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प्रशासनिक नैतिकता भाग - 2
4.0 प्रशासनिक आचारशास्त्र की आवश्यकता
प्रशासन के लिए एक आचार संहिता के उद्देश्य बहुविध हैं। प्राप्त करने योग्य कुछ प्रमुख उद्देश्य निम्नानुसार हैंः
- लोक सेवकों की मनमानी गतिविधियों को नियंत्रित करना।
- प्रशासनिक जिम्मेदारी की भावना को बढ़ावा देना।
- नागरिकों और लोक सेवा के बीच सही संबंधों को स्थापित करना और उन्हें प्रोत्साहित करना।
- लोक सेवकों में आचार के उच्च मानक स्थापित करना।
- सामाजिक कल्याण, जनहित और सभी की भलाई को संरक्षित करना और उसे प्रोत्साहित करना।
- प्रशासनिक शक्ति और विवेकाधिकार के उस भाग को रोकना जिन्हें औपचारिक नियमों, तरीकों और प्रक्रियाओं से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता।
- प्रशासनिक प्रक्रिया की कार्यकुशलता और प्रभावशीलता में सुधार करना।
- लोक प्रशासन की वैधता और विश्वसनीयता को सशक्त बनाना।
- राजनीतिक कार्यकारियों और लोक सेवकों के बीच संबंधों को स्थिर और सुचारू बनाना।
- सभी वर्गों के लोक सेवकों के बीच उच्च नैतिकता को बनाये रखना और उसे सुदृढ़ करना।
प्रशासनिक आचारशास्त्र के महत्त्व पर प्रकाश ड़ालते हुए पी.आर. दुभाषी ने कहा था, ‘‘यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि लोक प्रशासन कुशल होना चाहिए, परंतु उससे भी अधिक आवश्यक यह है कि उसे नीतिपरक होना चाहिए। व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि यदि चरित्र नष्ट हो गया, तो समझिए कि सब कुछ नष्ट हो गया है। उसी प्रकार लोक सेवकों के बारे में कहा जा सकता है कि यदि उनकी नैतिकता समाप्त हो गई तो समझिए कि सब कुछ नष्ट हो गया है।‘‘
5.0 आचारशास्त्र पर बनी समितियां
अमेरिकी डगलस समितिः द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) के दौरान अमेरिकी समाज ने भ्रष्टाचार, व्यापारी कदाचार, अवैध गतिविधियों, घुमावदार व्यवहार, और राजनेताओं, प्रशासन और व्यापारियों के बीच अस्वस्थ गठजोड़ के अनेक मामलों का अनुभव किया था। अतः, अमेरिकी सीनेट (कांग्रेस का उच्च सदन) ने सीनेट के सदस्य पॉल डगलस की अध्यक्षता में एक उप समिति की नियुक्ति की थी। शासन में नैतिक मानकों पर समिति की रिपोर्ट ने न केवल अमेरिका बल्कि संपूर्ण विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था।
ब्रिटिश नोलन समितिः 1994 में, ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड़ नोलन की अध्यक्षता में सार्वजनिक जीवन के मानकों पर एक समिति की नियुक्ति की थी। समिति ने सार्वजनिक जीवन में सर्वोच्च मानकों को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सात सिद्धांतों की सिफारिश की थी। सार्वजनिक पदों पर आसन्न सभी व्यक्तियों को इन सिद्धांतों का अनिवार्य रूप से पालन करना चाहिए। ये सात सिद्धांत निम्नानुसार हैंः
- निस्वार्थता
- अखंड़ता
- वस्तुनिष्ठता
- जवाबदेही
- खुलापन
- ईमानदारी
- नेतृत्व
भारतीय समितियांः भारत में भ्रष्टाचार की व्याप्ति और प्रशासनिक नैतिकता में गिरावट को निम्न समितियों ने उजागर किया हैः
- रोलैंड्स के नेतृत्व में नियुक्त बंगाल प्रशासन जांच समिति (1944-45)
- लोक प्रशासन पर ए.डी. गोरवाला की रिपोर्ट (1951)
- आचार्य जे बी कृपलानी की अध्यक्षता में गठित रेलवे भ्रष्टाचार जाँच समिति (1953-55)
- भ्रष्टाचार के प्रतिबंध पर संथानम समिति (1962-64)
एन.एन. वोहरा समितिः इस समिति की नियुक्ति 9 जुलाई 1993 को राजनेताओं से संबंधित भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण की सामान्य अवधारणा की जांच के लिए की गई थी। इस समिति की रिपोर्ट को 1995 में संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत किया गया था।
