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सिंधु घाटी सभ्यता भाग - 3
12.0 उत्पत्ति, परिपक्वता और अंत
हड़प्पा संस्कृति 2500 से 1800 ईसा पूर्व के बीच अस्तित्व में रही। इसके परिपक्व चरण को 2200 से 2000 ईसा पूर्व के बीच रखा जाएगा लेकिन अपने अस्तित्व की अवधि के दौरान इसने उपकरण, हथियार और घरों के निर्माण को एक तरह का ही रखा, ऐसा लगता है। जीवन की सारी शैली समान ही प्रतीत होती है-जैसे शहर निर्माण की योजना बनाना, अंकन लिपि, मिट्टी की वस्तुओं का निर्माण। किंतु अपरिवर्तन का हमारा विचार बहुत दूर तक नहीं ले जाया जा सकता है। समय की अवधि में मोहनजोदाड़ो की मिट्टी के बर्तनों में परिवर्तन की सूचना प्राप्त होती है। अठारहवीं सदी ई.पू. तक हड़प्पा संस्कृति के दो महत्वपूर्ण शहर-हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो विलुप्त हो गये, लेकिन अन्य स्थलों पर हड़प्पा संस्कृति धीरे-धीरे काफी हीनावस्था मे आई। गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी दूरस्थ छोर में अपने पतित चरण में यह चलती रही।
हड़प्पा संस्कृति की उत्पत्ति की व्याख्या करना जितना मुश्किल है, उतना ही इसके अंत की व्याख्या भी कठिन है। कई पूर्वकालीन बस्तियां को बलूचिस्तान और राजस्थान के कालीबंगा में पाया गया। लेकिन हड़प्पा संस्कृति इन स्वदेशी बस्तियों के बाहर विकसित हुई या नहीं, इसका संकेत नही है। हालांकि इन पूर्वकालीन बस्तियां और पश्चातकालीन हड़प्पा संस्कृति के बीच भी संबंध स्पष्ट नहीं है। हड़प्पा संस्कृति के विकास के प्रोत्साहन के लिए मेसोपोटेमिया शहरों के साथ उपमहाद्वीपीय संपर्क से हड़प्पा शहरों की वृद्धि, इसके प्रशस्तीकरण का स्पष्ट सबूत है। लेकिन हड़प्पा संस्कृति की भारतीयता के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता। कुछ तत्व, पश्चिमी एशिया के समकालीन संस्कृतियों से इसे अलग करते हैं। यहां बनी शतरंज बोर्ड प्रणाली, सड़कों, जल निकासी, पाइप और जल निकासी मार्गों से शहरों की योजना बनाई गई हैं वहीं दूसरी ओर, मेसोपोटेमिया शहर में अत्योत्तर वृद्धि दिखी, जिनमे ईंट से अटे स्नानगृह और आयताकार घर मिले। वही हड़प्पा के सभी शहरों में कुओं के साथ सीढ़ीयाँ पाई गइंर्। इस तरह की शहरी योजना अब पश्चिमी एशिया के शहरों में नहीं मिलती है। प्राचीन काल में “नोसोस“ के “क्रेट“ के लोगों को छोड़कर शायद ही इस तरह की एक उत्कृष्ट जल निकासी व्यवस्था का निर्माण किया गया था और न ही हड़प्पा सभ्यता की तरह पकी ईंटों के उपयोग का कौशल पश्चिमी एशिया में दिखा।
हड़प्पा के लोगों ने अपने स्वयं के निर्माणित मिट्टी के बर्तनों और अंकनों का उत्पादन किया। इन मुहरों में स्थानीय पशु से संबंधित सामग्री का प्रतिनिधित्व भी पाया गया। इन सबसे ऊपर, मिस्र और मेसोपोटामिया की लिपियों से भिन्न उन्होने अपनी खुद की ठेठ लिपि का आविष्कार किया। हड़प्पा संस्कृति एक पीतल युग संस्कृति थी किन्तु वे एक सीमित पैमाने पर पीतल का इस्तेमाल करते थे व बड़े पैमाने पर पत्थर के औजारों का उपयोग करते थे। अंततः अन्य कोई संस्कृति, हड़प्पा संस्कृति के समान इतने व्यापक क्षेत्र में नही फैली थी। हड़प्पा की संरचना का प्रभाव प्रत्येक 5 किमी में आभामंडित होता है और उस प्रकार से कांस्य युग में अपनी तरह की सबसे बड़ी संस्कृति है। मेसोपोटामिया की प्राचीन संस्कृति 1800 ईसा पूर्व तक मौजूद रही, वहीं शहरी हड़प्पा संस्कृति उस समय तक विलुप्त हो चुकी थी। इसके लिए कोई स्पष्ट कारण सामने नही आ सका।
