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मूल्य सृजन में परिवार, समाज व शिक्षा की भूमिका भाग- 1
1.0 प्रस्तावना
किसी व्यक्ति के नैतिक मूल्यों और आस्था प्रणालियों के विकास के लिए शिक्षा, परिवार और समाज सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक स्तंभ होते हैं। नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक हैं संज्ञानात्मक विकास, साथियों के साथ संवाद, कारणों और तर्काधार का उपयोग, नैतिक मुद्दे और असमंजस और आत्म की भावना।
बच्चे को शिक्षित करने में माता-पिता और घर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परिवार के अन्य सदस्यों की तुलना में बच्चे का लगाव माता-पिता के प्रति अधिक होता है। माँ सबसे पहली शिक्षक होती है, घर सबसे पहला विद्यालय होता है, और माता-पिता सामाजिक व्ययहार में सबसे पहले उदाहरण होते हैं। अपने बच्चों को सही मार्ग का पालन करने के लिए प्रेरित करने के लिए माता-पिता बच्चे के प्रति अपना स्नेह प्रदर्शित करके हर संभव चीज कर सकते हैं। यदि बच्चे का पारिवारिक पालन-पोषण मजबूत हो, और यदि बच्चा सुरक्षित महसूस करता है, फिर चाहे वह एक धार्मिक परिवार हो या ना हो, फिर भी बच्चे सही मार्ग पर चलने के प्रति अधिक आत्मविश्वासी महसूस करते हैं। ऐसे बच्चों का मित्रों के चयन का निर्णय भी बेहतर होता है, और वे साथियों का दबाव सहन करने में भी अच्छी स्थिति में होते हैं। विद्यार्थियों के प्रारंभिक प्रशिक्षण पर यदि विशेष ध्यान दिया जाए तो यह ऐसी अनेक सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध बेहतर सुरक्षा उपाय प्रदान कर सकता है।
2.0 शिक्षा की भूमिका
शिक्षा, निस्संदेह व्यक्तियों और राष्ट्रों के चरित्र निर्माण और भविष्य निर्धारण की दृष्टि के सबसे शक्तिशाली साधनों में से एक है। इस प्रकार शिक्षा का संपूर्ण क्षेत्र मनुष्य के नैतिक पहलुओं के विकास पर केंद्रित है। प्लेटो ने इस बात पर जोर दिया था कि शिक्षा के प्रयासों का उद्देश्य सद्गुणों का प्रोत्साहन होना चाहिए। हर्बर्ट ने घोषित किया था कि शिक्षा का संपूर्ण कार्य, जो एक लंबा और जटिल प्रशिक्षण है, को एक विशेष बात पर केंद्रित होना चाहिए, जिसका सारांश ‘‘नैतिकता‘‘ की संकल्पना में है। महात्मा गांधी कहते हैं, ‘‘हृदय की शिक्षा, या नैतिक शिक्षा, प्रदान किया जाने वाला प्राथमिक कार्य है। यदि हम व्यक्ति का चरित्र निर्माण करने में सफल हुए, तो समाज अपना ख्याल स्वयं रख लेगा।‘‘ बट्र्रेंड रसेल के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है ‘‘चरित्र निर्माण।‘‘
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1964-66) ने शिक्षा की भारतीय संकल्पना को निम्न शब्दों में सारांशित किया है। ‘‘भारतीय परंपरा के अनुसार शिक्षा केवल आजीविका अर्जित करने का साधन मात्र नहीं है। न ही यह विचारों की पौधशाला या नागरिकता के लिए कोई विद्यालय है। यह जीवन की भावना में एक दीक्षा है, सत्य की खोज़ और सदाचार के अभ्यास में मानवी आत्माओं का प्रशिक्षण है।‘‘
महात्मा गांधी कहते हैं, ‘‘शिक्षा का लक्ष्य तीन ‘‘एच‘‘ का विकास करना हैः हाथ, मस्तिष्क और हृदय (हैंड, हेड एंड हार्ट)‘‘। वे आगे कहते हैं, ‘‘इस प्रकार शिक्षा आत्मा की जागृति है। इसे उनका वास्तविक गुरु और संरक्षक बनना था, जिसे उनके दिलों को छू लेना चाहिए। उसे उनकी खुशी साझा करनी ही चाहिए।‘‘ धार्मिक विचारों के मामले में गांधीजी काफी उदारवादी थे। वे नैतिकता में विश्वास रखते थे। आदर्शवादी केवल नैतिक और धार्मिक शिक्षा के बारे में ही विचार करते हैं। वे निरपेक्ष मूल्यों, विश्वास, सौंदर्य और सहृदयता में विश्वास करते थे। शिक्षा का केंद्रीय प्रयोजन है चरित्र निर्माण। किसी व्यक्ति के मन को शिक्षित करना, और उसकी नीतिमत्ता को शिक्षित नहीं करना, समाज के लिए एक खतरे को शिक्षित करने के समान है।
