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मौर्य राजवंश भाग -1
1.0 प्रस्तावना
मौर्य साम्राज्य की स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी, जो एक साधारण परिवार से थे। ब्राह्मण परम्परा के अनुसार उनका जन्म मुरा नामक एक क्षुद्र महिला के गर्भ से नंद राजदरबार में हुआ था, किंतु बु़द्ध परम्परा के मतानुसार मौर्य नेपाल की तरई वाले गोरखपुर क्षेत्र में रहने वाला क्षत्रिय कुल माना गया है। एक अनुमान के अनुसार, चंद्रगुप्त इसी वंश का था। उसे नंदवंश की कमजोरियों और अलोकप्रियता का फायदा मिला। उसने चाणक्य, जिसे कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है, की मदद से नंदवंश को समाप्त कर मौर्य वंश की स्थापना की। विशाखदत्त के द्वारा नौवीं शताब्दी में रचित ‘मुद्रा राक्षस‘ नामक नाटक में चंद्रगुप्त के शत्रुओं के विरूद्ध चाणक्य की नीतियों का वर्णन किया गया है। आधुनिक समय में भी इस विषय वस्तु पर कई नाटक लिखे गये।
एक ग्रीक लेखक जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त ने 6,00,000 सैनिकों की सेना की मदद से लगभग सम्पूर्ण भारत पर शासन किया। यह सत्य हो भी सकता है और नहीं भी। किंतु चंद्रगुप्त ने उत्तर-पश्चिमी भारत को सैल्यूकस के बंधनों से आजाद कराया, जिसने सिंधु नदी के पश्चिमी छोर तक शासन किया था। ग्रीक राजा से युद्ध में चंद्रगुप्त विजयी हुए। परिणाम स्वरूप सम्पन्न हुई शांति संधि में सैल्यूकस ने चंद्रगुप्त को 500 हाथी, पूर्वी अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और सिंधु नदी का पश्चिमी इलाका दिया। इस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया जिसमें न केवल बिहार, उड़ीसा और बंगाल शामिल थे बल्कि पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भारत के साथ-साथ दक्कन का क्षेत्र भी शामिल था। केरल, तमिलनाडु और उत्तर-पूर्वी भारत के हिस्सों को छोड़कर मौर्य शासकों भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग पूरे क्षेत्र पर शासन किया। उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ ऐसे हिस्सों पर भी उनका शासन था जो कि ब्रिटिश साम्राज्य में भी शामिल नहीं थे।
2.0 साम्राज्य का संगठन
मौर्य शासकों ने प्रशासन का एक विस्तृत ढ़ाँचा तैयार किया था। इसकी जानकारी हमें मेगास्थनीज के लेखों और कौटिल्य के अर्थशास्त्र से मिलती है। मेगास्थनीज चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में सैल्यूकस का राजदूत था। वह मौर्य की राजधानी पाटलीपुत्र में रहता था। उसने न केवल पाटलीपुत्र बल्कि सम्पूर्ण साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में विस्तार से लिखा। मेगास्थनीज के द्वारा लिखी हुई कोई भी पुस्तक पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है, किंतु बाद के ग्रीक लेखकों द्वारा उसे कई बार उधृत किया गया है। इन अंशों को एकत्रित करके एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया है, जो मौर्य प्रशासन, समाज और अर्थव्यवस्था पर उल्लेखनीय प्रकाश डालती है।
मेगास्थनीज के लेखों की मदद कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी करता है। यद्यपि अर्थशास्त्र का अंतिम लेखन मौर्य शासन की समाप्ति के कुछ शताब्दियों के बाद हुआ फिर भी इसमें मौर्य काल के बारे में सही-सही जानकारी उपलब्ध होती है। इन दो पुस्तकों के आधार पर मौर्य शासन व्यवस्था विशेषकर चंद्रगुप्त मौर्य की शासन प्रणाली का खाका उभर कर सामने आता है।
