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भारतीय दार्शनिक पद्धतियां भाग - 2
3.0 सांख्य
सांख्य भारतीय दर्शन की एक प्रमुख धारा है। एक महान संत कपिलमुनी सांख्य दर्शन के प्रणेता माने जाते हैं।
उपनिषदों के आधार पर, भारत में दो प्रकार की दार्शनिक धाराएं विकसित हुइं:
- यथार्थवादी (सांख्य)
- आदर्शवादी (वेदांत)
सांख्य दर्शन सांख्य और योग के आधारभूत सिद्धांतों से मिलकर बना है। यद्यपि यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सांख्य दर्शन सैद्धांतिक पक्ष को प्रस्तुत करता है जबकि योग इसके प्रायोगिक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है।
सांख्य शब्द, संस्कृत शब्द संख्या से बना है। दर्शन की इस धारा में संख्या और प्रकृति के वास्तविक तत्वों का विश्लेषण किया गया है। इसलिए यह माना जाता है कि इसमें ब्रह्मण्ड के वास्तविक ज्ञान की व्याख्या होती है। वास्तव में, पद सांख्य से आशय है, पूर्ण ज्ञान। इसलिए सांख्य योग का अर्थ हुआ पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की पद्धति।
सांख्य एक द्वैत दर्शन है। यह द्वैतवादी है क्योंकि यह ब्रह्मण्ड की व्याख्या करते हुए दो अंतिम तत्वों-प्रकृति और पुरूष की बात करता है। सांख्य यथार्थवादी है क्योंकि यह मानता है कि प्रकृति और पुरूष दोनों ही समान रूप से वास्तविक हैं। यह दर्शन बहुलतावादी है क्योंकि इसकी शिक्षाओं में कहा गया है कि पुरूष एक नहीं हैं कई हैं।
सांख्य, किसी सीमा तक, न्याय - वैशेषिक और जैन दर्शन से भिन्न है। जहां न्यायवैशेषिक और जैन दर्शन में यह माना गया है कि परमाणु इस भौतिक जगत के निर्माता तत्व हैं, वहीं सांख्य दर्शन इस मुद्दे पर भिन्न है। सांख्य के अनुसार कारण सदैव कार्य से सूक्ष्मतर होता है। सांख्य दर्शन तर्क करता है कि कैसे इतने सूक्ष्म व पदार्थ परमाणु मन और बुद्धि जैसे सुंदर के लिए कारण होते हैं?
सांख्य कहता है कि कुछ सर्वोच्च और सूक्ष्मतम सिद्धांत इस भौतिक जगत को नियंत्रित करते हैं। सांख्य के अनुसार यह प्रकृति है। प्रकृति इस जगत का मूलतत्व है। यही इस जगत का पदार्थवादी कारण भी है। प्रकृति ही प्रारंभ है और प्रकृति ही सूक्ष्मतर पदार्थो का अंतिम तत्व है।
प्रकृति से आशय है-आत्म रहित। प्रकृति अचेतन होती है, और पुरूष से प्रभावित होती है। प्रकृति स्वयं को पुरूष के माध्यम से ही प्रकट कर सकती है।
प्रकृति के तीन प्रमुख गुण होते हैं - सत्व, राजस, और तमस। गुण का अर्थ है विशिष्टता या व्यवहार किंतु यहां सांख्य दर्शन में इसे एक घटक के रूप में स्वीकार किया गया है। सत्व से आशय है सुख, जबकि राजस किसी क्रिया की व्याख्या करता है और तमस का अर्थ है अज्ञानता और अक्रियता।
सत्व वह गुण है जिसमें पवित्रता, सूक्ष्मता और उच्चता होती है। सत्व प्रकाश, चमक और खुशी से संबंधित है। सत्व पुरूष के अहम, बुद्धि और ज्ञान से भी संबंधित है। इसकी चेतना के साथ सन्निकटता सबसे प्रबल होती है। यद्यपि सत्व चेतना के लिए एक आवश्यक स्थिति है, तो भी यह पर्याप्त नहीं है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि चेतना केवल पुरूष में ही होती है।
