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उत्तर - मौर्य काल भाग - 3
10.0 सातवाहन
10.1 राजनीतिक इतिहासउत्तर में शुंगों के पश्चात् मौर्य शासकों के सबसे महत्वपूर्ण स्थानीय उत्तराधिकारी कण्व थे। दक्कन व मध्यभारत में मौर्य शासन के 100 वर्षों के अंतराल के पश्चात् मौर्य शासकों के उत्तराधिकारी सातवाहन हुए। सातवाहनों को पुराणों में आन्ध्रों के समरूप माना गया है। पुराण केवल आन्ध्र शासन के विषय में बताते हैं न कि सातवाहनों शासन के विषय में। जबकि दूसरी और सातवाहन शिलालेखों में आन्ध्र शब्द प्रकट होता है। पूर्व सातवाहन स्थापना की संपुष्टि दक्कन के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त लाल मृदभांड, काले और लाल मृदभांड व लाल से लेपित चित्रित मृदभांड से होती है। इनमें से अधिकतम का संबंध महापाषण निर्माणकर्ताओं द्वारा उपयोग किए गए लोहे से है जो उत्तर में भौतिक संस्कृति के संपर्को से नई गतिविधियों के लिए प्रेरित हुए थे। धान प्रत्यारोपण व आने वाले नगरीकरण लेखन में लोहे की भागीदारी इत्यादि ने सातवाहनों के अधीन राज्य निर्माण की स्थिति परिस्थिति उत्पन्न की। यद्यपि पुराणों के अनुसार आन्ध्र शासकों ने 300 वर्ष तक शासन किया और यह काल सातवाहन राजवंश के शासनकाल के रूप में नियत किया गया है। सातवाहनों के सबसे प्राचीन शिलालेख पहली शताब्दी ईसा पूर्व के हैं, जब उन्होंने मध्य भारत में कण्वों को पराजित कर अपनी सत्ता स्थापित की थी। आरंभिक सातवाहन शिलालेख आन्ध्र प्रदेश में नहीं अपितु महाराष्ट्र में प्राप्त होते हैं। उन्होंने उनकी सत्ता ऊपरी गोदावरी घाटी में स्थापित की। यह क्षेत्र वर्तमान में महाराष्ट्र में समृद्ध व विविध प्रकार की फसलें उत्पन्न करता है।
धीरे-धीरे सातवाहनों ने उनकी सत्ता का विस्तार कर्नाटक व आन्ध्रप्रदेश तक किया। उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंदी शक थे जिन्होंने अपनी सत्ता ऊपरी दक्कन व पूर्वी भारत में स्थापित की थी। एक समय ऐसा भी आया जब शक शासकों द्वारा महाराष्ट्र और पश्चिमी भारत में सातवाहनों को उनके उपनिवेशों से बाहर धकेल दिया गया। सातवाहन राजवंश का खोया हुआ सौभाग्य गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा (106-130 ई.) पुनः प्राप्त किया गया जिन्होंने स्वयं को एकमात्र ब्राहम्ण घोषित किया था। उन्होंने शकों को पराजित किया और कई क्षेत्रीय शासकों को नष्ट कर दिया। उनके द्वारा क्षत्रप वंशावली को नष्ट किये जाने का दावा किया जाता है जो उसके विरोधी नहापन का राजवंश था। यह दावा सत्य भी है क्योंकि नासिक के निकट नहापन की 8,000 से अधिक रजत मुद्राएं प्राप्त हुई हैं जिन पर पुनः सातवाहन शासक द्वारा अपनी मोहर अंकित की गई है। उन्होंने मालवा और काठियावाड़ पर भी कब्जा कर लिया जो कि शकों के नियंत्रण में थे। ऐसा प्रतीत होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी का साम्राज्य उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक फैला था। सम्भवतः उन्होंने आन्ध्र क्षेत्र में भी सामान्य आधिपत्य का आनंद प्राप्त किया था।
