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भारत में महिला संगठन
1.0 प्रस्तावना
भारतीय महिला आंदोलन की जड़ें उन्नीसवीं सदी के उन पुरुष समाज-सुधारकों में खोजी जा सकती हैं, जिन्होंने महिलाओं से संबंधित मामलों को ज़ोर-शोर से उठाया और देश में महिला संगठनों की शुरुआत की। जो दो मुख्य मामले उठाये गए थे, वे थे राजनीतिक अधिकारों के और व्यक्तिगत कानूनों में सुधार के। धीरे-धीरे महिलाओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया, जिसने भारत में महिला आंदोलन के आधार को और अधिक विस्तृत कर दिया।
आज भारतीय महिलाओं के समक्ष जो दो मुख्य समस्याएं हैं, वे हैंः
- साक्षरता, और
- हिंसा
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के भारत में, महिलाओं के अनेक स्वायत्त समूह उभर कर आये हैं, जो सक्रियता और अकादमिक, दोनों स्तरों पर पुरुष-प्रधान सत्ता को चुनौती दे रहे हैं और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा, राजनीतिक निर्णयों में महिलाओं की अधिक भागीदारी, जैसे विविध विषय उठा रहे हैं। हालांकि महिला सशक्तिकरण के लिए काफी समृद्ध और सक्रिय आंदोलन हुए हैं, फिर भी लैंगिक समानता और लैंगिक न्याय प्राप्ति की दिशा में अभी हमें काफी रास्ता तय करना है।
2.0 स्वतंत्रता-पूर्व भारत में महिला संगठन
भारतीय महिला आंदोलन की जड़ें उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक गहरी गई हुई हैं, जब राम मोहन रॉय (1772-1833) से शुरू हुए समाज सुधारकों ने महिलाओं से संबंधित मामलों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया। रॉय ने सती प्रथा, कुलीनों द्वारा बहुविवाह प्रथा जैसी कुप्रथाओं की न केवल भर्त्सना की बल्कि उन्होंने महिलाओं के संपत्ति के अधिकारों के पक्ष में भी बात की। उन्होंने यहाँ तक कहा कि भारतीय समाज के हृस की अवस्था के लिए महिलाओं की स्थिति ही महत्वपूर्ण जिम्मेदार कारक है। यदि राम मोहन रॉय को उनके सती विरोधी आंदोलन के लिए याद किया जाता है, तो ईश्वरचंद विद्यासागर को विधवा पुनर्विवाह के उनके अभियान के लिए अच्छी तरह से याद किया जाता है।
उनका अनुसरण करते हुए, महिलाओं की स्थिति में सुधार करना भारतीय सामाजिक सुधार आंदोलन का प्रथम महत्वपूर्ण सिद्धांत बन गया। महिलाओं का समाज में दोयम दर्जा, उनपर थोपा गया एकांतवास, बाल विवाह, समाज में विधवाओं की स्थिति और शिक्षा का अभाव, ये ऐसे तथ्य थे जो समाज सुधारकों ने समूचे देश भर में दर्ज किये।
2.1 पुरुषों द्वारा शुरू किये गए महिला संगठन
जो लोग सामाजिक-धार्मिक सुधार संघों में शामिल थे, उन्होंने महिलाओं के लिए पहला संगठन शुरू किया। बंगाल में, एक प्रसिद्ध ब्रह्मो समाज नेता केशब चंद्र सेन ने एक महिला पत्रिका की शुरुआत की, उन्होंने महिलाओं के लिए प्रार्थना सभाएं आयोजित कीं, और महिलाओं के लिए शैक्षणिक कार्यक्रम विकसित किये। ब्रह्मो समाज के सदस्यों ने अपने स्वयं के परिवारों और निष्ठाओं में महिला संघों का गठन किया।
महाराष्ट्र और गुजरात में प्रार्थना समाज ने भी इसी प्रकार का कार्य किया। पुणे में नारायण गणेश चंदावरकर, माधव गोविंद रानाड़े और आर.डी. भंडारकर और अहमदाबाद में महीपतराम रूपराम नीलकंठ और उनके सहयोगियों ने बालविवाह का निषेध, विधवाओं का पुनर्विवाह करने के लिए और महिलाओं की शिक्षा के लिए संगठनों की शुरुआत की। पुरुषों द्वारा प्रेरित और मार्गदर्शित महिला संगठनों ने महिलाओं को शिक्षित करने और उन्हें सामाजिक कार्यों में पहला अनुभव प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। जबकि पुरुष अपनी महिलाओं को शिक्षित और सामाजिक कार्यों में भाग लेते हुए देखना चाहते थे, फिर भी उनका मानना था कि महिलाओं की पहली प्राथमिकता उनका घर एवं परिवार था।
2.2 महिलाओं द्वारा शुरू किये गए महिला संगठन
उन्नीसवीं सदी के अंत तक, सुधारित परिवारों से कुछ महिलाएं उभर कर सामने आयीं, जिन्होंने अपने स्वयं के महिला संगठन शुरू किये। ऐसा करने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं, ब्रह्मो समाज के नेता देवेन्द्रनाथ टैगोर की पुत्री, और कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर की बहन स्वर्णकुमारी देवी, जिन्होंने विधवा और अन्य गरीब महिलाओं को शिक्षित करने और उन्हें कौशल्य प्रदान करने के लिए, ताकि वे आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो सकें, 1882 में कलकत्ता में महिला समाज की स्थापना की। उन्होंने भारती नामक एक महिला पत्रिका का संपादन भी किया, और इस प्रकार स्वयं के लिए पहली भारतीय महिला संपादक होने का गौरव प्राप्त किया। उसी वर्ष के दौरान रमाबाई सरस्वती ने पुणे में आर्य महिला समाज की स्थापना की, और कुछ वर्ष पश्चात मुंबई में शारदा सदन की शुरुआत की।
सामाजिक विषयों पर चर्चा करने के लिए राष्ट्रीय परिषद का गठन 1887 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन के दौरान किया गया। भारत महिला परिषद इसकी महिला शाखा थी, जिसका उद्घाटन 1905 में हुआ। इसका फोकस बाल विवाह, विधवाओं की स्थिति, और दहेज एवं अन्य ‘‘कुप्रथाएँ‘‘ थीं। पारसियों, मुस्लिमों और सिखों, सभी ने अपने अपने महिला संगठनों की स्थापना की। कलकत्ता, बंबई, मद्रास एवं अन्य छोटे शहरों में ऐसे महिला संघ बने जिनकी महिला सदस्य शहरों के शिक्षित परिवारों के छोटे समूहों से आती थीं। वे महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकालने, उन्हें अन्य महिलाओं से मिलने का अवसर प्रदान करने, परोपकारी काम करने, और उन्हें सार्वजनिक मामलों में दिलचस्पी लेने के लिए प्रेरित करके उनके दृष्टिकोण को व्यापक बनाने में काफी मददगार साबित होती थीं। इस काम ने उन्हें एक संगठन को संचालित करने का अनुभव भी प्रदान किया।
