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आरंभिक और महान पल्लव शासक भाग - 1
1.0 परिचय
पल्लव वंश ने दूसरी और नौवीं शताब्दी के बीच उत्तरी तमिलनाडु और दक्षिणी आंध्र प्रदेश के क्षेत्रों पर शासन किया। पल्लव मूल रूप से सातवाहन साम्राज्य के जागीरदार थे और उनके पतन के बाद ही उन्होंने प्रसिद्धि प्राप्त की। पल्लवों के उद्गम के साथ कई किवदंतियां जुड़ी हुई हैं। पल्लवों का तमिल क्षेत्रों के शासकों के रूप में उस दौरान, जब तीन ताज धारक राजा चोला, चेरा, और पांड्या एक दूसरे के खिलाफ युद्ध कर रहे थे और उन्होंने चोल नाडू, चेरा नाडू, पांड्य नाडू, पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया था जिससे प्राचीन तमिल देश तामिलकम बना, कोई उल्लेख नही है। पल्लव राजाओं के कुछ विवरण संगम काल शास्त्रीय लेख ऐनगुरूनुरू मणिमेखला और पेरुम्बनारूपट्टई में मिलते हैं। आम तौर पर कई विशेषज्ञों ने माना है कि पल्लव कुरूंबर/कुरूब थे।
परंपरागत रूप से कांची पल्लव की मातृभूमि मानी जाती है। तमिल साहित्य चोल किल्लीवालवन की कहानी को संबद्ध करता है जो चोल की राजधानी पुहर के विनाश के बाद अपनी राजधानी को उरईय्यर ले गया था। कोलंबो के मुद्लियार सी. रसनायग़म ने दावा किया है कि किल्लीवालवन का नागा राजा वलईवनम की बेटी के साथ सिलोन (जाफना प्रायद्वीप) में संपर्क हुआ था। इस संपर्क से एक बच्चे का जन्म हुआ था जिसका नाम तोंडाइमन इलंतिरायन् रखा गया जिसे उसके पिता किल्लीवालवन ने तोंडाईमंडलम क्षेत्र का शासक बनाया, जिसकी राजधानी कंची थी। पल्लव नाम मणिपल्लवनम के अंतिम अक्षर से निकला बताते हैं।
पल्लवां की उत्पत्ति विवादाग्रस्त है। विभिन्न सिद्धांतों ने अटकलें लगाई हैं कि पल्लवां की उत्पत्ति तमिल, श्रीलंका, तेलुगू और फारसी मूल में है। कुछ इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पल्लव उत्तर के वकाटक राजवंश के क्षत्रिय थे।
2.0 राजनैतिक इतिहास
पल्लव के राजवंश के दो विशिष्ट चरण हैंः
- जिन लोगों ने 600 ई. से पहले राज्य किया, और
- जो लोग 600 ई. के बाद आये
पूर्व वाले लोगों को प्रारंभिक पल्लव कहा जा सकता है और बाद वालों को शाही पल्लव कहा जा सकता है।
प्रारंभिक पल्लव के पूर्व वाले पल्लवों को और भी विभाजित किया जा सकता हैः वे जिन्होंने प्राकृत चार्टर जारी किए और वे जिन्होंने संस्कृत चार्टर जारी किये। वास्तव में केवल तीन शासकों के बारे मे ही हमें पता है जो प्राकृत चार्टर के साथ जुड़े हैं।
पहला शासक था शिवस्कन्द वर्मन जिसका स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। कुछ शिलालेखां में उसका उल्लेख युवराज के रूप में है जिससे पता चलता है कि उसके पिता जिनका नाम हमें ज्ञात नहीं है - वे भी एक शासक थे।
गुंटूर जिले के एक प्राकृत पत्थर शिलालेख में सिंहवर्मन का उल्लेख है और यह अनुमान लगाया गया है कि वे स्कंदवर्मन के पिता हैं। स्कंदवर्मन का एक बेटा था बुद्धवर्मन, जिसे एक बेटा था बुद्धांकुर जो एक रानी चारूदेवी से पैदा हुआ था। चारूदेवी के प्राकृत में अनुदान से बना शिलालेख, मंदिरों को उपहार, पूर्व पल्लव शासकों के एक बाप्पा के साथ शुरुआत का उल्लेख करते हैं जिसका मतलब पिता भी हो सकता है।