थिओडोर रूज़वेल्ट कहते हैं, ‘‘शिक्षा एक निरंतर और गतिमान प्रक्रिया है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका परिणाम व्यक्ति के समग्र विकास में होता है, और यह ‘‘एक स्वस्थ शरीर में एक स्वस्थ मन‘‘ का निर्माण करती है। यह स्थाई मूल्यों को खोज़ने और व्यवहार में संशोधन करने में सहायक होती है।‘‘
‘‘विश्वविद्यालय का प्रथम कर्तव्य है ज्ञान की शिक्षा देना, न कि व्यापार की। चरित्र की शिक्षा देना, न कि नियमवाद की‘‘ - विंस्टन चर्चिल।
शिक्षित व्यक्ति वे होते हैं जो किसी भी परिस्थिति में बुद्धिमानी और साहस से चयन कर सकने में सक्षम हैं। यदि उनमें अच्छे और बुरे, ज्ञान और मूर्खता, सद्गुणों और दुर्गुणों के बीच अंतर करने की क्षमता है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके पास किसी प्रकार की शैक्षणिक पदवियाँ हैं या नहीं, और वे शिक्षित हैं। इच्छाशक्ति को विकसित करने के लिए, और नैतिक दृष्टि से एक अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए जीवन-केंद्रित आचारशास्त्र से निपटना आवश्यक है।ऐसे अनेक मनोवैज्ञानिक साक्ष्य और प्रमाण उपलब्ध हैं जो बताते हैं कि नैतिकता सीखी जाती है, और इसे नियंत्रित और निर्देशित भी किया जा सकता है। आवेगों, नैतिक नियमों और सिद्धांतों को नियंत्रित करने की सीख सिद्धांतों के नई स्थितियों में अनुप्रयोग का बहुमूल्य मार्गदर्शक है। स्वामी विवेकानंद के लिए शिक्षा का लक्ष्य है ‘‘मानव का निर्माण।‘‘ इसका अर्थ है एक संपूर्ण नए मानव का निर्माण।
2.1 शिक्षा के लक्ष्य
1. नैतिक लक्ष्य (Moral Aim): अनुदेश के माध्यम से शिक्षक को बच्चे में ऐसे उच्च गुणों का विकास करना चाहिए जिनके माध्यम से बच्चा अपने हल्के आवेगों पर नियंत्रण करने में सक्षम बन सके। बच्चे के नैतिक चरित्र में परिवर्तन करना चाहिए और उसके अंदर सामाजिक दृष्टि से वांछनीय नैतिक सदाचार का निर्माण करना चाहिए। नैतिक या नीतिपरक लक्ष्य सर्वोच्च है क्योंकि यदि ‘‘नैतिकता‘‘ को व्यापक अर्थों में लिया जाए तो इसे सभी लक्ष्यों के साथ समायोजित किया जा सकता है।
2. सामाजिक लक्ष्य (Social Aim) : मेकइलहिनी और स्मिथ के अनुसार, चरित्र शिक्षा में निम्न दो तत्व समाविष्ट होते हैं - पहला, उचित दृष्टिकोण का विकास करना, और दूसरा, प्रतिक्रियाएं विकसित करना। यह एक व्यापक कार्य हैः सूक्ष्म कार्यों में विद्यार्थियों को समृद्ध बनाना, जिनमें विद्यार्थियों को सूक्ष्म सामाजिक व्यवहारों और सामाजिक संस्कृतियों में समृद्ध बनाना शामिल है। इसमें एक संतोषजनक और संतुष्टि प्रदान करने वाले सामाजिक समायोजन के निर्माण का विकास करना, और अधिक महत्वपूर्ण कार्य यह है कि जीवन को उन आध्यात्मिक गुणों, व्यवहारों और नैतिक स्थितियों के समक्ष आने वाली प्रतिक्रियाओं में समृद्ध बनाना जो चरित्र विकास की दैनंदिन प्रक्रियाओं से उठती हैं।
