यूपीएससी तैयारी - नैतिकता और मौलिकता - व्याख्यान - 17

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शासन में शुचिता भाग - 1

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1.0 प्रस्तावना 

आज हम जिस भारत को देखते हैं वह 1980 के दशक के भारत से काफी भिन्न है। हम 1991 में किये गए सुधारों के पूर्व की तनावपूर्ण स्थितियों से सफलतापूर्वक बाहर आ गए हैं, हमनें सुधार कार्यसूची खुलने के बाद के समय में की गई पहलों को समेकित किया है, और वास्तव में उन झटकों से उबरे हैं। जिसमें इस तथाकथित एशियाई शेर ने अपने आपको फंसा हुआ पाया था। यहां तक कि देश अमेरिका से उभरने वाली विषाक्त परिसंपत्तियों के साथ शुरू हुई वित्तीय मंदी की नाकामयाबी से भी बचने में सफल हुआ। हालांकि अब चूंकि विश्व की लगभग सभी विकसित और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं व्यापार और वित्तीय संस्थाओं की गतिविधियों के कारण जुडी हुई हैं, अतः बाद के आर्थिक प्रभावों ने भारत के लिए कठिनाइयां पैदा कीं। 

पिछले कुछ वर्षों के दौरान खामोश बहुमत के सिद्धांतों और उदासीन भारतीय नागरिकों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन ने गंभीर चुनौती दी है, जिसका नेतृत्व तीखे शब्दों के साथ अण्णा हजारे द्वारा किया गया था। निश्चित रूप से वर्ष 2012 को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक परिभाषित करने वाला वर्ष माना जायेगा। देश में लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है, जिसके कारण विद्यमान प्रतिष्ठान य राजनीतिक वर्ग और प्रशासन के उखड़ने का खतरा पैदा हो गया है। यह स्पष्ट हो गया है कि नागरिक चर्चा चाहते हैं - एक ऐसी चर्चा जिसमें वे शासन में भागीदारी कर सकते हैं, और सरकार से जवाब मांग सकते हैं। वास्तव में यह एक पुरानी व्यवस्था का ही बदलता हुआ स्वरुप है जो झुकने वाले स्थान को नया बना रहा है। नागरिकों के एक नए समझदार और अत्यंत आग्रही वर्ग का उदय हुआ है, जो लंबे समय तक ठहरने वाला है। 

एक जागरूक, जानकार और आग्रही युवा निरंतर सरकार और उसकी संस्थाओं से उनके सभी कार्यों के लिए जवाब मांगता रहेगा। शहरी मध्यम वर्ग का यही वर्ग अब जागरूक होता हुआ प्रतीत हो रहा है, और राष्ट्र निर्माण के कार्य में स्वयं के लिए एक अधिक महत्वपूर्ण भूमिका देख रहा है।

2.0 शासन में नीतिपरक चिंताओं का विकास

लोक सेवा का संबंध सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली बिजली, स्वास्थ्य सेवा, कानून व्यवस्था बनाये रखने और ग्रामीण और शहरी अधोसंरचना जैसी सेवाओं से है। लोक सेवाओं के वितरण का अर्थ है ये वस्तुएं और सेवाएं सरकार द्वारा जनता को प्रदान करना। सेवाओं के सफल वितरण के लिए उपलब्धता, प्राप्त करने का सामर्थ्य और सेवाओं तक सुगम्यता अत्यंत आवश्यक है। इसमें नागरिक-प्रशासन परस्पर संबंध महत्वपूर्ण पहलू है। लोक सेवक वे सभी अधिकारी और कर्मचारी होते हैं जो इन सेवाओं के लोगों में वितरण के कार्य में शामिल होते हैं।

