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सिविल सेवाओं के मूलभूत मूल्य भाग 2
6.0 नोलन के सार्वजानिक जीवन के सात सिद्धांत
(नैतिक रूपरेखा को आधारित करने की रणनीति)
सार्वजनिक जीवन में मानकों पर समिति इंग्लैंड में एक स्वतंत्र समिति है जो प्रधानमंत्री को सिफारिशें करती है। सार्वजनिक पदों के आचरण के मानकों से संबंधित चिंताओं की जांच करने के लिए इसका गठन अक्टूबर 1994 में लॉर्ड नोलन की अध्यक्षता में किया गया था, और नवंबर 1997 में इसकी व्याप्ति राजनीतिक दलों के वित्तपोषण को समाविष्ट करने तक विस्तारित की गई थी। समिति एक सलाहकार गैर विभागीय सार्वजनिक निकाय है जिसे मंत्रिमंडल कार्यालय द्वारा प्रायोजित किया गया है। नोलन की सिफारिशों की सार्वभौमिक प्रयोज्यता है और इन्हें अनेक देशों की लोक सेवकों की आचार संहिता में अवशोषित किया गया है।
नोलन के अनुसार सार्वजानिक जीवन के सात सिद्धांत निम्नानुसार हैंः- निःस्वार्थताः सार्वजानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को केवल जनहित में ही निर्णय लेने चाहियें। उन्हें ऐसा अपने स्वयं के लिए, अपने परिवार के लिए या अपने मित्रों के लिए किसी प्रकार के आर्थिक या अन्य लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से नहीं करना चाहिए।
- सत्यनिष्ठाः सार्वजानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को स्वयं को किसी भी व्यक्ति या संगठन की ओर से किन्ही ऐसे वित्तीय दायित्वों के तहत या अन्य दायित्वों के तहत नहीं रखना चाहिए जो उन्हें उनके आधिकारिक उत्तरदियित्वों के निष्पादन में प्रभावित कर सकें।
- वस्तुनिष्ठताः किसी भी प्रकार के सार्वजानिक कार्य करते समय, जिनमें सार्वजानिक नियुक्तियां, अनुबंध प्रदान करना या व्यक्तियों की पुरस्कारों या लाभों के लिए सिफारिश करना शामिल है, सार्वजानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को योग्यता के आधार पर चयन करना चाहिए।
- जवाबदेहीः सार्वजनिक पदों पर आसीन व्यक्ति अपने निर्णयों या कार्यों के लिए जनता के प्रति जवाबदेह हैं, अतः उनके पद के अनुसार उन्हें किसी भी उचित जाँच के लिए सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए।
- खुलापनः सार्वजानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को उनके द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों या किये जाने वाले कार्यों के प्रति जितना संभव हो सके उतना खुला होना चाहिए। उन्हें अपने निर्णयों के लिए कारण देने चाहिए और जानकारी को तभी गुप्त बनाये रखना चाहिए जब इसकी सार्वजानिक हितों की दृष्टि से स्पष्ट मांग हो।
- ईमानदारीः सार्वजानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों का यह उत्तरदायित्व है कि वे अपने सार्वजनिक कर्तव्यों से संबंधित निजी हितों की घोषणा करें, और किसी भी प्रकार के संघर्ष के निवारण के लिए ऐसे सभी कदम उठाने चाहियें जो सार्वजनिक हितों की रक्षा करने में सक्षम हों।
- नेतृत्वः सार्वजानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को इन सिद्धांतों को नेतृत्व और उदाहरण के माध्यम से प्रोत्साहित और समर्थित करना चाहिए।
6.1 लोक सेवकों के लिए आचार संहिता
भ्रष्टाचार निवारण समिति (‘‘संथानम समिति‘‘ - 1964) ने टिप्पणी की थीः