3. व्यवहारात्मक उद्देश्य (Behavioural Aim): चरित्र का संबंध व्यक्ति के अच्छाई या बुराई के प्रति दृष्टिकोण से है। चरित्र व्यक्तित्व का एक आतंरिक गुण है, परंतु यह बाह्य चिन्ह से व्यक्त किया जाता है, जिसे प्रकट कार्य या व्यवहार कहा जाता है। चरित्र व्यक्तित्व का एकमात्र गुण है जिसका संबंध नैतिकता से है। व्यक्तित्व से हमारा तात्पर्य उस सबसे है जो एक व्यक्ति में निहित है। चरित्र दृष्टिकोणों और प्रतिक्रियाओं के उन क्षेत्रों में स्थित होता है जो इस व्यक्तित्व के पास हैं। ये दृष्टिकोण और प्रतिक्रियाएं बौद्धिक और भावनात्मक दोनों होती हैं। ये वे विचार होते हैं जो तब देखे जाते हैं कि जीवन की किसी वास्तविकता का सामना होने पर व्यक्ति जैसे व्यक्ति सोचता है, महसूस करता है और प्रतिक्रिया देता है, चाहे यह वास्तविकता दार्शनिक हो या व्यक्तिगत हो।
4. धार्मिक लक्ष्य (Religious Aim): भाटिया एंड भाटिया (1986) ने महात्मा गांधी को उद्धृत किया है - ‘‘सभी धर्मों में नैतिकता के मूल सिद्धांत समान हैं। धर्म के माध्यम से ही युवाओं के पैर ‘‘अंतिम मूल्यों के मार्ग‘‘ पर जमाये जा सकते हैं।‘‘ धर्म की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है। इसे एक अलौकिक, एक सामाजिक या नैतिक व्याख्या प्रदान की गई है। सरल शब्दों में, यह धर्म जीवन के आध्यात्मिक मूल्यों, और परमात्मा के साथ मनुष्य के मानवी व्यक्तित्व के संबंध को परिलक्षित करता है। धार्मिक शिक्षा प्रत्येक शिक्षार्थी को एक ऐसा विश्वास प्रदान करेगी जो उसकी दृष्टि को उसके लक्ष्य पर स्थिर रखेगी, जो कार्यों और विचारों को गतिशील बनाएगी, और ईश्वर के प्रति विश्वास की भावना को बढ़ाएगी। जबकि लड़कों और लड़कियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण शामिल करना महत्वपूर्ण है, वहीं यह भी आवश्यक है कि उन्हें एक इंसान के रूप में विकसित होने की आवश्यकता, और आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित होने के प्रति भी जागरूक किया जाए। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी में जिस गति से वृद्धि हो रही है उसे नियंत्रित करने के लिए यह संतुलन बनाये रखना आवश्यक है।
5. पर्यावरणीय लक्ष्य (Environmental Aim): गांधीजी ने कहा था, मनुष्य को तब तक मनुष्य या सभ्य नहीं माना जा सकता जब तक वह केवल अपने मनुष्य बांधवों को ही नहीं बल्कि संपूर्ण रचना को एक मित्र के रूप में देखने की क्षमता विकसित नहीं कर लेता। फैनिंग के अनुसार, पर्यावरणीय मामलों की शिक्षा मनुष्य को समग्र पर्यावरण के संरक्षण और उसमें सुधार करने के लिए जिम्मेदार व्यवहार करने की शिक्षा देती है। पर्यावरणीय शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता और समझदारी, पर्यावरण के साथ हमारा संबंध, और जीवन की गुणवत्ता के अस्तित्व और उसमें सुधार सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक चिंताओं और ज़िम्मेदार व्यवहार को प्रोत्साहित करना है।
2.2 शिक्षा के माध्यम से मूल्यों का विकास
हमारे शिक्षा कार्यक्रमों के मूल्यों के पहलू को महत्वपूर्ण बनाने के लिए शिक्षा कार्यक्रमों में निम्नलिखित विचारों को समाविष्ट किया जा सकता है।
- हमारे शिक्षा कार्यक्रमों के मूल्यों के पहलू को महत्वपूर्ण बनाने के लिए शिक्षा कार्यक्रमों में निम्नलिखित विचारों को समाविष्ट किया जा सकता है।
- आत्मसम्मान, स्वयं की आत्मप्रगति, अपनी विशिष्टता और आत्मविश्वास के प्रति जागरूकता को विकसित करना
- निःस्वार्थता, सहयोग की भावना और साझा करने की भावना को प्रोत्साहित करना
- स्वयं की, और दूसरों की संपत्ति के प्रति सम्मान की भावना विकसित करना
