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प्रशासनिक नैतिकता भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
प्रशासक समाज की राजनीतिक और निर्णय प्रक्रिया संरचना की ठोस बनावट की निर्मिति करते हैं। उनके बिना नीतियां कभी भी अपने इच्छित गंतव्य तक पहुंचने में सफल नहीं हो पाएंगी। प्रशासनिक नैतिकता लोक सेवाओं में नैतिकता की पेशेवर संहिता का प्रदर्शन करती है। वे लोक सेवकों के नैतिक पहलू का निर्माण करती हैं। वे विभिन्न श्रेणियों के लोक सेवकों के आचरण और व्यवहार को विनियमित करती हैं। इस प्रकार वे ‘‘खेल के नियम‘‘ प्रदान करती हैं।
आधुनिक राज्य में लोक सेवा पेशेवर होने के कारण उसने अपने सदस्यों के लिए नैतिकता की एक संहिता विकसित की है। इस संहिता में परंपराएं, पूर्व उदाहरण और मानक (traditions, precedents, standards) शामिल होते हैं जिन्हें लोक सेवकों को बनाये रखना पड़ता है लोक सेवकों से ऐसी उम्मीद की जाती है कि वे न केवल अपने स्वयं के लिए बल्कि समग्र रूप से संपूर्ण समुदाय के लिए उच्च नैतिक मानक स्थापित करें। यह तब और भी आवश्यक हो जाता है जब समाज में प्रशासन के आकार और उसकी भूमिका और समाज पर होने वाले उसके प्रभाव में वृद्धि हो रही है।
2.0 नैतिकता की परिभाषा
चेस्टर बर्नार्ड ने आचारसंहिता के व्यवहार के नैतिक आचरण को परिभाषित करते हुए कहा है कि ‘‘यह स्वहित की चिंता किये बिना या विशिष्ट परिस्थितियों में किसी कार्य को करने या नहीं करने के निर्णय के तत्काल परिणामों की चिंता किये बिना सही और गलत क्या है इन मान्यताओं या भावनाओं द्वारा शासित होती है।‘‘
ग्लेन स्थाल ने (अपनी पुस्तक सार्वजनिक कार्मिक प्रशासन में) सही टिप्पणी की हैः ‘‘लोक सेवक के नैतिक आचरण की समस्या उसमें निहित शक्ति और प्रभाव और लोगों को निष्ठावान और निस्वार्थ सेवा प्रदान करने के लिए उसके द्वारा प्रदर्शित की गई प्रतिबद्धता से निर्मित होती है।’’
पॉल एच. एपलबी ने (अपनी पुस्तक लोकतांत्रिक शासन में नैतिकता और प्रशासन में) ‘‘आचारशास्त्र‘‘ शब्द के स्थान पर ‘‘नैतिकता‘‘ शब्द को तरजीह दी है। उनका तर्क है कि नैतिकता प्रशासन को अलग नहीं किया जा सकता। उन्होंने टिप्पणी की किः ‘‘अधिक बड़ा शासन अंततः मायने नहीं रखता; महत्वपूर्ण यह है कि प्रशासन में केवल नैतिकता ही बेहतर शासन सुनिश्चित कर सकती है। इस बात के प्रति किसी को शक नहीं होना चाहिए कि प्रशासन में नैतिकता धैर्य, ईमानदारी, निष्ठा, उत्साह, शिष्टाचार और ऐसे गुणों द्वारा ही अनवरत रखी जा सकती है।‘‘ उन्होंने एक नैतिक प्रशासक के लिए निम्न विशेषताओं को रेखांकित किया हैः
- उत्तरदायित्व की भावना
- कार्मिक प्रशासन और सम्प्रेषण के कौशल
- संस्थागत स्रोतों का निर्माण और उनका उपयोग
- समस्या निवारण में शामिल होना और दूसरों के साथ एक टीम के रूप में कार्य करना
- नए विचारों के सृजन और उनके क्रियान्वयन के प्रति आत्मविश्वास
- अनुभवरहित नौकरशाही शक्तियों का सहारा लेने के बजाय जनता की आवश्यकताओं, हितों और संवेदनाओं द्वारा प्रभावित होने को तरजीह देने वाला।
