतिकारी कदम था, जिसने प्राचीन काल की साहित्यिक शैलियों से एक विशिष्ट बदलाव का संकेत प्रदान किया।
4.2 प्रसिद्ध हिंदी कवि
माखनलाल चतुर्वेदीः 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के बावई गाँव में जन्मे पंडित माखनलाल चतुर्वेदी हिंदी साहित्य के एक सुप्रसिद्ध कवि थे। वे ‘‘प्रभा‘‘ और ‘‘कर्मवीर‘‘ जैसी पत्रिकाओं के राष्ट्रीय संपादक थे। उनके कविता संग्रह में ‘‘हिम तरंगिनी‘‘, ‘‘समर्पण‘‘, ‘‘युग चरण‘‘, ‘‘दीप से दीप जले‘‘, ‘‘साहित्य देवता‘‘, ‘‘कैसा चाँद बना देती है‘‘, और ‘‘पुष्प की अभिलाषा‘‘ शामिल हैं। उनकी रचना ‘‘हिम तरंगिनी‘‘ के लिए 1954 में प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाले वे पहले प्राप्तकर्ता थे। उनकी मृत्यु 30 जनवरी 1968 को हुई।
मैथिलीशरण गुप्तः उत्तर प्रदेश, झाँसी के चिरगांव में 3 अगस्त 1889 में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक भारतीय साहित्य के एक प्रतिष्ठित कवि थे। वे मैथिलीशरण गुप्त ही थे जिन्होंने हिंदी लेखन में बोली भाषा खड़ी बोली के उपयोग की शुरुआत की। उनकी उल्लेखनीय कविताओं में, ‘‘साकेत‘‘, ‘‘रंग में भंग‘‘, ‘‘भारत भारती‘‘, ‘‘प्लासी का युद्ध‘‘ और ‘‘काबा कर्बला‘‘ शामिल हैं। कुछ समय के लिए वे भारतीय राजनीति से भी संबद्ध रहे। उनकी मृत्यु 2 दिसंबर 1964 को हुई।
हरिवंश राय बच्चनः छायावाद युग (रूमानी) के इस पुरोधा का जन्म 27 नवंबर 1907 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था। वे कविताओं की पुस्तक ‘‘मधुशाला‘‘ के लिए जाने जाते हैं। हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। विदेश मंत्रालय के साथ अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने ऑथेलो, मैकबेथ, भगवद गीता, रुबाइयात और डब्लू.बी. यीट्स की रचनाओं जैसी महत्वपूर्ण रचनाओं के हिंदी अनुवाद का कार्य किया। उनकी अन्य उल्लेखनीय रचनाओं के अलावा उनकी चार खंडों में विभाजित धारावाहिक आत्मकथा ‘‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ,‘‘ ‘‘नीड का निर्माण फिर‘‘, ‘‘बसेरे से दूर‘‘ और अंतिम खंड ‘‘दसद्वार सोपान तक‘‘ का उल्लेख किया जाना भी आवश्यक है। उनका निधन 18 जनवरी 2003 को हुआ।
महादेवी वर्माः वे हिंदी के छायावाद युग की रूमानी कविता के प्रसिद्ध कवियों में एक प्रतिष्ठित कवियत्री थीं। उत्तर प्रदेष के फर्रुखाबाद में 1907 में जन्मी महादेवी वर्मा को आधुनिक मीरा कहा जाता है। यह कवियत्री प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रथम मुख्याध्यापिका थीं। उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताओं में ‘‘दीपशिखा‘‘, ‘‘हिमालय‘‘, ‘‘नीरजा‘‘, ‘‘निहार‘‘ और ‘‘रश्मि गीत‘‘ शामिल हैं। उनके प्रसिद्ध कविता संग्रह ‘‘यामा‘‘ को 1940 का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। वे बौद्ध धर्म से बहुत गहराई तक प्रभावित थी। उनका निधन 1987 में हुआ।
सुमित्रानंदन पंतः उनका जन्म 20 मई 1900 को उत्तराखंड के कुमाऊं में हुआ था। पौधों और पशुओं से समृद्ध प्राकृतिक स्थान से संबंधित होने के कारण पंत जी का प्रकृति से जुड़ाव होना स्वाभाविक ही था। कविता की ओर उनका झुकाव छोटी उम्र से ही हो गया था। कुछ समय के लिए वे श्री अरबिंदो से भी प्रभावित थे। 1961 में उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार से और 1968 में उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता ‘‘चिदंबरा‘‘ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ‘‘पल्लव‘‘, ‘‘वीणा‘‘, ‘‘ग्रंथी‘‘ और ‘‘गुंजन‘‘ के अतिरिक्त उनकी अन्य उल्लेखनीय रचना है ‘‘काला और भूरा चाँद‘‘, जिसके लिए उन्हें प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनका निधन 28 दिसंबर 1977 को हुआ।