पल्लव राजपत्र के एक अध्ययन में, माईदावुलु तांबे की प्लेट (गुंटुर जिला, वर्तमान आंध्रप्रदेश) का अनुदान और र्हिहदगल्ली तांबे की प्लेट का अनुदान जो कांची से स्कंदवर्मन द्वारा जारी किये गये, कांची के साथ पल्लवों के बहुत पहले के संपर्क का संकेत देते हैं। स्कंदवर्मन ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की और अश्वमेध तथा अन्य वैदिक यज्ञ करवाये। विजयस्कंदवर्मन के बारे में हमें ब्रिटिश संग्रहालय की प्लेटों से ज्ञात हुआ कि वह शायद उस स्कंदवर्मन के जैसा नहीं था जिसने उपर्युक्त उल्लेखित तांबे की प्लेट जारी की थी।
इस साक्ष्य के आधार पर शासकों की दो दिशाऐं उभरती हैं। एक है सिंहवर्मन का बेटा स्कंदवर्मन, और अन्य है बुद्धवर्मन का बेटा बुद्धांकुर, जो बाप्पा के वंशज हैं।
3.0 पल्लव ग्रंथ
पल्लव लिपि भारत के दक्षिणी क्षेत्र में पल्लव राजवंशों के शासनकाल में विकसित हुई (लगभग 3री-5वीं शताब्दी) और यह दक्षिण भारतीय भाषाओं की लिपि का स्त्रोत है। पल्लव लिपि ब्राम्ही लिपि पर आधारित थी और इस लिपि में ब्राम्ही लिपि के कई संकेत व व्यंजन व्यंजनों के गुच्छे (समूह) को लिखने का प्रारूप सहित सम्मिलित हैं। बाद में यह धार्मिक व राजनीतिक शिलालेखों के लिए प्रसिद्ध हुई और लगभग 500 वर्षों तक यह इसी प्रकार परिवर्तन व अनुरूपण के साथ दक्षिण-पूर्वी एशिया की कई भाषाओं को लिखने के लिए प्रयोग में लायी जाने लगी।
अन्य लिपियां जिनका मूल स्त्रोत या प्रभाव स्त्रोत पल्लव लिपि है, उनमें तेलगु, कन्नड़, तमिल, मलयालम्, सिंहली, बर्मी, खमेर, लन्ना, थाई, लाओ, चाम, जावा, बाली, बुगिनी और सूडानी सम्मिलित हैं।
इस लिपि को दक्षिणी गुप्त ब्राम्ही, आद्य-कन्नड़, तमिल ग्रंथम् और कई अन्य नामों से भी जाना जाता है।
यद्यपि इस उभरती हुई लिपि को आद्य-तेलगु, आद्य-कन्नड़, कदंब, ग्रन्थ का एक रूप या सरल रूप में दक्षिणी ब्राम्हीं भी कहा जाता है पल्लवों के शासनकाल में यह लिपि में उस काल के विचारधीन विषयों को लेकर पुरोहित, सन्यासी, विद्वान व व्यापारियों के द्वारा द.पू. एशिया में पहुंची वहां इसका प्रचार-प्रसार किया गया और इसे गर्वपूर्वक पत्थरों पर लेखन के आरंम्भिक अवशेषों के रूप में उत्कीर्ण किया गया। दक्षिण भारत, पूर्वी तटीय क्षेत्र का निश्चित रूप से वैदिक व बौद्ध प्रभाव का मुख्य वाहक मार्ग था। इस मार्ग के द्वारा वैदिक और बौद्धिक प्रभाव द.पू. एशिया पहुंचा। उस काल में पल्लव वंशावली के एक राजा (कडवेश हरिवर्मा) कांबुजदेश (वर्तमान में कम्बोडिया व वियतनाम) के शासक थे; यह लगभग 8वीं शताब्दी की बात है।
पल्लव ग्रंथ की कई विशेषताएं उस समय के अन्य राज्यों की लेखन प्रणाली में स्पष्ट दिखाई देती हैं। मुख्यतः कर्नाटक और मध्य भारत के चालुक्य और स्थानीय कदंब और उत्तर के वेंगी क्षेत्र, आंध्र के इश्वुक के काल में। पल्लवों के दक्षिण व दक्षिण पश्चिमी क्षेत्रों ने ब्राम्ही स्वरूप को थोड़ी भिन्न दिशा में ले जाने का कार्य कियाः वे चोल व चेर राजवंश ही थे जिन्हें अब तमिलनाडु व केरल नाम से जाना जाता है।