सिंधु क्षेत्र में वर्षा की मात्रा में 3000 ई.पू. के आसपास वृद्धि हुई और फिर दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. के दौरान कमी आई। इससे कृषि और पशुधन प्रजनन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा ज्ञात होता है। मिट्टी की बढ़ती लवणता के कारण उसके उपजाउपन पर प्रतिकूल प्रभाव के लिए पड़ोसी स्थल की रेगिस्तानी भूमि के विस्तार को भी वजह माना जा सकता है। दूसरी ओर बाढ़ के कारण जो जमीन का अचानक कटाव हुआ उसको भी इसका श्रेय जाता है। मोहनजोदाड़ो के दूरदराज के इलाकों मे भूकंप व बाढ़ के कारण भी सिंधु के कालक्रम में परिवर्तन आया। किंतु आर्यों द्वारा हड़प्पा संस्कृति को नष्ट कर दिया गया, ऐसा कुछ लोगों द्वारा माना जाता है।
सबसे बड़े कांस्य युग की सांस्कृतिक इकाई के विघटन के परिणामों को स्पष्ट किया जाना अब भी बाकी हैं। शहर से व्यापारियों और कारीगरों का पलायन और हड़प्पा प्रौद्योगिकी और ग्रामीण इलाकों में जीवन तत्वों का प्रसार व नेतृत्व आदि कारण ज्ञात नहीं है। पश्चातकालीन हड़प्पा संस्कृति को सिंध, पंजाब और हरियाणा की शहरी स्थिति से संबंधिंत अवश्य माना जाता है। हम सिंधु क्षेत्र के भीतर कृषि बस्तियों भी पाते हैं। लेकिन पूर्ववर्ती संस्कृति के साथ उनके संबंध स्पष्ट नहीं हैं। इसके लिए स्पष्ट और पर्याप्त जानकारी अनिवार्य है।
12.1 हड़प्पा संस्कृति के पश्चातकालीन शहरी चरण
हड़प्पा संस्कृति 1800 ई.पू. तक विघमान रही एैसा लगता है। तत्पश्चात् इसके शहरी चरण से व्यवस्थित नगर नियोजन, व्यापक लेखन, मानक बाट और माप, गढ़ और शहर के बीच भेद, पीतल उपकरणों के उपयोग और व्यावहारिक रूप से काले डिजाइन के साथ चित्रित लाल मृदभांड, मिट्टी के बर्तनों की कला, चिह्नित शैलीगत एकरूपता लगभग विलुप्त हो गयी। पश्चात्कालीन शहरी हड़प्पा चरण में शैलीगत विविधता को चिह्नित किया गया था तथा ऐसे कुछ लक्षण पाकिस्तान में पाए जाते हैं। मध्य और पश्चिमी भारत के पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी ये पाए गए। 1800 ईसा पूर्व से 1200 ईसा पूर्व तक पश्चातकालीन हड़प्पा संस्कृति की अवधि रही इसी कारण इसे “उपसिंधु सभ्यता“ के रूप में जाना जाता है, जो पश्चात्कालीन हड़प्पा संस्कृति के रूप में लोकप्रिय है।
पश्चात्कालीन हड़प्पा संस्कृति मे पत्थर और तांबे के उपकरणों का इस्तेमाल होता था, जो कि मुख्य रूप से “ताम्रपाषाण युग“ से संबंधित हैं, जहां कुल्हाड़ियों, छैनी, चाकू, चूडीयाँ, घुमावदार छुरा, मछली हुक और भाला आदि शामिल थे। पश्चात्कालीन हड़प्पा चरण में “ताम्रपाषाण युग“ के लोग कृषि, पशुपालन, शिकार और मछली पकड़ने पर निर्भर थे। कदाचित ग्रामीण क्षेत्रों में धातु, प्रौद्योगिकी के प्रसार व कृषि को बढ़ावा दिया गया था। इस तरह गुजरात में प्रभस पत्न (सोमनाथ) और रंगपुर, में कुछ स्थानों पर, हड़प्पा संस्कृति के प्रत्यक्ष साक्ष्य पाए गए हैं। लेकिन उदयपुर के नजदीक आहाड़ में केवल कुछ हड़प्पा तत्व पाए जाते हैं। आहाड़ संस्कृति गिलूंड मे एक क्षेत्रीय केंद्र लगती है, पर ईंट संरचनाओं के कारण इसे 2000 से 1500 ईसा पूर्व के बीच रखा जा सकता है। अन्यथा हड़प्पा चरण में पकी ईंटां की संरचना हरियाणा के भगवानपुरा के अलावा कहीं भी पायी नहीं