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चोल और पांड्य राजवंश भाग - 2
5.0 पांड्य वंश
संगम काल के प्रारंभिक पांड्य प्राचीन तमिल के तीन प्रमुख साम्राज्यों में से एक थे, दो अन्य थे चोल और चेर। इस काल के अन्य साम्राज्यों के समान (200 ई.पूर्व के पहले), प्रारंभिक पांड्य वंश की भी सभी सूचनायें हमें साहित्यिक, पुरातात्विक और मुद्रा स्रोतों से ज्ञात होती हैं। प्रारंभिक पांड्य वंश की राजधानी 600 ई.पू. के लगभग कोरकई थी जिसे बाद में नेदुन्ज चेलियान प्रथम के शासन काल में कूड़ल (मदुरई) स्थानांतरित कर दिया गया।
तीसरी शताब्दी ई.पू. से ही पांड्य वंश के राजाओं का उल्लेख संगम साहित्य में बार-बार आता है। मथुरईकांची तथा सिलपद्दीकरम आदि प्रारंभिक तमिल साहित्यक रचनाओं के आधार पर इतिहासकार इस वंश के प्रारंभिक राजाओं के नाम और किसी सीमा तक इसकी वंशावली खोजने की कोशिश करते हैं।
नेदुन्ज चेलियान तृतीय को पांड्य वंश का एक लोकप्रिय योद्धा माना जाता है जिसने चोल और चेर साम्राज्यों एवं पांच अन्य राज्यों की संयुक्त सेना के विरूद्ध तालईलूंगनम का युद्ध जीता। प्रारंभिक पांड्य साम्राज्य पश्चिम में त्रावणकौर, उत्तर में वैल्लुर नदी तथा पूर्व और दक्षिण में समुद्र तक फैला था।
प्रारंभिक पांड्य राजाओं के पश्चिम में समुद्री व्यापारिक संबंध थे जिसका उल्लेख पहली शताब्दी ई.पू. के पश्चिमी लेखकों जैसे प्लिनी, स्ट्राबो, टोलेमी आदि ने भी किया है। पांड्य देश इसमें पाये जाने वाले मोतियों वाले मत्स्य उद्योग के लिए प्रसिद्ध था। कोरकई व्यापार का एक प्रमुख केन्द्र था। मोती, मसाले, हाथी दांत, शंख आदि प्रमुख निर्यात की जाने वाली चीजें थीं, जबकि घोड़े, सोना, कांच और शराब आयात की जाती थी।
5.1 उद्गम और स्रोत
पांड्य शब्द की व्युत्पत्ति खोज का विषय है। कुछ विद्वानों का विश्वास है कि इस शब्द का उद्गम महाभारत के ‘‘पाण्डव‘‘ से हुआ है।
कुछ स्रोत दावा करते हैं कि इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘पंडी‘‘ से हुई है जो कि तमिल देश का मूल नाम है। हालांकि ‘‘पांड्य‘‘ देश का उल्लेख रामायण में भी हुआ है कि जो कि महाभारत से पहले की रचना मानी जाती है। जब सुग्रीव अपने विभिन्न वानर योद्धाओं को सीता की खोज में भेजता है तो वह चेर, चोल और ‘‘पांड्य‘‘ का उल्लेख करता है। अततः ‘‘पांड्य‘‘ शब्द पाण्डव से निर्मित प्रतीत नहीं होता।
पांड्य वंश के प्रारंभिक उद्गम को खोजने के इतिहासकारों के सारे प्रयास असफल सिद्ध हुए क्योंकि वे इसके लिए किसी निश्चित मत पर नहीं पहुचे और ना ही इन राजाओं की सही-सही वंशावली ज्ञात कर सके।
