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भाषा, साहित्य और स्थापत्य शैली का विकास भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
अनुमान लगाया गया है कि लगभग बीस लाख साल पहले, होमो हैबिलिस के मस्तिष्क में पर्याप्त विकसित ब्रोका क्षेत्र था, जो उसके लिए बोलना संभव बनाता था, किन्तु शारीरिक रचना के आधार पर वह अभी तक समुचित वाणी के लिए आवश्यक पर्याप्त साँस छोड़ने, या साँस ले पाने में सक्षम नहीं था। शायद इसिलिए उनकी ‘‘वाणी’’ में शब्दों की अपेक्षा इशारे, घुर-घुर और चीखें, अधिक शामिल थे। हालांकि, होमो इरेक्टस इस क्षमता में कितना सुधार कर पाये, यह विवादास्पद है। साक्ष्य से पता चलता है कि सबसे निचली कशेरुका, जिसके माध्यम से रीढ़ की हड्डी गुजरती है, अभी भी बहुत छोटी थी।
अंत में, वे होमो सेपियन ही थे, जिनमें वाणी के लिए एक पूर्ण विकसित क्षमता थी। वह शब्द बना कर उन्हें वाक्य में स्थापित कर सकता था (‘वाक्यविन्यास‘)। मानवता की सभी भाषाओं के लिए यह एक सामान्य विशेषता रही है, बोलने वाले चाहे कितने भी आदिम क्यों न रहे हों। अब यह एहसास हो रहा है कि मानव समाज जितना आदिम होता है, बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या उतनी ही अधिक होती है। अतः कहा जा सकता है कि नवपाषाण क्रांति से पहले बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या विशाल रही होगी।
जैसे-जैसे मानव संवाद में सुधार होता गया, वैसे-वैसे व्यापार संजाल व्यापक बनते गये और प्रत्येक राज्य अधिक से अधिक क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में लेता गया, जिसके अंतर्गत एक ही भाषा का प्रयोग होता था। बोलने वालों की सीमित संख्या वाली भाषाएँ धीरे-धीरे लुप्त होने लगीं। प्रवसन भी उत्प्रवासी लोगोंं की भाषा से पुराने मूल निवासी भाषा (ओं) के प्रतिस्थापन के लिए एक कारण हो सकता है या एक प्रबल अनुभाग या शासक वर्ग बाकी जनसंख्या पर अपनी भाषा अधिरोपित कर सकता था। परिणामस्वरूप, नवपाषाण क्रांति के बाद से, बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या में एक बड़ी कमी आई थी। अधिकांश बोली जाने वाली भाषाओं को निम्नलिखित चार ‘परिवारों‘ के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता हैः 1. इंडो यूरोपीय (इंडो आर्यन या इंडी, दर्दिक, ईरानी, नूरिस्तानी शाखाएं), 2. द्रविड़ (दक्षिणी, मध्य, दक्षिण मध्य और उत्तरी शाखाएं), 3. ऑस्ट्रो-एशियाटिक (मुंडा और मों खमेर शाखाएं) और 4. चीन तिब्बती (तिब्बती बर्मी शाखा)।
2.0 इंडो-यूरोपीय परिवार
इंडो यूरोपीय परिवार में प्रमुख घटक, इंडो आर्यन या इंडी भाषाएँ आज भारतीय उपमहाद्वीप की अधिकांश जनसंख्या द्वारा बोली जाती हैं। इनमें हिन्दुस्तानी (हिन्दी और उर्दू भाषा), मराठी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी, सिंधी, उड़िया, असमी, नेपाली और कई अन्य भाषाएँ शामिल हैं। इंडो आर्यन की करीबी दर्दिक शाखा में, सुदूर उत्तर भारत की कई भाषाएँ शामिल हैं, जिनमें से अकेली कश्मीरी भाषा एक प्रमुख साहित्यिक भाषा है। फिर, ईरानी भाषाएँ हैं, जिनसे पाकिस्तान की पश्तो और बलूची भाषाएँ संबंधित हैं। पश्चिमोत्तर अफगानिस्तान और उत्तर पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की सुदूर घाटियों में बोली जाने वाली नूरिस्तानी भाषाएँ न तो इंडो आर्यन और न ही ईरानी शाखा से संबंधित हैं और इनकी कई पुरातन विशेषताएं हैं।
3.0 प्राचीनतम ज्ञात भाषाएं
इंडो-आर्यन और ईरानी परिवारों की प्राचीनतम ज्ञात भाषाएँ, ऋग्वेदीय और अवेस्तन, इतनी समान थीं कि भाषा विज्ञानी उनसे आसानी से एक प्रोटो आर्यन (या प्रोटो इंडो ईरानी) भाषा की पुनर्रचना करने में सफल हो गए। हिंद यूरोपीय परिवार की भारतीय और ईरानी शाखाओं के एक पदनाम के रूप में ‘आर्य‘ का प्रयोग आम तौर पर स्वीकार किया जाता है। इसी प्रकार, अकेली भारतीय शाखा के लिए ‘इंडो-आर्य‘ नाम भी। अब इसमें कोई संदेह नहीं है, कि भाषाओं के आर्य या इंडो-इरानियन समूह हिंद यूरोपीय परिवार से संबंध रखते हैं जैसा कि पिता, मां, बेटी, भाई, इत्यादि। जैसे साधारण उपयोग में आने वाले कई शब्दों की समानता से स्पष्ट है।
