यूपीएससी तैयारी - भारत में शासन - व्याख्यान - 1

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संघीय संसदः कार्य और जिम्मेदारियां

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1.0 प्रस्तावना 

भारतीय संसद राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्य सभा से मिलकर बनती है। राज्य सभा उच्च सदन होती है जिसे ‘राज्यों की परिषद‘ के नाम से भी जाना जाता है। लोकसभा निचला सदन होती है जिसे ‘आम जनता का सदन‘ कहा जाता है। भारत का राष्ट्रपति भारतीय संसद का प्रमुख अंग होता है किंतु वह इसका सदस्य नहीं होता।

2.0 भारत के राष्ट्रपति 

भारतीय संविधान के कुछ विशिष्ट प्रावधान भारत के राष्ट्रपति के कार्यक्षेत्र, अधिकार और जिम्मेदारियों का वर्णन करते हैंः

धारा 52 - भारत का राष्ट्रपति 
धारा 53 - संघ के कार्यपालन अधिकार
धारा 54 - राष्ट्रपति का चुनाव
धारा 61 - राष्ट्रपति के विरूद्ध अभियोग की प्रक्रिया
धारा 72 - राष्ट्रपति की क्षमा शक्तियॉं
धारा 74 - राष्ट्रपति की सहायता के लिए मंत्री परिषद
धारा 75 - प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद की नियुक्ति

भारतीय संसद का एक प्रमुख अंग राष्ट्रपति होता है। वह संसद के दोनों ही सदनों के सत्रों को प्रारंभ और उनका अवसान करता है, और यहां तक की लोकसभा को भंग भी कर सकता है। संसद द्वारा पारित कोई भी अधिनियम तब तक कानून का रूप नहीं लेता है जब तक राष्ट्रपति उस पर अपने हस्ताक्षर ना कर दें।

आम चुनावों के बाद प्रारंभ होने वाले पहले सत्र और प्रत्येक वर्ष के पहले सत्र को संयुक्त रूप से राष्ट्रपति संबोधित करते हैं। वह संसद में कुछ सदस्यों को नामांकित भी कर सकते हैं।

2.1 भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन 

संविधान की रचना के समय इस बात को लेकर काफी बहस हुई कि भारत के राष्ट्रपति के निर्वाचन की सर्वश्रेष्ठ पद्धति क्या होगी। राष्ट्रपति पद के अप्रत्यक्ष निर्वाचन का निर्धारण करने के लिए संविधान सभा की मुख्य चर्चा निम्न बातों के आसपास केंद्रित थीः

  1. संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति का पद तकनीकी होता है और उसके कर्तव्य अधिकांशतः विधायिका द्वारा निर्धारित होते हैं। इसके लिए पदधारी व्यक्ति के पास अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए विशिष्ट योग्यताओं की आवश्यकता होती है। सामान्यतः मतदाताओं से इस प्रकार की बुद्धिमानी की अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे ऐसे विशिष्ट पद के उम्मीदवार की तकनीकी क्षमताओं पर समझदारी से निर्णय कर सकें जिसके कार्य विशिष्ट, सीमित और पूर्व परिभाषित हों। 
  2. दूसरा, प्रत्यक्ष निर्वाचन के मामले में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार निश्चित तौर पर किसी न किसी राजनीतिक दल से संबद्ध होंगे जिसके कारण राजनीतिक उत्तेजना पैदा हो सकती है और जो दलगत भावनाएं जगा सकती हैं। यह ऐसी स्थिति निर्मित करेगा जिसमें दलगत आवेग की उथल-पुथल से बाहर और सभी गुटों द्वारा समुचित रूप से सम्मानित गैर-दलीय व्यक्ति के राज-प्रमुख पद पर निर्वाचन का आदर्श पराजित हो जायेगा। 
  3. और अंत में, एक प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित मुख्य कार्यकारी संभवतः केवल संवैधानिक प्रमुख की अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं होगा और वह सीधे लोगों से अपने प्राधिकार प्राप्त करने का दावा कर सकता है। अतः यदि वह वास्तविक शक्ति प्राप्त करना चाहेगा तो इससे संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न हो जायेगा और मंत्रिमंडल और वास्तविक कार्यकारी के साथ अपरिहार्य टकराव होगा। यह निश्चित तौर पर जिम्मेदारी के विषय में भ्रम की स्थिति निर्मित करेगा। 

इस प्रकार की आकस्मिकता तब पैदा हुई थी जब 1848 के फ्रांसीसी संविधान के तहत फ्रांसीसी गणराज्य के राष्ट्रपति लुई नेपोलियन लोगों के प्रत्यक्ष मतों से निर्वाचित हुए थे, और इस व्यवस्था का लाभ उठाकर उन्होंने गणतंत्र का तख्तापलट करके साम्राज्य स्थापित किया और वे स्वयं सम्राट बने। इस प्रकार की आकस्मिकता की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए बाद के अपने संविधानों में फ्रांसीसी लोगों ने जनता के प्रत्यक्ष मतदान से राज-प्रमुख के निर्वाचन की इस व्यवस्था की निंदा की और इसे त्याग दिया। 

संविधान सभा में इस प्रश्न पर लंबी बहस हुई। अनेक सदस्यों द्वारा यह तर्क दिया गया कि केंद्रीय विधायिका के निर्वाचित सदस्यों और राज्यों की विधायिकाओं के निर्वाचित सदस्यों से बना निर्वाचक मंडल पर्याप्त रूप से जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। अतः कुछ सदस्य एक अप्रत्यक्ष गोलमोल पद्धति के बजाय जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था के पक्ष में थे क्योंकि इस प्रकार की व्यवस्था सर्वाधिक लोकतांत्रिक होगी और यह राष्ट्रपति को देश की प्रत्यक्ष पसंद बनाएगी। हालांकि इस तर्क को मान्य नहीं किया गया।

