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भारत में पर्यावरण कानून, प्रदूषण और अवनति
1.0 प्रस्तावना
पर्यावरण संरक्षण के संबंध में राज्य की जिम्मेदारी हमारे संविधान के अनुच्छेद 48-ए के तहत निर्धारित की गई है, जो इस प्रकार हैः ‘‘राज्य पर्यावरण के संरक्षण और उसमें सुधार करने और देश के वनों और वन्य जीवों की सुरक्षा के प्रयास करेगा।‘‘
हमारे संविधान के अनुच्छेद 51-ए (जी) के तहत पर्यावरण का संरक्षण इस देश के प्रत्येक नागरिक का मूलभूत कर्तव्य है, जो निम्नानुसार हैः ‘‘यह भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा करेगा और उसमें सुधार करेगा, इसमें वन, तालाब, नदियां, और वन्यजीव शामिल हैं और उसे जीव जंतुओं के प्रति करुणा करनी चाहिए।‘‘
संविधान का अनुच्छेद 21 एक मौलिक अधिकार है जो निम्नानुसार हैः ‘‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं रखा जायेगा।‘‘
संविधान का अनुच्छेद 48-ए राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत आता है और संविधान का अनुच्छेद 51 ए (जी) मौलिक कर्तव्यों के तहत आता है।
पोषण के स्तर और जीवन स्तर में वृद्धि करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने के संदर्भ में राज्य की जिम्मेदारी का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 47 में किया गया है जो इस प्रकार हैः
‘‘अपने देश के लोगों के पोषण के स्तर और जीवन स्तर को उठाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने के कार्यों को राज्य अपने प्राथमिक कर्तव्यों के रूप में मानेगा, का उपभोग और विशेष रूप से राज्य प्रयास करेगा कि औषधि प्रयोजन को छोड़कर मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक पदार्थों के सेवन पर प्रतिबंध लाया जाए।‘‘
संविधान का 42 वां संशोधन वर्ष 1974 में लाया गया था, जो राज्य की यह जिम्मेदारी बनाता है वह पर्यावरण का संरक्षण करे और उसमें सुधार लाये और देश के वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा करे। मौलिक कर्तव्यों के तहत दूसरा प्रत्येक नागरिक का यह मौलिक कर्तव्य बनाता है कि वह वनों, तालाबों, नदियों और वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण करे और उसमें सुधार लाये और जीवों के प्रति करुणा रखे।
संविधान की सातवीं अनुसूची में पर्यावरण से संबंधित प्रविष्टियां निम्नानुसार हैंः
प्रविष्टियां
52 उद्योग
53 तेल क्षेत्रों और खनिज तेल संसाधनों का विनियमन और विकास
54 खदानों का विनियमन और खनिज विकास
56 अंतर राज्य नदियों और नदी घाटियों का विनियमन और विकास
57 भूभागीय समुद्र के पार मछली पकडना और मत्स्य पालन
राज्य सूची
प्रविष्टियां
6 सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता
14 कृषि, कीटों से संरक्षण और वनस्पति रोगों की रोकथाम
20 आर्थिक और सामाजिक नियोजन
20 ए जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन
जैसा अनुच्छेद 246 (1) द्वारा प्रदत्त है, जबकि संघ सूची 1 में प्रगणित अपनी प्रजा पर किसी भी कानून को बनाने के लिए संघ सर्वोच्च है, अनुच्छेद 246 (3) के तहत राज्यों को सूची 2 में समाविष्ट प्रविष्टियां पर कानून बनाने की योग्यता है, और संघ और राज्यों, दोनों को अनुच्छेद 246 (2) के तहत सूची 3 में समाविष्ट प्रविष्टियों पर समवर्ती क्षेत्राधिकार प्राप्त है। संघर्ष की स्थिति में संघ को राज्यों पर इस रूप में प्रधानता प्राप्त है कि संघ और समवर्ती सूची में उसका कानून राज्य के कानून से अधिक महत्वपूर्ण होगा। साथ ही संसद को ऐसे सभी मामलों पर कानून बनाने के अवशिष्ट अधिकार प्राप्त हैं जो तीनों सूचियों में समाविष्ट नहीं हैं (अनुच्छेद 248)
2.0 उद्योगों को दी जाने वाली पर्यावरणीय अनुमति - एक पूर्णतः नवीन दृष्टिकोण
भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने उद्योगों का, उनके प्रदूषण भार के आधार पर, एक नया वर्गीकरण जारी किया है। मंत्रालय के अनुसार ‘‘श्वेत उद्योगों‘‘ की एक नई श्रेणी को, जो लगभग गैर-प्रदूषणकारी है, पर्यावरण अनुमति और अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होगी जिससे इन उद्योगों को उधार देने वाली संस्थाओं से उधार प्राप्त करने में सहायता प्राप्त होगी।
यह उद्योगों का निष्पक्ष चित्र प्रदान करने की दृष्टि से एक ऐतिहासिक निर्णय है। प्रदूषण भार के आधार पर उद्योगों का पुनर्वर्गीकरण एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वर्गीकरण की पुरानी व्यवस्था अनेक उद्योगों के लिए समस्याएं पैदा कर रही थी और यह इन उद्योगों के प्रदूषण के स्तर को भी प्रतिबिंबित नहीं कर पा रही थी।
प्रदूषण सूचकांक, उत्सर्जनों (वायु प्रदूषकों), उत्प्रवाहों (जल प्रदूषकों), उत्पन्न किये गए खतरनाक अपशिष्टों और उपभोग संसाधनों का फलन है। इसके लिए (ए) जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) उपकर (संशोधन) अधिनियम, 2003, (बी) पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत विभिन्न प्रदूषकों के लिए निर्धारित मानकों और (सी) पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा जारी की गई दून घाटी अधिसूचना, 1989 से संदर्भ लिए गए हैं।
किसी भी औद्योगिक क्षेत्र का प्रदूषण सूचकांक पी आई 0 से 100 तक की एक संख्या है, और पी 1 का बढ़ता हुआ मूल्य उस औद्योगिक क्षेत्र के बढ़ते प्रदूषण भार का द्योतक है। औद्योगिक क्षेत्रों के वर्गीकरण के लिए श्प्रदूषण सूचकांक की सीमाश् पर निम्न मानदंड निश्चित किये गए हैंः
- लाल श्रेणी - ऐसे औद्योगिक क्षेत्र जिनका प्रदूषण सूचकांक प्राप्तांक 60 और उससे अधिक है
- नारंगी श्रेणी - ऐसे औद्योगिक क्षेत्र जिनका प्रदूषण सूचकांक प्राप्तांक 41 से 59 के बीच है
- हरी श्रेणी - ऐसे औद्योगिक क्षेत्र जिनका प्रदूषण सूचकांक प्राप्तांक 21 से 40 के बीच है
- श्वेत श्रेणी - ऐसे औद्योगिक क्षेत्र जिनका प्रदूषण सूचकांक प्राप्तांक 20 तक है
नई नीति के कुछ महत्वपूर्ण पहलू निम्नानुसार हैंः
- ऐसे 25 औद्योगिक क्षेत्र जो गंभीर प्रदूषण पैदा नहीं करते हैं, उन्हें भी पहले लाल श्रेणी में वर्गीकृत किया गया था। अब ऐसा नहीं होगा।
- वैज्ञानिक कसौटी के आधार पर औद्योगिक क्षेत्रों की सापेक्ष प्रदूषण संभावना को भी उचित महत्त्व प्रदान किया गया है।
- जहाँ संभव है, कच्चे माल के उपयोग, अपनाई गई विनिर्माण प्रक्रिया, और इनके परिणामस्वरुप पैदा होने वाले संभावित प्रदूषण के आधार पर औद्योगिक क्षेत्रों को पृथक करने पर भी विचार किया गया है।
- नए वर्गीकरण के अनुसार औद्योगिक क्षेत्रों की संख्या निम्नानुसार होगी -
- लाल श्रेणी - 60
- नारंगी श्रेणी - 83
- हरी श्रेणी - 63
- श्वेत श्रेणी - 36 (लगभग गैर-प्रदूषण कारक)
- श्वेत श्रेणी में वर्गीकृत उद्योगों के लिए ‘‘परिचालन की अनुमति‘‘ प्राप्त करना अनिवार्य नहीं होगा। उन्हें केवल संबंधित राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी)/प्रदूषण नियंत्रण केंद्र (पीसीसी) को सूचना देना पर्याप्त होगा।
- आमतौर पर लाल श्रेणी में वर्गीकृत किसी भी उद्योग को पारिस्थितिकी तंत्र की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र या संरक्षित क्षेत्र में उद्योग शुरू करने की अनुमति प्रदान नहीं की जाएगी।
- नए मानदंड ऐसे औद्योगिक क्षेत्रों को प्रेरित करेंगे जो अधिक स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को पनपने के लिए तैयार हैं, जिसका अंततः परिणाम कम मात्रा में प्रदूषकों की निर्मिति में होगा।
- यह व्यवस्था उद्योगों को आत्म मूल्यांकन की सुविधा भी प्रदान करेगी क्योंकि पुराने मूल्यांकन की व्यक्तिपरकता को समाप्त कर दिया गया है।
- यह ‘‘पुनर्वर्गीकरण‘‘ देश में एक पारदर्शी कार्य वातावरण का निर्माण करेगा और साथ ही यह व्यापार करने की सहजता का भी संवर्धन करेगा।
उद्योगों की संपूर्ण सूची www.PTeducation.com/pollution पर देखें।
3.0 राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT)
पर्यावरणीय संरक्षण और वनों एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, साथ ही पर्यावरण से संबंधित सभी कानूनी अधिकारों के प्रवर्तन और इसके कारण लोगों और संपत्ति को होने वाली क्षति की क्षतिपूर्ति शीघ्रता से प्रदान से संबंधित मामलों को शीघ्रता से निपटाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की स्थापना राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010 के तहत 18 अक्टूबर 2010 को की गई। यह एक विशेषज्ञ निकाय है जिसमें बहु आयामी मुद्दों से संबंधित पर्यावरणीय विवादों का निपटारा करने वाले विशेषज्ञ मौजूद हैं। यह अधिकरण नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत निर्धारित प्रक्रियाओं से बंधा हुआ नहीं है बल्कि यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से निर्देशित होगा। पर्यावरण संबंधी मामलों में इसका समर्पित कार्यक्षेत्र शीघ्र पर्यावरणीय न्याय प्रदान करेगा और यह उच्च न्यायालयों में मुकदमेबाजी के बोझ को कम करेगा। यह अधिकरण याचिकाओं या अपीलों का निपटारा याचिका दायर करने के 6 महीने के भीतर करने का प्रयास करेगा। इस अधिकरण का मुख्य पीठ स्थान दिल्ली है, साथ ही भोपाल, पुणे, कोलकाता और चेन्नई में भी आधिकरण की अन्य पीठें बनाई गई हैं।
3.1 राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को फटकार लगाई (मार्च 2016)
राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को बिजली और कोयला कंपनियों को स्वच्छ कोयला मानकों का पालन सुनिश्चित करने के संबंध में उसके द्वारा जारी किये गए आदेश को क्रियान्वित करने में असफल रहने पर कडी फटकार लगाई है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण की पुणे स्थित पश्चिम क्षेत्र पीठ ने अपने 15 अक्टूबर 2015 को जारी किये गए उस आदेश को क्रियान्वित नहीं किये जाने पर निराशा व्यक्त की है, जिसके अनुसार कोयला और बिजली कंपनियों के लिए 34 प्रतिशत से कम राख की मात्रा वाले स्वच्छ कोयले की आपूर्ति एवं उपयोग अनिवार्य किया गया था। ऐसा अनुमान है कि पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय कोयला प्रभावित और बिजली पैदा करने वाले क्षेत्रों में प्रदूषण कम करने के लिए अधिसूचना जारी करने वाला है। ये कडे़ दिशानिर्देश कोराडी निवासी रत्नदीप रंगारी द्वारा दायर की गई उस याचिका की सुनवाई करते समय दिए गए थे, जिसमें उन्होंने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के उन मानकों के खुलेआम उल्लंघन का आरोप लगाया था जो कोयला और बिजली कंपनियों द्वारा 34 प्रतिशत से अधिक राख सामग्री वाले कोयले के उपयोग को प्रतिबंधित करते हैं। न्यायमूर्तियों ने प्रतिवादियों को पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा 2 जनवरी 2014 और 26 अगस्त 2015 को जारी की गई उस अधिसूचना का कडाई से पालन करने का आदेश दिया है जिसके अनुसार कोयला और बिजली कंपनियों को स्वच्छ कोयला प्रौद्योगिकी और प्रदूषण के स्तर और घटिया गुणवत्ता के कोयले के उपयोग के कारण निर्मित होने वाली लाई ऐश की मात्रा को कम करने वाली लाभकारी प्रक्रिया को अपनाना अनिवार्य किया गया है। तथापि मंत्रालय इसका पालन करने में विफल रहा जिसकी ओर रंगारी ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण का ध्यान आकृष्ट किया। यह विशिष्ट मामला उस कठोरता को दर्शाता है जिस कठोरता से राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण से संबंधित मामलों को लेता है।
4.0 अनिवार्य आवश्यकताएं - पर्यावरण
4.1 विद्युत अधिनियम, 2003