सतत् अनुसंधान ने, न केवल एक बड़ी संख्या में भाषाओं को इंडो यूरोपीय परिवार से जोड़ा, बल्कि परिवर्तन का अनुक्रमिक क्रम भी स्थापित किया जिससे शब्दों के पुराने (‘पुरातन‘) रूपों को बाद के रूपों से भिन्न करके देखा जा सकता है।
3.1 ऋग्वेदीय भाषा
इंडो-आर्य बोलने वाले 1500 ई.पू. से पहले स्वात और पिरक में विस्थापित हो गए और जल्द ही वे पंजाब में चले आए। घोड़े और रथ रखने के कारण वे अपने पूर्वी दुश्मनों से एक निर्णायक लाभ की स्थिति में रहते थे, जिनके पास अभी तक केवल बैल गाडियां थीं (टेराकोटा कब्रिस्तान एच की छोटी मूर्तियाँ और विलंबित हड़प्पा संस्कृतियों से जैसा पता चलता है)। इंडो-आर्य बोली के विस्तार में सिंधु के मैदानी इलाकों में परदेश से लोगों की एक बड़ी संख्या का विस्थापित होना एक बड़ा कारण था। लेकिन ऐसा लगता है कि यह विस्थापन इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ होगा कि अपनी छाप क्षेत्र के आनुवंशिक रंगरूप पर छोड़ सके। इसके अलावा, क्यूंकि इंडो-आर्य बोलने वाले पहले कुछ समय के लिए इन क्षेत्रों में बसे थे, वे पहले से ही उन लोगों के साथ घुल मिल गए होंगे जो, सिंधु लोगों के पड़ोसी होने के नाते, शायद जैविक रूप से उनसे बहुत अलग नहीं थे।
3.2 प्राकृत भाषा की उत्पत्ति
भाषा का एक और समूह था, जो न तो द्रविड़ीय और न ही ऑस्ट्रो-एशियाटिक था और शायद इसने ऋग्वेद और प्रारंभिक संस्कृत को कुछ गैर-हिंद-यूरोपीय शब्दों का योगदान दिया। अफगानिस्तान (जैसे नूरिस्तानी) में ऐसी भाषाओं के साथ बातचीत शायद इंडो-आर्य बोलने वालों के भारत पहुंचने से पहले ही बहुत शुरू हो चुकी थी और यह शायद इंडो-आर्यन भाषा, अर्थात् ‘प्राकृत‘ भाषा की एक अनूठी विशेषता के प्रारंभिक प्रकटन का कारण हो सकता है।
प्राकृत भाषा ने अपने यौगिक व्यंजन वर्णों को अलग करके (प्रायः एकल व्यंजन द्वारा प्रतिस्थापित करके, उदाहरण के लिए पुत्र के लिए पुता) इंडो-आर्यन शब्द संरचना को सरल बनाया। कुछ प्राकृत शब्द न केवल ऋग्वेद में बल्कि मित्तानी बोली में भी पाए जाते हैंः संस्कृत अश्व के लिए मित्तानी में अस्सु है, और संस्कृत सप्त (सात) के लिए, यह सत्ता है। इस तरह के सरलीकरण के कारण आम लोगों के बीच इंडो-आर्य बोली का प्रसार करने में पर्याप्त मदद मिली होगी, जिसके कारण प्राकृत भाषा जनता की भाषा के रूप में जानी गई। बाद में संस्कृत की तरह, ऋग्वेदीय संस्कृत जाहिर तौर पर गिने-चुने लोगों की भाषा बनी रही। छठी शताब्दी ईसा पूर्व से, यह हर क्षेत्र की प्राकृत भाषा ही थी जो लोगों को समझ में आती थी और इसलिए यह मगध की प्रांत भाषा ही थी, जिसमें भगवान महावीर और गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश दिए। इसलिए यदि इंडो-आर्य बोली मुख्य रूप से ‘कुलीन प्रभुत्व‘ के माध्यम से फैली थी, इसके लोकप्रिय रूप अर्थात् प्राकृत भाषा का निर्धारण करने में लोगों का बड़ा योगदान था।
4.0 द्रविड़ भाषाएँ
द्रविड़ भाषाएँ आज भारत में दूसरे सबसे बड़े भाषा परिवार के रूप में जानी जाती हैं। इस परिवार के भीतर ही तमिल, मलयालम और कन्नड़ दक्षिणी समूह की हैं, तेलुगू और गोंडी (मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में) दक्षिण मध्य, कोलमी (मुख्य रूप से महाराष्ट्र में) मध्य, कुरुख (झारखंड, छत्तीसगढ़ और नेपाल में) और ब्राहुई (बलूचिस्तान) उत्तर समूह की हैं। इनके विभिन्न समूहों से कई छोटी भाषाएँ भी जुड़ी हुई हैं।