मध्य मार्गः भारतीय संविधान के निर्माताओं ने राष्ट्रपति के पद को अधिक व्यापक आधार का बनाने के लिए एक मध्य मार्ग का अनुसरण किया। भारत के राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया मौलिक है और विश्व के किसी भी संविधान में इस प्रकार की प्रक्रिया नहीं है। राष्ट्रपति पद के निर्वाचन के निर्वाचक मंडल को विस्तारित किया गया है ताकि इसमें संपूर्ण देश के राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों को शामिल किया जा सके, जिसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति का निर्वाचन संपूर्ण राष्ट्र द्वारा लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है, और इस प्रकार यह किसी एक निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि संपूर्ण देश का प्रतिनिधित्व करता है। इस उपाय के माध्यम से राष्ट्रपति अनिवार्य रूप से संसद के बहुमत वाले दल की पसंद भी नहीं होगा। इसका एक अतिरिक्त लाभ यह भी है कि राष्ट्रपति को अधिक नैतिक स्वतंत्रता और अधिकार प्राप्त हो जाता है जो उस स्थिति में संभव नहीं होता यदि वह वस्तुतः संसद के बहुमत दल द्वारा निर्वाचित होता। 

भारत के राष्ट्रपति का यह अप्रत्यक्ष निर्वाचन लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के प्रत्यक्ष निर्वाचित सदस्यों और राज्यसभा के अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों के सहभाग से संपन्न होता है। भारत के प्रत्येक नागरिक का संसद और राज्यों की विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व होता है क्योंकि लोकसभा के सदस्यों और राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों का निर्वाचन सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्यों को इस मतदान में भाग लेने का अधिकार नहीं होता। उसी प्रकार, राज्यों की विधान परिषदों के सदस्यों को भी इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया है। 

2.2 भूमिका एवं अधिकार 

संघ की समस्त रक्षा सेनाओं के सर्वोच्च अधिकार राष्ट्रपति के पास होते है किंतु वह इनका उपयोग विधि सम्मत नियमों के अनुसार ही कर सकते हैं। संघ के समस्त कार्यपालन अधिकार भी राष्ट्रपति में निहित होते हैं। भारत के राष्ट्रपति का संबंध संघीय प्रशासन के साथ वैसा ही होता है जैसा ब्रिटेन में संविधान के तरह राजा का। वे नाम मात्र के लिए, या संवैधानिक रूप से सरकार का मुखिया, दोनो हैं। उनकी स्थिति संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के समान नहीं होती जो वास्तव में कार्यपालन मुखिया होता है और दी गई शक्तियों का संविधान सम्मत तरिकें से स्वविवेक से उपयोग कर सकता है। संविधान के प्रावधानों के अनुसार विधायी एवं कार्यपालिका सहसबंधों के संदर्भ में, अमेरिका के समान राष्ट्रपति प्रणाली को नकार दिया गया और संसदीय प्रणाली को भारतीय संविधान में स्वीकार किया गया है।


2.3 भारत के राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति 

भारत के राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति को समझने के लिए धारा 53, 74, और 75 दी गई हैं। धारा 53 में भारतीय संघ के राष्ट्रपति के कार्यपालन अधिकार निहित हैं, किंतु वह अपने अधिकारों का उपयोग संविधान के अनुसार ही करने के लिए बाध्य हैं। धारा 74 कहा गया है कि राष्ट्रपति के कार्य अधिकार का उपयोग करने के लिए तथा उसे सहायता एवं सलाह देने के लिए एक मंत्री परिषद होगी, जो सामुहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी रहेगी (अनु. 75 (iii))। संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो राष्ट्रपति को विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनाये।

  भारत के राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति हमेशा से ही विवाद का विषय रही है। 1950 में संविधान के निर्माण के समय से ही यह निर्विवाद रूप से घोषित रहा है कि राष्ट्रपति सरकार का नाममात्र मुखिया होगा जबकि वास्तविक कार्यपालन शक्तियाँ मंत्री परिषद के अधीन होगीं। आज तक ऐसा एक भी मामला प्रकाश में नहीं आया जहां राष्ट्रपति ने संसद के दोनों सदनों से पारित विधेयक को या किसी भी बिन्दू पर मंत्रीपरिषद की सलाह को स्वीकार करने से इंकार किया हो। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने यह बार-बार यह स्पष्ट किया कि किसी भी नीति की पूर्ण जिम्मेदारी संसद के प्रति जवाबदेह सरकार की है जो वास्तव में जनता के प्रति उत्तरदायी होती है, और संवैधानिक मुखिया होने के नाते राष्ट्रपति किसी भी नीति के मार्ग में बाधक नहीं होता है।

उच्चतम न्यायालय ने भी अपना मत प्रकट करते हुए कहा है कि हमारे संविधान में ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया गया है जिसमें राष्ट्रपति को औपचारिक रूप से संवैधानिक मुखिया घोषित किया गया है किन्तु वास्तविक शक्तियां मंत्रियों या मंत्रीपरिषद में निहित होती हैं।

2.4   42 वाँ संविधान संशोधन 

जो कुछ शंकाएं शेष रह गयीं थी उन्हें 1976 के 42 वें संविधान संशोधन विधेयक के द्वारा समाप्त कर दिया गया । धारा 74 को संशोधित किया गया और कहा गया कि ‘राष्ट्रपति को सलाह देने के लिए एक मंत्री परिषद होगी जिसका मुखिया प्रधानमंत्री होगा, एवं राष्ट्रपति को अपने निर्णय मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार ही लेने होंगे। 44वें संविधान संशोधन विधेयक में एक और प्रावधान जोड़ा गया जिसमें कहा गया, ‘राष्ट्रपति किसी भी सलाह को मंत्री परिषद को पूनर्विचार हेतु भेज सकता है। किन्तु हर परिस्थिति में राष्ट्रपति ऐसी किसी भी पूनर्विचार के पश्चात मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा।‘ इस प्रकार वर्तमान स्थिति में राष्ट्रपति को मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार ही कार्य करना पड़ता है किंतु वह मंत्री परिषद को अपनु निर्णय पर पूनर्विचार के लिए कह सकते हैं और यदि पूनर्विचार के पश्चात भी मंत्री परिषद राष्ट्रपति की सलाह के विरुद्ध कार्य करना चाहती है, तो वह विधि के अनुसार ऐसा कर सकती है।

2.5 केवल एक मोहरा नहीं!