- युवाओं के भौतिक, भावनात्मक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास में घर के योगदान के प्रति समझदारी स्वच्छता, समय की पाबंदी, परिष्कृत भाषा के उपयोग, शिष्टाचार, उचित आचरण बड़ों के प्रति सम्मान के विषय में स्पष्ट दिशा प्रदान करना
- अपने आसपास के वातावरण को समझना - मलिन बस्तियों, गांवों, अस्पतालों, अनाथाश्रमों, और वृद्धाश्रमों के दौरे करना
- अन्य लोगों की आवश्यकताओं के प्रति जागरूकता
- नागरिकता के भाव, स्वयं के समुदाय के एक भाग होने के प्रति जागरूकता और नागरिक कर्तव्यों को प्रोत्साहित करना
- अपने गुण दोषों के प्रति जागरूकता, साथ ही अन्य लोगों के गुण दोषों के प्रति जागरूकता
- मित्रों, सहपाठियों, और वंचित लोगों के प्रति स्नेह भाव रखना
- अपनी क्षमताओं और प्रतिभा को पहचानना, शिक्षा, खेलों में अनुशासनात्मक सीख, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना
- दूसरों का अंधे होकर अनुसरण करने के बजाय स्वतंत्र सोच विकसित करना
- महान हस्तियों के साथ रूबरू होना, या उनके जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त करना
- संविधान, अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना
- मानव प्रतिष्ठा और न्याय, देश भक्ति, आतंरिक एकात्मता, अंतर्राष्ट्रीय समझदारी के प्रावधानों की जानकारी होना
- पर्यावरण का संरक्षण
- सांस्कृतिक विरासत का प्रसार
- मूल्यों के माध्यम से मानवी व्यवहार में संशोधन करना
- अपने गांव, शहर, राज्य और देश को जानना
- सभी नागरिकों के लिए समानता और न्याय को प्रोत्साहित करना
- विभिन्न धर्मों की प्रार्थनाएं
- अन्य धर्मों की अच्छी बातों को जानना और उनके प्रति जागरूकता
- अन्य लोगों के उपयोगी विचारों और उनकी सांस्कृतिक परंपराओं की प्रशंसा करना
- मूल्य दर्शन का प्रतिपादन और प्रचार-प्रसार।
सदरलैंड ने इस बात पर जोर दिया है कि विद्यालयों को केवल नैतिकता पर विचारों की प्रगति के बारे में ही चिंतित नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें नैतिक मूल्यांकन को नैतिक व्यवहार और उसके तरीकों के साथ जोड़ने का भी प्रयास करना चाहिए। विद्यालयों का कार्य है कि वे हमारे युवाओं को स्वतंत्र रूप से काम करते हुए परस्पर निर्भरता, प्रेम और सेवाभाव के माध्यम से तुलना करने के कौशल जैसे मूल्यों की शिक्षा दें। यदि अध्यापन कक्षा प्रेम, सुरक्षा, अपनेपन, गर्मजोशी जैसे संदेश दें, ऐसे संदेश जो यह बताएं कि यही वह स्थान है जहां व्यक्ति का सम्मान होता है, उसपर विश्वास किया जाता है, जहां व्यक्ति मानवी गतिविधियों में शामिल हो सकता है, तो ऐसी कक्षाओं में शिक्षा और जीवन एक रूप हो जाते हैं। आतंरिक आनंद की खोज़ शिक्षा के सबसे प्रमुख लक्ष्यों में से एक होना चाहिए, न कि केवल भौतिक जीवन के सुखों का विकास और उनकी प्राप्ति। एक ऐसा लचीला, व्यापक और मानवी पाठ्यक्रम प्रदान किया जाना चाहिए जो विद्यार्थियों को उदात्त और उन्नति का अनुभव प्रदान करे। विद्यालयों में ऐसी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहियें जो विद्यार्थियों के अंदर मूल्यों की भावना निर्मित कर सकें, और जो उनकी प्रगति के लिए एक उपयोगी जीवन का वातावरण निर्मित कर सकें।
विद्यालयों का मुख्य सिद्धांत यह है कि वे जिम्मेदारियां साझा करने और सामुदायिक संबंधों का एक स्वस्थ वातावरण प्रदान करें। यह माना हुआ तथ्य है कि ‘‘अभ्यास उपदेश से बेहतर है।‘‘ इसीलिए प्रत्येक विद्यालय की अपनी एक ठोस अधिकार संरचना होनी चाहिए जिसके नियम, सिद्धांत और दंड़ के प्रकार स्पष्ट और रक्षा करने योग्य होने चाहिए। विद्यार्थियों को उनके मूल्यवर्धन के लिए उचित साधनों में भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