अन्य बातों के साथ समिति ने, अपनी रिपोर्ट में इंगित किया था कि ‘‘अपराधी गिरोहों, पुलिस, नौकरशाही और राजनीतिज्ञों के बीच का गठजोड़‘‘ देश के विभिन्न भागों में स्पष्ट रूप से सामने आ गया था। विद्यमान आपराधिक न्याय व्यवस्था, जिसकी रचना अनिवार्य रूप से व्यक्तिगत अपराधों से निपटने के उद्देश्य से की गई थी, माफिया की गतिविधियों से निपटने में असमर्थ थी य आर्थिक अपराधों से संबंधित कानून के प्रावधान कमजोर साबित हो रहे थे, और माफिया गतिविधियों के माध्यम अर्जित संपत्तियों की कुर्की/जब्ती में दुर्गम कानूनी कठिनाइयां और अड़चनें थीं।
रिपोर्ट में भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन एक नोड़ल अभिकरण की स्थापना की सिफारिश की गई थी जिसका संचालन सीधे गृह सचिव द्वारा किया जाएगा और यह अभिकरण विभिन्न खुफिया अभिकरणों से प्राप्त सभी सूचनाओं और जानकारी का एकत्रीकरण और संग्रहण करेगा।
1995 में संपन्न हुई सर्वदलीय बैठक में निम्नलिखित निर्णय लिए गएः
- सभी संसद सदस्यों और मंत्रियों द्वारा अपनी परिसंपत्तियों और दायित्वों की घोषणा को अनिवार्य बनाया गया।
- विशेषाधिकार समिति से अलग और स्वतंत्र, आचारशास्त्र पर एक संसदीय समिति गठित की जाए जो संसद सदस्यों की गतिविधियों पर एक संरक्षक के रूप में कार्य करेगी।
- एक अधिक स्वच्छ सार्वजनिक जीवन सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक दलों के स्तर पर एक आचार संहिता अंगी.त की जाए, उदाहरणार्थ राजनीतिक दल उन व्यक्तियों को टिकट नहीं देंगी जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि सिद्ध हो चुकी है।
- सभी राजनीतिक दलों के खाते खुले और लेखा परीक्षित हों जिनका प्रकाशन प्रति वर्ष अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए।
- वोहरा समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों के परिणामस्वरूप गठित नोडल अभिकरण को और अधिक अधिकार प्रदान करने का निर्णय भी लिया गया।
- न्याय व्यवस्था में संशोधन, प्रक्रियाओं का सरलीकरण और शीघ्र न्याय प्रदान किया जा सके।
आचार समिति का जन्मः 1997 में राज्य सभा की सामान्य प्रयोजन समिति ने राज्यसभा के सभापति को एक आचार समिति के गठन के अधिकार प्रदान किये जो राज्यसभा के सदस्यों के नैतिक और नीतिपरक आचरण का पर्यवेक्षण करेगी। इस प्रकार राज्यसभा के सभापति द्वारा 4 मार्च 1997 को राज्यसभा की आचार समिति का गठन किया गया, जो भारत की किसी भी विधायिका द्वारा गठित अपनी तरह की पहली ऐसी समिति थी, जिसका कार्य राज्यसभा के सदस्यों के नैतिक और नीतिपरक आचरण की देखरेख करने के साथ साथ यह भी था कि वह उसे प्रेषित किये गए सदस्यों के नैतिक और अन्य दुराचार से संबंधित मामलों का परीक्षण और जांच करे। इसमें यह प्रावधान किया गया था कि प्रक्रियाओं और अन्य मामलों के संबंध में जो नियम विशेषाधिकार समिति पर लागू होते हैं वे सभी नियम आचार समिति पर भी उन संशोधनों और परिवर्तनों के साथ लागू होंगे जो राज्यसभा के सभापति द्वारा समय-समय पर किये जायेंगे।
राज्यसभा की आचार समिति में इसके अध्यक्ष के साथ दस सदस्य होते हैं जिनका नामांकन राज्यसभा के सभापति द्वारा किया जाता है। इस समिति का अध्यक्ष सदन के सबसे राजनीतिक दल के सदस्य को बनाया जाता है। आमतौर पर इसके अन्य सदस्य विभिन्न राजनीतिक दलों के सदन के नेता, उप नेता/मुख्य सचेतक होते हैं।
समग्र रूप से देखा जाए तो भारतीय लोक सेवा ने पाने निष्पक्ष और गुमनाम चरित्र को लगभग खो दिया है, हालांकि भारतीय लोक सेवा में आज भी कुछ ईमानदार लोक सेवक मौजूद हैं, फिर भी वे अब शासन की प्रक्रियाओं में अकेले पडते जा रहे हैं। भारत में नौकरशाही के प्रति लोगों की नकारात्मक छवि के कारण निम्नानुसार हैंः