विभिन्न सभ्यताओं में शासन की नैतिक चिंताओं का विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं द्वारा समाधान किया गया है। भारतीय ग्रंथों में शासन और शुचिता के संदर्भ रामायण और महाभारत में भी मिलते हैं। प्राचीन भारत में कौटिल्य के अर्थशास्त्र की रचना की गई थी। इसे शासन पर विश्व का पहला आलेख माना जाता है। चीनी दार्शनिक लाओ त्से, कन्यूशियस और मेंशियस ने भी नैतिक शासन पर सूत्रवाक्य प्रदान किये हैं। पश्चिमी दर्शनशास्त्र में नीतिशास्त्र के तीन प्रमुख संप्रदाय हैं। अरस्तु का दर्शन, कांत का दर्शन और उपयोगितावादी दर्शन। अरस्तु के दर्शन की मान्यता है कि न्याय, परोपकार और उदारता जैसे सदगुण व्यवहार और कार्य करने के ऐसे स्वभाव हैं जो न केवल उस व्यक्ति के लिए लाभदायक हैं जिसके पास ये सद्गुण मौजूद हैं, बल्कि उस संपूर्ण समाज के लिए भी लाभदायक हैं जिसका वह व्यक्ति हिस्सा है। इमानुएल कांत के अनुसार कर्तव्य की संकल्पना नैतिकता के केंद्र में होती है। चूंकि मनुष्य तर्कसंगत होते हैं, अतः वे निर्णयात्मक रूप से अनिवार्य का पालन करने के लिए अपने कर्तव्य के ज्ञान से बंधे होते हैं, और वे उनसे संबंध आने वाले अन्य तर्कसंगत मनुष्यों का सम्मान करते हैं। उपयोगितावादी व्यवहार का दिशानिर्देशक सिद्धांत है अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख। ये सभी दर्शन मानते हैं कि शासक का कल्याण शासितों के कल्याण में ही निहित है। 

प्रशासनिक नैतिकता का दार्शनिक आधार यह है कि लोक प्रशासक राज्य के संरक्षक हैं। अतः उनसे उम्मीद की जाती है कि वे लोगों के विश्वास का सम्मान करें, न कि उसका उल्लंघन करें। लोक सेवक अधिकार के पदों पर आसीन होते हैं। अतः यह आवश्यक है कि लोक हित की अनदेखी करके स्वहित को प्रोत्साहित करने, भ्रष्टाचार में लिप्त होने, और राष्ट्र हित के विनाश का कारण बनने की उनकी प्रवृत्ति से उनकी रक्षा की जाए। लोक सेवकों के व्यवहार का पर्यवेक्षण करने और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका और विधायिका जैसी बाह्य संस्थाओं की आवश्यकता होती है। ये चिंताएं प्लेटो और अरस्तु से लेकर जे एस मिल और एडमंड ब्रुक जैसे सभी दार्शनिकों के लेखन अभिव्यक्त होती हैं। 

अध्ययन की व्यवस्था के रूप में लोक प्रशासन मानवता, समानता, न्याय, मानवाधिकारों, लिंग समानता और अनुकम्पा जैसे मूल्यों पर काफी जोर देता है। जबकि लोक प्रशासन का नव लोक प्रबंधन आंदोलन प्रशासनिक प्रभाविता पर ध्यान केंद्रित करता है, वहीं नव लोक प्रशासन आंदोलन प्रशासनिक नैतिकता की व्यापक अभिव्यक्ति पर ध्यान केंद्रित करता है। अमेरिकी राष्ट्रपरि जॉन एफ कैनेडी ने इस बात पर जोर दिया था कि ‘‘सरकार की कोई भी जिम्मेदारी नैतिक व्यवहार के उच्च मानदंड़ों को बनाये रखने की जिम्मेदारी से अधिक मूल भूत नहीं है।‘‘ 1992 में विश्व बैंक ने सुशासन के आंदोलन की शुरुआत की थी, जिसके माध्यम से प्रशासकों के नीतिपरक और नैतिक आचरण पर जोर दिया गया था। 

मैक्स वेबर ने प्रशासनिक आचरण की नीतिपरक अनिवार्यता पर प्रकाश डाला था। उनका कहना था कि प्रशासनिक कर्मचारीवर्ग के सदस्यों को परिसंपत्तियों के मालिकों से पूरी तरह से अलग होना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि संगठन की संपत्ति व्यक्तिगत संपत्ति से पूरी तरह से अलग होनी चाहिए।