शिक्षा एक मूल्य है और विद्यालय उन्हें साध्य करने के साधन हैं। परंतु आज मूल्य वह कौशल है जिसके माध्यम से विद्यालय विद्यार्थियों को आज की बाज़ारी अर्थव्यवस्था में सफल होने के लिए प्रतियोगी बनने के लिए तैयार करते हैं। घरों, समुदायों, विद्यालयों, साथी समूहों, मीड़िया और समाज द्वारा प्रदान की जाने वाली मूल्य की रूपरेखाएँ भिन्न-भिन्न हैं और आमतौर पर ये एक दूसरे के विरोधाभासी हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीड़िया और साथी समूहों द्वारा प्रतिपादित किये गए मूल्य अनेक अवसरों पर विद्यालयों या माता-पिता द्वारा सिखाये जा रहे मूल्यों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होते हैं। इस प्रकार विद्यालयों ने अपने आपको शिक्षा के केंद्रीय उद्देश्य से दूर कर लिया है। अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की ही तरह शिक्षा का विपणन भी लाभ के उद्देश्य से किया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तित्व विकास, नैतिक चरित्र, रचनात्मक आत्म अभिव्यक्ति, लोकतांत्रिक नागरिकता, प्रतिभा का संगोपन जैसे वास्तविक उद्देश्यों को गंभीर रूप से नजरअंदाज किया जा रहा है। अतः शिक्षा के उद्देश्यों के रूबरू शिक्षा पद्धतियों के पुनर्निरीक्षण और विद्यालयों और प्रशिक्षण संस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता अनेक लोगों द्वारा महसूस की जा रही है। केवल मूल्य उन्मुख शिक्षा ही व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण, प्रेम, शांति, सद्भावना और समझदारी को प्रोत्साहित कर सकती है।
2.3.1 विद्यालय के वातावरण का महत्त्व
विद्यालय का वातावरण, शिक्षकों का व्यक्तित्व और व्यवहार और विद्यालय परिसर में प्रदान की गई सुविधाएँ मूल्य भावना के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। हम इस बात पर जोर देना चाहेंगे कि विद्यालय के संपूर्ण पाठ्यक्रम और विद्यालय के परिसर में होने वाले कार्यक्रमों और गतिविधियों में मूल्यों की गहरी पैठ होनी चाहिए। चरित्र निर्माण की जिम्मेदारी केवल सामान्य शिक्षा प्रदान करने वाले प्रभारी शिक्षक की ही नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक शिक्षक का कर्तव्य है चाहे वह किसी भी विषय का शिक्षक क्यों ना हो, और उन्हें प्रत्येक को अनिवार्य रूप से यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए। विद्यालय की सभा, पाठ्यचर्या और पाठ्येतर गतिविधियाँ सभी धर्मों के उत्सवों के समारोह, कार्यानुभव, सामुहिक खेल, विषय क्लब और सामाजिक सेवा कार्यक्रम - ये सभी सहयोग और परस्पर सम्मान, ईमानदारी और एकात्मता, अनुशासन और सामाजिक जिम्मेदारी के मूल्यों में शामिल किये जा सकते हैं। इन मूल्यों का आज के समाज में उस समय काफी महत्त्व है जब आज के नौजवान और नव युवतियां चरित्र के संकट से गुजर रहे हैं। कार्ल रॉजर्स कहते हैं, ‘‘जब एक शिक्षक कक्षा का वास्तववादी वातावरण और बिनाशर्त सकारात्मक सम्मान और सहानुभूति निर्मित करता है, जब वह व्यक्तिगत और सामूहिक रचनात्मक प्रवृत्ति पर विश्वास करता है, तो ऐसा कहा जा सकता है कि उसने शैक्षणिक क्रांति का निर्माण किया है।‘‘ यह बढ़ते पैमाने पर स्वीकार किया जा रहा है कि विद्यालयों का प्राथमिक कार्य है नैतिक मूल्यों का निर्माण, क्योंकि सभी मानवी कार्यों का दूसरों पर कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है। यह विद्यालय का कार्य है कि वह ऐसे व्यक्तियों का निर्माण करे जो मानवता के बीच अपने आपको अकेला महसूस नहीं करे। उनका मुख्य कार्य है सामाजिक दृष्टि से स्व-यथार्थवादी व्यक्तित्वों का निर्माण करना।
