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भारत में नागरिक समाज
1.0 प्रस्तावना
नागरिक समाज (Civil Society) शब्द का लंबा इतिहास है। इस शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम अरस्तू के वाक प्रकार कोईनोनिआ पॉलिटीके में मिलता है जो इसके पॉलिटिक्स में आता है जहां इसका संदर्भ एक ‘‘समुदाय‘‘ से किया गया है, जो यूनानी नगर-राज्य के आनुषंगिक है जिसकी विशेषता मानकों और लोकाचार के साझा समुच्चय की है, जिसमें स्वतंत्र नागरिक कानून के नियमों के तहत समानता के धरातल पर रहते थे। समाज के अंतिम उद्देश्य को सामान्य कल्याण के रूप में परिभाषित किया गया था। पारंपरिक रूप से ‘‘राज्य‘‘ और ‘‘नागरिक समाज‘‘ शब्दों को अदल-बदल कर उपयोग किया जाता था, और उन्हें समानार्थी माना जाता था। यह प्रवृत्ति अठारहवीं सदी तक जारी रही।
हेगेल (Hegel) ने समाज की मार्क्सवादी परिकल्पना के आधार का एक स्पष्टीकरण दिया है। हेगेल के अनुसार नागरिक समाज ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बना होता है जिन्होंने आर्थिक प्रतिस्पर्धा में शामिल होने के लिए पारिवारिक एकता को छोड़ दिया है। मार्क्स ने इस बात पर जोर दिया था नागरिक समाज का उदय मध्यकालीन समाज के विनाश के साथ हुआ। पूर्व में व्यक्ति एकसाथ अनेक भिन्न-भिन्न समाजों के अंग हुआ करते थे, जैसे श्रमिक निकाय या संपदाएं, जिनकी प्रत्येक की अपनी राजनीतिक भूमिका होती थी, अतः कोई स्वतंत्र नागरिक प्रदेश नहीं होता था।
जब इन आंशिक समाजों का पतन हुआ, तो एक नागरिक समाज का उदय हुआ जिसमें व्यक्ति सबसे महत्वपूर्ण बन गया। विशेषाधिकारों के प्राचीन बंधन एकलवादी व्यक्तियों की स्वार्थी आवश्यकताओं द्वारा प्रतिस्थापित हो गए, को एक दूसरे से और समुदाय से अलग थे।
2.0 परिभाषाएँ
जेफरी एलेग्जेंडरः ‘‘नागरिक समाज एक समावेशी, छतरी-सदृश संकल्पना है जिसका संबंध ‘‘राज्य के बाहर संस्थाओं‘‘ की बड़ी संख्या से है।‘‘
नीरजा गोपाल जयालः ‘‘नागरिक समाज में स्वैच्छिक संगठनों के ऐसे सभी प्रकारों और सामाजिक विचार-विमर्श का समावेश होता है जो राज्य द्वारा नियंत्रित नहीं हैं।‘‘
एस के दासः ‘‘नागरिक समाज व संगठित समाज है जिसपर राज्य शासन करता है।‘‘
जॉर्ज हग्गिसः ‘‘नागरिक समाज एक सामाजिक स्थान है, जो राज्य और व्यापारिक क्षेत्रों से अलग है, परंतु जिसका उस राज्य के साथ संगठन के माध्यम से कार्य करते हुए, कभी-कभी तनावपूर्ण, सहसंबंध होता है।‘‘
सूसान होएबर रुडोल्फः ‘‘विभिन्न सिद्धांतवादियों ने नागरिक समाज को अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया है, परंतु एक न्यूनतम परिभाषा में एक गैर-राज्य स्वायत्त परिदृश्य, नागरिकों के सशक्तिकरण, विश्वास निर्माण करने वाले संगठनात्मक जीवन, राज्य के साथ, अधीनस्थता के बजाय, संवाद के विचार का समावेश होगा।‘‘
लैरी डायमंडः ‘‘नागरिक समाज संगठित सामाजिक जीवन के उस शासन का प्रतिनिधित्व करता है जो स्वैच्छिक हो, स्वयं प्रेरित हो, व्यापक रूप से स्वसमर्थित हो, और जो न्यायिक व्यवस्था या साझा मूल्यों के समूह से बंधी हुई हो।‘‘
नीरा चंडोक ने यह प्रेक्षित किया कि ‘‘भारत में नागरिक समाज को अधिकांश सिद्धांतवादियों द्वारा सामाजिक समूहों के एक प्रवाही संगठन के रूप में देखा गया जो स्वैच्छिक सामाजिक संगठनों के साथ ही जाति और रिश्तेदारी के जुड़ावों या धार्मिक एकजुटता पर उतने ही आधारित हैं।‘‘
3.0 नागरिक समाज की विशेषताएं और इसके घटक
नागरिक समाज की महत्वपूर्ण विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- इसका संबंध गैर-राज्य संस्थाओं से होता है।
- यह समाज के एक व्यापक भाग को समाविष्ट करता है।
- इसका संबंध एक संगठित समाज से है।
