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मानवीय मूल्य भाग - 2
2.0 भारतीय दर्शन में मूल्य
भारतीय दार्शनिक प्रणालियां स्पष्ट रूप से पुरुषार्थ के रूप में मानवता के उद्देश्यों को प्रतिपादित करती हैं, जो निम्नानुसार हैं; धर्म (नीतिपरायणता और कर्तव्य), अर्थ (संपत्ति), काम (वासनाएं), मोक्ष (मुक्ति)।
भारतीय दर्शन के अनुसार मानवी मूल्यों का आध्यात्मिक आधार है। मनुष्य को केंद्रीय मूल्य व्यवस्था के अनुरूप बनने के लिए आठ यौगिक संकायों की सिफारिश की गई है। ये निम्नानुसार हैंः
- यम (आत्मनियंत्रण)
- नियम (नियमों का पालन)
- आसन (बैठी मुद्रा)
- प्राणायाम (श्वास नियंत्रण)
- प्रत्याहार (वस्तुओं से इंद्रियों की दूरी)
- ध्यान (प्रगाढ़)
- धारण (विचारों पर नियंत्रण)
- समाधि (भव्य सचेतन अवस्था)
पांच यम आध्यात्मिक जीवन की नीवें हैं। यमों के पालन का अर्थ है सच्चे आदर्शों और सिद्धांतों का पालन। सकारात्मक आदतें विकसित होती हैं जो मनुष्य स्वाभाव को परिवर्तित कर देती हैं। जब यमों का सही ढ़ंग से अभ्यास किया जाता है तो हृदय ब्रह्माण्डीय आनंद, सद्भाव और प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता है।
2.1 यमों का क्रम
पांचों यमों का एक सविचार क्रम है। अहिंसा सबसे पहले आता है, क्योंकि व्यक्ति को सबसे पहले अपने पाशवी स्वभाव को दूर करना आवश्यक है। केवल अहिंसा के माध्यम से ही व्यक्ति योग के अभ्यास के अनुकूल बनता है। उसके बाद आता है सत्य। मनुष्य को सत्य या ब्रह्मण को हमेशा याद रखना चाहिए। उसके बाद आता है अस्तेय या चोरी करने से बचना। क्योंकि व्यक्ति को नैतिक चेतना विकसित करनी है अतः उसे सत्य और असत्य, नीतिपरायणता और अधर्म का ज्ञान होना चाहिए, और उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि सब कुछ एक ही है। ब्रह्मचर्य, जो चौथा याम है, एक दिव्य विशेषता है। इसके अभ्यास के माध्यम से व्यक्ति अब महामानव बनने की ओर अग्रसर है। पांचवां यम है अपरिग्रह। मनुष्य अब तृष्णा, अनावश्यक इच्छाओं, किसी वस्तु की प्राप्ति और उसका आनंद लेने की इच्छा से मुक्त है, और उसका हृदय कई गुना विशाल हो गया है।
अहिंसाः अहिंसा का महत्त्व किसी जीव को चोट पहुंचाने से कहीं अधिक है। अहिंसा का अर्थ केवल गैर-हत्या नहीं है। यह परिपूर्ण हानिहीनता और सकारात्मक प्रेम है। इसका अर्थ है किसी भी जीव को सूक्ष्म से सूक्ष्म हानि पहुंचाने के विचार से भी दूर रहने की स्थिति। अभ्यासक को द्वेषपूर्ण दृष्टि का भी त्याग करना आवश्यक है। उपरोक्त नियम का कोई बहाना या अपवाद नहीं है। भिखारियों, नौकरों या हीन व्यक्तियों के प्रति कठोर शब्द भी हिंसा है।
सत्यः यमों के क्रम में अगला है सत्य। विचार का शब्द के साथ मेल होना चाहिए और शब्द का कार्य के साथ। इसे सत्य कहते हैं।
सत्य के तेरह रूप हैंः सत्यवचन, समान दृष्टि, आत्मसंयम, ईर्षापूर्ण अनुकरण का अभाव, क्षमाशीलता, शालीनता, सहनशीलता, ईर्षा का अभाव, परोपकार, चिंतनशीलता, स्वार्थरहित परोपकार, अव्यग्रता, और अटूट और करुणामय हानिहीनता।
सत्य में सकारात्मक सिद्धांतों के पालन की शक्ति भी निहित है। सत्य बोलो, परंतु उसे अप्रिय नहीं बनाना सनातन धर्म है। ऐसी मान्यता है कि यदि मनुष्य लगातार बारह वर्षों तक सत्य बोलता है, तो वह एक ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेता है जहां वह जो कहेगा वही सत्य हो जायेगा।
