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विभिन्न राजपूत वंश भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
भारतीय इतिहास में, हर्ष की मृत्यु के बाद का कालखण्ड संक्रमणकाल (transitional period) माना जाता है। आठवीं शताब्दी ई.पू. के बाद के इस कालखण्ड में राजपूतों का उदय विभिन्न वंशां के रूप में हुआ, और उन्हांने उत्तरी और पश्चिमी-भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
राजपूत शब्द से आशय उस वर्ग या वंश से है, जो स्वयं को ‘सूर्य‘ या ‘चंद्र‘ वंशीय क्षत्रिय कहते थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति का संबंध गुर्जरां की उत्पत्ति से है। छठी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में, हूणों के साथ खज़ार नाम की एक जनजाति भारत में आ गई। यह लोग ही गुर्जरों के नाम से जाने लगे। चारण कथाओं के अनुसार, प्रतिहार (परिहार) चालुक्य (सोलंकी), परमार (पंवार) और चव्हाण (चौहान) की उत्पत्ति दक्षिणी राजपुताना में माउण्टआबू में स्थित पवित्र बलिदान ‘अग्निकुण्ड‘ से मानी जाती है, अतः इन्हें अग्निकुल के वंश कहा जाता है।
5वीं और 6ठी शताब्दी के दौरान जिन हूणों, गुर्जरों और इनसे संबंधित जातियों ने भारत में प्रवेश किया, उन्होंने स्वयं को उनके पूर्वगामियों ग्रीक, कुषाण और शकों के समान स्वयं को भारत में मिला लिया। दक्षिणी समूह में, चंदेल, कलचुरी या हैह्य और गहरवार मुख्य वंश थे। स्पष्ट तौर पर वे, तथा कथित रूप से स्थानीय गौण्ड या भाढ़ वंशों के उत्तराधिकारी के रूप में सामने आये। चंदेलों और गौण्डों के बीच सह-सम्बंधों के प्रमाण स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। चंदेल राजपूत मूल रूप से भाढ़ या गौण्ड या दोनों ही थे, जो राजनीतिक शक्ति प्राप्त होने पर क्षत्रिय के रूप में उभरकर सामने आये। गहरवारों का संबंध भी भाढ़ से है; बुन्देला भी उत्तरी-भारत के राठौड़ थे जिनका संबंध गहरवारों से था। सामान्य तौर पर देखें तो, राजपूतों ने, जो मूल रूप से विदेशी वंश के थे स्थानीय निवासियों के साथ मिलकर एक नये सामाजिक वर्ग का उदय कर दिया।
2.0 परमार वंश
परमार वंश के उदय को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। सबसे ज्यादा स्वीकार किया जाने वाला सिद्धांत यह है कि परमार, चौहानों, प्रतिहारों (परिहारां) और सोलंकी (चालुक्य) वंशों के साथ-साथ उन चार अग्नि कुल के वंशों में से एक थे जो क्षत्रिय कहे जाते हैं, और जो वास्तव में गुर्जर मूल के थे ।
डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार सोलंकी, परमार, गोहिल और चौहानों का उद्गम ब्राह्मणों से मानते हैं, यद्यपि अन्य विद्ववान यह बताते हैं कि सोलंकी और परमार वास्तव में गुर्जरों (गुज्जरों) के ही उत्तरगामी हैं। एक अन्य मत के अनुसार परमार वंश को मध्य भारत की एक जनजाति माना जाता है, जो राष्ट्रकूटों के सामंत थे और जिन्हें समय के साथ राजनीतिक अधिकार मिल गये।
राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में, पाली में रचे गये कई बौद्ध शिलालेख खोजे गये हैं। इन शिला लेखों के अनुसार बहुत प्रारंभ से ही तक्षक मोरी चित्तौड़ के शासक थे। सियालकोट का हूण साम्राज्य (मिहिर कुल 515-540 ईस्वी), जिसे यशोधर्मन ने नष्ट कर दिया था, का एक नये क्षत्रिय कुल के रूप में उदय हुआ जिसे ‘तक’ या तक्षक कहा जाने लगा। इस वंश के लोगों ने असीरगढ़ पर अधिकार कर लिया और लगभग दो शताब्दियों के बाद पृथ्वीराज चौहान के समय में इस वंश का मुखिया एक प्रमुख नेता के रूप में सामने आया। चंदर की कविताओं में उसे ‘‘असीर का तक‘‘ कहा गया है।
एक अन्य मत के अनुसार, परमार वंश को राष्ट्रकूट वंश (राठौरों) की ही एक शाखा माना गया है, जो समय के साथ उनसे छिटककर अलग हो गई तथा जिसने स्वयं को विशिष्ट राजपूत वंश घोषित कर लिया।
2.1 राजनीतिक इतिहास