इन भाषाओं के शब्दकोष और व्याकरण की तुलना हमें एक काल्पनिक प्रोटो द्रविड़ भाषा की पुनर्रचना करने में सक्षम बनाती है जो द्रविड़ भाषाओं के बोलने वालों के एक दूसरे से पृथक होने से पहले बोली जाती रही होंगी। कुछ मुडी हुई ध्वनियों का उपयोग द्रविड़ भाषाओं के सबसे आम लक्षण में से एक है (जैसे, कठोर/ण, र आदि)। एक मुडा हुआ व्यंजन एक कोरोनल व्यंजन है जहां जीभ एक, समतल, अवतल, या यहां तक कि मुड़े आकार की होती है और वायुकोशीय उभार और कड़े तालु के बीच जुडी होती है। उन्हें कभी-कभी, विशेष रूप से भारतीय विद्या में, मस्तिष्क व्यंजन भी कहा जाता है। अन्य शब्द जो सामने आते हैं, उन्हें ‘डोमल‘ और ‘कैक्युमिनल‘ कहा जाता है। किन्तु, भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर बोली जानेवाली ऑस्ट्रो-एशियाटिक और इंडो-यूरोपीय, दोनों भाषाओं में इस तरह के पश्चकुंचन अनुपस्थित हैं। इसीलिए यह माना जाता है कि, ऑस्ट्रो-एशियाई और इंडो-आर्य भाषाओं में उनके मुड़े हुए व्यंजन, संभवतः प्रोटो-द्रविड़ या इसके प्रारंभिक उत्तराधिकारियों से लिए गए हैं। इस धारणा के कई परिणाम हैं।
4.1 इंडो-आर्य भाषाओं के साथ सहभागिता
ऋग्वेद में पश्चकुंचन और दो दर्जन से अधिक शब्द सम्भावित द्रविड़ मूल के हैं। परन्तु प्रारंभिक इरानियन लेख अवेस्ता में पश्चकुंचन पूरी तरह से अनुपस्थित हैं। अन्यथा यह शब्दावली और व्याकरण में ऋग्वेद के बहुत समान है। इसलिए, यह समझा जाता है कि, ऋग्वेदीय वाचकों ने, पूर्व स्थानीय भाषाओं के बोलने वालों के उच्चारण के प्रभाव में, सबसे त्रुटिहीन इंडो-इरानियन शब्दों के उच्चारण में भी पश्चकुंचन का उपयोग किया होगा।
चूंकि ऋग्वेदीय स्तोत्र हिंदू कुश और गंगा के बीच के क्षेत्र में बने थे, इसलिए, पंजाब या ऊपरी सिंधु घाटी की कुछ ‘बुनियादी‘ भाषाओं के द्रविड़ परिवार के अंग होने की संभावना प्रबल है। पूर्वोत्तर बलूचिस्तान में बोली जानेवाली ब्राहुई भाषा बोलने वालों की पंजाब से निकटता के चलते, यह संभावना और अधिक बढ़ जाती है। ब्राहुई की अपनी पुरातनता, हाल ही की खोज में, उसके एलमीते (फारस में एलाम की भाषा) के बीच संबंध द्वारा और संवर्धित होती है, हालांकि संबंध की सटीकता की सीमा विवादित हो सकती है। इसी तरह, प्रोटो-द्रविड़ और पूर्वी-यूरोप और साइबेरिया की यूरेलिक भाषाओं के बीच संबंध देखा गया है और यह बताता है कि, उन अक्षांशों में भी एक समय में द्रविड़ बोलने वाले रहे होंगे, जो आज उत्तर से बहुत दूर हैं।
5.0 आधिकारिक सिन्धु भाषा
कुछ विद्वानों के अनुसार, “आधिकारिक” सिंधु भाषा को द्रविड़ परिवार से जोड़ने की दिशा में सिंधु लिपि में मजबूत संकेत मिले हैं। संभावना यह भी है कि, सिंधु घाटी में कृषि पर आधारित सांस्कृतिक एकता ने, अन्य भाषाओं की कीमत पर, इस आधिकारिक भाषा के विस्तार में सहायता प्रदान की हो। द्रविड़ भाषाएँ उस समय दक्षिण भारत में बोली जाती थीं या नहीं, यह हालांकि, स्पष्ट नहीं है।
दक्षिण भारत में तांबे के विस्तारित उपयोग और फसल भण्डारण में वृद्धि, जो 2000 ई.पू. के बाद मालवा और जोर्वे संस्कृतियों के माध्यम से हमें पता चलती है, द्रविड भाषा बोलने वालों के उत्तर से प्रवसन की परिकल्पना का संकेत देती है। वहाँ पहुँचने पर, द्रविड़ भाषाओं की एक छोटी संख्या ने, बड़े क्षेत्रों पर कृषि, शिल्प और वाणिज्य के प्रसार के फलस्वरुप, प्रारंभिक खानाबदोश खेतिहरों की कई अलग-अलग भाषाओं की जगह ले ली। यह परिकल्पना, हालांकि, अभी तक साबित होना बाकी है।
5.1 ऑस्ट्रो-एशियाटिक परिवार
प्रमुख शाखाएंः भाषाविदों के अनुसार, भाषाओं के ऑस्ट्रो-एशियाई परिवारों की दो मुख्य शाखाएं हैं।
- मॉन-खमेर शाखा, जिसमें, पूर्वी मेघालय में बोली जाने वाली भाषा, खासी शामिल है जो दक्षिण पूर्व एशिया की अपनी सह-भाषाओं से अलग हो गयी है।
- मुण्डा शाखा में, झारखंड बिहार और उड़ीसा में मुंडारी और संथाली, दक्षिण उड़ीसा में सवारा और पश्चिम में बहुत आगे, महाराष्ट्र मध्यप्रदेश सीमा पर, दो अलग छोटे इलाकों में कोरकी, शामिल हैं।
