सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
शासन में शुचिता भाग - 2
6.0 भारत में शासन के सुधार
सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि भ्रष्टाचार, जो एक सार्वभौम घटना बन गया है, इसे यदि नियंत्रित नहीं रखा गया, तो यह सर्वश्रेष्ठ व्यवस्थाओं को भी कमजोर कर सकता है। यह नागरिक समाज के महत्वपूर्ण अंगों को खा जाता है, और राज्य और नागरिकों के बीच के संबंधों सीधे को दूषित कर देता है, जो आधुनिक काल में एक कल्याणकारी राज्य के दर्जे के साथ सुसंगत होने चाहिये। हालांकि सामान्य जनता को लगता है कि राजनीतिक जवाबदेही का अभाव है - इसका अपराधीकरण और गठबंधन राजनीति की ‘‘मजबूरी‘‘, और भ्रष्टाचार/शिकायत निवारण तंत्र की प्रणालीगत कमजोरी देश में भ्रष्टाचार के बने रहने के सबसे महत्वपूर्ण कारण हैं। साथ ही, इसे एक राक्षसी लालच का परिणाम अधिक माना जाता है, जिसे भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और कमजोर, उदासीन और बेजवाबदार सरकारी तंत्र का समर्थन प्राप्त है - ये सभी तत्व एक दूसरे को मजबूत बनाते हैं। विद्यमान भ्रष्टाचार विरोधी संस्थाएं भी बहुत अधिक प्रभावशाली नहीं हैं, क्योंकि वे भी राजनीतिज्ञों के नियंत्रण में हैं, जिंके पास वास्तविक दांत और अधिकार नहीं हैं, और न ही उनके पास निष्कलंक सत्यनिष्ठा वाले अधिकारियों की शक्ति है। इसके अतिरिक्त ये संस्थाएं कर्मचारियों की कमी, और रिक्तियों को नहीं भरने इत्यादि की समस्याओं से भी जूझती रहती हैं।
6.1 सेवा वितरण की उत्कृष्टता
शासन में सुधार विकास प्रक्रिया का एक भाग है। यह तर्क दिया जाता है कि प्रशासन में सहभागिता, पारदर्शिता, जवाबदेही और शुचिता के माध्यम से शासन में व्यवस्थित परिवर्तन करके भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया जा सकता है। सुशासन के अधिकार को भी नागरिकों के अधिकारों का एक अनिवार्य भाग माना जाता है जो व्यक्ति सरकार से उम्मीद कर कर सकते हैं। तदनुसार सरकार द्वारा नागरिकों की चिंताओं को नीति निर्माण और साथ ही सेवाओं की गुणवत्ता और विश्वसनीयता की निविष्टियों के रूप में समाहित करके अनेक पहलें की गई हैं। इन्हें विभिन्न साधनों के माध्यम से लाया जा सकता है, जिनमें नागरिक चार्टर, सूचना का अधिकार, ई-शासन, रिपोर्ट कार्ड और सामाजिक लेखापरीक्षण इत्यादि शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक विभाग ने अब सार्वजनिक शिकायत निवारण तंत्र विकसित किये हैं, जिनमें वरिष्ठ अधिकारियों की शिकायत निदेशक के रूप में नियुक्ति की गई है, जिन्हें शिकायतों से संबंधित फाइलों ध् दस्तावेजों को बुलाने के अधिकार प्रदान किये गए हैं। ये शिकायत निदेशक प्रत्येक बुधवार को सुबह 10 बजे से दोपहर 1 बजे तक उपलब्ध होने चाहियें।
6.2 सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005
एक अन्य उपाय जो शासन में शुचिता लाने में सहायक होता है वह है 2005 में पारित किया गया सूचना का अधिकार अधिनियम। यह अधिनियम सामान्य जनता को एक विशिष्ट सार्वजनिक सेवा प्राप्त करने की अपनी पात्रता की जानकारी प्राप्त करने, और यदि कोई शिकायत है तो उसके निवारण का अधिकार प्रदान करता है। इसमें ‘‘सुने जाने का अधिकार और उपभोक्ता शिक्षा‘‘ भी शामिल है, अर्थात, उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के प्रति शिक्षित करना। यह ष्सहभागितापूर्ण, पारदर्शी और जवाबदेह शासनष् के तर्काधार पर आधारित है। सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत लोक सेवकों से उनके आचरण और व्यवहार के बारे में भी प्रश्न पूछे जा सकते हैं, और इस प्रकार उन्हें जवाबदेह बनाया जा सकता है।
6.3 इलेक्ट्रॉनिक शासन या ई-शासन
इलेक्ट्रॉनिक शासन जनता को बेहतर पारदर्शिता और सेवाओं को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाया गया है। यह जनता और अन्य अभिकरणों के लिए सूचना का प्रसार एक अधिक कुशल, तेज गति की और पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से करता है, और यह सरकारी प्रशासन के कार्य करता है। ई-शासन की प्रभावी शुरुआत निम्न के माध्यम से की जा सकती हैः
