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गुप्त राजवंश भाग - 1
3.0 गुप्तकाल में जीवन
3.1 प्रशासन प्रणाली
मौर्य राजाओं के ठीक विपरीत गुप्त राजाओं ने गर्वित पदवियां अपनायी जैसे परमेश्वर महाराजाधिराज और परमभट्टारका जिससे स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपने साम्राज्य में मौर्य शासकों से तुलनात्मक रूप में कम राजाओं पर शासन किया, परन्तु जेष्ठाधिकार की प्रथा के अभाव में राजसत्ता सीमित थी। राजसिंहासन सदैव जेष्ठ पुत्र को प्राप्त नहीं होता था। इसके कारण अनिश्चितताएं उत्पन्न होती थी जिसका प्रमुख व उच्चाधिकारी लाभ ले सकते थे।
गुप्त शासक ब्राहमणों को उदार उपहार देते थे, जो अपना आभार राजा की विभिन्न देवता से तुलना करके व्यक्त करते थे। गुप्त शासकों को विष्णु, पालनकर्ता व रक्षक के रूप में देखा जाता था।
गुप्त सेना के सैनिकों की संख्या अज्ञात है। स्पष्ट है कि राजा की एक स्थाई सेना होती थी, जिसे कभी-कभी सामन्तों द्वारा प्रदान की गई सेना से पूरित किया जाता था। रथ पीछे की ओर रहते थे और घुड़सवार आगे की ओर। अश्व धनुर्विद्या (घुड़सवारी के साथ धनुष चलाने की प्रवीणता) सैन्य रणनीति में प्रमुख बनी हुई थी।
गुप्तकाल में भूमि कर बढ़ा दिए गए थे और वाणिज्य व फसल व्यापार पर कर कम कर दिए गए थे। इतिहासकार बताते हैं कि राजा फसल उत्पाद का एक चौथाई से छठवें भाग के मध्य कर वसूलते थे। इसके अतिरिक्त, देश के जिस भू-भाग से शाही सेना गुजरती थी वहां के स्थानीय लोगों को सेना को भोजन कराना होता था। कृषकों को ग्रामीण क्षेत्र में कार्यरत राजकीय अधिकारियों के प्रतिपालन के लिए पशु, अनाज व चल सामग्री (फर्नीचर) प्रदान करना होती थी। मध्य व पश्चिमी भारत के ग्रामीणों राजकीय सेना व अधिकारियों की सेवा में बलपूर्वक श्रम कराया जाता था जिसे ‘‘विष्ठी‘‘ कहते थे।
गुप्तकाल की न्यायिक प्रणाली पूर्व शासकों के समय से अधिक विकसित थी। इस अवधि में कई न्याय पुस्तकें संकलित की गईं। पहली बार नागरिक कानून और अपराधिक कानून स्पष्टतः परिभाषित व सिमांकित किए गए थे। चोरी व व्यभिचार आपराधिक कानून के अंतर्गत आ चुके थे। कई प्रकार की सम्पत्तियों के विवाद नागरिक कानून के अंतर्गत आ चुके थे। उत्तराधिकार के विषय में विस्तृत कानून निर्धारित किए गए थे। प्राचीन समय के समान ही कई कानून अभी भी वर्णों के आधार पर थे। कानून की मर्यादा बनाए रखना राजा का कर्तव्य था। ब्राम्हण पुरोहितों की सहायता से राजा विवादों को हल करने का प्रयास करते थे। शिल्पकारां व व्यापारियों के संगठन होते थे जिनके कानून उनके स्वयं के द्वारा ही निर्धारित किए जाते थे। इलाहाबाद के पास भिटा और वैशाली में प्राप्त हुई मुहरें दर्शाती हैं कि गुप्तकाल में शिल्पी संगठन अत्यधिक फल फूल रहे थे।
गुप्त नौकरशाही अत्यन्त ही सरल प्रणाली थी। गुप्त साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी कुमारमात्य थे। वे मातृभूमि प्रदेश में राजा द्वारा नियुक्त किए जाते थे और सम्भवतः वेतन के रूप में उन्हें नगद भुगतान किया जाता था। चूंकि गुप्त सम्भवतः वैश्य थे, नियुक्ति केवल उच्च वर्णों तक ही सीमित नहीं थी। परन्तु कई कार्यालय सम्मिलित रूप से एक ही व्यक्ति के अधीन थे और पद पीढ़ी दर पीढ़ी द्वारा निर्धारित था। इसके कारण अंततः राजकीय नियंत्रण कमजोर हो चुका था।
गुप्त शासकों ने स्थानीय प्रशासन की प्रणाली को संगठित किया था। साम्राज्य को मण्डलों (भुक्ति) में विभाजित किया गया था। प्रत्येक भुक्ति की जिम्मेदारी उपरिका को दी जाती थी। भुक्तियों को जिलों (विषय) में विभाजित किया गया था, जिनकी जिम्मेदारी ‘‘विश्यपति‘‘ को सौंपी जाती थी। पूर्वी भारत में विषयों को विधियों में विभाजित किया गया था जो पुनः जिन्हें गांवों में विभाजित किया गया था।