राजस कर्म से संबधित है। यह पुरूष की क्रिया और गति की व्याख्या करता है। पदार्थ में गति और क्रिया, राजस का परिणाम होते हैं। सजीव तत्वां में न केवल गति और कर्म बल्कि दुखः भी राजस का परिणाम है। तमस जड़त्व और अकर्मण्यता से सम्बंधित है। भौतिक जगत में यह गति और कर्म का विरोध करता है। सजीव जगत में, यह अकर्मण्यता और नकारात्मक भाव से संबंधित है। व्यक्ति में अज्ञानता, संवेदनहीनता और कर्महीनता इसी का परिणाम होती हैं।
भारतीय दर्शन में कार्य-कारण सिद्धांत के दो दृष्टिकोण हैंः
- सतकार्यवाद - यह बताता है कि कार्य वास्तविक होता है। यह कारण में शक्ति रूप में उपस्थित होता है, यहां तक कि इसके प्रदर्शन के पूर्व भी।
- असतकार्यवाद - इससे आशय है कि कार्य असत या अवास्तविक है। प्रत्येक कार्य एक नया प्रारंभ होता है और वह कारण से उत्पन्न नहीं होता है। चर्वाक दर्शन और न्याय-वैशेषिक दर्शन असतकार्यवाद का समर्थन करते है।
सांख्य और वेदांत दर्शन में भी सतकार्यवाद की व्याख्या की गई है किंतु यह भिन्न प्रकार से है।
सतकार्यवाद की दो भिन्न व्याख्याएं भी हैं - प्रकृति-परिणामवाद और ब्रह्म-विवर्तवाद
परिणामवाद कहता है कि कार्य किसी कारण का वास्तविक परिणाम होता है। दूसरी ओर, ब्रह्म विवर्तवाद कहता है कि कार्य किसी कारण का विकृत रूप होता है। अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म विवर्तवाद का समर्थन किया गया है। यह विवर्तवाद के समर्थन में कहता है कि जैसे ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है उसी प्रकार रूपातंरण ही सदृश्य होता है। सांख्य दर्शन में प्रकृति-परिणामवाद का समर्थन किया गया हैं।
सतकार्यवाद के अनुसार, सांख्य भी भौतिक जगत के सभी तत्वों में प्रकृति के तीन गुण स्वीकार करता है। प्रकृति ही इस भौतिक जगत का मूल और अंतिम कारण है। स्वाभाविक तौर पर, तीन गुण जिनसे मिलकर प्रकृति बनी होती है, से ही भौतिक जगत का भी निर्माण होता है। प्रकृति कभी भी स्थितप्रज्ञ नहीं होती। विकास के पूर्व भी, गुण सतत रूप से परिवर्तनशील होते हैं तथा एक दूसरे को संतुलित कर रहे होते हैं। परिणामस्वरूप, प्रकृति और यह भौतिक जगत जिसका जन्म प्रकृति से ही होता है, भी सतत् रूप से परिवर्तनशील हैं। यह आज के वैज्ञानिकां के द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। यह अब सिद्ध हो चुका है और संदेह से परे है कि सूक्ष्मतम कण जैसे-इलेक्ट्रॉन आदि, सतत रूप से गतिशील है और इसलिए रूपातंरणीय है।
सांख्य के अनुसार, इस ब्रहमाण्ड का प्रभावी कारण पुरूष है और भौतिक कारण प्रकृति। यहां पुरूष से आशय है, ‘सर्वोच्च आत्मा‘ और प्रकृति का अर्थ है ‘तत्व‘ । पुरूष, सांख्य का पहला सिद्धांत है और प्रकृति दूसरा, सांख्य का पदार्थवादी सिद्धांत।
पुरूष का ना तो जन्म होता है, और ना ही यह जन्म दे सकता है। प्रकृति का भी जन्म नहीं होता है, किंतु यह जन्म दे सकती है।
प्रकृति अकारण है, यह शाश्वत है इसका जन्म नहीं होता किंतु इसमें जन्म देने का स्वतः गुण होता है।
वेदान्त के ब्रह्म के समान, सांख्य का पुरूष भावातीत है। यह परम, स्वतंत्र, मुक्त, अज्ञेय, अनुभवातीत, शब्दातीत तथा अभाज्य है। यह परम शुद्ध अवस्था में रहता है, जैसे ‘निर्गुणवाचक चैतन्य‘‘।