चंद्रगुप्त मौर्य एक ऐसा राजा था जिसने सत्ता के सारे अधिकार स्वयं पर केंद्रित कर रखे थे। अर्थशास्त्र के अनुसार राजा ने उच्च आदर्ष स्थापित करना चाहिए। अर्थशास्त्र में कहा गया है कि प्रजा की भलाई में राजा की खुशी निहित होती है। किंतु हम यह नहीं जानते है कि राजा किस हद तक इस सिद्धांत को मानता था। मेगास्थनीज के अनुसार राजा की सलाह के लिए मंत्री परिषद होती थी, किंतु राजा इसकी सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं होता था। मंत्रियों की सलाह पर ही उच्च अधिकारी नियुक्त किये जाते थे।
सम्पूर्ण साम्राज्य को कई प्रांतों में विभाजित किया गया था और प्रत्येक प्रांत का शासन शाही परिवार से संबंधित राजकुमार के हाथों में होता था। प्रांतों को पुनः छोटी इकाईयों में विभाजित किया गया था और ग्रामीण तथा शहरी प्रशासन के लिए अलग-अलग व्यवस्था की गई थी। समकालिन स्त्रोतों से ज्ञात होता है कि मौर्य साम्राज्य में कई महत्वपूर्ण शहर थे। पाटलीपुत्र, कौशाम्बी, उज्जयनी, और तक्षशिला महत्वपूर्ण शहरों में थे। पाटलीपुत्र जो कि साम्राज्य की राजधानी भी थी उसका प्रशासन छः समितियों के द्वारा किया जाता था, प्रत्येक समिति में पांच सदस्य हुआ करते थे। यह समितियां साफ-सफाई, विदेशी महमानों की देखभाल, जन्म और मृत्यु का पंजीयन, नाप-तौल के मानकों का विनिमयन जैसे विभिन्न काम करती थी। बिहार में कई स्थानों पर मौर्य काल से संबंधित बांट प्राप्त हुए हैं।
इसके अतिरिक्त केन्द्रिय प्रशासन के पास लगभग दो दर्जन ऐसे विभाग थे जो राज्यों की सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों का नियंत्रण करते थे। चंद्रगुप्त मौर्य की प्रशासनिक व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण गुणधर्म था - एक बड़ी सेना का रखरखाव। एक रोमन लेखक प्लिनी के अनुसार चंद्रगुप्त के पास 6,00,000 पैदल सैनिक, 30000 घुड़सवार और 9000 हाथी थे। अन्य स्त्रोतों से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त की सेना में 8000 रथ हुआ करते थे। इसके अतिरिक्त मौर्य शासकों के पास एक सुव्यवस्थित नौसेना भी थी। मेगास्थनीज के अनुसार, इन सशस्त्र सेनाओं का प्रशासन 30000 सदस्यों के एक समूह द्वारा किया जाता था जिन्हें छः समितियों में विभाजित किया गया था, प्रत्येक समिति में पांच सदस्य होते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि सेना के छः अंग हुआ करते थे - सेना, घुड़सवार, हाथी, रथ, नौसेना और परिवहन, प्रत्येक अंग के लिए एक समिति निर्धारित की गई थी। मौर्यों की सैन्य ताकत नंद वंश की तुलना में तीन गुना थी। ऐसा इसलिए संभव हो सका क्योंकि मौर्यों के पास एक बड़ा साम्राज्य और विस्तृत संसाधन थे।
चंद्रगुप्त मौर्य इतनी वृहद सेना का व्यय कैसे वहन करता था? यदि हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर विश्वास करें तो यह ज्ञात होता है कि राज्य में होने वाली सभी आर्थिक गतिविधियों का नियंत्रण राजा के द्वारा किया जाता था। क्षुद्र श्रमिकों और किसानों की मदद से राज्य के द्वारा नयी जमीनों को कृषि योग्य बनाया गया। इस प्रकार तैयार नये खेतों और किसानों से राज्य का राजस्व बढ़ने लगा। किसानों से उनकी उपज का एक चौथाई से छठे भाग तक कर लिया जाता था। इसके अतिरिक्त आपातकाल के दौरान किसानों को अतिरिक्त फसल उत्पादन के लिए भी मजबूर किया जाता था। शहरी क्षेत्र के भीतर बेचे जाने वाली चीजों पर कर शहर की सीमा के प्रारंभ में ही वसूल कर लिया जाता था। इसके साथ-साथ खनन, मदिरा विक्रय और अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण पर भी कर लगाया जाता था। इस प्रकार शाही खजाने के लिए धन एकत्रित किया जाता था। चंद्रगुप्त मौर्य ने एक सुगठित प्रशासनिक व्यवस्था और एक सुदृढ़ वित्तीय आधार तैयार कर लिया था।
3.0 अशोक (273-232 ई.पू.)