जबकि मुण्डा शाखा भारत तक ही सीमित है, वहीं मॉन-खमेर शाखा में, भारत के बाहर, वियतनामी, खमेर (कंबोडिया में) और मॉन (म्यांमार और थाईलैंड में) भाषाएँ भी शामिल हैं। कहा जाता है कि, मूल पैतृक भाषा दक्षिण पूर्व एशिया में बोली जाती थी और ईसा पूर्व से 5000 वर्ष के बाद, वहां से चावल की खेती के विस्तार के कारण किसान समुदायों में बोली भाषाओं का प्रसार हुआ।
5.2 चीनी और तिब्बती परिवार
चीनी और तिब्बती परिवार से संबंधित भाषाएँ पूर्वोत्तर भारत और हिमालय में बोली जाती हैं, और सीमा से लगे क्षेत्र, जहां चीन और तिब्बती परिवार से संबंधित भाषाएँ बोली जाती हैं, वे हैं, मुख्यतः चीन का तिब्बत क्षेत्र, भूटान और म्यांमार (बर्मा)। केवल पश्चिमी मेघालय में बोली जाने वाली गारो भाषा, उत्तर में मुख्य तिब्बती क्षेत्र से इंडो-आर्य भाषाओं (बंगाली और असमिया) के एक संकीर्ण बेल्ट से, अलग है और यह इंडो-आर्य घुसपैठ, क्षेत्र में तिब्बती बर्मी शाखा के आगमन के बहुत बाद से, हुई हो सकती है।
इन सभी उपरोक्त परिकल्पनाओं व सुझावों से, निम्न निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
- अधिकांश भाषाएँ सामान्य रूप से उनके भौगोलिक रूप से परिभाषित क्षेत्रों में बोली जाती हैं क्योंकि, उनका प्रसार मानवीय संपर्क की मात्रा पर निर्भर करता है। क्योंकि लोग आमतौर पर ऐसे क्षेत्रों में ही आपस में मिलने और ब्याह के लिए इच्छुक रहते हैं, अतः अंत में, आनुवंशिक और भाषाई सीमाओं के बीच एक व्यापक सहयोग उभरना शुरू होता है। लेकिन इस तरह का संबंध भ्रामक भी हो सकता है। इसलिए, इस बिंदु को बहुत खींचा नहीं जाना चाहिए।
- वास्तव में, एक व्यक्ति एक भाषा दूसरी भाषा की तुलना में बेहतर कैसे बोलता है, इस पर कोई आनुवंशिक नियंत्रण नहीं है। दूसरे शब्दों में, उच्चारण की विशिष्टता जन्म से नहीं बल्कि, व्यक्ति घर और बाहर दोनों जगह, विशेषतः बचपन में, क्या सुनता है, उससे प्रसारित होती है। इस प्रकार, एक भाषा समूह और एक आनुवंशिक समूह, जिसे लोकप्रिय भाषा में जाति कहा जाता है, के बीच कोई आवश्यक संबंध नहीं है।
- यह कई उदाहरणों से साबित किया जा सकता है। वर्तमान में एशिया और यूरोप के बड़े हिस्से में बोली जाने वाली तुर्किक, भाषाओं के एक अपेक्षाकृत युवा (उम्र 1500 वर्ष से अधिक नहीं) परिवार से है। इन भाषाओं का प्रसार अधिकतर प्रवसन के कारण होता था (मूल रूप से मंगोलिया और पश्चिमी चीन से) जो ऐतिहासिक स्रोतों के दस्तावेजों में अच्छी तरह से दर्ज हैं। लेकिन तुर्की के लोग, (आज तुर्किश बोलने वाला अग्रणी देश), मूलतः कॉकसाइड हैं, आनुवंशिक रूप से यूनानियों से बहुत करीब, और सबसे पुराने तुर्किश बोलने वाले पश्चिमी चीन के वीघर, जो ‘उत्तरी मोंगोलॉयड’ हैं, से काफी दूर हैं।
- इसी तरह, भारत में, मुण्डा (ऑस्ट्रो-एशियाटिक), द्रविड़ और इंडो-यूरोपीय भाषाएँ बोलने वालों के बीच कोई चिह्नित आनुवंशिक मतभेद नहीं पाए जाते। सभी को कॉकसाइड के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
6.0 लेखन और भाषाएँ
लेखन का आगमन किसी भी समाज में एक महत्त्वपूर्ण उन्नति का प्रतीक है। तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. के सिंधु वर्ण के अलावा, अशोक के शिलालेखों तक भारत में लिखने का कोई भौतिक सबूत नहीं है। वैदिक साहित्य में लेखन का कोई जिक्र नहीं है। लेखन के बारे में प्रारंभिक साक्ष्य पाणिनि के अष्टाध्यायी में मिलते हैं। हालांकि, पाणिनि ने अपनी रचना चौथी शताब्दी ई.पू. में लिखी थी ऐसा माना जाता है, किन्तु उसकी तारीख के बारे में कुछ निश्चित नहीं है। इसके अलावा, उन्होंने इब्रानी लिपि के लिए शब्द लिपि का उपयोग किया हो सकता है, जो उनके पैतृक क्षेत्र गांधार क्षेत्र के लोगों को ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में ज्ञात रहा होगा। प्रारंभिक पाली साहित्य में लेखन का उल्लेख बहुत अधिक प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि विभिन्न आधारों पर माना जाता है कि इसमें से बड़ा भाग बुद्ध के बाद मौर्य काल में, या उसके भी बाद संकलित किया गया था।