प्रशासनिक आचरण में शुचिता विशिष्ट प्रक्रियाओं में सांकेतिक नैतिकता है। शुचिता शब्द में सत्यनिष्ठा, न्याय निष्ठां और ईमानदारी का मिश्रण है। लोक सेवकों के लिए शुचिता का अर्थ केवल भ्रष्ट कार्यों और बेईमान आचरण से स्वयं को दूर रखने से भी कहीं अधिक है। निष्पक्षता, जवाबदेही और पारदर्शिता जैसे मूल्यों को बनाये रखने की आवश्यकता है। शुचिता की एक अन्य व्याख्या है भ्रष्ट न किया जा सकने वाला होना। अटल ईमानदारी पर आधारित आचार संहिता का कठोरता से पालन शुचिता की कुंजी है। व्यक्तिगत और सामाजिक मूल्य शुचिता के महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व हैं। प्रत्येक लोक सेवक के लिए अनिवार्य है कि वह लोक हित को अपने मन में सर्वोच्च स्थान दे और ऐसी प्रक्रियाओं को अपनाये जो इसे प्रोत्साहित करती हों। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘कुशलता, एकात्मता, जवाबदेही और देशभक्ति के पारंपरिक लोक सेवा मूल्यों के अतिरिक्त लोक सेवकों के लिए आवश्यक है कि वे सार्वजनिक जीवन में शुचिता सहित नीतिपरक और नैतिक मूल्यों को अंगीकृत करें और मानवाधिकारों के लिए सम्मान और दलितों और पीड़ितों के प्रति अनुकम्पा विकसित करें और उनके कल्याण के प्रति समर्पित रहें।‘‘ शासन में शुचिता को प्रभावी और कुशल शासन व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकता माना जाता है। सार्वजनिक जीवन के सभी पहलुओं को शासित करने वाले प्रभावी कानून, नियम और विनियम और इन कानूनों का प्रभावी और निष्पक्ष क्रियान्वयन शुचिता निर्माण करने के लिए महत्वपूर्ण अनिवार्यताएं हैं। 

3.0 शुचिता की आवश्यकता (Necessity of Probity)

एक कुशल और प्रभावी शासन व्यवस्था के लिए और सामाजिक आर्थिक विकास के लिए शासन में शुचिता एक अनिवार्य और महत्वपूर्ण आवश्यकता है। शासन में शुचिता सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त है भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति। इसकी अन्य आवश्यकताएं हैं सार्वजनिक जीवन के सभी पहलुओं को शासित करने वाले प्रभावी कानून, नियम और विनियम, और सबसे अधिक अनिवार्य है इन कानूनों का प्रभावी और निष्पक्ष क्रियान्वयन। निश्चित ही कानून का उचित, निष्पक्ष और प्रभावी प्रवर्तन अनुशासन का एक पहलू है। भारत के लिए दुर्भाग्य से सार्वजानिक जीवन से अनुशासन तेजी से विलुप्त होता जा रहा है, और जैसा स्कैंडिनेवियाई अर्थशास्त्री-समाजशास्त्री गुन्नार म्यर्दल ने कहा है, अनुशासन के बिना किसी भी प्रकार की वास्तविक प्रगति संभव नहीं है। अनुशासन में, अन्य बातों के अतिरिक्त, सार्वजनिक और निजी नैतिकता और ईमानदारी की भावना निहित है। 

पश्चिम और पूर्व के बीच जो एक अंतर देखा जा सकता है वह यह है कि पश्चिम में जो व्यक्ति अधिक उच्च अधिकार के पदों की ओर बढ़ता है, उसमें कानून के प्रति अधिक सम्मान विकसित होता है, जबकि हमारे देश में इसके ठीक विपरीत बात। यहां उच्च अधिकार के पदों पर बैठे हुए व्यक्ति की पहचान ही यही है कि वह आसानी से कानूनों और विनियमों को नजरअंदाज कर सकता है। हम अनुशासनहीनता और झूठ की संस्कृति के दलदल में फंसते चले जा रहे हैं। सार्वजनिक और निजी नैतिकता कहीं ज्यादा मूल्यवान है। यह कि नागरिकों में अनुशासन की भावना निर्माण करना समाज, उसके नेताओं और सार्वजनिक हस्तियों का कार्य अधिक है, और यह एक ऐसा कार्य नहीं है जिसपर कानून बनाये जा सकें। भारत में इन परिस्थितियों का अनुपात भयानक रूप से बढ़ गया है। यही वह संदर्भ है जिसमें अभिनेता चिरंजीवी द्वारा 2014 के चुनावों के दौरान मतदान कक्ष में कतार का सम्मान नहीं करने जैसी छोटी घटना भी सुर्खियां बन जाती है। कतार कानून के नियम का एक प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है, और इसका उल्लंघन करना एक शर्मनाक हरकत है जो भारतीय राजनीतिज्ञों की कानून की उपेक्षा को परिभाषित करती है। 

4.0 शुचिता के सिद्धांत 

आमतौर पर शुचिता के कुछ सामान्य रूप से सर्वमान्य सिद्धांत हैं जो इस प्रक्रिया की अखंड़ता को बनाये रखने का कार्य करते हैं। ये सिद्धांत निम्नानुसार हैंः 

जवाबदेहीः वह दायित्व है जो आपको कर्तव्य किस प्रकार निष्पादित किये गए हैं। उसे स्पष्ट करने के सक्षम बनाता है। सरकार के पास ऐसे उपयुक्त तंत्र होने चाहियें जो दर्शाएं कि सरकार अपने कार्यों और निर्णयों के प्रति जवाबदेह है। 