सियाक द्वितीयः परमारों का इतिहास वास्तव में सियाक के राज्यारोहण से प्रारंभ होता है। उसकी सबसे बड़ी विजय यह थी की उसने राष्ट्रकूटों के अधिकारों को मानने से इंकार कर दिया था जो कि अभी तक परमारों द्वारा स्वीकार किया जाता था। राष्ट्रकूट राजा कृष्णा तृतीय की मृत्यु ने उसे यह अवसर दिया की वह स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर ले। सियाक ने प्रतिहार और राष्ट्रकूट साम्राज्य के बहुत बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया। उसके दो पुत्र थे - मुन्ज और सिंधुराज। उसका पुत्र मुंज (वाक्पतिराजा द्वितीय) उसका उत्तराधिकारी बना।
मुन्जः वह इस वंश का सबसे भव्य शासक था। वह एक महान योद्धा था तथा उसकी वीरता के गुण चारणों द्वारा भी गाये जाते थे। उसने कलचुरी राजा युवराज द्वितीय को पराजित किया। उसका सबसे बड़ा प्रयास था कि राजपूताना के भीतर अपने साम्राज्य का विस्तार किया जाए। मुन्ज ने अनहिलपाटक के चालुक्य वंश के मूलराज को भी पराजित किया।
मुन्ज का सबसे बड़ा शत्रु चालुक्य शासक तैल द्वितीय था, जिसने राष्ट्रकूटों को पराजित करने के बाद दक्कन में अपना अधिकार जमा लिया था और वह मालवा को भी अपने अधिकार क्षेत्र में लाना चाहता था। जो कभी उन्हीं का हुआ करता था। तैल ने मालवा पर कम से कम 6 बार आक्रमण किया, किन्तु सभी अवसरों पर उसे मुन्ज ने खदेड़ दिया। अपने इस स्थायी शत्रु से निजात पाने के लिए मुन्ज ने तैल द्वितीय के विरूद्ध एक आक्रमक अभियान प्रारंभ किया, किन्तु वह शत्रुओं के हाथों पकड़ा गया और मार दिया गया।
सिंधुराजः मुन्ज का उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई सिंधुराज बना, जिसने तैल द्वितीय के हाथों खोया हुआ अपना सारा क्षेत्र हासिल कर लिया। उसने लता (दक्षिण-गुजरात) को भी जीत लिया, किंतु उत्तरी-गुजरात को जीतने की उसकी महत्वाकांक्षा को चालुक्य शासक मूलराज प्रथम के पुत्र चामुण्डराय ने असफल कर दिया।
भोजः सिंधुराज का उत्तराधिकारी उसका पुत्र भोज (भोजदेव) बना, जो परमार वंश का सबसे प्रतापी व्यक्तित्व था। आधी शताब्दी का भोज का शासनकाल विभिन्न राजाओं के विरूद्ध आक्रामक अभियानों की एक श्रृंखला के रूप में जाना जाता है। अनवरत युद्धों में उलझे रहने के बावजूद, भोज कोंकण को छोड़कर किसी नये क्षेत्र को हासिल नहीं कर सका। वह एक उच्च कोटी का विद्वान था तथा उसने कई विद्वानों को संरक्षण दिया था, यही वह तथ्य है जो उसे उसके समकालीनों से अलग श्रेणी में खड़ा करता है। उसने विभिन्न विषयों पर 23 से ज्यादा पुस्तकां की रचना की। पतंजली के योगसूत्र पर लिखी हुई उसकी संक्षिप्त टीका उसकी विद्वत्ता का स्पष्ट प्रमाण है। उसके द्वारा रचित- समरंगसूत्रधारा, कला और स्थापत्य का एक उत्कृष्ट कार्य है। धनपाल, युवता और अन्य कई विद्वान उसके दरबार में रहते थे। उसने भोजपुर नामक एक शहर बसाया तथा कई मंदिरों का निर्माण किया। उनकी आत्मकथा ‘भोजप्रबंधनम्‘ है।
उत्तरकालीन शासकः भोज की मृत्यु के पश्चात्, परमार युग की सर्वोच्चता का दौर समाप्त हो गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार के लिए झगड़े होने लगे; जयसिम्हा, जो कि एक अनुमान के अनुसार भोज का पुत्र था, अपने शत्रु दक्कन के चालुक्य राजकुमार विक्रमादित्य षष्ठम की मदद से सिंहासन पर बैठ गया। तब से जयसिम्हा विक्रमादित्य का प्रगाढ़ सहयोगी बन गया और उसने वैंगी के पूर्वी चालुक्यों के विरूद्ध विक्रमादित्य के असफल अभियान में उसकी मदद की। उदयादित्य, जो की भोज का भाई था, जयसिम्हा का उत्तराधिकारी बना। उदयपुर में भिलसा में स्थित नीलकण्ठेश्वर मंदिर का निर्माण उसी ने करवाया। उदयादित्य के कई लड़के थे जिनमें से लक्ष्मण देव और नरवर्मन, उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी बने।
परमार वंश का अंतिम ज्ञात शासक महलक देव था, जिसे अलाउद्दीन खिलजी ने पराजित किया था। महलक देव को मार दिया गया और तब से मालवा, सल्तनत का एक राज्य बन गया।