यूनानी स्रोत अधिकतर इस धारणा के हैं कि सिकंदर और चंद्रगुप्त मौर्य के समय भारत में कोई लेखन नहीं था। स्ट्रैबो कहते हैं ‘‘अन्य लेखक कहते हैं कि वे (भारतीय) लिखित वर्णों का कोई उपयोग नहीं करते”, केवल सिकंदर के एडमिरल निअरकस ने दर्ज किया है कि वे बारीकी से बुने हुए कपड़े पर लिखते थे।
भारत में लेखन की शुरुआत का मुद्दा आमतौर पर ब्राह्मी लिपि के मूल के साथ जुड़ा हुआ है। भारत में लेखन का अस्तित्व मौर्य पूर्व काल में था, इस मत को मानने वालां का तर्क है कि, उत्तरी भारत में विकसित ब्राह्मी लिपि, चिह्नों और प्रतीकों के आंतरिक विकास की एक प्रक्रिया का परिणाम है। कुछ को इस में सिंधु लिपि के साथ भी एक संबंध दिखाई देता है। हालांकि, यदि ब्राह्मी वर्ण, सिंधु भावचित्र या चित्र प्रतीक जैसे असंश से उत्पन्न हो सकते हैं, तो यह कयास लगाया जा सकता है कि वे किसी भी प्रकार के प्रपत्र से उत्पन्न हो सकते हैं। दूसरी ओर, ब्राह्मी के साथ अशोक की प्रांत भाषा का प्रतिनिधित्व करने वाली खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति काफी अच्छी तरह से स्थापित है। खरोष्ठी के कई अक्षरों में इब्रानी वर्ण से विशिष्ट समानता दिखती है। इनके ध्वन्यात्मक मूल्य भी एक जैसे हैं।
ब्राह्मी लिपि की शुरुआत कैसे भी हुई हो, अशोक के शासनकाल में या उससे थोड़ा पहले, लेखन की कला का प्रसार तेजी से होता लग रहा था। अशोक ने जिस दिलचस्पी से अपने शिलालेखों को अपने साम्राज्य में चारों ओर अंकित किया, इससे स्पष्ट था कि उसे उम्मीद थी, हर जगह कुछ व्यक्ति होंगे जो इन्हें दूसरों को जोर से पढ़कर सुनाने में सक्षम हो सकते हैं। उसने, स्पष्ट रूप से हलकी सामग्री पर लिखित, अपने शिलालेखों की प्रतियां भी वितरीत कीं। पत्थर की पटिया के शिलालेख महास्थान और सौहगौरा तांबे की प्लेट के शिलालेख दिखाते हैं कि कैसे अब शासकीय कार्य लिखित रूप में सम्पन्न किया जा रहा था। पिपरहवा सोपस्टोन फूलदान के शिलालेख और भट्टीप्रोलु कास्केट शिलालेख भी साक्ष्य देते हैं कि कैसे लेखन को बौद्ध संघ में भी उपयोग में लाया जा रहा था। तमिल ब्राह्मी शिलालेख भी जैन भिक्षुओं के बीच इसके उपयोग की एक ऐसी ही कहानी कहते हैं।
लेखन के उपयोग के इस तरह के प्रसार से समाज की विभिन्न संस्थाओं के लिए अनिवार्य रूप से दूरगामी परिणाम निश्चित थे। नौकरशाही ढ़ांचे में पेशेवर कंठस्थ करने वालों को लेखकों के साथ प्रतिस्थापित करना शुरू हो गया हो सकता है, और रिकॉर्ड और खातों के सरल रखरखाव के द्वारा प्रशासन की प्रभावशीलता में तुरंत सुधार हुआ। लेखन ने ब्राह्मणवादियों सहित सभी धार्मिक संप्रदायों को पवित्र ग्रंथों के संरक्षण और प्रसारित करने में सक्षम बनाया, हालांकि, इस उद्देश्य के लिए लेखन के उपयोग ने कुछ समय लिया। इससे पहले के दिनों की तुलना में, जब संरक्षण पवित्रता के किसी भी दावे के बिना, स्मृति पर निर्भर था, धार्मिक रचनाओं का अस्तित्व बचाने का बेहतर मौका मिला। बहुत संभव है कि लिखित खातों और संदेशों से वाणिज्य को भी बहुत लाभ हुआ होगा।
6.1 प्रारंभिक ऐतिहासिक काल
प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में, बोली जाने वाली आर्यन भाषा में तीन विशिष्ट बोलियां विकसित हुईं - उत्तरी या उत्तर पश्चिमी (औदिच्य), मध्य भारतीय, जो मध्यदेश की भाषा थी, और पूर्वी जो प्राच्य देशों की भाषा थी। पहले जिसे रूढ़िवादी माना गया, वह आर्यन वाणी का शुद्धतम रूप था। उसका एक नया रूप अस्तित्व में आया था। भाषा के रूप में पाणिनी द्वारा वर्णित संस्कृत, जो अभिजात्य वर्ग या ब्राह्मणों की अभिव्यक्ति का वाहन बन गया। अशोक के शिलालेख मोटे तौर पर तीन अलग-अलग स्थानीय बोलियां प्रस्तुत करते हैं। शिलालेखों में एक प्रांत भाषा या उत्तर पश्चिम के आर्यन वाक् है जैसे कि मनसेहरा और शहबाजगढ़ लेखों पर। फिर एक है पूर्व की प्राकृत भाषा, जो अशोक के शिलालेखों में और अन्यत्र पाई जाती है और जो पाटलिपुत्र में अशोक के