यह अधिनियम विद्युत क्षेत्र के विकास के लिए ऐसे उपायों के माध्यम से रूपरेखा निर्माण करने का प्रयास करता है जो उद्योग के लिए अनुकूल हों। विद्युत अधिनियम विद्युत संचार से संबंधित गतिविधियों के पर्यावरणीय निहितार्थों से स्पष्ट रूप से सरोकार नहीं रखता। इस अधिनियम के तहत प्रयोज्य कानूनी प्रावधान निम्नानुसार हैंः अनुच्छेद 68 (1) - कोई भी नई परियोजना हाथ में लेने के लिए विद्युत मंत्रालय से मंजूरी प्राप्त करना अनिवार्य आवश्यकता है।
4.2 वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980
यह अधिनियम वनों के संरक्षण और गैर वानिकी प्रयोजन के लिए वन भूमि के व्यपवर्तन के विनियमन का प्रावधान करता है। जब कोई परियोजना वन भूमि के तहत आती है, तो वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के तहत सम्बद्ध प्राधिकारियों से पूर्व अनुमति आवश्यक है। केंद्र सरकार के अनुमोदन के बिना राज्य सरकारें किसी भी वन भूमि को अनारक्षित नहीं कर सकतीं या गैर वानिकी प्रयोजन के लिए उसके उपयोग को अधिकृत नहीं कर सकती।
वन अनुमति के लिए उठाये जाने वाले कदम संक्षेप में नीचे दिए गए हैंः
4.2.1 संबंधित वन क्षेत्र की पहचान (परियोजना स्थल)
परियोजना का प्राथमिक स्थलीकरण वन का मानचित्र और भारतीय सर्वेक्षण के नक्शे जैसे साधनों का उपयोग करके किया जाता है। मार्ग संरेखण के दौरान वन क्षेत्र (जैसे राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य) से बचने के सभी संभव उपाय किये जाते हैं या उसे न्यूनतम रखने का प्रयास किया जाता है। यदि प्रदेश के भूगोल के कारण बचना संभव न हो तो या उसे बचाने के लिए भारी लागत लग रही हो अन्य विकल्प तलाशे जाते हैं ताकि वन क्षेत्र की आवश्यकता कम से कम हो।
इष्टतम प्रस्ताव के चयन के लिए निम्न मानदंडों का विचार किया जाता हैः
- सांस्कृतिक या ऐतिहासिक महत्त्व का कोई स्मारक परियोजना द्वारा प्रभावित नहीं हो रहा है।
- परियोजना रेखा का प्रस्तावित संरेखण किसी भी समुदाय के अस्तित्व को खतरा निर्माण नहीं करता है विशेष संदर्भ के रूप में जनजातीय समुदाय को।
- परियोजना का प्रस्तावित संरेखण किन्ही जनोपयोगी सेवाओं को तो प्रभावित नहीं कर रहा है जैसे खेल के मैदान, विद्यालय या अन्य प्रतिष्ठान।
- परियोजना का संरेखण किसी अभयारण्य, राष्ट्रीय उद्यान, जीवमंड़ल संरक्षित या पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र से होकर नहीं जा रहा है। और
- परियोजना का संरेखण प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र का उल्लंघन नहीं करता है।
यह प्राप्त करने के लिए संबद्ध वन क्षेत्र का चयन करते समय संबंधित राज्य के वन विभाग और राजस्व विभाग के प्रतिनिधियों के साथ गहन सलाह और विचार विमर्श किया जाता है। पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों और आवासी क्षेत्रों से बचने के लिए परियोजना में क्रियान्वयन के चरण में ही सर्व संभव अल्प परिवर्तन भी किये जाते हैं।
स्थानों के वृक्षों को भी गिराया जाता है परंतु यह तभी किया जाता है जब तांत लगाने का कार्य पूर्ण हो जाता है और निर्दिष्ट ऊंचाइयों पर प्राकृतिक पुनर्जनन स्वीकार कर लिया जाता है, साथ ही जब भी आवश्यक हो तो वृक्षारोपण का कार्य भी किया जाता है।
4.2.2 वन प्रस्ताव का निर्माण
परियोजना स्थल के लिए आवश्यक सम्बद्ध वन क्षेत्र को अंतिम रूप देने के बाद संबंधित निगम द्वारा इस संपूर्ण विवरण को निर्धारित प्रपत्र में संबंधित राज्य सरकार के संबंधित वन मंड़ल अधिकारी/नोडल अधिकारी (वन) को प्रस्तुत किया जाता है। वन मंड़ल अधिकारी/नोडल अधिकारी द्वारा यह विवरण संबंधित वन मंड़ल अधिकारी/मुख्य वन संरक्षक को वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के तहत मंजूरी की प्रक्रिया के लिए प्रेषित किया जाता है।
उसके पश्चात वन मंडल अधिकारी द्वारा परयोजना के निर्माण के लिए आवश्यक संबंधित वन क्षेत्र का संभाव्य विकल्पों के साथ सर्वेक्षण किया जाता है। वन प्राधिकारियों द्वारा वनोपज की हानि, परियोजना के लाभों के रू-ब-रू होने वाली पर्यावरणीय हानि के मूल्यांकन के लिए लागत-लाभ विश्लेषण किया जाता है। वनस्पति की हानि की क्षतिपूर्ति के रूप में क्षतिपूरक वनरोपण योजना तैयार की जाती है और यह दस्तावेज प्रस्ताव का अत्यंत महत्वपूर्ण और अविभाज्य भाग होता है। क्षतिपूरक वनरोपण के लिए वन प्राधिकारी अवक्रमित वनभूमि को चिन्हित करते हैं जो प्रभावित वनभूमि के क्षेत्र से दुगने क्षेत्रफल के बराबर होती है। एसजेव्हीएनएल क्षतिपूरक वनरोपण की लागत की पूर्ति के लिए और परिवर्तित वनभूमि के शुद्ध वर्तमान मूल्य के लिए दायित्व पत्र/प्रमाणपत्र प्रदान करता है। शुद्ध वर्तमान मूल्य 5.8 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर से 9.2 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर (वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना के अनुसार) के बीच परिवर्तनशील हो सकता है, और यह ‘‘प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और नियोजन प्राधिकरण‘‘ को देय होता है। यदि वन वन्यजीवों की दृष्टि से समृद्ध और संपन्न है तो मुख्य वन्यजीव वार्डन द्वारा एक विस्तृत मूल्यांकन प्रतिवेदन भी तैयार करवाया जाता है, जिसमें वन्यजीवों के संरक्षण के लिए किये जाने वाले उपायों को भी शामिल किया जाता है, जो प्रस्ताव के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
4.2.3 प्रस्ताव का अनुमोदन
प्रस्ताव राज्य के वन विभाग को प्रस्तुत किया जाता है और फिर इसे राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक को प्रेषित किया जाता है, और अंत में इसे राज्य के सचिवालय को प्रेषित किया जाता है। इसके पश्चात राज्य सरकार द्वारा प्रस्ताव की सिफारिश करके इसे आगे की प्रक्रिया और अनुमोदन के लिए निम्न प्राधिकारियों को प्रेषित किया जाता है
- यदि सम्बद्ध क्षेत्र 40 हेक्टेयर या उससे कम है तो वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के संबंधित क्षेत्रीय कार्यालय को
- यदि सम्बद्ध क्षेत्र 40 हेक्टेयर से अधिक है तो पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, नई दिल्ली।
कम क्षेत्र से सम्बद्ध वन प्रस्तावों के शीघ्र अनुमोदन को सुविधाजनक बनाने के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इन प्रस्तावों की प्रक्रिया के लिए और उन्हें अनुमोदन प्रदान करने के लिए प्रत्येक क्षेत्र में क्षेत्रीय कार्यालयों की स्थापना की गई है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा प्रस्तावों को दो चरणों में अनुमोदन प्रदान किया जाता है। सैद्धांतिक रूप में या प्रथम चरण का अनुमोदन कुछ शर्तों के तहत प्रदान किया जाता है जो प्रत्येक मामले पर निर्भर करती हैं। दूसरा चरण, या अंतिम अनुमोदन तब प्रदान किया जाता है जब प्रथम वन प्रस्ताव में निर्धारित शर्तों के अनुपालन का प्रतिवेदन राज्य के वन विभाग की ओर से पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा प्राप्त कर लिया जाता है। निगमों से यह उम्मीद की जाती है कि वे सभी प्रासंगिक दिशानिर्देशों का अनुपालन करें जिनमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर इस संबंध में दिए गए निर्देश भी शामिल हैं।
5.0 पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की शुरुआत एक छाते विधान के रूप में की गई थी जो पर्यावरण के संरक्षण और सुधार की दृष्टि से एक समग्र रूपरेखा प्रदान करता है। जिम्मेदारियों की दृष्टि से अधिनियम और इससे संबंधित नियमों के अनुसार यह अनिवार्य किया गया है कि विशिष्ट प्रकार की नई या विस्तार परियोजनाओं (जैसा पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना, 1994 के तहत निर्दिष्ट किया गया है) के लिए पर्यावरण अनुमति प्राप्त की जाए और उनके द्वारा प्रति वर्ष राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को पर्यावरणीय प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जाए। जल विद्युत परियोजनाओं के लिए भी पर्यावरणीय अनुमति लागू नहीं है।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 में निर्धारित किये अनुसार एक मानक प्रबंधन प्रक्रिया के रूप में निगमों द्वारा सभी परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन किया जाता है, साथ ही उन्हें राष्ट्रीय कानूनों और अंतर्राष्ट्रीय विनियमों द्वारा निर्धारित परिवेशी वायु गुणवत्ता और ध्वनि के स्वीकृत मानकों के तहत ही कार्य करना आवश्यक है।
5.1 वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981
इस अधिनियम का उद्देश्य है प्रतिष्ठान के लिए वायु प्रदुषण के निवारण, नियंत्रण और न्यूनीकरण के प्रावधान प्रदान करना, ताकि बोर्ड्स के उपरोल्लिखित उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके और ऐसे बोर्ड्स को ऐसे कार्य और अधिकार प्रदान किये जा सकें जो इस प्रकार के मामलों से संबंधित हैं।
जून 1972 में स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में, जिनमें भारत ने भी भाग लिया था, पृथ्वी के प्रा.तिक संसाधनों के संरक्षण के लिए उचित कदम उठाने के संबंध में निर्णय लिए गए थे, जिनमें अन्य बातों के अलावा वायु की गुणवत्ता का संरक्षण और वायु प्रदूषण का नियंत्रण भी शामिल था। अतः यह आवश्यक माना गया है कि जहां तक इनका वायु की गुणवत्ता के संरक्षण और वायु प्रदूषण के नियंत्रण से संबंध है, उपरोल्लिखित निर्णयों को क्रियान्वित किया जाए।
5.2 जल (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974
जल (निवारण एवं प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, के उद्देश्य हैं जल प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण संबंधी प्रावधान प्रदान करना और प्रतिष्ठान के लिए जल की संपूर्णता को बनाये रखना या उसे पुनः प्राप्त करना ताकि बोर्ड्स के जल प्रदूषण के निवारण और नियंत्रण के उपरोल्लिखित उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके, और ऐसे बोर्ड्स को ऐसे अधिकार और कार्य प्रदान किये जा सकें जो इस प्रकार के मामलों से संबंधित हैं।
5.3 वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अनुसार ‘‘वन्यजीव‘‘ शब्द में सभी प्रकार के पशु, मधुमक्खियां, तितलियां, विशाल जीव समुदाय, मछलियां और कीट शामिल हैं। और इसमें वह जलीय या भू-वनस्पति भी शामिल है जो किसी भी प्राकृतिक वास का भाग है। वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2002 के अनुसार ‘‘केवल राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की सिफारिशों को छोड़कर, राज्य सरकारों द्वारा राष्ट्रीय उद्यानों/अभयारण्यों की सीमाओं में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जायेगा।‘‘
साथ ही, दिनांक 13/11/2000 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार राष्ट्रीय उद्यानों एयर अभयारण्यों की वन भूमि के व्यपवर्तन से लिए प्रस्ताव प्रस्तुत करने से पूर्व संबंधित राज्य सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य है।
जब भी वन्यजीव अभयारण्य या राष्ट्रीय उद्यान का कोई भाग जल विद्युत परियोजना के कारण प्रभावित होता है तो भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा ऐसा प्रस्ताव तभी स्वीकार किया जाता है जब अनारक्षण/वन्यजीव अभयारण्य या राष्ट्रीय उद्यान की अधिसूचना रद्द करने की अनुमति प्रदान की गई है। वन्यजीव अभयारण्य या राष्ट्रीय उद्यान के अनारक्षण/अधिसूचना को रद्द करने के राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के प्रस्ताव पर स्थायी समिति की सिफारिश के बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय उद्यान के अनारक्षण/अधिसूचना को रद्द करने की संपुष्टि करता है।
5.4 जैव विविधता अधिनियम, 2002