2.3 राष्ट्रीय महिला संगठन
प्रारंभिक महिला संगठन स्थान विशेष या शहरों तक सीमित थे। 1910 में स्वर्णकुमारी देवी की पुत्री सरला देवी चौधरानी ने भारत स्त्री मंडल (भारतीय महिलाओं की महान मंडली) का गठन किया, जिसका उद्देश्य था ‘‘सभी जातियों, पंथों, वर्गों, और राजनीतिक दलों की महिलाओं को भारतीय महिलाओं के नैतिक और भौतिक विकास पर उनके समान हितों के आधार पर इकठ्ठा करना।‘‘ इसने महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर अपनी शाखाएं शुरू करने की योजना बनाई। लाहौर, अमृतसर, इलाहाबाद, हैदराबाद, दिल्ली, कराची जैसे शहरों और अन्य शहरों में भी इसकी शाखाएं शुरू की गईं। सरला देवी के अनुसार महिलाओं की शिक्षा में सबसे बडी बाधा थी पर्दा, इसलिए शिक्षकों को महिलाओं को शिक्षा देने के लिए उनके घर भेजा जाने लगा। उनकी इच्छा थी कि महिलाएं पुरुषों के वर्चस्व से बाहर निकलें, अतः केवल महिलाओं को ही उनके संगठन में शामिल होने की अनुमति थी। हालांकि भारत स्त्री महिला मंडल एक अल्पकालिक उपक्रम सिद्ध हुआ।
2.4 स्वतंत्रता-पूर्व काल के भारत के मुद्दे
1917 से 1945 के बीच के अंतर-युद्ध वर्षों के दौरान महिला आंदोलन ने दो प्रमुख मुद्दों को उठाया-महिलाओं के लिए राजनीतिक अधिकार और व्यक्तिगत कानूनों में सुधार।
2.4.1 महिलाओं के लिए मताधिकार
जब भारत के लिए विदेश सचिव लॉर्ड एडविन मोंटग संवैधानिक सुधारों के लिए राजनीतिक परिस्थिति का सर्वेक्षण करने के लिए वाइसराय लॉर्ड चेल्म्सफोर्ड से मिलने के लिए भारत आये, तो भारतीय महिलाओं को राजनीतिक अधिकारों की मांगें करने का एक अवसर दिखाई दिया। इसकी परिणति एनी बेसेंट, मार्गरेट कज़िन्स, और डोरोथी जिनराजदासा द्वारा 1917 में महिलाओं के भारतीय संघ (डब्लूआईए) की स्थापना में हुई। ये तीनों महिला ब्रह्मविदुषियां थीं, जो अपने देश में महिलाओं के लिए मताधिकार के लिए कार्य करने वाले संगठन की सदस्य थीं। इनका साथ दिया मालती पटवर्धन, अम्मू स्वामीनाथन, श्रीमती दादाभॉय और श्रीमती अम्बुजम्मल ने। एक प्रकार से डब्लूआईए अपनी किस्म का पहला अखिल भारतीय महिला संघ था, जिसका स्पष्ट उद्देश्य था महिलाओं के लिए मताधिकार हासिल करना।
महिलाओं के लिए पुरुषों जैसी ही समान शर्तों पर मताधिकार की मांग करते हुए, जो उन्हें राजनीतिक मामलों में अपनी उपस्थिति दर्ज करने की क्षमता प्रदान करेगा, देश के विभिन्न भागों से 23 महिलाओं द्वारा हस्ताक्षर किया हुआ एक ज्ञापन मोंटग और चेल्म्सफोर्ड को दिया गया। इसमें अन्य मांगें भी रखी गईं थीं, जैसे शिक्षा, कौशल्य निर्मिति का प्रशिक्षण, स्थानीय स्वशासन, सामाजिक कल्याण इत्यादि। कलकत्ता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1917 के अधिवेशन ने, जिसकी अध्यक्षता एनी बेसेंट द्वारा की गई थी, महिलाओं के मताधिकार की मांग का समर्थन किया। इसी प्रकार मुस्लिम लीग ने भी इसका समर्थन किया। अपने मामले की व्यक्तिगत पैरवी करने के उद्देश्य से सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में महिलाओं का एक प्रतिनिधिमंडल विदेश सचिव और वाइसराय से मिला। महिला नेत्रियों का तर्क था कि राज्य विधानसभाओं में महिलाओं की अनुपस्थिति निंदनीय थी, व उनकी उपस्थिति काफी मददगार साबित हो सकती थी क्योंकि वे यह सुनिश्चित कर सकती थीं कि ‘‘बच्चे बड़े होकर भारत के अच्छे, स्वस्थ, शिक्षित, कुशल और कुलीन बेटे और बेटियां बनें।‘‘
महिला मताधिकार के लिए समर्थन जुटाने के लिए महिला संगठन संपूर्ण देश में बैठकें आयोजित करते थे। परदे के पीछे मार्गरेट कज़िन्स और कुछ अन्य महिलाएं अपना मामला सुदृढ़ बनाने के लिए कठिन परिश्रम कर रही थीं। इस समय ज्ञापन की राजनीति ही सरकार पर छाप बनाने का मुख्य रास्ता था।
जानकारी एकत्रित करने के लिए साउथबरो मताधिकार समिति ने 1918 में भारत का दौरा किया। उसने महिलाओं का ज्ञापन स्वीकार तो कर लिया, परंतु शुरुआत में यह महिलाओं को मताधिकार प्रदान करने के विषय में उदासीन था, क्योंकि उसे लगता था कि भारतीय महिलाएं अभी इसके लिए तैयार नहीं थीं। डब्लूआईए और अन्य महिला समूह इससे क्रुद्ध हो गए और उन्होंने अपना आंदोलन जारी रखा। सरोजिनी नायडू और एनी बेसेंट संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए इंग्लैंड गईं, जबकि डब्लूआईए की स्थानीय शाखाएं बैठकों का आयोजन करती रहीं, प्रस्ताव पारित करती रहीं और उन्हें लंदन प्रेषित करती रहीं। उनके मामले की पैरवी करने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल लंदन भेजा गया। अंततः संयुक्त संसदीय समिति लिंग अयोग्यता को हटाने लिए सहमत हुई, किंतु यह कब और कैसे करना है, यह निर्णय उन्होंने प्रांतीय विधानसभाओं पर छोड़ दिया। एक राजसी रियासत त्रावणकोर-कोचीन 1920 में महिलाओं को मताधिकार प्रदान करने वाली पहली रियासत बनी, जिसके बाद 1921 में मद्रास और बंबई ने भी यह लागू कर दिया। अन्य राज्यों ने भी इसका अनुसरण किया। हालांकि मताधिकार काफी सीमित था। महिलाओं को मताधिकार तभी प्राप्त होता था, यदि उनके पास पत्नीत्व, संपत्ति और शिक्षा जैसी योग्यताएं होती थीं।