गौतमीपुत्र के उत्तराधिकारियों ने 220 ई. तक शासन किया। उनके ठीक बाद के उत्तराधिकारी वशिष्ट पुत्र पुलामयी (130-154) के सिक्के व शिलालेख आन्ध्रा क्षेत्र में प्राप्त होते हैं, जो यह दर्शाते है कि दूसरी शताब्दी के मध्य में यह क्षेत्र सातवाहन राज्य का एक भाग बन गया था। उन्होंने औरंगाबाद जिले में गोदावरी तट पर पैठन या प्रतिष्ठान में अपनी राजधानी स्थापित की। शकों ने सातवाहनों के साथ कोंकण के तटीय क्षेत्र व मालवा पर अधिकार के लिये पुनः संघर्ष आरंभ कर दिया। सौराष्ट्र (काठियावाड़) के शक शासक सातवाहनों को दो बार हरा चुके थे परन्तु वैवाहिक संबंधों के कारण उन्हे नष्ट नहीं किया। यज्ञश्री सातकर्णि (165-194) नामक सातवाहन राजा ने पुनः उत्तरी कोंकण व मालवा को शक शासकों से विजय द्वरा प्राप्त किया। वे व्यापार व नौचालन के प्रेमी थे। उनके सिक्के न केवल आन्ध्र प्रदेश अपितु महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में भी पाए गए हैं। नौचालन व समुद्र पार व्यापार के प्रति उनके प्रेम का प्रदर्शन उसके सिक्कों में जहाज के निरूपण से दिखाई देता है।
10.2 भौतिक संस्कृति के स्वरूप
सातवाहनों के शासन के अधीन दक्कन (डेक्कन) की भौतिक संस्कृति के स्थानीय तत्वों में उत्तरी सांस्कृतिक सामग्री का संयोजन भी हुआ। दक्कन के महापाषाण के निर्माता लोहे व कृषि के उपयोग से परिचित हुए। यद्यपि हम 200 ई. पूर्व भी लोहे की बनी कुछ कुदालें देखते हैं, पर ईसाई युग की अगली दो या तीन शताब्दियों में इस प्रकार के औजारों की उपयोगिता बढ़ गई थी। हम महापाषाण और सातवाहन चरण की कुदालों में विशेष अंतर नहीं देखते हैं। केवल इतना अंतर दिखाई देता है कि कुदालें अब कूबस्थित (पूरी तरह से बैठाई जाती थीं)। कूबस्थित कुदालों के अतिरिक्त, हंसिये, फावड़े, फालें, कुल्हाडियाँ, बसूल छुरे इत्यादि सातवाहन शासकों के द्वारा प्रदत्त हैं। कई स्थानों पर हमें धनुष से निकले हुए (उपयोग किए गए) और कूबस्थित शीर्ष वाले बाणों के साथ खंजर भी प्राप्त हुए हैं। करीमनगर जिले में एक लोहार की कार्यशाला भी खोजी गई है।
सम्भवतः सातवाहनों ने करीमनगर और वारंगल के लौह अयस्क का दोहन किया होगा। इन जिलों में लोहे पर कारीगरी के संकेत महापाषण चरण जितने पुराने हैं। कालार क्षेत्र में ईसाई शताब्दियों व बाद में प्राचीन स्वर्ण कारीगरी प्राप्त हुई है। सम्भवतः सातवाहन शासकों ने सोने को ईंटों के रूप में प्रयुक्त किया होगा जिसके कारण उन्होंने कुषाणों जितनी स्वर्ण मुद्राएं जारी नहीं की। उन्होंने ज्यादातर सिक्के सीसे के जारी किए थे जो दक्कन में पाए जाते हैं। उन्होंने घेलुवा, तांबे व पीतल के सिक्के भी जारी किए। इश्क्वकु जो कि तीसरी शताब्दी ई. के आरंभ में पूर्व दक्कन में सातवाहनों के उत्तराधिकारी हुए उन्होंने भी अपने सिक्के जारी किए। ऐसा प्रतीत होता है कि इश्क्वकु व शतवाहन दोनों के द्वारा दक्कन के खनिज संसाधनों का अत्याधिक दोहन किया गया था।