गुप्तकाल में गांवों के मुखिया अति महत्वपूर्ण बन चुके थे। वे बुजुर्गों की सहायता से गांव के मसलों को हल करते थे। एक गांव और छोटे कस्बे के प्रशासन के साथ कई स्थानीय घटक जुड़े हुए थे। कोई भी भूमि के लेनदेन उनकी (मुखिया) की सहमति के बिना नहीं किये जा सकते थे।
नगरीय प्रशासन में संगठित निकायों को एक उल्लेखनीय हिस्सा दिया गया था। वैशाली से प्राप्त मुहरें दर्शाती है कि व्यापारी, शिल्पकार व लेखक एक ही निगमित निकाय (कॉपोरेट बॉडी) सेवा प्रदान करते थे और इस क्षमता में वे नगर के कार्यों का संचालन करते थे। उत्तरी बंगाल (बांग्लादेश) में कोटिवर्शा जिले के प्रशासनिक अधिकारियों में राजा के प्रमुख व्यापारी, प्रमुख सामंत व प्रमुख शिल्पकार सम्मिलित थे। भूमि की लेन-देन में उनकी सहमति महत्वपूर्ण रूप से आवश्यक मानी जाती थी।
संगठन की अवधारणा का उदय इसी काल में हुआ था। शिल्पकार व साहूकार स्वयं के पृथक संगठनों में विभाजित थे। हम भिटा व वैशाली में शिल्पकारों व व्यापारियों के कई संगठनों के बारे में सुनते हैं। मालवा में मंदसौर व इन्दौर के रेशम बुनकरों ने अपने स्वयं के संगठन बनाए हुए थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुलंद शहर के जिले में तेल निचोड़ने वालों के अपने संगठन थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इन संगठनों को विशेषतः व्यापारियों के संगठनों को कुछ उन्मुक्तियों के लाभ प्राप्त थे। प्रत्येक स्थिति में वे अपने सदस्यां के विवादों का निपटारा स्वयं ही कर सकते थे और उन लोगों को दण्डित कर सकते थे जिन्होंने संगठन के नियमों व प्रथाओं का उल्लंघन किया हो। वाणिज्य व व्यापार संगठनों की सभाएं जो आज हम देखते हैं वे इस संगठन प्रणाली का ही आधुनिक संस्करण (वर्जन) है।
प्रशासन की यह प्रणाली केवल उन्हीं स्थानों पर प्रचलित थी जो गुप्त शासकों के अधिकारियों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से प्रशासित थे। साम्राज्य के कई भाग सामन्त प्रमुखां द्वारा संचालित किए जाते थे। इनमें से कुछ समुद्रगुप्त के अधीन थे और उनकी एक भिन्न प्रशासनिक प्रणाली थी।
साम्राज्य के हाशिये में रहने वाले दास को तीन दायित्व पूर्ण करना होते थे। वे सम्राट की सभा में व्यक्तिगत उपस्थिति द्वारा उन्हें सम्मान प्रदान करते थे। उन्हें भेंट (नजराना) प्रदान करते थे और शादी में उन्हें बेटी स्वरूप उपहार देते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इसके बदले में उन्हें उस क्षेत्र पर शासन करने का अधिकार प्राप्त होता था, के लिए दासों के लिए राजकीय गरूड़ो मुद्रा से अंकित राजपत्र जारी किया जाता था। इस प्रकार मध्यप्रदेश और अन्य स्थानों में गुप्त शासकों को कई राजकुमारियां उपहार स्वरूप प्राप्त हुई। राजकुमारियों की अधीनस्थ स्थितियां उन्हें सामन्ती असमियों में परिवर्तित कर देती थी।
द्वितीय महत्वपूर्ण सामन्तवादी विकास जो गुप्त के शासन के अंतराल में उभर कर आया वह यह था कि आर्थिक व प्रशासनिक सुविधाएं पुरोहितों व प्रशासन अधिकारियों को दी गई। सातवाहनों द्वारा दक्कन में आरंभ की गई यह प्रथा एक नियमित चलन बन पड़ा विशेषकर म.प्र. में। धार्मिक कार्यकर्ताओं को भूमि प्रदान की जाती थी और उन्हें कृषकों से वह कर वसूलने का अधिकार दिया गया जिसे कृषकों द्वारा सम्राट को दिया जाता था। कृषकों को हिताधिकार प्रदान किए गए जिनमें राजकीय प्रतिनिधि व संरक्षक इत्यादि हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। हिताधिकारी प्रशासनिक अपराधियों को दण्डित करने के भी अधिकारी थे।
राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों के भुगतान का माध्यम स्पष्ट नहीं है। स्वर्ण मुद्राओं का बाहुल्य यह दर्शाता है कि उच्चाधिकारियों को वेतन नकद दिया जाता था परन्तु उनमें से कुछ अधिकारियों का पारिश्रमिक भूमि प्रदान के रूप में भी प्रदत्त था।
चूंकि अधिकतम साम्राज्यिक प्रशासन सामन्तों व हिताधिकारियों द्वारा सम्हाला जाता था, गुप्त शासकों को मौर्य शासकों जितनी राज अधिकारियों की आवश्यकता नहीं थी। उन्हें इसलिए भी अत्यधिक अधिकारियों की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि मौर्य राज्यों के विपरीत गुप्त राज्यों में बड़े स्तर पर आर्थिक गतिविधियां नियंत्रित नहीं की जाती थी। गुप्त शासकों के पास मौर्यकाल की प्रशासनिक प्रणाली नहीं थी और उनका राजनीति तंत्र अधिक सामन्तवादी था।
3.2 व्यापार व कृषि अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति
हमें चीनी फाह्यान से गुप्त साम्राज्य के लोगों के आर्थिक जीवन का कुछ संकेत प्राप्त होता है, जो गुप्त साम्राज्य के विभिन्न भागों में भ्रमण कर चुके थे। वे हमें यह जानकारी देते हैं कि मगध, नगरों से भरपूर था और यहां के धनवान लोगों ने बौद्धधर्म का समर्थन किया और इसके लिए कई दान प्रदान किए।
प्राचीन भारत में, गुप्त शासकों ने सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं जारी की, जिन्हें शिलालेखों में दिनार कहा जाता था। आकार व भार में नियमित होने के शिलालेखों के साथ ही वे कई प्रकारों व उप-प्रकारों के होते थे। वे सुस्पष्ट रूप से गुप्त राजाओं, युद्ध और कला के प्रति उनके प्रेम के अक्षर दर्शाते थे। यद्यपि इन मुद्राआें के सोने की शुद्धता कुषाण शासकों की मुद्राओं जैसी नहीं थी, वे न केवल सेना व प्रशासन के अधिकारियों के वेतन के लिए उपयोग में आती थी अपितु भूमि के क्रय-विक्रय के लिए भी उपयोग की जाती थी। गुजरात विजय के पश्चात् गुप्त शासकों ने स्थानीय विनिमय के लिए चांदी के सिक्के अधिक मात्रा में जारी किये जिसमें पश्चिमी क्षत्रपों के तहत चांदी ने एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। कुषाणों के विपरीत गुप्त शासकों ने तांबे की मुद्राएं बहुत कम जारी की थीं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कुषाण शासनकाल की तुलना में गुप्तशासन काल में जन सामान्य की आर्थिक स्थिति कमतर थी।
गुप्तकाल में भी कृषि, अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण भाग थी परन्तु इसके पूर्व काल की तुलना में इस काल में उद्योगों व व्यापार में एक उल्लेखनीय वृद्धि देखी जाती है। वे संगठन जो मौर्य काल में अस्तित्व में थे उनके कार्य जारी रहे और संगठन के केन्द्र में बने रहे और उन्हें लगभग शासन के नियंत्रण से स्वतंत्र रूप से संचालन की अनुमति थी। उन्होंने वस्तु उत्पादन को उद्योग में प्रमुख योगदान दिया। उन संगठनों ने परस्पर मिलकर एक निगम का निर्माण किया जिसने नियमों का एक संचय निर्मित किया जिसके नियमों का सभी संघों को पालन करना होता था, इन नियमों का सम्मान शासन भी करता था। संघों ने छोटे निगमों का निर्माण भी किया जो विशिष्ट प्रकार के संगठन से मिलकर बने होते थे उदाहरण के लिए रेशम बुनकरों के संगठनों के निगम उस काल में थे। इस प्रकार के निगमों के पास निर्माण कार्य के लिए बहुत सारे संसाधन उपलब्ध थे और वे मंदिर जैसी बड़ी पैमाने की परियोजनाओं में कार्यरत रहते थे। एक रोचक विकास यह भी देखा जाता है कि बौद्ध प्रार्थनालय (संघ) अत्यधिक धनवान हो चुके थे और वे वाणिज्यिक गतिविधियों में सम्मिलित होने लगे थे। संघों ने प्रायः ब्याज पर ऋण देने की सेवा देने वाले साहूकार की भूमिका भी निभाई। ये संघ अत्यधिक लाभकारी प्रस्ताव के साथ भूमि किराए पर भी देते थे क्योंकि राजा द्वारा महत्वपूर्ण भूमि प्रदान की गई थी। ऋण पर ब्याज की दर इस बात पर निर्भर करती थी कि उद््देश्य