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नैतिक और राजनीतिक अभिवृत्तियां भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
राजनीतिक संस्कृति और लोकतंत्र के बीच संबंध बहुत प्राचीन है। शास्त्रीय यूनानी राजनीतिक विचारक इसके बारे में बात किया करते थे। अरस्तू ने संयम और सहिष्णुता के महत्त्व को इंगित किया था, व साथ ही उन्होंने राजनीतिक चरमवाद और निरंकुश लोकलुभावनवाद के खतरों के प्रति सचेत भी किया था। लोकतंत्र के केंद्रीय धर्मसंकटों में से एक, विभाजन और संघर्ष को आमसहमति की आवश्यकता के साथ संतुलित करने के लिए, राजनीतिक संस्कृति के इन तत्वों का होना, आवश्यक शर्त थी।
इन तत्वों को संरचनात्मक और संस्थागत प्रलोभनों और हतोत्साहनों के द्वारा प्रेरित किया जा सकता है। हालांकि ये अभिविन्यास तब तक जीवित नहीं रह सकते जब तक कि वे केवल संभ्रांतों के ही नहीं, वरन समस्त आमजन की मान्यताओं और मूल्यों की व्यवस्था में गहराई तक संस्थापित नहीं हों।
हालांकि हाल के उपायों ने एक सफल लोकतंत्र के लिए इन चरों को विकसित करने के महत्त्व को समझा भी है और उन्हें पहचाना भी है। इन उपायों की तीन कमजोरियां हैंः
- पहला, आमजन की संस्कृति को या तो पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया गया है, या उनकी ओर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है।
- दूसरा, व्यवहार की बातें तो बहुत की जाती हैं, परंतु इस बात की कोई चर्चा नहीं की जाती कि इसे टिकाऊ मूल्यों में मजबूती से संस्थापित करने के लिए क्या किया जाए।
- तीसरा, राजनीतिक संस्कृति के अन्य तत्वों, जो आमजनता के स्तर पर बहुत प्रासंगिक हैं, को पूर्ण रूप से नज़रअंदाज़ किया गया है।
‘‘जिन लोगों हेतु सरकार का यह रूप गठित होता है, उनका उसे स्वीकार करने के लिए इच्छुक होना बहुत आवश्यक है, और उनकी सरकार गठन के प्रति अनिच्छा कम से कम इतनी तो नहीं होनी चाहिए कि वे उसकी स्थापना की कठिनता का विरोध करें। उनकी इच्छा होनी चाहिए और इसे खड़ा रखने के लिए जो भी आवश्यक हो वह सब कुछ करने की उनमें क्षमता होनी चाहिए। साथ ही उनकी इस बात के प्रति भी इच्छा होनी चाहिए कि यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति करे, और ऐसा होने के लिए जो भी आवश्यक हो वह सब कुछ करने की उनकी क्षमता भी होनी चाहिए।"
यदि एक नैतिक अभिवृत्ति व्यक्तिगत स्तर पर इस प्रश्न का उत्तर है, कि ‘‘हमें किस प्रकार जीना है‘‘, तो राजनीतिक अभिवृत्तियां इसी प्रश्न का उत्तर समाज, शासन और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के स्तर पर प्रदान करती हैं। सामूहिक नैतिकता साझा संकल्पनाओं मान्यताओं से विकसित होती है, और आमतौर पर संस्कृति या समुदाय के अंदर व्यवहार को विनियमित करने के लिए इसे संहिताबद्ध किया जाता है। विभिन्न परिभाषित कार्य नैतिक या अनैतिक कहे जाते हैं। जो व्यक्ति नैतिक कार्य करने को प्राथमिकता प्रदान करते है, उन्हें प्रचलित रूप से ‘‘नैतिक तंतु‘‘ होने वाले के रूप में जाना जाता है, जबकि जो व्यक्ति अनैतिक कार्यों में लिप्त होते हैं, उनपर सामाजिक दृष्टि से पतित का ठप्पा लग जाता है।
आज की राजनीतिक अभिवृत्तियां भारी मात्रा में धार्मिक विचारधाराओं, सामाजिक विघटन और स्वहित के संरक्षण के प्रति तीव्र रूचि का जटिल मिश्रण हैं।
2.0 अधिकार, वैधता, सहभागिता और नागरिक संस्कृति के प्रति अभिवृत्तियां
अधिकार के प्रति अभिवृत्तियां लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण चर है। ये अभिवृत्तियां निम्न तत्वों द्वारा शासित होती हैंः