राष्ट्रपति केवल एक मोहरा या एक अप्रभावी चिन्ह ही नहीं होता है। असामान्य या अपवाद स्वरूप उत्पन्न स्थितियों में कुछ मामलों में उनके पास विशिष्ट अधिकार होते है, उदा. के लिये लोकसभा को भंग करना, मंत्री परिषद को बर्खास्त करना, प्रधानमंत्री नियुक्त करना, आदि। संकट के दिनां में इनमें से कोई भी मुद्दा महत्वपूर्ण हो सकता है। और राष्ट्रपति का निर्णय देश के भविष्य को निर्धारित कर सकता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि उसे देश हित से जुड़े प्रत्येक मामले की सूचना दी जाये। प्रधानमंत्री का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह अपनी मंत्री परिषद के सभी निर्णयों और संघ के प्रशासन से जुड़े सभी मुद्दां तथा विधायी प्रस्तावों के बारे में राष्ट्रपति को सूचना दे।

प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य होता है कि वह संघ के प्रशासनिक मुद्दों से जुड़ी और विधायी प्रस्तावों से जुड़ी हुई सूचना राष्ट्रपति के साथ साझा करें । उन्हें राष्ट्रपति इस बात के लिए आदेशित भी कर सकते हैं। भारतीय संघ का कार्यकारी मुखिया होने के नाते यह उनका अधिकार है कि प्रत्येक कार्य के बारे में सूचित किया जाये और प्रत्येक सूचना उपलब्ध करायी जाये जो वह चाहते हैं। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को किसी भी ऐसे निर्णय पर मंत्री परिषद के पुनर्विचार के लिए कह सकते हैं जिसमें किसी एक मंत्री द्वारा मंत्री परिषद की सलाह लिये बगैर अकेले निर्णय लिया गया हो। यह प्रावधान मंत्रीयों के बीच सामुहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत को प्रभावी बनाने की दृष्टि से निर्मीत किया गया है। इन सारे मामलों में स्पष्ट रूप से राष्ट्रपति बिना मंत्री परिषद के सलाह के स्वंय की जिम्मेदारी से काम करता है। किन्तु फिर भी राष्ट्रपति मंत्रियों को सलाह देकर, अपने अनुभव के बारे में बताकर, और उनकी मदद कर अपना प्रभाव छोड़ सकता है। ब्रिटिश सम्प्रभूता के समान ही राष्ट्रपति की भूमिका, ‘‘मंत्रियों को सलाह देना, उत्साहित करना और चेतावनी देना भी होता है।’‘

2.6 राष्ट्रपति की शक्तियां 

भारत के राष्ट्रपति देश के राज-प्रमुख होते हैं परंतु वे सरकार के प्रमुख नहीं होते। वे देश के राज-प्रमुख हैं परंतु वे देश पर शासन नहीं करते। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हमारा केंद्रीय मंत्रिमंडल देश का वास्तविक कार्यकारी है। राष्ट्रपति की शक्तियों को कार्यकारी शक्तियों, विधायी शक्तियों और वित्तीय मामलों में विभाजित किया जा सकता है। 

कार्यकारी शक्तियांः भारतीय संघराज्य की समस्त कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति में निहित हैं। वे इन शक्तियों का उपयोग प्रत्यक्ष रूप से या अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से कर सकते हैं। भारतीय संविधान के अनुसार सभी कार्यकारी कार्य राष्ट्रपति के नाम पर ही किये जाते हैं। राष्ट्रपति राज्यों के राज्यपालों, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। भारत के प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। प्रधानमंत्री की सलाह पर वे अन्य मंत्रियों की नियुक्ति भी करते हैं। 

केंद्र सरकार के कुछ महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, जिनमें भारत के महान्यायवादी, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, वित्त आयोग के अध्यक्ष, निर्वाचन आयुक्त इत्यादि शामिल हैं। वे केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन के लिए भी उत्तरदायी हैं। इसी कारण से वे केंद्र द्वारा प्रशासित क्षेत्रों के मुख्य आयुक्तों और उप-राज्यपालों की नियुक्ति भी करते हैं। दो या दो से अधिक राज्यों के बीच नदी जल विवाद से संबंधित विवादों के निराकरण के लिए आयोग गठित करने का अधिकार भी राष्ट्रपति के पास है।

विभिन्न राज्यों के बीच उठने वाले विवादों की जांच के लिए और केंद्र और राज्यों के बीच समान हितों के मामलों पर चर्चा करने के लिए अंतर-राज्य परिषद गठित करने का अधिकार भी संविधान ने राष्ट्रपति को प्रदान किया है। अकेले राष्ट्रपत ही मंत्री परिषद, राज्यों के राज्यपालों और भारत के महान्यायवादी को हटा सकते हैं। भारत के राष्ट्रपति देश की तीनो सेनाओं, थलसेना, नौसेना और वायुसेना के सर्वोच्च कमांडर होते हैं। उन्हें युद्ध की घोषणा करने का भी। 

राष्ट्रपति को कूटनीतिक शक्तियां संविधान ने प्रदान की हैं। वह विदेशों में भारत के राजनयिकों की नियुक्ति भी करते हैं। वे भारत में अन्य देशों के नियुक्त राजनयिकों के नियुक्ति के प्रमाण-पत्रों को स्वीकार भी करते हैं अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारत के राष्ट्रपति भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें विदेशों के साथ हुई संधियों को समाप्त करने का भी अधिकार है। 

राष्ट्रपति की विधायी शक्तियांः भारत के राष्ट्रपति भारतीय संसद का अभिन्न अंग हैं और उन्हें विधायी शक्तियां भी प्राप्त हैं। उन्हें संसद के दोनों सदनों के अधिवेशन बुलाने और दोनों सदनों का सत्रावसान करने का अधिकार प्राप्त है। वे लोकसभा को उसका कार्यकाल पूर्ण होने से पहले भंग भी कर सकते हैं। 

भारत का संविधान राष्ट्रपति को संसद के वर्ष के पहले अधिवेशन के दौरान संसद के दोनों सदनों को संबोधित करने का अधिकार भी प्रदान करता है। वे संसद में संदेश भी भेज सकते हैं। राष्ट्रपति लोकसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय से दो सदस्यों को और कला, विज्ञान, साहित्य और सामाजिक सेवा के क्षेत्रों में विशेष ज्ञान प्राप्त 12 सदस्यों को राज्यसभा में मनोनीत भी करते हैं। 