से धन का उपयोग किया जाएगा। समुद्री व्यापार के लिए धन उधार लेना अब उतना महंगा नहीं था जितना कि यह मौर्यकाल में था इससे इंगित होता है कि यह क्षेत्र आत्मविश्वास से भरा हुआ था। शासन द्वारा ब्याज दर पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था, दोनों पक्षों की आपसी सहमति से प्रचलित दर से ब्याज दर को बढ़ाया जा सकता था। परन्तु मूलधन से अधिक ब्याज लेने की अनुमति नहीं थी। उचित दर पर धन की स्वतंत्र उपलब्धता उद्योग के लिए एक सकारात्मक कारक थी और इस काल में कई उल्लेखनीय गतिविधियां हुइंर्।
गुप्तकाल के सबसे महत्वपूर्ण उद्योगों में वस्त्र उद्योग था। घरेलू मांग के अतिरिक्त भारतीय वस्त्र की विश्व के कई भागों में मांग थी। रेशम, मलमल, केलिको, लिनन, ऊन और कपास वस्त्र प्रमुख रूप से उत्पादित किए जाते हैं। इस अवधि के अन्य महत्वपूर्ण उद्योगां में हाथी दांत का कार्य, पत्थर की कटाई व नक्काशी विशेषतः सोना, चांदी, तांबा, सीसा जैसी धातुओं के कार्य सम्मिलित थे। मोती उद्योग समृद्धशाली हो रहा था। विदेशी बाजार में मोतियों की बढ़ती मांग के साथ मत्स्य उद्योग भी फलने-फूलने लगा। जैस्वर, सुलेमानी, राजावर्त (लाजवर्द) इन्द्रगोप (कार्नेलियन) और ऐसे कई अन्य मूल्यवान पत्थरों को संसाधिक (तैयार) करने का कार्य किया जाने लगा था। इन्हें भी विदेशों में निर्यात किया जाता था। विभिन्न शैलियों व प्रकारों के विकसित होने से मूर्तिकला एक महत्वपूर्ण उद्योग बनने लगा था।
सामान को देश भर में आसानी से ले जाया जा सकता था। पशु संकुल (समूह) व बैल गाड़ियों को सड़क मार्गों से सामान ले जाने के लिए प्रयुक्त किया जाता था। समुद्री यात्राओं में भी उल्लेखनीय रूप से विकास हुआ था इस काल तक भारतीय समुद्र पोत अरब सागर, चीनी सागर और हिन्द महासागर में नियमित रूप से गतिशील थे। हमें पूर्वी अफ्रीकी के साथ भी व्यापार के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
परन्तु इसके पूर्व काल की तुलना में हम देखते हैं कि लम्बी दूरी के व्यापारों में एक गिरावट आई थी जो कि सम्भवतः गुप्त से साम्राज्य के नष्ट होते महत्व के कारण थी जो उस समय आक्रमणों के नष्ट होते महत्व के कारण ग्रस्त था। 55 ई.पू. तक भारत के पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार संबंध थे जिसे यह रेशम निर्यात करता था। 550 ईस्वी. के लगभग रोमवासियों ने चीनीयों से रेशम उत्पादन सीख लिया जिससे भारत का निर्यात व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ। छठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के पूर्व ही भारतीय रेशम की मांग शिथिल हो गई और पांचवी शताब्दी के मध्य में रेशम बुनकरों के एक संगठन ने अपनी मूल जन्मभूमि छोड़कर मन्दसौर में प्रवास किया। जहां उन्होंने जीवन यापन के लिए अपने मूल व्यवसाय को छोड़कर अन्य व्यवसायों को अपना लिया।
गुप्तकाल में अदभुत विकास विशेषतः मध्यप्रदेश में हुआ जहां पुरोहित भूस्वामियों के उदगमन का मूल्य स्थानीय कृषकों को चुकाना पड़ा। पुरोहितों को दी गई कई भूमियों के परिणाम स्वरूप निश्चित ही कई प्राकृतिक भूमियां कृषि क्षेत्र में आ गई परन्तु स्थानीय आदिवासी किसानों पर हिताधिकारी थोपे गए थे जिन्हें निम्नतम स्तर तक कमजोर कर दिया गया। मध्य व पश्चिमी मध्यप्रदेश में किसानों को अधीन करके श्रमिक कार्य के लिए मजबूर किया जाता था। वहीं दूसरी ओर खाली पड़ी प्राकृतिक भूमि को कृषि क्षेत्र में लाने और ब्राम्हण हिताधिकारियों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में बेहतर कृशि का ज्ञान लाने से राजकोष के लिए यह एक लाभदायी सौदा रहा।
3.3 सामाजिक विकास