- इसमें उन समूहों का समावेश होता है जो राज्य (राजनीतिक समाज) और परिवार (प्राकृतिक समाज) के मध्यवर्ती होते हैं।
- हालांकि यह स्वायत्त होता है पर यह राज्य के अधिकार के अधीन होता है।
- इसके निहितार्थ है संगठनात्मक स्वतंत्रता, वैचारिक स्वतंत्रता और अन्य नागरिक और आर्थिक अधिकारों का अस्तित्व।
- इसका उद्देश्य सामान्य सार्वजनिक कल्याण को प्राप्त करना है।
- यह अधिनायकवाद और सर्वाधिकारवाद का विरोध करता है।
- यह व्यक्तिगत शिक्षा के माध्यम से नागरिकता को बढ़ावा देता है।
- यह राजनीतिक-प्रशासनिक मामलों में नागरिकों की भागीदारी को सुविधाजनक बनाता है।
- यह जनमत का निर्माण करता है और उन मांगों का निर्धारण करता है जो आम स्वरुप की हैं।
- इसकी महत्वपूर्ण विशेषता है स्वैच्छिकता न कि जबरदस्ती।
- यह राज्य के वर्चस्व को कम करने के लिए बहुलवाद की पैरवी करता है।
- यह सामुदायिक मूल्य व्यवस्था में नैतिक दिग्दर्शन के रूप में कार्य करता है।
ब्रिटिश सिद्धांतवादी जॉन कीन नागरिक समाज की वर्तमान सकारात्मक वैचारिकता को निम्न प्रकार से सरांशित करते हैंः ‘‘नागरिक समाज स्वतंत्रता का क्षेत्र है इस बात पर बढ़ती हुई सर्वसम्मति लोकतंत्र की स्थिति को सही रूप से उजागर करती है; जहां नागरिक समाज नहीं होगा वहां ऐसे नागरिक नहीं हो सकते जिनके पास राजनीतिक-न्यायिक रूपरेखा में अपनी पहचान, पात्रताओं और कर्तव्यों को चुनने की क्षमताएं हैं।‘‘
लैरी डायमंड ने प्रेक्षित किया थाः ‘‘लोकतंत्र-विशेष रूप से एक स्वस्थ, उदार लोकतंत्र को ऐसी जनता की आवश्यकता होती है जो लोकतंत्र के लिए संगठित हो, अपने मानदंडों और मूल्यों के प्रति समाजीकृत हो, और न केवल अपने असंख्य संकुचित हितों के प्रति, बल्कि व्यापक समान नागरिक उद्देश्यों के प्रति समर्पित हो। ऐसी सभ्य जनता केवल एक जीवंत नागरिक समाज के साथ ही संभव है।‘‘
घटकः नागरिक समाज की छतरी संकल्पना के तहत शामिल संगठन और समूह निम्न हैंः
- गैर-सरकारी संगठन
- समुदाय आधारित संगठन
- स्वदेशी जन संगठन
- श्रमिक संगठन
- किसान संगठन
- सहकारी संस्थाएं और संगठन
- धार्मिक संघ
- युवा समूह
- महिला समूह, और
- अन्य इस प्रकार से संगठित समूह।
अमेरिका में नागरिक समाज काफी विकसित है, जबकि भारत में 1970 के दशक से यह तेजी से विकसित हो रहा है। नीरजा गोपाल जयाल के शब्दों में, ‘‘भारत के संदर्भ में यह तर्क दिया जाता है कि राज्य के विरोध की दृष्टि से नागरिक समाज विकसित है, जबकि संगठनात्मक समूहों की दृष्टि से यह अभी तक विकसित नहीं हो पाया है।‘‘
4.0 भारत में नागरिक समाज की व्युत्पत्ति
1970 के दशक में बिहार, ओड़िशा और मध्यप्रदेश के जनजातीय पट्टे में सामाजिक कार्रवाई समूह नामक एक संगठन का जन्म जनजातीय लोगों के कष्टों और दुःखों से हुआ था। उनका उद्देश्य था प्रशासन के विकल्प के रूप में उभर कर सामने आना। धीमे-धीमे ऐसे लोगों के नेतृत्व में, जो समाज के प्रति अपने क्रांतिकारी विचारों और निःस्वार्थ सेवा के लिए जाने जाते थे, और आमतौर पर इस क्षेत्र से बाहर के थे, सामाजिक कार्यवाही समूह ने अपनी उपस्थिति दर्ज करना शुरू किया। सबसे चिंताजनक वे सूक्ष्म तरीके थे जिनके माध्यम से ये नेता स्थानीय लोगों में राजनीतिक मतारोपण करते थे, और सरकार और राज्य के प्रति उनकी अविश्वास और असंतोष की मन में दबी हुई भावनाओं को भड़काते थे। एक सूक्ष्म जांच इस तथ्य को उजागर करती है कि इनमें से कुछ संगठनों का जुडाव ईसाई कार्यवाही समूह (Christian Action Group) नामक एक संगठन के साथ भी था जिसकी अधिकांश गतिविधियां धार्मिक और जनहितैषी स्वरुप की थीं, जिनमें स्थानीय ईसाई समुदाय भी शामिल था। उनकी सामाजिक जिम्मेदारी में अधिकांशतः शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, स्वच्छता और विभिन्न प्रकार की खैरातें शामिल थीं। शीघ्र ही क्षेत्र के लोगों ने सभी प्रकार की सहायता और राहत के लिए सामाजिक कार्यवाही समूहों और ईसाई कार्यवाही समूहों का सहारा लेना शुरू कर दिया, जिसमें चर्च एक धुरी के रूप में कार्य करता था।