पारदर्शिताः यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि प्रक्रियाएं जहां तक संभव हो, पारदर्शी होनी चाहियें ताकि सभी हितधारकों का परिणामों के प्रति विश्वास बना रहे। पारदर्शी और खुली प्रक्रियाएं धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के अवसरों और खतरों का भी न्यूनीकरण करती हैं। 

गोपनीयताः रोजगार की एक शर्त के अनुसार सभी लोक सेवक अपने नियोक्ताओं के प्रति एक सामान्य गोपनीयता के दायित्व के तहत बंधे होते हैं। तदनुसार सरकारी परियोजना समूह के सदस्यों को, जो स्वयं लोक सेवक होते हैं, परियोजना के संबंध में गोपनीयता शपथपत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं होती। सभी सरकारी सलाहकारों, या किसी भी तृतीय पक्ष को, जिन्हें वाणिज्यिक दृष्टि से किसी संवेदनशील जानकारी का ज्ञान होता है, उन्हें सरकार को एक औपचारिक शपथपत्र देना होता है कि वे इस जानकारी को गोपनीय बनाये रखेंगे। 

हितों के टकराव का प्रबंधनः समर्थकों को यह उम्मीद होती है कि सरकारी प्रतिनिधि निष्पक्ष और बिना किसी भेदभाव के अपने कर्तव्यों निर्वहन करेंगे, और उनके द्वारा लिए गए निर्णय स्वहित या व्यक्तिगत लाभ से प्रभावित नहीं होंगे। हितों के टकराव की स्थिति तब बनती है जहां प्रक्रिया से जुड़ा हुआ व्यक्ति, उनके विशिष्ट संपर्कों या परिस्थितियों के माध्यम से, स्वयं के लिए, या किसी तृतीय पक्ष कोई व्यक्तिगत लाभ प्राप्त प्राप्त करता है, या करता हुआ प्रतीत होता है। हितों का टकराव अक्सर अपरिहार्य होता है। बशर्ते कि उनकी पहचान प्रारंभिक स्तर पर ही कर ली जाती है, और उनपर प्रभावी कार्यवाही की जाती है, तो वे प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालते। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि प्रक्रिया से जुडे़ हुए व्यक्ति कि हितों का टकराव किस प्रकार उत्पन्न होता है और उन्हें उजागर करने की जिम्मेदारी का भी उन्हें अहसास होना चाहिए, साथ ही उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि विवादों का पर्याप्त निराकरण कर लिया गया है, और उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होता है कि विवादों का निराकरण किस प्रकार से किया गया है, और उसकी संपूर्ण प्रक्रिया दर्ज की गई है। संभावित विवादों से निपटने के लिए नीतियां पहले ही स्थापित की जानी चाहियें, बजाय इसके कि विवाद उत्पन्न होने के बाद उन्हें तदर्थ आधार पर प्रबंधित किया जाए। 

5.0 भारत में भ्रष्टाचार की समस्या 

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शासन ने घरेलू बाजार को विकसित करने के लिए व्यापक आर्थिक विनियम अधिरोपित किये य उदाहरणार्थ 1951 के औद्योगिक अधिनियम के अनुसार सभी नए औद्योगिक परिचालनों के लिए केंद्र सरकार से अनुज्ञप्ति प्राप्त करना अनिवार्य था। इस नीति ने विदेशी निवेश को सीमित कर दिया और प्रतिस्पर्धा को परिवर्तित कर दिया, और रिश्वत व्यापार करने का एक अविभाज्य अंग बन गई। सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था की अत्यधिक देखरेख के परिणामस्वरूप 1991 तक के काल को ‘‘लाइसेंस राज‘‘ के रूप में करार दिया गया था। व्यापक भ्रष्टाचार के कारण अक्सर गरीब लोगों को ही सबसे अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, जिसके कारण सार्वजनिक कार्यों और कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए प्रदान किया गया विशाल सार्वजनिक राजस्व अन्य अनुचित हाथों में पहुंच जाता था।

‘‘अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र के लिए सीएफआर के वरिष्ठ सभ्य जगदीश भगवती कहते हैं कि ‘‘ऐतिहासिक दृष्टि से भारत के भ्रष्टाचार की जडें अनुज्ञप्तियों के प्रसारण से आई है, इसका उद्देश्य था संसाधनों का मितव्ययी उपयोग सुनिश्चित करना था, ताकि आप विदेशी मुद्रा का अपव्यय नहीं करें। आज तक यही एक बात है जिसके प्रति भारतीय लोग काफी जागरूक हैंः यह कि अनुज्ञप्तियों और मंजूरियों की संस्था ही भारत में विशाल स्तर पर भ्रष्टाचार के निर्माण के लिए जिम्मेदार थी।‘‘