पल्लव लिपि (जिसे हम प्रतिनिधि लिपि भी कह सकते हैं) के उदाहरणीय गुणों के दो संबंधित पहलू हैं। भारत में यह ब्राम्ही लिपि के उल्लेखनीय विकासों में से एक है जो कि अभी भी उत्कीर्ण रूप में है। अक्षरों के घुमाव जो आयातकर व गोल दोनों रूप में हैं व उनमें सम्मिलित टंकण संबंधी प्रभाव जैस चिन्ह (‘शीर्ष‘ या मिलन बिन्दु सूचित करने के लिए) और इसमें स्थान की पूर्ति करने वाली रेखा भी सम्मिलित है। इन सभी कारकों ने इसे नागरिक व धार्मिक शिलालेखों हेतु उपयोगी बना दिया है। लंबे समय से सम्मानित उत्तर भारत की शाही ब्राम्ही लिपि के समान ही यह भी हमें एक विस्मरणीय अनुभूति प्रदान करती है, फिर भी तुलनात्मक रूप में पल्लव लिपि अधिक सुसज्जित है।
भारत में आधारभूत कदंब-पल्लव लिपि लगभग प्रत्यक्ष रूप से आरम्भिक कन्नड़ व तेलगु दोनों लिपियों के रूप में विकसित हुई थी। ग्रंथ लिपि के आरम्भिक रूप व तमिल लिपि में कई समानताएं हैं, परन्तु यदि हम व्यंजनों के आधार पर देखें तो इनमें कई असमानताएं प्रकट होती हैं। बाद के आगमन में पत्तों व कागज पर तीव्र लेखन। इनमें गोलाकार मिण-तक्षणों (मिण-तक्षण लेखन का एक अवयव हैः यह एक विशिष्ट संकेत चिन्ह जो लिखित माध्यम के अर्थ को समझने में सहायता करता है) कई घुमाव के साथ समाविष्ट हुए।
पल्लव व्यापारियों ने उनकी लेखन भाषा को दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रस्तुत किया और सभी प्रकार के लोगों से इसे खूब प्रशंसा, सराहना व अनुकरण प्राप्त हुआ। आरम्भिक लेख संस्कृत व पाली भाषा में थे परन्तु शीघ्र ही स्थानीय भाषा ने इस लिपि का रूप स्वीकार कर लिया। लेखन की यह शैली कुछ परिष्कृत स्वरूपों के साथ इस प्रकार हैः
- प्यु (बर्मा)
- मोन - बर्मा
- कावी-जावा, बाली, सूदानी, बुगिनी व अन्य (इन्डोनेशियाई, फिलीपीनी, बोर्निथन)
- लन्ना-थाम (थाईलैंड)
- खोम (थाईलैंड)
- खमेर (कम्बोडिया)
- थाई व लाआंसे
- ताई लुई व अन्य ताई भाषा लिपि (बर्मा, दक्षिण चीन, थाईलैंड, वियतनाम)
- चाम (वियतनाम)
4.0 महान पल्लव (राजवंश)
छठी शताब्दी के निकट पल्लव शासक सिंहविष्णु ने कालभ्र शासकों के विरूद्ध आक्रमण किया। पंड्या ने भी इसका अनुसरण करते हुए आक्रमण किया। इसके बाद तमिल देश उत्तर में पल्लवों जहां कांचीपुरम उनकी राजधानी थी, और दक्षिण में पंड्यों के मध्य विभाजित हो गया, जहां मदुरै उनकी राजधानी थी।
सिंहविष्णु को अवनीसिंह नाम से भी जाना जाता था। एक मूर्ति प्राप्त हुई है जो उन्हें युद्ध के राजा के रूप में प्रस्तुत करती है जिसकी दो रानियां उसकी सेवा में लगी हुई हैं। यह मूर्ति एक प्राचीन मुख्य उत्तरी मंदिर की गुफाआें में पाई गई है जो महाबलीपुरम में आदि वराह मण्डपा नामक स्थान पर है।
उनके पुत्र व उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन द्वितीय (600-630 ई.) पल्ल्व सम्राटां में सबसे अधिक उल्लेखनीय थे। वे अपने आरम्भिक जीवन में प्रबल जैन अनुयायी थे, जो बाद में अप्पार जो कि एक शैव संत थे, उनके द्वारा शिव की उपासना करने के लिए मना लिए गए।