प्रकृति जगत का तत्वभूत है। प्रकृति गतिशील है। इसकी गतिशीलता इसके गुणों के कारण है। गुण न केवल मूल तत्व हैं, और न ही साधारण गुण, गुण तो प्रकृति का मूल हैं। गुण न केवल प्रकृति का निर्माण करते हैं किंतु वे तो इस जगत का निर्माण करते हैं क्योंकि उन्हें प्रकृति के द्वारा जन्म दिया जाता है। प्रकृति को समरूपी माना जाता है और इसके निर्माणकारी तत्व गुणों को इससे विभाजित नहीं किया जा सकता। गुण सदैव परिवर्तनशील हैं, जो प्रकृति की गतिशीलता को दर्शाते हैं। गुण और प्रकृति में परिवर्तन दो रूप ले सकते हैं - समरूप और विविधता। समरूप गुणों में परिवर्तन प्रकृति का संतुलन प्रभावित नहीं करता है। परिणामस्वरूप, जगत के तत्व जन्म नहीं लेते हैं। विविधरूपी परिवर्तन तीन गुणों में आधारभूत अंर्तक्रिया का निर्माण करते हैं। वे संतुलन की अवस्था को बाधित करते हैं। यह विकास की प्रारंभिक अवस्था होती है।
विकास की इस प्रक्रिया का प्रारंभ राजस गुण द्वारा किया जाता है, जो सत्व को क्रियाशील करता है और यह दोनों गुण तमस के जड़त्व को समाप्त करते हैं। पुरूष इस निनाद के पीछे एक महत्वपूर्ण घटक होता है। पुरूष और प्रकृति के बीच के संबंध की तुलना चुम्बक और लौह के टुकड़े के बीच के सम्बंध से की जा सकती है। पुरूष स्वंय प्रकृति के सम्पर्क में नहीं आता है। किंतु यह प्रकृति को प्रभावित करता है। इस प्रकार प्रकृति को जन्म देने के लिए उकसाया जाता है। जैसे-जैसे गुणों में ज्यादा से ज्यादा परिवर्तन होता है, प्रकृति में संख्यात्मक वृद्धि होती चली जाती है। इस प्रकार यह ज्यादा से ज्यादा असीमित होती चली जाती है। इसे ही विकास कहा जाता है।
विकास क्रम में, प्रकृति अगणित तत्वों में विभाजित होती चली जाती है। विकास की प्रक्रिया के बाद विलयन होता है। विलयन की प्रक्रिया में भौतिक अस्तित्व, सारे जगत के तत्व प्रकृति में पुनः समा जाते हैं और इस प्रकार प्रकृति पुनः मूल तत्व को प्राप्त हो जाती है। निर्माण और विनाश का यह चक्र चलता रहता है।
सांख्य दर्शन के अनुसार तीन गुणां के बीच आधारभूत अंर्तक्रिया प्रकृति के संतुलन में विक्षोभ डालते हैं। इस प्रक्रिया में कोई एक गुण प्रमुख हो सकता है। यह असंतुलन, कुछ और प्रभावकारी कारकों के साथ मिलकर, प्रकृति को उत्तेजित करता है कि वह जगत के पदार्थों का निर्माण करें।
विकास की इस प्रक्रिया का परिणाम पदार्थ की विभिन्न 23 अवस्थाओं के रूप में होता है। वें अंतःकरण के तीन तत्वों और बाह्यकर्ण के दस तत्वों से मिलकर बने होते हैं।
इन सब में, महत् का विकास सबसे पहले होता है। महत सत्व के प्रभावाधिक्य के कारण जन्मता है। क्योंकि यह प्रकृति का जन्म होता है, इसलिए इससे तत्व का निर्माण होता है। किंतु इसमें मानसिक पक्ष भी होता है जिसे बुद्धि कहा जाता है। बुद्धि या महत् मानव का अद्वितीय गुण है यह मनुष्य को अच्छा या बुरे के बीच अंतर करने की शक्ति करता हैं। इसी की मदद से कर्ता और कर्म के बीच के अंतर को समझा जा सकता है। महत् ही मनुष्य को आत्म और अनात्म, के बीच के अंतर को समझाता है। महत्, सत्व गुण से स्वतः जुड़ा होता है, इसलिए इसमें प्रकाश और परावर्तन जैसे गुण होते है। बुद्धि पुरूष को प्रदर्शित करती है जिसके पास यह गुण होते है।
दूसरा विकास होता है अहंकार का। यह महत के लौकिक प्रकृति के कारण होता है। अहंकार का अर्थ है स्वयं का ज्ञान। यह आत्म ज्ञान से सम्बंधित है तथा यह ‘मैं‘ और ‘मेरा‘ का ज्ञान कराता है।
