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गुप्त राजवंश भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात सातवाहन व कुषाण दो बड़ी राजनैतिक शक्तियों के रूप में उभर चुके थे। सातवाहन अपने रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार के बल पर भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में राजनैतिक एकता व आर्थिक समृद्धि लाए। कुषाणों ने यही भूमिका उत्तरी क्षेत्र में निभाई। यद्यपि, तृतीय शताब्दी ईसा पश्चात् के मध्य तक दोनों साम्राज्यों का अंत हो गया।
कुषाण साम्राज्य के पतन के साथ ही गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ जिसने अपने पूर्व उपनिवेशकों कुषाण व सातवाहन दोनों के बड़े भूभागों पर अपने शासन का मार्ग बनाया।
यद्यपि गुप्त साम्राज्य का विस्तार मौर्य साम्राज्य जितना विस्तृत नहीं था फिर भी इसने उत्तरी भारत को एक शताब्दी से अधिक (335 से 454) समय तक राजनैतिक एकता में बांधे रखा था। गुप्तां का मूल साम्राज्य तृतीय शताब्दी में अंत तक उत्तर प्रदेश और बिहार था किंतु गुप्तों के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार से अधिक महत्वपूर्ण साम्राज्य बन चुका था क्योंकि आरम्भिक गुप्त साम्राज्य के सिक्के व शिलालेख इसी राज्य से प्राप्त हुए हैं। यदि हम कुछ सामंतों व निजी वैयक्तिकों को छोड़ दें जिनके शिलालेख मध्य प्रदेश में प्राप्त हुए हैं तो गुप्त साम्राज्य के प्राचीन अवशेषों के संदर्भ में उत्तर प्रदेश सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में प्रकट होता है। अतः इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर प्रदेश ही वह स्थान है जहां से गुप्त साम्राज्य का उदय व संचालन हुआ और यह चहु दिशाओं में फैल गया। सम्भवतः उनकी शक्ति का केन्द्र प्रयाग था जहां से वे पड़ोसी क्षेत्रों में फैल चुके थे।
सम्भवतः गुप्त, उत्तर प्रदेश में कुषाणों के सामंत थे। पुरातात्विक प्रमाण यह दर्शाते हैं कि गुप्त कुषाणों की तुलाना से काफी कम समयान्तराल में सत्ता प्राप्त करने में सफल रहे उत्तर प्रदेश व बिहार के कई स्थानों में गुप्त साम्राज्य के पुरावशेष के ठीक पास कुषाण पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तों ने कुषाणां से काठी, बटन वाले कोट, लगाम व पतलून का उपयोग सीखा था। इन सभी कारकों ने उन्हें गतिशीलता प्रदान की और वे उत्कृष्ट घुड़सवार बने। कुषाणों की सेना की पद्धति में अब रथ व हाथी महत्वपूर्ण नहीं रहे थे और घोड़ों ने मुख्य भूमिका निभाई। यद्यपि कुछ गुप्त राजाओं को उत्कृष्ट और अद्वितीय रथ योद्धाओं के रूप में वर्णित किया गया है, उनकी बुनियादी सैन्य शक्ति अश्वों में ही निहित थी।
2.0 राजनीतिक इतिहास
2.1 चन्द्रगुप्त प्रथम (शासन 319-335 ईस्वी.)