सरकारी दुराचार से लड़ने के लिए निर्मित पहला मुख्य कानून था भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1947 जिसका 

अधिनियमन सरकारी अधिकारियों द्वारा युद्ध के बाद पुनर्निर्माण के लिए किये गए वित्तपोषण के दुरूपयोग को रोकना था। संसद ने 1961 में भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, जिसे तब से अब तक दो बार संशोधित किया जा चुका है (अंतिम बार 1988 में), के उल्लंघन के अन्वेषण के लिए भ्रष्टाचार विरोधी ब्यूरो की भी स्थापना की थी। अंतिम परिशोधन 1980 के दशक के अंत के बोफोर्स घोटाले के प्रतिक्रिया के रूप में किया गया था, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और अन्य राजनीतिज्ञों पर स्वीडिश हथियार कंपनी बोफोर्स से विशाल रिश्वत स्वीकार करने के आरोप लगे थे। अनेक पर्यवेक्षकों का मानना है कि बोफोर्स घोटाला ही राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी की 1989 के चुनावों में हार का प्रमुख कारण था। 

भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत रिश्वत के लिए जुर्माने और पांच वर्ष तक के कारावास की सजा का प्रावधान है। परंतु अनेक विश्लेषकों का मानना है कि भारत की बेतरतीब रूप से फैली नौकरशाही और कमजोर संस्थाओं ने - भारत में राजनीतिक पार्टियों के बाद, पुलिस और न्यायिक व्यवस्था को क्रमशः दूसरी और तीसरी सबसे भ्रष्ट संस्थाएं माना जाता है - इन प्रतिबद्धताओं को नाकाम कर दिया है, और तार्किक दृष्टि से इन्होनें रिश्वत के प्रलोभनों को बढ़ा दिया है। हाल के वर्षों में छोटे पैमाने पर ‘‘उत्पीडन रिश्वत‘‘ (आवश्यक सामाजिक सेवाओं के लिए किये गए भुगतान) के भ्रष्टाचार से व्याप्त समाज राष्ट्रीय स्तर पर घोटालों में परिवर्तित हो गया है। 2012 में हिंदुस्तान द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कम से कम 42 प्रतिशत भारतीय युवाओं ने रिश्वत का भुगतान किया है।

केपीएमजी के एक प्रतिवेदन में कहा है कि भारत की कुल 68 प्रतिशत अवैध पूंजी हानि 1991 देश के आर्थिक उदारीकरण के बाद हुई है, जो दर्शाता है कि आर्थिक सुधारों ने और भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास ने ‘‘काले धन‘‘ के विदेशों में हस्तांतरण में भारी योगदान प्रदान किया है। 

5.1 समस्या के आयाम  

‘‘हाल के घोटाले केवल संख्यात्मक और गुणात्मक दृष्टि से हमने अब तक देखे किन्हीं भी घोटालों से कहीं बडे़ हैं। और इसका एक बड़ा कारण है भारत का विकास।‘‘ मिलन वैष्णव  

2013 में पारदर्शिता अंतर्राष्ट्रीय के भ्रष्टाचार के सूचकांक में 176 देशों में से भारत का क्रमांक 94 वां था, जो मंगोलिया और कोलंबिया जैसे देशों के लगभग बराबर था और चीन और श्रीलंका जैसे पडोसी देशों से नीचे था। 2007 से, जब इस प्रतिवेदन की शुरुआत हुई थी, और जब भारत इस सूचकांक में 179 वें क्रमांक पर था, देश निरंतर नीचे गिरता चला जा रहा है। हाल के अनेक उच्च दर्जे के घोटालों ने समस्या की व्यापकता को रेखांकित किया है।  

2010 से, भ्रष्टाचार के उभरते घोटालों ने सरकार की विश्वसनीयता का क्षरण किया है। 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों में निधियों के सकल त्रुटिपूर्ण आवंटन के आरोप उभरकर सामने आये, जिसकी लागत इसके बजट अनुमानों से लगभग अठारह गुना अधिक थी। खराब अधोसंरचना और अनुबंधों में की गई वित्तीय अनियमितताओं के प्रतिवेदन सतह पर आने लगे, और इस घोटाले का परिणाम कांग्रेस पार्टी के दो वरिष्ठ सदस्यों और अन्य सरकारी अधिकारियों के त्यागपत्र में हुआ। केंद्रीय सतर्कता आयोग ने दर्शाया कि निधियों के दुरूपयोग की व्यापकता लगभग 1.8 बिलियन डॉलर थी।  