‘‘भारत जैसे देश के लिए अपने भौतिक संसाधनों की योग्यता को विकसित करना और सभी वर्गों के जीवन स्तर को उठाना निश्चित रूप से अनिवार्य है। उसी समय सार्वजानिक जीवन के मानकों में गिरावट को भी रोकना होगा। ऐसे तरीकों और उपाय ढूंढ़ने होंगे ताकि युवाओं की महत्वाकांक्षाओं में आदर्शवाद और देशभक्ति के उचित स्थान को सुनिश्चित किया जा सके। नैतिक उत्कंठा का अभाव, जो हाल के वर्षों की सुस्पष्ट विशेषता रही है, शायद इकलौता सबसे बड़ा कारक है जो सत्यनिष्ठा और कार्यकुशलता की मजबूत परंपराओं के विकास को बाधित करता है।‘‘
मूल्यों के उपदेश जो स्व को व्यापक सामाजिक हित के अधीन रखने को सुविधाजनक बनाते हैं, और उन लोगों के प्रति समवेदना की भावना पैदा करना जिन्हें
सुधारात्मक सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता है, ऐसे कौशल नहीं हैं जो लोक सेवा में प्रवेश करने के बाद आसानी से आत्मसात किये जा सकें। ऐसी अभिवृत्तियों को केवल एक व्यक्ति के जीवन काल के दौरान ही नहीं पबल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषित करने की आवश्यकता होती है - सही लोकाचार विकसित होने में लंबा समय लगता है। फिर भी यह वीकार करना ही होगा कि हमारी लोक सेवा व्यवस्था की अभिवृत्तियों और उपलब्धियों की अपनी परंपरा रही है जो वर्तमान लोक सेवकों और भविष्य में लोक सेवा में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों के लिए उदाहरण के रूप में अनुकरणीय हैं। यह भी स्वीकार करना होगा ‘‘सही आचरण‘‘ के मानकों की विद्यमान रूपरेखा को बनाये रखना और उसे बढ़ावा देना नियमों और कानूनों के कठोर प्रवर्तन के माध्यम से संभव नहीं है। यह केवल सही संतुलन बनाये रखने का प्रश्न है। लोक सेवा के अंदर भी औपचारिक, प्रवर्तनीय संहिताएं हैं जो अपेक्षित व्यवहार के मानकों का निर्धारण करते हैं और जिनमें ऐसे मानकों से अमान्य रूप से दूर जाने के विरुद्ध ‘‘प्रतिबंध‘‘ भी निर्दिष्ट किये गए हैं। साथ ही औपचारिक प्रतिबंधों के बिना मर्यादा और स्वीकार्य व्यवहार की अस्फुटित परंपराएं भी विद्यमान हैं परंतु ऐसी प्रथाओं और परंपराओं का पालन नहीं करना सामाजिक अस्वीकृति और लांछन को आमंत्रण देना है।
‘‘प्रवर्तनीय मानकों‘‘ का वर्तमान समुच्चय केंद्रीय लोक सेवा (आचरण) नियम 1964 द्वारा निर्धारित किये गए ‘‘आचरण नियमावली‘‘ और सदृश नियम हैं जो अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्यों या कर्मचारियों और विभिन्न राज्य सरकारी सेवाओं के सदस्यों और कर्मचारियों पर लागू होते हैं। ऐसे नियमों में निर्दिष्ट मानक उन नियमों से भी काफी अधिक पुराने हैं। इस प्रकार समय-समय पर आधारभूत नियमों और लोक सेवा विनियमों के तहत अधिसूचनाओं के माध्यम से विशिष्ट कार्य निर्दिष्ट किये गए थे। इनके कुछ उदाहरण हैं, आदतन उधार देने और विवेकहीन उधार लेने की अस्वीकृति (1869), और विभिन्न गतिविधियों पर प्रतिबंध - उपहार स्वीकार करना (1876), संपत्ति का क्रय-विक्रय (1881), वाणिज्यिक निवेश करना (1885), कंपनियों का प्रायोजन करना (1885), और सेवा निवृत्ति के बाद वाणिज्यिक नौकरी स्वीकार करना (1920) ऐसे निर्बंधों का उल्लंघन सेवा से बर्खास्तगी जैसी दंड़ात्मक कार्रवाई को आमंत्रित करता है। निश्चित रूप से ‘‘अवैध परितोषण‘‘ या रिश्वतखोरी जैसे प्रावधान थे -भारतीय दंड़ संहिता के अनुच्छेद 161 से 165 - या ‘‘लोक सेवक द्वारा आपराधिक न्यास-भंग‘‘ - भारतीय दंड़ संहिता का अनुच्छेद 409 - जो कारावास की शर्तों का प्रावधान करते हैं। 1947 में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधिनियमन के साथ ही अपराधों के एक नए समुच्चय का भी निर्माण किया गया।