विकास प्रक्रियाओं और उनके लाभों को नियमित करने के सरकार के प्रयासों में मुख्य रूप से दो खामियां थीं। पहला यह कि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होने वाली निधियों के वास्तविक उपयोग की निगरानी करने में समस्याएं थीं। दूसरा, सरकारें और उनके अभिकरण लोगों की शिकायतें दूर करने में असफल हो रही थीं और साथ ही सामाजिक कार्यवाही समूह के साथ किसी भी प्रकार की भागीदारी स्थापित करने में भी असफल हो रही थीं। एक अध्ययन दर्शाता है कि गैर सरकारी संगठनों का बडे पैमाने पर उदय शीत युद्ध की समाप्ति और अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के साथ ही हुआ था। ऐसे मानवाधिकार संगठन रातों-रात परिदृश्य पर उभरना शुरू हुए जो संघर्ष प्रवण क्षेत्रों में आतंकवाद और घुसपैठ से निपटने वाले सुरक्षा बलों की कार्यवाहियों का मानवाधिकारों के उल्लंघन के रूप में आक्रामक प्रचार करने लगे। उनके इस कार्य में उनके अंतर्राष्ट्रीय समकक्षों द्वारा तत्काल प्रदान किये गए समर्थन के कारण उनके इस प्रकार के अभियान को एक प्रकार से वैधता प्रदान की। और इस प्रचार को गति प्रदान करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मनवाकधिकार संगठनों द्वारा इन संगठनों को धन और अन्य प्रकार का समर्थन और सहायता भी प्रदान की गई।
राजेश टंडन ने भारत के नागरिक समाज संगठनों को निम्न पांच वर्गों में वर्गीकृत किया हैः
- जाति, जनजाति या जातीयता पर आधारित पारंपरिक संघ और संगठन।
- रामकृष्ण मिशन, इस्लामिक संस्थाओं इत्यादि जैसे धार्मिक संगठन।
- विभिन्न प्रकार के सामाजिक आंदोलन, अर्थात,
- महिलाओं या जनजातियों जैसे विशिष्ट समूहों की आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करने वाले आंदोलन;
- दहेज या शराब जैसी सामाजिक बुराइयों में सुधार के लिए किये जाने वाले आंदोलन;
- विकास की गतिविधियों के कारण होने वाले विस्थापन के विरोध में किये जाने वाले आंदोलन;
- शासन पर केंद्रित आंदोलन जैसे नागरिक स्वतंत्रता अभियान या भ्रष्टाचार विरोधी अभियान।
- विभिन्न प्रकार के सदस्यता संघ या संगठन, अर्थात,
- श्रम संगठनों, किसान संगठनों इत्यादि जैसे प्रतिनिधित्ववादी संगठन;
- चिकित्सकों, वकीलों इत्यादि जैसे पेशेवरों के संगठन;
- स्पोर्ट्स क्लब, मनोरंजन क्लब जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन;
- स्वयं सहायता समूह जैसे शहरों की वार्ड समितियां, या ग्रामीण क्षेत्रों की समुदाय आधारित समितियां।
- विभिन्न प्रकार के मध्यस्थता संघ, अर्थात,
- विद्यालयों, अनाथाश्रमों और निराश्रित गृहों जैसे सेवा प्रदाता;
- आयोजक या जुटाववादी जो समाज के सीमांत वर्गों को उनके अधिकारों की मांगें करने के लिए एकत्रित करते हैं;
- समर्थक या सहायक संगठन जो अन्य समुदाय आधारित संगठनों को समर्थन और सहायता प्रदान करते हैं;
- जनहितैषी संगठन जैसे शिशु राहत और आप (क्राई) (चाइल्ड रिलीफ एंड यू), राजीव गांधी फाउंडेशन इत्यादि;
- पक्षसमर्थक या हिमायती, जो स्पष्ट रूप से केवल एक विशिष्ट उद्देश्य की पैरवी करते हैं;
- ऐसे नेटवर्क जो सामूहिक आवाज और सामूहिक शक्ति का प्रसार करते हैं, जैसे ग्रामीण विकास में स्वैच्छिक एजेंसियों के संघ।
5.0 नागरिक समाज की भूमिका
नागरिक समाज संगठन (स्वैच्छिक या गैर-सरकारी संगठन) कल्याणकारी और विकासात्मक प्रशासन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भूमिकाओं के विभिन्न आयाम निम्नानुसार हैंः