भारत में कोई भी सार्वजनिक विधेयक राष्ट्रपति की सहमति के बिना अधिनियम नहीं बन सकता। संसद द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। ऐसे समय राष्ट्रपति विधेयक का अनुमोदन कर सकते हैं, उसे रोक सकते हैं या पुनर्विचार के लिए उसे संसद को वापस भेज सकते हैं। यदि विधेयक पुनः संसद द्वारा पारित कर दिया जाता है तो राष्ट्रपति को उसे अनुमोदन देना आवश्यक हो जाता है। 

जब संसद का अधिवेशन नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति अध्यादेश जारी हैं। राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश को संसदीय कानून की ही शक्ति प्राप्त है। परंतु राष्ट्रपति के अध्यादेश को संसद का अधिवेशन शुरू होने पर संसद के अनुमोदन के लिए प्रस्तुत करना आवश्यक है। यदि उसे संसद के दोनों सदनों की मंजूरी प्राप्त हो जाती है तो यह कानून बन जाता है और यदि संसद के दोनों सदन इसका अनुमोदन नहीं करते तो उस स्थिति में संसद का अधिवेशन शुरू होने के छह सप्ताह बाद यह अपने आप निष्प्रभावी हो जाता है। ऐसी स्थिति में सार्वजनिक विधेयक के संबंध में निर्मित संवैधानिक गतिरोध को समाप्त करने के लिए राष्ट्रपति संसद का संयुक्त अधिवेशन भी बुला सकते हैं। 

वित्तीय शक्तियांः भारत के राष्ट्रपति को वित्तीय शक्तियां भी प्राप्त हैं। कोई भी धन विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। भारत के संविधान के अनुसार देश का वार्षिक वित्तीय प्रपत्र राष्ट्रपति द्वारा संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। यह प्रपत्र अगले वित्त वर्ष के लिए केंद्र सरकार के राजस्व और व्यय के अनुमान दर्शाता है। 

न्यायिक शक्तियांः भारत के राष्ट्रपति न्यायालय द्वारा दोषी करार दिए गए व्यक्ति की सजा को स्वीकृति देते हैं, या उसे क्षमा प्रदान करते हैं या सजा को स्थगित करते हैं या सजा में कमी करते हैं। 

आपातकालीन शक्तियांः देश में आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति को असाधारण शक्तियां प्राप्त होती हैं। तीन प्रकार की आपातकालीन स्थितियां निम्नानुसार हैंः

  1. सशस्त्र विद्रोह या बाह्य आक्रमण के कारण लागू किया गया आपातकाल;
  2. राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता से निर्मित होने वाला आपातकाल;
  3. वित्तीय आपातकाल 

इस प्रकार, भारत के राष्ट्रपति को व्यापक और दूरगामी शक्तियां प्रदान की गई हैं जिनका निर्वहन वे सामान्य और आपातकालीन स्थिति के दौरान करते हैं। परंतु संविधान के 42 वें (1976) और 44 वें (1978) संशोधन अधिनियमों के पारित होने के बाद हमारे प्रजातंत्र के राष्ट्रपति मात्र संवैधानिक नाममात्र प्रमुख बन कर रह गए हैं, उससे अधिक वे और कुछ नहीं हैं। 

अपने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति को मान्य किया है कि राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख हैं अतः जिस प्रकार सामान्य स्थिति में वे मंत्री परिषद की सलाह से बंधे हैं, उसी प्रकार आपातकालीन स्थिति में भी वे मंत्री परिषद की सलाह से बंधे हुए हैं।

हालांकि भारत के राष्ट्रपति केवल एक शानदार संकेताक्षर या केवल रबर की मुहर नहीं हैं। ब्रिटिश राजशाही के विपरीत जो आनुवांशिक है, हमारे प्रजातंत्र के राष्ट्रपति एक निर्वाचित राज-प्रमुख हैं। हमारी गठबंधन राजनीति में ऐसे कुछ धूसर क्षेत्र हैं जहां राष्ट्रपति ने अब भी अपनी निर्णयक्षमता और बुद्धिमानी का उपयोग किया होगा। ये निम्नानुसार हैंः

  1. प्रधानमंत्री की नियुक्ति,
  2. केंद्रीय मंत्रिमंडल की बर्खास्तगी,
  3. लोकसभा को भंग करना, और 
  4. प्रशासन और विधान के सभी मामलों पर प्रधानमंत्री से जानकारी प्राप्त करना, इत्यादि 

ऐसी ही कुछ स्थितियों में हमारे राष्ट्रपति की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक बन जाती है। हालांकि राष्ट्रपति को सभी प्रकार की राजनीतिक संबद्धताओं से मुक्त होना होगा। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे संपूर्ण संवैधानिक ईमानदारी और निष्पक्षता से कार्य करें। 

3.0 भारतीय संसद 

भारतीय संविधान के कुछ प्रावधान जो भारतीय संसद की संरचना, कार्यक्षेत्र और जिम्मेदारियों से सबंधित हैंः

धारा 74 - प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद
धारा 76 - भारत के महान्यायवादी
धारा 79 - संसद की संरचना
धारा 80 - राज्य सभा का निर्माएा
धारा 81 - लोकसभा का निमार्ण
धारा 83 - संसद के सदनों का कार्यकाल
धारा 93 - लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष
धारा 105 - संसद के सदनों को प्रदत्त अधिकार विशेषाधिकार आदि
धारा 109 - वित्तीय बिल के सबंध में विशिष्ट प्रक्रिया
धारा 110 - ‘वित्त बिल’ की परिभाषा
धारा 112 - वार्षिक वित्तीय बजट
धारा 114 - विनियोजन बिल
धारा 123 - संसद के अवकाश के दौरान नये अध्यादेश जारी करने का राष्ट्रपति को अधिकार
धारा 246 - संसद को कानून बनाने का अधिकार
धारा 352 - आपातकाल की घोषणा की स्वीकृति
धरा 356 - अपातकाल की घोषणा की स्वीकृति
धारा 368 - भारतीय संविधान में संशोधन का अधिकार