1930 के दशक के दौरान, अनुदेशों का संग्रह भी जारी किया गया था, जिसमें ‘‘क्या करें‘‘ और ‘‘क्या ना करें‘‘ शामिल थे, और इसे सामूहिक रूप से ‘‘आचरण नियमावली‘‘ कहा गया। इस संग्रह को 1955 में विशिष्ट नियों के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। संथानम समिति ऐसे नियमों के व्यापक विस्तार की सिफारिश की थी जिसका परिणाम 1964 के संस्करण में हुआ। इन नियमों को बाद में अद्यतन भी किया गया है और इसमें आचरण के अतिरिक्त मानक शामिल किये गए हैं। इनमें से कुछ परिवर्धन निम्नानुसार हैंः शिष्टाचार निभाने की अनिवार्यता, दहेज मांगने या देने पर प्रतिबंध, महिला कर्मचारियों के यौन उत्पीड़न पर प्रतिबंध, और हाल ही में जोड़ा गया, 14 वर्ष की आयु के बच्चों को घरेलू नौकर के रूप में नौकरी पर रखने पर प्रतिबंध। समझा जा सकता है कि यह एक निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है, और यह लोक सेवाओं से समाज की बदलती, और आम तौर पर बढ़ती हुई अपेक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है।
आचरण नियमावली में प्रतिपादित आचार संहिता में जहां कुछ सामान्य मानक शामिल हैं, जैसे ‘‘सत्यनिष्ठा और कर्तव्य के प्रति पूर्ण समर्पण बनाये रखना‘‘ और ऐसे किसी कार्य में शामिल नहीं होना ‘‘जो सरकारी सेवक को शोभा नहीं देता‘‘, आमतौर पर सरकारी सेवकों की ओर से अवांछनीय विशिष्ट गतिविधियों की ओर निर्देशित हैं। भारत में लोक सेवकों के लिए कोई आचार संहिता निर्धारित नहीं है हालांकि ऐसी संहिताएं अन्य देशों में विद्यमान हैं। भारत में विभिन्न आचरण नियमावलियां विद्यमान हैं जो सामान्य गतिविधियों को प्रतिबंधित करती हैं।
7.0 लोक सेवा विधेयक 2006
1999 में ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने ऑस्ट्रेलियाई लोक सेवा अधिनियम को अधिनियमित किया जो लोक सेवा मूल्यों के एक समुच्चय को निर्धारित करता है। ये केवल आशय के आकांक्षा कथन नहीं हैं, बल्कि सभी कर्मचारियों से उम्मीद की जाती है कि वे इन मूल्यों को बनाये रखें और संहिता का पालन करें, जबकि वरिष्ठ अधिकारियों से उम्मीद की जाती है कि वे इन मूल्यों का वर्धन करें! दिलचस्प बात यह है कि लोक सेवा आयुक्त को इस बात का मूल्यांकन करने का अधिकार है कि विभिन्न अभिकरण किस हद तक इन मूल्यों को समाविष्ट करते हैं, और उन्हें बनाये रखते हैं, साथ ही उसे यह अधिकार भी प्रदान किया गया है कि वह ऐसी व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं की पर्याप्तता का मूल्यांकन करें जो इस संहिता के पालन को सुनिश्चित करते हैं। उसे सांविधिक अधिकार भी प्राप्त हैं और नीतिगत जिम्मेदारियां भी। इनमें सेवा की स्थिति पर संसद को एक वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना शामिल है जिसमें यह मूल्यांकन भी शामिल किया गया है कि विभिन्न अभिकरण किस स्तर तक इन मूल्यों को सम्मिलित करते हैं।
कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने मसौदा लोक सेवा विधेयक, 2006 तैयार किया था और उसे सुझावों के लिए प्रशासनिक सुधार आयोग को भेजा था। जब यह नया कानून पारित हो जायेगा तो यह भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय वन सेवा और सभी केंद्रीय सेवाओं पर लागू होगा।
यह संहिता ठोस शब्दों में निर्दिष्ट करेगी कि लोक सेवकों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, और काम करते समय ‘‘विविधता का संबंध रखते हुए, जाति, समुदाय, धर्म, लिंग या वर्ग का भेदभाव किये बिना कार्य करना है।‘‘ यह संहिता निष्पादन और कार्यकुशलता की निगरानी के लिए एक तंत्र भी स्थापित करेगी।
‘‘राजनीतिक कार्यकारी और लोक सेवा के बीच अंतरफलक स्पष्ट रूप से स्थापित किया जाएगा, जो राजनीतिक तटस्थता, व्यावसायिक श्रेष्ठता और सत्यनिष्ठा के सिद्धांतों पर आधारित होगा।‘‘
इस संहिता के लेखक, केंद्रीय प्राधिकरण, जो इस अधिनियम के तहत केंद्रीय भूमिका निभाएगा, और वह राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होगा।
प्राधिकरण के अध्यक्ष और सदस्य राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश और लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता की सदस्यता वाली समिति की सिफारिशों के आधार पर की जायेगी।
हालांकि इस प्राधिकरण के अध्यक्ष या सदस्य संसद सदस्य या विधायक नहीं होंगे और न ही वे किसी राजनीतिक दल के पदाधिकारी होंगे।
इस कानून की एक अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें योग्यता आधारित लोक सेवा पर जोर दिया गया है। मसौदे के अनुसार उपलब्धि के लिए सभी कर्मचारियों के लिए एक निष्पादन प्रबंधन व्यवस्था तैयार की जायेगी जिसमे निष्पादन संकेतक और विकास की प्राथमिकताओं के संबंध में परिणाम और प्रभाव की माप प्रदान किये जायेंगे।
इसके तहत विभिन्न विभागों के बजट आवंटन और अन्य हकों के लिए श्रेणियों का विचार किया जायेगा।
इसमें लोक सेवकों की सेवा के स्थायित्व की चिंताओं के निराकरण का प्रावधान भी किया गया है, यह विधेयक केंद्रीय प्राधिकरण से उम्मीद करता है कि वह सुनिश्चित करे कि ‘‘लोक सेवकों के स्थानांतरण और पदस्थापना निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीके से किये जाते हैं और लोक सेवक की सेवा अवधि उचित रूप से निर्धारित की जाती है और इसे सुशासन को बनाये रखने की निरंतरता और अनिवार्यता की आवश्यकताओं से सुसंगत रखा जाता है।‘‘
यह विधेयक तो लोक सेवकों को इस हद तक स्वतंत्रता प्रदान करता है, कि अपने वरिष्ठ के किसी आदेश का पालन करना है अथवा नहीं करना है इसका निर्णय वे स्वयं कर सकते हैं, यदि ऐसा आदेश संहिता के विरुद्ध है।
ऐसे मामले में केंद्रीय प्राधिकरण संबंधित अधिकारी को मामले को उत्पीडन के भय के बिना उचित मंच पर उठाने का अवसर प्रदान करेगा।
मसौदा विधेयक सरकार से यह मांग करता है कि वह ऐसी योजना स्थापित करे जिसके माध्यम से व्यवस्था में विद्यमान ध्यानाकर्षकों को संरक्षण प्रदान किया जा सके, जो उनके कार्यस्थल पर संचालित की जा रही संदिग्ध गतिविधियों और अनुचित शासन की सूचना प्रदान करते हैं।
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