- उच्च स्तरीय लोक सेवा में भ्रष्ट पद्धतियाँ अधिकाधिक प्रचलित हुई हैं, और लोगों की उच्च लोक सेवकों के एक वर्ग के रूप में अवधारणा उपदेशात्मक नहीं बची।
- उच्च पदस्थ लोक सेवक - विशेष रूप से देश के विभिन्न राज्यों में कार्यरत भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय वन सेवा के अधिकारियों का किसी भी पद पर निश्चित सेवा काल नहीं होता, अतः वे उनको प्रदान किये गए क्षेत्रों में लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो पाते। किसी निश्चित सेवा काल के अभाव में अखिल भारतीय सेवा के ये अधिकारी लोक नीति के प्रभावी साधनों के रूप में कार्य नहीं कर पाते हैं, और एक पद से दूसरे पद पर बार-बार होने वाले स्थानांतरण के कारण बर्बाद हो जाते हैं।
- अधिकांश लोक सेवकों को जन हितैषी नहीं माना जाता, और आमतौर पर जमीनी वास्तविकताओं से उनका संबंध लगभग टूट चुका है। उनके क्षेत्रीय दौरों और क्षेत्र प्रोग्रामरों के निरीक्षणों में उल्लेखनीय गिरावट आई है। राज्यों में कार्यरत लोक सेवकों ने पूर्व प्रचलित दूरस्थ क्षेत्रों के निरंतर दौरों और उन्हीं क्षेत्रों में रात्रि विश्राम की पद्धति को लगभग पूर्ण रूप से तिलांजलि दे दी है, जबकि समाज के गरीब और कमजोर वर्गों की समस्याओं को जानने और उनके निराकरण के लिए ऐसे दौरे अत्यंत आवश्यक होते हैं।
7.0 चुनौतियाँ
काफी प्राचीन काल, 200 ईसा पूर्व में ही कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचार के चालीस तरीकों की पहचान की थी। उन्होंने इसकी अपरिहार्यता का भी संदर्भ दिया था और टिप्पणी की थीः ‘‘जैसे जीभ के सिरे पर रखे हुए शहद को नहीं चखना असंभव है, वैसे ही सरकारी अधिकारी के लिए भी राजा के राजस्व के कम से कम थोडे़ से भाग को नहीं खाना असंभव है।‘‘ भ्रष्ट अधिकारी की पहचान कर पाने की समस्या के बारे में उनका कहना थाः ‘‘जैसे यह पहचाना नहीं जा सकता कि पानी में तैरती हुई मछली पानी पी रही है या नहीं, वैसे ही यह पता लगाना संभव नहीं है कि सरकारी सेवक अपने स्वयं के लिए धन कब ले रहे हैं।‘‘
1951 में जब ए.डी. गोरवाला ने भारतीय लोक प्रशासन पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, तब उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि सत्यनिष्ठा सुशासन के एक आधारभूत दार्शनिक सिद्धांतों में से एक था। यह विडं़बना है कि सार्वजनिक जीवन में नैतिक मानकों की गिरावट स्पष्ट रूप से दिखाई देने के बावजूद प्रशासनिक सुधारों पर मुख्यधारा की रिपोर्टों ने नैतिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया है। भारत में भ्रष्टाचार के प्रतिबंध पर 1964 की संथानम समिति की रिपोर्ट को छोड़ कर, और 1955 में आचार्य कृपलानी द्वारा प्रस्तुत की गई रेलवे भ्रष्टाचार जांच समिति की इस विषय की एक खंडित रिपोर्ट को छोड़ कर, ऐसे कोई प्रयास नहीं किये गए हैं जो प्रशासनिक व्यवस्था में विभिन्न स्तरों पर नैतिक मूल्यों के एकीकरण की रणनीतियों की सिफारिशें करते हों। यह सत्य है कि लोकपाल और लोकायुक पर एआरसी रिपोर्ट 1966 में प्रकाशित की गई थी, परंतु बजाय इसके कि सार्वजनिक व्यवस्था में एक नई नैतिक व्यवस्था किस प्रकार लाई जा सकती है, वह भी केवल संरचनात्मक परिवर्तनों तक ही सीमित थी।
2005 में मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की नियुक्ति के इरादे की घोषणा के साथ देश में प्रशासनिक सुधारों पर आविर्भावी जांच में लोक सेवाओं की नैतिक चिंताओं को अधिक सम्मानजनक स्थान प्रदान किये जाने की संभावना है। आवश्यकता, प्रशासनिक नैतिकता के सामान्य वक्तव्यों के पार जाकर व्यक्तिगत विभागों या संगठनों के विशिष्ट संदर्भ में कानून, नियमों, संरचनाओं और व्यवहार पद्धतियों में संशोधनों की सिफारिशें अधिक सावधानीपूर्वक की जाने की है। उदाहरणार्थ पुलिस विभाग में नैतिकता के मुद्दे शिक्षा विभाग की तुलना में एक अधिक विशिष्ट चरित्र और संभावित समाधान लिए हुए होते हैं। इसके लिए विशिष्ट कार्यात्मक क्षेत्रों से संबंधित कानूनों और प्रक्रियाओं में अधिक कठोर संशोधनों की आवश्यकता होगी।