ब्राहम्णों को व्यापक पैमाने पर प्रदत्त भू-खण्डों से प्रतीत होता है कि गुप्त काल में भी ब्राहम्णों की सर्व-श्रेष्ठता यथावत थी। गुप्त, जो मूल रूप में वैश्य थे, ब्राहम्णों के द्वारा क्षत्रियों के रूप में देखे जाते थे। ब्राहम्णों ने गुप्त राजाओं को ईश्वर जैसे विलक्षित गुणों से युक्त प्रस्तुत किया। इन सभी चीजों ने गुप्त युवराजों की छवि को न्यायसंगत बनाया, जो ब्राहम्ण वर्ण के बहुत बड़े समर्थक बन गए। ब्राहम्णों ने कई भूमि अनुदानों के रूप में धन एकत्र किया। जिससे वे कई विशेषाधिकारों का दावा करने लगे जो नारद की न्याय पुस्तक में सूचीबद्ध है जो लगभग पांचवी शताब्दी में संकलित की गई थी।
दो कारकां के परिणाम स्वरूप वर्णों के कई उपवर्ण उत्पन्न हुए। बड़ी संख्या में विदेशियों ने भारतीय समाज को आत्मसात किया था। विदेशियों के प्रत्येक समूह को भी एक प्रकार की हिन्दू जाति समझा जाता था। चूंकि विदेशी, मुख्य रूप से युद्ध द्वारा राज्य जीतने के लिए भारत आए थे, उन्हें समाज में क्षत्रिय ही समझा जाने लगा था। हुन जो की पांचवी शताब्दी में भारत के समीप आ चुके थे, परिणाम स्वरूप उन्हें राजपूतों की 36 जातियों में से एक के रूप में पहचाना जाने लगा। अभी भी कुछ राजपूत हुन उपनाम का प्रयोग करते है। जातियों की संख्या में वृद्धि का अन्य मुख्य कारण कई आदिवासी लोगों का ब्राहम्ण समाज में विलीन होना था जो कि राजा द्वारा अनुदान में प्रदत्त भूमि की प्रक्रिया द्वारा हुआ। आदिवासी मुखिया सम्मानीय मूल के थे परन्तु उनके अधिकतम सामान्य रिश्तेदार निचले मूल के थे और प्रत्येक आदिम जाति अपने नए अवतार में एक नई प्रकार की जाति बन चुकी थी। यह प्रक्रिया समान रूप से अभी भी निरन्तर जारी है।
शूद्रों की स्थिति में इस काल में सुधार हुआ। उन्हें पुराण व अन्य महाकाव्य के श्रवण की अनुमति अब प्रदान की जा चुकी थी। वे अब के नए ईश्वर जिन्हें श्री कृष्ण कहते हैं, उनकी उपासना भी कर सकते थे। उन्हें घरेलू संस्कार की अनुमति भी दी गई थी जिसके परिणाम स्वरूप स्वाभाविक रूप से पुरोहितों को दक्षिणा प्राप्त होती थी। इन सभी को शूद्रों की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन के लिए जिम्मेदार बताया जाता है। सातवीं शताब्दी के अंत तक उन्हें मुख्य रूप से कृषकों के रूप में देखा जाने लगा था, इसके पहले उन्हें सदैव उच्च वर्णों के लिए काम करने वाले सेवक, दास व कृषक दास के रूप में देखा जाता था।
परन्तु इस काल में छुआछूत में भारी संख्या में वृद्धि हुई, विशेषतः चाण्डालों के बीच। चाण्डाल पांचवी शताब्दी ई.पू. में प्रकट हुए थे और पांचवी शताब्दी ईस्वी तक वे संख्या में बहुत अधिक हो चुके थे और उनकी अक्षमताएं इतनी स्पष्ट रूप से प्रकट होती थीं कि उन्होंने चीनी दार्शनिक फाह्यान का ध्यान आकर्शित किया। फाह्यान जानकारी देते हैं कि चाण्डाल गांवों के बाहर रहते थे और मांस और हाड़मांस पर गुजारा करते थे। वे जब भी शहर में प्रवेश करते थे तो उच्च वर्ग के लोग उनसे एक निश्चित दूरी बनाए रखते थे क्योंकि उस काल में ऐसी मान्यता थी कि जिस मार्ग पर चाण्डाल प्रवेश करते हैं वह मार्ग दूषित हो जाता है।
गुप्तकाल में शुद्रों की तरह महिलाओं को भी महाकाव्य और पुराणों के श्रवण की अनुमति दी जाती थी और उन्हें श्रीकृष्ण की उपासना करने का परामर्श दिया जाता था परन्तु गुप्तकाल में और उसके पूर्व के किसी भी काल में महिलाओं को स्वतंत्र आजीविका के स्त्रोत प्राप्त नहीं थे। दो निम्न वर्णों की महिलाओं को अपनी आजीविका स्वतंत्र रूप से प्राप्त करने की अनुमति थी जिससे उन्हें उल्लेखनीय स्वतंत्रता प्राप्त हुई। यह नियम उच्चवर्ण की महिलाओं पर लागू नहीं था। ऐसा कहा जाता है कि शुद्र और वैश्य वर्ण की महिलाएं घरेलू व कृषि संचालनों में भाग लेती थीं जिस कारण वे अपने पतियों के नियंत्रण से बाहर थी। गुप्तकाल में उच्च