वे हर्षवर्धन के समकालीन थे और वे एक नाटककार, संगीतकार व कवि भी थे। वे एक नाट्य मत्तरितसा-प्रहासना (शराबियों की खुशी) के लेखक भी थे और वे पुदुकोट्टई के तथाकथित ‘संगीत शिला लेख‘ से भी जुड़े हुए थे।
उनकी कई बिरूदाएं जैसे मत्तविलास, गुणभारा, विचित्र-चित्त, लत्तनकुरा इत्यादि उनकी साहित्यिक उपलब्धियों को इंगित करती हैं। उन्होंने गुफा शैली की वास्तुकला की शुरूआत की। महेन्द्रवर्मन प्रथम को चालुक्य शासक पुलकेसिन द्वितीय के हाथों बहुत भारी हार का सामना करना पड़ा। उनकी इस पराजय के पश्चात् वेंगी क्षेत्र पुलकेसिन को प्राप्त हुआ जिन्होंने वेंगी के पूर्वी क्षेत्र में चालुक्य राज्य की सीमा स्थापित करने के लिए अपने भाई विष्णुवर्धन को भेजा।
कालभ्र के उथल-पुथल के बाद पल्लवों व बादामी चालुक्य शासकों में भारत में वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा आरम्भ हो चुकी थी। दोनों राजवंशों शासकों ने कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब में नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। नरसिंहवर्मन प्रथम, जिनका उपनाम महामल्ला था (630-660 ई.), महेन्द्रवर्मन प्रथम के पुत्र व उत्तराधिकारी, व वे एक महान पल्लव शासन माने जाते थे। उन्हें पुलकेसिन द्वितीय के दूसरे आक्रमण को रोकने और उसकी हत्या करने और चालुक्य शासकों की राजधानी वातापी पर कब्जा करने का श्रेय प्राप्त है। इस कारण उन्हें वातापीकोंडा (वातापी विजेता) की उपाधि दी गई थी।
संभवतः पुलकेसिन द्वितीय के साथ उनके संघर्ष में संभवतः उन्हें सिंहली युवराज मन-वम्मा की सहायता प्राप्त हुई थी जिन्हें उन्होंने बाद में लंका का सिंहासन प्राप्त करने में सहायता प्रदान की थी। ¬ह्नेनसांग ने लगभग 642 ई. में नरसिंह वर्मन प्रथम के शासनकाल में कांची की यात्रा की। वे कला के प्रबल प्रेमी थे और उन्होंने कई स्थानों पर गुफा-मंदिरों का निर्माण किया जैसे कि त्रिचीनोपोली व पुदुकोट्टई। परन्तु उनका संबंध सबसे अधिक महाबलीपुरम् के तथाकथित रथों के संदर्भ में जाना जाता है। इस स्थान का मूल नाम महामल्लपुर में था जो कि इसके राजकीय संस्थापक महामल्ल अर्थात् नरसिंह वर्मन प्रथम की स्मृति में रखा गया था।
महेन्द्रवर्मन द्वितीय (668-670 ई.) ने अत्यन्त लघुकाल के लिए शासन किया, क्यांकि वह चालुक्य राजा, विक्रमादित्य प्रथम के हाथों मारा गया। नरसिंहवर्मन के पौत्र परमेश्वरवर्मन प्रथम के शासन में (670-680 ई.) पल्लव सत्ता क्षीण होने लगी थी।
वह उनकी राजधानी भी (कंची) चालुक्य युवराज विक्रमादित्य प्रथम से युद्ध में हार चुके थे, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इसे शीघ्र ही पुनः प्राप्त कर लिया। उसके पुत्र व उत्तराधिकारी नरसिंह वर्मन द्वितीय (680 - 720 ई.) का शासन शांति व समृद्धता के लिए उल्लेखनीय है। उसे राजसिंह नाम से भी जाना जाता है। वे कांची के प्रसिद्ध कैलाशनाथ मंदिर के अतिरिक्त उन्होंने महामल्लपुरम के समुद्र तट के मंदिर का निर्माण किया था। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने चीन में दूतावास स्थापित किए थे और उसके शासन में समुद्री व्यापार फला फूला।