1926 में हुए चुनावों में, कमलादेवी चट्टोपाध्याय मद्रास विधान परिषद के लिए मैंगलोर से उम्मीदवार के रूप में खडी हुई थीं, किंतु वे बहुत ही कम अंतर से चुनाव हार गईं। मद्रास सरकार ने जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता और चिकित्सक डॉ. मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी को विधान परिषद के लिए नामित किया था, जहां उन्होंने महिलाओं के विषयों को जोर-शोर से उठाया।
मोंटेग चेल्म्सफोर्ड सुधारों के दस वर्ष पश्चात, एक नए भारत अधिनियम के पहले कदम के रूप में 1927 में साइमन आयोग की नियुक्ति की गई थी। इसका परिणाम महिला मताधिकार की लडाई में दूसरे चक्र में हुआ। इस आयोग ने जब भारत की यात्रा की तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसका इस आधार पर बहिष्कार किया कि इस आयोग में कोई भारतीय प्रतिनिधि नहीं था। डब्लूआईए ने भी बहिष्कार का साथ दिया, जबकि अखिल भारतीय महिला सम्मेलन इस विषय में विभाजित था, और उसके कुछ सदस्यों ने आयोग से मुलाकात की। एआईडब्लूसी ने दूसरी गोलमेज परिषद की मताधिकार समिति को प्रस्तुत करने के लिए एक ज्ञापन तैयार किया जिसमें सार्वभौम वयस्क मताधिकार, मिश्रित सामान्य मतदाता सूची और महिलाओं के लिए किसी सीट के आरक्षण न करने की मांग की गई थी। लॉर्ड लोथियन की अध्यक्षता में मताधिकार समिति ने सार्वभौम वयस्क मताधिकार की मांग ठुकरा दी, किंतु प्रांतीय विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 2 से 5 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। एआईडब्लूसी ने सीटों के आरक्षण की मांग ठुकरा दी। 1935 के भारत शासन अधिनियम ने मताधिकार प्राप्त महिलाओं की संख्या बढ़ा दी, और पिछली कुछ योग्यताओं को समाप्त कर दिया। 21 वर्ष की आयु से अधिक की सभी महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया गया, बशर्ते वे संपत्ति और शिक्षा की योग्यताओं की पूर्ती करती हों। सार्वभौम वयस्क मताधिकार प्राप्त करने के लिए महिलाओं को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तक का इंतजार करना पड़ा।
2.4.2 व्यक्तिगत कानूनों में सुधार
महिलाओं की शिक्षा की समस्याओं को उठाने के उद्देश्य से अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना मार्गरेट कज़िन्स की पहल पर 1927 में हुई। भारत के विभिन्न भागों से विभिन्न धर्मों, जातियों, और समुदायों की महिलाओं ने पुणे में उहे पहले अधिवेशन में भाग लिया, जो काफी सफल रहा। एआईडब्लूसी की पहली चिंता महिलाओं की शिक्षा को लेकर थी, परंतु उसे यह एहसास हुआ कि लड़कियां पर्दा प्रथा, बाल विवाह और अन्य सामाजिक प्रथाओं के चलते विद्यालय नहीं जा पाती थीं। अतः उसने इन विषयों को हाथ में लेने का निर्णय लिया। उसने विवाह की आयु बढ़ाने के लिए एक जोरदार अभियान चलाया, जिसका परिणाम 1929 के बाल विवाह निरोधक अधिनियम या सारदा (शारदा) अधिनियम के पारित होने में हुआ। एआईडब्लूसी ने व्यक्तिगत कानून में सुधार के काम को भी हाथ में लिया। क्योंकि एक समान नागरिक कानून को कुछ विरोध था, अतः उन्होंने हिंदू कानूनों में सुधार की मांग की, ताकि द्विपत्नीत्व पर प्रतिबंध, तलाक के अधिकार की प्राप्ति, और महिलाओं को संपत्ति के उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त हो सके। महिला आंदोलनों ने इन सुधारों के लिए निरंतर अभियान जारी रखे, जो अंततः 1950 के दशक में पारित हिंदू कोड बिल के माध्यम से हासिल हो सके।
3.0 स्वतंत्र भारत में महिला आंदोलन
स्वतंत्र भारत में, महिला आंदोलन विभाजित हो गया, क्योंकि विदेशी शासन के रूप में समान शत्रु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बचा ही नहीं था। कई मुस्लिम सदस्य महिलाएं पाकिस्तान चली गई थीं। अनेक महिला नेत्रियों ने औचारिक रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली थी, और उन्हें मंत्री, राज्यपाल या उच्चायुक्त के रूप में सत्ता के पद प्राप्त हो गए थे। स्वतंत्र भारत के संविधान ने सार्वभौम वयस्क मताधिकार प्रदान कर दिया था, और 1950 के दशक के मध्य तक भारत में महिलाओं के प्रति काफी उदार कानून निर्मित हो चुके थे। महिला आंदोलन की अधिकांश मांगों की पूर्तता हो चुकी थी, अतः संगठित रूप से आंदोलन करने के लिए बहुत ही कम विषय बचे थे। अब महिला संगठनों के समक्ष जो समस्या थी वह थी निर्मित कानूनों के क्रियान्वयन की, परिणामस्वरूप भारत में महिला आंदोलन में एक खामोशी का वातावरण व्याप्त हो गया।
यथास्थिति से असंतुष्ट महिलाएं बंगाल के तेभागा आंदोलन, आंध्रप्रदेश के तेलंगाना आंदोलन या नक्सलवादी आंदोलन जैसे ग्रामीण गरीबों के आंदोलन में सहभागी हो गईं। शहादा, जिसका नाम इसे महाराष्ट्र के धूलिया जिले के शहादा गांव से प्राप्त हुआ जिस क्षेत्र में यह आंदोलन हुआ, जमींदारों के विरुद्ध एक आदिवासी भूमिहीन श्रमिकों का आंदोलन था। महिलाओं ने इस आंदोलन में प्रमुख भूनिका निभाई थी, उन्होंने प्रदर्शनों का नेतृत्व किया, उग्रवादी नारों का अविष्कार किया और उग्रवादी नारे लगाये, व जनता को इकठ्ठा किया। जैसे-जैसे महिलाओं का उग्रवाद बढ़ता गया, तो लिंग-आधारित विषय उठाये जाने लगे। एक मद्य-विरोधी आंदोलन भी किया गया, क्योंकि पुरुष शराब पीकर आते थे और अपनी पत्नियों के साथ मारपीट करते थे। महिलाएं गांवों में घूम-घूम कर शराब के अड्डों पर जाकर शराब के मटके फोड़ देती थीं।