दरबार की भाषा थी। इस प्रकार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजपूताना में, उत्तर-पश्चिमी उत्तर प्रदेश (कलसी) में और मध्य उत्तर प्रदेश (इलाहाबाद) में, पूर्वी बोली उतनी ही इस्तेमाल की गई जितनी कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बनारस (सारनाथ) और बिहार (लौरिया, रुम्मिनदेई और बाराबर गुफाओं) में। और अंत में, पश्चिम में गिरनार की चट्टान शिलालेख मिडलैंड बोली के एक थोड़े संशोधित प्रकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, हालांकि देश के इस भाग में भी शिलालेखों में पूर्वी आधिकारिक भाषा का इस्तेमाल किया गया था।
अशोक के दरबार की प्रमुख भाषा प्राकृत भाषा या मागधी थी - बड़े पैमाने पर लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा। उस भाषा में पाटलिपुत्र में लिखित पहले शिलालेख पत्थर पर उत्कीर्ण होने के बाद प्रकाशन के लिए दूर-दूर के स्थानों को भेजे गए थे। पूर्वी प्रांत भाषा बुद्ध और महावीर की धार्मिक संस्कृति का एक महत्वपूर्ण वाहन बन गई। लेकिन इस बोली ने मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ अपना प्रभाव खो दिया लगता है। मिडलैंड, भारत के असली दिल को, इसका प्राकृतिक स्थान मिला और बुद्ध के प्रवचन, मिडलैंड बोली {प्रारंभिक मध्ययुगीन काल (600-1200 ई।) की सौरसेनी अपभ्रंश की अग्रदूत} में दिए गए। पाली, मिडलैंड वाक् का भाषायी साहित्यिक प्रकार, महेंद्र द्वारा पाटलिपुत्र ओर ताम्रलिप्ति के माध्यम से, उज्जैन से सीलोन ले जायी गई थी।
लेकिन इस अवधि में भी, पाणिनी के समय से स्थापित शास्त्रीय संस्कृत ने अपना महत्व नहीं खोया था। इसका संवर्धन ब्राह्मणवादी स्कूलों और अन्य व्याकरण पंडितों-कात्यायन और पतंजलि, जो क्रमशः मौर्य और शुंग की अवधि से संबंधित थे-के द्वारा किया गया था, जिन्होंने भाषा का एक उच्च-स्तरीय विकास किया। पाणिनी के हाथों सरलीकृत भाषा वेदों की भाषा से अलग हो गई और इसका उपयोग तेजी से बढ़ते महाकाव्य और काव्य साहित्य में किया जाने लगा था।
मौर्य काल के दौरान व्याकरण की गतिविधि में पर्याप्त कार्य हुआ। संस्कृत व्याकरण में, पाणिनी ने पहले से ही अष्टध्यायी लिखा था। पाणिनी और पतंजलि के बीच, पाणिनी के सूत्रों पर बड़ी संख्या में टिप्पणीकार (वर्ति्तका कार) हुए। उनकी माँ की ओर पाणिनी के वंशज, व्यादी ने 1,00,000 छंदों के अति महान कार्य संग्रह का निर्माण किया। व्यादी के नाम परिभाषासोर - पाणिनी के सूत्रों की व्याख्या के लिए नियम, साथ ही उत्पलिनी नाम का एक शब्दकोश का निर्माण भी जुड़ा हुआ है।
एक अन्य विद्वान थे कात्य, जिन्हे पतंजलि ने भगवान कात्य, और उनकी टिप्पणियों को महा वर्ति्तका के रूप में उल्लेख किया है। कात्य और कात्यायन के पश्चात् कई छोटे टिप्पणीकार हुए। भारद्वाज, सुंग, क्रोष्ट, कुनर्वदेव और सूर्य। पाणिनी के काम पर जितने भी टिप्पणीकार हुए उनमें पतंजलि का महाभाष्य विश्वकोशीय है, जो समकालीन समाज, धर्म, दर्शन, साहित्य और कला की स्थिति पर प्रकाश डालता है। व्याकरण के प्रश्नों पर पतंजलि का अधिकार निर्विवाद बना हुआ है।
6.2 पूर्व-गुप्त काल
शास्त्रीय भाषा की उत्पत्ति का इतिहास, प्रारंभिक ऐतिहासिक या वैदिक काल के बाद से चला आ रहा है, किन्तु वह मौर्य काल ही था, जिसमे इसे प्रारंभिक रूप से फलते-फूलते देखा गया था। दो महाकाव्यों, महाभारत और रामायण, की भाषा में इसे पहचानने योग्य लोकप्रिय तत्व हैं, क्योंकि महाकाव्य सामग्री का प्रसारण सूक्तों द्वारा किया गया था, जो याजकीय समूहों से संबंधित नहीं थ। हालांकि, माना जाता है कि महाकाव्यों ने प्रारंभिक शास्त्रीय लेखकों पर काफी प्रभाव डाला, संस्कृत अधिक से अधिक एक साहित्यिक भाषा बन गई। लेकिन, बोली जाने वाली भाषा के रूप में इसका क्षेत्र धीरे-धीरे कम होता चला गया। इसमें सभ्य और शिक्षाप्रद साहित्य की बढ़ती मात्रा का पोषण किया गया और शास्त्रीय संस्कृत के लिए समर्थन की सीमा का अंदाजा जूनागढ़ रियासत के रुद्रदमन (मध्य-दूसरी शताब्दी ई.) की लंबी प्रशस्ति से लगाया जा सकता है। प्राचीनतम प्रशस्ति संस्कृत में की गई थी।