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जैव विविधता अधिनियम, 2002 का अधिनियमन जैव विविधता पर 5 जून 1992 को रिओ डी जैनेरिओ में हस्ताक्षरित संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन के तहत किया गया है, जिसका भारत भी सदस्य है। इस अधिनियम द्वारा ‘‘जैव विविधता के संरक्षण, उसके घटकों के धारणीय उपयोग और जैविक संसाधनों, ज्ञान और उनसे संबंधित मामलों के उपयोग से प्राप्त लाभों के निष्पक्ष और समान सहभाजन‘‘ के प्रावधान किये गए हैं। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार कुछ क्षेत्र, जो जैव विविधता की दृष्टि से समृद्ध हैं और जिनके आसपास विशिष्ट प्रतिनिधिक पारिस्थितिकी तंत्रों को जीवमंड़ल संरक्षित के रूप में चिन्हित और रचित किया गया है ताकि उसका संरक्षण किया जा सके। राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों जैसे संरक्षित क्षेत्रों के लिए लागू सभी प्रतिबंध इन जीव मंडल संरक्षितों पर भी लागू हैं।
5.5 खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन एवं निपटान) संशोधन नियम, 2003
ये नियम उपयोग किये गए खनिज तेल को खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन एवं निपटान) नियम, 2003 के तहत खतरनाक अपशिष्ट की श्रेणी में वर्गीकृत करते हैं जिनके रखरखाव और निपटान को उचित रूप से किया जाना आवश्यक है। जब कभी भी आवश्यक हो तो प्रतिष्ठान खतरनाक अपशिष्ट के निपटान के लिए संबंधित राज्य सरकार के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से प्राधिकृति प्राप्त करेंगे।
5.6 ओज़ोन क्षयकारी पदार्थ (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अनुच्छेद 6, 8 और 25 के तहत उसकी 17 जुलाई 2000 की अधिसूचना के अनुसार मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत ओजोन क्षयकारी पदार्थों के विनियमन/नियंत्रण के लिए नियम अधिसूचित किये हैं। इस अधिसूचना के अनुसार इन यौगिकों के विनिर्माण, आयात, निर्यात, और उपयोग पर कुछ नियंत्रण और विनियमन अधिरोपित हैं।
अधिसूचना के प्रावधानों के अनुसार प्रतिष्ठान ऐसे सभी प्रकार के उपकरणों को धीरे-धीरे हटा देंगे जो इन पदार्थों का उपयोग करते हैं, इसका उद्देश्य निकट भविष्य में सीईसी मुक्त प्रतिष्ठानों का निर्माण करना है।
6.0 अन्य पर्यावरण सम्बन्धी कानून
तट उपद्रव (बॉम्बे एवं कोलाबा) अधिनियम, 1853
भारत में जल प्रदूषण से संबंधित संविधि पुस्तक में यह सबसे प्राचीन अधिनियम है।
सराय अधिनियम, 1867
यह अधिनियम सराय या धर्मशाला के रखवाले को आदेश देता है कि पानी की एक विशेष गुणवत्ता बनाये रखी जाए जो ‘‘मनुष्यों और पशुओं‘‘ के उपभोग के योग्य हो और जो जिला मजिस्ट्रेट या उसके नामितों की संतुष्टि के अनुसार हो। इस प्रावधान का उल्लंघन करने या गुणवत्ता बनाये रखने में असफल होने पर बीस रुपये के अर्थ दंड़ का प्रावधान था।
उत्तर भारत नहर एवं जल निकासी अधिनियम, 1873
अधिनियम के अनुच्छेद 70 के तहत कुछ अपराधों को सूचीबद्ध किया गया है।
तार्यपथ बाधा अधिनियम, 1881
अधिनियम का अनुच्छेद 8 केंद्र सरकार को बंदरगाह की ओर जाने वाले किसी भी तार्यपथ को विनियमित करने या उनपर ऐसा कचरा फेंकने को प्रतिबंधित करने संबंधी नियम बनाने का अधिकार प्रदान करता है, जिनके कारण के किनारा या ढ़ेर निर्मित होने की संभावना बढ़ सकती है।
भारतीय मात्स्यिकी अधिनियम, 1897
इस अधिनियम में सात अनुच्छेद हैं। अधिनियम का अनुच्छेद 5 पानी को विषाक्त करके मछलियों के विनाश को प्रतिबंधित करता है।
भारतीय बंदरगाह अधिनियम, 1908
तेल द्वारा जल प्रदूषण को भारतीय बंदरगाह अधिनियम, 1908 द्वारा प्रतिबंधित किया गया है।
भारतीय वन अधिनियम, 1927
अधिनियम का अनुच्छेद 26 (आई) किसी व्यक्ति के ऐसे कार्य को दंड़नीय बनता है जो, वह राज्य सरकार द्वारा बनाये गए नियमों का उल्लंघन करके किसी वन क्षेत्र के जल को विषाक्त करने के लिए करता है। अनुच्छेद 32 (एफ) के तहत राज्य सरकार को वनों के जल को विषाक्त करने संबंधी नियम बनाने के अधिकार प्रदान किये।
दामोदर घाटी निगम अधिनियम, 1948
यह अधिनियम निगम को अधिकृत करता है कि वह केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति से ‘‘जल प्रदूषण‘‘ को रोकने के लिए विनियम निर्मित करे।
कारखाना अधिनियम, 1948
कारखाना अधिनियम, 1948 एक सामाजिक कल्याण कानून है जिसका उद्देश्य कारखानों में कर्मचारियों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, और कल्याण को सुनिश्चित करना है। हालांकि इस अधिनियम के कुछ प्रावधान जल प्रदूषण को रोकने से संबंधित हैं।
खदान अधिनियम, 1952
अधिनियम का अध्याय 5 कर्मचारियों के स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी प्रावधान करता है। अनुच्छेद 19 (आई) सरकार द्वारा कुछ व्यवस्थाओं के साथ पानी की पीने योग्य घोषित करने की गुणवत्ता से संबंधित है।
नदी बोर्ड अधिनियम, 1956
यह अधिनियम अंतर राज्य नदियों और नदी घाटियों के विनियमन और विकास के लिए नदी बोर्डों के गठन का प्रावधान करता है। बोर्ड के कार्यों में एक कार्य है संबंधित सरकारों को ‘‘अंतर राज्य नदियों के प्रदूषण को रोकने‘‘ संबंधी सलाह प्रदान करना।
व्यापारी नौ परिवहन अधिनियम, 1958
तेल से समुद्र के प्रदूषण की रोकथाम के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, 1954 समुद्र के तेल प्रदूषण को कम करने की पहली संधि है। इस संधि को प्रभावी बनाने के लिए व्यापारी नौ परिवहन अधिनियम किसी भी प्रतिबंधित क्षेत्र में भारतीय टैंकर या जहाज द्वारा या किसी विदेशी टैंकर या अन्य जहाज द्वारा भारत की जल सीमा के आसपास के किसी भी प्रतिबंधित क्षेत्र में तेल या तेल मिश्रण के निर्वहन को विनियमित और नियंत्रित करता है। साथ ही किसी भी भारतीय जहाज द्वारा समुद्र में किसी भी स्थान पर किसी भी प्रकार के तेल के निर्वहन पर भी प्रतिबंध है।
7.0 पनबिजली परियोजनाओं के लिए कानूनी और नियामक रूपरेखा
भारत का प्रमुख पर्यावरणीय नियामक अभिकरण है पर्यावरण एवं वन मंत्रालय। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय पर्यावरणीय नीतियों का निर्माण है और परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय अनुमति प्रदान करता है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड परियोजनाओं को ‘‘अनापत्ति प्रमाण पत्र‘‘ और ‘‘स्थापना और परिचालन की अनुमति‘‘ प्रदान करता है।
परियोजना की विशेषताओं में पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन पर जोर दिया गया है, जो भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से अनुमति प्राप्त करने के लिए एक पूर्व अनिवार्यता है।
पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन धारणीय विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों के इष्टतम उपयोग को सुनिश्चित करने का एक महत्वपूर्ण प्रबंधन साधन है, और भारत में इसकी शुरुआत प्रारंभ में 1978-79 में नदी घाटी परियोजनाओं के लिए की गई थी। पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन की व्याप्ति को बढ़ाया गया है ताकि इसमें उद्योग, खनन योजनाओं, ऊर्जा इत्यादि अन्य क्षेत्रों को भी शामिल किया जा सके। प्रस्तावकों के लिए पर्यावरणीय आंकडे़ प्राप्त करना सुविधाजनक बनाने के लिए और पर्यावरणीय प्रबंधन योजनाओं की निर्मिति के लिए पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत अब यह विभिन्न वर्गों की ऐसी विकासात्मक गतिविधियों के लिए अनिवार्य है जिनका निवेश निश्चित प्रारंभिक सीमा से अधिक है।
पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन दस्तावेज राज्य स्तर के विभिन्न अभिकरणों की पर्यावरणीय अनुमति की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इनमें राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राज्य सरकारों के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभागों के तहत कार्यरत विशेषज्ञों की समितियां शामिल हैं।
8.0 अंतिम टिप्पणी
इस प्रकार हम देखते हैं की भारत विश्व के ऐसे कुछ देशों में से एक है जहां संविधान में प्रकृति के संरक्षण के लिए प्रावधान शामिल किये गए हैं। प्रासंगिक प्रावधान मौलिक अधिकारों, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों और मौलिक कर्तव्यों से संबंधित अध्यायों में विद्यमान हैं।
भारत का सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालय समय-समय पर विभिन्न निर्णयों के माध्यम से इन प्रावधानों पर विस्तार से प्रकाश डालते रहते हैं, और इस प्रकार कानूनी उदाहरण प्रस्तुत करते रहते हैं जो भविष्य के न्यायिक दृष्टिकोणों के आधारस्तंभ बन जाते हैं।
विभिन्न प्रकार के कानून, जिनमें जल से लेकर हवा तक और वनों से लेकर भूमि तक सभी कुछ शामिल है, भारत में एक मजबूत न्यायिक और नियामक तंत्र को वास्तविकता में परिवर्तित कर देते हैं। हाल के वर्षों के दौरान ऐसा अनुभव किया जा रहा है कि ग्रीनफील्ड परियोजनाओं में निवेश करने के इच्छुक निगमों और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के बीच टकराव में वृद्धि हो रही है, जो मानकों के अनुसार अनुमति देने के विषय में काफी कठोर रुख अपनाता है। ऐसे ही कई मामलों के कारण कम से कम दो पर्यावरण एवं वन मंत्रियों को अपने पदों से त्यागपत्र देना पड़ा है।
यह तनाव पूंजीवादी संस्कृति में कायम विश्वव्यापी विरोधाभास को प्रतिबिंबित करता है - जहां भौतिक रूप से तिमाही दर तिमाही कंपनी को बढ़ाना एक अनिवार्यता है, और इस प्रकार की संपन्नता की परिरेखा अक्सर पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता से टकराती है। इसका कोई त्वरित उपाय नहीं है। आने वाले लंबे समय तक इस आतिशबाजी की आशा करते रहें।
9.0 प्रदूषण एवं अवक्रमण
पर्यावरणीय अवक्रमण (degradation) का अर्थ है हवा, पानी और मृदा जैसे संसाधनों के हृस के माध्यम से पर्यावरण का पतन, पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश, और वन्यजीवों की लुप्तता। तेजी से बढ़ती मानव जनसंख्या द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते उपयोग का परिणाम प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण में हुआ है। इस प्रकार के शोषण के परिणाम मृदा क्षरण, जैवविविधता की हानि और भूमि, हवा और पानी के प्रदूषण के रूप में देखे जा सकते हैं। अत्यधिक शोषण के कारण होने वाला पर्यावरण का अवक्रमण इस स्तर तक पहुंच गया है जो मानव कल्याण और मानव जीवन के लिए खतरा बनता जा रहा है।
प्रकृति में एक पारिस्थितिकी संतुलन (ecological balance) होता है। पारिस्थितिकी संतुलन को एक ऐसी स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें प्राकृतिक समुदायों के घटकों के बीच इस प्रकार की साम्यावस्था होती है ताकि उनकी सापेक्ष संख्या लगभग समान रहे और उनके पारिस्थितिकी तंत्र स्थिर रहें। संतुलित समुदाय की रचना में प्राकृतिक परिस्थितिकी उत्तराधिकार और जलवायु परवर्तनों और अन्य प्रभावों के प्रतिक्रियास्वरूप क्रमिक पुनर्व्यवस्थापन (Gradual readjustments) निरंतर होते रहते हैं। जैसे-जैसे वर्ष बीतते गए, मानवी गतिविधियों ने इस समानता में हस्तक्षेप करना शुरू किया, और अनियंत्रित मानवी गतिविधियों ने पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचाई।
10.0 पर्यावरणीय अवक्रमण के कारण
पर्यावरणीय अवक्रमण का बुनियादी कारण है मानवी उपद्रव। पर्यावरणीय प्रभाव का स्तर कारण, प्राकृतिक वास और इन वासों में रहने वाले पशुओं और वनस्पतियों के साथ परिवर्तित होता रहता है।
10.1 प्राकृतिक वासों का विखंड़न (Habitat fragmentation)