- वे सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए गरीबों को एकजुट और संगठित करते हैं।
- वे सूचनाओं और जानकारियों का प्रचार-प्रसार करते हैं, और इस प्रकार लोगों को सरकार द्वारा उनकी बेहतरी के लिए शुरू की गई विभिन्न योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं के विषय में जागरूक करते हैं।
- वे प्रशासनिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी को सुविधाजनक बनाते हैं।
- वे प्रशासनिक तंत्र को लोगों की आवश्यकताओं और आकाँक्षाओं के प्रति अधिक संवेदनशील और प्रतिक्रियात्मक बनाते हैं।
- वे प्रशासनिक तंत्र के निचले स्तर पर जवाबदेही की एक सामुदायिक व्यवस्था अधिरोपित करते हैं, और इस प्रकार भ्रष्टाचार की संभावना को कम करते हैं।
- वे सरकारी प्रशासनिक तंत्र को लक्षित समूहों को चिन्हित करने में सहायता प्रदान करते हैं।
- वे स्थानीय संसाधनों के स्थानीय विकास के लिए उपयोग करने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाते हैं और इस प्रकार विभिन्न समुदायों को आत्मनिर्भर बनाते हैं।
- विभिन्न राजनीतिक मुद्दों की चर्चा के माधयम से वे लोगों को राजनीतिक दृष्टि से जागरूक बनाते हैं।
- वे सामाजिक हितों के प्रहरी की भूमिका निभाते हैं।
- वे स्वयं सहायता के सिद्धांत का सशक्तिकरण करते हैं।
हालांकि यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका सरकार के प्रयासों के अनुपूरक होनी चाहिए न कि उनकी प्रतिस्पर्धी।
मिल्टन एस्मन ने विकास के चार अभिकरणों को चिन्हित किया है, अर्थात, राजनीतिक व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था, मास मीडिया और स्वैच्छिक संगठन। उनका मानना था कि विकास की प्रक्रिया में स्वैच्छिक संगठनों की भागीदारी के तीन लाभ हैं, एकात्मता की भावना, निर्णय प्रक्रिया में सहभाग, और विकास कार्यों में जुटे सरकार सहित अन्य अभिकरणों के साथ संवाद का अवसर।
एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और योजना आयोग के भूतपूर्व सदस्य राज कृष्ण के अनुसार स्वैच्छिक संगठन सरकारी अभिकरणों से तीन पहलुओं में श्रेष्ठ हैंः
- गरीबों के कष्टों के निवारण में उनके कार्य सरकारी कर्मचारियों की तुलना में अधिक निष्ठा से समर्पित हो सकते हैं,
- ग्रामीण गरीबों के साथ उनका तालमेल और घनिष्ठता सरकारी कर्मचारियों की तुलना में अधिक हो सकता है, और
- चूंकि वे कठोर नौकरशाही नियमों और प्रक्रियाओं से बंधे हुए नहीं होते, अतः वे अधिक लचीलेपन के साथ कार्य कर सकते हैं। एल एम प्रसाद ने उपरोक्त पहलुओं में दो और पहलू जोडे़ हैंः
- उनके प्रयास सरकारी अभिकरणों की तुलना में अधिक किफायती और मितव्ययी होते हैं, और
- सरकारी अभिकरणों की तुलना में वे लोगों की अधिक भागीदारी को प्रेरित कर सकते हैं।
राज्य को चुनौती? हाल के दिनों में जैसा कि अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत अभियान से स्पष्ट हो गया है कि नागरिक समाजों की शक्ति और प्रभाव कई गुना बढ़ गया है। अक्सर वे सरकार के समक्ष चुनौती पेश करते हैं और सरकारी प्रतिष्ठान को विक्षुब्ध कर देते हैं। जहां वे कार्यरत होते हैं वहां वे बलपूर्वक सरकार को इन्हें लागू करने के लिए मजबूर करते हैं। इस सबका उद्देश्य केवल यही है कि केंद्र सरकार या राज्य सरकारों को शक्तियां साझा करने के लिए मजबूर किया जाए ताकि गैर सरकारी संगठन उनपर अपने द्वारा तय की गई एक निश्चित प्रकार की कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त दबाव बना सकें। संसाधनों और विशेषज्ञता की .