प्राकृत भाषा के विभिन्न रूप समाज के आम वर्गों का प्रतिनिधित्व करते थे, यह तथ्य, विभिन्न संस्कृत नाटकों के द्वारा स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जहां महिलाओं और आम आदमी द्वारा प्राकृत भाषा, न कि संस्कृत, बोली जाती है। पहली शताब्दी के अंत या दूसरी शताब्दी की शुरुआत तक अश्वघोष के नाटकों में प्रांत भाषा की तीन किस्मों, अर्धमगधी, मगधी और सौरसेनी शायद को मान्यता प्राप्त हुई। दक्षिण में तमिल कविताओं के प्राचीनतम संकलन ईसाई युग की शुरुआत के अनुरूप हैं। माना जाता है कि वे कवियों और भाटों द्वारा रचित होती थीं और पांडियन राजधानी मदुरै में आयोजित तीन सभाओं (संगम) में उन्हें प्रस्तुत किया जाता था। इस साहित्य के 33,000 लाइनों के आठ संकलन (इट्टूलोगई) और दस सौम्यकाव्य (पाट्टुपत्तु) शेष हैं। इस कोष में बचा हुआ प्राचीनतम जीवित तमिल व्याकरण, तोलकप्पियम, भी शामिल है। तमिल महाकाव्यों में से बचे हुए तीन महाकाव्यों की रचना बाद में हुई दिखती है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सभी शाखाओं में से, इस अवधि में, खगोल विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान ने काफी प्रगति की, ऐसा दिखाई देता है, और यह कि इस प्रगति में, कुछ हद तक अन्य समकालीन सभ्यताओं के साथ संपर्क के परिणाम की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। बाद के ग्रंथों, जैसे बृहत् संहिता, पर उनके नाम और प्रभाव को छोड़कर, खगोलीय ग्रंथों का कुछ भी शेष नहीं बचा है। देशी चिकित्सा प्रणाली पर दो महत्वपूर्ण ग्रंथ बच गए हैं। बाद के संशोधनों में शामिल होने के बावजूद, उनके मूल पारंपरिक रूप शायद ईसाई युग की प्रारंभिक शताब्दियों के समय के हैं, जो स्वयं शायद पहले की अग्निवेश और सुश्रुत संहिताओं पर आधारित हैं।
भारतीय चिकित्सा प्रणाली में हमारा ज्ञान दो संहिताओं पर आधारित हैः चरक और सुश्रुत, लेकिन इस प्रणाली का मूल निश्चित रूप से इससे पहले का है। प्रणाली के मूलतत्त्व बाद के वैदिक साहित्य में पहले से ही उपलब्ध हैं, न केवल बीमारियों के अनगिनत नामों और उनके प्राकृतिक और अलौकिक कारणों की पहचान में, बल्कि उनके प्रस्तावित उपचार में भी, जैसे वाजसनेयी, तैत्तिरीय और मैत्रायणी संहिताओं में पौधों, धातु, सूर्य के प्रकाश और पशु उत्पादों के प्रभाव। बहरहाल, इस ज्ञान के व्यवस्थापन और उसकी उन्नति आयुर्वेदिक संहिताओं की अवधि में प्राप्त की गई, जो दोनों चिकित्सा ज्ञान की आठ शाखाओं का उल्लेख करते हैं। उन दोनों के बीच मूलभूत अंतर यह है कि, जहां चरक, मुख्य रूप से चिकित्सकीय औषधि पर एक ग्रंथ है, वहीं सुश्रुत, मुख्य रूप से शल्य चिकित्सा के लिए समर्पित है। एक साथ मिलकर वे दोनों आयुर्वेदिक प्रणाली के मूल का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों, प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम उपयोग के लिए आग्रह करते हैं और शरीर, मन, आत्मा और शाश्वत ब्रह्माण्ड की जटिलता के बीच एक सच्चे रिश्ते की वकालत करते हैं।
6.3 गुप्तकाल और गुप्तकाल-बाद
इस अवधि में भाषा के बारे में सबसे उल्लेखनीय बात संस्कृत का प्रभुत्व थी, जिसकी प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी थी। इस अवधि में ब्राह्मणों को संरक्षण के साथ-साथ भूमि अनुदान के माध्यम से उनके प्रसार के लिए पर्याप्त कार्य किया गया था। शिलालेखों में, जो अब ज्यादातर सरकारी रिकॉर्ड बन चुके हैं, प्राकृत भाषा से संस्कृत का संक्रमण पूरा हो गया था - विभिन्न क्षेत्रों में आद्य क्षेत्रीय भाषाओं के उद्भव की अवधि तक। कहने की आवश्यकता नहीं कि, यह परिवर्तन उस काल के सामाजिक इतिहास के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