प्राकृतिक वासों के विखंड़न का एक दीर्घकालीन पर्यावरणीय प्रभाव होता है। इनमें से कुछ प्रभाव संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र का नाश कर सकते हैं। एक पारिस्थितिकी तंत्र एक विशिष्ट इकाई होती है और इसमें वे सभी जीवित और निर्जीव तत्व शामिल होते हैं जो इसके अंदर वास करते हैं, साथ ही इसमें वे घटक भी शामिल होते हैं जिन पर ये सभी तत्व निर्भर होते हैं जैसे नदियां, तालाब और मिट्टियां।
प्राकृतिक वास तब विखंड़ित हो जाते हैं जब विकास भूमि के ठोस विस्तारों को तोड़ देता है। इसके उदाहरणों में वे सड़कें शामिल हैं जो वनों को काटते हुए गुज़रती हैं या यहां तक कि वे पगडंड़ियां भी जो प्रेयरीज (prairies) से घूमकर निकलती हैं। हालांकि सतही तौर पर यह बहुत बुरा नहीं लगता, परंतु वास्तव में इसके भयंकर परिणाम होते हैं। इनमें से सबसे बडे़ परिणामों का प्रारंभिक अनुभव विशिष्ट वनस्पति और पशु समुदायों को होता है, जिनमें से अधिकांश समुदाय अपने जैव क्षेत्र की दृष्टि से विशेषज्ञता प्राप्त होते हैं, या जिन्हें अपनी स्वस्थ आनुवंशिकी विरासत को बनाये रखने के लिए विशाल भूक्षेत्रों की आवश्यकता होती है।
क्षेत्र संवेदनशील पशुः कुछ वन्यजीव प्रजातियों को उनके भोजन, आवास, और अन्य संसाधनों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विशाल भूक्षेत्रों की आवश्यकता होती है। ऐसे पशुओं को क्षेत्र संवेदनशील पशु कहा जाता है। जब पर्यावरण विखंड़ित हो जाता है तो प्राकृतिक वासों के विशाल पट्टे नष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में इन वन्यजीवों के लिए जीवनावश्यक संसाधन प्राप्त करना अधिक कठिन हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप उनके अस्तित्व का खतरा बढ़ जाता है या वे लुप्तप्राय बन जाते हैं। इन पशुओं की अनुपस्थिति के कारण पर्यावरण का भी नुकसान होता है क्योंकि वे भोजन जाल में अपनी भूमिका निभाते हैं।
आक्रामक वनस्पति जीवनः वास के विखंड़न का एक महत्वपूर्ण परिणाम है भूमि की अव्यवस्था। अनेक तृणकयुक्त (weedy) वनस्पति प्रजातियां जैसे लहसुन सरसों और बैंगनी लूसस्ट्राइफ, दोनों अवसरवादी और आक्रामक होती हैं। प्राकृतिक वासों में किसी भी प्रकार का विच्छेद उन्हें स्थान प्राप्त करने का अवसर प्रदान कर देता है। ये आक्रामक वनस्पतियां स्थानीय वनस्पतियों का स्थान लेकर संपूर्ण पर्यावरण को आच्छादित कर सकती हैं। इसका परिणाम एक ऐसे प्राकृतिक वास में होता है जिसपर केवल एक ही प्रकार की वनस्पति का वर्चस्व है, जो अन्य सभी प्रकार के वन्यजीवों के लिए पर्याप्त भोजन प्रदान नहीं कर पाता। राष्ट्रीय संसाधन सुरक्षा परिषद (जिसकी स्थापना अमेरिका में 1970 में हुई थी) के अनुसार सभी पारिस्थितिकी तंत्र विनाश के खतरे का सामना कर रहे हैं।
10.2 पर्यावरण हृस के मानवी स्रोत
मनुष्य और उनकी गतिविधियाँ पर्यावरणीय अवक्रमण के प्रमुख स्रोत हैं।
कुछ मानवी गतिविधियाँ जिनका परिणाम पर्यावरणीय अवक्रमण में हुआ है, निम्नानुसार हैंः
- वनों की कटाईः मनुष्य द्वारा कृषि योग्य खेतों के निर्माण, मकान बनाने, और आश्रय स्थानों के निर्माण, फर्नीचर और ईंधन के लिए लकड़ियां प्राप्त करने के लिए वनों की कटाई की गई है। जिस दर से वृक्षों को काटा जा रहा है, वह वृक्षों के उगने की दर से कहीं अधिक है, अतः वन वृक्ष-विहीन हो रहे हैं।
- वाष्पोत्सर्जन (transpiration) के माध्यम से वृक्षों में काफी मात्रा में जल की हानि होती है। या वर्षा बादलों के निर्माण में सहायक होता है। वृक्षों की कटाई और वनों की सफाई के कारण उस क्षेत्र में वर्षा की मात्रा कम हो जाती है। साथ ही वृक्षों और वनस्पतियों को हटाने से मृदा अपक्षरण (soil erosion) भी होता है।
- वन वन्यजीवों के प्राकृतिक वास होते हैं। वन्यजीव प्रजातियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि वनोन्मूलन के कारण उनके प्राकृतिक वास नष्ट होते जा रहे हैं।
- कोयला, प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम जैसे गैर- नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों का उपयोग अत्यंत तेजी से किया जा रहा है, जिसके कारण उनका हृस हो रहा है।
ये उदाहरण मनुष्य द्वारा अत्यधिक उपयोग किये जाने के कारण प्राकृतिक संसाधनों की होने वाली हानि को दर्शाते हैं। दूसरी ओर निम्न कारकों के कारण क्षति द्विगुणित हो रही हैः
- कोयले, लकड़ी, मिट्टी के तेल, पेट्रोल इत्यादि को अत्यधिक मात्रा में जलाने (excessive burning) से वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड़ जैसी विषैली गैसों और हाइड्रो कार्बन का प्रसार होता है। उद्योगों, विद्युत संयंत्रों मोटर वाहनों और हवाई जहाजों द्वारा भी इन गैसों का उत्सर्जन किया जाता है। ये विषैली गैसें हवा को प्रदूषित करती हैं जिसका मनुष्य के स्वास्थ्य और वनस्पतियों पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है।
- खदानों से निकलने वाले अम्लीय पानी (acid water) उद्योगों के विषैले अपशिष्ट, कृषि खेतों से निकलने वाले रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों ने नदियों और अन्य जलाशयों के पानी को प्रदूषित कर दिया है।
- घरों और उद्योगों द्वारा निर्मित ठोस और तरल अपशिष्टों के त्रुटिपूर्ण निपटान (faulty disposal of solid and liquid wastes) के कारण गांवों, शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों में मृदा प्रदूषण की समस्या दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही है।
इस प्रकार मनुष्य ने पर्यावरण को निम्न प्रकार से हानि पहुंचाई है
- प्राकृतिक संसाधनों का संकटपूर्ण 5 स्तर तक हृस करके, और
- प्राकृतिक जलाशयों और भूक्षेत्रों को प्रदूषित करके।
10.3 हवा और जल प्रदूषण
दुर्भाग्य से वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण पर्यावरणीय अवक्रमण के सामान्य कारण हैं। प्रदूषण के कारण पर्यावरण संदूषण होता है, जो वनस्पति और पशु प्रजातियों में हीनंगता निर्मित कर सकता है, और यहां तक कि उनकी मृत्यु का कारण भी बन सकता है।
10.4 अम्ल वर्षा (Acid Rain)
अम्ल वर्षा तब होती है जब कोयला संयंत्रों द्वारा उत्सर्जित सल्फर डाइऑक्साइड हवा में विद्यमान आर्द्रता के साथ घुलमिल जाती है। एक रासायनिक अभिक्रिया इस अम्ल वर्षण की निर्मिति करती है। अम्ल वर्षा तालाबों और धाराओं को आम्लिक बना सकती है और प्रदूषित कर सकती है। यह मृदा पर भी इसी प्रकार के प्रभाव करती है। अमेरिका के पर्यावरणीय संरक्षण अभिकरण (EPA) के अनुसार यदि किसी दिए गए पर्यावरण में पर्याप्त अम्ल वर्षा होती है, तो यह उस पर्यावरण की मृदा और पानी को इस हद तक आम्लिक कर सकती है जहां किसी भी प्रकार के जीवन की संभावना नहीं रह जाती। वनस्पति मर जाती है। उनपर निर्भर रहने वाले पशु वहां से पलायन कर जाते हैं। पर्यावरण की स्थिति अपकर्षित हो जाती है।
10.5 कृषि अपवाह
कृषि अपवाह पर्यावरण को अवक्रमित करने वाले प्रदूषकों का एक घातक स्रोत है। यह इतना बड़ा है कि पर्यावरणीय संरक्षण अभिकरण कृषि को जल प्रदूषण का मूलभूत स्रोत मानता है। सतही जल मृदा को तालाबों और नदी धाराओं में प्रवाहित कर देता है। जब यह ऐसा करता है तो अपने साथ खेतों में उपयोग किये गए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों को भी जल संसाधनों में बहा कर ले जाता है। जलमार्गों में विषों के समावेश के भयंकर परिणाम होंगे। उर्वरक, चाहे वे जैविक हों या ना हों, उनसे भी खतरा उतना ही अधिक है।
उर्वरकों में बड़ी मात्रा में फॉस्फोरस होता है जो तालाबों में शैवाल (algae) का विस्फोट कर सकता है। जब ये शैवाल मर जाते हैं, तो बैक्टीरिया जैविक सामग्री का विखंड़न करना शुरू कर देते हैं। शीघ्र ही ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है कि बैक्टीरिया पानी में उपलब्ध घुली हुई ऑक्सीजन का उपयोग करना शुरू कर देते हैं। जलीय वनस्पति, मछलियाँ और पानी में विद्यमान अन्य जीव मरने लगते हैं। तालाब का पानी अम्लीय हो जाता है। अम्ल वर्षा की ही तरह ये तालाब भी मृत क्षेत्र बन जाते हैं, जिनकी स्थिति इतनी विषैली हो जाती है कि इन पर्यावरणों में न तो वनस्पति और न ही पशु जीवित रह पाते हैं।
10.6 शहरी विकास
परिस्थितिकीविद् शहरी विकास को पर्यावरणीय अवक्रमण का एक प्राथमिक स्रोत मानते हैं। जैसे-जैसे जनसंख्याऐं बढ़ती गईं वैसे-वैसे आवासों और खेती के लिए भूमि की आवशयकता भी बढ़ती गई। आर्द्रभूमियों को शुष्क कर दिया गया। घास के विशाल मैदानों को जोत दिया गया।
कुछ मामलों में पर्यावरणीय अवक्रमण एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया है। आगे के किसी भी प्रकार के प्रभावों को कम करने के लिए शहर नियोजकों, उद्योगों और संसाधन प्रबंधकों को विकास के पर्यावरण पर होने वाले दीर्घकालीन प्रभावों के विषय में विचार करना ही पडेगा। ठोस नियोजन के साथ ही भविष्य में होने वाले पर्यावरणीय अवक्रमण को रोका जा सकता है।
11.0 प्राकृतिक कारण
जबकि पर्यावरणीय अवक्रमण का संबंध आमतौर पर मानवी गतिविधियों के साथ जोडा जाता है, वहीं वास्तविकता यह है कि समय के साथ-साथ पर्यावरणों में भी निरंतर परिवर्तन होते जा रहे हैं। मानवी गतिविधियों के प्रभाव के साथ या उनके बिना भी कुछ पारिस्थितिकी तंत्र समय के साथ इस हद तक अवक्रमित हो जाते हैं कि वे वहां रहने वाले जीवन को समर्थित करने में अक्षम हो जाते हैं।
भूस्खलनों, भूकंपों, सुनामियों, तूफानों और दावानलों जैसी आपदाएं स्थानीय वनस्पति और पशु समुदायों को इस हद तक पूरी तरह से बर्बाद कर सकती हैं जहां वे इसके आगे कभी भी काम नहीं कर पाते। यह या तो प्राकृतिक आपदा के माध्यम से हुए भौतिक विनाश के कारण हो सकता है या एक आक्रमणकारी विदेशी प्रजाति (invasive alien species) के किसी नए प्राकृतिक वास में प्रवेश के कारण हुए दीर्घकालीन अवक्रमण के कारण हो सकता है। दूसरी स्थिति आमतौर पर एक तूफान के आने के बाद निर्मित होती है जब छिपकलियां और कीडे़ प्रवाहित होकर एक नए पर्यावरण के छोटे जलक्षेत्रों में चले जाते हैं। कभी-कभी यह पर्यावरण नई प्रजातियों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता, और इसके परिणामस्वरूप अवक्रमण हो सकता है।
12.0 मनुष्य और पर्यावरण अवक्रमण
12.1 जनसंख्या वृद्धि का पर्यावरण पर प्रभाव
बढ़ती जनसंख्या के साथ ही स्थान, आश्रय और वस्तुओं की आवश्यकताओं ने पर्यावरण पर भारी दबाव बनाया है। ये प्रदान करने के लिए भूमि के उपयोग में नाटकीय परिवर्तन हुए हैं।
12.2 अधिक अनाज पैदा करने के लिए भूमि की सफाई
वन भूमियों के कृषि भूमियों में परिवर्तन, जल निकायों के संशोधन का परिणाम प्राकृतिक संसाधनों और भू परिदृश्यों के हृस में हुआ है और इनमें तीक्ष्ण परिवर्तन हुआ है। उदाहरणार्थ वनों के बडे़ क्षेत्रों को कृषि फसलों के लिए साफ कर दिए गया है। मृदा अपक्षरण को कम करने और तटरेखा को स्थिरता प्रदान करने के लिए जाने वाले अनेक सदाबहार वनों की बढ़ती हुई जनसंख्या की भोजन की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए फसलें उगाने के लिए सफाई कर दी गई है।
12.3 पानी की कमी
अनेक क्षेत्रों में अत्यधिक जल निकासी के कारण भूजल संसाधनों का हृस हुआ है जिसके कारण पानी की गंभीर कमी निर्मित हो गई है। वर्षा जल के रूप में प्राप्त पानी नदियों, तालाबों और अन्य जल संग्राहकों में प्रवाहित होता है। इसमें से कुछ पानी ज़मीन में रिस जाता है और भूजल तक पहुंच जाता है। मृदा की एक निश्चित गहराई पर मृदा के कणों के बीच के सभी छिद्र पानी से संतृप्त हो जाते हैं। इस स्तर को भौम जल स्तर (Water Table) कहा जाता है। यह भौम जल स्तर तभी स्थिर रह सकता है जब भूजल से निकाले गए पानी का वर्षा जल के रिसाव के माध्यम से पुनर्भरण होता है। परंतु यदि जल की निकासी पुनर्भरण की दर से बहुत अधिक दर से होती है तो भौम जल स्तर निरंतर गिरता चला जाता है जिसके परिणामस्वरूप कुँए रिक्त और शुष्क हो जाते हैं।