सांख्य दर्शन के अनुसार अहंकार से दो प्रवृत्तियों का जन्म होता है। पहले समूह में मानस, पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्म इन्द्रियां शामिल होती हैं। दूसरे समूह में, पांच तत्व होते हैं जो दो रूपों में हो सकते हैंः सूक्ष्म और वृहद्।
पांच सूक्ष्म तत्व तनमात्राओं के नाम से भी जाने जाते हैं। ये पांच सूक्ष्म तत्व या तनमात्राएं हैः। ये तत्व क्रमशः हैः षब्द स्पर्श, रूप, रस एवं गंध। स्थूल तत्व स्थूल तत्वों के मिश्रण के परिणाम से उपजता है।
पांच वृहद तत्व हैं आकाश, जल, वायु, अग्नि और धरा।
अब उपरोक्त की व्याख्या करते हैं। अहंकार के तीन पक्ष होते हैं जो सत्व, राजस, और तमस तीनों ही गुणों की मात्रा के अनुसार भिन्न हो सकते हैं। सत्व गुण की अधिकता के कारण। सात्विक अहंकार मन, पांच ज्ञानेन्द्रियों व पांच कर्मेन्द्रियों को जन्म देता है। पांच ज्ञानेन्द्रियां है - चक्षु, कर्ण, रसना, घ्राह्य, और त्वचा। पांच कर्म इन्द्रियां है-वाक्, पाणि, पाद, उत्सर्जन, और प्रजनन। यह सारे दस अंग मिलकर बाह्यकर्ण कहलाते हैं। बुद्धि, अहंकार, और मन मिलकर अंतःकर्ण कहलाते हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि मन और बुद्धि दो अलग-अलग तत्व हैं। मन या मस्तिष्क, कर्म इन्द्रियां के साथ संयोजन कर, बाह्य संसार से छवियां ग्रहण करता है। उन्हें निश्चित अवधारणा में रूपांतरित करता है और उन्हें अहम् को भेजता है। इस प्रकार मानस का विकास होता है और यह विकास करने में सक्षम भी होता है किंतु महत् का विकास तो होता है, किंतु यह विकास कर नहीं कर सकता।
जैसा की हमने देखा है अहंकार सूक्ष्म और वृहद् दोनों ही तत्वों का निर्माण कर सकता है। वृहद तत्वों का निर्माण विभिन्न सूक्ष्म तत्वों के मिश्रण से होता है। उदाहरण के लिए शब्द आकाश का निर्माण करते हैं, जबकि शब्द और स्पर्श दोनों मिलकर मारूत अर्थात वायु का निर्माण करते हैं। रूप तेज अग्नि का निर्माण करता है। इसी प्रकार, शब्द, स्पर्श, रूप और रस मिलकर जल का निर्माण करते हैं। सभी पांच तत्व मिलकर क्षिति का निर्माण करते हैं। सभी पांच वृहद तत्व मिलकर वृहद पदार्थां का निर्माण करते हैं। सभी वृहद तत्व और पदार्थ ज्ञेय हैं।
3.1 सांख्य, और ज्ञान का सिद्धांत
सांख्य दर्शन ज्ञान के तीन स्त्रोतों को स्वीकार करता है-प्रत्यक्ष बोध, अनुमान और प्रमाण।
सांख्य दर्शन के अनुसार, मन, बुद्धि और पुरूष ज्ञान को उत्पन्न करने में भूमिका निभाते हैं। जब ज्ञानेन्द्रियां किसी वस्तु के सम्पर्क में आती हैं तो उत्तेजना और छवियाँ मन तक पहुचती हैं। मन इन छवियों को उचित रूप में विकसित करता है और उन्हें निश्चित प्रत्यक्ष वस्तुओं में बदल देता है। यह निश्चित छवियाँ महत तक पहुंचती हैं। महत इन्हें परिष्कृत करता है, किंतु अभी भी ज्ञान की प्रक्रिया पूर्ण नहीं होती है। महत एक भौतिक पदार्थ है। इसमें चेतना का अभाव होता है इसलिए यह ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता।
हालांकि, यह चेतना को पुरूष तक परावर्तित कर सकता है। परावर्तित चेतना से प्रकाशित, अचेतन महत चेतन हो जाता है। जिससे यह परिष्कृत हो सकता है। इसे एक उदाहरण के द्वारा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। एक दर्पण स्वयं एक छवि का निर्माण नहीं कर सकता। दर्पण को छवि प्रकट करने के लिए प्रकाश की जरूरत होती है। उसी प्रकार महत् को भी चेतन की जरूरत होती है ताकि वह ज्ञान को परावर्तित कर सके।