3.1 लोकसभा 

लोकसभा को सामान्यतः जनता का सदन कहा जाता है और यह देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती है। यह भारत के लोगों की शीर्ष लोकतांत्रिक इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करती है। जब सदियों की विदेशी गुलामी में बुझी हुई भावनायें खुलकर प्रकट हुई तो इसने संसद के एक ऐसे सदन का रूप लिया जो भारत के आम आदमी की भावनाएं अभिव्यक्त कर सके।

3.1.1 लोकसभा के गुणधर्म और इसकी सदस्यता के नियम

संविधान के अनुसार लोकसभा की अधिकतम संख्या 552 निर्धारित की गई है। यद्यपि वर्तमान में इससे 545 सदस्य हैं, जिसमें से 543 सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने जाते हैं और 2 सदस्य एंग्लों-इंडियन समुदाय में से राष्ट्रपति के द्वारा मनोनित किये जाते हैं। सदन की कुछ सीटें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए भी आरक्षित होती हैं।

लोकसभा के सदस्य आम जनता के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित किये जाते हैं। सदस्यों के निर्वाचन के लिए सारे देश को सदन के सदस्यों की संख्या के अनुसार कुछ निश्चित निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से, वयस्क मताधिकार का उपयोग करते हुए मतदाताओं द्वारा एक प्रतिनिधि चुना जाता है। जनसंख्या के आधार पर राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए लोकसभा सीटों की संख्या निर्धारित की जाती है।

लोकसभा का सदस्य होने के लिए, भारत का नागरिक होना अनिवार्य शर्त है। उसकी उम्र 25 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए। उसके पास भारत सरकार या राज्य सरकार का कोई लाभ का पद नहीं होना चाहिए।

किसी सदस्य के अयोग्य घोषित होने पर या त्यागपत्र देने पर सदन की सीट रिक्त घोषित हो जाती है। अध्यक्ष को बिना बताए किसी सदस्य के 60 दिनों से ज्यादा अनुपस्थित रहने की दशा में भी सीट रिक्त हो जाती है। 

लोकसभा सदस्य का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। किंतु राष्ट्रपति, सदन को बीच में भंग कर सकते हैं। आपातकाल के दौरान, राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया भी जा सकता है।

एक वर्ष में दो बार लोकसभा का सत्र बुलाना अनिवार्य है। लोकसभा के एक सत्र की अन्तिम सभा से दूसरे सत्र की पहली सभा के मध्य छः माह से ज्यादा की अवधि नहीं होना चाहिए। जरूरत पड़ने पर राष्ट्रपति लोकसभा का विशेष सत्र भी आहूत कर सकता है।

लोकसभा सत्र की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) करता है। सदन के सदस्यों द्वारा उनके मध्य से ही अध्यक्ष का निर्वाचन होता है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में, उपाध्यक्ष सभाओं का मुख्य होता है। लोकसभा अध्यक्ष के प्रशासकीय कार्यां में मदद के लिए सदन का सचिवालय भी होता है।

3.1.2 लोकसभा अध्यक्ष 

लोकसभा का सभापति, लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) कहलाता है। यह पद उच्च गरिमा, सम्मान व अधिकार से सम्पन्न होता है। वरीयता सूची में वह, उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समकक्ष, सातवें स्थान पर होता है। अध्यक्ष लोकसभा की गरिमा का प्रविनिधित्व करता है और इसी कारण वह देश की गरिमा, स्वतंत्रता और मुक्ति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह संविधान के अन्तर्गत एक गरिमामय व सम्माननीय पद है और इस पद पर आसीन व्यक्ति को बुद्धिमान, न्यायप्रिय व निष्पक्ष होना चाहिए। लोकसभा का सभापति होने के अतिरिक्त, संविधान उसे कुछ अन्य शक्तियां भी प्रदान करता है। वह यह निर्णय लेता है कि सदन द्वारा पारित कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं। वह दोनों सदनों की संयुक्त सभा की भी अध्यक्षता करता है। वह भारतीय संसदीय समूह का पदेन अध्यक्ष होता है। वह किसी भी सदस्य को राजनीतिक दलबदल के आरोप में अयोग्य घोषित कर सकता है।

3.1.3 प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद

संविधान की धारा 74 और 75 भारत सरकार के लिए मंत्री परिषद पद्धति के सिद्धांत का प्रतिपादन करती है। धारा 74(1) कहती है कि राष्ट्रपति को सलाह देने के लिए प्रधानमंत्री और उसकी मंत्री परिषद की नियुक्ति की जाती है। धारा 75(1) कहती है ‘‘प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति के द्वारा की जायेगी।‘‘ भारत का राष्ट्रपति मंत्री परिषद की सलाह को मानने के लिए बाध्य होता है क्योंकि वह इसके माध्यम से ही भारतीय संसद के निम्न सदन के प्रति जवाबदेह होता है।

संसदीय परम्पराओं के अनुसार, राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को 5 वर्ष के लिए प्रधानमंत्री नियुक्त करता है। इस प्रावधान के तहत 1996 में राष्ट्रपति द्वारा श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का न्यौता दिया गया, जिसके कारण कई विवाद उत्पन्न हुए। श्री वाजपेयी सदन के पटल पर अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर पाये और मात्र 13 दिनों के बाद ही उन्हें त्याग पत्र देना पड़ा।

राष्ट्रपति मंत्रियों को नियुक्त करता है और प्रधानमंत्री की सलाह पर उनके मध्य विभागों का वितरण करता है। उनकी सलाह पर राष्ट्रपति किसी ऐसे व्यक्ति को भी जो सदन का सदस्य ना हो, मंत्री नियुक्त कर सकता है। यद्यपि ऐसे व्यक्ति को छः माह के भीतर संसद के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित होना आवश्यक होता है। प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति मंत्री परिषद के किसी भी सदस्य को बर्खास्त कर सकते हैं। अभासी रूप से राष्ट्रपति इन मुद्दों में अपनी सलाह नहीं दे सकता क्योंकि यह प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है।