परमारों की कुछ अन्य छोटी शाखाएं भी थीं जो राजपूताना के विभिन्न हिस्सों जैसे माउण्ट आबू, वैगढ़ (आधुनिक बांसवाड़ा और डुंगरपुर), जावालीपुर (जालौर), भीनमल (दक्षिणी मारवाड़) में शासन करते थे। इन सारे छोटे-छोटे राज्यों को इनके पड़ोसी राज्यों जैसे गोहिल और चौहानों (चहामनों) के द्वारा जीत लिया गया। परमारों के अधीन, मालवा में साहित्य और कलाकार प्रचुर विकास हुआ। भोज के शासन काल में धार को साहित्य की राजधानी माना जाता था। भोज एक महान निर्माता होने के साथ-साथ कला प्रेमी था। धार के सरस्वती मंदिर के मुख्य कक्ष में स्थापित सरस्वती की प्रतिमा, परमार स्थापत्य कला का सर्वोत्तम उदाहरण है।
3.0 सोलंकी वंश
सोलंकी वंश राजसी हिन्दू साम्राज्य था जिसने पश्चिमी और मध्य भारत के विभिन्न हिस्सों पर 10वीं से लगाकर 13वीं शताब्दी के मध्य शासन किया। सम्भवतः यह भारत का अंतिम हिन्दू वंश था। इस वंश की स्थापना 942 ईस्वी में मूलराज प्रथम ने की। वह समंतसिंह का दत्तक पुत्र था, जो कि चावड़ा वंश का अंतिम शासक था, जिसके सदस्य इस क्षेत्र के भूतपूर्व शासक रहे थे। सोलंकी शब्द का उद्गम प्राचीन भारतीय वंश चालुक्य से हुआ है। 543-566 ईस्वी के मध्य, पुलकेशी प्रथम ने वातापी (बादामी, उत्तर कर्नाटक के बागलकोट जिले) में एक साम्राज्य की स्थापना की थी। राजस्थान के राजपूत और गुर्जर समुदायों में सोलंकी वंश की उत्पत्ति वहीं से मानी जाती है।
3.1 राजनीतिक इतिहास
मूलराज प्रथमः चालुक्य या सोलंकी वंश ने गुजरात और काठियावाड़ में 950-1300 ईस्वी तक लगभग 350 वर्षों तक शासन किया। मूलराज प्रथम ने अन्हिलपाटक को अपनी राजधानी बनाते हुए एक स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित किया। मूलराज को मुन्ज परमार के हाथों अपमानित होना पड़ा और वह मारवाड़ चला गया। जब उसे कल्चुरी शासक लक्ष्मण ने भी तब हरा दिया जब वह अपना साम्राज्य पुनः प्राप्त नहीं कर सका था। उसका साम्राज्य उत्तर में जोधपुर से लगाकर दक्षिण में नर्मदा तक फैला हुआ था। वह एक शैव भक्त था और उसने अन्हिलपाटक में दो मंदिरों का निर्माण भी करवाया था। मूलराज की मृत्यु के पश्चात और भीमा प्रथम के सिंहासन पर बैठने के बीच के 25 वर्षों का इतिहास अपमानजनक रहा।
भीम प्रथमः उसके साम्राज्य को सुल्तान महमूद गजनी के आक्रमणों के कारण भारी क्षति हुई, जिसने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर की सम्पन्नता को बहुत लूटा। भीमा, जो सुल्तान महमूद के आक्रमण के समय कच्छ भाग गया था, उसके वापस चले जाने के बाद ही अपनी राजधानी पुनः लौटा। भीमा का शासनकाल भारतीय इतिहास में स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। उसी के शासनकाल में आबू के प्रसिद्ध दिलवाड़ा मंदिर का निर्माण हुआ था। उसने अपने पुत्र करण के लिए सिंहासन छोड़ दिया।
कर्णः 30 वर्षों के लम्बे शासनकाल के बावजूद, कर्ण कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं कर सका। किंतु उसने अनगिनत मंदिर बनवाये और एक शहर की नींव भी रखी। इस शहर को आज अहमदाबाद कहा जाता है।
जयसिम्हा सिद्धराजः जयसिम्हा, जिसने सिद्धराज की उपाधि ग्रहण की थी, अपने पिता कर्ण का उत्तराधिकारी था और उसने लगभग 50 वर्ष शासन किया। उसने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए कई युद्ध लड़े। उत्तर में उसने परमारों को पराजित करते हुए भीनमल को अपने साम्राज्य में मिलाया। फिर उसने शाकम्भरी के चौहानों को भी पराजित किया। उसने चंदेल साम्राज्य पर आक्रमण किया और कलिन्जर और महोबा तक पहुंचा। दक्षिण में भी उसने कल्याणी के चालुक्य राजा, विक्रमादित्य षष्ठम को पराजित किया।