ष्टि से इनमें से अनेक गैर सरकारी संगठन कुछ छोटे संप्रभु देशों और अंतर्राष्ट्रीय निकायों से अधिक नहीं तो कम से कम उनके जितने शक्तिशाली तो निश्चित हैं। उनकी गतिविधियों की श्रृंखला बहु आयामी है और सभी अनुपातों से पार जाती है। उनके पास नए विचारों के निर्माण, विरोध की पैरवी करने, देश के भीतर और देश के बाहर से समर्थन जुटाने, वस्तुएं और सेवाएं प्रदान करने, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को आकार देने, उनका प्रवर्तन करने और उनका क्रियान्वयन करने की क्षमताएं और सामर्थ्य हैं। देश की प्रादेशिक सीमाओं के भीतर और बाहर के विशाल संजाल(नेटवर्क) नागरिक समाज समूहों को प्रभाव के अभूतपूर्व चौनल्स, पहुंच और स्तर प्रदान करते हैं। कुछ गैर सरकारी संगठनों के नेता, जिन्होंने स्वयं के लिए एक उच्च प्रोफाइल, स्वीकार्यता और लोकप्रियता विकसित की है, उन्होंने सरकारी प्रतिनिधि मंडलों के हिस्से के रूप में सरकार की निर्णय प्रक्रिया को भीतर से प्रभावित किया है। हाल के दिनों में इस विषय में जागरूकता में वृद्धि हुई है कि गैर राजनीतिक होकर यही कुछ हासिल किया जा सकता है। अब नागरिक समाज संगठनों ने राजनीतिक दलों के रूप में परिवर्तित होना भी शुरू कर दिया है। आम आदमी पार्टी इसी का एक उदाहरण है।
सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिकाः मिस्र की होस्नी मुबारक सरकार का तख्तापलट और दिल्ली में आप की सफलता ने व्यवस्था परिवर्तन में सूचना प्रौद्योगिकी की क्षमता को साबित कर दिया है। सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति ने सभी प्रकार की भौतिक बाधाओं को तोड़ दिया है, और लोगों को देशों की भौगोलिक सीमाओं के पार जाकर भी बढ़ती आसानी के साथ एक दूसरे के साथ जोड़ दिया है, जो पहले उन्हें देश के भीतर भी प्रा.तिक और ऐतिहासिक संगठन से अलग बनाये रखती थीं। इसने विश्व भर में पूरी की जाने वाली अधिक से अधिक पहचानों और हितों के सशक्तिकरण के माध्यम से क्षमता और सामर्थ्य के साथ सामाजिक और राजनीतिक विघटन को बढाने के एक शक्तिशाली वैश्विक शक्ति का निर्माण किया है। इसमें अन्यथा शांतिपूर्ण और स्थिर क्षेत्रों में तनाव और विद्रोह की नई शक्तियों का निर्माण करने की क्षमता है। इसने गैर सरकारी संगठनों को विश्व-व्यापी मीडिया का ध्यान ऐसे मुद्दों या प्रयोजनों की ओर आकर्षित करने में सहायता प्रदान की है जो राजनीति के हितों की दृष्टि से अधिक वांछनीय या हितकारी नहीं हैं। गैर सरकारी संगठनों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके पिछले रिकॉर्ड में सुधार हो, और वे गति और प्रतिबद्धता के साथ लोगों की समस्याएं हल करने के लिए किये जाने वाले उपायों और कार्यक्रमों के प्रति अधिक वफादारी और बेहतर उन्मुखीकरण प्रदर्शित करें। वे सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के वितरण में सरकारी अभिकरणों से आगे निकलने का प्रयास करते हैं, और सरकारी अभिकरणों को नीचे दिखाने की कोशिश करते हैं। वे नई मांगों और चुनौतियों का अधिक बेहतर ढ़ंग से पूर्व में ही आकलन कर लेते हैं और उनपर सरकार से भी बहुत पहले ही तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। इन सब के कारण उन्हें जनता को एकत्रित करने और सरकार के विरुद्ध असंतोष फैलाने में सहायता प्राप्त होती है। जब से सुरक्षा जीवन और प्रतिष्ठा की दृष्टि से चिंता का कारण बनी है, और जब से सरकार की विश्वसनीयता की कसौटी लोगों को भय और भूख से उपलब्ध स्वतंत्रता के परिमाण से होने लगी है, तब से गैर सरकारी संगठनों की गतिविधियों में और हस्तक्षेप में भारी पैमाने पर वृद्धि हुई है, और इनकी आवृत्ति भी बढ़ी है।