1970 और 1980 के दशकों ने कई महिला समूहों की वृद्धि का अनुभव किया, जिन्होंने दहेज हत्या, दुल्हनों को जलाने, बलात्कार, और सती जैसे विषयों को उठाया, और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने महिलाओं के लैंगिक दमन पर इस प्रकार से जोर दिया, जैसे इससे पहले महिला समूहों ने कभी भी नहीं किया था। उन्होंने परिवार और समाज में जैविक लिंग भेदों पर आधारित महिलाओं की निहित भूमिका पर पुरुष प्रधान व्यवस्था पर यह कहकर प्रश्न उठाये कि लिंग-भेद पर आधारित मानव गतिविधियों का ‘‘नैसर्गिक‘‘ पृथकत्व किया गया है, जिसमें सार्वजनिक राजनीतिक क्षेत्र पर पुरुषों का वर्चस्व है, जबकि निजी पारिवारिक क्षेत्र पर महिलाओं का वर्चस्व है, जिसका परिणाम अंततः पुरुषों के महिलाओं पर वर्चस्व में होता है। यह माना गया कि महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाओं की इस प्रकार की द्विभागीय धारणा के आधार पर विभाजन के कारण महिलाएं अपने आपको दोयम भूमिका में ही पाती हैं, जिसका परिणाम कई बार परिवार के भीतर ही मानभंग, अत्याचार और हिंसा में होता है। इस प्रकार के प्रश्न महिला आंदोलन के पहले चरणों के दौरान कभी नहीं उठाये गए थे। इस प्रकार उन्होंने माना कि महिलाओं की स्वतंत्रता की दिशा में पहला कदम यह है कि इस प्रकार की जैविक लिंग भेद और भूमिकाओं की पुरुषप्रधान मान्यताओं के बारे में जागरूक होना आवश्यक है।
3.1 सेवा (Sewa)
भारत के स्व रोजगार महिला संगठन (सेवा) की स्थापना जानी-मानी गाँधीवादी नेत्री और नागरिक अधिकार नेत्री डॉ. ईला भट्ट द्वारा 1927 में की गई थी। यह शायद महिला श्रमिक संगठन का पहला प्रयास था। सेवा का उद्देश्य था असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली गरीब महिलाओं की स्थिति में सुधार करने के लिए उन्हें प्रशिक्षण, तकनीकी सहायता और सामूहिक सौदेबाजी की सक्षमता प्रदान करना। गाँधीवादी विचारधारा पर आधारित सेवा संगठन काफी सफल रहा है।
3.1.1 सेवा भगिनी संगठन
सेवा बैंकः समय पर और कुशल बचत और ऋण सुविधाओं तक पहुँच के अभाव की समस्या का परामर्श लेने के उद्देश्य से, और स्वयं को चिरकालिक ऋण के दुष्ट चक्र से मुक्त करने के उद्देश्य से सेवा सदस्यों ने अपना स्वयं का समाधान खोज निकालाः ‘‘उनकी स्वयं की एक बैंक, जहां उन्हें उनके अधिकार के साथ स्वीकार किया जायेगा, और नीचा नहीं माना जायेगा।‘‘ 4000 सेवा महिला सदस्यों ने मई 1974 में प्रत्येक ने 10 रुपये की अंश पूँजी का योगदान देकर महिला सेवा सहकारी बैंक की स्थापना की। वर्तमान में सेवा बैंक में 1,25,000 स्वयं रोजगार महिला जमाकर्ता हैं, और इसने 350 मिलियन रुपये के ऋण पारंपरिक जमानत की आवश्यकता के बिना आवंटित किये हैं।
सेवा अकादमीः सेवा अकादमी का निर्माण 1991 में किया गया था। यह संगठनात्मक शाखा है, जो सदस्यों की बुनियादी शिक्षा और क्षमता निर्माण, नेतृत्व प्रशिक्षण, संचार और अनुसंधान के लिए जिम्मेदार है।
सेवा संचारः सेवा ने अपने सदस्यों के संचार प्रयासों को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक मार्ग खोजे हैं। इनमें ‘‘अनसूया‘‘-सेवा की गुजराती भाषा में प्रकाशित होने वाली पाक्षिक पत्रिका-‘‘आकाशगंगा‘‘-किशोर वयीन लडकियों के लिए मासिक पत्रिका,-‘‘स्वरोजगार के साथ हम‘‘-सेवा की अंग्रेजी में प्रकाशित इलेक्ट्रॉनिक समाचार पत्रिका, जिसका उद्देश्य था नीति निर्माताओं, कार्यक्रम योजनाकारों, और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के एक विशाल श्रोताओं तक पहुंच बनाना। वीडियो सेवा की स्थापना 1984 में की गई थी, जिसका उद्देश्य था वीडियो रिकॉर्डिंग और टेप्स के माध्यम से सेवा के सदस्यों को प्रशिक्षण प्रदान करना, सेवा के वर्तमान सदस्यों को प्रोत्साहित करना, संगठित करना और उन्हें सशक्त बनाना।
श्री महिला सेवा अनसूया ट्रस्टः ‘‘अनसूया‘‘ की स्थापना सेवा के कार्यों से उभरने वाले अनुभवों, विचारों और दृष्टिकोणों की प्रस्तुतियाँ प्रदान करने के लिए एक मंच प्रदान करने के उद्देश्य से 1982 में की गई थी। इसने सफलतापूर्वक और नियमित रूप से-एक भी प्रकाशन चूके बिना-अपने चौदह वर्ष पूरे कर लिए हैं, इसका प्रकाशन प्रत्येक महीने की 6 और 22 तारीख को किया जाता है।
सेवा अनुसंधानः सेवा के प्रचार प्रयासों में विश्वसनीय, विज्ञान आधारित अनुसंधान का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। अनुसंधान के माध्यम से सेवा इस बात के लिए प्रयासरत है कि उसके सदस्यों, स्वरोजगारित महिलाओं, को ज्ञान के विश्व की मुख्यधारा से जोडा जा सके। इसके उपायों का आधारभूत सिद्धांत है ‘‘क्रिया उन्मुख अनुसंधान‘‘, और इस कार्य की जिम्मेदारी उठाने के लिए सेवा अकादमी इसकी संगठात्मक शाखा है।
गुजरात राज्य महिला सेवा सहकारी संघ मर्यादितः इसकी निर्मिति के समय से ही इस संघ ने सहकारी शिक्षा, विपणन, प्रबंधन, रिकॉर्ड रखना, नेतृत्व क्षमता, और तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करने की दिशा में अपना ध्यान केंद्रित किया है। यह सहकारी विकास के विभिन्न क्षेत्रों में भी सहायता प्रदान करता है।
विमो सेवाः यह एक एकीकृत बीमा कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य एक बीमा संगठन के माध्यम से सेवा सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना, उनकी जीवन चक्र आवश्यकताओं को संरक्षित करना और जीवन में उनके समक्ष आने वाली विभिन्न जोखिमों से उन्हें संरक्षण प्रदान करना है, जिसमें सेवा सदस्य स्वयं सभी सेवा सुविधाओं के उपयोगकर्ता, स्वामी और प्रबंधक हैं।