12.4 मानव बस्तियों के लिए आवश्यकता
भोजन पैदा करने के लिए अत्यधिक भूमि उपयोग के परिवर्तन के अलावा विशाल जनसंख्या का अर्थ है आश्रय की अधिक आवश्यकता। इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए मकान बनाने के लिए पत्थरों और अन्य निर्माण सामग्री का अधिक मात्रा में उत्खनन करना आवश्यक है, अधिक चट्टानों को तोडना आवश्यक है और अधिक मात्रा में पानी का उपयोग करना आवश्यक है।
12.5 परिवहन के लिए आवश्यकता
करोड़ों लोगों की बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिवहन के विशाल संजाल की आवश्यकता होती है। परिवहन के विभिन्न प्रकार विकसित किये गए हैं जो कोयले, गैस और पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईंधनों का बढ़ती हुई मात्राओं में उपभोग करते हैं, जिनके कारण वायुमंड़ल प्रदूषित होता है।
12.6 विभिन्न वस्तुओं के लिए आवश्यकता
रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुओं जैसे प्लास्टिक के बर्तन, मग्गे, बाल्टियां इत्यादि, कृषि उपकरणों, मशीनों, रसायनों, सौंदर्य प्रसाधनों इत्यादि का विनिर्माण कारखानों में होता है। इन कारखानों और उद्योगों को चलाने के लिए आवश्यक कच्चा माल, जीवाश्म ईंधन और पानी उनके हृस का कारण बन जाता है। तीव्र गति के औद्योगीकरण का परिणाम नदियों और अन्य जलाशयों में औद्योगिक अपशिष्ट के क्षेपण में भी हुआ है। तीव्र गति का औद्योगीकरण भी पर्यावरणीय क्षति का महत्वपूर्ण कारण है। खनन गतिविधियों ने खनिज संसाधनों के भंड़ारों का हृस किया है, विशेष रूप से जीवाश्म ईंधनों का।
वर्तमान समय की औद्योगिक सभ्यता प्रकृति पर बोझ बनती जा रही है और अब हमारे लिए समय आ गया है कि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य से रहें।
12.7 मलिन बस्तियों का विकास
अत्यधिक भीड़-भाड़ युक्त जनसंख्या वाले क्षेत्रों का परिणाम संकुलित सड़कों और मलिन बस्तियों (slums) की निर्मिति में होता है, जिनमें पीने के पानी, मल निस्सारण व्यवस्था, अपशिष्ट निपटान, स्वच्छता जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव होता है, साथ ही गंदा पर्यावरण और वातावरण सार्वजनिक स्वास्थ्य की समस्याओं की स्थितियों का निर्माण करता है, जिनमें महामारियां फैलना भी शामिल है। जलाशयों में अनुपचारित अपशिष्ट (untreated affluents) के त्याग और अन्य अपशिष्ट फेंके जाने के कारण अधिकांश नदियां और तालाब प्रदूषित हो गए हैं।
13.0 वनोन्मूलन (Deforestation)
भारत में एक समृद्ध जैवविविधता है जिसमें 45,000 से अधिक वनस्पति प्रजातियां और 91,000 पशु प्रजातियां हैं। हालांकि इनकी क्षति की प्रवृत्ति काफी तेज है। 10 प्रतिशत वनस्पति और पशु प्रजातियां लुप्तता की दृष्टि से खतरनाक की सूची में हैं, और इनमें से अनेक लुप्त होने की कगार पर हैं।
भारत में विश्व का दसवां सबसे बड़ा वनाच्छादन है, जिसका कुल क्षेत्र 68 मिलियन हेक्टेयर है। कुल वनाच्छादन में से 22.9 प्रतिशत (15,701,000 हेक्टेयर) को प्राथमिक वनों के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो सर्वाधिक जैवविविध और कार्बन सघन प्रकार का वन है। भारत में 10,211,000 हेक्टेयर रोपित वन है। 1990 और 2010 के बीच भारत को औसत प्रतिवर्ष 224,750 हेक्टेयर या 0.35 प्रतिशत वन हानि हुई। कुल मिला कर 1990 और 2010 के बीच भारत को 7.0 प्रतिशत वनाच्छादन का लाभ हुआ, या लगभग 4,495,000 हेक्टेयर। भारत के वनों में 2800 मिलियन मैट्रिक टन कार्बन जीवित बायोमास में उपलब्ध है।
भारत के लगभग 45 प्रतिशत भूक्षेत्र का अवक्रमण वनों की कटाई, गैर-धारणीय कृषि पद्धतियों, खनन और अत्यधिक भूजल निकासी के कारण हुआ है। इसमें से दो तिहाई से अधिक को पुनर्जीवित किया जा सकता है। वनों के विनास के कारण अनेक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पडता है, जिसमें स्थानीय वर्षा पद्धतियों में होने वाला परिवर्तन, बढ़ता हुआ मृदा अपक्षरण, नदियों में आने वाली बाढ़, और करोड़ों वनस्पति, पशु और कीट प्रजातियों की लुप्तता का खतरा शामिल है। आधुनिक युग में वनों सफाई मूल रूप से दो कारणों से की जाती है; मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और जीवन स्तर को बनाये रखने के लिए। वनोन्मूलन के मुख्य कारण हैंः कृषि और औद्योगिक आवश्यकताओं का विस्तार, जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, उपभोक्ता मांग और भूमिहीनता।
मर्राकेश संधि वनोन्मूलन को निम्न प्रकार से परिभाषित करती है ‘‘वन भूमि का गैर वन भूमि में प्रत्यक्ष मानव जनित परिवर्तन।‘‘ खाद्य एवं कृषि संगठन वनोन्मूलन को निम्न रूप से परिभाषित करता है ‘‘अन्य भूमि उपयोग के लिए वनों का परिवर्तन या वृक्ष छतरी में 10 से कम के आवश्यक स्तर से दीर्घकालीन कमी।‘‘ जारी किये गए आंकडों के अनुसार वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर वन क्षेत्र के तहत क्षेत्र में 1995-97 के (63.34 मिलियन हेक्टेयर) से 2009-11 (69.20 मिलियन हेक्टेयर) में निरंतर वृद्धि हुई है। इसके कारण अनेक लोगों को लगता है कि भारत में वनोन्मूलन नहीं हो रहा है। शुद्ध वार्षिक वन हानि या वनोन्मूलन 2003-05 के दौरान 65300 हेक्टेयर, 2005-07 के दौरान 46850 हेक्टेयर और 2007-09 के दौरान 43300 हेक्टेयर थी, है, हालांकि राष्ट्रीय कुल क्षेत्र के अनुमान शुद्ध लाभ दर्शाते हैं।
जैवविविधता और संरक्षित क्षेत्रः विश्व संरक्षण निगरानी केन्द्रों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत में 2356 ज्ञात उभयचर, पक्षी, स्तनधारी और सरीसृप प्रजातियां हैं। इनमें से 18.4 प्रतिशत स्थानिक हैं, अर्थात वे विश्व के किसी भी अन्य देश में नहीं पाई जाती, और 10.8 प्रतिशत लुप्तप्राय प्रजातियां हैं। भारत में कम से कम 18664 संवहनी वनस्पति प्रजातियां हैं, जिनमें से 26.8 प्रतिशत स्थानिक हैं, भारत का 4.9 प्रतिशत क्षेत्र आईयूसीएन 1-4 श्रेणी के तहत संरक्षित है। जलवायु परिवर्तन पर सरकार की राष्ट्रीय कार्य योजना में वनाच्छादन का वर्तमान 23 प्रतिशत से 33 तक विस्तार शामिल है, साथ ही इसमें 6 मिलियन अवक्रमित वनों का पुनर्वनीकरण भी शामिल है। वन आधारित उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण ही बढ़ता वनोन्मूलन हो रहा है, और वन संरक्षण क्षेत्रों का बढ़ता अतिक्रमण हो रहा है, जो प्रा.तिक संसाधनों के लिए खतरा बनता जा रहा है।
वन अवक्रमणः आईपीसीसी की ‘‘प्रत्यक्ष मानव प्रेरित वनों का क्षरण और अन्य वन प्रकार के गैर-वनस्पतिकरण से इन्वेंट्री उत्सर्जन के लिए पद्धति के विकल्प‘‘ पर विशेष रिपोर्ट अवक्रमण को निम्न रूप से परिभाषित करती है ‘‘कम से कम वाय प्रतिशत वन कार्बन भंडार (और वन मूल्य) की प्रत्यक्ष मानव प्रेरित दीर्घकालीन हानि (जो क्ष वर्ष या उससे अधिक अवधि तक जारी है) जो समय से जारी है (टी) और फिर भी वनोन्मूलन की योग्यता में नहीं आती।‘‘ हालांकि इस परिभाषा में परिचलात्मक कठिनाइयां हैं क्योंकि क्ष (मानव प्रेरित दीर्घकालीन हानि), वाय (वन कार्बन भंडार) और मापन किया जाने वाला वनों का न्यूनतम क्षेत्र परिभाषित करना कठिन है। छतरी वृक्ष आच्छादन के प्रकार के आधार पर वन क्षेत्रों को चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। ये क्षेत्र निम्नानुसार हैंः
- अत्यंत सघन वन - ऐसे सभी भूक्षेत्र जिनका वृक्ष आच्छादन घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक है (Very dense forests VDF)
- मध्यम सघन वन रूऐसे सभी भूक्षेत्र जिनका वृक्ष आच्छादन घनत्व 40 प्रतिशत से 70 प्रतिशत के बीच है (Moderately dense forest MDF)
- खुले वन - ऐसे सभी भूक्षेत्र जिनका वृक्ष आच्छादन घनत्व 10 प्रतिशत से 40 प्रतिशत के बीच है (Open forests OF)
- झाड़ियां - सव्ही वन भूमि जिसमें वृक्ष वृद्धि न्यून है, विशेष रूप से छोटे अविकसित वृक्ष जिनका घनत्व 10 प्रतिशत से कम है (Scrub)
13.1 कानकुन समझौता (Cancun agreement)
दिसंबर 2010 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) के पक्ष देश इस बात पर सहमत हुए कि वे विकासशील देशों में वन हानि और इससे संबंधित उत्सर्जन को कम करेंगे, रोकेंगे और इसे उल्टा करेंगे। कानकुन समझौते ने सभी देशों, गैर सरकारी संगठनों, बहुपक्षीय संस्थाओं को महत्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान किया, जो देशों को ष्शीघ्र शुरुआतष् अवधि 2012 तक आरईडीडी के लिए तैयार करने में सहायता प्रदान कर रहे हैं।
गतिविधियों के प्रथम चरण के भाग के रूप में देशों को राष्ट्रीय आरईडीडी योजना या रणनीति विकसित करना है। इसमें उच्चतम प्रतिफल प्रदान करने वाली सर्वाधिक प्रभावी आरईडीडी रणनीतियां शामिल होंगी जिसमें उन्हें राष्ट्रीय वनों के स्तर का आकलन करना है, वनोन्मूलन के स्थलों का चिन्हीकरण करना है, साथ ही अवक्रमण और कार्बन भंडार में वृद्धि करने वाली गतिविधियों को चिन्हित करना है; न्यूनीकरण अवसरों का उनकी आर्थिक लागतों और लाभों की दृष्टि से आकलन करना है य और उन्हें राष्ट्रीय आरईडीडी मार्ग में व्यापक नीतियों के समुच्चय और उपायों के माध्यम से प्राथमिकता प्रदान करनी है साथ ही यह सुनिश्चित करना है कि उचित सुरक्षा उपाय विद्यमान हैं। जबकि भारत में वनोन्मूलन और अवक्रमण से निपटने के लिए और कार्बन भंडार में वृद्धि के लिए नीतियों और उपायों का एक व्यापक समुच्चय विद्यमान है, फिर भी इसके लिए एक समर्पित संस्थागत संरचना स्थापित करना आवश्यक है ताकि राष्ट्रीय आरईडीडी रणनीति को क्रियान्वित किया जा सके जिसमें स्पष्ट रूप से परिभाषित अनिवार्यता, भूमिकाएं और जिम्मेदारियां शामिल हों। अभी तक भारत ने यूएनएफसीसीसी के तहत आवश्यक आरईडीडी रणनीति तैयार नहीं की है।
14.0 भारत में पर्यावरणीय प्रदूषण
पर्यावरणीय प्रदूषण विश्व के लगभग 120 मिलियन लोगों को प्रभावित करता है। प्रदूषण का अर्थ है प्राकृतिक पर्यावरण का संदूषण, जो अधिकतर मनुष्यों द्वारा किया जाता है। प्रदूषण के विशिष्ट प्रकार हैं भूमि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण (महासागर, नदियां और भूजल), प्लास्टिक प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, प्रकाश प्रदूषण, अंतरिक्ष की ओज़ोन परत और अन्य।
भारत में बढ़ता आर्थिक विकास और तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर्यावरण, अधोसंरचना और देश के प्राकृतिक संसाधनों पर भारी दबाव डाल रहे हैं। औद्योगिक प्रदूषण, मृदा अपक्षरण, वनोन्मूलन, तेजी से होता औद्योगीकरण, शहरीकरण और भूमि का अवक्रमण ये सभी बिगड़ती समस्याएं हैं। देश के संसाधनों के अत्यधिक शोषण, चाहे वह भूमि हो या पानी हो, और औद्योगीकरण की प्रक्रिया का परिणाम संसाधनों के पर्यावरणीय अवक्रमण में हुआ है।
जब बात समग्र पर्यावरण की आती है तो भारत इस दृष्टि से विश्व के सबसे बुरे निष्पादकों में से एक है। 132 देशों में हमारा क्रमांक 125 वां है। भारत के पर्यावरण मंत्रालय के अनुरोध पर तैयार की गई एक रिपोर्ट के माध्यम से 17 जुलाई 2013 को विश्व बैंक द्वारा कहा गया था कि पर्यावरणीय अवक्रमण के कारण भारत को प्रति वर्ष लगभग 80 बिलियन डॉलर की लागत आती है, जो हमारे सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 6 प्रतिशत है। अन्य सर्वेक्षण दर्शाते हैं कि भारत में विश्व की सबसे अधिक प्रदूषित हवा है, साथ ही हमारे यहां बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के 20 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से 13 शहर हैं।
14.1 भारत-अमेरिका स्वच्छ ऊर्जा समझौता