एक अन्य सिद्धांत के अनुसार पांड्य शब्द की उत्पत्ति तमिल शब्द ‘पंडी‘ से हुई जिसका अर्थ है बैल। प्राचीन तमिल लोग बैल को पुरूषत्व और वीरता का प्रतीक मानते थे। पांड्य शब्द मदुरई के प्रथम पांड्य राजा, कुलशेखरन पांड्य की एक उपाधि बन गया, क्योंकि वह एक बैल के समान शक्तिशाली व सुगठित था। इसका उपयोग पुरूषत्व के प्रतिमान के रूप में होने लगा। उसका पुत्र, मदुरई का द्वितीय राजा मलयध्वज पांड्य एक मिथकिय पात्र के समान है जिसने कुरूक्षेत्र में पाण्डवों के पक्ष में युद्ध किया था। उसका उल्लेख महाभारत के कर्ण पर्व (श्लोक 20-25) में मिलता है।
मलयध्वज पांड्य और उसकी रानी कंचनमाला की एक पुत्री मीनाक्षी थी जो उसके पिता की उत्तराधिकारी बनी और राज्य पर सफलतापूर्वक शासन किया। मदुरई का मीनाक्षी अम्मन मंदिर उन्हीं के नाम पर बनाया गया है। मदुरई शहर भी इसी मंदिर के आस-पास बसा है।
एक अन्य मत के अनुसार संगम तमिल कोष में पाण्डय शब्द का अर्थ होता है पुराना देश, क्योंकि चोल का अर्थ है नया देश, चेर का अर्थ है पहाड़ी देश और पल्लव का अर्थ है शाखा। चेर, चोल और पाण्डय परम्परागत रूप से तमिल में सहोदर माने गये हैं जिन्होंने पल्लवों के साथ मिलकर प्राचीन तमिलक्कम पर शासन किया।
पिल्लायारपत्ती मंदिर, शिवगंगा जिले में थीरूपत्थुर में स्थित पहाड़ां को काटकर बनाया गया एक मंदिर है। इसका निर्माण प्रारंभिक पांड्य राजाओं ने एक पहाड़ी को देखने के बाद करवाया। पिल्लायारपत्ती पिल्लयार की छवि तथा शिवलिंग की आकृति मूर्तिकार एक्कतुरूकूण पैरूपरवान ने बनाई जिसने शिलालेख पर अपने हस्ताक्षर भी किये हैं, व इसमें जिस तमिल भाषा का उपयोग किया है वह दूसरी से पांचवी शताब्दी ईस्वी में उपयोग की जाती थी। यह माना जाता है कि पिल्लायारपत्ती पिल्लयार का निर्माण चौथी शताब्दी ई.पू. में हुआ होगा।
5.1.1 तमिल के साहित्यक स्रोत
कुछ तमिल साहित्यिक कृतियों जैसे ईरईणार अगोप्पोरूल में तीन पृथक-पृथक तमिल संगमों का उल्लेख किया गया है, जो ईस्वी संव्त प्रारंभ होने के पूर्व रचित की गई थीं, तथा जिनका संरक्षण पांड्य राजाओं ने किया था। संगम कविता मथुरईकांची जिसकी रचना मंकुड़ी मरूथणर ने की थी, में मदुरई और नेदुन्ज चेलियान तृतीय के नेतृत्व में पांड्य देश का विस्तृत विवरण दिया गया है। नक्कीराल के द्वारा रचित नैदुनलवड्डाई में राजा के महल का विवरण दिया गया है। पुराननुरू और अकननुरू तीसरी शताब्दी ई.पू. के पाण्डय राजाओं की प्रशंसा में गीत लिखे गये हैं। इनमें ऐसे गीत भी संग्रहित है जिनकी रचना स्वयं राजाओं ने की थी। कलीत्तोकई में उल्लेख मिलता है कि कई तमिल नाग प्रजातियां जैसे कि मारावर, एईनार, ओिळयार, ओवियार, अरूवलुर और पराथवर पांड्य साम्राज्य में जाकर बस गईं तथा 2000 वर्ष पूर्व तीसरे तमिल संगम के काल में उन्होंने वहां रहना प्रारंभ किया।
5.1.2 अन्य भाषाओं के साहित्यिक स्रोत