- सार्वजनिक सरोकार से जुडे़ सभी विभागों का कम्प्यूटरीकरण, जिनमें पुलिस, न्यायपालिका, परिवहन और संपत्तियों का पंजीकरण शामिल है।
- सभी सार्वजनिक खरीदों और अनुबंधों में ई-खरीद की शुरुआत (अधिमानतः कोनेप्स के अनुसार)
- विशेष सेवा प्राप्त करने के लिए चित्र द्वारा प्रदर्शित ‘‘स्पर्श स्क्रीन प्रणाली‘‘ की शुरुआत।
- सार्वजनिक शिकायतों के निवारण के लिए ‘‘लोक वाणी‘‘ सॉफ्टवेयर का प्रतिरूप।
- ई-शासन अधोसंरचना का सशक्तिकरण और ई-शासन के प्रति जागरूकता को बढ़ाना।
इस प्रकार ई-शासन को शासन के सुधार की दृष्टि से एक प्रभावी साधन माना जाता है।
6.4 लोकपाल विधेयक
संसद द्वारा 2011 में पारित किये गए लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- केंद्र में लोकपाल होगा और राज्यों के स्तर पर लोकायुक्त होंगे।
- लोकपाल कार्यालय में एक अध्यक्ष और अधिकतम आठ सदस्य होंगे, जिनमें से 50 प्रतिशत सदस्य न्यायिक सदस्य होंगे।
- लोकपाल के 50 प्रतिशत सदस्य अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक समुदाय और महिलाओं में से होंगे।
- प्रधानमंत्री को लोकपाल की परिधि के तहत लाया गया है।
- लोकपाल का क्षेत्राधिकार लोक सेवकों की सभी श्रेणियों तक विस्तृत होगा।
- विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम के संदर्भ में विदेशी स्रोतों से 10 लाख रुपये से अधिक चंदा (दान) प्राप्त करने वाले सभी निकायों को लोकपाल के तहत लाया गया है।
- यह ईमानदार और निडर लोक सेवकों को पर्याप्त संरक्षण प्रदान करता है।
- लोकपाल को केंद्रीय जांच ब्यूरो सहित सभी अभिकरणों पर लोकपाल द्वारा उन्हें प्रेषित किये गए मामलों में अधीक्षण और निर्देश प्रदान करने का अधिकार होगा।
- प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक के नाम के चयन की सिफारिश करेगी।
- अभियोजन निदेशक के नेतृत्व में अभियोजन निदेशालय निदेशक के संपूर्ण नियंत्रण में कार्य करेगा।
- अभियोजन निदेशक, और केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक की नियुक्ति केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिश के आधार पर की जाएगी।
- लोकपाल द्वारा प्रेषित मामलों की जांच करने वाले केंद्रीय जांच ब्यूरो के अधिकारियों का स्थानांतरण लोकपाल के अनुमोदन पर ही किया जा सकेगा।
- विधेयक में अभियोजन लंबित रहने के दौरान भी भ्रष्ट तरीकों से अर्जित संपत्ति की कुर्की और जब्ती का प्रावधान भी किया गया है।
- विधेयक में प्राथमिक जांच और अंवेषण और मुकदमे के लिए स्पष्ट समय सीमाओं के प्रावधान भी समाहित किये गए हैं, साथ ही विधेयक में विशेष न्यायालयों के गठन का भी प्रावधान किया गया है।
- अधिनियम बनने के 365 दिन के अंदर राज्यों की विधायिकाओं के माध्यम से लोकायुक्त की संस्थाओं के गठन की भी अनिवार्यता की गई है।
7.0 नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की भूमिका
नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की वर्तमान संवैधानिक जिम्मेदारी है संसद को, और उसके माध्यम से नागरिकों को यह स्वतंत्र आश्वासन प्रदान करना कि सरकार द्वारा संसद की अनुमति से स्वीकृत धनराशि का सही तरीके से उपयोग किया गया है और उसका सही हिसाब-किताब रखा है, साथ ही कर व्यवस्था का परीक्षण करना भी उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी हैः नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक का मिशन प्रतिवेदन निम्नानुसार है रू ‘‘भारत के संविधान द्वारा आज्ञापत्र प्रदान किये गए अनुसार, उच्च गुणवत्ता वाले लेखापरीक्षण और लेखांकन के माध्यम से हम जवाबदेही, पारदर्शिता, और सुशासन को प्रोत्साहित करते हैं, और हमारे हितधारकों को, विधायिका को, कार्यकारी को और जनता को यह स्वतंत्र आश्वासन प्रदान करते हैं कि निधियों का उपयोग कुशलतापूर्वक और नियोजित प्रयोजन के लिए किया गया है।‘‘
सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन को अनिवार्य रूप से एक एकीकृत व्यवस्था के रूप में समझा जाना चाहिए क्योंकि इसके एक भाग की कमजोरी इसके अन्य पहलुओं को प्रतिकूल ढ़ंग से प्रभावित कर सकती है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की विभिन्न रिपोर्टों ने देश की कमजोर शासन व्यवस्था और भ्रष्टाचार पर निरंतर जारी बहस में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले पर य उर्वरकों की अनुवृत्ति पर य महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) पर, और अन्य विषयों पर नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की रिपोर्टों ने इन बहसों के लिए अनेक आवश्यक जानकारियां और मात्रात्मक आधार प्रदान किये हैं।7.1 नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक को अधिक प्रभावी बनाने के लिए किये जाने वाले उपाय
नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक को भारत के पीएफएम में अधिक प्रभावी रूप से अपनी भूमिका निभाने में सक्षम बनाने के लिए कुछ अन्य उपाय भी हैं जिनपर विचार किया जा सकता है।
- नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक एक बाह्य लेखापरीक्षण संस्था है जो अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का पालन करती है। यदि इसमें शामिल सरकारी संगठनों के आतंरिक परीक्षण के कार्यों को सशक्त बनाया जाए तो यह संस्था अपनी भूमिका अधिक बेहतर ढ़ंग से निभा सकती है। यह सरकार के सभी स्तरों पर कार्यकारी शाखा की जिम्मेदारी है। यदि आतंरिक लेखापरीक्षण को सशक्त बनाया गया तो नीति चक्र में अनेक कौशल काफी पहले ही प्राप्त किये जा सकते हैं। इसके कारण नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक पर अत्यधिक निर्भरता भी कुछ हद तक कम की जा सकती है। इसके लिए कार्यकारी शाखा को आतंरिक लेखापरीक्षण को सशक्त बनाने के लिए किये जाने वाले उपायों के प्रति पारदर्शी और जवाबदेह होने की आवश्यकता होगी। आतंरिक नियंत्रण स्थापित करना, और विश्वविद्यालयों, पातन न्यासों और 19 वें राष्ट्रमंड़ल खेलों जैसी स्पर्धाएं आयोजित करने वाली समितियों जैसे स्वायत्त सरकारी अभिकरणों में उचित संगठन सुनिश्चित करना नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के लेखापरीक्षण के बोझ को काफी हद तक कम कर सकता है, जिससे सार्वजनिक वित्त भी सशक्त होंगे।
- 1971 में अधिनियमित किये गए वर्तमान नियंत्रक एवं महापरीक्षक अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता है। वर्तमान में केवल सरकारी अभिकरण और वे निकाय जिन्हें भारत के समेकित कोष से भारी मात्रा में वित्तपोषण किया जाता है, ही नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के दायरे में आते हैं। हालांकि नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक अधिनियम का केंद्रबिंदु वित्तपोषण से हटाकर शासन पर केंद्रित करने पर विचार किया जाना चाहिए। वर्तमान नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक अधिनियम कुछ शहरी और स्थानीय निकायों, विकास प्राधिकरणों, विशेष प्रयोजन वाहनों, और सार्वजनिक-निजी भागीदारी से संबंधित लेखापरीक्षण की आवश्यकताओं के बारे में संदिग्धता निर्माण करता है। जैसे-जैसे भारत अधिकाधिक शहरीकृत होता जायेगा, और जैसे-जैसे विकास प्राधिकरणों और सार्वजनिक निजी भागीदारी संस्थाओं की भूमिका बढ़ती जाएगी, यह सुनिश्चित करने के लिए कि इन संस्थाओं द्वारा भारी मात्रा में किये जाने वाले व्यय लेखापरीक्षण की अनिवार्यताओं से बचे नहीं रह जाएँ, इन संस्थाओं के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक अधिनियम में समावेश पर भी अधिक गंभीर बहस होना आवश्यक है। कंपनी अधिनियम