परमेश्वर वर्मन द्वितीय (728 - 731 ई.) जो कि अगले राजा थे, उसे चालुक्यां व गंगाओं के संयुक्त आक्रमण का सामना करना पड़ा जिसमें वह मारा गया था। क्योंकि सिंहासन का कोई प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी नहीं था मंत्रियों की परिषद् ने राजपरिवार की सपार्श्रिवक शाखा के एक सदस्य को (भीमवर्मन के वंशज व सिंहविष्णु के छोटे भाई) जिसे नंदीवर्मन द्वितीय के रूप में शासक बनाया। (713-795 ई.) उसके शासनकाल में चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने पुनः आक्रमण किए और पल्लव राजधानी पर कब्जा कर लिया परन्तु उसने कांची को बिना नष्ट किए छोड़ दिया। और उसने कांची में वैकुण्ठपेरूमल मंदिर की स्थापना की।
अंततः, पल्लवों व चालुक्य शासकों के मध्य का संघर्ष 8वीं शताब्दी के प्रथम उत्तरार्ध में पुनः आरम्भ हो गया जिसमें पल्लव को कई बार पीछे हटना पड़ा। 740 ईस्वी में चालुक्यों ने उन्हें पूरी तरह कुचल दिया, और दक्षिण भारत में पल्लव शासकों का प्रभुत्व समाप्त हो गया।
5.0 पल्लव शासकों की प्रमुख विशेषताएं
पल्लवों के मध्य माननीय उपाधि ‘बिरूदा‘ की विवरणात्मक श्रृंखला के उपयोग की राज प्रथा विशेष रूप से प्रचलित थी। महेन्द वर्मन प्रथम की बिरूदाएं संस्कृत, तमिल और तेलगु में हैं। तेलगु बिरूदाएं यह दर्शाती हैं कि जब महेन्द्र वर्मन उनके तमिल क्षेत्र के गुफा मंदिरों का निर्माण करवा रहे थे उस समय भी उनकी आन्ध्र क्षेत्र में कला के क्षेत्र में भागीदारी निरंतर बढ़ती जा रही थी। ‘‘मल्ल‘‘ प्रत्यय का प्रयोग पल्लव शासकां द्वारा किया जाता था। महेन्द्र वर्मन प्रथम ने शत्रुमल्ल बिरूदा का उपयोग किया जिसका अर्थ है ‘‘एक योद्धा जो उसके शत्रुओं को पछाड़ देता है‘‘ और उसके पौत्र परमेश्वर प्रथम को एकमल्ल कहा जाता था ‘‘एक ही योद्धा या पहलवार‘‘। पल्लव राजाओं को सम्भवतः उनकी उपाधियों/शीर्षकों महामल्ल अर्थात् ‘‘महान पहलवान‘‘ के आधार पर लोगों के मध्य महान समझा जाता था।
सभी आरम्भिक पल्लवों के राज शिलालेख या तो प्राकृत या फिर संस्कृत भाषा में हैं जिसे पल्लव राजवंश की राजकीय भाषा माना जाता है। जबकि वास्तव में उनकी राजकीय लिपि पल्लव गं्रथ थी। इसलिए आन्ध्र प्रदेश व कर्नाटक में प्राप्त शिलालेख प्राकृत भाषा में हैं न कि तेलुगु या कन्नड़ में। शासकों द्वारा राजकीय भाषा के रूप में प्राकृत व संस्कृत के शिलालेखों व सूक्तियों में प्रयोग छठी शताब्दी ईस्वी तक चला। यह अवश्य शासक कुलीनों की रूचि रही होगी कि प्राकृत भाषा में उनकी प्रधानता को बनाए रखने के लिए जिससे उनके विशेषाधिकारों को सुरक्षित किया जा सके और आम लोगों को सत्ता की हिस्सेदारी से दूर रखा जाए। महादेवन (1995 : 173 - 188) पल्लवों शासकों ने उनके तमिल देश में भी इसी नीति का प्रयोग किया था। उन्होंने अपने राजकीय आदेशों में संस्कृत भाषा व पल्लव ग्रंथ लिपि का प्रयोग किया था।