दक्कन के लोगों को धान प्रत्यारोपण की कला ज्ञात थी और पहली दो शताब्दियों में कृष्णा व गोदावरी के क्षेत्र ने विशेषतः दोनों नदियों के मुख पर एक धान के कटोरे का रूप ले लिया। दक्कन के लोग कपास भी उगाते थे। विदेशी महत्व की दृष्टि से, आन्ध्र को इसके कपास उत्पादन के लिए प्रसिद्ध भी माना जाता है। इस प्रकार दक्कन ने एक व्यापक भाग में एक अति उन्नत ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित की। प्लिनी के अनुसार आन्ध्र राज्य के पास 1,00,000 पैदल सैनिक, 2000 घुड़ सैनिक और 1000 हाथियों की सेना थी इससे एक बड़ी ग्रामीण जनसंख्या का विवरण प्राप्त होता है और निश्चित तौर पर इस सैन्य संख्या को सहायता देने के लिए कृषकों ने पर्याप्त अनाज उत्पादन प्रदान किया।
दक्कन के लोगों ने सिक्कों, पकाई हुई ईंटों, वलयाकार कुओं इत्यादि का उपयोग उत्तर के लोगों से सीखा। भौतिक जीवन के ये घटक अगली कुछ शताब्दियों में दक्कन के लिए महत्वपूर्ण बन गए। करीमनगर जिले में पेदाबंकुर (200 ईसा पूर्व से 200 ई) में हम आग से पकी ईंटों और छत के लिए छिद्रित खपरैलों का सामान्य तौर पर उपयोग देखते हैं। इसके आगे जो उल्लेखनीय है वह यह है कि ईंटों के द्वारा निर्मित प्राप्त कुओं में से लगभग 22 कुएं दूसरी शताब्दी ई. के हैं। स्वाभाविक रूप से इन सब के द्वारा घने निवासों को बसाने में सुगमता प्राप्त हुई होगी और हमें वहां जल निकासी की ढकी हुई भूमिगत नालियां भी प्राप्त होती हैं। महाराष्ट्र में पहली शताब्दी ई. नगर प्रकट हुए जब हमें कई शिल्प कलाए प्राप्त होती हैं। एक शताब्दी पश्चात् उनके नगर पूर्वी दक्कन में उभरने लगे। प्लिनी हमें बताते हैं कि आन्ध्र देश के पूर्वी दक्कन में कई गावों के अतिरिक्त ईंटों की दिवार वाले 30 कुएं थे। दूसरी व तीसरी शताब्दियों के इस क्षेत्र के कई गांव शिलालेखों व उत्खननों के लिए जाने जाते हैं। बढ़ता व्यापार यह संकेत देता है कि कई रोमन शासकों ने सातवाहन सिक्कों की नकल की। वे लगभग एक शताब्दी पश्चात् पूर्वी दक्कन में गोदावरी कृष्णा क्षेत्र में प्रकट हुए।
10.3 सामाजिक संगठन
ऐसा प्रतीत होता है कि सातवाहन मूलरूप से दक्कन की एक जनजाति थी। परन्तु उनका ब्राम्हणीकरण हो गया और उनमें से सबसे प्रसिद्ध राजा गौतमीपुत्र थे। शातकर्णी यह दावा करते है कि उन्होंने चतुःवर्ण प्रणाली (ब्राहम्ण, क्षत्रीय, वैश्य एवं शूद्र) को स्थापित किया था जो विकार में घिर चुकी थी। वे यह आत्मप्रशंसा करते हैं कि उन्होंने विभिन्न सामाजिक वर्णों के लोगों के अंतः मिश्रण का अंत किया। इस प्रकार शकों की घुसपैठ और दक्कन में रहने वाली एक जनजाति के महीन व सतही ब्राम्हणीकरण से एक भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। शकों का हिन्दू समाज में समावेश क्षत्रियों के रूप में हुआ था जिसके द्वारा शकों व सातवाहनों के मध्य अंतर्विवाह को सुगमता प्राप्त हुई होगी। इसी प्रकार बौद्ध भिक्षुओं द्वारा स्वदेशी जनजातियों के लोगों का अधिक से अधिक उत्संस्करण (संस्कृति मिश्रण) किया गया जो भूमि अनुदान से प्रेरित होकर दक्कन के पश्चिमी भाग में बस चुके थे। ऐसे संकेत दिए जाते है कि व्यापारी भी बौद्ध भिक्षुओं के समर्थक थे क्योंकि प्रारंभिक बौद्ध गुफाएं व्यापार मार्ग पर प्राप्त होती हैं। उन पहले शासकों में से जिन्हांने ब्राम्हणां को भूमि अनुदान यद्यपि बौद्ध भिक्षुओं को भूमि अनुदान मिलने की घटनाएं ज्यादा दिखाई पड़ती हैं।