वर्णों के सदस्यों द्वारा अधिकाधिक भूमि का अधिग्रहण किया जाने लगा था जिसने उन्हें बहुविवाही व सम्पत्तिवादी विचारधारा का मनुश्य बना दिया। पितृसतात्मक व्यवस्था में वे महिलाओं को संपत्ति की वस्तु समझने लगे और वह भी इतना अधिक कि अगले लोक में भी उसे स्त्री को अपने पति का अनुसरण करना होगा। गुप्तकाल में पति की मृत्यु के पश्चात विधवा के बलिदान का प्रथम उदाहरण गुप्तकाल में 510 ईस्वी में देखने को मिलता है परन्तु कुछ गुप्तकाल के पश्चात् की न्यायिक पुस्तकों में उल्लेख है कि एक महिला इन परिस्थितियों में पुर्नविवाह कर सकती है यदि :- उसके पति की मृत्यु हो गई हो, उसे नष्ट कर दिया गया हो, वह नपुंसक हो, वह संन्यासी बन गया हो या उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया गया हो।
उच्च वर्णों में महिलाओं की अधीनस्थता का मुख्य कारण यह था कि वे अपने जीवन यापन के लिए पूर्ण रूप से पुरूषों पर निर्भर थीं। उनके लिए सम्पत्तियों में अधिकारों (हक) का अभाव था। परन्तु किसी महिला को विवाह के समय दिए गए उपहार, आभूषण, गहने वस्त्र ही उसकी सम्पत्ति समझे जाते थे। गुप्तकाल व उसके बाद की पुस्तकों में इन उपहारों का एक व्यापक क्षेत्र था। उनके अनुसार वधु को विवाह में पितृ पक्ष और ससुराल पक्ष से प्राप्त हुए उपहार ‘‘स्त्री धन‘‘ माने जाते थे। इससे स्पष्ट होता है कि महिलाओं को छठी शताब्दी से इस कट्टरपन को न्याय प्रदान करने वाले के अनुसार वह (महिला) अपनी गिरवी रखी अचल सम्पत्ति के साथ स्त्रीधन का विक्रय करने की हकदार थी। स्पष्ट रूप से इस विधिकर्ता के अनुसार भूखण्ड की सम्पत्ति में महिलाओं का भी अधिकार (हक) होता था, परन्तु सामान्यतः पुत्रियों को पुरूष प्रधान समुदायों में भू-सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त करने की अनुमति नहीं थी।
3.4 कला
गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। आर्थिक क्षेत्र में संभवतः यह सत्य न हो क्योंकि उत्तर भारत में कई नगर इस समय अवनति की ओर थे। परन्तु गुप्त साम्राज्य के पास भारी मात्रा में सोना था, भले ही इसका स्त्रोत जो भी रहा हो, और उन्होंने सबसे अधिक संख्या में सोने के सिक्के जारी किए थे। युवराज और धनाढ्य व्यक्ति अपने धन का उपयोग उनके व्यक्तियों के सहयोग के लिए कर सकते थे जो कला व साहित्य से जुड़े हुए थे। समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त द्वितीय दोनों कला व साहित्य के आश्रयदाता थे। समुद्रगुप्त को उनके सिक्कों में वीणा वादन करते हुए (बजाते हुए) दर्षाया गया है और चन्द्रगुप्त द्वितीय को अपनी सभा को नवरत्नों या महान विद्वानों से सुशोभित करने का गौरव प्राप्त है।
प्राचीन भारत में कला मुख्य रूप से धर्म से प्रेरित थी। प्राचीन भारत की बची हुई गैर-धार्मिक कलाएं बहुत ही कम हैं। बौद्ध धर्म ने मौर्यकाल व उसके बाद के समय में कला को बहुत अधिक महत्व दिया। इसने विशालकाय चट्टानों के स्तम्भों की रचना, सुंदर गुफाओं की रचना और उच्च स्तूपों की रचना की ओर कला अग्रसर किया। स्तूप वृत्ताकार आधार वाली गुंबदुमा संरचनाओं के रूप में दिखाई देते हैं। गौतम बुद्ध के कई चित्र इन पर उत्कीर्ण किए जाते थे।
गुप्तकाल की दो मीटर से अधिक ऊंचा पीतल का बुद्ध का चित्रकारी खोज निकाली गई है जो भागलपुर के पास सुल्तानगंज से प्राप्त की गयी है। फाहियान ने उसके द्वारा देखी गई 25 मीटर ऊंची बुद्ध की प्रतिमा का उल्लेख किया है परन्तु अब उसका पता नहीं लगाया जा सकता। गुप्तकाल में बुद्ध के सुन्दर चित्र सारनाथ व मथुरा में तराशे गए थे। लेकिन गुप्त काल की बौद्ध कला का सबसे बढ़ा नमूना अजन्ता की चित्रकारी है। यद्यपि इन चित्रकारियों में पहली से सातवीं शताब्दी के चित्र भी सम्मिलित है परन्तु उनमें से अधिकतम चित्र गुप्त काल के ही हैं। वे चित्रकारियां गौतम बुद्ध और पिछल बुद्ध के जीवन की कई घटनाएं दर्शाती हैं। ये चित्रकारियां जीवन्त व प्राकृतिक तथा उनके रंगों के कारण अदभुत प्रतीत होती हैं जो कि चौदह शताब्दियों पश्चात भी धूमिल नहीं हुईं। परन्तु, गुप्त शासक अजंता चित्रकारियों के आश्रयदाता रहे थे या नहीं, इसके कोई संकेत नहीं हैं।