अब तक भारत में खोजा गया सबसे प्राचीन ताम्र-पट्ट प्रलेख (वैधानिक दस्तावेज) पल्लवों द्वारा ही जारी किया गया था, जिसकी तिथि अज्ञात है। यह दस्तावेज पिछले राजा बाप्पा द्वारा दिए गए उद्यान के नवीनीकरण हेतु दिये गये दान के विषय में है जो बीस ब्राम्हण परिवारों जिनका गोत्र आत्रेय, हरित, भारद्वाज, कौशिक, कश्यप व वात्सय था को दिया गया था। अनुदान में कुछ विशिष्ट ब्राम्हणों की निश्चित हिस्सेदारी दर्शायी गई है और उसे कर मुक्त किया गया है। जिसमें अब पड़ोसी गांव के भूखण्ड का एक नया अनुदान भी जोड़ा गया था। जिसमें से एक खलिहान के लिए या अन्य घर बनाने के लिए इसके साथ ही सिंचाई मजदूर और कृषि-मजूदर। यह अनुवृत्ति दानदाता राजपरिवार व वंश की दीर्घायु, सत्ता प्रसिद्धि व योग्यता वृद्धि के लिए किया गया था।
अनुदान कांचीपुरम से जारी किया गया था और दाता के शासनकाल के आठ वर्षां में वर्षा ऋतु के छठे पक्ष के पांचवे दिन अंकित था। अनुदान पल्लवराजा शिवस्कन्द वर्मन द्वारा दिया गया था जिसे ऋषि भारद्वाज के आध्यात्मिक समूह का सदस्य बताया गया है और अग्निष्टोम, वाजपेय व अश्वमेध का वैदिक यज्ञ करने वाला बताया गया है।
पल्लवों की सत्ता उस काल में अच्छी प्रकार से स्थापित थी जब शिवस्कन्द वर्मन को ‘‘महान राजाओं में सर्वोच्च राजा‘‘ की उपाधि दी गई थी। यह एक उपाधि जिसका अर्थ अन्य राजा जो उसके अधीन हैं उन पर सर्वोपरि अधिकार; अश्वमेध यज्ञ की घटना, जो उनकी महान सत्ता के विषयों में उनकी स्वयं की व्यक्तिगत प्रशंसा का सूचक है। ऐेसे लेख प्राप्त हुए हैं जिनके निकटतम या किसी और प्रकार से पूर्वज रह चुके राजा बाप्पा ब्राम्हणों को 1,00,000 वृषभ-हल और लाखों स्वर्ण मुद्राएं देने के लिए समर्थ थे जो कि अतिश्योक्तिपूर्ण हो सकता है।
5.1 प्रशासन
पल्लव राजा को उनके शासन में राज्य के ‘‘मंत्रियों‘‘ व ‘‘गुप्त सभासदों‘‘ की सहायता प्राप्त थी, और राज सिंहासन ‘‘राजकुमारियों‘‘ से घिरा रहता था। प्रोफेसर बुहलर के अनुवाद से प्राप्त पारिभाषिक शब्दों से निर्धारित किया जा सकता है कि उन्होंने ‘‘देशों‘‘ को प्रांतों में विभाजित किया जिनका प्रशासन उनके ‘‘अधिपति‘‘ द्वारा होता था और उन प्रांतों को ‘‘जिलों‘‘ में विभाजित किया जो उनके ‘‘शासकों‘‘ के अधीन होती थीं। उनकी वित्तीय व्यवस्था में सम्मिलित अधिकारियों में राजस्व के ‘‘सीमा-शुल्क कार्यालय‘‘ व सीमा-शुल्क अधिकारी‘‘ व ‘‘गुप्तचर‘‘ या भ्रमणकारी अधीक्षक सम्मिलित थे। उनके पास एक प्रकार का वन विभाग भी था जिसके अधिकारी ‘‘वनवासी‘‘ थे। उन्होंने एक स्थायी सेना का उल्लेख किया है, जिसकी वाहिनी की कमान ‘‘सेनापतियों‘‘ के हाथ में थी। दल और श्रेणी के गैर-नियुक्त अधिकारी या ‘‘नायक‘‘ होते थे।
गांव की भूमि उन किसानों (र्योतों) द्वारा अधिगृहित कर ली जाती थी जो राजसिंहासन के लिए ‘‘अठारह वस्तुओं‘‘ के रूप में योगदान करते थे जिनमें आंशिक रूप से वस्तु का व आंशिक रूप से धन (करां) का योगदान रहता था। इनमें से वस्तुओं के रूप में जो वे देते थे उनमें ‘‘मिठाईयां व मट्ठा‘‘, ‘‘घांस व लकड़ियां‘‘ और ‘‘सब्जियां व फूल‘‘ होते थे। और एक ‘‘बेगारी‘‘ की प्रणाली के माध्यम से उन्हें राज सिंहासन (राज्य) की भूमि को जोतना पड़ता था जो कि सड़क व सिंचाई कार्य को सुचारू बनाए रखने के उनके दायित्व में सम्मिलित था। नमक व शक्कर पर राजसी एकाधिकार था और इसने कृषकों को प्रायः ‘‘संकट‘‘ में डाला।