के अनुच्छेद 619 (4) के तहत कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों का लेखापरीक्षण कार्य निजी लेखापरीक्षण संस्थाओं द्वारा कराये जाने का प्रावधान है, जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम। हालांकि इन लेखपरीक्षणों का नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा अनुपूरण किया जाता है। और निष्पादन लेखापरीक्षण नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा किया जाता है। क्या जल एवं विद्युत आपूर्ति सुविधाओं जैसे महत्वपूर्ण अधोसंरचना संगठन, फिर चाहे वे निजी स्वामित्व के ही क्यों न हों, कंपनी अधिनियम के इस अनुच्छेद के तहत लाये जाने चाहियें, इस पर भी अधिक स्पष्ट प्रकाश डाला चाहिए और इसपर बहस होनी चाहिए। 2010 में नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक ने अधिनियम में संशोधन के लिए विस्तृत और स्पष्ट प्रस्ताव भेजा था। ये प्रस्ताव उस गति से संबंधित थे जिससे सरकारी विभाग लेखापरीक्षण, अंतिम लेखापरीक्षण रिपोर्ट के अनिवार्य प्रकटनों और सरकारी गतिविधियों के नए स्वरूपों और वर्तमान में शामिल नहीं किये गए संगठनों पर नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के अधिकारों पर स्पष्टीकरणों के अनुरोधों पर प्रतिक्रिया देते हैं। इनमें सार्वजनिक-निजी भगीदारियां, शहरी विकास निकाय, और विशेष कार्य वाहन शामिल होंगे जिनकी गतिविधियों में सरकारी व्यय शामिल हैं, या जो सम्भाव्य वित्तीय देयताएं निर्माण करेंगे।
- नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा किये जाने वाले लेखपरीक्षणों को नियामक लेखापरीक्षण या निष्पादन लेखापरीक्षण के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। हालांकि सरकारी कार्यक्रम की ‘‘प्रभावशीलता‘‘ का आकलन करते समय ‘‘निष्पादन‘‘ या विशेष रूप से वीएफएम का मूल्यांकन करते समय नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक को नीति क्रियान्वयन और नीति निर्माण पर राय प्रदान करने के बीच के अंतर की महीन रेखा के बारे में सावधान रहना होगा।
- जब विशाल कार्यक्रम या योजना का निर्माण किया जा रहा है या क्रियान्वयन किया जा रहा है तब नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की सलाहकारी भूमिका की व्यवस्था पर भी बहस और विचार किया जाना आवश्यक है। उदाहरण के रूप में, श्री नंदन नीलेकणी के नेतृत्व में भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा अत्यंत महत्वाकांक्षी और खर्चीला आधार कार्यक्रम क्रियान्वित किया जा रहा है, तो यह स्वयं को नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की सलाहकारी भूमिका के तहत प्रस्तुत कर सकता है। हालांकि इस प्रकार की सलाहकारी भूमिका का खतरा यह हो सकता है कि संबंधित सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम लिए गए निर्णय के लिए नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक को जिम्मेदार ठहरा सकता है। अतः नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक कार्यालय की संभाव्य प्रत्याशित सलाहकारी भूमिका में, किसी कार्यक्रम की सफलता या असफलता का आकलन करने के लिए मापने योग्य संकेतकों के सुझावों को शामिल किया जाना चाहिए, ताकि वह अधिक ‘‘लेखापरीक्षा योग्य‘‘ हो पाये और जिससे लेखापरीक्षण के समय कार्यपालिका, मंत्रियों और नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक कार्यालय के बीच उठने वाले विवादों को कम किया जा सके।
- नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक का कार्य अक्सर घटिया गुणवत्ता वाले आंकडों और सरकारी संगठनों द्वारा सीमित मात्रा में आंकडे़ प्रबंधन और आंकडे़ उत्खनन के कारण बाधित होता है। आंकड़ों की सीमितताएं विशेष रूप से वीएफएम लेखापरीक्षण के मामले में अधिक महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि यदि निविष्टियों या खरीद लागतों के आंकडे़ उपलब्ध नहीं होंगे, या यदि वे समय से उपलब्ध नहीं किये जाएंगे तो लेखपरीक्षकों के लिए नीतियों और कार्यक्रमों की कुशलता और प्रभावशीलता पर राय प्रदान करना असंभव हो जायेगा। अतः यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक कार्यालय के लेखापरीक्षक उपलब्ध कराये गए आंकड़ों का विश्लेषण के लिए उपयोग करने से पहले ऐसे आंकड़ों की सटीकता, सत्यनिष्ठा और संपूर्णता को स्वीकार करने में पर्याप्त सम्यक उद्यम बरतें। ये बातें शुरू में ही स्पष्ट रूप से नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट में उल्लिखित की जानी चाहियें।
- लोक लेखा समिति और सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम समिति, जो विधायिका की प्रतिनिधि हैं और जो नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा उन्हें प्रस्तुत की गई रिपोर्ट के आधार पर कार्यपालिका से प्रश्न पूछती हैं, इनका भी सशक्तिकरण किया जाना चाहिए, और उन्हें विशेष रूप से जवाबदेही सुनिश्चित करने के मामले में अधिक सक्रिय किया जाना चाहिए। यह कि एयर इंडिया और तेल से संबंधित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की वर्तमान दुर्दशा के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं माना गया है, ये उदाहरण मजबूती से इस आवश्यकता की ओर इशारा करते हैं, जिसमें जवाबदेही पर जोर दिया जाना चाहिए। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत द्वारा अपनाये गए वेस्टमिनिस्टर लेखापरीक्षण मॉडल में नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक कार्यपालिका पर अपनी सिफारिशें अधिरोपित नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के कार्य का अंतिम प्रभाव इस बात पर निर्भर है कि विधायिका लेखापरीक्षण रिपोर्ट में दर्शाये गए निष्कर्षों और उसके द्वारा की गई सिफारिशों में, जिम्मेदारी तय करने में और दंड़ात्मक कार्यवाही में सहभागी होने में कितनी उत्साही है। लोक लेखा समिति की ऐसी सिफारिशों के प्रति उदासीनता को ‘‘विधायी अवमानना‘‘ माना जाना चाहिए। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ‘‘न्यायिक अवमानना‘‘ मानी जाती है। शायद इस प्रकार के सुधार का समय आ गया है।
- नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की राज्यों के स्तर भी महत्वपूर्ण भूमिका है। 1976 में नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक को संघीय सरकार के खातों के रखरखाव के कार्य से मुक्त कर दिया गया था, परंतु राज्य सरकारों के खातों के रखरखाव से नहीं। इसका निहितार्थ यह है कि आज भी राज्य सरकारों के खातों का रखरखाव राज्य महालेखाकार के माध्यम से नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा ही किया जाता है। 2009-10 में राज्यों द्वारा किया गया व्यय केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से किये गए व्यय का लगभग आधा था।
इससे राज्यों की विधायिकाओं के स्तर पर लोक लेख समितियों की भूमिका में सुधार की आवश्यकता बढ़ जाती है। उनके विचार-विमर्शों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए, और शायद इनका जीवंत प्रसारण करने पर भी विचार किया जाना चाहिए ताकि इसके व्यापक प्रसार और सार्वजनिक जवाबदेही में वृद्धि हो सके। राज्य महलेखकारों के दर्जे को सशक्त बनाने और नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के कानूनी बोझ को कम करने की दृष्टि से राज्य महालेखाकारों को कानूनी दर्जा दिए जाने के प्रस्ताव पर भी विचार किया जा सकता है। साथ ही राज्य यदि नीतियों और कार्यक्रमों के प्रारंभिक चरण में ही नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक को सलाहकारी भूमिका में शामिल करते हैं तो उन्हें उसकी विशेषज्ञता के लाभ ही प्राप्त होंगे।
8.0 द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग और इसकी सिफारिशें (Second A.R.C.)