प्रौद्योगिकी के लोकतंत्रीकरण ने नागरिक समाज समूहों में बल प्रयोग के सरकार के एकाधिकार को क्षीण करने की क्षमता निहित कर दी है। अब नागरिक निरंतर एक दूसरे के साथ जुडे़ रहते हैं, और जिस सूचना को सरकार उपयोग कर सकती है उसमें अब कोई रिक्तियां नहीं बची हैं। सूचना के अधिकार ने भी आंकड़ों और सूचना पर सरकार के एकाधिकार को तोड़ दिए है। पूर्व में, राज्य और नागरिकों के बीच शक्ति के समीकरण के अभाव के कारण सरकार को स्थिरता और व्यवस्था बनाये रखने में सहायता मिलती थी। साथ ही इसने वह जोडने वाला तत्व भी प्रदान किया है जो आधुनिक सभ्यता को एकसाथ रहने के लिए आवश्यक है। इसने सूचना और जानकारी के प्रवाह और भंडारण पर केंद्रीय नियंत्रण को भी कठिन बना दिया है। जबकि इसने एक ओर सभी को एकसाथ जोड़ दिया है, वहीं दूसरी और इसपर अधिकार और नियंत्रण किसी का भी नहीं रह गया है। उपग्रह संचार ने सूचना प्रदान करने वाले और सूचना तक पहुंच बनाने वाले महामार्गों को खोल दिया है जिसके कारण सूचनाएं जितनी तेजी से सरकार को प्राप्त होती हैं उतनी ही तेजी से वे नागरिक समाज समूहों को भी प्राप्त होती हैं। पूर्व में नागरिक समाज समूहों के लिए सूचनाएं प्राप्त करना अत्यंत कठिन कार्य था परंतु अब केवल एक चाबी को दबाने मात्र से दुनिया भर की सारी सूचनाएं कंप्यूटर के पटल पर उपलब्ध हो जाती हैं। गैर सरकारी संगठनों और अन्य समूहों की आवश्यकताओं के अनुसार सूचनाओं को एकत्रित किया जाता है, उनका समेकन किया जाता है, उन्हें समन्वित किया जाता है, और उन्हें उन कार्यों को करने के लिए उन्हें परिष्.त किया जाता है जो शायद सरकार और प्रशासन के लिए नुकसानदेह हो भी सकते हैं और शायद नहीं भी हों। हमारे समक्ष जो महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि इन गैर सरकारी संगठनों के साथ किस प्रकार से निपटा जाए ताकि उनके द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली बहु आयामी चुनौतियों को सरकारों और राज्यों को सशक्त बनाने के अवसरों के रूप में परिवर्तित किया जा सके। अब समय आ गया है जब सरकार को यह मान लेना चाहिए कि आज के जटिल विश्व में उसके और उसके विभिन्न अभिकरणों के लिए यह संभव नहीं रह गया है कि वे निरंतर रूप से विश्व भर में होने वाली घटनाओं पर चौबीसों घंटे निगरानी रख सकें।
आवश्यकता इस बात की है कि इन दोनों के बीच एक संरचित सलाह-मशविरा हो ताकि दोनों के बीच सूचनाओं और ज्ञान के अंतर और अपर्याप्तताओं को मिटाया जा सके और साथ ही साथ राजनीति, सरकारी नीतियों और प्रशासन की सुधार और दोषमुक्ति की दृष्टि से समीक्षा की जा सके।
6.0 नागरिक समाज और अंतर्राष्ट्रीय संबंध
शीत युद्ध के काल के बाद अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में हुए परिवर्तन के कारण नागरिक समाज में राजनीतिक जागरूकता का पुनरुत्थान हुआ है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक नए संघों, संगठनों, नागरिक मंचों, नए सामाजिक आंदोलनों, ज्ञान कार्य संजालों और नीतिगत पैरवी समूहों का उदय हुआ है।
1993 में हुए विएना मानवाधिकार शिखर वार्ता के बाद मानवाधिकारों पर पडे़ नए दबाव ने नए मानवाधिकार आंदोलनों को नया स्थान और अंतर्राष्ट्रीय वैधता प्रदान की है, जिसने नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का एकीकरण कर दिया है। 1992 में हुई रिओ शिखर परिषद से शुरू होकर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा शुरू की गई सम्मेलनों की लंबी श्रृंखला ने नागरिक समाज प्रक्रियाओं और संगठनों के लिए एक सुविधाजनक वैश्विक स्थान निर्माण किया है। महिला अधिकारों पर 1995 में हुई बीजिंग शिखर परिषद, 1996 में सामाजिक विकास पर हुई कोपेनहेगेन शिखर परिषद और जातीयवाद पर हुई डरबन शिखर परिषद ने नागरिक समाज आंदोलनों को राजनीति और सार्वजनिक नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए एक वैश्विक मंच प्रदान किया। ज्ञान साझा करने के लिए आपस में जुड़ने और उपलब्ध संसाधनों ने उत्तर और दक्षिण के देशों और समुदायों के बीच एक नए तालमेल का निर्माण किया। वास्तव में संयुक्त राष्ट्र संघ नागरिक समाज और विभिन्न सरकारों के बीच एक मध्यस्थता स्थल बन गया था।