3.2 राज्य सभा

राज्य सभा, जिसे राज्य परिषद के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय संघ में राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। जैसा कि भारत में संसद का संघीय ढ़ांचा स्वीकार किया गया है, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण था कि विधायी कानूनों के निमार्ण में राज्यों का भी प्रतिनिधित्व रहे, यद्यपि ऐसे कई कार्य संघीय सूची में शामिल हो सकते हैं। इसे राज्यों की परिषद की उपस्थिति द्वारा सम्पन्न किया जाता है।

राज्य सभा के सदस्य जनता के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित नहीं किये जाते। इसका निर्माण राज्य विधान सभा के सदस्यों के द्वारा अनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल स्थानांतरणीय मत के द्वारा निर्वाचन के द्वारा होता है। राज्य सभा में 250 सदस्य होतें हैं जिसमें से 238 विभिन्न राज्य विधान सभाओं के द्वारा चुने जाते है और 12 लोगां को साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में जुड़े हुए लोगों से राष्ट्रपति के द्वारा नामांकित किया जाता है। उदाहरण के लिए सचिन तेंदुलकर और जावेद अख्तर।

राज्य सभा का सदस्य होने के लिए भारत का नागरिक होना तथा न्यूनतम 30 वर्ष उम्र होना अनिवार्य है। उस व्यक्ति को उस राज्य का निर्वाचक सदस्य होना अनिवार्य है। जहॉं से वह राज्य सभा का चुनाव लड़ना चाहता है।

राज्य सभा एक स्थायी सदन है। इसे भंग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक दो वर्ष के प्श्चात इसके एक तिहाई सदस्य सेवा निवृत हो जाते हैं और रिक्त सीटों के लिए उन राज्यों में चुनाव करायें जाते हैं। किसी भी राज्य सभा सदस्य को संविधान सम्मत प्रावधानों के अनुसार अयोग्य पाये जाने पर अपना त्याग पत्र देना पड़ता है।

3.3 संसद की जिम्मेदारियां

संसद की मुख्य जिम्मेदारी कानुनों का निर्माण करना होता है। संविधान की धारा 246 कहती हैं कि संसद संघीय सूची और राज्य सूची में शामिल किसी भी विषय में कानून बना सकती है। यह अवशिष्ट शक्तियों के विषय में भी कानून बना सकती है। संसद में किसी भी विधेयक के पारित होने की पद्धति इस तथ्य पर निर्भर करती है कि वह विधेयक वित्तीय विधेयक है या नहीं।

धारा 368 के अधीन, संसद संविधान में संशोधन भी कर सकती है। कुछ संशोधनों को पारित करने के लिए इसे साधारण बहुमत की जरूरत होती है, जबकि कुछ दुसरे संशोधनों में, सदन के विशिष्ट बहुमत की जरूरत भी हो सकती है। किसी संशोधन विधेयक को लेकर दोनो सदनों में यदि अंतर होता है तो अंततः लोकसभा की बात ही मानी जाती है।

लोकसभा को किसी भी अध्यादेश को धारा 123 के अधीन पारित करना होता है और राष्ट्रपति के द्वारा जारी आपातकाल की घोषणा को धारा 352 और 356 के अधीन पारित करना होता है।

3.3.1 राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष का निर्वाचन 

दोनों सदनों के चुने हुए प्रतिनिधि और समस्त राज्यों के विधान सभा सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं। संसद के दोनों सदनों के सभी सदस्य उप राष्ट्रपति के चुनाव में मत डालते हैं। वे उन्हें हटाने की प्रक्रिया में भी भाग लेते हैं। लोकसभा के सदस्य सभापति और उपसभापति का चुनाव भी करते हैं। 

3.3.2 राजनीतिक कार्यपालिका पर नियंत्रण सहित विभिन्न अधिकार

संसद को स्वशासी अधिकारिक निकायों जैसे केन्द्रीय लोकसेवा आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक आदि की रिपोर्टों पर चर्चा करने का अधिकार होता है। इसे अपने सदस्यों सहीत किसी भी बाहरी व्यक्ति पर, जो इसके विशेषाधिकार का हनन कर रहा हो, पर दण्डात्मक कार्यवाही का अधिकार होता है। 

संसद कार्यपालिका पर भी नियंत्रण करती है। यह देश का उच्चतम पटल होता है जहां सरकारी नीतियों पर चर्चा कर आलोचना की जा सकती है। मंत्री परिषद लोकसभा की कार्यवाही के लिए उत्तरदायी होती है। राज्य सभा एवं लोकसभा, दोनो ही सदनों के सदस्य, सरकार पर नियंत्रण के लिए कामरोको प्रस्ताव, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव और मंत्रियों से पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। यद्यपि कार्यपालिका पर नियंत्रण के मामले में लोकसभा राज्य सभा की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली है, क्योंकि लोकसभा में ही मंत्री परिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो सकता है। यदि बहुमत में लोकसभा के सदस्य ऐसे किसी प्रस्ताव को पारित करते है तो मंत्री परिषद को त्याग पत्र देना होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मंत्री परिषद तभी तक अपने अधिकारों का उपयोग कर सकती है जब तक कि उसे लोकसभा में बहुमत के सदस्यों का समर्थन प्राप्त है। इस प्रकार लोकसभा किसी सरकार का निर्माण, या विनाश कर सकती है।

यद्यपि लोकसभा को राज्य सभा की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली माना गया है, फिर भी कुछ मुद्दों पर दोनों ही सदनों के पास समान अधिकार होते हैं। कुछ मुद्दे जैसे कि भारत के राष्ट्रपति व उप-राष्ट्रपति का चुनाव या उन्हें पद मुक्त करना, संविधान संशोधन, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायलय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना, राष्ट्रपति के अध्यादेश को पारित करना और आपातकाल की घोषणा, विभिन्न स्वतंत्र निकायों की रिर्पोटों पर चर्चा, आदि में दोनों ही सदन समान रूप से शक्ति सम्पन्न हैं।

लोकसभा का देश के वित्तीय मामलों पर एक तरफा नियंत्रण हांता है। वित्त विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। लोकसभा की अनुमति के बिना किसी भी प्रकार के कर को लागू, बढ़ाया या घटाया नहीं जा सकता। बजट को पारित करने के मामले में लोकसभा ही सर्वेसर्वा होती है।