सेवा आवासः गुजरात महिला आवास सेवा ट्रस्ट (एमएचटी) का, अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत गरीब महिलाओं की आवास और अधो संरचना स्थिति में समग्र रूप से सुधार करने के उद्देश्य से 1994 में विधिवत पंजीकरण किया गया।
सेवा व्यापार सुविधा केंद्रः गरीब से गरीबतम महिला उत्पादकों के लिए स्थायी आजीविका रणनीति बनाने की मांग के जवाब में वस्त्रोद्योग और हस्तकला क्षेत्र में कार्यरत 15000 से अधिक महिला कारीगरों द्वारा सेवा की वाणिज्यिक शाखा के रूप में मई 2003 में सेवा व्यापार सुविधा केंद्र की स्थापना की गई।
सेवा मैनेजर नी स्कूलः सेवा प्रबंधन स्कूल की शुरुआत सेवा संगठन के भीतर ही एक क्षमता निर्माण संस्थान के रूप में 2005 में की गई। इसका उद्देश्य था जमीनी प्रबंधकों के एक काडर के निर्माण के माध्यम से आर्थिक आत्म स्थिरता की सुविधा प्रदान करना।
सेवा संस्कार केंद्रः सेवा संस्कार केंद्र (एसएसके) का उद्देश्य दस से पंद्रह गांवों के समूह के बीच एक गतिविधि का केंद्र स्थापित करना था। एसएसके की स्थापना इस बात को ध्यान में रख कर की गई थी कि ग्रामीण समुदायों में रहने वाली महिलाओं को विविध विषयों पर जानकारी की आवश्यकता होती है, जबकि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी तक उनकी पहुंच बहुत ही सीमित या अभाव से ही संभव हो पाती है।
सेवा आईसीटीः आईसीटी क्रांति ने गरीबी उन्मूलन और सामाजिक आर्थिक विकास की नई तकनीकों के उपयोग के द्वारा कई पहलों की शुरुआत की है। सेवा ने क्षमता विकास को सुविधाजनक बनाने, सहकारी प्रयासों का समर्थन करने और सूचना तक अधिक पहुँच बनाने के द्वारा भेद्यता को कम करने की दिशा में विशेष रूप से हकों और कार्यक्रमों के संबंध में नई सूचना प्रौद्यिगिकी की संभावनाओं को समझा है। सेवा आईसीटी ने गरीबों, विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं की उनके कार्यक्षेत्र, आजीविका, पंचायती राज सहित सरकारी योजनाओं, आपदा प्रबंधन पर विशेषज्ञ जानकारी प्राप्त करने और उसे साझा करने, उद्यमों का प्रबंधन करने, और उत्पादों के उत्पादन और विपणन से संबंधित महत्वपूर्ण सूचना और जानकारी तक पहुँच को संभव बनाया है। सेवा आईसीटी ने ‘‘डिजिटल विभाजन‘‘ और निःशक्तों तक सूचना पहुँचाने के विषय में विभिन्न धारणाओं पर काबू पाने की एक सशक्त रणनीति का प्रतिनिधित्व किया है।
सेवा निर्माण निर्माण कामगार कंपनी मर्यादितः सेवा निर्माण अपने सदस्यों (अर्थात, निर्माण कामगारों) के लिए, उन्हें संगठित करके और अर्ध कुशल कामगारों को प्रशिक्षण प्रदान करके स्थायी आजीविका निर्माण करती है, और उन्हें शोषण से मुक्त कराती है। सेवा निर्माण संपूर्ण देश में अधोसंरचना विकास के क्षेत्र में बडे पैमाने पर कार्य करती है, जिनमें उनके कार्यों का केंद्रबिंदु ग्रामीण विकास, निर्माण क्षेत्र और समग्र रूप से पूरे देश को लाभ पहुंचाना है।
सेवा पारिस्थितिकी पर्यटनः सेवा द्वारा शुरू की गई वनलक्ष्मी महिला वृक्ष उत्पादक सहकारी संस्था धारणीय स्वरोजगार के माध्यम से महिला सशक्तिकरण और गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में अपनी कई उपलब्धियों में से एक को दर्शाती है। यह गरीब और कामकाजी भूमिहीन महिलाओं के संघर्ष का उदाहरण है, जो उनके द्वारा गुजरात के पानी की कमी से जूझ रहे क्षेत्र में निर्मित और चलाई जा रही पर्यावरण उत्थान गतिविधि है।
सेवा खरघोडाः सेवा ने गुजरात के सुरेंद्रनगर और पाटन जिलों में लगभग 10,000 नमक श्रमिकों और किसानों को संगठित किया है। खरघोड़ा गुजरात के सुरेंद्रनगर में स्थित है।
सेवा महिला सहकारी मंडली मर्यादितः इस सहकारी संस्था महिलाओं की मदद से ने अपनी यात्रा के 22 वर्ष पूरे किये हैं। इसकी शुरुआत कागज इकठ्ठा करने वाली महिलाओं की सहायता के लिए किया गया था। सेवा संघ की सहायता से 1986 में सबसे पहली स्वच्छता सहकारी की स्थापना की गई थी।
सेवा कलाकृतिः शिल्प सहकारी के सदस्य कारीगरों के लिए विपणन बहिर्द्वार का प्रायोजन सेवा द्वारा किया गया है। यह नियमित रोजगार प्रदान करता है, और सहकारी प्रयासों के माध्यम से बिचौलियों को दूर करके आत्म निर्भरता के लिए पारंपरिक कौशल्य को बनाये रखने में सहायता प्रदान करता है। यह संघ कारीगरों को उनके उत्पादों के विपणन में सहायता प्रदान करता है, और उनके उत्पादनों के संरक्षण और विकास में सहायता प्रदान करता है। इसी प्रकार यह संघ बिचौलियों का उन्मूलन करके विक्रेताओं और किसानों को कृषि उत्पादक विपणन समिति में खरीद और बिक्री करके विक्रय को सुविधाजनक बनाता है।
सेवा भारतः सेवा भारत सेवा सदस्य संगठनों का महासंघ है, जो अनौपचारिक क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं के विषयों को उजागर करने के उद्देश्य से बना है, और उन संगठनों की क्षमता को मजबूती प्रदान करता है जो इन महिलाओं के हितों की सेवा करने के लिए कार्यरत हैं। वर्तमान में सात राज्यों के 35 जिलों में ऐसे नौ सेवा सदस्य संगठन कार्यरत हैं। और इन सभी की मिलाकर लगभग 12,00,000 सदस्य संख्या है।