चंद्रगुप्त मौर्य का उत्तराधिकारी बिंदुसार हुआ, जिसका शासनकाल ग्रीक राजकुमारियों के साथ सम्पर्क के लिए जाना जाता है। उसका पुत्र अशोक मौर्य शासकों में महानतम था। बौद्ध धर्म ग्रंथों के अनुसार वह अपनी प्रारंभिक अवस्था में बहुत निर्दयी था और उसने सिहांसन प्राप्ति के लिए अपने 99 भाईयों की हत्या की। किंतु यह कथन मिथकां पर आधारित है इसलिए इसे सही नहीं माना जा सकता। बौद्ध लेखकों द्वारा तैयार की गई उसकी जीवनी इतनी ज्यादा कल्पनाओं पर आधारित है कि उसे गम्भीरता से नहीं लिया जा सकता है। अशोक महान कई हिन्दी लेखकों, कवियों और नाटककारों के लिए प्रेरणा स्त्रोत रहा है। वह लगभग 70 वर्षों तक जीवित रहा।
3.1 अशोक के शिलालेख
हम अशोक के शासनकाल के इतिहास का निर्माण उसके लेखों से कर सकते हैं। वह पहला भारतीय शासक था जो उसके लेखों के माध्यम से जनता से सीधे संवाद करता था जो सामान्यतः प्राकृत भाषा में लिखे हुए होते थे। इन लेखों को चट्टानों, चमकीले पत्थरों पर उकेरा जाता था तथा राजधानियों में और गुफाओं आदि में लगाया जाता था। ये शिलालेख न केवल भारत में बल्कि अफगानिस्तान में भी पाये जाते हैं। इन शिलालेखों में राजकीय आदेश लिखे होते थे। अभी तक 45 स्थानों पर 181 प्रकार के शिलालेख पाये गये हैं। प्राकृत भाषा में रचित और ब्राह्मी लिपि में लिखे गये यह शिलालेख लगभग सम्पूर्ण साम्राज्य में लगाये गये थे। किंतु उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में ये अरामिक और खरोष्ठी लिपि में लिखे गये है, और अफगानिस्तान में यह अरामिक और ग्रीक लिपियों में पाये गये हैं। सामान्यतः अशोक के लेख प्राचीन राजमार्गों के किनारों पर पाये जाते हैं। यह शीलालेख अशोक की उपलब्धियों, उसकी बाह्य तथा आंतरिक नीतियों तथा उसके साम्राज्य के विस्तार के बारे में चर्चा करते हैं।
3.2 कलिंग युद्ध का प्रभाव
बौद्ध धर्म के आदर्शां ने अशोक की राजनीति को प्रभावित किया। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद उसने केवल एक बड़ा युद्ध लड़ा जिसे कलिंग युद्ध कहा जाता है। उसके अनुसार इस युद्ध में एक लाख नागरिक मारे गये, कुछ लाख घायल हुए और लगभग 150000 लोगों को बंदी बनाया गया। यह संख्या अतिरंजनापूर्ण हो सकती है क्योंकि अशोक के शिलालेखों में हजारों लाखों पद का उपयोग बार-बार एक उक्ति के रूप में हुआ है। फिर भी ऐसा लगता है कि राजा इस युद्ध में हुई हिंसा से दुखी था। युद्ध के कारण ब्राह्मण पुजारी और बौद्ध भिक्षु बुरी तरह से प्रभावित हुए जिसके कारण अशोक बहुत दुखी हुआ। इसके पश्चात् अशोक ने सांस्कृतिक विजय का मार्ग अपनाते हुए हिंसा के मार्ग को छोड़ दिया। दूसरे शब्दों में भेरीघोष के स्थान पर धम्मघोष की स्थापना की गई। अशोक के 13वें शिलालेख में की गई घोषणा के अनुसारः