लोकसभा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है। मंत्री परिषद तभी तक सत्तासीन रहता है जब तक उसे लोकसभा का समर्थन प्राप्त हो। लोकसभा द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की दशा में मंत्री परिषद को त्यागपत्र देना ही पडता है। संसद की संयुक्त बैठक की स्थिति में भी लोकसभा अपने मात्रात्मक बहुमत के कारण राज्य सभा से ज़्यादा ताकतवर होती है। पुनश्चः, संसद की संयुक्त बैठक की स्थिति में लोकसभा का सभापति ही उसकी अध्यक्षता करता है।

4.0 प्रधानमंत्री की शक्तियां

प्रधानमंत्री के पद की सर्वप्रथम इंग्लैंड में हुई, और हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे वहीं से। लॉर्ड मॉर्ले ने उनका वर्णन प्रिमेस इंटरपेव्स (समकक्षों में प्रथम) के रूप में किया है और सर विलियम वेर्नोन ने उन्हें इंटर स्टेलास लूना माईनर्स (तारों में चंद्रमा) कहा है। दूसरी ओर हेरॉल्ड लास्की ने उन्हें ‘‘सरकार के संपूर्ण तंत्र की धुरीष् कहा है वहीं इवॉन जेंनिंग्स ने उनका वर्णन ष्सूर्य जिसके इर्द-गिर्द ग्रह नक्षत्र घूमते हैं’’ के रूप में किया है। 

प्रधानमंत्री भारतीय राजनीतिक तंत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्य करते हैं और उन्हें विशाल शक्तियां प्राप्त हैं। वे देश के मुख्य कार्यकारी हैं और वे केंद्र सरकार के प्रमुख के रूप में कार्य करते हैं। 

नेहीर के अनुसार ‘‘प्रधानमंत्री सरकार की धुरी का कीला‘‘ होते हैं। उनकी शक्तियों की व्यापकता निम्नानुसार हैः

सरकार के प्रमुखः भारत के राष्ट्रपति राज-प्रमुख हैं जबकि प्रधानमंत्री सरकार के प्रमुख हैं। हालांकि राष्ट्रपति के पद में अनेक कार्यकारी शक्तियां अंतर्निहित की गई हैं, परंतु वास्तव में वे केवल प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की सलाह पर ही कार्य करते हैं। 

केंद्र सरकार की सभी महत्वपूर्ण नियुक्तियां वास्तव में प्रधानमंत्री द्वारा ही की जाती हैं और केंद्रीय मंत्रिमंडल, योजना आयोग, मंत्रिमंडलीय समिति जससे सभी निर्णय करने वाले निकाय उनके पर्यवेक्षण और निर्देश पर ही कार्य करते हैं। 

मंत्रिमंडल के नेताः प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल के प्रमुख होते हैं। संविधान का अनुच्छेद 74 (1) कहता है कि ‘‘देश में एक मंत्री परिषद होगी जिसके प्रमुख प्रधानमंत्री होंगे।‘‘ वे जो मंत्रियों का चयन करते हैं और उनके बीच मंत्रालयों का वितरण करते हैं। 

वे मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता करते हैं और इन बैठकों में कौन-कौन से कार्य निष्पादित होंगे इनका निर्धारण करते हैं। वे किसी भी समय किसी मंत्री का त्यागपत्र मांग कर या राष्ट्रपति के माध्यम से उन्हें निष्काषित करके मंत्रिमंडल के सदस्यों में परिवर्तन कर सकते हैं। मंत्रिमंडल के अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल के निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं, जो आमतौर पर मतदान के बजाय आम सहमति द्वारा लिए जाते हैं। यह प्रधानमंत्री पर निर्भर होता है कि वे बैठक के सार का सारांश कर सकते हैं और आम सहमति की घोषणा कर सकते हैं। उनके त्यागपत्र में मंत्रिमंडल के सभी मंत्रियों का त्यागपत्र निहित होता है। 

लास्की की उक्ति, ‘‘प्रधानमंत्री मंत्री परिषद के गठन के केंद्र में होते हैं, वे इसके जीवन के केंद्र में होते हैं और इसकी मृत्यु के भी केंद्र में होते हैं‘‘, यह भारत के प्रधानमंत्री के लिए उतना है सत्य है जितना यह उनके ब्रिटिश समकक्ष के लिए सही है। 

राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल के बीच की कड़ीः संविधान का अनुच्छेद 78 प्रधानमंत्री के कर्तव्यों को परिभाषित करता है, और अपने इन कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान वे राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल के बीच एक कडी के रूप में भी कार्य करते हैं। 

इस अनुच्छेद में परिभाषित कर्तव्य निम्नानुसार हैंः

  1. मंत्री परिषद के सभी निर्णयों की सूचना राष्ट्रपति को प्रदान करना,
  2. केंद्र के कार्यों के प्रशासन से संबंधित ऐसी सूचनाएं और विधान के प्रस्ताव राष्ट्रपति को प्रदान करना जैसे राष्ट्रपति मांग करें; और 
  3. यदि राष्ट्रपति आवश्यक समझते हैं तो मंत्रिमंडल के विचारार्थ ऐसे मामले प्रस्तुत करना जिनके बारे में किसी मंत्री ने निर्णय लिया है परंतु जिनपर मंत्रिमंडल में विचार नहीं हुआ है। 

संसद के नेताः प्रधानमंत्री संसद के नेता हैं। वे इसकी बैठकों की तिथियों, और साथ ही अधिवेशन के कार्यक्रमों का निर्णय करते हैं। वे यह भी निर्धारित करते हैं कि सदन का सत्रावसान कब होगा या इसे भंग कब किया जाए। वे सदन में सरकार के मुख्य प्रवक्ता होते हैं और वे ही सरकार के इरादों की सूचना प्रदान करते हैं। सदन के नेता के रूप में प्रधानमंत्री विशेष लाभ की विशेष स्थिति में होते हैं। वे सरकार की मुख्य नीतियों की घोषणा करते हैं और अतिरिक्त-विभागीय आधार पर प्रश्नों के उत्तर देते हैं। 

