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भारतीय दार्शनिक पद्धतियां भाग - 3
5.0 पूर्व-मिमांसा
मिमांसा शब्द संस्कृत मूल का है, जिसका अर्थ है, ‘‘श्रद्धायुक्त विचार‘‘। इस शब्द की व्युत्पत्ति मूल शब्द ‘मन‘ से हुई है जिसका अर्थ है ‘विचार‘। इस प्रकार ‘मिमांसा‘ शब्द का कुल अर्थ हुआ ज्ञान का विचार, या वेदों का आलोचनात्मक विश्लेषण।
यह माना जाता है कि प्रत्येक वेद चार हिस्सों से मिलकर बना हैः सहिंता, ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद। पहले दो हिस्सों में सामान्यतः रीति-रिवाज़ों से संबंधित विवरण दिया है, इसलिए वे वेदों के कर्म काण्ड वाला हिस्सा कहलाते हैं। बाद के दो हिस्से ज्ञान से संबंधित हैं।
पूर्व-मिमांसा वेदों के पहले हिस्से पर आधारित है।
उत्तर-मिमांसा वेदों के बाद के दो हिस्सों पर आधारित है।
पूर्व-मिमांसा को कर्म मिमांसा भी कहा जाता है क्योंकि यह रीति-रीवाजों और बली प्रथा से सम्बंधित है। उत्तर-मिमांसा को ब्राह्मण-मिमांसा भी कहा जाता है, क्योंकि यह सत्य के ज्ञान का विश्लेषण है। सामान्यतः पूर्व-मिमांसा को प्रचलन में केवल मिमांसा ही कहा जाता है, जबकि उत्तर-मिमांसा को वेदान्त के नाम से जाना जाता है।
ऋषि जैमिनी को मिमांसा दर्शन का प्रणयेता माना जाता है। उनके द्वारा रचित मिमांसा-सूत्र दूसरी शताब्दी में रचित पुस्तक मानी जाती है। यह सभी दार्शनिक सूत्रों पर लिखी गई पुस्तकों में सबसे बड़ी है। यह 12 भागों में विभाजित पुस्तक है, जिसमें लगभग 2500 सूत्र दिये गये हैं, जिनकी व्याख्या करना बहुत दुरूह है। कई विद्वानों ने मिमांसा-सूत्र पर टीकायें लिखी है। दुर्भाग्यवश उनमें से अधिकांश उपलब्ध नहीं हैं। इस पर उपलब्ध सबसे पुरानी टीका, साबर स्वामी के द्वारा रचित, ‘‘साबर-भाष्य‘‘ हैं जो अभी भी मिमांसा की सर्वोत्तम और अधिकारिक व्याख्या मानी जाती है। प्रसिद्ध विद्वान कुमारिल भट्ट और प्रभाकर ने भी अलग-अलग साबर भाष्य पर अपनी टीकायें लिखीं हैं। प्रभाकर कुमारिल भट्ट का शिष्य थे। यद्यपि, कुछ मुद्दों पर, दोनों के बीच में वैचारिक मतभेद हैं इसलिए दोनों ही विद्वानों ने साबर-भाष्य पर अपनी-अपनी व्याख्या दी है। मदन मिश्रा, जो कि एक प्रसिद्ध विद्वान और कुमारिल भट्ट के ही शिष्य थे, ने भी इस पर अपनी भाष्य लिखी हैं, किंतु अपने जीवन के अंतिम चरण में वें शंकराचार्य के शिष्य बन गये थे।
इस दर्शन में वेदों को ‘परम ज्ञान‘ का शाश्वत स्रोत माना गया है। इस प्रकार यद्यपि यह पहले चारों दार्शनिक धाराओं (वैशेषिक, न्याय, सांख्य और योग जो न तो वेदों की सर्वोच्चता को स्वीकारते है और ना ही नकारते हैं) से भिन्न हैं, फिर भी मिमांसा दर्शन का एक बड़ा हिस्सा वैशेषिक और न्याय दर्शन से लिया गया है।