शिक्षा एक नैतिक कार्य है। एक संस्था के रूप में विद्यालय के माध्यम से विद्यार्थियों में हस्तांतरित किये गए मूल्यों में शिक्षा के प्रत्यय पत्र, प्रतियोगिता और उपयोगितावादी दृष्टिकोण भी शामिल हैं। सभी शैक्षणिक संस्थाएं भिन्न-भिन्न शैक्षणिक स्तरों पर आवश्यक दक्षताओं को स्वीकार करते हैं। अतः गुणवत्ता वृद्धि कार्यक्रमों का केंद्रबिंदु अनिवार्य शिक्षा योग्यता होना चाहिए, ताकि वे वास्तविक विश्व में सफल हो सकें।
2.3.2 पाठ्यक्रम गतिविधियों के माध्यम से मूल्यों का अन्तःग्रहण
शिक्षक का कार्य है सच्चे मूल्यों को प्रोत्साहित करने की इस प्रक्रिया में अपना योगदान प्रदान करना। अक्सर शिक्षक इस लालच से ग्रस्त हो जाते हैं कि वे अपने विद्यार्थियों को जीवन के लिए तैयार करने के बजाय स्वयं को विद्यार्थियों को जानकारी प्रदान करने तक ही सीमित रखते हैं। शैक्षणिक आवश्यकताओं का दबाव अक्सर सार्थक शिक्षकों के प्रयासों को दबा देता है, जो विद्यार्थियों में उच्च आदर्शों के लिए जोश भरने के लिए काफी संघर्ष करते हैं। अतः इस चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया में मूल्य संचारित करने वाले शिक्षकों का हार्दिक स्वागत होता है। विषय भी अच्छे चरित्र निर्माण का साधन बन सकते हैं। इसके कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैंः
ए. भाषाः भाषाओं में संवाद और चर्चा के दौरान शिक्षक विद्यार्थियों को उच्च और नेक विचारों को समाविष्ट करने में सहायता कर सकते हैं।
बी. सामाजिक विज्ञानः सामाजिक विज्ञानों के माध्यम से हम धर्म-निरपेक्षता, समाजवाद, कठिन परिश्रम और लोकतंत्र इत्यादि के मूल्य विकसित कर सकते हैं।
सी. भूगोलः भूगोल के माध्यम से हम संरक्षण, परिरक्षण साहसिकता इत्यादि के मूल्य विकसित कर सकते हैं।
डी. अर्थशास्त्रः इसके माध्यम से शिक्षक बचत व पैसे सही खर्च करने का महत्व बताकर व्यक्ति को समृद्ध बना सकते हैं।
ई. नागरिकशास्त्रः नागरिकशास्त्र के माध्यम हम सहयोग, परस्पर कल्याण की भावना, कानून का पालन, पर्यावरण की चिंता इत्यादि जैसे मूल्यों को विकसित कर सकते हैं।
एफ. विज्ञानः प्रकृति में विद्यमान हर वस्तु कोई न कोई शिक्षा देती है। उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं कि एक गुब्बारे में हवा भरते समय यदि उसमें अत्यधिक हवा भरी गई तो वह फूट जायेगा। उसी प्रकार यदि हम लालची हैं और बहुत अधिक भौतिक संपत्ति अर्जित कर लेते हैं, तो यह आगे-पीछे हमारे लिए समस्या का कारण बन सकती है।
जी. गणितः गणित में स्वच्छता, सटीकता, उचित नियोजन इत्यादि जैसे मूल्य प्रदान करने की व्यापक संभावना है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा और मूल्य साथ-साथ चलते हैं, और शिक्षा के प्रत्येक संकाय में मूल्य निहित हैं; यहां तक कि सह-पाठ्यक्रम भी विद्यार्थियों में मूल्य निर्माण करने का अच्छा माध्यम बन सकते हैं।
2.3.3 सह-पाठ्यक्रम के माध्यम से मूल्य निर्माण