नागरिक समाज और राज्यों के बीच इस प्रकार की मध्यस्थता की भूमिका ने संयुक्त राष्ट्र संघ को एक नई वैधता प्रदान की। जैसा कि 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एमडीजी एक अंगीकरण द्वारा दर्शाया गया है, मानव विकास, मानवाधिकारों और वैश्विक गरीबी पर नए दबाव ने नागरिक समाज के लिए वैश्विक कार्यवाही और अभियानों के वैध स्थान का निर्माण किया है। नई प्रौद्योगिकियों और वित्तीय संसाधनों ने अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्किंग में सहायता प्रदान की है। जैसे ही एकतरफा सैन्यवाद द्वारा प्रेरित सत्ता की राजनीति के नेतृत्व, रूढ़िवादी राजनीति और नवउदार नीति प्रतिमान ने विश्व में अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू किया, वैसे ही नए सामाजिक आंदोलन और इसके परिणामस्वरूप नागरिक समाज प्रक्रिया अनुचित वैश्वीकरण के विरुद्ध विरोध और प्रतिरोध की राजनीति का अखाड़ा बन गई। इस प्रकार की नई नागरिक समाज प्रक्रिया समुदायों, संचार और रचनात्मकता द्वारा प्रेरित थी। संचार के नए साधन, नेटवर्किंग, प्रचार और जनसमर्थन ने नागरिक समाज उपदेशों और वक्तव्यों को 21 सदी के सबसे प्रभावी राजनीतिक और नीतिगत उपदेश बना दिया।
1980 के दशक में नागरिक समाज अधिकांश रूप से लातिन अमेरिका और मध्य यूरोप की अधिनायकवादी सरकारों के विरुद्ध विरोध आंदोलनों को संगठित करने और उन्हें वैधता प्रदान करने के साधन मात्र थे। 1990 के दशक में ‘‘नागरिक समाज‘‘ शब्द अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नीति और राजनीति का एक साधन बन गया जिसे अनुदान और व्यापार, दोनों का समर्थन प्राप्त था। और पिछले 10 वर्षों में नागरिक समाज के विचार का संदर्भ बढते स्वरुप में बहुविध संदर्भों में परिवर्तनवादी राजनीति के लिए राजनीतिक प्रयोग का दोहरा अखाड़ा बन गया। प्राचीन नागरिक समाज उपदेश नए आंदोलनों के नीचे दब गया और उसके स्थान पर उग्र लोकतंत्रीकरण, महिलावादी राजनीति, और पारिस्थितिकी, सामाजिक, आर्थिक न्याय के नए आंदोलन शुरू हुए। नागरिक समाज पर उभरने वाला यही नया उपदेश लोकतांत्रिक न्यूनता, और शासन के संकट जैसे मुद्दों को सुलझाने का प्रयास करता है। अतः यह आवश्यक है कि नागरिक समाजों को सामूहिक मानव कार्यों के लिए परिवर्तनवादी राजनीति के अखाडे के रूप में विषमांगी और विविधांगी स्थानों में वापस पुनरुज्जीवित किया जाए। नागरिक समाजों के पुनरुज्जीवन का अर्थ होगा प्रतिष्ठा, संप्रभुता और सभी के लिए मानवाधिकारों का पुनः समर्थन।
एक नई राजनीतिक जागरूकता को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है जो भय से मुक्ति और भूख से मुक्ति द्वारा प्रेरित हो; जो संगठन की स्वतंत्रता और विश्वासों की स्वतंत्रता से प्रेरित हो। नागरिक समाज के विचार को नए नागरिक मूल्यों और गुणों द्वारा सुदृढ़ किये जाने की आवश्यकता है रू समानता और न्याय के मूल्य य ऐसे मूल्य जो हमें सभी प्रकार के अन्याय और लिंग, नस्ल, जाति या पंथ पर आधारित सभी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध लड़ने में सहायक हों।
नागरिक समाज तभी परिवर्तनवादी हो सकता है जब वह विरोध की राजनीति और प्रस्ताव की राजनीति का समन्वय करे। नागरिक समाज एक ऐसा अखाड़ा बन सकता है जो लोगों की राजनीति और ज्ञान की राजनीति को जोड़ने में सहायक हो सकता है। नागरिक समाज तब एक अखाडा बन जायेगा जब वह मतभेद की राजनीति, संगठन की राजनीति और शक्ति के एकाधिकार के विरुद्ध लोगों की कार्यवाही और प्रति उपदेश और प्रति नायकत्व के लिए स्थान बनाने में सहायक होगा।