मिमांसा दर्शन श्रुति-स्मृति परम्परा से सम्बंधित है, जो कि एक वैदिक परम्परा है। जैमिनी के अनुसार ‘शब्द‘ ही ज्ञान का एक मात्र स्रोत है। शब्द एक वैदिक पद है। मिमांसा दर्शन यह दावा करता है कि वेद किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं रचे गये, और क्योंकि, वेद ‘‘अपौरूषेय‘‘ हैं इसलिए ये स्वतः सिद्ध हैं।
यह दर्शन द्वैतवादी है। यह जगत के साथ-साथ व्यक्तिगत आत्मा के अस्तित्व को भी स्वीकारता है। आत्मा को एक शाश्वत और अनंत तत्व के रूप में स्वीकारा गया है। प्राण तो आत्मा को प्रदत्त एक अचानक दिया गया वरदान है। आत्मा को शरीर, इन्द्रियों और बुद्धि से भिन्न माना गया है। यद्यपि कुमारिल भट्ट और प्रभाकर, आत्म, आत्मा और प्राण के सवालों पर मतभिन्नता रखते है। प्रारंभिक मिमांसाकारों ने देवताओं के महत्व को नहीं माना। इसलिए उन्होंने ईश्वर को ब्रह्मा का नियता नहीं माना। किंतु बाद के मिमांसाकारों ने आस्तिकता की ओर झुकाव दिखाया। यह दर्शन वेदों में पूर्ण निष्ठा व्यक्त करता है। यह दर्शन कर्म सिद्धांत का भी समर्थन करता है। यह अदृश्य शक्ति में भी विश्वास करता है। स्वर्ग और नर्क की अवधारणा के परे, यह दर्शन मुक्ति के सिद्धांत को मानता है।
6.0 उत्तर मिमांसा (वेदांत)
उत्तर-मिमांसा जिसे वेदांत भी कहा जाता है, भारतीय दर्शनों में सबसे महत्वपूर्ण दर्शन है। दूसरे दर्शनों की तुलना में, यह नवीनतम है। अभी भी भारत में परम्परागत दार्शनिक धाराओं में यह सबसे ज्यादा प्रभावी है। वेद मानवता के लिए सबसे मूल्यवान धर्मग्रंथ हैं। वे अतिमानवीय ज्ञान का भण्डार है और शाश्वत है। चूंकि इन वेदों को इनके इस लिखित स्वरूप में आने में कई युग लगे हैं, इसलिए ये काल निरपेक्ष हैं।
ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, चार वेद हैं। प्रत्येक वेद चार हिस्सों में विभाजित है : संहिता, ब्राहम्ण, अरण्यक, और उपनिषद। उपनिषद वेदों का अंतिम हिस्सा हैं। इनमें सर्वोच्च दार्शनिक ज्ञान का निष्पादन हुआ है। शब्द ‘‘वेदान्त‘‘ सामान्यतः उपनिषद को ही दर्शाता है। यह पद दो शब्दों ‘वेद‘ और ‘अंत‘ से मिलकर बना है। इसका अर्थ है वेदों का अंतिम हिस्सा। यद्यपि पद वेदान्त, न केवल उपनिषद बल्कि इसमें समाहित सभी धाराओं की सम्पूर्ण व्याख्या करता है। सभी उपनिषद वेदांत दर्शन की ही बात करते हैं।
महान ऋषि बद्रायण (500-200 ई.पू.) ने उपनिषदों के दर्शन को सरल करने का प्रयास किया। बद्रायण को वेद व्यास के नाम से भी जाना जाता है। वह पहले विद्वान माने जाते हैं जिन्होनें विशाल उपनिषद सिद्धांतों को व्यवस्थित करने का चुनौतीपूर्ण कार्य किया। उनके प्रयासों का ही परिणाम वेदान्त के रूप में सामने आया। बद्रायण ने ही बम्ह-सूत्र या वेदान्त-सूत्र की रचना की। इसे ही उत्तर-मिमांसा-सूत्र कहा जाता है। बह्म-सूत्र में 555 सूत्र है इनमें से अधिकांश गुड़ अर्थ लिये हुए है जिन्हें पहले वाचन में समझना कठिन होता है। इसलिए, इनकी व्याख्या करने के लिए इस पर कई भाष्य लिखे गये हैं। इन भाष्यकारों में शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