आधुनिक काल में अपनी लोक सेवा को पेशेवर बनाने वाला जर्मनी (प्रशिया) पहला राज्य था। निश्चित ही उसने अपने लोक सेवकों के लिए एक पेशेवर संहिता को विकसित किया। हालांकि इसमें सामान्य आचारशास्त्र के अलावा अधिनायकवाद, नौकरशाही और अन्य अलोकतांत्रिक तत्व शामिल थे। ब्रिटेन वह पहला देश था जिसने लोक सेवकों के लिए एक लोकतांत्रिक स्वरुप की पेशेवर संहिता का विकास किया था। वास्तव में ब्रिटिश लोक सेवा अपनी प्रशासनिक नैतिकता के लिए प्रसिद्ध है।
भारत की स्थिति के संदर्भ में, पी.आर. दुभाषी ने इसे सटीक ढ़ंग से सरांशित किया हैः ‘‘भारत में हालांकि लोक प्रशासकों के लिए कोई नैतिक संहिता नहीं है, फिर भी यहां शासकीय सेवा आचरण के नियम विद्यमान हैं। ये नियम निर्दिष्ट करते हैं कि लोक सेवकों के कौन से आचरण दुराचरण की श्रेणी में आते हैं। अतः यह जाहिरा तौर पर गर्भित है कि इस प्रकार का दुराचरण जो अनुज्ञप्त नहीं है वह अनैतिक आचरण भी है।‘‘
लोक सेवा के सदस्य को अपने कार्यों के निष्पादन में पूर्ण सत्यनिष्ठा, संविधान और देश के कानून के प्रति निष्ठा, देशभक्ति, राष्ट्रीय सम्मान, कर्तव्य के प्रति समर्पण, ईमानदारी, निष्पक्षता और पारदर्शिता को बनाये रखने द्वारा निर्देशित होना चाहिए।
3.0 आचारशास्त्र का विकास
चाहे संपूर्ण समाज में या एक सामाजिक उप व्यवस्था में अचारशास्त्र दीर्घकाल में समय के साथ विकसित होता है, और इसके पोषण और संवृद्धि के दौरान यह विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय कारकों से प्रभावित होता है। प्रशासनिक आचारशास्त्र भी इससे अलग नहीं है। यह विभिन्न प्रासंगिक संरचनाओं का उत्पाद है जो कभी भी विकसित होने और परिवर्तित होने से रुकता नहीं है। अब हम इनमें से कुछ प्रासंगिक कारकों का विचार करते हैं, जो लोक प्रशासनिक व्यवस्थाओं में आचारशास्त्र को प्रभावित करते हैं।
3.1 ऐतिहासिक संदर्भ
किसी भी देश का इतिहास उसकी शासन व्यवस्था के नैतिक चरित्र को सबसे अधिक प्रभावित करता है। अमेरिकी राष्ट्र के प्रारंभिक चरण के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका की लूट प्रणाली ने अमेरिकी लोक प्रशासन के नैतिक वातावरण को दूषित किया। अमेरिकी राष्ट्रपति जैक्सन ने दृढ़ता पूर्वक कहा कि ‘‘लूट पर विजेता का ही अधिकार होता है।‘‘ यदि एक असंतुष्ट रोज़गार चाहने वाले ने 1881 में राष्ट्रपति गारफील्ड़ की हत्या नहीं की होती तो स्थितियां इसी प्रकार जारी रहतीं। गारफील्ड़ की हत्या ने अमेरिका में लोक सेवा सुधारों की प्रक्रिया को प्रेरित किया, और 1883 में अमेरिकी लोक सेवा आयोग का गठन इस दिशा में उठाया गया पहला महत्वपूर्ण कदम था।
भारत भी शासन व्यवस्था की अनैतिक प्रवृत्तियों से अछूता नहीं रहा है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र ऐसी अनेक भ्रष्ट्र आचरणों का उल्लेख करता है, जिनमें उस कल के प्रशासक स्वयं को लिप्त किया करते थे। मुगल साम्राज्य और भारतीय रियासतों का शासन भी दरबारियों और प्रशासनिक अधिकारियों के भ्रष्ट आचरण से ग्रस्त था, जिसमें ‘‘बख्शीश‘‘ उपकार करने और उपकार प्राप्त करने का एक स्वीकृत साधन था। अब यह इतना स्थानिक बन गया है कि आज इसकी मांग एक अधिकार के रूप में की जाती है। यहां तक की ब्रिटिश संसद तक ने ईस्ट इंड़िया कंपनी के कर्मचारियों की भ्रष्ट के रूप में आलोचना की थी।