‘देवानामप्रिय‘‘, पियदस्सी राजा अशोक ने 8 वर्षों तक लगातार कलिंग का युद्ध लड़ा। 1,50,000 लोग मारे गये, हजारों लाखों लोग घायल हुए। इसके पश्चात् अब जबकि कलिंग को राज्य का हिस्सा बना लिया गया है देवानामप्रिय राजा ने धम्म का मार्ग चुन लिया है। कलिंग को जीतने पर ईश्वर नामप्रिय राजा अशोक को बहुत पछतावा है क्योंकि एक स्वतंत्र राज्य को अत्यधिक हिंसा और मार काट के बाद जीता गया है। राजा को और ज्यादा कष्टप्रद यह लगा है कि उस राज्य में रहने वाले ब्राम्हणों, श्रमणों या किसी भी पंथ को मानने वाले लोगों या सामान्य नागरिकों को अपने प्रिय लोगों से बिछड़ना पड़ा है।
आज यदि कलिंग पर आधिपत्य स्थापित करने के समय हुई हत्याओं, मृत्युओं या निर्वासित लोगों में से सौवें या हजारवें भाग जितने लोगों को भी उसी प्रकार की यातनाएं सहनी पडें, तो यह ईश्वर के प्रिय लोगों के दिलों पर एक भयंकर आघात होगा।
ईश्वर के प्रिय लोग धम्म के माध्यम से विजय को ही सर्वश्रेष्ठ विजय मानते हैं।
अशोक ने जनजाति लोगों और राज्य के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से एक वैचारिक आह्वान किया। कलिंग जैसे स्वतंत्र राज्य की प्रजा को कहा गया कि वह राजा का भगवान की तरह माने और एक पिता की तरह उसके आदेशों का पालन करे। अशोक के द्वारा नियुक्त अधिकारियों को यह निर्देश दिया गया कि वह इस विचार को प्रजा के सभी हिस्सों में फैलाये। जनजाति लोगों से भी धम्म के सिद्धांत पालन करने का आह्वान किया गया।
अशोक ने जीते गये राज्य को सैन्य उपयोग में लाने की अपेक्षा उन्हें वैचारिक स्तर पर जीतने की कोशिश की। उसने वहां रह रहे मनुष्यों और पशुओं के लिए भी कल्याणकारी कदम उठायें जो उस दौर में नये थे। उसने पश्चिम एशिया के ग्रीक और ग्रीस जैसे देशों में शांतिदूत भेजे। यह सब निष्कर्ष अशोक के शिलालेखों के आधार पर निकाला गया है। यदि हम समकालीन बौद्ध परम्परा पर विश्वास करें तो यह तथ्य सामने आता है कि उसने श्रीलंका और मध्य एशिया में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने दूत भेजे थे। एक महान शासक होने के नाते अशोक ने अपने राजनीतिक विचारों के विस्तार के लिए धर्म का सहारा लिया।
यह सोचना भी गलत होगा की कलिंग युद्ध के पश्चात अशोक पूर्णतः शांतिवादी हो गया था। उसने शांति के लिए शांति की नीति का पालन नहीं किया था। उसने एक अनुप्रायोगिक नीति का उपयोग अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करने के लिए किया। उसने कलिंग जीतने के पश्चात उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया। ऐसे भी कोई प्रमाण नहीं है कि चंद्रगुप्त मौर्य के समय से चली आ रहीं विशाल सेना को उसने नष्ट कर दिया था। यद्यपि उसने जनजातीय समूहों से बार-बार धर्म के मार्ग पर चलने का आह्वान किया तथा उन्हें इसका पालन करने का सख्त आदेश भी दिया। उसने अपने साम्राज्य के भीतर राजुक नामक अधिकारियों की नियुक्ति की जिन्हें पुरस्कार देने के साथ-साथ दंड देने का भी अधिकार था। अशोक की यह नीति साम्राज्य को सुदृढ करने में सफल हुई। कंधार शीलालेख में यह कहा गया है कि इस नीति का पालन करते हुए शिकारियों और मछुआरों ने शिकार करना छोड़कर कृषि जीवन प्रारंभ कर दिया।