गई। ओसीपी के टुकड़े पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में लाल किले के पास पाए गए हालांकि यह हड़प्पा तत्व मालवा की “ताम्रपाषाण युग“ संस्कृति में (1200 से 1700 ईसा पूर्व) में दिखाई नहीं देते हैं। “नेवदाटोली“ क्षेत्र इस मालवा सभ्यता का सबसे बड़ा प्रमाण था, इसी प्रकार तापी, गोदावरी व भीमा की घाटियों में मिली असंख्य जोरवे स्थलों में भी हड़प्पा के चिन्ह नहीं मिलते हैं। जोरवे स्थलां में दायमाबाद की बस्तियों की संभावित आबादी 4000 के करीब थी। यह बस्ती लगभग 22 हेक्टेयर क्षेत्र मे फैली थी। यह आद्य शहरी माना जा सकता है, लेकिन जोरवे बस्तियां ज्यादातर गांवों में ही थी।
पश्चात्कालीन हड़प्पा बस्तियों मे “स्वात घाटी“ की खोज की गई। यहाँ ग्रामीण लोगों ने पशु पालन व विकसित कृषि का अभ्यास किया। उन्होंने पहियों पर उत्पादित काले बर्तन, जो कि तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. के दौरान उत्तरी इरान के पठार के मिट्टी के बर्तनों से संबंधित लगते हैं, का इस्तेमाल किया। बाद में स्वात घाटी के लोग भी काले व लाल मृदभांड का उपयोग करते थे। वे पहिये पर बने मिट्टी के बर्तन को पेंट और उत्पादित भी करते थे, जिसका शहरी आद्य सिंधु संस्कृति के मिट्टी के बर्तनों के साथ घनिष्ठ संबंध है। स्वात घाटी के हड़प्पा के साथ शहरी संस्कृति के संबंध के कई प्रमाण मिलते हैं। इसलिए स्वात घाटी को पश्चात्कालीन हड़प्पा संस्कृति के उत्तरी छोर के रूप में माना जा सकता है। कई पश्चात्कालीन हड़प्पा स्थल पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के भारतीय प्रदेशों मे, और जम्मू की खुदाई में पाए गए।
ये तत्व जम्मू के मांड़ा, पंजाब के चंडीगढ़ और संघोल, हरियाणा के दौलतपुर एवं मिटथल तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हुलास व आलमगिरपुर जिले में भी पाए गए। आलमगिरपुर में कपास के उत्पादन के भी साक्ष्य हैं। रगी के साक्ष्य कहीं नहीं पाये गए।
पश्चात्कालीन हड़प्पा संस्कृति के उत्तरी और पूर्वी भाग में नए प्रकार की आसान चित्रकारी को मिट्टी के बर्तनों पर पाया गया। कुछ पर भगवानपुरा क्षेत्र के समान ही मिट्टी के बर्तनां पर काले रंग से चित्रकारी पाई गई, किंतु अब हड़प्पा संस्कृति अपने अंतिम चरण की ओर बढ़ रही थी। पश्चात्कालीन हड़प्पा सभ्यता से भगवानरूपी आकृतियां व रेखाएं लगभग नदारद हो गइंर्। पश्चात्कालीन हड़प्पा चरण में लंबाई मापने के लिए कोई वस्तु, घनीय पत्थर आदि अनुपस्थित थे। यद्यपि गुजरात में हड़प्पा चरण से संबंधित मिट्टी और चीनी मिट्टी के बर्तन फैशन से बाहर चले गये, जबकि यह स्वतंत्र रूप से उत्तर भारत में इस्तेमाल की गई। पश्चात्कालीन हड़प्पा के चरण में पश्चिम एशियाई केन्द्रों के साथ सिंधु व्यापार के अंत को देखा गया, जिसमे बिल्लौर, मनकां, मोती, तांबे और पीतल वाहिकाएं आदि व्यापार से अनुपस्थित रहे। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में भी खुदाई की गई, जिसमे पश्चात्कालीन हड़प्पा स्थलों की ग्रामीण बस्तियों के साक्ष्य मिले।