राजसिंहासन पर विराजित व्यक्ति को धार्मिक उपयोग के लिए भूमि का अनुदान देने का अधिकार प्राप्त था, जिससे कि दाता के स्वयं के परिवार व वर्ण के गुणों में वृद्धि, दिर्घायुता व सत्ता तथा प्रसिद्धी में वृद्धि के लिए करता था और अनुदेयी को व उसकी अनुदान भूमि को कर मुक्त कर दिया जाता था। जब इस प्रकार के अनुदान दिए जाते थे तब कृषि ‘‘श्रमिकों‘‘ व ‘‘कोलिका‘‘ या ग्रामीण कर्मचारियों को भी उस भू-खण्ड पर स्थानांतरित कर दिया जाता था। इन श्रमिकों को पारिश्रमिक के रूप में ‘‘उपज का आधा भाग‘‘ वरम प्रणाली के अनुसार दिया जाता था।
पल्लव राज वंशावली की स्थापना मलयी प्रायद्वीप के प्राचीन केदाह राज्य में रूद्रवर्मन प्रथम के अधीन, भववर्मन प्रथम के अधीन चेंला, भद्रवर्मन के अधीन चंपा और कौंडनिय गुणवर्मन वंशज का कंबोडिया स्थित फुनान में हुई, फलतः उनका शासन फैलकर खमेर साम्राज्य का रूप ले चुका था। इस राजवंश की द्रविड़ वास्तुशिला की विशिष्ट शैली अंगोर वाट के निर्माण के लिए उपयोग की गई थी। जबकि तमिल संस्कृति मानदंड पूरे महाद्वीप में फैल गए थे, उनके उत्कीर्ण शिलालेखों के अवशेषों में घरेलू सामाजिक जीवन व एशियाई व्यापार मार्गों में उनकी मुख्य भूमिका का अभिलेख है। इन क्षेत्रों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क समुद्री वाणिज्य नगर महामल्लपुरम से बनाए रखे गए थे जहां महेन्द्रवर्मन प्रथम ने व उसके पुत्र ‘‘महामल्ल‘‘ नरसिंह वर्मन प्रथम ने महाबलिपुरम के सात पगोड़ा तटीय मंदिर का निर्माण किया था।
5.2 धर्म
पल्लव हिन्दू धर्म के अनुयायी थे और वे देवताओं व ब्राम्हणों को भूमि की भेंट अर्पित करते थे। प्रचलित प्रथाओं के चलते कुछ शासकों ने अश्वमेध यज्ञ व वैदिक यज्ञ भी किए थे। हालांकि उनमें अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता थी। चीनी भिक्षुक हृन सांग जिन्होंने कि नरसिंह वर्मन प्रथम के शासनकाल में कांचीपुरम की यात्रा की वह अभिलेखित करता है कि कांचीपुरम में 100 बौद्ध मठ व 80 मंदिर थे।
महेन्द्रवर्मन प्रथम आरम्भ में जैन आस्था के समर्थक थे। वह बाद में शैव संत अप्पार के वचनों से प्रभावित होकर हिन्दू धर्म में परिवर्तित हो गये और वे दक्षिण भारत में हिन्दू धर्म के पुनरूत्थान के भक्ति आंदोलन के कार्य में लग गये।
पल्लवों ने रॉक कट वास्तुकला से हट कर पत्थर से बने मंदिरों के निर्माण संबंधी परिवर्तन में सहयोग किया। पल्लव द्वारा रॉक-कट मंदिरों के निर्माण का सबसे पहला उदाहरण 610-690 ईस्वी की अवधि में पाया जाता है व संरचनात्मक मंदिर 690-900 ईस्वी के मध्य पाया जाता है। कई रॉक-कट गुफाओं में महेन्द्रवर्मन प्रथम व उसके उत्तराधिकारियों का उल्लेख है।
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