3.3 बौद्ध धर्म और अंतर्राष्ट्रीय नीति
कलिंग युद्ध के परिणामस्वरूप अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। परम्परा के अनुसार वह एक भिक्षु बन गया तथा बौद्ध मतावलम्बियों को बड़ी मात्रा में दान देने लगा तथा बौद्ध समाधियों हेतु यात्रा पर जाने लगा। बौद्ध धर्म स्थलों पर उसकी यात्रा का उल्लेख भी उसके शीलालेखों में हुआ है।
एक परम्परा के अनुसार तीसरी बौद्ध सभा अशोक के शासन काल में हुई थी तथा अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने दूत दक्षिण-भारत के साथ-साथ श्रीलंका और बर्मा भी भेजे थे। श्रीलंका में पहली और दूसरी शताब्दी ई.पू. के ब्राह्मी शिलालेख पाये गये है।
अशोक ने स्वयं के लिए आदर्शों के उच्च प्रतिमान स्थापित किये जो कि पिता तुल्य राजा की विशेषता थी। उसने अपने अधिकारियों को बार-बार यह निर्देश दिया कि वह प्रजा को यह समझायें की प्रजा राजा की संतान के समान है। राजा के प्रतिनिधि होने के नाते अधिकारियों को भी यह कहा गया कि वे जनता की सेवा करें। अशोक ने धम्ममहामत्तों नामक अधिकारियों की नियुक्ति की जिनका उद्देश्य सभी समूहों के बीच धर्म का प्रचार करना था। उसने राज्य में प्रशासनिक न्याय व्यवस्था के लिए राजुक नामक अधिकारियों की नियुक्ति भी की।
उसने कई रीतिरिवाजों, विशेषकर महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों वाली परम्पराओं को निषिद्ध घोषित कर दिया। उसने कई प्रकार के पशुपक्षियों की हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने ऐसे सामाजिक त्यौहारों को भी प्रतिबंधित कर दिया जिसमें लोग वीरता का प्रदर्शन करते थे।
किंतु अशोक का धर्म संकीर्ण धर्म नहीं था। इसे किसी पंथ के प्रति आस्था नही कहा जा सकता। इसका वृहद उद्देश्य सामाजिक क्रम को संरक्षण देना था। इसमें कहा गया था कि लोगों को अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए, ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं का सम्मान करना चाहिए तथा नौकरों और दासों के प्रति दया भाव रखना चाहिए। यह दिशा निर्देश बौद्ध और ब्राह्मण दोनों ही धर्म ग्रंथों में पाये जाते हैं।
अशोक ने लोगों को जियो और जीने दो का संदेश दिया। उसने पशुओं के प्रति भी दया पर जोर दिया तथा संबंधियों से उचित व्यवहार रखने की आशा की। उसकी शिक्षाओं का उद्देश्य परिवार नामक संस्था तथा समाज के अस्तित्व को बनाये रखना था। उसका कहना था कि यदि लोग उचित व्यवहार करते हैं तो उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। उसने निर्वाण शब्द का कहीं भी उपयोग नहीं किया जो कि बौद्ध शिक्षाओं का अंतिम ध्येय होता है। इस प्रकार अशोक की शिक्षाओं का उद्देश्य समकालीन समाजिक क्रम के प्रति सहिष्णुता का विकास करना था। उसने किसी पंथ की आस्थाओं के लिए उपदेश नहीं दिया।