यदि हम इतिहास के पन्ने पलटें तो हम पाते हैं कि मानव इतिहास के सभी चरणों के दौरान ईमानदारी और अनैतिक आचरण की परस्पर विरोधी शक्तियां सह अस्तित्व में रही हैं। इनमें से कौन सी शक्तियां अधिक प्रबल होंगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें तत्कालीन राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था के प्रमुख कर्ता-धर्ताओं की ओर से किस प्रकार का समर्थन प्राप्त हो रहा है। सबसे चिंतित करने वाली बात यह है कि शासन में अनैतिक आचरण की दीर्घकालीन विरासत प्रशासनिक अनैतिकता के प्रति सहनशीलता के स्तर में वृद्धि करने की संभावना है। अधिकांश विकासशील देशों में, जिनका अपना औपनिवेशिक इतिहास रहा है, लोगों और सरकार के बीच की खाई निरंतर चौड़ी बनी हुई है। औपनिवेशिक युग में, शासन की वैधता को बहुसंख्य जनसंख्या द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार नहीं किया गया था, और इसलिए शासकों के प्रति सच्ची निष्ठा एक दुर्लभ घटना थी। हालांकि परिवर्तित लोकतांत्रिक शासनों में शासक कुलीन वर्ग और नागरिकों के बीच की दूरी काफी हद तक कम हुई है, फिर भी दोनों के बीच की आत्मीयता और विश्वास नई व्यवस्था भी पूर्ण नहीं हुआ है। दुर्भाग्य से शासन करने वाला कुलीन वर्ग भी नागरिकों के साथ भावनात्मक एकता की भावना को आत्मसात करता हुआ प्रतीत नहीं होता। लोगों और प्रशासकों के बीच प्रतिस्पर्धी सहयोग की विरासत आज भी अस्तित्व में है। इस संबंध के स्वरुप का ‘‘प्रशासनिक आचारशास्त्र’’ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
3.2 सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ
परिवार समाज की प्राथमिक इकाई है। किसी समाज की सामाजिक व्यवस्था में जिन मूल्यों को महत्त्व प्राप्त होता है वे ही शासन व्यवस्था के स्वरुप को निर्धारित करते हैं। आज का भारतीय समाज किसी भी अन्य मूल्य के बजाय संपत्ति को अधिक प्रधानता प्रदान करता हुआ प्रतीत होता है और संपत्ति अर्जित करने की प्रक्रिया में साधन-साध्य के बीच की बहस अलग-थलग पड़ गई है। दुर्भाग्य से साध्य अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं, और साधनों को उतना सम्मान नहीं दिया जाता। संपत्ति की चाह अपने आप में बुरी नहीं है। वास्तव में यह तो सभ्यता की प्रगति का द्योतक है। महत्वपूर्ण यह है कि इस चाहत को पूरा करने के लिए कौनसे साधन अपनाये गए हैं।
एक आर्थिक या वाणिज्यिक समाज में व्यक्तियों की एकआयामी प्रगति अधिक स्वीकार्य भी होती है और इसे अधिक मूल्य भी प्रदान किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि साध्य साधनों की तुलना अधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं। हालांकि महात्मा गांधी भारतीय समाज के प्राथमिकता क्रम को परिवर्तित करना चाहते थे, परंतु उनके इन मौलिक विचारों को लेने वाला या उनका समर्थन करने वाला कोई नहीं था, जो तीव्र नैतिक व्यवस्था में गहराई तक डूबे हुए थे। यदि इसे स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो जब से गांधीजी की मृत्यु हुई है तब से ऐसी कोई मजबूत आवाज नहीं पैदा हुई है जो ‘‘प्रयोजनवाद और गैर आयामवाद‘‘ के वर्चस्व को चुनौती दे सके।