सांख्य के अनुसार, अवधारणाओं के दो प्रकार हैं, स्थिर (सविकल्प) और अस्थिर (र्निविकल्प)।
सविकल्प अवधारणा, निर्विकल्प की तुलना में परिपक्व अवस्था होती है जहां एक प्रक्रिया का पालन करते हुए उन्हें अलग-अलग विभाजित किया जा सकता है। जब एक बार अनुभवों को एक प्रक्रिया के द्वारा श्रेणीगत विभाजित कर लिया जाता है, और उनकी निश्चित व्याख्या कर ली जाती है, तो वे सविकल्प अवधारणा कहलाते हैं। इनके द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है।
र्निविकल्प अवधारणाएं एक प्रकार की षुद्ध भावनाऐं या छवि होती हैं। वे वस्तु के स्वरूप या नाम की कोई जानकारी नहीं देते। व्यक्ति जानता तो है, लेकिन पहचानता नहीं है। जिस प्रकार एक शिशु के प्रारंभिक अनुभव भ्रांति से भरे होते हैं, वहां बहुत सारे अनुभव होते है किंतु वे सब अधूरे होते हैं क्योंकि उन अनुभवों को एक प्रक्रिया से समझने का ज्ञान नहीं होता। इसलिए न तो उन्हें विलगित किया जा सकता है और न ही स्पष्ट रूप से चिन्हित किया जा सकता है। उनमें से अधिकांश निर्विकल्प अवधारणा ही होते है।
3.2 सांख्य दर्शन और नास्तिकता
कपिल मुनि ने, जो कि सांख्य दर्शन के प्रणेता थे, ईश्वर के अस्तित्व को नकार दिया। उनका कहना था कि ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता, और ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। सांख्य का तर्क है कि यदि ईश्वर का अस्तित्व है और ईश्वर शाश्वत और अपरिवर्तशील है, तो वह इस संसार का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि कारण को तो सक्रिय और परिवर्तनशील होना चाहिए। हालांकि सांख्य दर्शन के बाद के टीकाकार, आस्तिक व्याख्या की ओर झुकते प्रतीत होते हैं।
3.3 बंधन और मुक्ति
दूसरे अन्य भारतीय दर्शनों के समान ही, सांख्य भी अज्ञानता को ही बंधन और कष्टों का मूल कारण मानता है। सांख्य के अनुसार आत्म शाश्वत और पवित्र चेतना है। अज्ञानता के कारण, आत्म स्वयं को केवल भौतिक स्तर पर ही जान पाता है। जब एक बार आत्म इन सब बंधनों से मुक्त हो जाता है, तो मुक्ति संभव है।
4.0 योग
पातंजलि योग दर्शन के प्रणेता थे। योग दर्शन सांख्य दर्शन के सन्निकट है। योग दर्शन मुख्य रूप से सांख्य दर्शन पर आधारित है। यह एक सिक्के के दो पहलू हैं। सांख्य एक सैद्धांतिक पक्ष है, वहीं योग इसका प्रायोगिक पक्ष। यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए की जहां सांख्य दर्शन नास्तिकता पर आधारित है, वहीं योग एक आस्तिक दर्शन है।
पातंजलि ने योग दर्शन का निदर्शन अपनी महान रचना-योग सूत्र में किया। योग सूत्र चार भागां से मिलकर बनी है।
जहां सांख्य दर्शन में तीन पदों-महत, अहंकार और मन का उल्लेख अंतःकर्ण के संदर्भ में किया गया है, वहीं योग केवल एक शब्द - चित्त के द्वारा इसकी व्याख्या करता है। यह माना गया है कि चित्त का निर्माण चेतना, अहंकार और बुद्धि से होता है। चित्त में सत्व गुण प्रमुख होता है।
पातंजलि ने अष्टांग-योग के माध्यम से मुक्ति का मार्ग सुझाया। योग एकाग्र और ध्यान की एक प्रक्रिया है जिसमें आत्मअनुशासन महत्वपूर्ण है। इस प्रकार के योगाभ्यास के द्वारा चेतना के उच्चतर स्तर को प्राप्त किया जा सकता है। इसके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर आत्मानुभूति प्राप्त की जा सकती है।