7.0 नागरिक समाज संगठनों की सीमाएं
नागरिक समाज संगठनों को अनेक सीमाओं का सामना करना पड़ता हैः
- पर्याप्त वित्तीय संसाधनों का अभाव
- प्रशिक्षित और पेशेवर कार्यकर्ताओं का अभाव
- नौकरशाही का असहयोग, और अधिकांश मामलों में विरोध भी
- अपर्याप्त सूचना आधार
- सीमित कार्यकारी परिप्रेक्ष्य
- राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रभाव
- स्थानीय जमींदारों, साहूकारों और तत्सम लोगों का विरोध
- जातीयतावाद, गरीबी इत्यादि जैसा विविध सामाजिक-आर्थिक वातावरण।
1997 की विश्व विकास रिपोर्ट ने निम्नानुसार टिप्पणी की थी ‘‘स्वैच्छिक क्षेत्र न केवल मंच पर अपनी ताकतें लाता है, बल्कि अपनी स्वयं की कमजोरियां भी लाता है। यह जनजागरण, लोगों की चिंताओं को आवाज प्रदान करने, और सेवाएं प्रदान करने जैसे अनेक अच्छे कार्य करता है। कभी-कभी स्थानीय स्वयं सहायता संगठन स्थानीय सार्वजनिक वस्तुएं और सेवाएं प्रदान करने वाले पसंदीदा प्रदाता माने जाते हैं क्योंकि उन्हें स्थानीय मुद्दों और चिंताओं की अधिक अच्छी समझ और जानकारी होती है। परंतु उनकी चिंता अक्सर कुछ विशिष्ट धार्मिक या जातीय समूहों के प्रति ही होती है न कि समग्र रूप से समाज के प्रति। उनकी जवाबदेही सीमित होती है और आमतौर पर उनके संसाधन विवश होते हैं।‘‘
दूसरी ओर, सरकार को यह ध्यान रखना पडे़गा कि रणनीतिक विचारधारा का अभाव, दुष्क्रियाशील प्रशासन, कार्यों की पूर्ति में विलंब, आत्म विनाशकारी प्रवृत्तियाँ, अलग-अलग आवाजों में बात करना, अलग-अलग दिशाओं में चलना, और सत्ता को सिद्धांत के साथ निरपेक्ष भाव से जोड़ने की अक्षमता नागरिक समाज समूहों के विकास और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार के लिए खाद्य और स्थान प्रदान करते हैं। नागरिक समाज सरकार और राज्य की विफलता की राख से पैदा होते हैं। रणनीतिक सोच नागरिक समाज समूहों के साथ विचार-विमर्श के लिए अनिवार्य आवश्यकता को रेखांकित करती है जिसके द्वारा वे विभिन्न स्तरों पर सरकारी व्यवस्थाओं और संस्थाओं के साथ एकीकृत हो सकें, ताकि औचित्य,कानूनी संवैधानिक और नैतिक सीमाओं के साथ संबंधों का एक मजबूत पुल निर्माण हो जो ठीक तरह से चित्रित हो और सभी संबंधित खिलाड़ियों और लोगों द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सके।
परिचालन की दृष्टि से इन चुनौतियों के लिए खुफिया जानकारी और चेतावनी, रोकथाम और निवारण, संकट और परिणाम प्रबंधन और उपकरणों और प्रौद्योगिकी के समन्वित अधिग्रहण के चार विशिष्ट तत्वों के उचित और नियमित उन्नयन की आवश्यकता होगी। इनके बिना राज्य दृष्टिकोण और कार्यवाही की दृष्टि से स्वयं को अक्सर असावधान पायेगा। राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत के निर्माण, जिसके लिए हाल ही में सरकार द्वारा पूर्व मंत्रिमंडल सचिव नरेश चंद्र की अध्यक्षता में एक कार्यदल का गठन किया गया था, के लिए इन सभी मुद्दों का गहराई से अध्ययन करने की आवश्यकता होगी, ताकि स्वतंत्रता के 64 वर्ष पश्चात देश को एक संस्थागत प्रतिक्रिया तंत्र प्राप्त हो सके। भारत में नागरिक समाज अपवर्जन से परिभाषित हुआ प्रतीत होता है। इसमें मानवाधिकार अधिवक्ताओं और कार्यकर्ताओं, गैर-सरकारी संस्थाओं के नेताओं, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों, हाई प्रोफाइल पत्रकारों, मशहूर हस्तियों और किराये के विचार मंचों की भीड़ है। मास मीडिया बहसों में कभी भी भूमिहीन मजदूर, विस्थापित लोग, नर्सें, श्रम संगठनों के श्रमिक, बस कंडक्टर इत्यादि ‘‘नागरिक समाज‘‘ की ओर से बोलने के लिए आमंत्रित नहीं किये जाते। हालांकि वास्तव में उन्हें बुलाया जाना चाहिए।
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