चन्द्रगुप्त प्रथम, गुप्त वंशावली में तृतीय स्थान पर हैं और उन्हें गुप्त राजवंश का संस्थापक माना जाता है। शिलालेखों में चन्दगुप्त प्रथम को ‘‘महाराजाधिराज‘‘ के रूप में उल्लेखित किया गया है जो उनके परिवार की धन संपदा की वृद्धि को दर्शाता है। ऐसा अनुमान है कि गुप्त काल का आरम्भ ही चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्याभिषेक के अवसर पर हुआ था। गुप्तों ने जिन क्षेत्रों पर शासन किया उनके अंतर्गत प्रयाग (इलाहाबाद), साकेत (अवध) और मगध (दक्षिण बिहार) आते हैं।
चन्द्रगुप्त-प्रथम ने, अपने लिच्छवि राजकुमारी कुमारी देवी के साथ विवाह संबंध के सम्मान में सोने के सिक्के जारी किए थे। इससे गुप्त राजवंश की स्थिति को बल मिला व समुद्रगुप्त द्वारा राज्य का क्रमनोत्तर विस्तार सुगम बन गया। अभिलेखों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का शासन 319-335 ईस्वी तक चला। इलहाबाद शिलालेखों से यह भी संकेत मिलते हैं कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा कर दी थी कि समुद्रगुप्त उनके उत्तराधिकारी होंगे।
यहां चन्द्रगुप्त लिच्छवि राजकुमारी के साथ विवाह-संबंध इंगित करने वाले सिक्के प्राप्त हुए हैं। कई इतिहासकारों का यह मानना है कि ये सिक्के समुद्र गुप्त द्वारा उनके माता-पिता के विवाह के सम्मान में जारी किए गए थे, जबकि अन्य विद्वान ऐसा अनुभव करते हैं कि चन्द्रगुप्त ने ये सिक्के लिच्छिवियों के साथ जारी किए थे।
समुद्रगुप्त को गर्व था कि वे एक लिच्छवि-दौहित्र थे। चूंकि चन्द्रगुप्त प्रथम को महाराजाधिराज की उपाधि दी गई थी, यह स्पष्ट है कि वह एक स्वतंत्र शासक थे। शिलालेख दर्शाते हैं कि चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का सम्भवत विस्तार इलहाबाद से लेकर पूर्व में गंगा नदी तक था उन्होंने कौलंबी व कोषल के राजाओं को पराजित कर इन प्रदेशों को अपने राज्य के अधीन लिया। ऐसा कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम को पाटलीपुत्र, लिच्छिवियों से दहेज के रूप में प्राप्त हुआ था जहां उन्होंने अपने साम्राज्य की नींव रखी थी।
2.2 समुद्रगुप्त (335-380 ईस्वी.)
गुप्त राज्य के शासन क्षेत्रों का प्रचुर विस्तार, चन्द्रगुप्त के पुत्र व उत्तराधिकारी समुद्र गुप्त द्वारा किया गया था (335-380 ईस्वी.)।
समुद्रगुप्त की सभी के एक कवि हरिशेन ने अपने आश्रयदाता के सैन्य दल की वीरता का एक देदीप्यमान विवरण लिखा था। एक लम्बे अभिलेख में उन कवि ने समुद्रगुप्त द्वारा जीते गए देशों व लोगों का विस्तृत विवरण लिखा। इस अभिलेख को इलाहाबाद में उसी स्तम्भ पर उत्कीर्ण किया गया है जिसमें शांति-प्रिय अशोक का भी एक अभिलेख है।
समुद्र्रगुप्त द्वारा जीते गए देशों व स्थानों को पांच समूहां में विभाजित किया जा सकता है।
समूह एक में गंगा-जमुना दोआब (विभाजक) के राजकुमार सम्मिलित हैं जिन्हें पराजित किया गया और उनके राज्यों को गुप्त साम्राज्य में समाविष्ट कर लिया गया था।
समूह दो में पूर्वी हिमालय राज्य व सीमावर्ती राज्य जैसे नेपाल, असम, बंगाल इत्यादि के राजकुमार सम्मिलित हैं जिन्होंने समुद्रगुप्त की भुजाओं के बल को अनुभव किया। इसमें पंजाब गणराज्य का कुछ भाग भी सम्मिलित है। वे गणराज्य जो मौर्य साम्राज्य के विनाश पर झिलमिलाने लगे उन्हें अंततः समुद्र गुप्त ने कुचल दिया था।
समूह तीन में विंध्य क्षेत्र के वन राज्य सम्मिलित हैं जिन्हें अत्विक राज्यों के नाम से जाना जाता है; उन्हें समुद्रगुप्त ने नियंत्रण में लिया।
समूह चार में पूर्वी दक्कन व दक्षिण भारत के बारह शासक सम्मिलित हैं जिन्हें पराजित कर मुक्त कर दिया गया था। समुद्र गुप्त की भुजाएं तमिलनाडु में कंची तक पहुंच गई थी जहां पल्लवों को उसका आधिपत्य स्वीकार करने के लिए विवश किया गया।
समूह पांच में उन शक व कुषाणों के नाम सम्मिलित हैं जिनमें से कुछ अफगानिस्तान के शासक थे। ऐसा कहा जाता है कि समुद्रगुप्त ने उन्हें बलपूर्वक बहिष्कृत किया और दूर देश के लोगों ने उनकी अधीनता स्वीकार की। समुद्रगुप्त की ख्याति व प्रभाव भारत के बाहर भी फैला गया था। एक चीनी स्त्रोत के अनुसार श्रीलंका के शासक मेघवर्मन ने बोध गया में एक बुद्ध मंदिर के निर्माण की अनुमति के लिए समुद्रगुप्त के पास एक दूत भेजा था। उसे यह अनुमति प्रदान की गई और मंदिर को एक भव्य मठ के रूप में विकसित किया गया। यदि हम इलाहाबाद स्तुतिपूर्ण शिलालेख को पढ़े तो उसने यह प्रकट होता है कि समुद्र गुप्त को पराजय का अर्थ ही पता नहीं था और उनकी वीरता और रणकोषल के कारण उन्हें भारत का नेपोलियन कहा जाता है। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने भारत के एक बड़े भू-भाग को अपने अधीन संगठित किया था और उनकी शक्ति एक बहुत बड़े क्षेत्र में फैली हुई थी।
2.3 चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412 ईस्वी.)
चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन गुप्त साम्राज्य का उच्च कुलचिन्ह था। उन्होंने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार विवाह-मैत्रीयों और युद्ध विजयों के द्वारा किया था। चन्द्रगुप्त ने उनकी पुत्री प्रभावती का विवाह एक वाकाटक राजकुमार से किया जो ब्राम्हण जाति का था और वह मध्य भारत का शासक था। परन्तु राजकुमार की शीघ्र ही मृत्यु हो गई और प्रभावती उसकी उत्तराधिकारी बन गई। इस क्षेत्रभूमि के इस काल के कुछ राज-पत्र दर्शाते हैं कि वे अपने पिता के कार्य को सम्भालने में सफल रहीं थी। इस प्रकार मध्य चन्द्रगुप्त मध्य भारत में वाकाटक राज्य पर अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण प्राप्त कर चुके थे। इससे उन्हें एक बड़ा लाभ प्राप्त हुआ। इस क्षेत्र में उनके महान प्रभाव के द्वारा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी मालवा व गुजरात पर विजय प्राप्त की जो कि उस काल में लगभग 4 शताब्दियों से शक क्षत्रप के अधीन थे। इस विजय से उन्हें पश्चिमी समुद्र तट प्राप्त हुआ जो कि वाणिज्य व व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। इसने मालवा क्षेत्र और इसके मुख्य नगर उज्जैन की समृद्धि में योगदान दिया, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि उज्जैन को चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा अपने राज्य की दूसरी राजधानी बनाया गया था।
चन्द्र नामक एक राजा की वीरता के गुणगान एक लौह स्तम्भ पर उत्कीर्ण किए गए हैं जिसे दिल्ली में कुतुब मीनार के पास स्थापित किया गया है। यदि चन्द्र को चन्द्रगुप्त द्वितीय के समानार्थी शब्द माना जाए तो यह प्रकट होता है कि उन्होंने गुप्त साम्राज्य की सत्ता को उत्तर पश्चिमी भारत व बंगाल के व्यापक भू-भाग में स्थापित कर दिया था। परन्तु उत्कीर्ण लेख संबंधी यह स्तुति सम्भवतः अतिश्योक्ति पूर्ण है।
उनकी युद्ध विजयां के पश्चात चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि ग्रहण की जो पहली बार 57 ई.पू. उज्जैन के एक शासक द्वारा शक व क्षत्रयों पर विजय चिन्ह के रूप में ग्रहण की गई थी। उज्जैन में चन्द्रगुप्त द्वितीय की सभा कई विद्वानों से विभूषित थी, जिसमें कालिदास व अमरसिंह भी सम्मिलित हैं।
चन्द्रगुप्त काल ही वह काल था जब चीनी दार्शनिक फाह्यान (399-414) ने भारत की यात्रा की ओर यहां के लोगों के जीवन के विषय में विस्तृत विवरण प्रदान किया।
2.4 साम्राज्य का पतन
चन्द्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारियों को पांचवी शताब्दी के आधे भाग के मध्य में मध्य एशिया से हूनों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा।
यद्यपि आरम्भ में गुप्त राजा स्कन्दगुप्त ने प्रभावी रूप से हूनों की भारत पर कूच के मुकाबले का प्रयास किया, परन्तु उनके उत्तराधिकारी हून आक्रमणकारियों के आक्रमणों को सम्हालने में निर्बल सिद्ध हुए, जो कि प्रवीण घुड़सवार थे और सम्भवतः वे लोहे की बनी रकाब का प्रयोग करते थे, वे शीघ्रता से आगे बढ़ सकते थे और उनके प्रवीण धनुर्धर होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें युद्ध में न केवल ईरान में अपितु भारत में भी उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई थी।
