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भूमि सुधार : भारत में आवश्यकता एवं गुंजाइश भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
भारत में प्राचीन काल से ही भूमि का उपयोग एक सामाजिक शक्ति के रूप में किया जाता रहा है और हमेशा से ही इसका वितरण असमान रहा है। भूमि अनुदान (उन लोगों को भूमि दान में देना जिन्होंने शासन (राजा) की किसी न किसी रूप में सहायता की है) की प्रथा ने एक ऐसी स्थिति उत्पन्न की जहाँ भूमि का संकेंद्रीकरण केवल कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में बना रहा। मुगल काल के दौरान कृषकों को उस भूमि के टुकडे़ पर प्रथागत अधिकार प्राप्त थे जो उनके कब्जे में थी और उन्हें वहां से उस समय तक हटाया नहीं जा सकता था जब तक वे राज्य को अनिवार्य भू-राजस्व का भुगतान करते रहते थे। भू-राजस्व के संग्रहण का कार्य अभिकर्ताओं के एक ऐसे वर्ग को दिया जाता था जिन्हें जमींदार कहा जाता था।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन भू-धारण की व्यवस्था अधिक शोषणकारी बन गई। वर्ष 1793 में शुरू किये गए स्थायी बंदोबस्त (परमानेंट सेटलमेंट) के तहत जमींदारों को चिरकाल के लिए निर्धारित भू राजस्व के भुगतान के बदले भूमि के स्वामित्व के अधिकार प्रदान किये गए जिन्होंने भू राजस्व के संग्रहण का कार्य बिचौलियों के सुपुर्द कर दिया था। इस व्यवस्था के कारण बिचौलियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई। भूमि के पट्टे का भुगतान नहीं करने की स्थिति में किसानों को भूमि से बेदखल करना नित्य का दैनंदिन कार्य हो गया। 1859 के बंगाल के भू-पट्टेदारी अधिनियम और 1885 के बंगाल किरायेदारी अधिनियम ने दीर्घकालीन पट्टेदारों को संरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया परंतु वे निष्प्रभावी साबित हुए। 1940 के दशक के दौरान भूमि के बंदोबस्त की व्यवस्था ने ब्रिटिशों के विरुद्ध विरोध के स्वर में वृद्धि की, विशेष रूप से बंगाल में, जहाँ इसके कारण साम्यवाद का उदय हुआ।
भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद भूमि सुधारों के मामले को काफी महत्त्व प्रदान किया गया। 1949 के संविधान ने भूमि और पट्टेदारी में सुधारों के अभिग्रहण और क्रियान्वयन के कार्य को राज्य सरकारों की शक्तियों के अधीन रखा। आज इस व्यवस्था के कारण विभिन्न राज्यों में भूमि सुधारों की प्रभावशीलता में काफी विषमता उत्पन्न हो गई है।
2.0 कृषि उत्पादकता
कृषि उपात्दकता, कारकों के दो समूहां पर निर्भर करती हैः तकनीकी और संस्थागत। इस सत्र में हम इसका गहराई से अध्ययन करेंगे।
2.1 तकनीकी कारक
कुछ कारक जैसे कृषि निविष्टयों का उपयोग और अन्य तरीके जैसे उन्नत बीज, उर्वरक, बेहतर हल, टै्रक्टर, फसल काटने वाली मशीन, सिंचाई आदि जो कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में मददगार होते हैं, चाहे कोई भी भूमि सुधार लागू ना हो, को तकनीकी उत्पादकता वृद्धि कहा जाता है।
2.2 संस्थागत कारक