सिंहली इतिहास ग्रंथ महावंश में दावा किया गया है कि उड़ीसा के राजा विजय (543 ई.पू) ने तब के मदुरई के पांड्य राजा की लड़की से विवाह किया था, जिसके लिये उसने प्रत्येक वर्ष महंगे उपहार भेजे थे। वाल्मिकी (400 ई.पू.) ने भी रामायण में कुछ स्थानों पर पांड्य राजाओं का उल्लेख किया है। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में ‘‘सुगम व्यापारिक पथ‘‘ के उल्लेख के साथ-साथ पांड्य साम्राज्य में होने वाले उत्पादों के बारे में लिखा है। उसने मदुरई शहर, तिरूनेलवैली और तमिरबर्नी नदी का भी उल्लेख पांड्य साम्राज्य में किया है। प्रसिद्ध यूनानी यात्री मेगस्थनीज (302 ई.पू.) ने भी पांड्य साम्राज्य का उल्लेख किया है और कहा है कि ‘‘भारत का वह हिस्सा जो इसके धुर दक्षिण में स्थित है, व समुद्र तक फैला हुआ है‘‘।
पेरीप्लस नामक ग्रंथ में भी पांड्य साम्राज्य के धन का उल्लेख है (60-100 ईस्वी)।
5.1.3 शिलालेख स्रोत
दूसरी और तीसरी शताब्दी ई.पू. के अशोक के दूसरे व तेरहवें शिलालेखों में पांड्य, चोल, चेर और सत्यपुत्र राजवंशों का उल्लेख है। इन स्तम्भ लेखों के अनुसार, यह राजवंश मौर्य सीमा के बाहर स्थित थे। कलिंग राजा खारवेल (150 ई.पू.) के हाथीगुम्प लेख में यह स्पष्ट उल्लेख है कि रत्न और हाथियों के उपहार पांड्य राजाओं से प्राप्त होते थे। मंगुलम (मीनाक्षीपुरम) से खोजे गये शिलालेख में नेदुन्ज चेलियान तृतीय और उसके समकालीन शासकों तथा उसके अधीनस्थों कादळन वळुवथी का नाम भी स्पष्ट रूप से दर्ज है। इन लेखों से यह स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि नेदुन्ज चेलियान तृतीय ने दूसरी शताब्दी ई.पू. शासन किया था।
5.1.4 पुरातात्विक स्रोत
तमिलनाडु में पिछले 50 वर्षों में की गई खुदाई में काले और लाल रंग के बर्तनों के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो सामान्यतः तमिल क्षेत्रों के 300 ई.पू. के आसपास के होने के अनुमान हैं। कुछ काले और भूरे रंग से पुते हुए बर्तन भी प्राप्त हुए हैं जिनका भी इसी कालखण्ड के होने का अनुमान है। तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों में, जिसमें पांड्य साम्राज्य का क्षेत्र भी शामिल है, में रोमन साम्राज्य की चीजों के अवशेष प्राप्त हुए है जो शायद व्यापारियों के द्वारा यहां लाये गये थे। ये सारी वस्तुएं ईसा की पहली कुछ सदियों की प्रतीत होती हैं।
5.1.5 मुद्रा स्रोत
मदुरई के निकट अलगानकुलम में हुई खुदाई में प्रारंभिक पांड्य वंश के दो तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं। यह सिक्के दूसरी शताब्दी ई.पू से ईसा की दूसरी सदी तक के होने का अनुमान है। कुछ अन्य सिक्के भी जो पांड्य राजा मुदुकुदुमी पेरूवलुधी के द्वारा जारी किये गये थे, मदुरई की आसपास की खुदाई से प्राप्त किये गये थे। मदुरई के आसपास रोमन साम्राज्य के सोने और चांदी के सिक्के भी प्राप्त हुए हैंः इन सिक्कों पर अगस्टस (27 ई.पू.) से लगाकर एलेक्जेण्डर सिविरस (235 ईस्वी) तक के नाम छपे हैं।
6.0 प्रारंभिक पांड्य राजाओं का राजनीतिक इतिहास