गुप्त साम्राज्य का पतन स्कन्दगुप्त के शासनकाल से ही आरम्भ हो गया था। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने पुश्यमित्र व हूनों के विरूद्ध कुछ बड़ी सफलताएं प्राप्त की थी, परन्तु भारी दबाव व निरन्तर युद्ध ने साम्राज्य के संसाधनों को गहराई तक निचोड़ दिया। आर्थिक दोहन की इस तस्वीर का प्रमाण इस प्रकार देखा जा सकता है कि स्कन्दगुप्त काल में शासन के समय में सिक्कों की शुद्धता में गिरावट और बहुरूपता में कमी आई थी। गुप्त साम्राज्य अब इसके अतीत जितना गौरवपूर्ण नहीं था। गुप्त साम्राज्य निरंतर गिरता जा रहा था इस गुजरते हुए समय के साथ यह कमजोर व असक्षम होता चला गया। स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद, पुरूगुप्त ने अल्पकाल के लिए शासन सम्हाला परन्तु इस समयावधि में भी साम्राज्य की गिरावट स्थिर बनी रही। बुद्ध गुप्त जो कि गुप्त राजवंश के स्वतंत्र साम्राज्य को अंतिम शासक थे वे कुछ समय के लिए गुप्त साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को अवरूद्ध करने में समर्थ रहे परन्तु पश्चिमी भारत पर उसका इतना सराहनीय प्रभाव नहीं था। इसी समय काल में बुंदेलखण्ड सामंत क्षेत्र जागारी को अर्ध स्वतंत्र दर्जा प्राप्त हुआ। मालवा पर वाकाटकों के आक्रमण ने उस क्षेत्र में भी बुद्धगुप्त अधिकार समाप्त कर दिया। जब बुद्ध गुप्त की मृत्यु हुई तो गुप्त साम्राज्य का पतन और अधिक तीव्र हो गया और अगली तीन पीढ़ियों के भीतर ही इसके साम्राज्य ने पूरी तरह घुटने टेक दिए।
गुप्त साम्राज्य के पतन का सबसे महत्वपूर्ण कारण राजपरिवार का भीतरी मतभेद था। सम्भवतः कुमार गुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र राजसिंहासन के लिए आपस में ही लड़ बैठे थे। उनका द्वितीय पुत्र स्कन्दगुप्त अपने दोनां भाईयों पुरूगुप्त और घटोतकच्छ गुप्त द्वितीय को हराकर राजसिंहासन पर बैठ गया। हमें सिंहासन के उत्तराधिकार की एक अन्य लड़ाई तब देखने को मिलती है जब पुरूगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उनका साम्राज्य आभासी रूप से पश्चिमी भाग व मध्य भाग व उत्तरी भाग क्रमशः नाम 1, नाम 2 और नाम 3 के बीच विभाजित हो गया। निश्चित ही राजसिंहासन के उत्तराधिकारी की इन लड़ाईयों के विषय में हमारा ज्ञान और वास्तविक स्थितियों की सीमाओं की जानकारी अपर्याप्त् है। परन्तु यह सत्य है कि सत्ता की इन लड़ाइयों ने विभिन्न प्रांतों और सामंती क्षेत्रों में सत्ता के केन्द्रीय अधिकार को काफी हद तक कम कर दिया था।
गुप्त साम्राज्य के पतन का द्वितीय मुख्य कारण दक्कन के वाकाटकों के आक्रमण थे। समुद्र गुप्त की विजयी कूच पूर्वी दक्कन के बाई ओर वामपक्ष से हुई थी परन्तु पश्चिमी दक्कन अनछुआ रह गया। वाकाटक शासक गुप्तों के पश्चिमी पड़ोसी थे। वे साम्राज्य को बड़ी आसानी से परेशानी में डाल सकते थे क्योंकि उनकी भौगोलिक स्थिति अधिक सुदृढ़ थी। वाकाटकों से सम्भावित टकराव को टालने के लिए चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त की वाकाटक राजा रूद्रसेन द्वितीय के साथ विवाह करावाया और वैवाहिक संधि स्थापित की।