चूंकि गुप्त ब्राह्मणों के समर्थक थे, पहली बार हम गुप्त काल में विष्णु, शिव व अन्य हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र देखते हैं। कई स्थानों पर सभी देवताओं के एकल मन्दिर प्राप्त होते हैं जहां मुख्य देवता मध्य में है और पट्टिका (पैनल) में चारों ओर अधीनस्थ देवी देवता स्थापित हैं। मुख्य देवता को आकार में बड़ा दर्शाया जाता है परन्तु मुख्य देवता के अनुचर व अधीनस्थों को आकार में छोटा रचित किया गया है। यह चित्रण सुस्पष्ट रूप से सामाजिक भेदभाव व पदानुक्रम का प्रतिनिधित्व भी करता है।
3.5 साहित्य
गुप्तकाल के सबसे विलक्षण गुणों में से एक गुण धर्म निरपेक्ष साहित्य की रचना थी। इस काल में भाषा द्वारा लिखे गए तेरह नाटक खेले गए थे। शूद्रक द्वारा लिखी गई ‘मृच्छकटिका‘‘ या ‘‘छोटी गाड़ी‘‘ जिसमें एक धनवान व्यापारी और एक वेश्या की सुंदर पुत्री के प्रेम प्रसंग को दर्शाया गया है, इसे प्राचीन नाटक के सबसे अच्छे कार्यों में से एक माना जाता है।
परन्तु गुप्तकाल को सबसे अधिक प्रसिद्ध कालिदास जी के साहित्यिक कार्यों ने किया है। कालिदास ने ‘‘अभिज्ञानशाकुंतलम्‘‘ की रचना की जिसे विश्व के सौ महान साहित्यों में गिना जाता है। यह हमें दुष्यंत और शकुन्तला की कथा बताती है जिनका पुत्र ‘‘भरत‘‘ भारत का प्रसिद्ध सम्राट बना।
कालिदासजी ने तीन नाटक लिखे थे उनमें से ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्‘ (‘‘शकुंतला की पहचान‘‘) को उनकी सर्वत्र उत्कृष्ट कृति के रूप में पहचाना जाता है। यह अन्य संस्कृत के उन आरम्भिक कार्यों में से एक था, जिन्हें अंग्रेजी में व कई अन्य विदेशी भाषाआें में अनुवादित किया गया। कालिदास के अन्य नाटकोंत्र में - मालविकाग्निमित्रम (‘‘मालविका और अग्निमित्र‘‘) और विक्रमोर्वशी (‘‘विक्रम और उर्वशी‘‘ से सम्बन्धित) सम्मिलित हैं।
कालिदासजी की अभिज्ञानशाकुंतलम, (‘‘शकुंतला की पहचान‘‘) राजा दुष्यन्त की कहानी बताती है। एक शिकार पर वे शकुन्तला से मिलते हैं जो कि एक ऋषि द्वारा गोद ली गई पुत्री थी। वे दोनों विवाह संबंध में बंध गए परन्तु उन पर दुर्भाग्य टूट पड़ा जब राजा को सभा में बुलाया गया। शकुन्तला जो कि उस समय गर्भवती थी उसने अनजाने में एक ऋषि को क्रोधित कर दिया जिसने उसे शाप दिया कि दुष्यन्त शकुन्तला के बारे में सब कुछ भूल जाएगा। शांत होकर साधु ने शाप का भार कम करते हुए कहा कि दुष्यंत द्वारा शकुन्तला को दी गई अंगूठी दिखाने पर उसे शकुन्तला की स्मृति पुनः प्राप्त होगी। दुष्यन्त की ओर उसकी यात्रा के दौरान उसने भारी भूल कर दी। वह गर्भवस्था की उच्च दशा में थी और उसने भूल वश अंगूठी कहीं गिरा दी और उसे दुष्यंत द्वारा अपरिचित कर दिया गया व अस्वीकृत मान लिया गया। वह अंगूठी एक मछुआरे को मिली जिसने उसमें लगे राज चिन्ह को पहचान लिया और मछुआरे ने इसे दुष्यन्त को वापस कर दिया। उसे शकुंतला की स्मृति पुनः प्राप्त हो गई और वह उसकी तलाश में लग गया और अधिक थकान व शोक भरी यात्रा के पश्चात् अंततः उनका पुनः मिलन हुआ।
मालविकाग्निमित्रम (‘‘मालविका और अग्निमित्र‘‘) जो हमें राजा अग्निमित्र की कथा बताती है जो निर्वासित सेवक कन्या के चित्र के साथ प्रेम करने लगा था। इस कन्या के लिए अपने पति की ललक को देखकर रानी क्रुद्ध हो जाती है और वह मालविका रूप में अवतरित होती है परन्तु राजा का भाग्य पलट जाता है। मालविका एक वास्तविक जन्मी राजकुमारी निकलती है, इस प्रकार उनका प्रेम प्रसंग वैध बन जाता है।