जयसिम्हा साहित्य का बहुत बड़ा संरक्षक था। उसके शासनकाल में गुजरात साहित्य और शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र बन गया था। उसके दरबार में हेमचंद्र जैसे कई कवियों और विद्वानों को स्थान प्राप्त था। हेमचन्द्र ने व्याकरण की प्रसिद्ध पुस्तक सिद्ध-हेमचन्द्र सहित कई पुस्तकों की रचना की थी। वह एक शैव था तथा उसने कई मंदिरों का निर्माण करवाया जिसमें सिद्धपुर का प्रसिद्ध रूद्रमहाकाल मंदिर भी है। उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन पर उसके एक दूर के संबंधी कुमार पाल ने अधिकार कर लिया।
कुमारपालः कुमारपाल ने हेमचन्द्र के प्रभाव में आकर जैन धर्म ग्रहण कर लिया था। उसने पशुबलि और जीव हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था। उसके ये आदेश न केवल उसके राज्य में माने जाते थे बल्कि उसके कुछ सामंत भी उसके इन आदेशों का पालन करते थे। जैन मत के प्रति उसके धार्मिक झुकाव के बावजूद उसने अपने कुल देवता शिव के प्रति भी समर्पण जारी रखा, और जैन मंदिरों के साथ-साथ हिन्दू बाह्मण मंदिरों का भी निर्माण करवाया।
मुलराज द्वितीयः 1178 ईस्वी में मुइज़ुद्दीन मोहम्मद गौरी ने गुजरात पर आक्रमण किया किन्तु सोलंकी वंश के योद्धाओं ने मूलराज की मां के नेतृत्व में उनका वीरतापूर्वक सामना किया और उन्हें माउण्ट आबू के निकट पराजित कर दिया। हालांकि 1197 ईस्वी में जब तुर्को ने भारत पर विजय पा ली थी, कुतुब-उद्दीन-ऐबक ने गुजरात पर आक्रमण किया और अन्हिलपाटक को जीत लिया।
भीम द्वितीयः भीमा के शासनकाल में, गुजरात को आक्रमणकारियों से बचाने के लिए सारे प्रबंध लवण प्रसाद और उसके योग्य पुत्र वृधवाल द्वारा किये जाते थे। किन्तु सबसे बड़ी समस्या यादव सिंघना के द्वारा किये जाने वाले आक्रमण थे, जिनसे वृधवाल ने गुजरात की सफलतापूर्वक रक्षा की।
पश्चात शासकः त्रिभुवन पाल भीमा द्वितीय का उत्तराधिकारी बना। इसके पश्चात वृधवाल के पुत्र वीरमा ने सिंहासन हासिल कर लिया। सारंगदेव अगला शासक था, जिसका उत्तराधिकारी उसका भतीजा कर्ण द्वितीय बना। कर्ण द्वितीय गुजरात का अंतिम हिन्दू शासक था। उसके कुछ समय पश्चात ही गुजरात पर अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण कर दिया। कर्ण द्वितीय देवगिरी भाग गया, किन्तु उसकी रानी कमला देवी और पुत्री देवलदेवी को अलाउद्दीन खिलजी जीत कर ले गया।
3.2 सोलंकी कला
सोलंकी शासक कला और स्थापत्य के महान संरक्षक थे, और उन्होंने कलाओं को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय योगदान भी दिया। भीमा द्वितीय के दोनो मंत्रियों वत्सपाल और तेजपाल ने भी कलाओं को अत्यधिक उत्साह के साथ बढ़ावा दिया। सम्पूर्ण प्रांत ही सुन्दर स्मारकों और भव्य मंदिरों से भर गया था। सुनक, कनोड़, देलमल और केसर उन चार प्रारंभिक भव्य मंदिरों में से थे जो अन्हिलपाटक (पाटन) से 15 मील की दूरी पर स्थित हैं। बड़े मंदिरों में बड़ौदा के निकट स्थित मोधेरा का सूर्य मंदिर भी इसका उदाहरण है। माउण्ट आबू (राजस्थान) में स्थित विमला का जाम मंदिर सोलंकी कला का सर्वोत्तम उदाहरण है।
4.0 चव्हाण/चौहान
यद्यपि पुराणों के अनुसार चहमानों की उत्पत्ति भी अग्निकुल से हुई, किन्तु विभिन्न शिलालेख और साहित्यक स्रोत इस विषय में मौन ही हैं। पृथ्वीराजविजय और हमीर महाकाव्य कहते हैं कि चहमान (वासुदेव) जिनके नाम पर वंश का नाम रखा गया, का जन्म सूर्य-मण्डल से हुआ। चहमान वंश की कुछ अलग-अलग शाखाएँ थीं जैसे शाकम्भरी के चहमान, धवलपूरी के चहमान, प्रतापगढ़, रणथम्भौर, नड्डूला, जावालीपुर और सत्वपुर के चहमान। इनमें से मुख्य शाखा शाकम्भरी (आधुनिक अजमेर के निकट सम्भन) में शासन करती थी जबकि अन्य शाखाएँं अलग-अलग भागों में फैली हुई थीं।
चहमान मुख्य रूप से प्रतिहारों के सामंत थे, औैर 10वीं शताब्दी के मध्य में उन्होनें स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर लिया।
4.1 राजनीतिक इतिहास