होमनेट दक्षिण एशियाः होमनेट दक्षिण एशिया यूनिफेम और सेवा द्वारा प्रवर्तित गृहआधारित महिला कर्मियों का एक नेटवर्क संगठन है। इसका गठन सन 2000 में नेपाल में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में काठमांडू घोषणा के बाद किया गया था। होम नेट दक्षिण एशिया की औपचारिक शुरुआत 17 जनवरी 2007 को ‘‘दक्षिण एशिया के घर आधारित श्रमिकों पर महिलाएं काम और गरीबी नीति सम्मेलन‘‘ के दौरान की गई थी, जिसका उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा किया गया था।
3.2 श्री महिला गृह उद्योग (लिज्जत पापड़)
श्री महिला गृहउद्योग लिज्जत पापड़, जिसका प्रचलित नाम लिज्जत है, भारतीय महिलाओं की एक सहकारी संस्था है, जिसमें कई तेजी से बढ़ते उपभोक्ता उत्पादों का विनिर्माण शामिल है। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य है महिलाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाना। बंबई की सात गुजराती महिलाओं द्वारा 80 रुपये की शुरुआती पूँजी के साथ 1959 में शुरू की गई लिज्जत का वर्ष 2010 का वार्षिक कारोबार 650 करोड़ रुपये (100 मि. अमेरिकन डॉलर्स से भी अधिक) था, जिसमें 290 मिलियन रुपयों का निर्यात शामिल था। इसने लगभग 42,000 व्यक्तियों को रोजगार प्रदान किया था। लिज्जत का मुख्यालय मुंबई में है, और पूरे भारत में इसकी 67 शाखाएं और 35 विभाग हैं। वास्तव में यह उल्लेखनीय कहानी है!
लिज्जत का विकास और विस्तार व्यापक रूप से महिलाओं और उनके सशक्तिकरण के रूप में देखा जाता है। इस संगठन ने इसकी सदस्य भगिनियों और उनके परिवारों में साक्षरता और कंप्यूटर शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न प्रयास किये हैं। 18 जून 1999 को गिरगांव में शुरू की गई साक्षरता कक्षाओं के माध्यम से भगिनियों के लिए एक साक्षरता अभियान शुरू किया गया था। बाद में इसकी प्रबंधन समिति ने इस प्रकार की कक्षाएं अपनी सभी शाखाओं में शुरू करने का निर्णय लिया। 1980 से लिज्जत ने सदस्य भगिनियों की बेटियों के लिए छगनबापा स्मृति छात्रवृत्ति प्रदान करना शुरू किया। सदस्य भगिनियां इस संगठन का उपयोग अपने और अपने परिवार के कल्याण के एक माध्यम के रूप में प्रोत्साहित करने के लिए करती हैं। इनके वलोद केंद्र में इन्होने ग्रामीण महिलाओं के लिए एक शैक्षणिक और शगल केंद्र की शुरुआत की है। टंकलेखन, पाककला, सिलाई, बुनाई, और खिलौने बनाने के अभिविन्यास पाठ्यक्रम, साथ ही शिशु कल्याण, प्राथमिक चिकित्सा एवं स्वच्छता जैसे पाठ्यक्रम भी सिखाये जाते हैं। वलोद की पहली पक्की सडक (डामरी सडक) का निर्माण और 1979 में इसका उद्घाटन लिज्जत की वलोद शाखा की सहायता से हुआ था।
अंतर्राष्ट्रीय शिशु वर्ष के आयोजन के एक भाग के रूप में 1979 में, लिज्जत ने यूनिसेफ के साथ मुंबई में ष्शिशु संरक्षण और मातृत्व कल्याणष् विषय पर एक सेमिनार के आयोजन में भागीदारी की थी। अक्टूबर 1984 में, भद्राबेन भट्ट ने ‘‘तकनीकी नवाचार के आत्मसात और प्रसार में महिलाओं की भूमिका‘‘ विषय पर एनआईटीआईई पोवई में आयोजित यूनेस्को प्रायोजित अंतर्राष्ट्रीय कार्यशाला में लिज्जत का प्रतिनिधित्व किया था। स्व-रोजगार पर राष्ट्रीय महिला आयोग के तत्वावधान में आयोजित महिलाओं पर राष्ट्रीय स्तर की बैठक में अल्काबेन कालिया ने लिज्जत का प्रतिनिधित्व किया था। मदर टेरेसा की पहल पर सदस्य भगिनियों ने बेसहारा महिलाओं के संरक्षण के लिए कार्य करने वाली संस्था आशा धन की कुछ गतिविधियों में भी भाग लिया। लिज्जत सदस्य भगिनियों ने एक सहकारी बैंक शुरू करने का भी प्रयास किया, परंतु उनका यह प्रयास अधिक सफल नहीं हो पाया।
3.3 बलात्कार और दहेज के विरुद्ध संगठन
महिलाओं के कुछ सबसे पुराने स्वदेशी समूह थे महिलाओं का प्रगतिशील संगठन (पीओडब्लू, हैदराबाद), बलात्कार के विरुद्ध मंच (अब इसे महिलाओं के उत्पीडन के विरुद्ध मंच के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया है), और स्त्री संघर्ष और समता (दिल्ली)। महिला समूहों द्वारा उठाया गया सबसे पहला अभियान था 1980 में बलात्कार के विरुद्ध किया गया संघर्ष। इसकी शुरुआत सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय के बाद हुई थी जिसमें मथुरा में एक आदिवासी नाबालिग लड़की पर बलात्कार के अभियुक्त दो पुलिस कर्मियों को उच्च न्यायालय द्वारा दोषी करार दिए जाने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने दोषमुक्त कर दिया था। चार प्रसिद्द वकीलों ने भारत के प्रधान न्यायाधीश को इस जाहिर अन्याय का विरोध करते एक खुला पत्र लिखा था, जिसका परिणाम देशव्यापी प्रदर्शनों के रूप में हुआ था। कई अन्य बलात्कार के मामले भी इस अभियान का हिस्सा बने, कई वर्षों के विरोध के बाद जिसका परिणाम, सरकार की विद्यमान बलात्कार कानून को संशोधित करने की स्वीकृति में हुआ। संशोधित कानून महिला संगठनों और समूहों के साथ लंबी चर्चा के बाद 1983 में अधिनियमित किया गया। इसके बाद से, महिला समूह एक बार फिर इस कानून में और अधिक संशोधित करके इसे और अधिक कडा करने की पैरवी कर रहे हैं, साथ ही इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए भी मांग उठा रहे हैं, क्योंकि प्रभावी क्रियान्वयन के अभाव में यह कानून उम्मीद से कम प्रभावी बन कर रह गया है।