8 नवंबर 2010 को भारत और अमेरिका के बीच एक द्वपक्षीय ऊर्जा सहयोग कार्यक्रम स्थापित किया गया। स्वच्छ और ऊर्जा-कुशल व्यवसायों को बढ़ावा देने के लिए भारतीय और अमेरिकी कंपनियों ने अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में 175 मिलियन डॉलर मूल्य के संयुक्त उद्यम समझौतों पर हस्ताक्षर किये। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त स्वच्छ ऊर्जा अनुसंधान एवं विकास केंद्र की स्थापना की घोषणा की। प्रस्तावित केंद्र स्वच्छ ऊर्जा प्रोन्नति के लिए भागीदारी (पेस) का एक भाग है, जो ‘‘हरित भागीदारी‘‘ का केंद्रबिंदु है। इस केंद्र का वित्तपोषण राष्ट्रीय बजटों से और निजी क्षेत्र से किये जाने की संभावना है।
14.2 वायु प्रदूषण
दिल्ली - विश्व का सर्वाधिक प्रदूषित शहर
‘‘श्वसनीय प्रसुप्त कणिकीय पदार्थ‘‘ की मात्रा के कारण, जो चीन की कुख्यात धुंध व्याप्त राजधानी बीजिंग से लगभग दुगनी है, भारत की राजधानी दिल्ली की परेशानियां द्विगुणित हुई हैं। वर्ष 2016 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा दिल्ली को विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित बडे शहर का दर्जा दिया गया है। जैसा की चित्र में दर्शाया गया है, भारत के अन्य अनेक शहर भी लगभग उतने ही खतरनाक हैं।
कुछ संकेत
- वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली महानगर के 2.5 करोड़ लोगों में से शायद 25,000 से 50,000 व्यक्तियों की प्रति वर्ष समय से पूर्व मृत्यु हो जाती है
- यह संख्या बढ़ती ही जा रही हैः एक व्यस्त प्रशिक्षण अस्पताल में वर्ष 2008 से 2015 के बीच सांस संबंधी बीमारियों के कारण भर्ती होने वाले व्यक्तियों की संख्या चौगुनी हो गई।
- यह समस्या राजधानी तक ही सीमित नहीं है। व्यापक रूप से संपूर्ण देश में विषाक्त वायु के कारण होने वाली अकाल मृत्युओं की संख्या प्रति वर्ष 6 लाख से भी अधिक हो सकती है
- इनके सबसे बडे़ कारण मोटर वाहन या कारखाने नहीं हैंः इसका कारण घरेलू खाना बनाते समय उठने वाला धुआं है, जबकि उत्तरी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में चारा जलाना भी इसका बडा कारण है। हालांकि वाहन इसमें बडी भूमिका निभाते हैं, और यही वह स्रोत है जिसपर अब सर्वाधिक ध्यान दिया जा रहा है।
- यातायात को नियंत्रित करने के लिए दिल्ली सरकार द्वारा चलाई गई सम-विषम योजना ने आश्चर्यजनक रूप से प्रदूषण स्तरों को अनुकूल प्रभावित किया है। यहाँ तक कि नव वर्ष 2016 के प्रथम दिनों ने पीएम 10 और पीएम 2.5 के संकेंद्रण में कुछ हतोत्साहित करने वाली वृद्धि का भी अनुभव किया। शहर के कुछ भागों में पीएम 2.5 (दोनों में से अधिक खतरनाक, क्योंकि यह फेफडों को अधिक गहराई से भेदता है) 500 माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर से भी अधिक हो गया था। यह सुरक्षित हवा के विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों का 20 गुना था।
- हालांकि ये उच्च स्तर अधिकांशतः सर्दी के मौसम के कारण थे, और ये पिछले उच्चांकों से कुछ कम और छोटे समय के लिए थे। सम-विषम परीक्षण ने यह भी दिखा दिया कि इस प्रकार के आपातकालीन उपाय खतरनाक प्रदूषण को सीमित कर सकते हैं; इसने यह भी दिखा दिया कि यदि सडक यातायात को मुक्त रूप से प्रवाहित होने दिया जाए तो सार्वजनिक परिवहन कितना अधिक कुशल हो सकता है।
- दिसंबर 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने शहर भर में विलासितापूर्ण डीजल कारों के पंजीकरण पर रोक लगा दी।
- इसके कुछ ही समय पश्चात राष्ट्रीय सरकार ने घोषणा की कि वह नई यात्री कारों के लिए अधिक कठोर उत्सर्जन मानकों की शुरुआत को अधिक गति प्रदान करेगी। अब वह दुपहिया और तिपहिया वाहनों के लिए भी इसी प्रकार के उपाय करने का विचार कर रही है। सरकार ईंधन की गुणवत्ता में सुधार को भी गति दे रही है।
- यदि नए विनियमों के दोनों समूह योजना के अनुसार वर्ष 2020 तक प्रभावशाली हो जाते हैं तो नए वाहन आज की तुलना में बहुत कम मात्रा में प्रदूषण पैदा करेंगे। यदि यह सब हो जाता है तो अगले कुछ वर्षों की अवधि में दिल्ली को स्वीकार्य हवा मिलने की उम्मीद की जा सकती है।
- समस्या की जडें वर्ष 2002 और 2013 के बीच भारत की सडकों पर वाहनों की संख्या में तिगुनी वृद्धि होने में हैं। दूसरा कारण दिशाहीन सरकारी नीति भी है। .षकों को खुश करने के लिए डीजल पर अनुवृत्ति प्रदान करके, क्योंकि वे अपने पानी के पंपों और ट्रेक्टर को इसीसे चलाते हैं, एक के बाद एक सरकारों ने भारतीय वाहन बाजारों में व्यापक परिवर्तन को प्रोत्साहित किया। वर्ष 2000 और 2013 के बीच डीजल इंजन वाली नई कारों के अनुपात में तीव्र वृद्धि हुई, जो 20 में से एक से बढकर दो में एक हो गया।
- परंतु भारत सरकार की गलती पहले ही सुधारी जा चुकी है। अक्टूबर 2014 में उसने डीजल पर अनुवृत्ति समाप्त कर कर दी; इसके कारण डीजल वाहनों की संख्या में काफी गिरावट हुई है।
14.3 कोयला प्रदूषण
भारत की आठ प्रतिशत ऊर्जा का उत्पादन कोयले द्वारा किया जाता है। यह भारत की पर्यावरणीय समस्या में वृद्धि करता है। कोयला एक ऐसा ईंधन है जो उच्च स्तरीय कार्बन और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की अध्यक्ष क्रिस्टीन लगार्डे के अनुसार कोयला चलित संयंत्रों से निर्मित प्रदूषण के कारण भारत में लगभग 70,000 लोगों की असामयिक मृत्यु होती है। पूर्वी भारत के तटीय राज्य आंध्र प्रदेश में इस समय कोयला संयंत्र निर्माण में वृद्धि दिखाई दे रही है, जिसमें 4,000 मेगावाट क्षमता वाली कृष्णापट्नम अति विशाल विद्युत परियोजना शामिल है, जो देश की ऐसी नौ नियोजित या निर्माणाधीन परियोजनाओं में से एक है। 23 अगस्त 2011 को झारखंड़ राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने झारिया के भूमिगत अग्नि क्षेत्र में बीसीसीएल लिमिटेड की 22 खदानों को बंद करने का आदेश जारी किया है। बीसीसीएल ने 103 खदानों में से अधिकांश खदानों को निजी खदान मालिकों से अधिग्रहित की थीं। अतः उनमें से किसी के पास भी पर्यावरण संबंधी मंजूरी उपलब्ध नहीं थी। झारखंड़ राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जांच के तहत अधिकांश खदानें झरिया में स्थित थीं।
नागार्जुन निर्माण कंपनी द्वारा प्रस्तावित 2,640 मेगावाट क्षमता वाला सोमपेटा संयंत्र ईस्ट कोस्ट एनर्जी द्वारा प्रस्तावित 2640 मेगावाट क्षमता वाला भवनपाडु संयंत्र, इन दोनों ही संयंत्रों के कारण विशाल अहिंसक प्रदर्शन हुए हैं, जिनकी परिणति पुलिस द्वारा हमले किये जाने में हुई जिनमें चार स्थानीय लोगों की मृत्यु भी हुई। मई 2011 तक सोमपेटा संयंत्र को रद्द किया गया है, और भवनपाडु संयंत्र को अधिकारियों द्वारा स्थगन पर रखा गया है, जबकि इसमें भ्रष्टाचार की जांच जारी है। 12 अप्रैल 2011 को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 500 मेगावाट से अधिक क्षमता वाले विद्युत संयंत्रों के लिए, और 1 मिलियन टन प्रति वर्ष से अधिक की क्षमता वाले इस्पात संयंत्रों के लिए और प्रति वर्ष 3 मिलियन टन से अधिक क्षमता वाले सीमेंट संयंत्रों के लिए प्रदूषण निगरानी मानकों को और अधिक कडा कर दिए है।
प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयांः 26 मई 2011 को हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2010-11 में प्रदूषण फैलाने वाली 639 औद्योगिक इकाइयों को बंद करने का आदेश जारी किया, और साथ ही अत्यधिक प्रदूषण निर्माण करने वाले उद्योगों को निर्देश दिए है कि वे वायु उत्सर्जन के मानकों के पालन को सुनिश्चित करने के लिए ऑनलाइन निगरानी केन्द्रों की स्थापना करें। सरकार ने 151 प्रदूषण पैदा करने वाली इकाइयों के विरुद्ध फरीदाबाद और कुरुक्षेत्र के विशेष पर्यावरण न्यायालयों में मुकदमे दायर किये हैं।
14.4 ईंट भट्ठे (Brick kilns)
भारत के 1,00,000 ईंट भट्ठे प्रदूषण के जहरीले स्रोत हैं, विशेष रूप से उनसे निर्मित होने वाली कजली (soot) और इनपर काम करने का अर्थ है एक ऐसा जीवन जो हमेशा बुरा होता है, बहुधा पाशविक होता है, और अक्सर छोटा होता है। परंतु इस सामाजिक बुराई के ऊपर है पर्यावरणीय बुराई। भट्ठों से होने वाला निकास डीजल उत्कर्षणों और अन्य धुंए के साथ मिलकर एक विशाल भूरे रंग का धूम-कोहरा, जिसे वायुमंडलीय भूरा बादल कहते हैं, निर्मित करता है, जो लगभग 3 किलोमीटर तक मोटा होता है और हजारों किलोमीटर लंबा होता है। इसके दो मुख्य घटक हैं, सूक्ष्म कार्बन कण, जिनसे यह कजली बनी होती है, और ओजोन, जो त्रिपरमाणु ऑक्सीजन का एक प्रकार है, जो ग्रीनहाउस प्रभावों, और इस प्रकार जलवायु परिवर्तन के महत्वपूर्ण योगदानकर्ता हैं।
वायुयान प्रदूषकः पर्यावरणीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नामक पत्रिका में अक्टूबर 2010 में प्रकाशित एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि वायुयान प्रदूषकों के कारण प्रति वर्ष लगभग 8,000 लोगों की मृत्यु होती है, जिनमें से अधिकांश व्यक्ति भारत और चीन के होते हैं।
एमआईटी के अनुसंधानकर्ताओं द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट कहती है कि 35,000 फुट की ऊँचाई पर एक वायुयान द्वारा उत्सर्जित हानिकारक प्रदूषक लोगों के लिए घातक होते हैं। रिपोर्ट कहती है कि 35000 फुट की ऊंचाई पर वायुयानों द्वारा उत्सर्जित नाइट्रोजन और सल्फर डाइऑक्साइड वायुमंडल की अन्य गैसों साथ मिलकर हानिकारक कणयुक्त पदार्थों का निर्माण करते हैं। वाहनों से होने वाला उत्सर्जन देश के लगभग 70 प्रतिशत वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है। पर्यावरण के संरक्षण के सरकारी प्रयासों के साथ प्रमुख समस्या कानून की नहीं बल्कि स्थानीय स्तर पर इसके प्रवर्तन की रही है। वाहनों के निकास और उद्योगों से होने वाला वायु प्रदूषण भारत के लिए एक बिगडती हुई समस्या है। वाहनों से होने वाला निकास बीस वर्ष पूर्व के स्तर से आठ गुना अधिक हो गया है, जवकि इसी अवधि के दौरान औद्योगिक प्रदूषण चार गुना अधिक हो गया है। पिछले दो दशकों के दौरान अर्थव्यवस्था में ढाई गुना की वृद्धि हुई है, परंतु प्रदूषण नियंत्रण और नागरिक सेवाओं में उसी रतार से सुधार नहीं हो पाया है। कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई इत्यादि जैसे बडे शहरों में हवा की गुणवत्ता अत्यंत खराब है।
बैंगलोर को देश की दमा राजधानी की उपाधि मिली हुई है। ‘‘बैंगलोर के 2012 के पर्यावरण रिपोर्ट कार्ड‘‘ के अनुसार इस शहर में वायु प्रदूषण में वृद्धि निर्माण कार्यों के कारण और वाहनों के निकास के कारण लगातार बढ़ता जा रहा है। इसका कहना है कि शहर में वाहनों की संख्या 3.7 मिलियन की संख्या को भी पार कर गई है और वाहनों की संख्या में प्रति वर्ष 8 प्रतिशत की दर से निरंतर वृद्धि हो रही है।
14.5 भूजल शोषण
भूजल की गुणवत्ता और प्रदूषण भारत की सबसे चिंताजनक प्रदूषण आपदाओं में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व जल दिवस 2012 को, प्रति वर्ष 22 मार्च को अनुमानतः चार बिलियन लोग असुरक्षित पानी पीने, अपर्याप्त स्वच्छता और बुरी स्वास्थ्य सुरक्षा के परिणामस्वरूप अतिसार से बीमार पडते हैं। प्रति वर्ष लगभग 2 मिलियन लोगों की मृत्यु अतिसार के कारण हो जाती है, और इनमें से अनेक तो पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे, गरीब और विकासशील देशों में रहने वाले लोग होते हैं। केंद्रीय भूजल बोर्ड के वैज्ञानिक डॉ एम. ए. फारूकी के अनुसार लोगों और नगर पालिकाओं, दोनों के द्वारा ठोस अपशिष्ट का अनुचित निपटान भूजल को सीधे संदूषित कर रहा है।
14.6 प्लास्टिक प्रदूषण
प्लास्टिक की थैलियां, प्लास्टिक की पतली चादरें और प्लास्टिक अपशिष्ट भी प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंड़ पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति अरुण टंडन शामिल थे, ने 3 मई 2010 को गंगा घाटी प्राधिकरण और राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि संपूर्ण राज्य में गंगा नदी के आसपास के क्षेत्रों में प्लास्टिक के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लागू करने के लिए उचित कदम उठाये जाएँ। साथ ही देश में प्लास्टिक थैलियों का प्रदूषण सबसे बड़ा खतरा है।