यह तीनों भारतीय दर्शन के महानतम विद्वानों में गिने जाते हैं। वे ना केवल बह्म-सूत्र (वेदान्त) के प्रमुख टीकाकार हैं बल्कि इन्हांने ही इसकी व्याख्या की है। इस प्रकार, हमारे पास वेदान्त दर्शन की तीन प्रमुख धाराएं इस त्रिवेणी पर आधारित हैंः शंकराचार्य का अद्वैत, रामानुजाचार्य का विशिष्ट अद्वैता और माधवाचार्य का द्वैतवाद। तीनों ही
धाराएं वेदान्त दर्शन में पाई जाती हैं। यद्यपि, तीनों ही धाराओं के बीच कुछ आधारभूत अंतर हैं। यहां तक कि किसी एक धारा के अनुयायी, अपनी ही धारा के अन्य अनुयायियों से मतभिन्न्ता रख सकते हैं।
केन्द्रीय विचारः वेदान्त दर्शन, जगत, जीव और ब्रह्म पर केन्द्रीत है। ब्रह्म सम्पूर्ण ज्ञान और शक्ति का केन्द्र है। जीव इस जगत के मायाजाल में उलझा हुआ है। इस भौतिक जगत में लिप्त होने के कारण और इच्छाओं और कामनाओं में डूबे रहने के कारण, जीव अनंत कर्म के बंधनों में बंधा रहता है। परिणामस्वरूप, जीव जन्म मृत्यु के चक्र मे फंस जाता है। उसका एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेना, उसके पूर्व जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है। मोक्ष या मुक्ति ही जीवन का अंतिम ध्येय है।
इस दर्शन को, सामान्यतः तीनां ही धाराओ के द्वारा स्वीकार किया जाता है। अब हम इन तीनों ही धाराओं के बीच आधारभूत अंतर को समझने की कोशिश करेंगे। द्वैत से आशय है, ‘‘दो‘‘ का अस्तित्व, वहीं अद्वैत का अर्थ है, ‘‘केवल एक‘‘। ब्रह्म, सर्वोच्च सत्ता है। ब्रह्म जगत और जीव अलग-अलग तत्व नहीं हैं।
7.0 अद्वैत वेदान्त का आधारभूत विचार
अद्वैत वेदान्त में निम्नलिखित आधारभूत सिद्धांत को स्वीकार किया गया हैः ब्रह्म, आत्मा, विद्या, अविद्या, माया, कर्म और मोक्ष
- ब्रह्म अंतिम और सर्वोच्च सत्य हैः ब्रह्म शाश्वत है, शब्दातीत है, यह रूप से भी परे है इसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह चेतना और बुद्धि के परे है। फिर भी, यदि इसका वर्णन करना ही पड़ेः ब्रह्म को शुद्ध चेतना कहा जा सकता है। वेदान्त दर्शन में, ब्रह्म को सच्चिदानंद (सत्$चित्$आनंद) स्वरूप माना गया है। ब्रह्म शाश्वत, अमिट अप्रक्टय, और शुद्ध चेतना है किंतु यह इस ब्रह्मांण का कारण या निर्माता नहीं है।
- आत्माः आत्मा आधारभूत, अंतिम, शाश्वत, अपिरवर्तनशील, पवित्र और चैतन्य है। इस प्रकार, यह प्रतीत होता है कि इस जगत का अंतिम सत्य ब्रह्म है और सभी जीवों में आत्मा पवित्र चेतना है। दूसरे शब्दों में ब्रह्म और आत्मा दो विलगित सत्य नहीं है बल्कि संगत है। प्रायोगिक दृष्टि से, उन्हें भिन्न बताया गया है। वे शाश्वत हैं और सर्वव्यापी हैं।