यह आवश्यक नहीं है कि नैतिकता के मुद्दे समाज के धार्मिक लोकाचार में गहराई तक बैठे हुए हों। भारतीय धार्मिक ग्रंथ गलत मार्गों से संपत्ति प्राप्त करने को उचित नहीं मानते। यह जानना दिलचस्प है तिरुवल्लुवर की कुराल, जो दो हजार वर्ष पूर्व तमिलनाडु में लिखी गई थी, इस बात पर जोर देती है कि धन अर्जन अपने साथ प्रसिद्धी, सम्मान और दूसरों की सहायता और सेवा करने का अवसर लाता है, परंतु यह धन केवल सही मार्गों से ही अर्जित किया होना चाहिए। क्या यह उक्ति हमारे सामाजिक-नैतिक उन्मुखीकरण का आधार बन पायेगी? कुछ लोगों का मानना है कि प्रोटेस्टेंट और पारसियों में सत्यनिष्ठा का स्तर अन्य धर्मों की तुलना में सापेक्ष दृष्टी से अधिक उच्च होता है और हम इस सत्यनिष्ठा की जडें़ इन धर्मों के अच्छी तरह से दीर्घस्थायी आचार-विचार में देख सकते हैं। हालांकि यह केवल एक दृष्टिकोण है, क्योंकि ऐसे अनेक अन्य धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष समुदाय हैं जो अपने उच्च नैतिक आचरण के लिए जाने जाते हैं। उसके धार्मिक उन्मुखीकरण के साथ, किसी देश की सांस्कृतिक व्यवस्था उसके लोगों की कार्यात्मक नैतिकता को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हुई प्रतीत होती है।
3.3 कानूनी-न्यायिक संदर्भ
किसी देश की न्यायिक व्यवस्था काफी हद तक शासन व्यवस्था में नैतिक चिंताओं की प्रभावकारिता को निर्धारित करती है। एक ठीक ढ़ंग से बनाया गया कानून, जिसमें निष्पक्ष आचरण और ईमानदारी के मानदंड़ों पर स्पष्ट रूप से जोर दिया गया हो, शायद नैतिक ब्रह्मांड में अनाज से घास-फूस का भेद करने में सक्षम हो सकता है। इसके विपरीत अस्पष्ट कानून, जिसमें भ्रष्टाचार की परिभाषाएं और उनका स्पष्टीकरण भ्रमित करने वाला हो, केवल भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करेगा, क्योंकि यह देश के कानून और समाज के आचार-विचार का उल्लंघन करने वालों के मन में ईश्वर के प्रति, और कानून के प्रति भय प्रस्थापित करने में सक्षम नहीं हो पायेगा। इसके अतिरिक्त तेज गति की न्याय प्रणाली के साथ एक कुशल और प्रभावी न्याय व्यवस्था सार्वजनिक मामलों में अनैतिकता की राह में रोड़ा साबित होगा। इसके विपरीत, एक धीमी गति से चलती न्यायिक व्यवस्था, जो कानून की भावना के बजाय कानून की परिभाषा के बारे में अधिक चिंतित है, न्याय को बेचौन और विलंबित कर देगी और एक प्रकार से अपराध करने वालों के लिए सहायक ही साबित होगी क्योंकि यह उन्हें संदेह का लाभ प्रदान करके और लंबी अवधि तक चलने वाली मुकदमेबाजी के माध्यम से कानून से बचने के रास्ते प्रदान करेगी। उसी प्रकार, जटिल प्रक्रियाओं के उलझे हुए जाल के साथ सरकार का भ्रष्टाचार
विरोधी तंत्र अनजाने में अभियुक्तों को राहत प्रदान करता है। इनकी विलंबकारी और जटिल प्रक्रियाएं अभियुक्तों को अप्रत्यक्ष रूप से सहायता प्रदान करती हैं। भारत में तो कोई प्रभावी भ्रष्टाचार विरोधी संस्था लगभग अस्तित्व में ही नहीं है।
3.4 राजनीतिक संदर्भ