प्रारंभिक शासकः वासुदेव ने 6ठी शताब्दी के मध्य में अहिछत्र को चहमानों की एक शक्ति केन्द्र के रूप में स्थापना की। प्रतिहारों के राष्ट्रकूटों से संघर्ष और उससे उपजी कमज़ोरी का फायदा उठाते हुए, वाक्पतिराज ने उनकी अधीनता को मानने से इंकार कर दिया। उसने महाराज उपाधि धारण की जिससे उनके उच्च स्तर के बारे में ज्ञात होता है। उसने पुष्कर में शिव मंदिर का निर्माण भी करवाया। वाक्पतिराज के तीन पुत्र थे- सिंहराज, वत्सराज और लक्ष्मण।
सिंहराज और विग्रहराज द्वितीयः सिंहराज उस वंश का पहला राजकुमार था जिसने महाराजधिराज की उपाधि धारण की। इससे यह ज्ञात होता है कि उसने स्वयं को कन्नौज के शाही प्रतिहारों से स्वतंत्र घोषित कर लिया था। सिंहराज का पुत्र और उत्तराधिकारी विग्रहराज द्वितीय इस वंश की महानता का वास्तविक संस्थापक था। उसने गुजरात जीता, और चालुक्य माहाराज को कच्छ में शरण लेने के लिए मजबूर किया। उसने दक्षिण में नर्मदा के तट तक आक्रमण किये।
पृथ्वीराज प्रथम और अजयराज द्वितीयः पृथ्वीराज प्रथम को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने एक युद्ध में 700 चालुक्यों को मार दिया था जो पुष्कर में ब्राह्मणों को लूटने आये थे। अजयराज द्वितीय के शासनकाल से ही चहमानों ने एक आक्रमक साम्राज्यवाद नीति को अपनाना प्रारम्भ कर दिया था। उसने अजयमेरू या अजमेर नामक शहर की स्थापना की, और इसमें एक भव्य महल भी बनवाये। अजयराज का पुत्र अमोराज उसका उत्तराधिकारी बना। उसने अपने चालुक्य प्रतिद्वंदी सिद्धराज जयसिम्हा की अधीनता स्वीकारनी पड़ी, जिसने अपनी पुत्री का विवाह उससे किया। इस वैवाहिक स्थिति से स्थापित शांति ज्यादा दिनों तक नहीं टिक सकी। जैसे ही कुमारपाल चालुक्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, पुनः नयी शत्रुता टूट पडी।
विग्रहराज तृतीयः वह एक महान विजेता था और उसने विभिन्न दिशाओं में अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। उन्होंने तोमर राजाओं को जीतकर दिल्ली पर विजय प्राप्त की, और पंजाब में हिसार जिले का हांसी अपने अधिकार में ले लिया। दक्षिण में उन्होंने कुमारपाल के चालुक्य अधिराज्य को लूटा और इस तरह चालुक्यों द्वारा अपने पिता को दी गई हार का बदला लिया। उसके राज्य में सतलुज और यमुना के बीच का एक बड़ा हिस्सा शामिल था। पूर्वोत्तर में, गंगा के उत्तरी मैदान का एक भाग उसके साम्राज्य का एक हिस्सा बना। विग्रहराजा एक प्रतिष्ठित लेखक थे। उन्होंने प्रख्यात नाटक ‘हरिकेली नाटक‘ की रचना की। अजमेर में उनके द्वारा निर्मित कई मंदिरों में सरस्वती मंदिर निस्संदेह सबसे अच्छा है।
पृथ्वीराज द्वितीय और सोमेश्वरः अमोराज के पोते पृथ्वीराज द्वितीय के शासन के दौरान, मुसलमानों के साथ सदियों लंबा संघर्ष फिर से शुरू हुआ। अमोराज का पुत्र, पृथ्वीराज द्वितीय का चाचा सोमेश्वर पृथ्वीराज द्वितीय का उत्तराधिकारी बना। कुमारपाल के दरबार में रहते हुए, उन्होंने एक कलचुरी राजकुमारी कर्पूरा देवी से विवाह किया जिससे उन्हें पृथ्वीराज तृतीय और हरीराज नामक दो पुत्र हुए।
पृथ्वीराज तृतीयः पृथ्वीराज तृतीय के प्रारंभिक कार्यों में से महत्वपूर्ण था अपने चचेरे भाई, नागार्जुन के विद्रोह को दबाना। तत्पश्चात, उन्होंने चंदेल राज्य पर आक्रमण किया और उसके राजा परमर्दी को हरा दिया। इसके बाद उन्होंने गुजरात के चालुक्य साम्राज्य पर हमला किया और चालुक्य राजा भीम द्वितीय को संधि करने के लिए मजबूर कर दिया। पृथ्वीराज तृतीय ने कन्नौज के गढ़वाल शासक जयचन्द्र के साथ भी दुश्मनी मोल ली। लोककथाओं के अनुसार गढ़वाल शासक जयचन्द्र ने अपनी सुंदर बेटी संयोगिता के विवाह के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया जिसमें पृथ्वीराज को आमंत्रित नहीं किया गया था। पृथ्वीराज बलपूर्वक राजकुमारी को उठा कर ले जाने में सफल हो गए।