- माया ब्रह्म की शक्तिः माया त्रिगुणात्मक है अर्थात इसके तीन गुण हैं। किंतु बह्म निर्गुण है, अर्थात दोषों से परे है। शुद्ध निर्गुण ब्रह्म ही सर्वोच्च सत्ता है। जब निर्गुण ब्रह्म में माया के सम्पर्क में आता है तो यह माया के गुणों के कारण सगुण ब्रह्म कहलाता है। सगुण ब्रह्म ही ईश्वर, अर्थात रचियता, पालक और विनाशक है। मन भगवान को विभिन्न नामों से जानता है और पूछता है । यह हिन्दूत्व के बहुदेववाद की व्याख्या करता है।
- ब्रह्म और मायाः जगत और जगत के विभिन्न पदार्थां का अस्तित्व माया की शक्ति के कारण है। माया और इसकी रचना एक भ्रम है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जगत असत्य है। असत और भ्रम दो अलग-अलग तथ्य हैं। एक भ्रम असत हो जरूरी हो नही क्योकि भ्रम का आधार सत में होता है। सत स्वंय में ही निहित होता है । माया ब्रह्म पर निर्भर करती है। माया ने ही यह दृश्य मूलक जगत की रचना की है, और इसलिए भ्रम की रचना भी माया ने ही की है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि जगत का अस्तित्व हीं नहीं है। अद्वैत वेदान्त में प्रसिद्ध ‘‘रस्सी-सांप‘‘ के उदाहरण के द्वारा यह समझाया गया है कि, ‘‘यह न तो शाश्वत सत है, ना ही पूर्णतः असत, भ्रम और ना ही अस्तित्व‘‘।
- अविद्या या अज्ञानः अविद्या का अर्थ न केवल ज्ञान का अभाव है, बल्कि मिथ्या ज्ञान भी अज्ञान के समान ही है। मनुष्य जो अविद्या के भ्रम में उलझा हुआ रहता है, सत को नहीं जानता और समझता है कि जो कुछ दिखाई दे रहा है वहीं सत्य है। वह स्वंय का अस्तित्व केवल शरीर से ही मानता है। माया और अविद्या के प्रभाव के कारण वह स्वंय को शाश्वत सत्य से विलगित कर लेता है। जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है, तो उसे स्वंय और ब्रह्म के द्वैत का ज्ञान होता है। वह स्वीकार करता है कि आत्म और ब्रह्म एक ही है। आत्म ज्ञान के साथ ही अविद्या समाप्त हो जाती है।
- मोक्ष मोक्ष का अर्थ बंधनों से मुक्तिः मनुष्य असंख्यक इच्छाओं और अज्ञान के बंधनों में जकडा रहता है। आत्म ज्ञान होने पर, जीव इच्छाओं, आकांक्षाओं, आवेगों कर्म और अविद्या के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यही मोक्ष या कैवल्य है। मोक्ष को इसी जगत में प्राप्त करना चाहिए।
- ज्ञान और सत्य ज्ञान और सत्य दो प्रकार के होते हैंः एक निम्न और उच्च। निम्न या परम्परागत ज्ञान को व्यवहारिक सत्य कहा जाता है। यह चैतन्य और बुद्धि का परिणाम होता है। उच्च ज्ञान को परमार्थिक सत्य कहा जाता है। यह परम होता है। यह शब्द विचार, अवधारणा के परे होता है। यह चैतन्य और बुद्धि से भी परे होता है। यह उच्च आत्मदृष्टि और दिव्य दृष्टि के मिश्रण से प्राप्त किया जा सकता है। उच्च ज्ञान और सत्य के माध्यम से सम्पूर्ण रूपांतरण किया जा सकता है।
- अद्वैतः कुमारिल भट्ट के द्वारा प्रतिपादित मिमांसा के अनुसार वेदान्त में 6 प्रमाण हैः
- 1.प्रत्यक्ष
- 2.अनुमान
- 3.शब्द
- 4.उपमा (उपमान)
- 5.अभिधारण (अर्थपत्ति)
- 6.अनुपलब्धि
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