‘‘लचीलापन, विश्वास, प्रभावोत्पादकता, नए विचारों और अनुभवों के प्रति खुलापन, मतभेदों और अस्पष्टताओं के प्रति सहिष्णुता, अन्य लोगों के प्रति स्वीकार्यता, और अधिकार के प्रति एक अभिवृत्ति जो न तो आंख मूंद कर विनम्र हो और न ही ‘‘विरोधपूर्वक अस्वीकार्य‘‘ हो, बल्कि ‘‘उत्तरदायी‘‘ और ‘‘सतर्क‘‘ हो
लोकतंत्र की एक और आवश्यक शर्त है लोकतंत्र की वैधता के प्रति विश्वास। किसी शासन में लोकतंत्र के निष्पादन का मूल्यांकन केवल आर्थिक संवृद्धि और सामाजिक सुधारों की दृष्टि से ही नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसका मूल्यांकन कानून व्यवस्था बनाये रखने की क्षमता, पारदर्शी शासन और कानून का शासन बनाये रखने की क्षमता की दृष्टि से भी किया जाना चाहिए। शासन में नागरिकों की भागीदारी से भी व्यवस्था की वैधता में वृद्धि होती है।
यहां भागीदारी का अर्थ है राजनीती में वास्तव में सहभागी होने का राजनीतिक जीवन का एक मानक और व्यवहारात्मक मनोवृत्ति। नागरिक संस्कृति में राजनीति में स्वयं की सक्रिय भूमिका शामिल है। इस भूमिका में केवल मतदान ही शामिल नहीं है, बल्कि इसमें उच्च स्तर की राजनीतिक रूचि, जानकारी, ज्ञान, राय बनाना, और संगठनात्मक सदस्यता भी शामिल है। जीवन के मार्ग में इन गुणों का अभाव एक अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करता है। प्रारंभिक समाजीकरण, राजनीतिक व्यवस्था की प्रतिसादिता और लोकतांत्रिक वैधता में सामान्य विश्वास कुछ कारक हैं जो नागरिक की कार्यनिर्वाह क्षमता को आकार प्रदान करते हैं।
राजनीतिक संस्कृति के अध्ययन से तात्पर्य है नागरिकों के अनेक पहलुओं का अध्ययन, जो लोकतंत्र के स्वरुप और कार्य पद्धति के बारे में भी विचार करता है, साथ ही साथ यह सरकार और व्यक्तिगत नागरिकों के बीच के संबंधों का भी विचार करता है। इस प्रकार, राजनीतिक संस्कृति एक महत्वपूर्ण निस्पंदन का कार्य करता है, जो राजनीतिक कार्य को प्रभावित करता है, क्योंकि यह राजनीति के प्रति अवधारणाओं को अवरुद्ध करता है, उन अवधारणाओं को अवरुद्ध करता है जो राजनीतिक समस्याएं निर्मित करती हैं, और इन समस्याओं के समाधान के लिए उपाय सुझाता है। किसी भी देश के नागरिकों के बीच युवाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। वे लोकतंत्र के निर्माण और उसकी मजबूती में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि हम विश्व के इतिहास की ओर देखें तो हम पाएंगे कि युवाओं का महत्त्व ऐतिहासिक रूप से बढ़ता जा रहा है। युवा विकास का वह चरण है, जिस दौरान अनिवार्य मूल्य, अभिवृत्तियां, क्रिया के लिए दृष्टिकोण, और अंततः व्यक्तित्व का निर्माण होता है। आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में युवाओं की एक धुराग्रीय भूमिका है।
2.1 आर्थिक लोकतंत्र
सर्वेक्षणों द्वारा यह पाया गया है कि लोकतंत के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता अत्यंत आवश्यक है। हालांकि एक मान्यता यह है कि अब तक लोगों के बीच आर्थिक समानता को प्राप्त नहीं किया है। आर्थिक लोकतंत्र के क्षेत्र में लोग भारत की समकालीन समस्याओं के समाधान के लिए आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का उपयोग करना चाहते हैं।
हालांकि उन्होंने औद्योगिक प्रयजनों, औद्योगिक उत्पादों के उपभोग के प्रयोजनों के लिए और एक वैज्ञानिक अभिवृत्ति के विकास के लिए आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उपयोग के बीच भेद किया है।
एक बड़ा बहुमत लोकतंत्र के राजनीतिक के बजाये आर्थिक पहलू को अधिक पसंद करता है। स्थिति गंभीर और चिंताजनक है, और इसका शासन पर भी असर दिखाई देता है। सरकार की सफलता उसके आर्थिक निष्पादन पर ही निर्भरत होगी। यदि अर्थव्यवस्था सुस्त हो जाती है, तो लोगों के समर्थन में भी कमी आना अपरिहार्य और स्वाभाविक है।