संस्कृत की यह विजय, एक स्तर पर उस काल में निर्मित भव्य धर्मनिरपेक्ष साहित्य से स्पष्ट होती है। जैसा कि उस काल की परंपरा और प्रचलित शाही प्रथाओं, दोनों से संकेत मिलता है, साहित्यिक गतिविधि में यह उछाल राज दरबार के चारों ओर केन्द्रित था - एक संगठन जिसने रचनात्मक साहित्य की प्रमुख शैलियों को लाभान्वित किया। कविता, नाटक और अन्य। प्रमुख रीति या साहित्यिक शैली विकसित होना शुरू हुई। विभिन्न मीटर का उपयोग इस समय तक आम हो गया था। वराहमिहिर ने बृहत् संहिता में लगभग साठ मीटरों का वर्णन किया है। (मीटर = गिनने या मापने की एक विधि)
एक अन्य स्तर पर, संस्कृत, अब तक अनाकार पडे़ रहे अधिकतर साहित्य को एक मानक आकार देने के लिए वाहन बन गया। इस का सबसे अच्छा उदाहरण पुराण हैं। पुराणों के केंद्र अपने पांच लक्षणों की ही तरह निश्चित रूप से, पहले से ही अस्तित्व में थे, लेकिन वे जिस रूप में उपलब्ध थे, निश्चित रूप से इस योजना के अनुरूप नहीं थे और वे एक विशाल सामग्री के रूप में मौजूद थे, जिसका निगमन इस समय के आसपास ही आवश्यक महसूस किया गया होगा। इस प्रक्रिया को लोक कथाओं और दंतकथाओं के ‘संस्कृतिकरण’ में भी देखा जा सकता है। मूल पंचतंत्र इसीके एक समकालीन उदाहरण के रूप में प्रकट होता है।
एक आधिकारिक भाषा के रूप में संस्कृत ने सुदूर दक्षिण में प्रवेश कर लिया (और वास्तव में, यह दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में भी फैल गई), लेकिन तमिल की समृद्ध साहित्यिक विरासत को स्थानीय संरक्षण ने समृद्ध करना जारी रखा। माना जाता है कि दो महाकाव्य जैसी रचनाएँ इस अवधि की ही देन हैं। उनमें से ज्यादा प्रसिद्ध सिलप्पदीकर्म इलांगो वड़िगल-से पता चलता है कि ब्राह्मणवाद और उसके मूल्यों ने तमिल समाज में काफी अंदर तक प्रवेश किया था, लेकिन संरचनात्मक रूप से, यह महाकाव्य अलग होता है और ‘उच्च‘ और ‘लोक‘ परंपरा का एक संयोजन प्रस्तुत करता है - एक परंपरा, जो शायद उत्तर भारतीय महाकाव्यों में पूरी तरह से अनुपस्थित है।
इस अवधि के अनेक वैज्ञानिक विचारक अपने पूर्ववर्तियों के कार्य का हवाला देते हैं, और इस प्रकार अपनी सोच में पूर्ववर्ती स्थानीय साथ ही विजातीय प्रभावों को आत्मसात करने को परिलक्षित करते हैं। उदाहरण के लिए, वराहमिहिर ने पंचसिद्धांतिका में पांच पूर्ववर्ती सिद्धांतों का उल्लेख किया है जिनमें से रोमक और पौलिस यूनानीवादिक दुनिया से उठाए गए हैं ऐसा माना जाता है। इसी तरह, रस विद्या या कीमिया, जो धीरे - धीरे गूढ़ तांत्रिक प्रथाओं के साथ जुड़े, दक्षिणी चीन के साथ संपर्क से निर्माण हुए हो सकते हैं। पारा और सल्फर के लिए क्रमशः पुरुष और महिला सिद्धांतों का रोपण, दोनों क्षेत्रों के लिए आम है।
हालांकि, स्थानीय वैज्ञानिक सोच, जो वैदिक काल से ही व्यावहारिक जरूरतों से उत्पन्न हुई, अब अपनी सबसे परिवर्तनात्मक चरण पर पहुंच गई थी।
इस काल की सबसे उल्लेखनीय निर्मिति शायद आर्यभट्ट की यहोसे है, जिसे महत्वपूर्ण योगदान की एक श्रृंखला के लिए जिम्मेदार माना गया है। कुछ दार्शनिक प्रणालियां भी विज्ञान की दिशा में मोड़ दी गईं। न्याय-वैशेषिक प्रणाली, जिसमे युग्म (द्वनुक) या ट्राइएड्स (त्र्यनुक) के माध्यम से परमाणुओं से सकल निकायों के गठन को समझाया गया या सविस्तार प्रोत्साहन की धारणा को समझाया गया, समकालीन वैज्ञानिक पूछताछ की धाराओं द्वारा पोषित किया गया होगा।
भारतीय विज्ञान को पहचान अरबी दुनिया में विविध कार्यों के अनुवाद और पश्चिम के लिए उनके प्रसारण के माध्यम से जल्दी ही आ गई। हालांकि, यह याद रखना चाहिए कि भारत में, वैज्ञानिक प्रश्न की प्रक्रिया पूरी तरह से निर्विरोध नहीं थी। आर्यभट्ट की कुछ प्रतिभाशाली खोजों को वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त जैसे उनके यशस्वी उत्तराधिकारियों द्वारा अस्वीकार कर दिया, और यहां तक कि निंदा भी की गई।
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