चूंकि विद्यार्थी अपना काफी समय विद्यालयों में बिताते हैं, अतः आवश्यक है कि हमें मानव विकास के व्यक्तिगत, भावनात्मक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में नए लक्ष्यों को निर्धारित करना होगा। डॉ. एस. राधाकृष्णन् (भारत के दार्शनिक राष्ट्रपति) ने कहा था ‘‘हमें बच्चों की प्रतिभा को जानना होगा और संपूर्ण सामथ से उन्हें वह बनने में सहायता करनी होगी जो वे बनना चाहते हैं। मशीन रचना करती है। जबकि जीवित आत्मा निर्माण करती है। गीत, नृत्य और साहित्य रचनात्मक गतिविधियां हैं।‘‘ सह पाठ्यक्रम निश्चित रूप से विद्यालय के सुचारू संचालन में सहायक होते हैं, और ये बच्चों को सशक्त, स्थिर और रचनात्मक बनाते हैं। सह पाठ्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी जिज्ञासा बढ़ाती है, रूचि निर्माण करती है और मूल्य पैदा करती है। जो मूल्य सह पाठ्यक्रमों द्वारा निर्मित किये जा सकते हैं, निम्नानुसार हैंः
- शारीरिक मूल्यः शारीरिक गतिविधियां कुछ मूल्यों के शरीर के सामान्य शारीरिक विकास और मांसपेशियों के विकास में सहायक होती हैं, जैसे खेल, सामूहिक कवायद, एनसीसी, एनएसएस, एनजीसी, तैराकी, नाव खेना, योग व्यायाम, बागवानी इत्यादि।
- मनोवैज्ञानिक मूल्यः सह पाठ्यक्रम बच्चे को मनोवैज्ञानिक क्षतिपूर्ति प्रदान करते हैं। वे भावनाओं के प्रशिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संचित भावनाओं को इन गतिविधियों के माध्यम से निकास का रास्ता प्राप्त होता है। जब मन भावनात्मक बोझ से मुक्त होगा तो पर्याय, सूक्ष्मता, निर्धार, आत्मनियंत्रण, साहस इत्यादि केंद्र में आ जायेंगे।
- नागरिक मूल्यः स्वशासन, छात्र परिषद, स्वच्छता, क्लब, लाल रिबन क्लब इत्यादि जैसे विभिन्न गतिविधि क्लबों के संगठन, विभिन्न समितियों की सदस्यता इत्यादि प्रयासों में सातत्य और कार्यों की पूर्णता में जिम्मेदार व्यवहार प्रदान करते हैं।
- सामाजिक मूल्यः सह पाठ्यक्रम गतिविधियां सामाजिक वातावरण, समूह भावना के विकास, सहयोग की भावना, सामाजिक एकता, सहयोग,सहनशीलता, बंधुभाव, सद्भाव में संपन्न की जाती हैं। स्काउटिंग, प्राथमिक चिकित्सा, रेड क्रॉस, श्रमदान इत्यादि जैसी गतिविधियां सामाजिक झुकाव और जरूरतमंदों के प्रति दयाभाव विकसित करती हैं।
- नैतिक मूल्यः खेलों के माध्यम से विद्यार्थियों में एकात्मता, शुचिता, निष्पक्षता, ईमानदारी और निष्पक्ष खेल भावना का विकास होता है।
- शैक्षणिक मूल्यः वाद-विवाद, चर्चासत्र इत्यादि जैसी सह पाठ्यक्रम गतिविधियाँ कक्षा कार्य की अनुपूरक बन जाती हैं, और पुस्तकी ज्ञान को अधिक व्यापक बनाती हैं। संगोष्ठियां, वाचन और विद्यालय पत्रिकाओं के प्रकाशन जैसी साहित्यिक गतिविधियाँ विभिन्न पहलुओं, ज्ञान और भाषा कौशल में वृद्धि करती हैं, और उन्हें समृद्ध बनाती हैं।
- व्यवसायिक मूल्यः फोटोग्राफी, क्ले मॉड़लिंग, एल्बम निर्माण, सिक्कों या डाक टिकटों का संग्रह, दर्जी काम, बागवानी, बुनाई, और इस प्रकार के हस्तशिल्प जैसी खाली समय की गतिविधियाँ या शौक बच्चों में उन्हें व्यावसायिक विशेषताओं की सुविधा प्रदान करती हैं, साथ ही उनमे रचनात्मकता भी विकसित करती हैं।
- संस्कृति मूल्यः अभिनय, लोक नृत्य, प्रतियोगिताएं, सामाजिक और धार्मिक कार्यों के समारोह इत्यादि हमारी संस्कृति की झलकियाँ प्रस्तुत करती हैं, जो हमारी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण, विकास और संचरण कर सकती हैं। सौंदर्य और मनोरंजक मूल्यः खेल, सांस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य, नाटक इत्यादि दैनंदिन कार्यों के दौरान मनोरंजन प्रदान करते हैं। चित्रकला, चित्रकारी, फैंसी ड्रेस, ललित कला, मॉडल्स को तैयार करना और फ्लो शो इत्यादि सौंदर्य संवेदनशीलता को विकसित करते हैं।