इक्कीसवीं सदी की प्रशासनिक नैतिकता बीसवीं सदी की प्रशासनिक नैतिकता से किस प्रकार से भिन्न होगी? इसका उत्तर राष्ट्रीय स्तर पर नैतिक चिंताओं के बढ़ते अभिसरण में देखा जा सकता है। शायद आर्थिक व्यवस्था का वैश्वीकरण शासन व्यवस्था के मुद्दों के वैश्वीकरण का मार्ग प्रशस्त करेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि वैश्विक स्तर पर शासन व्यवस्थाओं, और उनसे भी कम नौकरशाही व्यवस्थाओं का एक समान विन्यास होगा। परंतु शासन के लक्ष्यों, दर्शन और रणनीतियों के क्षेत्र में विभिन्न देशों के बीच की खाइयां पटने के साथ ही संभव है कि नैतिक चिंताएं अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के पार जाने में सक्षम हो पाएं।
ये लोक प्रशासन की कार्यकुशलता, जिम्मेदारी, जवाबदेही और वस्तुनिष्ठता जैसी शास्त्रीय चिंताओं को प्रतिबिंबित करेंगी, साथ ही इनके माध्यम से समानता, न्याय, खुलापन, दया, परोपकारिता, प्रतिक्रियावादिता, मानवाधिकारों और मानवी प्रतिष्ठा जैसे अविर्भावी विश्वासों का भी प्रतिबिंबन होगा। आशा की जानी चाहिए कि यह प्रशासनिक नैतिकता के निर्वाह की एक नई नागरिकता के फलने-फूलने में सहायक होगा। ऐसी सकारात्मक नागरिकता के पालन-पोषण के लिए भी लोक प्रशासन संस्थाओं को सुविधाप्रदाता और शिक्षकों के रूप में कार्य करना होगा। यह आने वाले समय में प्रशासनिक व्यवस्था के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती, और साथ ही, एक अवसर भी है।
8.0 उपसंहार
आचारशास्त्र एक व्यापक अवधारणा है। इसमें प्रशासन के सभी पहलू शामिल हैं। नैतिक और नीतिपरक मानकों पर जोर देना हमारी परंपरा का एक अविभाज्य अंग है। हालांकि भ्रष्टाचार, कदाचार, और नौकरशाहिता जैसी बुराइयों का हमारी व्यवस्था में धीमा रिसाव हुआ है, फिर भी इनसे लडने के उपाय अधिक प्रभावी नहीं रहे हैं। प्रशासनिक सुधारों के उपायों का पर्याप्त पूर्णतावादी होना आवश्यक है, जो अपनी परिधि में कार्यात्मक नैतिकता के स्वरुप, नैतिकता के विभिन्न आयामों, नैतिकता संबंधी चिंताओं को समाविष्ट करने के साथ ही नैतिक जवाबदेही के मार्ग में आने वाली बाधाओं के स्वरुप को भी समाविष्ट करने में सक्षम हो।
किसी भी शासन व्यवस्था के पारदर्शी, जवाबदेह, कार्यकुशल और संवेदनशील होने के लिए सेवा नियमों, प्रक्रियात्मक मानकों और प्रशासनिक रणनीतियों के रूप में एक आचार संहिता का होना आज की अनिवार्य आवश्यकता है। ऐसी आचार संहिता को प्रभावी नहीं करना है जो आत्म सेवारत हो, और जो निरंतर बाह्य हस्तक्षेप और हेरफेर के अधीन हो। किसी भी संहिता की सफलता के लिए एक निश्चित मात्रा में स्वायत्तता होना एक पूर्वशर्त है। हम अधिकार, आज्ञाकारिता और अनुशासन की पद्धतियों में एक परिवर्तन का अनुभव कर रहे हैं। साथ ही वैश्वीकरण की प्रवृत्तियों ने नैतिक मानकों और मूल्यों में एक प्रकार की सार्वभौमिकता का निर्माण किया है। शासन का दर्शन अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के पार चला गया है। प्रशासन का लगभग प्रत्येक स्तर निर्णय प्रक्रिया में शामिल हो गया है। व्यक्तिगत मूल्यों, संस्थागत मानकों और सामाजिक नैतिकता के बीच संघर्ष स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हालांकि शायद यह संहिता नैतिक मुद्दों पर राय में आमसहमति को प्रतिबिंबित नहीं करती हो, फिर भी यह नैतिक आचरण के संदर्भ में एक दिशा में सलाह निश्चित रूप से प्रदान कर सकती है, साथ ही प्रशासकों को सही परिपेक्ष्य में अपने विकल्पों के विश्लेषण में भी सहायता प्रदान कर सकती है।