3.4 इतिहास में अशोक का स्थान
यह कहा जाता है कि अशोक की शांतिवादी नीतियों ने मौर्य साम्राज्य को नष्ट कर दिया, किंतु यह सत्य नहीं है। इसके विपरित अशोक ने कई महान उपलब्धियां हासिल की। वह विश्व के प्राचीन इतिहास के महानतम शासकों में से एक था। उसने सम्पूर्ण समर्पण और उत्साह के साथ कार्य किया तथा देश और विदेश दोनों ही जगह प्रसिद्धि हासिल की।
अशोक ने राजनीतिक रूप से देश का एकीकरण किया। उसने पूरे देश को एक धर्म, एक भाषा और एक लिपि, ब्राह्ममी में बांधने की कोशिश की। देश के एकीकरण के प्रयास में उसने ऐसी लिपियों जैसे ब्राह्ममी खरोष्ठी अरामिक और ग्रीक का उपयोग किया। उसने ग्रीक, प्राकृत और संस्कृत जैसी भाषाओं का उपयोग किया। अशोक ने एक सहिष्णु धर्म नीति का पालन किया। उसने अपनी बौद्ध आस्था को जनता पर नहीं थोपा। दूसरी और उसने गैर बौद्धों और यहां तक कि बौद्ध धर्म के विरोधियों तक को दान दिया।
अशोक उत्साह और धर्मार्थ गतिविधियों से भरा हुआ था। उसने राज्य के सूदूर इलाकों में भी अधिकारियों की नियुक्ति की। इससे प्रशासनिक व्यवस्था में मदद के साथ-साथ विकसित क्षेत्रों और पिछड़े क्षेत्रों के बीच सांस्कृतिक संबंध बनाने में भी मदद मिली। अशोक का सांस्कृतिक साम्राज्य केन्द्र के साथ-साथ कलिंग, दक्षिण तथा उत्तरी क्षेत्रों तक फैला हुआ था।
इन सब से परे इतिहास में अशोक का महत्व उसकी शांतिवादी नीति, अनाक्रमणकारी नीति तथा सांस्कृतिक विस्तार के कारण है। इसके पूर्व भारतीय इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है जिसका अशोक ने पालन किया हो; न ही विश्व इतिहास में इजिप्ट को छोड़कर, जहां अखनातून ने 14वीं शताब्दी ई.पू शांतिवादी नीति का पालन किया था। इतना तो निश्चित है कि अशोक इजिप्ट के इतिहास को नहीं जानता था। यद्यपि कौटिल्य ने राजा को सदैव युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए सलाह दी थी, अशोक ने इसके पूर्णतः उलट नीति का पालन किया। उसने उसके उत्तराधिकारियों को भी यही सिखाया कि वह युद्ध और आक्रमण की नीति छोड़ दे, जो कि कलिंग युद्ध तक मगध के राजकुमारों के द्वारा अपनाई जा रही थी। उसने उन्हें समझाया की शांति की नीति अपनाना समय की आवश्यकता है। अशोक लगातार अपनी नीति का पालन करता रहा। यद्यपि उसके पास संसाधनों की प्रचुरता थी और उसने अपनी सैन्य शक्ति को भी कम नहीं किया था तब भी कलिंग युद्ध के पश्चात् उसने और कोई युद्ध नहीं लडे़। इन अर्थों में अशोक अपने युग से बहुत आगे था।
हालांकि अशोक की नीति ने उसके सामंतों पर कोई विशिष्ट प्रभाव नहीं छोड़ा, जिन्हांने 232 ई.पू. के बाद स्वयं को अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र घोषित कर लिया। इसी प्रकार उसकी नीति पड़ोसियों को भी प्रभावित नहीं कर सकी जिन्होंने अशोक के शासन के मात्र 30 वर्षों के पश्चात् ही उत्तर-पश्चिमी सीमा पर अधिकार कर लिया।
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