15.0 खनन के कारण होने वाला प्रदूषण
नई दिल्ली स्थित विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र ने 29 दिसंबर 2007 को कहा था कि खनन के कारण विस्थापन, प्रदूषण, वन अवक्रमण और सामाजिक अशांति निर्मित हो रहे हैं। विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की रिपोर्ट के अनुसार 50 शीर्ष खनिज उत्पादक जिलों में से कम से कम 34 जिले देश में चिन्हित 150 सबसे अधिक पिछडे़ जिलों के तहत आते हैं।
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की रिपोर्ट ने पर्यावरण अवक्रमण और खनन के कारण होने वाले प्रदूषण पर व्यापक विश्लेषण किया है, जिसमें उसने कहा है कि केवल 2005-06 में ही 1.6 बिलियन टन अपशिष्ट और कोयले, लौह अयस्क, चूना पत्थर और बॉक्साइट के अत्यधिक बोझ ने पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि की है। खनन की वार्षिक वृद्धि की 10.7 प्रतिशत दर और 500 से अधिक केंद्र से मंजूरी का इंतजार करती खदानों के साथ आने वाले वर्षों में प्रदूषण में कई गुना वृद्धि होगी।
महानदी कोल फील्ड्स और एनटीपीसी की खदानें लगभग 25 करोड़ लीटर पानी प्रति दिन ब्राह्मणी नदी से खींचती हैं और इसके बदले में वे ब्राह्मणी नदी की एक उपनदी नंदिरा नदी में हजारों गैलन अपशिष्ट पानी प्रवाहित करती हैं, जिसमें राख, तेल, भारी पदार्थ, ग्रीस, लोराइड्स, फॉस्फोरस, अमोनिया, यूरिया और सल्यूरिक एसिड जैसे आपत्तिजनक पदार्थ होते हैं।
क्लोरीन संयंत्रों से निकलने वाले अपशिष्ट के कारण दक्षिणी ओडिशा की जीवनरेखा ऋषिकुल्य नदी में क्लोराइड और सोडियम की विषाक्तता निर्माण करते हैं। फॉस्फोरिक उर्वरक उद्योग नाइट्रिक, सल्यूरिक और फॉस्फोरिक अम्ल महानदी में प्रवाहित करते हैं।
गोवा के खुले लौह अयस्क उत्खनन ने ने वहां की वायु और सतही जल के प्रदूषण को काफी अधिक अवक्रमित किया है साथ ही उस राज्य के भू परिदृश्य में वनोन्मूलन, सतही और भूजल और कृषि भूमि को काफी क्षति पहुंचाई है। 25 फरवरी 2011 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसकी समिति द्वारा बेल्लारी और कर्नाटक के अन्य वन क्षेत्रों में हो रहे कथित अवैध उत्खनन की जांच करने का आदेश दिया गया है। 28 जुलाई की लोकायुक्त की विस्फोटक रिपोर्ट ने बेल्लारी में हो रहे प्रमुख उल्लंघन और सुव्यवस्थित भ्रष्टाचार को उजागर किया है। वन भूमि की लूट और वायु और जल प्रदूषण के मानकों के संपूर्ण उल्लंघन की दृष्टि से इस क्षेत्र के पर्यावरणीय अवक्रमण अत्यंत विनाशकारी रहे हैं।
16.0 जैवचिकित्सकीय अपशिष्ट व ई-कचरे के कारण होने वाला प्रदूषण
जैविक चिकित्सकीय अपशिष्ट भारत में प्रदूषण का एक अन्य स्रोत है। इसके कारण ऐसी गंभीर बीमारियां फैलने की संभावना है जो जीवन की दृष्टि से अत्यंत घातक हो सकती हैं, साथ ही ये अपशिष्ट वायुमंड़ल को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बना सकते हैं। अप्रैल 2010 के प्रारंभ में दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त एक मशीन, जिसमें कोबाल्ट-60 विद्यमान है, जो एक रेडियो धर्मी धातु है जिसका उपयोग अस्पतालों में रेडियो चिकित्सा के लिए किया जाता है, शहर के एक भंगार आहाते में पड़ी थी। विकिरण विषाक्तता के कारण दिल्ली के इस अहाते में कार्यरत एक कर्मचारी की मृत्यु ने भारत में अपशिष्ट निपटान कानून के ढ़ीले प्रवर्तन को उजागर कर दिया है। अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण ने कहा था कि यह पिछले चार वर्षों के दौरान विश्व में विकिरण से हुई सबसे खराब घटना थी।
चूंकि भारत को विदेशों से आये खतरनाक अपशिष्ट के रशिपातन के रूप में उपयोग किया जा रहा है। हाल ही में सीमा शुल्क विभाग से जुडे विशेष खुफिया और अंवेषण शाखा के अधिकारियों द्वारा माल के साथ बीस कंटेनरों को रोक लिया गया था। इन कंटेनरों में टूटे हुए खिलौनों के गट्ठे, उपयोग किये हुए डाइपर्स, खाली इत्र की बोतलें, उपयोग किये गए बैटरी सेल, थर्मोकोल, उपयोग किये गए एल्युमीनियम पन्नी की पैकिंग सामग्री और रंगीन शल्य चिकित्सा दस्ताने पाये गए थे। इनके कारण प्रदूषण और संक्रामक बीमारियां फैल सकती हैं।
ई-अपशिष्ट शब्द में लगभग सभी प्रकार की विद्युत और इलेक्ट्रॉनिक सामग्री का समावेश किया जा सकता है, जो या तो अपशिष्ट की धारा में आ चुकी है, या आ सकती है। हालांकि ई-अपशिष्ट एक सामान्य शब्द है, फिर भी इसमें टी वी, कंप्यूटर, मोबाइल फोन सफेद वस्तुएं (उदाहरणार्थ रेफ्रिजरेटर वाशिंग मशीन, ड्रायर इत्यादि), घरेलू मनोरंजन और स्टीरियो सिस्टम, खिलौने, टोस्टर, केतलियां - विद्युत सर्किट या विद्युत घटक होने वाले लगभग सभी घरेलू या व्यावसायिक उपकरण जिसमें बिजली या बैटरी का उपयोग किया जाता है, शामिल किये जा सकते हैं।
यूएनईपी की रिपोर्ट ‘‘रीसाइक्लिंग- फ्रॉम ई-वेस्ट टु रिसोर्सेज‘‘ इंडोनेशिया के बाली द्वीप पर 22 फरवरी 2010 को अधिकारियों और पर्यावरणविदों की एक हते तक चलने वाली बैठक के शुरू में जारी की गई थी। इस रिपोर्ट के लेखकों के अनुसार 2020 तक दक्षिण अफ्रीका और चीन में ई-अपशिष्ट 2007 के स्तर से 200 से 400 प्रतिशत तक बढ़ जायेगा, और भारत में यह 500 प्रतिशत से बढ़ जायेगा। कोलंबिया के कार्टागेना में हुए एक संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में, जिसमें अक्टूबर 2011 में 170 से अधिक देशों के प्रतिनिधि उपस्थित थे, खतरनाक अपशिष्ट के विकसित राष्ट्रों से विकासशील देशों में होने वाले निर्यात पर वैश्विक प्रतिबंध लगाने पर सहमति हुई, जिनमें पुराने इलेक्ट्रॉनिक सामान और बेकार कंप्यूटर और मोबाइल फोन शामिल थे। पर्यावरणीय अभियानकर्ता, जो विषैले अपशिष्ट के रशिपातन पर पिछले 20 वर्षों से अधिक समय से मध्यस्थता की लड़ाई लड़ते रहे हैं, कहते हैं कि इस ‘‘महत्वपूर्ण सफलता‘‘ पर वे ‘‘अत्यंत हर्षोल्लसित‘‘ हैं। ‘‘अमीर देशों द्वारा विकासशील देशों में भेजा जाने वाला रीसाइक्लिंग के लिए भेजे जाने वाले ई-अपशिष्ट से लेकर अप्रचलित इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट सहित सभी प्रकार का ई-अपशिष्ट प्रतिबंधित किया जायेगा।‘‘
भारत प्रति वर्ष लगभग 3,80,000 टन ई-अपशिष्ट का उत्पादन करता है, जिसमें केवल टेलीविजन, मोबाइल फोन, और कंप्यूटर से निर्मित होने वाला अपशिष्ट शामिल है, और जिसमें से अधिकांश भाग विभिन्न संगठनों से आता है। भारत में उत्पादित ई-अपशिष्ट में रेफ्रिजरेटर से उत्पन्न होने वाला 1,00,000 टन, टी वी से उत्पन्न होने वाला 2,75,000 टन, व्यक्तिगत कंप्यूटर से उत्पन्न होने वाला 56,300 टन, प्रिंटर्स से उत्पन्न होने वाला 4,700 टन और मोबाइल फोन से उत्पन्न होने वाला 1,700 टन अपशिष्ट शामिल है। असंघटित रीसाइक्लिंग क्षेत्र जो पर्यावरण के अनुकूल रीसाइक्लिंग पद्धतियों का उपयोग कर पाने में असमर्थ है, भारी मात्रा में विषैले रसायन उत्सर्जित करता है विषैली गैसें और भारी मात्रा में इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट भारत के पर्यावरणीय प्रदूषण में भारी योगदान देते हैं। भारत प्रति वर्ष लगभग 50,000 टन ई-अपशिष्ट का आयात करता है। 2007 में भारत ने 3,30,000 टन ई-अपशिष्ट का निर्माण किया था, और भविष्य में यह आंकड़ा काफी संख्या में बढ़ जाने की संभावना है।
17.0 भारत और चीन - वर्तमान प्रदूषण परिदृश्य और आंकडे़ं
एक विकसित होती अर्थव्यवस्था के रूप में, जो उच्च गरीबी स्तर से जूझ रही है, अगले 30 वर्षों में भारत का मिशन है उतनी ही तेजी से विकास करना जितनी तेजी से चीन ने पिछले 30 वर्षों के दौरान किया है, परंतु आदर्श स्थिति की दृष्टि से, उतने प्रदूषण के साथ निश्चित रूप से नहीं। जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों का कहना है कि वैश्विक जलवायु भारत द्वारा चीन के मार्ग के अनुसरण को बर्दाश्त नहीं कर पायेगी; और भारतीयों का स्वास्थ्य इसे सहन नहीं कर पायेगा। यदि भारत भी उतना ही कार्बन उत्सर्जित करना शुरू कर दे जितना चीन अभी (2015-16) करता है, तो वह प्रति वर्ष वायुमंडल में अमेरिका के उत्सर्जन मूल्य जितना अतिरिक्त उत्सर्जन जोडेगा। इसीलिए प्रदूषण को रोकना सभी के हित में है। परंतु यह भारत के लोगों के हित में सबसे अधिक होगा। प्रदूषण मारता है, वस्तुतः मारता है। अध्ययनों ने गणना की है कि वायु प्रदूषण (अधिकांश कजली (soot) से, कार्बन डाइऑक्साइड से नहीं) ने उत्तरी चीन के लोगों की जीवन प्रत्याशा 5.5 वर्ष से कम कर दी है। उस अध्ययन के लेखकों ने अब भारत की ओर देखा है, और यह निष्कर्ष निकाला है कि अभी से वायु प्रदूषण ने भारत की जीवन प्रत्याशा लगभग 70 करोड़ लोगों के लिए लगभग तीन वर्ष से कम कर दी है।
दिल्ली में क्या गलत हुआः ‘‘दिल्ली पृथ्वी का सबसे प्रदूषित शहर बन गया है‘‘ - अधिकांश भारतीयों के लिए यह एक झटका साबित हो सकता है, परंतु यह एक शर्मनाक वास्तविकता बन चुका है। पहले, जहां बीजिंग नियमित रूप से धुंध प्रेरित पारभासकता का सामना करता था, जहां पादचारी यातायात की सामान्य दृश्यता, और यातायात पुलिस व्यर्थ ही प्रदूषण से अपने चेहरे को छिपाने का प्रयास करते थे, बच्चे अपनी कक्षाओं में घुटते थे, आज वही खतरनाक स्तर का वायु प्रदूषण भारत की राजधानी दिल्ली, पृथ्वी के सबसे प्रदूषित शहर, में होने की अधिक संभावना है। जबकि चीन की सरकार इस आसन्न खतरे के प्रति जागरूक हो गई है और उसने सुधार करना शुरू कर दिया है, भारत की सरकार को यह करना अभी बाकी है। विभिन्न माल को ढ़ोने वाली सैकड़ों गाड़ियां इसका मुख्य कारण है कि दिल्ली की हवा क्यों विश्व की सबसे अधिक प्रदूषित हवा बन गई है। बीजिंग की प्रतिष्ठा इससे भी अधिक खराब है, जिसमें 10 माइक्रोन या उससे छोटे कणों से इसकी दृश्य धुंध देखी जा सकती है जिसे पीएम 10 ;च्ड 10द्ध कहा जाता है। परंतु दिल्ली की गंभीर विशेषता यह है कि इसमें स्तर पीएम 10 के स्तर से भी अधिक है, साथ ही इसमें पीएम 2.5 जैसे छोटे स्तर भी विद्यमान हैं, और यह जीवन की दृष्टि से अधिक हानिकारक हैं क्योंकि वे फेफड़ों में अधिक गहराई तक प्रवेश करते हैं और निश्चित मृत्यु का कारण बनते हैं। आमतौर पर दिल्ली में पीएम 2.5 का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सुरक्षित माने गए स्तर से लगभग 15 गुना तक अधिक होता है। नए आंकडें दर्शाते हैं कि इस दृष्टि से दिल्ली की हवा पिछले अनेक वर्षों से चीनी राजधानी की हवा की तुलना में 45 प्रतिशत से अधिक प्रदूषित है।