जयशंकर प्रसादः 30 जनवरी 1889 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में जन्मे जयशंकर प्रसाद आधुनिक भारतीय साहित्य के पितृ पुरुष के समान थे। उनके महाकाव्य ‘‘कामायनी‘‘ का विशेष रूप से उल्लेख करना आवश्यक है। इस कविता में मानव प्रेम को बहुत ही सुंदर शैली में वर्णित किया गया है। जयशंकर प्रसाद की कविताओं की सीमा रूमानी से लेकर देशभक्ति तक फैली हुई थी। जयशंकर प्रसाद वेदों से बहुत गहरे प्रभावित थे। उनकी मृत्यु 14 जनवरी 1937 को हुई।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ : वे सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के साथ-साथ छायावाद आंदोलन के पुरोधा थे। निराला जी का जन्म 16 फरवरी 1896 को बंगाल के मिदनापुर में हुआ था। बचपन से ही वे रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और रबीन्द्रनाथ टैगोर जैसे महापुरुषों से प्रेरित थे। शुरुआत में बंगाली माध्यम से शिक्षित निराला बाद में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद आकर बस गए, जहां उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू किया। उनकी कुछ उल्लेखनीय रचनाओं में ‘‘सरोज शक्ति‘‘, ‘‘कुकुरमुत्ता‘‘, ‘‘धवनि‘‘, ‘‘राम की शक्ति पूजा‘‘, ‘‘परिमल‘‘ और ‘‘अनामिका‘‘ शामिल हैं। 15 अक्टूबर 1961 को उन्होंने अंतिम सांस ली।
रामधारी सिंह दिनकरः उनका जन्म 32 सितंबर 1908 को बिहार के सिमरिया में हुआ था। स्वतंत्रता पूर्व से ही उनकी रचनाएँ क्रांतिकारी थीं। उनकी राष्ट्रभक्ति पूर्ण रचनाओं के कारण उन्हें राष्ट्र कवि की उपाधि दी गई। वीर रस शैली के कवि होने के कारण वे कुरुक्षेत्र में युद्ध के पक्ष में रहे, जिसके पक्ष में उनका तर्क था, की हालांकि युद्ध विध्वंसकारी है, किंतु स्वतंत्रता की रक्षा के लिए महाभारत का युद्ध अपरिहार्य था। उनकी उल्लेखनीय रचनाओं में ‘‘रश्मि-रथी‘‘ और ‘‘परशुराम की प्रतीक्षा‘‘ सम्मिलित हैं। उनकी मृत्यु 24 अप्रैल 1974 को हुई।
अब्दुल रहीम खान-ए-खानाः इनका जन्म 17 दिसंबर 1556 को मुगल कालीन लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। वे ‘रहीम’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें उनकी माँ की ओर से भगवान कृष्ण का वंशज माना जाता है। वे सम्राट अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। उनके अनेक दोहों में से एक प्रसिद्ध दोहे का अनुवाद कुछ इस प्रकार से हैः ‘‘प्रेम का धागा टूटने मत दो, यदि वह टूट गया तो जुड़ नहीं सकता, और आप उसे फिर से जोड़ने जायेंगे तो उसमें गाँठ पड़ जाएगी।‘‘ 1627 में रहीम की मृत्यु हुई।
कबीरः कबीर 1440 में भारत में जन्मे एक आध्यात्मिक कवि थे। संत कबीर के नाम से लोकप्रिय कबीर की रचनाओं ने भक्ति आंदोलन, सिखधर्म, संत मत और कबीर पंथ को काफी प्रभावित किया है। उनकी कवित्व रचनाओं में बीजक, कबीर गढ़वाली, सखी ग्रन्थ और अनुराग सागर शामिल हैं। वे पहले ऐसे भारतीय संत थे जिन्होंने अपने दोहों के माध्यम से हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों में सद्भाव निर्माण किया। कबीर ने अपने दर्शन में इस बात की पैरवी की है, कि जीवन स्वयं का प्राण (आत्मा) और ईश्वर (परमात्मा) नामक दो आध्यात्मिक सिद्धांतों के बीच का खेल है। कबीर की विचारधारा थी, कि मोक्ष की प्रक्रिया के माध्यम से इन दो सिद्धांतों को एकरूप किया जा सकता है। संत कबीर का देहावसान 1518 में हुआ।
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