इसके कुछ ही समय बाद सरकार फिर से नए विवाद में उस समय घिर गई जब लेखापरीक्षक के प्रतिवेदन ने एक विशाल दूरसंचार घोटाले को उजागर किया, जिसमें अनुमान लगाया था कि सरकार को लगभग 39 बिलियन डॉलर की हानि हुई थी, जिसने इसे देश के इतिहास के सबसे बड़े सरकारी घोटालों में से एक बना दिए। दूरसंचार मंत्री अंदिमुथु राजा, जिनपर आरोप था कि उन्होंने गलत ढं़ग से अनुज्ञप्तियों को बाजार मूल्य से कम कीमत पर बेच दिया था, ने 2010 में त्यागपत्र दे दिया (2011 में उन्हें गिरफ्तार किया गया, और 2013 में ही उन्हें जमानत पर छोड़ा गया)। इस मामले के दौरान क्रुद्ध विपक्षी दलों ने संसद को तीन हतों तक अवरुद्ध कर दिया और दिल्ली में बडे़ पैमाने पर प्रदर्शनों का आयोजन किया। 

जनता का गुस्सा तब और अधिक बढ़ गया जब 2012 में ‘‘कोलगेट‘‘ घोटाला उजागर हुआ, जिसके कारण ऐसा अनुमान लगाया गया था कि देश का लगभग 34 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ, जिसमें स्वयं प्रधानमंत्री फंसे थे। यहां तक कि भ्रष्टाचार की इस व्यापकता ने अमेरिकी सरकार को भी अपनी जद में लिया, जब 2011 में विकिलीक्स ने कुछ संदेशों को प्रकाशित किया जिनके माध्यम से बताया गया था कि कांग्रेस पार्टी के एक सहयोगी ने एक अमेरिकी कूटनीतिज्ञ को कथित रूप से नकद रकम की एक तिजोरी दिखाई थी, जिसका उद्देश्य 2008 के विवादित भारत- अमेरिकी परमाणु सौदे को संसद में पारित करने के लिए रिश्वत के रूप में उपयोग किया जाना था।  

5.2 भ्रष्टाचार का परिणाम  

एक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एक महत्वपूर्ण आयोजक के रूप में उभरे, जिन्होंने, उच्चतम स्तर पर भ्रष्टाचार की शिकायतों की समीक्षा के लिए सरकार द्वारा एक नए भ्रष्टाचार निरोधक अभिकरण (लोकपाल) की स्थापना किये जाने तक ‘‘आमरण अनशन‘‘ करने की प्रतिज्ञा की। हजारों नागरिकों ने उनके इस अभियान का समर्थन किया, और अंततः संयुक्त प्रगतशील गठबंधन के नेतृत्व वाली सरकार ने अगस्त में घोषणा की कि वह नए कानून का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति की स्थापना करेगी। संसद को महीनों तक अवरुद्ध करने के बाद अंततः भारत के निचले सदन ने 2013 के दिसंबर के मध्य में विधेयक को पारित कर दिया, जिसका कांग्रेस और भाजपा, दोनों दलों ने समर्थन किया, जिससे एकता के एक दुर्लभ प्रदर्शन के परिणामस्वरूप अण्णा हजारे का नौ दिन पुराना अनशन समाप्त हुआ। 

‘‘अंत में, भारत में भ्रष्टाचार का स्वरुप ऐसा है जो हमारी संस्थाओं के विकास को खोखला कर देता है। यह भ्रष्ट होने का एक अत्यंत महंगा मार्ग है।‘‘ जगदीश भगवती 

बढ़ती रिश्वत ने न केवल घरेलू चिंताओं को हिलाकर रख दिया है, बल्कि इसने अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों के बीच भी देश की छवि को कलंकित कर दिया है। 1947 से भारत ने अवैध पूंजी प्रवाहों (कर चोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, प्रत्याधक्रका, इत्यादि) के माध्यम से सैकड़ों करोड़ रुपये गंवाए हैं, और विश्व बैंक की 2014 की व्यापार करने की रिपोर्ट में 189 देशों में से भारत का स्थान 134 वां था। 2013 में दावोस में गैर सरकारी संगठनों ने चेतावनी दी थी कि भारत के अधोसंरचना के लिए आवश्यक निवेश और अधिक भ्रष्टाचार निर्मित कर सकता था। 