शिहाबुद्दीन द्वारा, सरहिंद के रूप में पहचाने गए तबर्हिन्द के मजबूत किले के कब्जे तक पृथ्वीराज को स्थिति की गंभीरता का आकलन नहीं हो पाया था। 1190-91 में पृथ्वीराज का, तराइन क्षेत्र में, शत्रु से सामना हुआ। तराइन का पहला युद्ध, सुल्तान मुईज़ अल-दिन मोहम्मद (मो. गौरी) के लिए विनाशकारी था। इस जीत के बावजूद, पृथ्वीराज तृतीय ने अपने साम्राज्य की उत्तर पश्चिमी सीमा की रक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाये और स्वयं गढ़वाल शासक जयचन्द्र से लड़ने में अपनी ऊर्जा नष्ट करता रहा।
इस बीच, 1192 में मुईज़ अल-दिन मोहम्मद (मो. गौरी) लगभग निर्विरोध, मुल्तान और लाहौर से होते हुए तराइन तक पहुंच गया। तराइन के द्वितीय युद्ध (1192) में, दिल्ली के प्रमुख गोविन्दराज सहित, एक लाख सैनिक गए थे। पृथ्वीराज को बंदी बना लिया गया और बाद में उन्हें मार डाला गया। तराइन क्षेत्र दिल्ली से 150 कि.मी. दूर, हरियाणा में स्थित है। 1192 की विजय ने मुसलमान राज्य को भारत में स्थापित करने के द्वारा खोल दिए।
देश के विभिन्न भागों से कई एक प्रतिष्ठित विद्वान और कवि पृथ्वीराज तृतीय के दरबार में थे। वह स्वयं दो महान कविताओं, पृथ्वीराज विजय और पृथ्वीराज रासो की विषयवस्तु बना, जो उसके दरबारी कवियों, क्रमशः जयनक और चन्द (चन्द बरदाई) द्वारा लिखी गई थीं।
5.0 गढ़वाल शासक
11 वीं सदी में, गढ़वाल कन्नौज में अचानक उभरे। वास्तव में, उनका उत्थान इतना अचानक रहा कि उनके मूल को तय कर पाना मुश्किल है। सूर्य एवं चंद्रमा के राजवंशों के साथ उनके संबंध का प्रसिद्ध सिद्धांत, सच के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। हालांकि परम्पराएं उन्हें ययाति के अस्पष्ट वंशज रूप में दर्शाती हैं।
5.1 राजनीतिक इतिहास
प्रारंभिक शासकः गढ़वाल राजवंश यशोविग्रह द्वारा स्थापित किया गया था। यशोविग्रह का पुत्र माहीचंद्र, जिसे महिंद्र और महीतल भी कहा गया है, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से में शासन करने वाला एक महत्वपूर्ण शासक था। उनके पुत्र, चन्द्र देव ने उत्तरी भारत से महमूद के प्रस्थान द्वारा प्रदान किए गए अवसर का फायदा उठाया एवं यमुना के तट पर राष्ट्रकूट शासक गोपाल को बहुत बुरी तरह परास्त किया। उसने इलाहाबाद से बनारस तक सभी क्षेत्र पर विजय प्राप्त की और बनारस को गढ़वालों की दूसरी राजधानी बनाया। उसने संभवतः मुस्लिम आक्रमण के खिलाफ युद्ध का खर्च चुकता करने के लिए, या उन्हें वार्षिक भुगतान करने के लिए, तुरुष्कदंड नामक एक टैक्स लगाया। उसके बाद उसका पुत्र मदनचन्द्र उत्तराधिकारी बना। उसे मदनपाल भी कहा जाता है।
गोविन्द चन्द्रः वह मदनचन्द्र का उत्तराधिकारी बना और शायद इस राजवंश का महानतम शासक था। सामने आए चालीस से अधिक शिलालेख उनके शासनकाल की महिमा की गवाही देते हैं। पाल राजशाही की कमजोरी का फायदा उठाते हुए उन्होंने मगध के कुछ भागों पर कब्जा कर लिया। गोविन्द चन्द्र ने अपनी सफलता छेदियों की कीमत पर की होगी। उसने चंदेलों को भी पराजित किया और उनके पास से पूर्वी मालवा छीन लिया।
गोविन्द चन्द्र ने कन्नौज को अभूतपूर्व गौरव तक उठाया। उनके पड़ोसी के साथ ही दूरस्थ महाराजा भी उसकी शक्ति से डरते थे, और उसे उचित सम्मान देते थे। उसका शासनकाल उसके मंत्री लक्ष्मीधर की साहित्यिक गतिविधियों के लिए जाना जाता था, जिन्होंने कानून और प्रक्रिया पर काफी काम किया, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण ‘कृत्य कल्पतरु‘ या ‘कल्पद्रुम‘ है।
विजय चंद्रः गोविन्द चन्द्र के बाद उनके बेटे विजय चंद्र ने शासन संभाला। पृथ्वीराज रासो में उनके विजय अभियान के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है, परंतु, इन भाटी (कवि) कथाओं को वास्तविक अर्थों में सबूत के रूप में स्वीकार करना मुश्किल है।
जयचन्द्रः विजय चंद्र के पुत्र और उत्तराधिकारी के रूप में, वह 1170 में सिंहासन पर आरूढ़ हुए। उनका शासनकाल और उपलब्धियां उनकी तांबे की प्लेटों और पृथ्वीराज रासो के स्तुतिपाठ में शायद ही जाना जाता है। परंतु मुस्लिम इतिहास और अन्य स्वतंत्र सूत्रों में उनका काफी उल्लेख किया गया है। जयचन्द्र कन्नौज के अंतिम महान सम्राट थे, जिनके शासन और संसाधनों ने मुस्लिम इतिहासकारों को प्रभावित किया होगा।