पातंजलि ने पूर्ण नियंत्रण और चित्त पर अधिकार करने पर जोर दिया है। उन्होंने कुछ शारीरिक और मानसिक अभ्यास बताये हैं। इसके द्वारा अष्टांग योग का निर्माण होता है।
4.1 अष्टांग योग के 8 अंग
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि वह 8 प्रक्रियाएं है जो अष्टांग-योग का निर्माण करती हैं। इन्हें दो भागों में विभाजित किया गया हैः
- पांच अंगों के बाह्य कार्य - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, और प्रत्याहार।
- तीन अंगों के आंतरिक कार्य - धारण, ध्यान और समाधि
यम का अर्थ है प्रतिबंध। प्रत्येक व्यक्ति ने कुछ नीतिगत तथ्यों का पालन करते हुए स्वयं को अनैतिक कारणों से रोकना चाहिए। यह आत्मअनुशासन का पहला कदम है।
नियम का अर्थ है, निगरानी। इसका आशय है जीवन में कुछ निश्चित मूल्यों और गुणों का विकास। यम और नियम, व्यक्ति को लालच और इच्छाओं से बचाते हैं तथा भटकाव से उसकी रक्षा करते हैं।
अगले दो अंग, आसन और प्राणायाम, शरीर को योगाभ्यास के लिए तैयार करते हैं।
आसन का अर्थ है शरीर का अंग विन्यास। योग के लिए एक स्थिर और आरामदायक अंग विन्यास आवश्यक हैं । प्राणायाम का अर्थ है श्वसन पर नियंत्रण। इच्छा, उसे प्राप्त करना और अवसान एक चक्र है जिसे सावधानी पूर्वक समझा जाना चाहिए। यह दोनों ही अंग शरीर और मन की स्थिरता को बढ़ाते हैं।
प्रत्याहार का आशय है इंन्द्रियों से दूरी। इंन्द्रियां अपने मूलभूत स्वभाव के कारण बाह्य संसार की ओर आकर्षित होती हैं। प्रत्याहार इन ज्ञानेन्द्रियों को बाह्य संसार से विलगित करने में मदद करता है। बाह्य संसार से अलग होने पर चित्त का ध्यान एक बिंदु पर केन्द्रित होता है।
ये प्रमुख चरण हैंः धारणा (एकाग्रता), ध्यान (चिन्तन) और समाधि (आध्यात्मिक समावेश)।
धारण का अर्थ है एकाग्रता। अर्थात चित्त को किसी एक बिंदु पर केन्द्रित करना। कर्ता किसी एक कर्म पर ध्यान केन्द्रित करता है। यदि मन किसी अन्य कर्म की ओर भटकता है, तो उसे पुनः निर्धारित लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करना होता है।
ध्यान से आशय है चिन्तन। इस चरण में साधक को अपने चित्त को केवल निर्धारित लक्ष्य का चिन्तन करना चाहिए। मस्तिष्क बिना किसी विक्षोभ के केन्द्रित होता है और चित्त का प्रवाह दिशाहीन होता है। यद्यपि मस्तिष्क स्थिर होता है, फिर भी मस्तिष्क को आत्म ज्ञान होता हैं।
समाधि योगाभ्यास का अंतिम चरण है। अब मस्तिष्क की चेतना नहीं होती है। साधक को इस बात का ज्ञान होता है कि प्रकृति के साथ उसका लगाव ही उसकी अज्ञानता का कारण है। भ्रम दूर हो जाता है। यही अंतिम निर्बीज समाधि कहलाती है। यहां व्यक्ति और समष्टि का एकीकरण हो जाता है। अब कोई कर्म शेष नहीं होता इस प्रकार कर्ता और कर्म का एकीकरण हो जाता है। वे विलगित पदार्थ नहीं होते हैं। यह पूर्ण चैतन्य अवस्था होती है।
सांख्य दर्शन नास्तिकता पर आधारित है किंतु योग आस्तिकता का दर्शन है। सांख्य और योग दोनों ही दर्शन यह मानते हैं कि कई पुरूष हैं। सांख्य के विपरीत, योग यह मानता है कि एक सर्वोच्च पुरूष है जो सभी पुरूषों में उच्चतम है और कोई अन्य पुरूष उसके जैसा नहीं हो सकता। यह सर्वोच्च पुरूष प्रकृति या अन्य पुरूष का निर्माण नहीं करता।
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