प्राचीन पांड्य साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास के संबंध में विद्वानों ने शास्त्रीय महाकाव्यों जैसे पुराननुरू, पट्टू पाटु और पदीरूपट्टू को आधार बनाया है। यद्यपि यह सारे महान ग्रंथ इस राजवंश के राजाओं और उनके शासन काल को लेकर कोई स्पष्ट समय रेखा हमें नहीं बता पाते हैं, फिर भी ये उस दौर के विश्वसनीय विवरण प्रतीत होते हैं जो कि तथ्यों को उचित तरीके से सामने लाते हैं।
संगम साहित्य में जिस प्रथम पांड्य राजा का उल्लेख है उसका नाम हैनेदुन्ज चेलियान प्रथम, जिसने तटीय शहर कोरकई, जो कि ताम्रपरणी नदी के मुहाने पर स्थित है, से शासन किया। इस दौर में, तमिल राज्य कुछ छोटे साम्राज्यों के द्वारा शासित था जिस पर स्वतंत्र शासक शासन करते थे, जिनमें चेर, चोल और पांड्य भी थे। अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए नेदुन्ज चेलियान प्रथम ने कुदल (मदुरै) पर आक्रमण किया जो कि अकुतई नामक एक स्वतंत्र शासक के अधीन था। उसने अकुताई को पराजित किया और अपनी राजधानी मदुरई स्थानांतरित की। उसने दक्कन से आने वाली एक क्रमणकारी सेना को भी पराजित किया और आरीयप पदईकदांत पांड्य कहलाया जिसका अर्थ था आर्य सेना को जीतने वाला। उसका पुत्र पुड्डाप्पांड्यान उसका उत्तराधिकारी बना जिसने आळईयर को जीतकर अपने साम्राज्य को विस्तारित किया, जिसके कारण उसका नाम आळईयरथंथा पुदईपांडियन हो गया। दोनों ही राजा स्वयं कवि भी थे जिन्होंने पुरानन्नरू नामक संग्रह में अपनी कविताएं लिखी।
पुड्डाप्पांड्यान का उत्तराधिकारी नेदुन्ज चेलियान द्वितीय था जिसे पसुमपुन पांडियन के नाम से भी जाना जाता है। सिंहासन संभालने के साथ ही उसने वेंगी पर आक्रमण किया तथा वहां के प्रमुख एव्वी द्वितीय को पराजित किया। फिर उसने पश्चिम की ओर रूख किया तथा अयी क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लिया तथा वहां के प्रमुख अतियान को भी हरा दिया। ईव्वी द्वितीय और अतियान पांड्य साम्राज्य के साथी बन गये तथा पश्चिम में कोंग्गु राज्य पर आक्रमण किया। उसने पांड्य साम्राज्य लगभग पूरे पश्चिमी तट में फैला दिया जिसके कारण उसे विदम्बलम्ब नींद नीन्र पांड्यन (पांड्य जिसका राज्य दो समुद्रों के बीच में था) की उपाधि मिली। क्योंकि उन्होंने पांड्य राज्य का विस्तार किया इसलिए उन्हें पान्नडु थंथ पांड्यन कहा जाने लगा। उसके उत्तराधिकारी मुदुकुदुमी पैरूवलुधी भी एक महान योद्धा था तथा अपने सैन्य अभियानों में उसने भी कई शत्रु देशों को हराया। ब्राह्मण पुजारियों की सहायता से, उत्तर-भारतीय परम्परा के अनुसार, उसने कई यज्ञ सम्पन्न करवाये।
इस वंश का अगला उत्तराधिकारी नेदुन्ज चेलियान तृतीय था जो सभी पांड्य राजाओं में सबसे महान माना जाता है। चूकिं पांड्य साम्राज्य पिछली पीढ़ियों की तुलना में ज्यादा विस्तृत हो चुका था, इसलिए इसे कई पड़ोसी आक्रमणकारियों से तथा कई मोर्चों पर सुरक्षित रखना था। न केवल वह अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखने में सफल हुआ बल्कि उसने शत्रु राज्यों-दक्षिण में चोल प्रदेश और पूर्व में चेर प्रदेश को जीतने में भी सफलता हासिल की।