अस्तेयः अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना। यह आत्मसंयम का एक अन्य रूप है। मनुष्य चोरी किसलिए करता है? क्योंकि उसे कोई वस्तु चाहिए। जब वह उस वस्तु को वैध मार्ग से प्राप्त नहीं कर सकता, तो वह उसे चुरा लेता है। इच्छा, चाह या तृष्णा ही चोरी का मुख्य कारण है।
आप स्वामी की जानकारी के बिना कोई वस्तु उठा लेते हैं और यह भी नहीं चाहते कि किसी अन्य व्यक्ति को इस कार्य की जानकारी हो। यह चोरी है। कार्यालय से स्याही सोख, पिनें, कागज, पेंसिल इत्यादि उठा लेना चोरी है। अत्यधिक पैसा जमा करना, अत्यधिक खाना, जो आपकी इच्छाओं में वृद्धि करते हैं, ये सभी चोरी के रूप हैं। मनुष्य को चोरी के इन सभी रूपों से दूर रहना चाहिए। निरंतर चोरी से एक संवेदनशील मन भी कुंद हो जाता है।
ब्रह्मचर्यः चौथा यम है संयम का अभ्यास। इसके लिए आवश्यक है संयम, न कि यौन इच्छाओं का दमन। संयम की अवस्था में मन में यौन विचार आएंगे ही नहीं। यौन ऊर्जा का परिपूर्ण उदात्तीकरण हो जाता है। परंतु दमन में मनुष्य सुरक्षित नहीं है। जब कोई अनुकूल अवसर प्राप्त होता है, तो दमन की गई इच्छाएं दुगनी शक्ति से उभरेंगी, और ऐसे समय में दयनीय पतन का खतरा होता है।
अपरिग्रहः अपरिग्रह परिग्रह का उल्टा है। परिग्रह का अर्थ है लोलुपता या लालच। अपरिग्रह एक ऐसी मानसिक अवस्था है जिसमें इन्द्रियों की इच्छाएं मर जाती हैं। परिग्रह का परिणाम संरक्षण की चिंता, हानि का भय, घृणा, क्रोध, झूठ, चोरी इत्यादि में होता है। अपरिग्रह इन सभी को नष्ट कर देता है, और शांति और संतुष्टि प्रदान करता है। एक ही झटके में यह भय, मोह, निराशा, चिंता, ईर्ष्या, क्रोध, हवस और अवसाद को दूर कर देता है।
इस प्रकार, आतंरिक अनुशासन पर काफी जोर दिया गया है। भारतीय मूल्य व्यवस्था की बुनियादी संकल्पना यह है कि इसका स्वरुप पूर्ण रूप से आतंरिक है। समाज और देश व्यक्ति की अभिव्यक्तियां हैं। यदि व्यक्ति मानवी मूल्यों का अभ्यास करता है, तो वह समाज जो ऐसे ही मनुष्यों से मिलकर बना है, अपने आप ही मानवी, प्रगतिशील और शांतिपूर्ण हो जायेगा। समाज का निर्माण मनुष्य ही करता है; समाज मनुष्यों का निर्माण नहीं करता।
3.0 उपसंहार
क्रिया और व्यवहार उन विचारों पर निर्भर करते हैं जो इच्छाओं को अभिव्यक्त करते हैं। मूल्य वे गतिशील बल होते हैं जो अहम, बुद्धि और इच्छा पर निर्भर करते हैं। वे मानवीय क्रियाओं को बौद्धिक चेतना से जोड़ते हैं। मूल्य, कार्य व व्यवहार, वास्तविक और सच्चाई, जरुरत एवं विकल्प के स्थाई व अस्थाई पहलुओं के बीच का दर्पण होते हैं। इस प्रकार मानवीय मूल्य विरासत में प्राप्त एक गतिशीलता है जो मानव को ज्ञान, कौशल, संतुलन, अन्तर्दृष्टि और परिचय के क्षेत्र में आगे की ओर ले जाते हैं।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मानवीय मूल्य शाश्वत होते हैं जो मानवीय गतिविधियों को शक्ति देते हैं, संचालित करते हैं और उर्जा प्रदान करते हैं। इससे व्यक्ति और समाज दोनों का विकास होता है।
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