द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन 5 अगस्त 2005 को देश के लिए सरकार के सभी स्तरों पर एक अग्रसक्रिय, प्रतिक्रियाशील, जवाबदेह, धारणीय और कुशल प्रशासन प्राप्त करने के लिए उपाय सुझाने की अनिवार्यता के साथ किया गया था। आयोग के सुझावों का दायरा काफी व्यापक था और इसमें निम्न सुझाव शामिल थेः
(1) भारत सरकार की संगठनात्मक संरचना (2) शासन में नीतिपरकता (3) कार्मिक प्रशासन का नवीकरण (4) वित्तीय प्रबंधन व्यवस्थाओं का सशक्तिकरण (5) राज्यों के स्तर पर प्रभावी प्रशासन सुनिश्चित करने के लिए उठाये जाने वाले कदम (6) प्रभावी जिला प्रशासन सुनिश्चित करने के लिए उठाये जाने वाले कदम (7) स्थानीय स्वशासन/पंचायती राज संस्थाएं (8) सामाजिक पूंजी, विश्वास और सहभागी लोक सेवा वितरण (9) नागरिक केंद्रित प्रशासन (10) ई-शासन को प्रोत्साहन (11) संघीय राजनीति के मुद्दे (12) आपदा प्रबंधन (13) सार्वजनिक व्यवस्था।
आयोग ने अब तक सरकार को 15 रिपोर्टें प्रस्तुत की हैं। इस आयोग की चौथी रिपोर्ट, जिसका शीर्षक था शासन में नीतिपरकता में लोक सेवकों के आचरण के विनियमन से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें की गई हैं। इसकी महत्वपूर्ण सिफारिशें निम्नानुसार थींः
- पक्षत्याग के आधार पर सदस्यों की अयोग्यता के मुद्दे का निर्णय राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा निर्वाचन आयोग की सलाह के आधार पर किया जाना चाहिए।
- संविधान में यह सुनिश्चित करने के लिए संशोधन किया जाना चाहिए कि यदि किसी गठबंधन के एक या एक से अधिक दल, या तो चुनाव के पहले स्पष्ट रूप से, या सरकार बनाते समय सांकेतिक रूपसे मतदाताओं द्वारा दिए गए समान कार्यक्रम के अधिदेश के साथ, बीच में ही गठबंधन के बाहर के किसी एक दल या एक से अधिक दलों के साथ नया गठबंधन बनाते हैं, तो उस दल या उन दलों के सदस्यों को मतदाताओं से फिर से अधिदेश प्राप्त करना होगा।
- जिन लोक सेवा मूल्यों को प्राप्त करने का सभी लोक सेवकों को प्रयास करना है, उन्हें परिभाषित किया जाना चाहिए और इन्हें सरकार के सभी स्तरों पर और राजनीतिक अधिकार प्राप्त सभी संगठनों पर लागू किया जाना चाहिए। इन मूल्यों के किसी भी प्रकार के उल्लंघन को दुराचरण माना जाना चाहिए, और इसके लिए दंड़ की व्यवस्था की जानी चाहिए।
- अधिकारियों की नैतिक संहिता और आचार संहिता में हितों के टकराव को विस्तार से शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही कार्यरत अधिकारियों को सार्वजनिक उपक्रमों के निदेशक मंड़ल पर नामित नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि यह नियम गैर लाभ सार्वजनिक संस्थाओं और सलाहकारी निकायों पर लागू नहीं होगा।
- सभी व्यवसायों के लिए एक व्यापक और प्रवर्तनीय आचार संहिता निर्धारित की जानी चाहिए, जिसे कानूनी समर्थन प्राप्त हो।
- जिन लोक सेवकों को भ्रष्टाचार करते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया हो, या जिनके पास उनके ज्ञात आय के स्रोतों से अधिक संपत्ति है, ऐसे लोक सेवकों पर मुकदमा चलाने के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
- भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम को संशोधित किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारियों को नहीं बुलाया जाए, इसके बजाय उपयुक्त प्राधिकरणों द्वारा दस्तावेज इकट्ठा करके न्यायालय में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
- विधायिका के सदन के पीठासीन अधिकारी को संसद सदस्यों और विधायकों के लिए मंजूरी प्रदान करने वाला प्राधिकारी माना जाना चाहिए।