धर्मशास्त्रों के अनुसार, क्षत्रिय का यह दायित्व था की वह शासन करें, परन्तु सातवाहन शासक स्वयं को ब्राम्हण बताते थे। गौतमीपुत्र यह स्वप्रशंसा करते हैं कि वे एक सच्चे ब्राम्हण थे। चूंकि आन्ध्राओं की पहचान प्राचीन सातवाहनों के रूप में की गई थी, सम्भवतः वे एक स्थानीय जनजाति थे जिन्हें ब्राहम्णों में परिवर्तित किया गया। उत्तर के रूढ़िवादी ब्राहम्ण आन्ध्र को एक मिश्रित जाति के रूप में देखते हैं। इससे प्रकट होता है कि आन्ध्र आदिवासी लोग थे जिन्हें ब्राहम्ण समाज में एक मिश्रित जाति के रूप में लिया गया था।
इस काल में बढ़ते शिल्प व वाणिज्य के कारण कई शिल्पकार और व्यापारी आगे आये। व्यापारी अपने नाम में अपने नगरों का नाम सम्मिलित करने में गर्व अनुभव करते थे। शिल्पकारियों व व्यापारियों दोनों ने बौद्ध धर्म के कार्यों के लिए उदार दान दिए। उन्होंने कई छोटी स्मारक पट्टिकायें स्थापित की। शिल्पकारों में से गंधिकाओं या इत्र बेचने वालों को कई बार दाता के रूप में उल्लेखित किया गया हैं बाद के समय में गंधिका शब्द इतना सामान्य हो गया कि यह सभी प्रकार के व्यापारियों के लिए अर्थसूचक बन चुका था। आधुनिक शीर्षक गांधी इसी प्राचीन शब्द से व्युत्पन्न हुआ है।
सातवाहनों के बारे में सबसे दिलचस्प जानकारी उनके परिवार संरचना से संबंधित है। उत्तर भारत में आर्य समाज में पिता को मां से अधिक महत्व दिया गया, और अब तक यह माना जाता है कि उत्तर भारतीय राजकुमार एक पितृसत्तात्मक समाज के थे। लेकिन शत्वाहन से एक मातृवंशीय सामाजिक संरचना का सुराग मिलता है। राजा का नाम उनकी माता के वंशानुसार रखने की प्रथा थी। गौतमीपुत्र और वशिष्ठिपुत्र जैसे नाम से पता चलता है कि उनके समाज में माँ का बड़ा महत्व था। वर्तमान के प्रायद्वीपीय भारत में बेटे का नाम पिता के वंशानुसार रखा जाता है, और उस में माँ के लिए कोई जगह नहीं है, यह पितृसत्तात्मक प्रभाव को दर्शाता है। रानियों ने स्वनिर्णय से महत्वपूर्ण धार्मिक आयोजनों में उपहार देना प्रारंभ किया, और उनमें से कुछ ने राज्य प्रतिनिधियों के रूप में काम किया। मूल रूप से सातवाहन शासक परिवार पितृसत्तात्मक था क्योंकि सिंहासन का उत्तराधिकार पुरुष सदस्य को ही प्रदान किया जाता था।
10.4 प्रशासन का स्वरूप
सातवाहनों ने धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित राज आदर्शों को स्थापित करने का प्रयत्न किया। राजा को धर्म संरक्षक के रूप में प्रदर्शित किया जाता था। उसके कुछ दिव्य लक्षण निर्धारित किए गए। सातवाहन शासक को राम, भीम, केशव, अर्जुन इत्यादि पौराणिक नायकों के समान गुणों से युक्त बताया गया था। उसके तेज और कौशल की तुलना अलौकिक शक्तियों व पौराणिक प्रसिद्ध व्यक्तियों से की जाती थी। जाहिर तौर पर यह सब सातवाहन शासक को दैवीय लक्षणों से युक्त दर्शाने के लिए आवश्यक था।
सातवाहनों ने सम्राट अशोक के काल में पाई जाने वाली कई प्रशासनिक इकाईयों को यथावत् रखा। उनके जिलों को अहर कहा जाता था जैसा कि सम्राट अशोक के काल में भी जाना जाता था। उनके अधिकारियों को अमात्य और महामत्र नाम से जाना जाता था जो शब्द मौर्य काल में भी प्रचलित थे।