- अनुशासनात्मक मूल्यः गतिविधियों के संबंध में विद्यार्थियों को अनेक नियमों और विनियमों का पालन करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। इस प्रकार वे स्वयं में आत्म अनुशासन और जिम्मेदारी की भावना विकसित करते हैं।
- एकात्मता का मूल्यः यह विभिन्न देशों और धर्मों के महापुरुषों के जन्मदिन मनाने के माध्यम से विकसित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र दिवस, विश्व शिक्षा दिवस इत्यादि जैसे विशिष्ट दिवसों के समारोह विद्यार्थियों में बडे़ पैमाने पर मानवता की एकात्मता की भावना विकसित कर सकते हैं, और अंतर्राष्ट्रीय समझ की भावना के विचार विकसित कर सकते हैं।
2.3.4 मूल्य निर्माण में शिक्षकों की भूमिका
यदि समकालीन शिक्षा को मूल्य आधारित बनना है, तो यह तब तक नहीं किया जा सकता जब तक शिक्षक स्वयं जीवन के स्थायी मूल्यों को समझेंगे नहीं, उन्हें मान्य नहीं करेंगे और उन्हें बनाये नहीं रखेंगे। इसमें शिक्षक किसी प्रकार का बहाना नहीं बना सकते। यदि व्यक्ति स्वयं इन मूल्यों का पालन नहीं कर सकता तो उसे शिक्षक के व्यवसाय में नौकरी नहीं करनी चाहिए। यह हमारे जीवन और भावी पीढ़ी के लिए एक अभियान और दूरदृष्टि है। वर्तमान युग के शिक्षकों में इस प्रकार की भावना निर्माण करने की आवश्यकता है।
प्रत्येक शिक्षक पहले एक नैतिक शिक्षा प्रदान करने वाला शिक्षक है, और बाद में अपने विशिष्ट विषय का शिक्षक है। किसी भी शैक्षणिक संस्था में बच्चों में नैतिकता की संवृद्धि और विकास के लिए यह एक प्राथमिक और बुनियादी पूर्वशर्त और आवश्यकता है। शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे अपने विचारों और आदर्शों के माध्यम से बच्चों के लिए स्वयं को एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करें। यह बच्चों में उनके अहंकार आदर्श को विकसित करने में सहायक होगा। विद्यालयों में सह पाठ्यक्रम गतिविधियों के समन्वय में शिक्षकों की भूमिका एक नियोजक, नेता, एक संयोजक, एक रिकॉर्डर और मूल्यांकन करने वाले, एक प्रबंधक, एक निर्णायक, एक सलाहकार, एक प्रेरक, एक संवाद साधने वाले और समन्वयक की होती है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि नैतिक मूल्य का अभाव ही अशांति का कारण है, और भारत के सामाजिक ताने-बाने के पतन का कारण है। युवाओं में बेचैनी अपराधों का प्रमुख कारण है। खुलापन, अनावश्यक तत्वों तक आसानी से पहुँच, और आत्मनियंत्रण का अभाव समाज के हानिकारक घटक बनते जा रहे हैं। युवाओं को सही दिशा की ओर निर्देशित किया जाना चाहिए। शिक्षा को विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास की दिशा में केंद्रित होना चाहिए, क्योंकि नैतिक मूल्य केवल मनुष्य नहीं बल्कि एक परिपूर्ण मानव बनाने में सहायक होते हैं। यह उन्हें उनकी भविष्य की भूमिका तैयार करते हैं। यदि इसका सही ढ़ंग से विश्लेषण किया जाए तो हम देखते हैं कि नैतिक मूल्यों का अभाव ही भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है। जब हमारे निहित स्वार्थ सामाजिक कल्याण से ऊपर हो जाते हैं, तो इस प्रकार की घटनाएँ होती हैं। हमें इन्हें रोकना है, क्योंकि यदि नैतिक मूल्य रसातल की ओर चले जायेंगे तो इसका परिणाम समाज के पूर्ण पतन में हो सकता है।
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