विश्वव्यापी मूल्यांकनः पिछले वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैश्विक स्तर पर 1622 शहरों का पीएम 2.5 का आकलन किया था और पाया कि सर्वाधिक प्रदूषित 20 शहरों में से 13 शहर भारत में हैं। चीन की तुलना में भारत के अधिक शहर इस प्रकार के प्रदूषण के अत्यधिक उच्च स्तर का अनुभव करते हैं। इसके लिए निश्चित रूप से न्यून मानकों के वाहन उत्सर्जन और ईंधन को दोष दिया जा सकता है। ग्रामीण लोगों की स्थिति भी इससे अधिक बेहतर नहीं है। घर में जलाये गए कंडे, पैराफिन स्टोव और दिए से निकलने वाले धुएं को सांस द्वारा अंदर लेने के कारण ग्रामीण भारत में 10 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु होती है। विश्व संगठन का कहना है कि अधिकांश भारतीय लोग असुरक्षित हवा में साँस लेते हैं। इससे होने वाली मानव लागत में दमे की बढ़ती दर है, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं। पीएम 2.5 से कर्करोग भी होता है, और इसके कारण हृदयाघात होता है जो मृत्यु का कारण बनता है। जैसे - जैसे भारत के लोग वृद्ध होते जायेंगे और स्थूल होते जायेंगे, वायु प्रदूषण से और भी कहीं अधिक मौतें होने की संभावना है। आतंरिक और बाह्य प्रदूषण एक साथ मिलकर मृत्यु का सबसे बड़ा कारण हैं, जो प्रति वर्ष लगभग 16 लाख लोगों की मृत्यु का कारण बनते हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा शुरू किये गए ‘‘दिल्ली को साँस लेने दो‘‘ जैसे धुंध विरोधी अभियानों के दबाव में भारत के नेता अब कार्य करना शुरू कर रहे हैं। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडे़कर कहते हैं कि उत्सर्जन पर आंकडे़ं इकठ्ठा करने के लिए हजारों औद्योगिक चिमनियों पर मॉनिटर लगाये गए हैं। अब अधिकारियों ने देश के 17 सबसे बडे़ प्रदूषक उद्योगों को चिन्हित किया है। कम से कम सैद्धांतिक दृष्टि से अब प्रत्येक भारतीय शहर को निरंतर वायु गुणवत्ता का मापन करना अनिवार्य बनाया गया है। परंतु केंद्र के आदेशों के प्रवर्तन में राज्य सरकारें सुस्त हैं, जबकि भारत का प्रमुख पर्यावरण अभिकरण केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड लगभग कुछ नहीं कर रहा। श्री जावडेकर ने ईंधन मानकों के सुधार के लिए ‘‘आक्रामक कार्यवाही‘‘ करने का आश्वासन दिया है जिसमें वे प्रदूषक गाड़ियां भी जो नित्य दिल्ली आती हैं। मार्च में वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय मानकों को कठोर बनाने के आदेश दे सकता है, जिनमें सल्फर को कम करने और कार निर्माताओं को वाहन उत्सर्जन कम करने के लिए कहा जा सकता है।
कुछ भारतीय शहरों ने हवा में कणों की निगरानी करना शुरू कर दिया है। अन्य शहरों को भी उनका अनुसरण करना चाहिए और पारदर्शिता से ये आंकडे़ं जनता के समक्ष प्रस्तुत करने चाहियें। स्वच्छ परिवहन एक महत्वपूर्ण प्राथमिकता है। अधिकांश भारतीय कारों और ट्रकों का ईंधन अत्यंत खराब और सल्फर युक्त है। अब समय आ गया है कि हम अपनी ईंधन कुशलता और वाहन उत्सर्जन, दोनों में सुधार करें। हाल के वर्षों में पेट्रोल और डीजल पर अनुवृत्ति समाप्त करने का लागत वृद्धि का स्वागतयोग्य प्रभाव हुआ है, विशेष रूप से विषैले प्रदूषक फैलाने वाले जनरेटर की, जो स्थापित विद्युत क्षमता का लगभग एक तिहाई है। यह देखते हुए कि शहरों में भी अधिकांश लोग पैदल, बस से या साइकिल से ही सफर करते हैं - और केवल 5 प्रतिशत परिवारों के पास ही कारें हैं - इससे पहले कि कार राजा बन जाए, भारत के पास अभी भी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्थाएं स्थापित करने का समय है। 14 शहरों ने पहले ही मेट्रो की सेवा शुरू कर दी है, या वे उसका निर्माण कर रहे हैं। जहां तक कृषकों का प्रश्न है, एक हरित कार्यकर्ता सुनीता नारायण कहती हैं कि उनपर आधुनिक कटाई उपकरणों के उपयोग के लिए दबाव बनाया जाना चाहिए, जिससे खूटों को खेत में जलाने का अनावश्यक कार्य समाप्त हो जायेगा, जो वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण है।
सफाई के लिए भारत के पास निश्चित ही योजनाएं हैं। 2014 में उसने डीजल पर अनुवृत्ति समाप्त कर दी, अतः फर्मों के पास अब अकुशल और प्रदूषण फैलाने वाले जनरेटर उपयोग करने का कोई कारण नहीं रहा है। मिट्टी के तेल पर भी अनुवृत्ति समाप्त की जानी चाहिए। सबसे गंदे विद्युत संयंत्रों को बंद कर देना चाहिए।
भारत के स्मार्ट राज्यः राज्यों को गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के नेतृत्व का अनुसरण करना चाहिए, जो कणों के लिए विश्व की प्रथम कैप-एंड-ट्रेड योजनाएं शुरू करने जा रहे हैं। ये तीन औद्योगिक राज्य विश्व के पहले कण सामग्री व्यापार अनुज्ञा पत्र बाजार की शुरुआत करने जा रहे हैं। गुजरात के सूरत शहर में 300 वस्त्रोद्योग संयंत्र, जो भाप निर्माण के लिए आमतौर पर कोयला जलाते थे, शायद इस प्रकार के व्यापार अनुज्ञा पत्र का व्यापार करने वाले पहले संयंत्र बन जायेंगे। निगरानी उपकरणों ने पहले ही इन संयंत्रों और अन्य संयंत्रों का उत्सर्जन डेटा इकठ्ठा कर लिया है।
यदि कारखानों को उत्सर्जन कम करने के लिए प्रलोभन प्रदान किये जाएँ तो वे तुरंत भारी मात्रा में उत्सर्जन में कमी कर सकते हैं। उदाहरणार्थ वे अपने उपकरणों की बेहतर ढंग से सफाई कर सकते हैं या ईंधन का उपयोग और अधिक कुशलता से कर सकते हैं। यदि केंद्र सरकार आदेश देती है तो यह बाजार कार्यरत हो सकता है। हालांकि यह तभी संभव हो पायेगा जब मानकों के उल्लंघन करने वाले कारखाना मालिकों पर कानून में आपराधिक दंड के स्थान पर वित्तीय दंड का प्रावधान किया जाए। परंतु यह स्पष्ट है कि भारतीय जनता जब तक स्वच्छ जीवन की मांग नहीं करेगी तब तक यह शीघ्र होना संभव नहीं है।
भारतीय नेतृत्व को यह समझना आवश्यक है कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार करने की जल्दी में उत्पन्न होने वाला प्रदूषण विकास को पीछे धकेल देता है, और साथ ही यह भी कि उत्सर्जन को इस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है जो आर्थिक विकास में बाधा निर्माण नहीं करे। उदाहरणार्थ यदि भारत एक विश्वसनीय विद्युत ग्रिड का निर्माण करता है तो इसके कारण गंदे निजी जनरेटर का उपयोग कम हो जायेगा, यह घरेलू आतंरिक प्रदूषण को कम करेगा, और साथ ही उत्पादकता में भी वृद्धि करेगा, ये सभी लाभ एकसाथ प्राप्त होंगे। चीन ने अपने कार्य की सफाई में काफी देर की य भारत को वही गलती दोहरानी नहीं चाहिए।
COASTAL REGULATION ZONE (CRZ) NOTIFICATION 2018-19
- The Cabinet has cleared the Coastal Regulation Zone (CRZ) notification allowing for construction up to 50m of the high tide line, and temporary structures only 10m from it in a move that environmental experts and fisherfolk said would ruin the coastal environment.
- The new notification relaxes various provisions of the CRZ 2011 notification, including the reduction of no-development-zone to 20 metres for all islands from the earlier 50 or 100 metres (depending on the type of island).
- The new notification allows for greater real estate and tourism development on the coast, but could come at a significant cost to the environment.
- Fishermen’s unions have warned of a national level agitation if the notification comes into force because it doesn’t address their concerns and makes the coastline vulnerable to environmental disasters.
- The CRZ 2018 also “de-freezes” the current Floor Area Ratio (FAR) caps facilitating real estate development in coastal urban areas and allows for a no-development zone (NDZ) of only 50 metres from high tide line (HTL) as opposed to 200 metres from HTL in CRZ 2011 in populated coastal rural areas. Environmental clearances for projects in CRZ areas have also been simplified—CRZ clearances are needed only for those projects located in CRZ 1 zone or in ecologically sensitive areas and for CRZ VI zone (area between low tide line and 12 nautical miles seaward). A new feature has been added which allows for temporary tourism facilities such as shacks, toilet blocks, drinking water facilities etc on beaches at a minimum distance of only 10 metres from HTL.
- Fisherfolk and environmental experts say the notification will spell disaster for India’s 7,500 km long coastline. The National Fishworkers Forum and other state fishworker unions submitted more than 100000 representations to the environment ministry opposing the draft notification released in April 2018. During cyclone Ockhi last year and Gaja this year, locals noticed that sea water entered 3 to 4 km inland in Tamil Nadu. After the Tsunami in 2004, the entire coastline of TN was declared eco-sensitive. Sand dunes which protect the coast from seawater intrusion will be destroyed completely if temporary structures are allowed..
- Relaxations are being made to facilitate government’s Sagarmala project for inland waterways to drive industrial development. The entire 7,500 km coastline is used by fishworkers for landing canoes. If development is done within 50 metres of HTL it means there is no coastline left for fishermen.
- The new CRZ notification is based on recommendations of the Sailesh Nayak (former secretary, ministry of earth sciences) headed committee.
TACKLING STUBBLE BURNING
- Long term vision needed : To penalise farmers (or giving notice or subsidies) for buring the stubble left after harvesting paddy in Punjab and Haryana, is incorrect. A different vision is needed.
- Dense smog in northern India : It contributes upto 20% to the dense smog in northern India during winters. Farmers are not really at fault, as much as short-sighted govt. policies are.
- Rotation of crops : From 1960s, wheat-paddy crop rotation was encouraged in Punjab and Haryana for higher production. Huge investments in Green Revolution were made in areas like irrigation and HYV seeds.
- Negative fallout : Land degradation, adverse soil health due to pesticide / fertilizer overuse, and reducing water tables!
- Paddy at the cost of others : Punjab saw paddy cultivation growing from 6.8% (1966-67) to 36.4% recently (Haryana saw it grow from 4.97% to 20%). What suffered as a result was maize, cotton, oilseeds and sugarcane. The MSP procurements and input subsidy policies also forced farmers to go this way only.
- 2009 Water Conservation Law, Punjab : It mandates paddy sowing only in June (rather than May), thereby reducing the time to harvest to 15-20 days only. Transplantation before notified day is impossible. The next crop is wheat, and crop yields are to be maintained as well - so best way out is stubble burning!
- How to tackle it ? Encourage crop diversification towards less water-intensive crops. If need be, use the "price deficiency system" as tried in MP and Haryana. Or try the Telangana model of cash support (Rs.8000 per acre per year).
- Pressure : Farmers have invested in seed drill machines (for wheat sowing after paddy harvest), and now they are being pressured to buy "happy seeder" machines to end stubble burning. Even at low costs, it will remain idle for rest of the year, and small/marginal farmers can't buy it. Asking companies to bring machines on rental basis is a better way.
- Uberisation : We can think of "Uberisation of agriculture", if an app-based support for all farm implements is given. That will make farming more mechanised, cost effective and employment-intensive.
- Paddy straw : Wheat residue is fodder for cattle, so is used. Paddy straw has high silica, hence animals can't eat it. But biomass generation in power plants, paper, cardboard mills is possible. Govt. should directly install biomass plants at farm locations. Achieving our R.E. target (227GW by 2022) will be aided.
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