पश्चात्कालीन हड़प्पा संस्कृति के दौरान कुछ विदेशी उपकरण और बर्तनों की बनावट सिंध की ओर बढ़ती नए लोगों की धीमी गति का संकेत थी। असुरक्षा और हिंसा के कुछ संकेत मोहनजोदाड़ो के अंतिम चरण में दिखाई देते हैं। आभूषणों के कईं हिस्से कई अलग स्थानों पर दफन मिले और खोपड़िया भी कईं स्थानों पर समाहित पाई गईं। नए प्रकार की कुल्हाड़ीयां, खंजर, चाकू आदि मोहनजोदाड़ो के ऊपरी स्तरों में पाए गये। कुछ विदेशी घुसपैठीयों की आवाजाही भी प्रतीत होती है। नए लोगों के निशान, मिट्टी के बर्तनों के नवीनतम प्रकार के स्तरों में शामिल पाए गए थे जहां पश्चात्कालीन हड़प्पा से संबंधित कब्रिस्तान व मिट्टी के बर्तनों के नए प्रकार मिले। बलूचिस्तान में कुछ हड़प्पा स्थलां में भी बदलाव के निशान पाए गए। पंजाब और हरियाणा में काले बर्तन आम तौर पर वैदिक लोगों के साथ जुडे थे, वे भी पाए गए जो 1200 ई.पू. के आसपास दिनांकित, पश्चात्कालीन हड़प्पा संस्कृति के साथ संयोजन के रूप में मिले। ये लोग पहाड़ियों के माध्यम से ईरान से आये हो सकते हैं, जिसके लिए बारबेरियन घुडसवारों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। लेकिन नए बारबेरियन घुडसवार ज्यादा संख्या में पंजाब और सिंध के हड़प्पा शहरों में नहीं आये थे। ऋग्वैदिक आर्य, सात नदियों के देश में बसे हालांकि परिपक्व हड़प्पा और आर्यों के बीच किसी भी बड़े पैमाने पर टकराव का कोई पुरातात्विक साक्ष्य नही मिला है। वैदिक लोगों ने 1800 और 1200 ईसा पूर्व के मध्य हड़प्पा संस्कृति को देखा होगा।
13.0 नवीनतम पुरातात्विक खोजें
अप्रैल 2015 में प्रकाशित भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार हडप्पा-कालीन सभ्यता के सबसे बडे और प्राचीनतम स्थल फतेहाबाद जिले के भिराना गांव में स्थित हैं। कार्बन डेटिंग तकनीक दर्शाती है कि इस स्थान की अवधि 7570 से 6200 ईसापूर्व की हो सकती है। इस खोज के साथ ही इस स्थान ने सिंधु घाटी की सभ्यता के प्राचीनतम स्थान के रूप में मेहरगढ़ को प्रतिस्थापित कर दिया है। इस रिपोर्ट के अनुसार भीरराणा के निकट एक गांव राखीगढ़ी हडप्पा कालीन सभ्यता का विश्व में सबसे बडा स्थान है। उत्खनन से ज्ञात हुआ है कि यह स्थान 400 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है, जो पाकिस्तान में स्थित मोहनजोदडो स्थल से लगभग दुगना बड़ा है।
नए उत्खनन ने विविध प्राचीन शिल्पकृतियां भी दर्शाई हैं जिनमें टेराकोटा से निर्मित चूडियां, मिट्टी के बर्तनों के टुकडे़, एक मुहर और एक पात्र का ठीकरा भी शामिल हैं जिसपर हडप्पा कालीन लिपि उकेरी हुई है। ज्यामितीय आकृतियों से चित्रित बर्तनों के ठीकरे और टेराकोटा से बनी जानवरों की मूर्तियां भी मिली हैं जो सभी परिपक्व हडप्पा कालीन सभ्यता के काल से जुडे़ हुए हैं। ये खोजें इस क्षेत्र की भौतिक समृद्धि की ओर इशारा करती हैं। इसके अतिरिक्त, टीलों के चारों ओर खुदी पांच खाइयां भी मिली हैं जिससे आवासीय कमरों, सोखने के पात्र, नालियों, एक सिगड़ी और एक मंच के साथ स्नानघर की जानकारी मिलती है जो सभी मिट्टी की ईंटों से निर्मित हैं। राखीगढ़ी के प्राचीन हडप्पा कालीन स्थल का बाकी हिस्सा अभी भी वर्तमान गांव के नीचे दबा हुआ है, जहां इन पुरातात्विक अवशेषों पर सैकड़ों मकान निर्मित हैं।
अक्टूबर 2014 में यह बताया गया था कि हडप्पा-कालीन सभ्यता के सबसे बडे़ शहरों में से एक कच्छ के धोलावीरा में एक 5,000 वर्ष पुरानी बावड़ी (सीढ़ीदार कुआँ) मिली है जो मोहनजोदड़ो में प्राप्त विशाल स्नानघर से तीन गुना से भी अधिक बड़ी है। यह आयताकार है जिसकी लंबाई 73.4 मीटर, चौडाई 29.3 मीटर और गहराई 10 मीटर है।
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