यह कहा जाता है कि उसके पड़ोसी राज्यों का एक गठबंधन जिसमें चेर, चोल और पांच अन्य साम्राज्य शामिल थे, उससे युद्ध के लिए तलईलंगनम (वर्तमान तंजोर) में मिले। नेदुन्ज चेलियान इसी युद्ध में विजेता के रूप में उभरा और उसने कुछ नये साम्राज्यों पर भी अपना कब्जा कर लिया। इसीलिए उसे तलईलंगनथु सेरूवेंद्र पांड्यन के नाम से भी जाना जाता है। इस राजा के बाद की वंशावली बहुत स्पष्ट नहीं है किंतु यह ज्ञात होता है कि चार अन्य राजा उसके पश्चात अगली पीढ़ियों में हुए थे। इनमें प्रमुख थे-मुसीरी मुत्रीया चेलियान क्योंकि उसने अरब सागर तट पर स्थित मुसीरी को जीता था और उक्कीरप पेरूवलुदी क्यांकि उसके दरबार में प्रसिद्ध कवि तिरूवल्लुवर ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ तिरूकुरल रचा था।
7.0 पांड्य शासन
राज्य में शासन का प्रमुख वंशानुगत राजा ही होता था। उसकी शक्ति को एम्बेरूगुळु या पांच महान सभाओं के द्वारा नियंत्रित किया जाता था, जिसमें लोगों, पुजारियों, ज्योतिषियों और मंत्रियों आदि के प्रतिनिधि होते थे। इसके अतिरिक्त राजा की सहायता करने के लिए अधिकारियों की एक सभा होती थी जिससे एंबेरायम या सहायकों के आठ समूह कहा जाता था। जहां कुछ विद्वान यह मानते है की इन सहायकों में राजा के निजी सेवक होते थे वहीं कुछ विद्वानों का विश्वास है कि इसमें महत्वपूर्ण व्यक्ति जैसे शहर कोतवाल, हाथीसेना का प्रमुख आदि होते थे। राज्य के प्रमुख अधिकारी उच्च पुजारी या प्रमुख ज्योतिषी, मंत्री और सेना के सेनापति हुआ करते थे।
राजा ने उसके प्रदेश को कई प्रशासनिक इकाईयों में बांटा हुआ था जिनमें से प्रत्येक को कूत्रम कहा जाता था।
एक कूत्रम पुनः मण्डलों में विभाजित होता था, जिसे पुनश्चः नाडु में विभाजित किया गया था। प्रत्येक नाडु में कई गांव शामिल होते थे। किसी गांव या शहर में बसने वाली बस्ती को उर कहा जाता था और उर के भीतर बसने वाली बस्ती को चेरी कहा जाता था। जहां राजा अपने सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार पर राजधानी से नियंत्रण करता था, वहीं वह कूत्रम पर नियंत्रण के लिए राजपरिवार के किसी वरिष्ठ सदस्य को शासक बनाकर भेजता था। पांड्य प्रशासन के अधीन गांव एक मूलभूत इकाई थी।
गांव के मामलों की जिम्मेदारी वहां के बड़े-बुजुर्गों पर होती थी जो न्यायिक, प्रशासनिक और वित्तीय मामलों को देखते थे। राज्य में न्याय निःशुल्क उपलब्ध था तथा इसके लिए विशेष अधिकारी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किये जाते थे, किंतु राजा सभी मामलों में सर्वोच्च अधिकारी होता था। गिरवी, लीज, सम्पत्ति विवाद, कर्ज आदि सामान्य दीवानी मामले हुआ करते थे, जबकि चोरी, व्यभिचार, फर्ज़ोवाड़े, गद्दारी आदि अपराधिक मामले हुआ करते थे। चूंकि कठोर दण्ड दिये जाते थे इसलिए अपराध की दर बहुत कम थीः किसी भी व्यक्ति को जो व्याभिचार या जासूसी के मामले मे पकड़ा जाता था उसे मौत की सजा दी जाती थी, तथा झूठी गवाही देने वाले व्यक्ति की जीव्हा काट ली जाती थी। राजा सेना का प्रमुख होता था, जो युद्ध में उसका नेतृत्व करता था।