2.2 चुनाव
प्रातिनिधिक लोकतंत्र की सफलता काफी हद तक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के आयोजन पर निर्भर करती है।
भारत में बड़ी संख्या में लोगों को लग सकता है कि भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की संस्कृति नहीं है। हालांकि देश में अब तक सोलह आम चुनाव हो चुके हैं (सबसे पहला 1951-52 में हुआ था), और इन चुनावों में लोगों की भागीदारी चुनाव दर चुनाव बढ़ती हुई ही दिखाई देती है, फिर भी जनसंख्या का एक बड़ा भाग था (गरीब लोग) जिनका चुनावी प्रक्रिया में कोई सहभाग नहीं था। उनके पास वास्तव में प्रत्याशियों की कोई पसंद नहीं थी। हमारे चुनावों में धन बल और बाहुबल, सांप्रदायिकता और अन्य कदाचारों ने चुनावों के लोकतांत्रिक परिणामों को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित किया हुआ था। यदि व्यवस्था लोगों की आकाँक्षाओं की पूर्ति करने में असफल रहती है तो इसका परिणाम विरोध, प्रदर्शनों और हिंसा में होता है। अतः बढ़ी हुई भागीदारी भ्रामक है, और यह आवश्यक रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की चिंताओं को बढ़ाती नहीं है। श्री टी.एन. शेषन (1990 से 1996 तक मुख्य निर्वाचन आयुक्त) जैसे ऊर्जस्वी अधिकारियों ने समय-समय पर व्यवस्था में सुधार करने के प्रयास किये जिनमें उन्हें मध्यम से उच्च दर्जे की सफलता प्राप्त हुई।
2.3 समानता
समानता लोकतंत्र के सबसे अनिवार्य घटकों में से एक है। वास्तव में देखा जाए तो लोकतंत्र समानता के सिद्धांत पर ही आधारित है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत के लोगों के इस पवित्र संकल्प को व्यक्त करती है कि देश के सभी नागरिकों के लिए ‘‘न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दर्जे और अवसर की समानता सुनिश्चित करना।‘‘ संविधान में मौलिक अधिकारों का भी प्रावधान किया गया है, जिनमें से एक मौलिक अधिकार सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता सुनिश्चित करता है, साथ ही यह मौलिक अधिकार ‘‘केवल धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी भी आधार पर‘‘ किसी भी नागरिक के विरुद्ध भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
हालांकि भारत, एक ऐसा देश है जो संस्थागत असमानताओं के लिए जाना जाता है। जनसंख्या का एक बड़ा भाग अनेक ऐतिहासिक विकलांगताओं में पिस रहा है और वे सभी परिकलित दमन और जानबूझकर किये गए शोषण से पीड़ित हैं। हमारी व्यवस्था में ऐतिहासिक काल से उत्सर्जित सामाजिक वि.तियों को दूर करने के लिए भारत ने आरक्षण का उपाय किया है। आरक्षण का उद्देश्य है वंचित समुदायों की उन्नति और उनका हमारे राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा में एकीकरण।
आधुनिक भारतीय समाज में, आरक्षण एक अत्यंत विभाजक मुद्दा बन गया है। कोटे विशेष रूप से नवोन्नत वर्ग के लिए लाभ और विशेषाधिकारों के स्रोत बन गए हैं। वे जातिगत ईर्ष्या और शत्रुता का कारण बन गए हैं, जो समाज के विघटन के खतरे को बढ़ा रहे हैं। उन्नत और आधुनिक बनने के बजाय अनेक जातियां और समूह पिछडे़ घोषित किये जाने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं! हालांकि अब स्नेक समुदायों और गुटों ने आरक्षण नीति के विवेकीकरण की मांग करना शुरू कर दिया है। वे एक सुलभ और सस्ती गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ ही वे वंचित बच्चों, युवाओं और वयस्कों की सहायता के लिए सकारात्मक कार्य योजनाओं को अधिक तरजीह दे रहे हैं, फिर चाहे उनकी जाति, पंथ या लिंग कोई भी क्यों न हो। इन सब के ऊपर यह अवधारणा भी बढ़ती जा रही है कि चुने हुए प्रतिनिधि केवल अपने हितों की पूर्ति करने में व्यस्त हैं।