- मुकदमा दायर करने के लिए पूर्व अनुमति प्राप्त करने की जो अनिवार्यता वर्तमान में सेवारत अधिकारियों के लिए लागू है, उसे सेवा निवृत्त अधिकारियों पर भी उनके सेवा में रहते हुए किये गए कृत्यों के लिए लागू किया जाना चाहिए।
- ऐसे सभी मामलों में, जहां भारत सरकार को मुकदमा दायर करने की मंजूरी प्रदान करने का अधिकार प्राप्त है, ये अधिकार एक अधिकार प्राप्त समिति को प्रत्यायोजित किये जाने चाहियें, जिसमें सदस्यों के रूप में केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सरकार के विभागीय सचिवों को शामिल किया जाना चाहिए। दोनों की राय में भिन्नता होने पर ऐसे मामले को सुलझाने के लिए इसे केंद्रीय सतर्कता आयोग की संपूर्ण पीठ के समक्ष रखा जा सकता है। यदि सरकार के किसी विभागीय सचिव के विरुद्ध मंजूरी प्रदान की जानी है, तो अधिकार प्राप्त समिति में केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और मंत्रिमंडल सचिव को शामिल किया जा सकता है।
- इसी प्रकार की व्यवस्थाएं राज्यों के स्तर भी की जा सकती हैं। सभी मामलों में मंजूरी प्रदान करने का आदेश दो महीने के अंदर जारी कर दिया जाना चाहिए। आदेश जारी करने से इंकार करने की स्थिति में, इंकार करने के कारण प्रति वर्ष संबंधित विधायिका के समक्ष प्रस्तुत किये जाने चाहियें।
- आपराधिक मामलों में, दंड़ के अतिरिक्त कानून में ऐसे प्रावधान किये जाने चाहियें ताकि जिन लोक सेवकों के भ्रष्ट कृत्यों के कारण राज्य या नागरिकों को नुकसान हुआ है उन्हें उक्त नुकसान की भरपाई करने के लिए उत्तरदायी बनाया जा सके, और साथ ही उन्हें क्षतिपूर्ति के भुगतान के लिए भी उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में एक अध्याय प्रविष्ट करके ऐसा किया जा सकता है।
- ऐसे सभी शासकीय कार्यालयों को, जहां जनता का सीधा संबंध आता है, अपनी गतिविधियों की नियमित समीक्षा करनी चाहिए, और ऐसी गतिविधियों को सूचीबद्ध करना चाहिए जहां स्वविवेक का उपयोग शामिल है। ऐसी सभी गतिविधियों में स्वविवेक को समाप्त करने के प्रयास किये जाने चाहियें। जहां ऐसा करना संभव नहीं हो, वहां स्वकविवेक को ‘‘बांधकर‘‘ रखने के प्रयास के रूप में विनियम बनाये जाने चाहियें। मंत्रालयों और विभागों को इस कार्य को उनके संगठनों/विभागों में समायोजित करने के लिए कहा जाना चाहिए, और यह कार्य एक वर्ष के अंदर पूर्ण कर लिया जाना चाहिए।
- महत्वपूर्ण मामलों में निर्णय लेने की प्रक्रिया व्यक्तियों के हाथों में देने के बजाय समितियों को सौंपी जानी चाहिए। हालांकि इसमें इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए, कि इस पद्धति का उपयोग उन मामलों में नहीं किया जाना चाहिए जहां त्वरित निर्णय लेना आवश्यक है।
- राज्य सरकारों को भी उपरोक्त आधार पर कदम उठाने चाहियें, विशेष रूप से स्थानीय निकायों और प्राधिकरणों के मामले में, जिनमें जनता का संपर्क अधिकतम होता है।
भारतवासियों की आर्थिक संपन्नता और समृद्धि एक विकल्प नहीं बल्कि एक अनिवार्यता है। आर्थिक सशक्तिकरण, और उसके माध्यम से एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभारना तभी संभव हो पायेगा जब विकास सुशासन पर आधारित और संस्थापित हो। इस प्रकार का विकास तभी धारणीय हो पायेगा जब वह शासन की नैतिक संहिता पर बना हुआ हो। जब भारत का इतिहास लिखा जायेगा, तो यह लिखा जाना चाहिए कि शासन एक समस्या नहीं बल्कि एक समाधान था, जिसमें राज्य की भूमिका एक शिकारी की नहीं बल्कि एक सहायक और सुकारक की थी। ये शिलालेख हमारी शासन संरचना के अनिवार्य अविभाज्य अंग होने चाहियें क्योंकि बड़ी भारी संख्या में लोगों के लिए काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है।
COMMENTS