परन्तु हम सातवाहनों की प्रशासन प्रणाली में कुछ सैन्य और सामंतवादी लक्षण देखते हैं। यह उल्लेखनीय है कि सेनापति को प्रांतीय नियंत्रक के रूप में नियुक्त किया जाता था। चूंकि दक्कन के लोग पूर्णतः हिन्दूवादी नहीं हुए थे और नए नियमों से समझौता करना नहीं चाहते थे इसलिए यह आवश्यक था कि उन्हें एक दृढ़ सैन्य नियंत्रण में रखा जाए। ग्रामीण क्षेत्र के प्रशासन की बागडोर गौल्मिक के हाथों में थी जो नवरथों, नवगजों, 25 अश्वों और 45 पैदल सैनिकों की सेना का प्रमुख होता था। सेना पलटन के प्रमुख की नियुक्ति ग्रामीण क्षेत्रों में की जाती थी जिससे की वहां शांति और व्यवस्था बनी रहे।
सातवाहन शासन के द्वारा उत्कीर्ण शिलालेखां में सामान्य रूप से प्रयुक्त कटक और स्कन्धवर जैसे शब्दों के साक्षी हैं। ये क्षेत्र वे सैन्य शिविर और उपनिवेश थे जो उस समय तक प्रशासनिक केन्द्र के रूप में सेवा प्रदान करते थे जब तक राजा उस क्षेत्र में होता था। इस प्रकार सातवाहन प्रशासन में बलप्रयोग ने एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था।
सातवाहनों ने ब्राम्हणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर मुक्त गांव प्रदान करने की प्रथा आरंभ की। उनको अनुदान में दिए गए सिंचाई क्षेत्र और गांव, राज सिपाहियों, सैनिकों और सभी प्रकार के राज अधिकारियों के हस्तक्षेप से मुक्त घोषित किए गए। इस प्रकार ये क्षेत्र शत्वाहन शासन के स्वतंत्र उपद्वीपों के समान बन गए थे। उनके मध्य शांति व अच्छे आचरण का प्रचार किया और उन्हे राजनीतिक प्राधिकरण और सामाजिक व्यवस्था का आदर करने की शिक्षा प्रदान की। स्पष्टतः बा्रम्हणों ने भी वर्ण प्रणाली के नियमों को सुदृढ़ बनाने में योगदान दिया जिससे समाज में स्थिरता आई।
सातवाहन राज्य में तीन श्रेणीयों के सामंत थे। उच्चतम श्रेणी राजा की थी जिसे सिक्कों के मुद्रण का अधिकार प्राप्त था। द्वितीय श्रेणी महाभोज की होती थी और तृतीय श्रेणी सेनापति की । ऐसा प्रतीत होता है कि इन सामंतो और भू-लाभान्वित व्यक्तियों ने उनके संदर्भित क्षेत्रों में कुछ विशेष अधिकारों का लाभ उठाया।
10.5 धर्म
सातवाहन शासक ब्राम्हण होने का दावा करते थे, और उन्होंने विजयी ब्राम्हणवाद की कूच का प्रतिनिधित्व किया। आरंभ से ही सातवाहन राजा व रानियां अश्वमेध वाजपेय आदि जैसे वैदिक यज्ञ में भाग लेते रहे थे।
वे कई वैष्णव देवताओं जैसे कृष्ण, वासुदेव आदि की उपासना करते थे। उन्होंने ब्राम्हणों को त्यागपूर्ण उदार पारिश्रमिक प्रदान किए।
यद्यपि, सातवाहन शासकों ने बौद्ध भिक्षुओं को भू-अनुदान देकर बौद्ध धर्म का समर्थन किया। उनके राज्य में बौद्ध धर्म के महायान रूप ने उल्लेखनीय रूप से अनुयाई बनाये, विशेषतः शिल्पकार वर्ग के। सातवाहनों के अधीन आन्ध्र प्रदेश में नागार्जुनकोंड और अमरावती बौद्ध संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र बन चुके थे जो कि उनके उत्तराधिकारियों इक्ष्वाकुओं के अधीन और भी अधिक महत्वपूर्ण बन चुके थे। इसी प्रकार महाराष्ट्र के पश्चिमी दक्कन क्षेत्र में नासिक और जुनार क्षेत्र में बौद्ध धर्म फला फूला जहां सम्भवतः इसे व्यापारियों द्वारा भी समर्थन प्राप्त हुआ था।