सेना के चार अंग होते थे - घुड़सवार, पैदल सैनिक, हाथीसवार और रथी। सैन्य शस्त्रागार में कई प्रकार के हथियार जैसे ढाल, तलवार, भाला, त्रिशूल, धनुष और बाण आदि हुआ करते थे। राजसी राजस्व का मुख्य स्रोत कर तथा विभिन्न प्रकार के दान आदि हुआ करते थे। नागरिकों से आयकर भी लिया जाता था। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आय का छठा हिस्सा आयकर के रूप में देना होता था। राजस्व के अन्य स्रोतों में सामंतों द्वारा दी जाने वाली भेंट तथा युद्ध में जीता गया धन भी होता था। राजा के द्वारा सेना के अतिरिक्त कवियों, मंदिरों, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओ पर भी व्यय किया जाता था। इसके अतिरिक्त सड़क और सिंचाई तथा महल निर्माण पर भी व्यय होता था।
8.0 प्रारंभिक पांड्य समाज
तमिल समाज भी विभिन्न वर्गां में विभाजित था, जो कि आर्यों के विभाजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और क्षुद्र) से भिन्न था।
महिलाओं को शिक्षा का अधिकार था। संगम साहित्य में कई महिला कवियत्रियों के होने का उल्लेख मिलता है, जिनमें अवैयार, मुदात्मक्कनैयार, काक्कईपद्नियार, नाच्चेलयार, नागईयार, नानमुल्लईयार, पोणमुदीयार, इलावैन्नियार, नप्पसेलियार आदि प्रमुख थीं।
इस कालखण्ड में विभिन्न प्रकार के वस्त्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें सूत और रेशम के वस्त्र भी शामिल होते थे। पहाड़ी क्षेत्रों के लोग पत्तों से बने कपड़े पहनते थे। घासदार रेशों की ‘कोरई‘ एवं पेड़ों की खाल व पशुओं की खाल भी कपड़ा बनाने में पहाड़ी लोगों व सुदूर जंगलों के रहवासियों के लिए उपयोगी थी। गरीब वर्ग के पुरूष केवल कमर पर कपड़ा लपेटते थे। महिला के अधोवस्त्र को कच्छु कहा जाता था। उच्च वर्ग के लोग अधोवस्त्र और कमर पर लपेटने वाले वस्त्र दोनों ही पहनते थे। उच्च कुलों की महिलाएं आधी साड़ी पहनती थीं। महिला और पुरूष ही लम्बे बालों का गुच्छा सर पर रखते थे। चावल, ज्वार, बाजरा आदि प्रमुख खाद्यान्न थे। मांस भक्षण सामान्य बात थी। लोग मछली, सुअर पक्षी, खरगोश, हिरण, बकरी आदि का गोश्त खाते थे। लोगों के मकान भौगोलिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार होते थे। सम्पन्न लोगों के मकान पक्की छत वाले होते थे जिसमें पकाई हुई ईटें आदि का उपयोग किया जाता था जबकि गरीब घास-फूस की कच्ची झोपड़ी बनाते थे। गाय के गोबर का उपयोग घरों में लीपने के लिए किया जाता था। अमीरों के घर कई मंजिलों के होते थे व उनमें फर्नीचर भी अच्छा होता था। पलंग भी विशाल एवं फूलों से सजे होते थे। गरीब अपने बिस्तर घासफूस से ही बना लिया करते थे।
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