हैदराबाद के पीओडब्लू ने दहेज के विरुद्ध नया और ताजा प्रदर्शन शुरू किया है। 1970 के दशक के उत्तरार्ध में दिल्ली दहेज विरोधी आंदोलनों और महिलाओं पर उनके वैवाहिक घरों में की जाने वाली हिंसा के विरोध का केंद्र बन गया था। इस अभियान में जिन समूहों ने भाग लिया था, उनमें ‘‘स्त्री संघर्ष‘‘ और ‘‘महिला दक्षिता समिति‘‘ शामिल थीं। बाद में ‘‘दहेज विरोधी चेतना मंडल‘‘ नामक एक संयुक्त मोर्चे का गठन किया गया जिसके छत्र के तहत बडी संख्या में महिला संगठन कार्यरत थे। दहेज विरोधी अभियान ने दहेज अपराधियों पर सामाजिक दबाव बनाने का प्रयास किया, ताकि वे उस समुदाय में बहिष्कृत हो जाएँ जिसमें वे रह रहे हैं। अभियान के अनुभव ने परामर्श की आवश्यकता और महिलाओं के लिए न्यायिक सलाह की आवश्यकता को दर्शाया। इसी के जवाब में देश के विभिन्न भागों में न्यायिक और परामर्श केन्द्रों का गठन किया गया। महिलाओं के संगठन दहेज कानून में संशोधन करवाने में भी सफल रहे।
1829 से सती को एक दंडनीय अपराध घोषित किया गया। फिर भी 1987 में, राजस्थान के एक गांव में एक नौजवान विधवा रूप कुंवर को जबरदस्ती उसके पति की चिता में प्रवेश करने को मजबूर किया गया, जिससे उसकी जल कर मृत्यु हो गई। इसके विरोध में महिला संगठनों ने विरोधी स्वर बुलंद किये, और इसे एक हत्या की संज्ञा दी। उन्होंने एक नए सती प्रतिबंधक विधेयक की भी मांग की।
3.4 महिलाओं के अधिकारों के लिए अभियान
अस्सी के दशक में महिलाओं के अधिकारों के लिए कई अभियान चलाये गए। इन्ही अभियानों में सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय के समर्थन में 1985 में तलाक के मामले में किया गया एक अभियान भी शामिल था, जिसमें इंदौर की एक मुस्लिम महिला शाह बानो द्वारा न्यायालय में अपने पति के विरुद्ध भरण-पोषण देने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता के अनुच्छेद 125 के तहत याचिका दायर की गई थी, और न्यायालय ने उसकी याचिका मंजूर कर ली थी। हालांकि रूढ़िवादी मुस्लिमों ने, उनके व्यक्तिगत कानूनों में न्यायालय के हस्तक्षेप का विरोध किया था। 1986 में, सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक के मामले में अधिकारों का संरक्षण) विधेयक प्रस्तुत किया, जिसके तहत मुस्लिम महिलाओं को अनुच्छेद 125 के तहत निवारण अस्वीकृत किया गया। मुस्लिम महिलाओं ने संसद के बाहर इसका विरोध किया।
कई वर्षों के दौरान यह स्पष्ट हो गया है, कि केवल कानून में संशोधन तब तक बेमतलब होता है, जब तक कि उनके क्रियान्वयन के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हो और जब तक समाज में साक्षरता और शिक्षा का अभाव हो, जो महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाते हैं, और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करवाने में सक्षम बनाते हैं। यही वह अनुभूति थी जिसने महिला आंदोलन को न्यायिक साक्षरता और न्यायिक शिक्षा, पाठ्यपुस्तकों और मीडिया के लिंग संवेदनशीलता के विषय को अधिक ठोस तरीके से उठाने में सक्षम बनाया है।
अध्यापन और अनुसंधान में महिलाओं के अध्ययन की एक पहचान योग्य क्षेत्र के रूप में उत्पत्ति 1960 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में शुरू हुई, हालांकि बौद्धिक पूर्ववृत्त इससे भी कई वर्ष पीछे जाते हैं, अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाय तो सिमोन द बुआ और वर्जिनिया वुल्फ की कृतियों में। समकालीन महिला आंदोलन ने निकायों के परे महिला अध्ययनों की स्थापना और विकास को प्रोत्साहन दिया। भारत में महिला अध्ययनों का विस्तार शुरुआत में काफी धीमा रहा, और बाद में 1980 में कोपेनहेगेन में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के मध्य दशक सम्मेलन के बाद इसमें तेजी आई। 1981 में स्थापित महिलाओं के अध्ययन का भारतीय संघ शिक्षण और अनुसंधान में संलग्न महिला शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं की संस्था है। पिछले तीन दशकों के दौरान महिलाओं द्वारा और महिलाओं पर अनेक पुस्तकें और पत्रिकाएं प्रकाश में आई हैं। देश में ऐसे कई प्रकाशन संस्थान हैं जो केवल महिलाओं के विषयों पर पुस्तकें और पत्रिकाएं प्रकाशित करते हैं। ऐसे प्रयास किये जा रहे हैं कि महिलाओं के दृष्टिकोण से पठनीय और शिक्षण सामग्री उपलब्ध कराइ जा सके। कई विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में महिला अध्ययन केंद्र संचालित किये जा रहे हैं।
कांग्रेस, भाजपा, सीपीआई, सीपीआई (एम) इत्यादि जैसी सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की अपनी महिला शाखाएं हैं। नए महिला समूहों ने स्वयं को नारीवादी घोषित किया है। वे किसी भी केंद्रीय संगठन के साथ बिखरे हुए नहीं हैं, किंतु उन्होंने अपने अनौपचारिक नेटवर्क स्थापित कर लिए हैं। उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता उदारवादी की अपेक्षा अधिक वामपंथी है। भारतीय महिला आंदोलन पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि उनका स्वरुप अधिक शहर आधारित और मध्यम वर्गीय है। जबकि शहरी नारीवादी अधिक दृश्य एवं मुखर हैं, वहीं ग्रामीण महिलाओं ने भी स्वयं को संगठित किया है।
जबकि सडक स्तर के प्रदर्शन और विरोध कार्यक्रम महिला आंदोलन को अधिक दृश्यता प्रदान करते हैं, परंतु स्पष्ट रूप से ये पर्याप्त नहीं हैं। आवश्यकता इस बात की है कि भोजन, सुरक्षित पेय जल, स्वच्छता एवं आवास जैसे मूलभूत जीवनावश्यक तथ्यों पर अधिक ध्यान दिया जाये। महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, कौशल्य विकास और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं की आवश्यकता है, और आवश्यकता है घर और कार्यस्थल पर सुरक्षा और संरक्षण की। पिछले कुछ वर्षों ने महिला आंदोलन को कई व्यापक विषयों में विस्तारित और विस्तृत होते हुए देखा है।