आधुनिक समाजों में राजनीतिक दल राजनीति की प्रमुख संरचनाएँ हैं। लोकतंत्र में एक राजनीतिक दल व्यक्तियों का वह समूह या गुट है जो चुनाव लड़कर, सामाजिक हितों को जुटाकर, और राजनीतिक विचारधाराओं की पैरवी करके राजनीतिक सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा करता है, और इस प्रकार नागरिकों को राजनीतिक व्यवस्था के साथ जोड़ता है। लोकतंत्र की सफलता काफी हद तक राजनीतिक दलों की क्रियाशीलता पर निर्भर होती है।
3.0 नैतिक और राजनीतिक दर्शन में उभरती हुई नई प्रवृत्तियां
पिछले लगभग पचास वर्षों के दौरान नैतिक और राजनीतिक दर्शन में दो अच्छी प्रवृत्तियां उभर कर सामने आई हैं। ये हैं विशेष मूलभूत तत्वों को अस्वीकार करने की प्रवृत्ति, और विशेष मामलों के विषय में अंतर्ज्ञान का उपयोग करने का प्रयास ताकि नए और अक्सर रहस्यमय नैतिक सिद्धांतों की ओर जाये जा सके जैसे दोहरा प्रभाव।
3.1 विशेष मूलभूत तत्वों की अस्वीकृति
प्राचीन विशेष मूलतत्ववाद के पैरोकारों ने मूलभूत मान्यताओं और अन्य गैर मूलभूत मान्यताओं के बीच के एक महत्वपूर्ण अंतर को देखा था। इसका औचित्य सीमित संख्या में विशेष मूलभूत मान्यताओं से शुरू होना था, और वहां से इसे गैर-मूलभूत मान्यताओं की ओर आगे बढ़ना था। मूलभूत मान्यताएं या तो स्वयं ज्ञात थीं, या इन्हें अनुभव के आधार पर सीधे न्यायोचित ठहराया जा सकता था। गैर-मूलभूत मान्यताएं तभी न्यायोचित मानी जाती थीं जब उनके लिए उन अन्य बातों से एक तर्क दिया जाता था जिन्हें मानने के बारे में व्यक्ति न्यायोचित था। विशेष मूलतत्ववादियों ने विशेष मूलभूत की उन तार्किक पद्धतियों के बीच भी एक महत्वपूर्ण अंतर को महसूस किया जो सीधे या अंतर्ज्ञान से न्यायोचित प्रतीत होती थीं, जबकि गैर मूलभूत पद्धतियों को केवल परोक्ष रूप से ही न्यायोचित ठहराया जा सकता था।
विशेष मूलतत्ववादी यह मान कर चलते थे कि गैर मूलभूत मान्यताएं और पद्धतियाँ तभी न्यायोचित थीं जब वे मूलभूत पद्धतियों का उपयोग करते हुए विशेष मूलभूत तत्वों से उत्पन्न की जा सकती थीं। मूलभूत मान्यताएं और पद्धतियाँ इस दृष्टि से मूलभूत थीं कि हमें शुरुआत उनसे करनी है और अन्य सभी बातों को उनकी दृष्टि से या उनके सापेक्ष न्यायोचित सिद्ध करना है। वे विशेष इसलिए थीं कि हमारी अधिकांश मान्यताएं और पद्धतियाँ मूलतत्ववादी नहीं हैं। इस विचार से, जिन मान्यताओं और पद्धतियों का कोई मूलतत्ववादी औचित्य नहीं था, उन्हें अनुचित के रूप में परित्यक्त कर दिया जाता था।
शुरुआत में अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धार्मिक सहिष्णुता को केवल इसलिए स्वीकार किया गया क्योंकि इनका विकल्प केवल धर्म युद्ध था। परंतु एक बार स्वीकृत होने के बाद उनकी स्वीकृति का उन बातों पर प्रभाव पड़ता था जिन्हें लोग मानते थे। इसका परिणाम प्रतिबिंबित संतुलन के उद्देश्य से मान्यताओं के एक दूसरे के साथ परस्पर संयोजन में हुआ। जैसे ही लोगों ने अंतर्ज्ञान की स्वतंत्रता और सहिष्णुता के नैतिक और धार्मिक सिद्धांतों को स्वीकार करना शुरू किया वैसे ही उनके नैतिक और धार्मिक विचारों की पुनर्व्याख्या हो गई।
अंततः उनमें विचारों की एक अधिक सुसंगत व्यवस्था निर्मित हो गई, जिसमें सहिष्णुता और अंतर्ज्ञान की स्वतंत्रता के सिद्धांत महत्वपूर्ण मूल्य बन कर उभरे। विभिन्न धार्मिक विचारों वाले अनेक व्यक्ति अब सहिष्णुता और वैचारिक स्वतंत्रता के सिद्धांतों से सहमत हो गए, हालांकि ये सिद्धांत उनके भिन्न-भिन्न धार्मिक विचारों में अलग-अलग तरीके से समाविष्ट होते हैं, और इन्हें भिन्न-भिन्न धार्मिक सुसंगतियों के रूप में देखा जाता है।