10.6 वास्तुकला
सातवाहन काल में उत्तर पश्चिमी दक्कन या महाराष्ट्र में महान कौशल और धैर्य के साथ ठोस चट्टान को काट कर कई चैत्यों (पवित्र मंदिरों और मठों का निर्माण किया गया)। वास्तव में निर्माण की यह प्रक्रिया एक शताब्दी पूर्व लगभग 200 ई. पूर्व में प्रारंभ हो चुकी थी। दो सामान्य धार्मिक निर्माणों में बौद्ध मंदिर थे जिन्हे चैत्य कहा जाता था, और मठ थे जिन्हे विहार कहा जाता था। चैत्य एक विशाल कक्ष था जिसमें कई स्तंभ थे और विहार एक केन्द्रीय कक्ष था जिसका प्रवेश द्वार बरामदे से होकर जाता था। सबसे प्रसिद्ध चैत्य पश्चिमी दक्कन के करले में स्थित है। यह लगभग 40 मीटर लंबा, 15 मीटर चौड़ा और 15 मीटर ऊँचा है। यह विशाल चट्टान वास्तुकला का एक प्रभावशाली नमूना है।
वर्षा ऋतु में भिक्षुओं के निवास के लिए चैत्य के समीप विहार या मठों का उत्खनन किया जाता था। नासिक में हमें तीन विहार प्राप्त होते हैं। चूंकि उनमें नहापाना और गौतमीपुत्र के शिलालेख हैं ऐसा प्रतीत होता है कि वे पहली-दूसरी शताब्दी ई. के हैं।
आन्ध्र प्रदेश में भी कृष्णा-गोदावारी क्षेत्र रॉक-कट वास्तुकला प्राप्त होती है, परन्तु यह क्षेत्र वास्तविकता में स्तूपों के रूप में की गई स्वतंत्र बौद्ध संरचनाओं के लिये अधिक प्रसिद्ध है। इनमें से सबसे प्रसिद्ध स्तूप अमरावती व नागर्जुनकोंड के हैं। स्तूप एक विशाल वृत्ताकार संरचना होती थी जो गौतम बुद्ध के किसी स्मारक चिन्ह पर खड़ी की जाती थी। अमरावती स्तूपों का निर्माण लगभग 200 ई. पूर्व आरंभ हुआ परन्तु उनका पूर्ण पुनः निर्माण दूसरी शताब्दी ई. के द्वितीय उत्तरार्ध में किया गया। इसके गुंबद आधार का माप 53 मीटर है। सम्भवतः इसकी ऊँचाई 33 मीटर है। अमरावती स्तूप मूर्तिकला से परिपूर्ण है जो गौतम बुद्ध के जीवन के विभिन्न दृश्यों को दर्शाती है।
सातवाहनों के उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के आश्रय में नागार्जुनकोंड दूसरी तीसरी शताब्दी में अति समृद्ध हुआ। नागार्जुनकोंड में न केवल बौद्ध स्मारक बल्कि ईंट निर्मित प्राचीन ब्राम्हण मंदिर भी सम्मिलित हैं। यहां लगभग दो दर्जन मठों की गणना की जा सकती है। स्तूपों और महाचैत्यों के साथ यह ईसाई युग के आरंभ में यह संरचनाओं में सबसे समृद्ध दिखाई पड़ता है।
10.7 भाषा
सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी। एक शिलालेख प्राकृत भाषा में रचित किया जाता और ब्राम्ही लिपि में लिखा जाता। यह स्थिति सम्राट अशोक के काल में भी थी। सम्भवतः कुछ सातवाहन राजाओं ने संस्कृत पुस्तकों की रचना की। गाथासप्तशती नामक एक प्राकृत लेख का श्रेय सातवाहन राजा हाल को जाता है। इसमें 700 गाथाएं (छन्द) हैं। ये सभी प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इसे बहुत बाद में सम्भवतः छठवी शताब्दी ई. पश्चात् परिष्कृत किया गया।
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