3.5 राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्लू)
राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्लू) महिलाओं के लिए स्थापित एक सांविधिक निकाय है, जिसकी स्थापना 1990 के राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम की परिभाषा के अनुसार भारत सरकार द्वारा भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत 1990 में की गई थी।
एनसीडब्लू का उद्देश्य भारत में महिलाओं के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करना, और उनके विषयों और उनकी चिंताओं को आवाज प्रदान करना है। उनके अभियानों के विषयों में दहेज, राजनीति, धर्म, नौकरियों में महिलाओं को समान प्रतिनिधित्व, और श्रम के लिए महिलाओं का शोषण इत्यादि शामिल हैं। उन्होंने महिलाओं के विरुद्ध पुलिस अत्याचारों पर भी चर्चा की है।
अक्टूबर 2013 में, एनसीडब्लू ने एक ‘‘नए अधिकारों के विधेयक‘‘ का मसौदा तैयार किया है, जिसमें महिलाओं के इंकार करने के अधिकार जैसे विभिन्न प्रावधान शामिल हैं।
- जबरन विवाह
- विवाह में गैर आम सहमति से यौन, या
- कोई भी चिकित्सकीय इलाज जो वह नहीं करवाना चाहती।
विधेयक में खाप पंचायतों और अन्य सतर्क समूहों को नियंत्रित करने के उपाय भी शामिल हैं, ताकि उन्हें महिलाओं की स्वतंत्रता में बाधा पहुँचाने से प्रतिबंधित किया जा सके। एनसीडब्लू की पहली अध्यक्ष थीं सुश्री जयंती पटनायक (03. 02. 1992 से 30. 01. 1995), जिनके बाद डॉ वी मोहिनी गिरी, सुश्री विभा पार्थसारथी, डॉ पूर्णिमा अडवाणी, डॉ गिरिजा व्यास (सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहने वाली - 6 वर्षों तक) और सुश्री ममता शर्मा इसकी अध्यक्ष बनीं।
4.0 भारत में महिला संगठनों का भविष्य
भारत का महिला आंदोलन आज काफी समृद्ध और जीवंत है, जो देश के विभिन्न भागों में फैला हुआ है। अक्सर यह कहा जाता है, कि देश में कोई भी एक संसज्जित आंदोलन नहीं है, परंतु कई विखंडित अभियान विद्यमान हैं। कार्यकर्ता इसे आंदोलन की एक शक्ति के रूप में देखते हैं, जो विभिन्न भागों में विभिन्न स्वरुप लेता है। हालांकि आंदोलन समूचे भारत में बिखरा हुआ है, फिर भी वे इसे एक मजबूत और मिश्रित शक्ति के रूप में देखते हैं।
महिला संगठन न केवल अभियानों का नेतृत्व करते हैं और सडकों पर उतरते हैं, वरन वे, एआईडब्लूसी, वायडब्लूसीए और अन्य जैसे पुराने संगठनों सहित, हिंसा की शिकार महिलाओं और पस्त पत्नियों के लिए आश्रय गृह भी चलाते हैं, और उन्हें परामर्श सेवा और न्यायिक सहायता भी प्रदान करते हैं। वे विभिन्न विषयों पर प्रशिक्षण कार्यशालाएं भी आयोजित करते हैं। वे स्वयं सहायता समूहों के गठन में भी मदद प्रदान करते हैं, ताकि महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जा सके। महिला आंदोलन की सफलता इस बात से नहीं आंकी जा सकती कि कितनी महिलाओं को विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया गया है, या कितने कानून पारित किये गए हैं, परंतु उनकी सफलता इस तथ्य में निहित है कि उन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं के समूचे प्रश्न पर एक नई चेतना और जागरूकता जगाई है। दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के मामले ने न केवल समूचे देश की आत्मा को झंझोड़ दिया बल्कि इसने हमारे कानूनों के खोखलेपन और उनके बारे में ड़र और उनकी क्रियान्वयन की गुणवत्ता को भी उजागर करके रख दिया। उसने प्रशासनिक और न्यायिक तंत्र में कई परिवर्तनों को भी गतिशीलता प्रदान की।
फिर भी संख्या के मामले में, बहुत कम संख्या में महिलाएं महिला आंदोलनों से जुडी हुई हैं, और इसलिए हमें उनके प्रभाव के बारे में अतिशयोक्ति नहीं करनी चाहिए। आज भी भारत की अधिकांश महिलाएं गरीबी रेखा के नीचे रह रही हैं, और घृणित जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। हालांकि बलात्कार, दहेज हत्याओं या सती प्रथा के विरुद्ध महिलाओं के नाराज प्रदर्शनों और आंदोलनों के कई बिखरे हुए उदाहरण देखने को मिल जाते हैं, फिर भी कहा जा सकता है कि महिलाओं ने अपने आपको पर्याप्त रूप से संगठित नहीं किया है, ताकि वे उन समस्याओं के मामलों में पर्याप्त राजनीतिक दबाव और केंद्रित अवधान बना सकें जो समाज में उनके दर्जे और भूमिका को प्रभावित कर रहे हैं। महिलाओं के संघर्ष के इस लंबे इतिहास के बावजूद भारतीय महिलाएं आज भी साक्षरता, दीर्घायु, मातृत्व मृत्यु, कामकाज में महिलाओं की सहभागिता और लिंग अनुपात जैसे मामलों में विश्व की सबसे पिछडी हुई महिलाओं में से एक बनी हुई हैं। हमारी मानसिकता में महिलाओं के प्रति बनी हुई धारणाएं, और महिलाओं की स्वयं के प्रति बनी हुई सदियों पुरानी धारणाएं और मानसिकताएं बदलना आसान नहीं है। आंदोलन इन विषयों की ओर जो प्रत्येक कदम उठता है, उस प्रत्येक कदम की एक संभावित प्रतिक्रिया, एक संभावित प्रतिगमन उभरता है। इतिहास दर्शाता है, कि हालांकि महिला अधिकारों के लिए संघर्ष लंबा और कठिन है, फिर भी यह संघर्ष जारी रखा जाना और इसमें विजय प्राप्त करना आवश्यक है। इस प्रकार देखा जाये तो महिला आंदोलन को अपने अधिकारों के लिए और समाज में नए मूल्य, नई नैतिकता और नए समतावादी संबंध स्थापित करने के लिए अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है।
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