जयचन्द्र के शांतिपूर्ण शासनकाल को मुइज़ उद्-दीन मोहम्मद गोरी द्वारा गंभीर खतरा निर्माण हुआ, जो चहमानों (चौहानों) से दिल्ली और अजमेर को जीतने के बाद, 1193 में कन्नौज के खिलाफ एक बड़ी ताकत के साथ अग्रसर हुआ। जयचन्द्र ने चंदवार और इटावा के बीच मैदान पर उसका सामना किया और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
जयचन्द्र का नाम संस्कृत साहित्य के इतिहास में उसके द्वारा श्रीहर्ष को दिए गए उदार संरक्षण के लिए जुड़ा हुआ है। श्रीहर्ष ने प्रसिद्ध नैषध चरित, खंडन-खंड-खाद्य की रचना की। खंडन-खंड-खाद्य को एक महत्वपूर्ण वेदांत निबंध के रूप में माना जाता है। यह पश्चात वेदांत विचार के नकारात्मक और संदेह पक्ष पर जोर देता है।
अंतिम शासकः जयचन्द्र की पराजय और मौत के बाद मुसलमानों ने कन्नौज के राज्य का विलय नहीं किया। जयचन्द्र के पुत्र हरिश्चंद्र को शिहाब-उद्-दीन के जागीरदार के रूप में शासन करने के लिए अनुमति दी गई थी। हरीशचंद्र के उत्तराधिकारी, अदक्कम्माला को इल्तुतमिश द्वारा उनके पैतृक राज्य से वंचित किया गया था। इस प्रकार उत्तरी भारत में राजनीतिक वर्चस्व की छह सदियों के बाद शाही कन्नौज की महिमा समाप्त हो गई।
6.0 चंदेल
चंदेल राजवंश 9वीं शताब्दी की पहली चौथाई में शुरू हुआ। उन्होंने जेजक भुक्ति नामक क्षेत्र को नियंत्रित किया। खजुराहो को उसकी राजधानी के रूप में जाना जाता था। खजुराहो अपने असाधारण मंदिरों और चंदेल शासनकाल के दौरान निर्मित इमारतों के लिए जाना जाता है। चंदेल क्षत्रिय वर्ग के थे, लेकिन उनकी उत्पत्ति काफी विवादास्पद रही है।
किंवदंती है कि वे चाँद एवं हेमवती के मिलन से आए थे। ऐसा माना जाता है कि इस किंवदंती का उपयोग चंदेलों की स्थिति की व्याख्या करने के लिए किया जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि वे संभवतः गह्वर, भर और गोंड जैसी आदिवासी जनजातियों से उत्पन्न हुए थे। एक निश्चित निष्कर्ष पर आने का कोई रास्ता नहीं है, लेकिन सिद्धांत, समान परंपराओं की वजह से भर के वंश का समर्थन करते हैं, जो विशेष रूप से उनके भवनों में स्पष्ट है।
6.1 राजनीतिक इतिहास
प्रारंभिक शासकः चंदेल वंश 9 वीं सदी की प्रथम चौथाई में बुंदेलखंड में खजुराहो के आसपास नन्नुक द्वारा स्थापित किया गया था। नन्नुक के पुत्र और उत्तराधिकारी वाक्पति, जो 9 वीं सदी की दूसरी चौथाई में हुए थे, उन्होंने पाल, देवपाल और प्रतिहार भोज जैसे समकालीन शासकों के साथ युद्ध किये थे। वाक्पति के दो पुत्र थे, जय शक्ति और विजय शक्ति। जय शक्ति, जो अपने पिता का उत्तराधिकारी बना, एक प्रतिश्ठित शासक बना, व जेजक भुक्ति क्षेत्र का शासक बना। उस क्षेत्र का नाम उनके नाम पर पड़ा। जय शक्ति के बाद उनके छोटे भाई विजय शक्ति ने गद्दी संभाली जिसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र राहिल था।
यशोवर्मनः राहिल के बाद उनके बेटे यशोवर्मन ने गद्दी संभाली, जिन्हें लक्षवर्मन के नाम से भी जाना जाता है। प्रतिहार सत्ता के पतन ने यशोवर्मन को उन्हें धता बताने, और चंदेलों के आक्रामक सैन्यवाद को लागू करने का मौका दिया। खजुराहो के शिलालेख स्पष्ट अतिशयोक्ति के साथ यशोवर्मन द्वारा किए गए व्यापक विजय अभियान का वर्णन करते हैं। यद्यपि यशोवर्मन की उपलब्धियों में संदेह का एक तत्व है, फिर भी इसमें कोई शक नहीं है कि उन्होंने उत्तर भारत में व्यापक विजय अभियान चलाया और चंदेलों को एक बड़ी शक्ति बना दिया। उन्होंने खजुराहो में एक भव्य मंदिर का निर्माण किया जिसकी चतुर्भुज मंदिर के साथ पहचान बनी। इसमें उन्होंने विष्णु की प्रतिमा स्थापित की।