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हालांकि भ्रष्टाचार के स्तरों और भारत के आर्थिक स्वास्थ्य के बीच अनिवार्य रूप से कोई सीधा संबंध नहीं है, फिर भी भ्रष्टाचार का स्वरुप इसके विकास के लिए संक्षारक बना हुआ है। भगवती का कहना है कि ‘‘भारत जिस प्रकार से भ्रष्टाचार का अभ्यस्त रहा है यह विशेष रूप से हानिकारक है‘‘, वे भारत के किराया सृजक भ्रष्टाचार, जो साथियों के लिए एकाधिकारों का निर्माण करता है, की तुलना चीन की लाभ साझा करने की व्यवस्था के साथ करते हैं, जो विकास में रूचि लेती है। ‘‘अंत में, भारत में भ्रष्टाचार का स्वरुप ऐसा है जो हमारी संस्थाओं के विकास को खोखला कर देता है। यह भ्रष्ट होने का एक अत्यंत महंगा मार्ग है।‘‘

5.3 सुधारों के लिए अभियान  

जैसे ही भारतीय अर्थव्यवस्था की गति धीमी होती है, लगातार उजागर होने वाले भ्रष्टाचार के मामलों ने भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की अक्षमता ने जनता के गुस्से को और अधिक तीव्र कर दिया है। बदले में, जब देश नवंबर-दिसंबर 2013 में महत्वपूर्ण राज्यों के चुनावों की ओर बढ़ राजा है तब देश में भ्रष्टाचार विरोधी बयानबाजी में वृद्धि हुई है। सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी, एक नए राजनीतिक दल के रूप में उभरी है, जिसकी शुरुआत भ्रष्टाचार विरोधी मंच से हुई है, जबकि विरोधी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी सुशासन का मुद्दा उठाया है।  

इस दल ने अपने नेता नरेंद्र मोदी की साफ-सुथरी छवि का समर्थन किया है, जिनके बारे में दावा किया जाता है कि उनके गृहराज्य गुजरात के भूतपूर्व मुख्यमंत्री के रूप में किये गए सुधार प्रयास राष्ट्रीय आर्थिक विकास के उत्प्रेरक रहे हैं। इसी दौरान, मुख्यमंत्री नितीश कुमार, जो देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक, बिहार का नेतृत्व करते है, उन्हें भी सुशासन पर जोर देने के लिए काफी प्रशंसा प्राप्त हुई है।  

सीएफआर के अलीस्सा आयर्स कहते हैं कि ‘‘इस सब में जो कुछ नया है, और राजनीतिक दृष्टि से प्रासंगिक है, वह यह है कि नागरिकों के गुस्से के प्रतिक्रियास्वरूप उन राजनीतिक दलों का उभरकर आना जो स्पष्ट रूप से सुशासन पर केंद्रित हैं, और अधिक महत्वपूर्ण रूप से, प्रचार अभियान के स्वरुप में वह परिवर्तन है जो पहले जाति आधारित भाषा और सशक्तिकरण का हुआ करता था, वह अब परिवर्तित होकर सुशासन और नागरिकों को सेवाएं प्रदान करने का हो गया है।‘‘ 

सार्वजनिक पदों पर भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। 2012 में 31 प्रतिशत संसद सदस्यों और विधायकों के विरुद्ध आपराधिक प्रकरण लंबित थे। प्रचार अभियान सीमा कम है जिसके कारण भूमिगत मार्गों से चुनाव खर्च किया जाता है जो ‘‘काले धन‘‘ पर निर्भरता को बढावा देता है। अनेक विशेषज्ञ भारतीय मतदाताओं के भ्रष्टाचार के साथ जटिल संबंधों की ओर भी इशारा करते हैं य अनेक राज्यों में किये गए अनुसंधान दर्शाते हैं कि अपने समुदायों के हितों की रक्षा करने की क्षमता के रूप में प्रत्याशी अक्सर अपनी अपराधिता को प्रोत्साहित करते हैं। हालांकि इन सभी प्रयासों में एक कठोर राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव नजर आता है।  

अतः जबकि विभिन्न घोटालों ने भ्रष्टाचार को सार्वजनिक कार्यसूची बना दिया है, विशेषज्ञों का मानना है कि केवल यही एक मुद्दा राज्यों के चुनाव में कांग्रेस के भविष्य को आकार देने के लिए पर्याप्त नहीं है। वैष्णव कहते हैं कि ‘‘भ्रष्टाचार एक रोचक विषय है क्योंकि भारतीय मतदाताओं के मन में यह भावना है कि सभी भ्रष्ट हैंः एक मुद्दे के रूप में यह अनिवार्य रूप से इस चुनाव में एक परिभाषित करने वाली विशेषता नहीं है।‘‘ वैष्णव आगे यह भी जोड़ते हैं कि उन्होंने जो भी सर्वेक्षण देखे हैं उनके अनुसार शीर्ष मुद्दे हैं विकास, रोजगार और भारत की मुद्रास्फीति की समस्याएं।  