आचारशास्त्र आमतौर पर एक ऊपर से नीचे की ओर आने वाला दृष्टिकोण होता है। राजनीतिक नेतृत्व, फिर चाहे वह सत्ता में हो या सत्ता के पटल से बाहर हो, शायद नागरिकों के नैतिक मानकों पर इकलौता सबसे प्रभावशाली प्रभाव है। किसी लोकतंत्र में सभी राजनीतिक दल, दबाव समूह और मीडिया भी नैतिक प्रश्नों के उन्मुखीकरण और अभिवृत्तियों को प्रभावित करते हैं। यदि राजनेता एकात्मता के विश्वसनीय उदाहरणों के रूप में व्यवहार करते हैं, जैसा कि स्केंड़िनीवियाई देशों में हुआ था, या सकल स्वहित के उदाहरणों के रूप में व्यवहार करते हैं, जैसा कि अधिकांश दक्षिण एशियाई देशों में देखा जाता है, तो प्रशासनिक व्यवस्था राजनीतिक नैतिकता के स्तरों से प्रतिरक्षित नहीं रह सकती।
भारत में निर्वाचन व्यवस्था को राजनीतिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा प्रेरक माना जाता है। चुनावों के दौरान किया गया करोड़ों का व्यय प्रत्याशियों को सही या गलत रास्ते से अपने खर्च की प्रतिपूर्ति करने ‘‘मजबूर‘‘ कर देता है - इसमें भी गलत मार्ग से ही अधिक क्षतिपूर्ति की जाती है। जबकि निष्पक्ष तरीके से धन अर्जित करने की अपनी सीमायें हैं, वहीं गलत रास्ते से धन अर्जित करने की कोई सीमा नहीं है। आमतौर पर यह तर्क दिया जाता है कि प्रशासनिक वर्ग - जिसमें उच्च स्तरीय, मध्यम स्तरीय और कनिष्ठ स्तरीय प्रशासनिक अधिकारी शामिल हैं - समाज में से ही निकल कर आता है। अतः स्वाभाविक रूप से समाज में विद्यमान आचार-विचार, मूल्य और व्यवहार के तरीके प्रशासकों के व्यवहार में प्रतिबिंबित होने की पूरी संभावना होती है। यह उम्मीद करना कि प्रशासक समाज में प्रचलित अभिविन्यासों और मानदंड़ों से अलग होंगे, अत्यंत अव्यावहारिक और अवास्तविक होगा।
राजनीतिज्ञों के व्यवहार और वर्तन का लोक सेवकों पर प्रदर्शन प्रभाव होता है। इसके अतिरिक्त, इसे विड़ंबना ही समझें कि कम ईमानदार राजनीतिक स्वामियों की लोक सेवकों को नियंत्रित करने की शक्ति अत्यंत अधिक होगी। यह भी विडंबना ही है कि भारत जैसे देश में नैतिक वातावरण किसी भी अन्य सामाजिक समूह की तुलना में इसके राजनेताओं द्वारा अधिक निर्मित किया जाता है। अन्य सभी व्यवस्थाओं पर राजनीतिक व्यवस्था का वर्चस्व इतना स्पष्ट है कि इसे नजरअंदाज करना असंभव है। यदि मीडिया वस्तुनिष्ठ और निडर है, तो भ्रष्टाचार रोकने में इसकी भूमिका प्रभावी होगी। यहां तक कि मीडिया प्रशासकों के बीच नैतिक व्यवहार को प्रोत्साहित करने में एक उत्प्रेरक का कार्य कर सकती है। अतः जो लोग मीडिया के स्वामी हैं या इसे प्रबंधित करते हैं, उन्हें अपनी व्यापक नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारियों को समझना होगा। इस दिशा में रुझान अब दिखाई देने लगा है, जहां अनेक टेलीविजन चौनल नियमित रूप से व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अपने ‘‘बेनकाब‘‘ कार्यक्रमों का प्रसारण करते हुए दिखाई पड़ते हैं। मीड़िया की यह भूमिका तभी महत्वपूर्ण होगी यदि वह केवल सनसनी फैलाने के बजाय सामाजिक जिम्मेदारी की भावना से की गई हो।
3.5 आर्थिक संदर्भ