विक्रमोर्वशी (‘‘विक्रम व उर्वशी से संबंधित है‘‘) हमें एक नश्वर राजा की कथा सुनाती है जो कि एक स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी से प्रेम करने लगता है। अमर होने के कारण उसे पुनः स्वर्ग में जाना पड़ता है परन्तु एक दुर्घटना के कारण उसे पुनः पृथ्वी पर नश्वर रूप में भेज दिया जाता है। उर्वशी को यह शाप भी दिया जाता है कि उसे पुनः उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त होना होगा (जिससे की वह पुनः स्वर्ग को प्राप्त होगी) जिस क्षण उसका प्रेमी उसके द्वारा जन्मी संतान पर दृष्टि डालेगा उसी क्षण वह एक बेल में परिवर्तित होगी। बाद में उसे शाप से मुक्ति मिली और प्रेमी युग्म को भूलोक में एक साथ रहने की अनुमति प्राप्त हो जाती है।
शाकुंतलम उन प्रारम्भिक भारतीय कार्यों में से था जिसे यूरोपीय भाषा में अनुवादित किया गया, इसके अतिरिक्त अन्य अनुवादित कार्य भगवद्गीता थी। गुप्तकाल में पैदा हुए नाटकों की हम दो बातें देखते हैं। प्रथम यह कि ये सभी हास्य रस से परिपूर्ण थी। हमें कहीं भी शोक रस की झलक दिखाई नहीं देती। द्वितीय यह कि इसके पात्र एक ही भाषा नहीं बोलते थे। शूद्र व महिलाएं प्राकृत भाषा का प्रयोग इन नाट्यों में करते हैं।
इस काल में हम यह भी अवलोकन करते हैं कि धार्मिक साहित्यों की रचना में वृद्धि हुई थी। इस काल की अधिकतम रचनाओं में एक प्रबल धार्मिक झुकाव था। दो महान महाकाव्य रामायण व महाभारत लगभग चौथी शताब्दी में पूर्ण किए गए थे।
गुप्त काल में व्याकरणकर्ता पाणिनि के महान प्रयासों से संस्कृत व्याकरण का भी विकास हुआ। यह काल विशिष्ट रूप से अमरसिंह के द्वारा रचित अमरकोष के लिए विस्मरणीय है, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय की सभा के एक रत्न था। पारम्परिक विधि से संस्कृत का अध्ययन करने वाले छात्रों द्वारा यह शब्दकोष हृदय से सीखा जाता था। कुल मिलाकर शास्त्रीय साहित्य के इतिहास में गुप्तकाल एक उज्जवल चरण था। यह प्राचीन सरल संस्कृत से भिन्न था जो कि एक अलंकृत शैली से विकसित की गई थी। इस अवधि के पश्चात् गद्यों पर पद्यों की तुलना में अधिक ध्यान दिया जाने लगा। इस काल में हमें कुछ साहित्यिक टिप्पणियां भी प्राप्त होती है।
3.6 विज्ञान और प्रौद्योगिकी
इस अवधि में गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट द्वारा लिखित आर्यभट्टीय पर कार्य हुआ, जो पाटलीपुत्र से संबंधित थे। यह प्रतीत होता है कि यह गणितज्ञ विभिन्न प्रकार की गणनाओं में पारंगत थे। इलहाबाद जिले में 448 के गुप्त शिलालेख यह बताते हैं कि दशमलव पद्वति भारत में ई.पू. पांचवी शताब्दी में पायी गई थी। ज्योतिश-शास्त्र के क्षेत्र में रोमक सिद्धांत नामक एक पुस्तक का संकलन हुआ। यह यूनानी विचारों से प्रभावित थी जो इसके नाम से विदित है।
गुप्त कारीगरों ने लोहे और पीतल के कार्य से अपनी अलग पहचान बनायी। हमें पीतल से बनी बुद्ध की कई छवियां ज्ञात हैं। उन्नत धातु प्रौद्योगिकी के कारण इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा। लोहे की वस्तुओं की दशा में मेहरौली में स्थित लोह स्तंभ इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। ई.पू. चौथी शताब्दी में निर्मित, इस स्तंभ पर उत्तरवर्ती 15 शताब्दी तक जरा सी भी ज़ंग नहीं लगी जो शिल्पकारों के प्रौद्योगिकीय कोषल की देन है। इस प्रकार के स्तंभ का निर्माण पश्चिम में एक शताब्दी पूर्व तक करना संभव नही था। यह एक दुःख की बात है कि बाद के शिल्पकार इस ज्ञान को आगे विकसित नहीं कर सके।
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