3.2 नए सिद्धांतों की खोज
नैतिक और राजनीतिक दर्शन की दूसरी प्रवृत्ति में नए नैतिक सिद्धांतों का अंवेषण शामिल है, जिनका सामान्य सहज बोध या मामलों के निर्णयों के माध्यम से विचार किया जाता है। यहां दार्शनिक मामलों के प्रारंभिक निर्णयों या सहज बोध से शुरू करते हैं और अनुसंधान में प्रतिबिंबित संतुलन के लिए एक नुरेथियन प्रक्रिया का उपयोग करते हुए उसका औचित्य ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं।
अक्सर विचार किये जाने वाले संबंधित सिद्धांत सामान्य नैतिक विचार के लिए अपरिचित होते हैं; दोहरे प्रभाव का सिद्धांत, जिसके अनुसार किसी को नुकसान पहुंचाने का उद्देश्य रखना गलत है, परंतु यदि आप कोई कार्य करते हैं जिसके कारण वही नुकसान एक पार्श्व प्रभाव के रूप में होता है तो वह तुलनात्मक रूप से उतना गलत नहीं है; यह सिद्धांत कि दूसरों की सहायता करने वाले सकारात्मक उत्तरदायित्व उनसे कम कठोर होते हैं, जितने दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाने के नकारात्मक उत्तरदायित्व होते हैं; एक विक्षेपन सिद्धांत है जो यह मानता है कि दूसरों को नुकसान से बचाने के लिए किये गए कार्य द्वारा यदि किसी को नुकसान पहुंचाया जाए तो यह उस कार्य की तुलना में अधिक गलत है, जो हम दूसरों को नुकसान पहुंचाने के लिए अन्य किसीसे करवाते हैं। कुछ दार्शनिक नैतिक दर्शन और भाषाविज्ञान के बीच समानता देखते हैं। वे यह अंदाज लगाते हैं कि हमारा सामान्य अंतर्ज्ञान या विवेक ऐसे आतंरिक सिद्धांतों पर निर्भर करता है जिनके बारे में हम आमतौर पर अनभिज्ञ होते हैं, वैसे ही जैसे हम उन भाषाई सिद्धांताओं के बारे में अनभिज्ञ होते हैं जो हमारे सहजज्ञान संबंधी विवेक से प्रतिबिंबित होते हैं। दोहरे प्रभाव के सिद्धांत जैसे सिद्धांत की विचित्रता या प्रति अंतर्ज्ञान को शायद उस सिद्धांत की अस्वीकृति के लिए कारण के रूप में माना भी जा सकता है या नहीं भी माना जाये, और शायद अंतर्ज्ञान के उस विवेक की अस्वीकृति के लिए भी जिसपर वह सिद्धांत आधारित है।
एक परिपूर्ण जीवन के लिए निवेश की अवधारणा की दृष्टि से मूल्य के वक्र या विपत्ति के लिए ड्वॉर्किन निम्न स्पष्टीकरण देते हैं। जैसे एक भ्रुण विकसित होता है, तो उसके माता-पिता या शायद प्रकृति भी उस भ्रुण में कुछ मात्रा में निवेश करते हैं, एक ऐसा निवेश जो समय के साथ बढ़ता जाता है। जन्म के बाद, माता-पिता द्वारा और बच्चे द्वारा भी और अधिक निवेश किया जाता है। साथ ही जैसे-जैसे बच्चा परिपक्व होने लगता है, वयस्क होता है, और अपना जीवन जीता है, वैसे-वैसे इस निवेश का प्रतिफल भी बढ़ता जाता है। जीवन की हानि से संबंधित विपत्ति का स्तर अब तक किये गए निवेश का और अब तक प्राप्त प्रतिफल का प्रतिमान होता है। जब काफी बड़ी मात्रा में निवेश किया गया है, और जब प्रतिफल भविष्य में ही मिलने वाला हो, तो जीवन हानि विशेष रूप से अधिक कष्टकारक बन जाती है। वृद्धावस्था में जब अधिकांश निवेश का प्रतिफल प्राप्त कर लिया गया है, तो जीवन हानि कम कष्टकारक होती है। ड्वॉर्किन का एक अन्य सिद्धांत, कि किस प्रकार मूल्य पहले से ही विद्यमान वस्तुओं से जुड़ा होता है, और इसकी अधिकता का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं होगा, भी सामान्य विचार के एक महत्वपूर्ण पहलू को आकर्षित करता हुआ प्रतीत होता है।
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