परन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारियों ने वाकाटक शासकों से कोई शांतिपूर्ण संबंध नहीं बनाए। इसलिए बुद्धगुप्त के शासन काल में वाकाटक राजा नरेन्द्रसेन ने मालवा, कोषल व मेकला पर आक्रमण किए उनके आक्रमणों के परिणाम स्वरूप मध्य भारत और बुंदेलखंड के विशाल तंत्र से गुप्त साम्राज्य का आधिपत्य कमजोर होता गया। बाद में वर्षों में वाकाटक राजा हरिशेन ने आगे चलकर मालवा व गुजरात को भी गुप्त साम्राज्य से छीन लिया।
इसी प्रकार, हूनों के आक्रमणों से गुप्त साम्राज्य की स्थिरता अत्यधिक प्रभावित हुई। पांचवी शताब्दी में भी स्कन्दगुप्त के शासनकाल में भारत के उत्तर-पश्चिमी द्वार पर हून राजाओं के आक्रमण हुए, परन्तु उन्हेंं मार भगाया गया। परन्तु छठी शताब्दी में उन्होंने पंजाब गान्धार, गुजरात और मालवा पर सफलतापूर्वक अधिकार जमा लिया। मन्दसौर के यशोधर्मन ने पहली बार हुन शासक मिहिरकुल को पराजित किया था। नरसिंहगुप्त ने भी हुन शक्ति को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। यद्यपि इतिहासकारों के मध्य इस बात को लेकर मतभेद है कि गुप्त साम्राज्य के पतन का मूल कारण हूनों के आक्रमण थे परन्तु इस तथ्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि इन हूनों ने जहां भी आक्रमण किया वहां गुप्तों का आधिपत्य अत्यधिक क्षीण हो गया था। उनके बार-बार आक्रमणों का मूल्य भी राजकोष को चुकाना पड़ा होगा।
जैसे-जैसे केन्द्रीय आधिपत्य दिन प्रतिदिन कमजोर होता गया और गुप्त साम्राज्य के विशाल सैन्य दल युद्ध में व्यस्त हो गए, सामंतों व पैतृक शासकों ने भी अवसर का लाभ लेकर स्थानीय स्वतंत्रता घोशित कर दी। यह सुस्पष्ट है कि जब यशोधर्मन ने उत्तर भारत पर व्यापक विजय प्राप्त की थी वह विजय गुप्त साम्राज्य के लिए वाकई एक प्राण घातक आघात था। गुप्त शासकों की शक्ति व भव्यता विखण्डित हो चुकी थी। जल्द ही सौराष्ट्र में वल्लभी के मैत्रकों के बाद उ.प्र. के मुखरियों के ईशानवर्मन ने विद्रोह छेड़ दिया। अब वे सभी स्वतंत्र शासक बन चुके थे। दक्षिण, पश्चिम व पूर्वी बंगाल में कई स्वतंत्र शासक थे। गुप्त शासकों का बाद में केवल मगध पर आधिपत्य शेष बचा था।
बाद के गुप्त शासकों ने बुद्ध धर्म को अपना लिया जबकि उनके पूर्वज कट्टर हिन्दू थे। धर्म परिवर्तन में उनकी राजनीतिक और सैन्य गतिविधियों का प्रतिबिंब था। यह सत्य है कि बौद्ध धर्म के अहिंसक व शांतिप्रद प्रभाव के कारण बाद के गुप्त शासकों ने प्रबल, व फुर्तिले सैन्य दल और विदेश-नीति की परवाह नहीं की। बाद के वर्षों में गुप्त शासकों की युद्धप्रिय भावना की कमी ने अनैतिक शत्रुओं व शक्ति सामंतों के लिए गुप्त साम्राज्य पर प्रहार करने के मार्ग प्रशस्त किए जो साम्राज्य पहले से ही मृत्यु की ओर अग्रसर था।
नरसिंहगुप्त और उसके उत्तराधिकारियों ने मगध, उत्तरी बंगाल और कलिंग के भाग में अपने क्षीण हो चुके यश के साथ शासन किया। हम अभी तक निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते हैं कि यथार्थ में गुप्त साम्राज्य ने कब और कैसे अपनी अंतिम श्वास ली थी परन्तु आखिरकार मुखरियां ने 554 ईस्वी. के काल में या इसके लगभग समय में मगध से गुप्त साम्राज्य को उखाड़ फेंका।
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