5.4 प्रगति की संभावनाएं  

भारत सरकार ने संघीय स्तर पर भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कुछ प्रयास किये हैं। 2005 का सूचना का अधिकार अधिनियम नागरिकों की किसी भी सार्वजनिक दस्तावेज तक पहुंच के अनुरोध का प्रावधान करता है, और यदि यह अनुरोध मंजूर हो जाता है तो संबंधित जानकारी या सूचना उसे तीस दिन के अंदर प्राप्त करने की अनिवार्यता प्रदान करता है। इस कानून को, जो पालन नहीं किये जाने की स्थिति में सजा भी दे सकता है, अधिकारियों के लिए दस्तावेजों के डिजिटलीकरण को भी अनिवार्य बनाता है, भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई की दिशा में एक अत्यधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता है। सरकार राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी कानून को और अधिक सशक्त बनाने का विचार कर रही है, और इसमें ऐसे संभावित परिवर्तन किये जाने हैं जो रिश्वत को रोकने की निगमित असफलता को दंड़ित करेंगे।  

‘‘इस सब में जो कुछ नया है, और राजनीतिक .ष्टि से प्रासंगिक है, वह यह है कि नागरिकों के गुस्से के प्रतिक्रियास्वरूप उन राजनीतिक दलों का उभरकर आना जो स्पष्ट रूप से सुशासन पर केंद्रित हैं।‘‘ अलीस्सा आयर्स 

एक सक्रियतावादी न्यायपालिका ने भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध कडा रुख अपनाया है य 2011 के प्रारंभ में सर्वोच्च न्यायालय ने देश के सभी परीक्षण न्यायालयों को भ्रष्टाचार के मामलों को शीघ्रता से निपटाने के निर्देश दिए हैं। इसके अगले वर्ष उसने उस समय सीमा को कम कर दिया जो किसी लोक सेवक के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले में मुकदमा चलाने का निर्णय लेने के लिए सरकार को दी जाती थी। और जुलाई 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि जिन राजनीतिज्ञों पर आपराधिक मामलों में दोषसिद्धि हो चुकी है उनका अपने पदों पर बने रहना गैर कानूनी है, हालांकि एक अत्यंत विवादस्पद कार्यवाही के तहत मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल ने इस आदेश को अक्टूबर में वापस ले लिया। 

इस मामले में प्रौद्योगिकी भी काफी मददगार साबित हुई है। गुजरात जैसे कुछ राज्यों ने अधिक पारदर्शिता प्रदान करने की दृष्टि से राज्य की अनुबंध निविदाओं के लिए ऑनलाइन व्यवस्था को अपनाया है। अन्य राज्यों ने भी भू-अभिलेखों और मृत्यु प्रमाणपत्रों को ऑनलाइन कर दिया है, जबकि आईपेडअब्राइब डॉट कॉम जैसी वेबसाइटें सामान्य सार्वजनिक सेवाओं से संबंधित भ्रष्टाचार को उजागर करती हैं। सरकार एक इलेक्ट्रॉनिक पहचानपत्र व्यवस्था भी विकसित कर रही है, जो गरीब नागरिकों को बिचौलियों से बच कर सहायता राशि सीधे बैंक खाते में जमा होने की सुविधा प्रदान करेगा।  

कैलिफोर्निया बर्कले विश्वविद्यालय की सहायक प्राध्यापिका जेनिफर बुस्सेल कहती हैं कि लेकिन प्रौद्योगिकी केवल इतना ही कर सकती है। बुस्सेल का आगे कहना है की प्रौद्योगिकी का सबसे बड़ा योगदान यह रहा है कि इसने नागरिकों की सूचना तक अधिक पहुंच बनाई है। ‘‘भ्रष्टाचार को प्रकाश में लाने में सहायता करने वाले प्रशासनिक सुधारों और स्थानीय स्तर की प्रौद्योगिकी पहलों का कुछ संयोजन - साथ ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसे कुछ संगठनों के प्रयास, जो सरकार के शीर्षतम स्तर के भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे हैं - निश्चित रूप से फलदाई होंगे। आपको इन सभी चीजों की आवश्यकता है।‘‘ 

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