वे सदन के पटल पर उनके मंत्रियों द्वारा की गई त्रुटियों को सुधार सकते हैं और उन्हें झिडकी देकर फटकार भी सकते हैं। वे सभी महत्वपूर्ण मामलों में सदन को अपने साथ ले जा सकते हैं। वे व्यापक रूप से मंत्रिमंडल का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अधिकार सरकार के किसी भी अन्य सदस्य को प्राप्त नहीं है। 

विदेशी संबंधों में मुख्य प्रवक्ताः अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रधानमंत्री को देश का मुख्य प्रवक्ता माना जाता है। बाह्य विश्व के लिए उनके वक्तव्य देश की नीति संबंधी वक्तव्य होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में वे देश के लिए बोलते हैं।

5.0 भारत में विधायी कानूनों के निर्माण की प्रक्रिया 

कानून बनाने के लिए, एक प्रस्ताव जिसे घ्विधेयक घ्कहा जाता है संसद में प्रस्तुत किया जाता है। कोई विधेयक दो प्रकार का हो सकता है - वित्त विधेयक या सामान्य विधेयक। वित्त विधेयक केवल सरकार के सदस्यों जैसे की कोई मंत्री  के द्वारा ही प्रस्तुत किया जा सकता है। किन्तु एक सामान्य विधेयक संसद के किसी भी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। 

कोई विधेयक कानून बनने की पूर्व संसद की विभिन्न प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है।

पहले चरण को प्रथम वाचन कहा जाता है। इस स्थिति में विधेयक सदन में प्रस्तुत होता है जहां इसे सदन के द्वारा अनुमोदित किया जाता है फिर इसे भारत सरकार के सरकारी राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है। 

अगले चरण को द्वितीय वाचन कहा जाता है। इस स्थिति में किसी विधेयक को या तो (i) एक ही बार में स्वीकार कर लिया जाता है; या (ii) प्रवर समिति को भेज दिया जाता है; या (iii) लोकमत जानने के लिए प्रसारित किया जाता है; या (iv) संयुक्त समिति को दूसरे सदन की अनुमति के साथ भेज दिया जाता है। सामान्यतः, विधेयक प्रवर समिति या संयुक्त समिति को भेजे जाते हैं। इस चरण में, विधेयक पर विस्तार से चर्चा होती है और इसके मसौदे को अंतिम रूप दिया जाता है। फिर समिति का अध्यक्ष विधेयक को सदन के सम्मुख रखता है। सदन विधेयक के सभी उपबंधों पर चर्चा करता है और आवश्यक संशोधन किये जाते हैं।

अब विधेयक का तीसरा वाचन होता है। इस चरण में सदन में विधेयक पर विस्तार से चर्चा होती है। इसका मुख्य उद्देश्य होता है विधेयक को स्वीकार कर लेना या अस्वीकार कर देना। यदि सदन बहुमत से विधेयक को स्वीकार कर लेता है तो यह माना जाता है कि सदन ने विधेयक को पारित कर दिया।

जब विधेयक एक सदन से पारित हो जाता है तो इसे अनुमोदन के लिए दूसरे सदन में भेजा जाता है। दूसरे सदन में भी विधेयक इन्हीं तीन चरणों से होकर गुजरता है। यदि विधेयक दूसरे सदन से भी उसके मूलरूप में पारित हो जाता है तो इसे राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है। यदि किन्हीं परिस्थितियों में दोनों सदनों के बीच विधेयक को लेकर मतांतर होता है तो, राष्ट्रपति संसद की संयुक्त बैठक भी बुला सकते हैं। जब संयुक्त बैठक में विधेयक पारित हो जाता है तो इसे राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है। कोई विधेयक कानून तभी बनता है जब राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर कर देते हैं।

6.0 उप-राष्ट्रपति 

भारतीय संविधान की धारा 63 के तहत भारत में उप-राष्ट्रपति का प्रावधान है। उनकी स्थिति राष्ट्रपति के बाद द्वितीय स्थान पर होती है। उनका महत्व इस तथ्य में  निहित है कि जब राष्ट्रपति का पद रिक्त होता है तो उप-राष्ट्रपति इसे भरता है। वह राज्य सभा के पदेन सभापति भी होते हैं। 

उप राष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों ही सदनों के सदस्यों के निर्वाचक मण्डल के द्वारा होता है। उप राष्ट्रपति का चुनाव अनुपातिक प्रतिनिधित्व की विधि के एकल स्थानातंरणीय व्यवस्था के द्वारा होता है। इस चुनाव में संसद के चुने हुए और नामांकित दोनों ही सदस्य भाग ले सकते हैं जबकि राष्ट्रपति के चुनाव में नामांकित सदस्य भाग नहीं ले सकते।

उप राष्ट्रपति का चुनाव 5 वर्ष के लिए होता है। उसे संसद के द्वारा अभियोग चलाकर पदच्युत  किया जा सकता है। वह अपने कार्यकाल के पूर्ण होने से पहले ही इस्तीफा भी दे सकता है।

6.1 उप राष्ट्रपति की शक्तियां एवं कार्य

भारतीय संविधान के अंतर्गत भारत के उप राष्ट्रपति का पद एक महत्वपूर्ण पद है। किंतु उसे कोई महत्वपूर्ण अधिकार नहीं दिये गये हैं। इस पद का महत्व इस तथ्य में निहित है कि जब राष्ट्रपति का पद रीक्त होता है तो उप राष्ट्रपति छः माह के लिए राष्ट्रपति बन सकते हैं और इस कार्य काल के दौरान नये राष्ट्रपति का चुनाव किया जाना अनिवार्य होता है। उप राष्ट्रपति का पद राष्ट्रपति के लिए एक प्रशिक्षण काल माना जाता है और कई व्यक्ति जो भारत के उप राष्ट्रपति रहे, बाद में राष्ट्रपति भी बने।

यद्यपि उप राष्ट्रपति की मुख्य जिम्मेदारी राज्यसभा के सभापति के रूप में कार्य करना होता है। वह सदन की कार्यवाही की अध्यक्षता करता है। उसे सदन में अनुशासन बनाये रखना होता है। सदन द्वारा कोई भी विधेयक तब तक पारित नहीं माना जाता जब तक कि उस पर सभापति के हस्ताक्षर ना हों। सदन में उसका निर्णय अंतिम होता है।
















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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - भारत में शासन - व्याख्यान - 1
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