धंगः यशोवर्मन के उत्तराधिकारी के रूप में उनके बेटे वंश के सबसे मशहूर शासक धंग (954-1002), शासक बने। उसे अपने पिता से विरासत में एक बड़ा क्षेत्र मिला। धंग ने महाराजाधिराज का खिताब ग्रहण किया और चंदेल शक्ति को उसके उच्चतम शिखर पर पहुँचाया। अपने हथियारों की ताकत से, वह चंदेल साम्राज्य की उत्तरी सीमा को गंगा के तट तक विस्तार देने में सफल रहा। खजुराहो में विद्यमान इमारतें धंग के शासनकाल की कलात्मक गतिविधियों की गवाह हैं। उसके द्वारा निर्मित विश्वनाथ का भव्य मंदिर खजुराहो में सबसे अच्छी तरह से संरक्षित और खुले दिल से अलंकृत मंदिरों में से एक है। जिनानाथ और वैद्यनाथ के मंदिर भी धंग के शासनकाल के दौरान बनाए गए थे।
धंगः (धंगदेव) के कमजोर उत्तराधिकारीः धंग का उत्तराधिकारी उसका पुत्र गंडदेव बना, जिसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र विद्याधर हुआ। सुल्तान महमूद ने 1019 और 1022 में दो बार उसके राज्य पर आक्रमण किया। खुले मैदान में दुश्मन का सामना करने के बजाय विद्याधर ने झुलसी मिट्टी नीति अपनाई और खुद को कालिंजर किले में बंद कर लिया। किले को घेर लिया गया था और घेरा विद्याधर के शांति के लिए निवेदन तक, काफी लंबे समय खिंचा। विद्याधर की मौत से विजय पाल, देववर्मन, कीर्तिवर्मन, सल्लक्षवर्मन, जयवर्मन, पृथ्वीवर्मन और मदनवर्मन जैसे शासकों के अधीन चंदेल सत्ता का अस्थायी ग्रहण देखा गया।
मदनवर्मन के उत्तराधिकारी थे उनके पौत्र परमार्दीदेव जिनका घटनापूर्ण शासनकाल 1165-1202 तक की अवधि तक चला। उसे चहमान पृथ्वीराज तृतीय के हाथों शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा, जिसने हालांकि, स्वयं जल्द ही 1192 में आक्रमणकारी शिहाब उद्-दीन मुहम्मद के हमले के आगे घुटने टेक दिए। दस साल बाद (1202), मुहम्मद के सेनापति कुतुब उद्-दीन ने चंदेलों के मजबूत गढ़ कालिंजर के किले पर हमला बोल दिया। कुतुब उद्-दीन ने कालिंजर को तहस नहस कर दिया और महोबा पर विजय प्राप्त की, और जीते हुए क्षेत्रों के प्रशासन के लिए अपना राज्यपाल नियुक्त किया।
परमार्दीदेव के बेटे त्रैलोक्य वर्मन ने काकड़वा में मुसलमानों को बहुत बुरी तरह पराजित करने के बाद कालिंजर सहित सभी क्षेत्र वापस जीत लिये। त्रैलोक्य वर्मन ने लगभग 45 वर्ष तक शासनकाल का आनंद लिया और उसका उत्तराधिकारी वीरवर्मन बना। परंतु 1309 में अलाउद्दीन खिलजी ने राज्य के अधिकांश भाग पर विजय प्राप्त की। बुंदेलखंड के चंदेलों का अंतिम ज्ञात राजा वीरवर्मन द्वितीय है।
6.1 चंदेल वास्तुकला
चंदेल, मध्य भारत में प्रतिहारों के पूर्व सामंतों में, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण वंश के रूप में वर्णित हैं। चंदेल राजवंश की वास्तुकला की शैली में एक सादगी है और यह बाद के परिहारों के निर्माण से ये काफी अलग हैं।
खजुराहो के स्मारक तीन समूहों, पश्चिम, पूर्व और दक्षिण में विभाजित हैं। प्राचीनतम संरचनाएं पश्चिमी समूह के दक्षिण और उत्तर पश्चिम में चौसंठ योगिनी मंदिर और लालगुआन हैं, और पूर्वी समूह के पश्चिम में ब्रह्मा मंदिर हैं। भारत में अन्यत्र मंदिरों की तरह (जैसे तांत्रिक संप्रदायों के लिए केंद्रीय मंदिरों की तरह) सब देवताओं की शक्तियों या कार्य ऊर्जा के उत्सव को समर्पित थे, ठीक उसी तरह खजुराहो के चौंसठ योगिनी में प्रवेश द्वार के विपरीत शिव भैरव के लिए एक बड़े मंदिर द्वारा केवल दक्षिण रेंज के केंद्र में टूटी हुई एक नियमित श्रृंखला में एक व्यापक छत के साथ एक खुला बरामदा है, जिसकी सीमाओं पर चौंसठ आवरण देवताओं के सादे कक्ष हैं - जो मंडूक मंडल में निहित पवित्र संख्या भी है।
लालगुआ और ब्रह्मा मंदिरों में एक फानूस की छत वाले मूल प्रसाद हैं जिनमे एक मंच पर बड़े केंद्रीय उठाव हैं, और उथले हॉल हैं। आधार पर कुर्सी और पीठ दोनों हैं और दीवार एक मेहराब के नीचे दो भाग में विभाजित हैं, जिनका मुख्य आकर्षण ‘फ्रीज़‘ चंदेलों की वास्तुकला भारतीय वास्तुकला की सर्वोच्च उपलब्धियों में से एक मानी जाती है।
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