किसी देश के आर्थिक विकास के स्तर का शासन व्यवस्था के आचारशास्त्र के स्तर से सकारात्मक सह संबंध हो सकता है। हालांकि दोनों के बीच किसी प्रकार का नैमित्तिक संबंध दिखाई नहीं देता परंतु इनके बीच एक सह संबंध से इंकार नहीं किया जा सकता। जब के न्यून स्तर का आर्थिक विकास आर्थिक व्यवस्था की असमानताओं के साथ जुड़ा होता है, तो इससे सामाजिक वर्गों और गुटों के बीच खाई निर्माण होने की संभावना होती है। समाज के कम सुविधाप्राप्त और अधिक वंचित वर्ग अपने निर्वाह और सुरक्षा की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय ईमानदार व्यवहार के सिद्धांतों को तिलांजलि देने की ओर प्रवृत्त हो सकता है। यह नहीं है कि समृद्ध व्यक्ति अनिवार्य रूप से अधिक ईमानदार होंगे (हालांकि वे ऐसे होने में सक्षम हैं), फिर भी आशंका इस बात की ही अधिक की जाती है कि गरीब व्यक्तियों की, निर्वाह करने का प्रयास करते समय, यह मजबूरी बन जाए कि उन्हें सत्यनिष्ठा के अपने सिद्धांतों से समझौता करना अनिवार्य हो जाए।
यह जानना दिलचस्प है कि विकासशील देशों में उदारवादी आर्थिक शासन की शुरुआत के साथ ही इस बात की चिंता बढ़ रही है कि उद्योग, व्यापार, प्रबंधन और शासन व्यवस्था में वस्तुनिष्ठता के मानदंड़ों का पालन किया जाए, यह इस लिए आवश्यक हुआ है क्योंकि विश्व व्यापार संगठन में उच्च स्तर की वस्तुनिष्ठता का अंतर्राष्ट्रीय दबाव है। इसी को फ्रेड रिग्स प्रशासनिक परिवर्तन के ‘‘बहिर्जात‘‘ प्रलोभन कहते हैं।
3.6 भारतीय संदर्भ
भारतीय प्रशासन के संदर्भ में लोक सेवा अधिकारियों की ओर से निम्न मूल्यों की उम्मीद की जाती है।
- अखंडताः लोक सेवा के दायित्वों को व्यक्तिगत हितों पर प्राथमिकता देना
- ईमानदारीः सत्यवादी और खुला होना
- वस्तुनिष्ठताः सकलाह और निर्णयों को साक्ष्य और प्रमाण कठोर विश्लेषण पर आधारित करना
- निष्पक्षताः पूरी तरह से मामले के गुण-दोषों के अनुसार कार्य करना, और विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों के साथ समान निष्पक्षता के आधार पर कार्य करना।
भारत जैसे देश में, जहां संस्कृतियों की इतनी विशाल विविधता है, सभी लोगों के साथ सम्मान के साथ व्यवहार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें विभिन्न वर्गों के लोगों को सम्मान देने के साथ ही अपने सहकर्मियों को सम्मान देना भी शामिल है। भारत सरकार प्रत्येक लोक सेवक के लिए कुछ अनिवार्य और सुविधा प्रदान करने वालेमूल्यों और नैतिकता के मानकों को प्रोत्साहित करती है।
- शासकीय कर्तव्य जिम्मेदारी, ईमानदारी, जवाबदेही और बिना भेदभाव के निष्पादित की जाए।
- प्रभावी प्रबंधन, नेतृत्व विकास और व्यक्तिगत संवृद्धि को सुनिश्चित करें।
- आधिकारिक पद या सूचना के दुरूपयोग से बचें।
- सुशासन के उपकरण के रूप में कार्य करें और सामाजिक आर्थिक विकास में वृद्धि करें।
भारत में प्रशासनिक नैतिकता के सभी तत्व विभिन्न लोक सेवा आचरण नियमों में शामिल किये गए हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण नियम निम्नानुसार हैंः अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1954; केंद्रीय सेवा (आचरण) नियम, 1955; और रेलवे सेवा (आचरण) नियम, 1956। इनके अतिरिक्त अन्य कई नियम और दिशानिर्देश हैं जो लोक सेवाओं से संबंधित विशिष्ट स्थितियों से निपटने के उद्देश्य से बनाये गए हैं।
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