कुछ कारक जैसे खेती हर वर्गों के पक्ष में भूमि के स्वामित्व का पुनर्वितरण जिससे उन्हें ग्रामीण जीवन में भागीदारी की भावना मिले, खेतों के आकार में सुधार लाना, कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करना, किराए का विनियमन, आदि को उत्पादकता के संस्थागत कारक कहा जाता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो संस्थागत कारक जैसे सामंती संबंधों का अस्तित्व, खेतों के छोटे आकार, उप-विभाजन ओर विखंडन, काश्तकारी अधिकारों की असुरक्षा, उच्च किराया आदि किसानों को अपना उत्पादन बढ़ाने के प्रति हतोत्साहित करने का काम करते हैं। ये कारक किसानों को कृषि में बचत और निवेश करने में उन्हें कमजोर बनाते हैं तथा उन्हें अपने परिश्रम का फल भी भोगने को नही मिलता।
पहले विचारों के दो पक्ष थे, इस बात के लिए कि भारत में कृषि उत्पादकता की समस्या को किस तरह से हल किया जाए और किसे पहले हल किया जाए - संस्थागत कारक या तकनीकी कारक। पर अब दोनों विचारों के समूह जुड़ रहे हैं और सबकी राय का केंद्रीकरण इस मुद्दे के आसपास हो गया है कि भूमि सुधार और प्रौद्योगिकी परिवर्तन परस्पर अनन्य कारक नहीं हैं, लेकिन कृषि विकास की प्रक्रिया में पूरक हैं। यह कहा गया है कि प्रौद्योगिकीय परिवर्तन एक सौहार्दपूर्ण कृषि संरचना में अधिक प्रभावी ढ़ंग से काम कर सकता है और इस तरह से विकास की प्रक्रिया तेज की जा सकती है।
3.0 भूमि सुधारों के उद्देश्य
भूमि सुधार मनुष्य और भूमि के बीच के संबंध के योजनाबद्ध और संस्थागत पुनर्गठन की प्रक्रिया है ताकि भूमि के एक अधिक समान वितरण को सुनिश्चित किया जा सके। भूमि सुधारों की कुछ परिभाषाएँ निम्नानुसार हैंः
- भूमि सुधार भूधारण और .षि संरचना की व्यवस्था में विचारपूर्वक शुरू किये गए परिवर्तनों को कहा जाता है।
- भूमि सुधार ऐसे संस्थागत परिवर्तनों को अंतर्निहित करते हैं जो खेतों का स्वामित्व उन व्यक्तियों के पक्ष में हस्तांतरित करते हैं जो वास्तव में उन खेतों पर कृषि कार्य करते हैं और जो खेतों के आकार में इस प्रकार से वृद्धि करते हैं ताकि वे जीवनक्षम बन सकें।
- भूमि सुधारों का अर्थ ऐसे उपायों से है जैसे बिचौलियों का उन्मूलन, पट्टेदारी व्यवस्था में सुधार, भू-धारण का सीमांकन, समेकन और सहकारी कृषि इत्यादि।
- भूमि सुधार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से भू-धारण और कृषि से संबंधित संस्थाओं में सुधार किया जाता है।
- भूमि सुधार भूमिहीन गरीबों के बीच संपत्ति के अधिकारों के पुनर्वितरण की प्रक्रिया है।
- भूमि सुधार ऐसी आर्थिक और सामाजिक बाधाओं को समाप्त करने के लिए क्रियान्वित किया गया एक एकी.त कार्यक्रम है जो विद्यमान भू-धारण की व्यवस्था के कारण निर्मित हुई हैं।
भूमि सुधार निम्नलिखित उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रयास करते हैंः
- भूमि सुधार के कारण दुर्लभ भूमि संसाधनों का तर्कसंगत रूप से उपयोग होता है क्योंकि भूमि-सुधार प्रभावित करता है अधिकृत भूमि संपत्ति की दशा को, भूमि संपत्ति पर उच्चतम और न्यूनतम सीमा लगा कर, जिससे खेती-बाड़ी बहुत ही किफायती ढ़ंग से की जा सके यानी पूंजी और श्रम का अपव्यय किए बिना।
- भूमि सुधारां का एक और उद्देश्य है कि कम विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों में कृषि भूमि का पुर्नवितरण और शोषण को समाप्त करने के उद्देश्य से उन नियमों और शर्तों में सुधार लाना जिन पर आधारित खेती-बाड़ी के लिए भूमि वास्तविक खेती करने वालों के पास होती है।
भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को भूमि सुधारों की आवश्यकता बहुत जल्द समझ में आ गई थी। दरअसल 1935 में भारतीय कांग्रेस ने अपने एक संकल्प में कहा था कि ‘‘गांव के जीवन में सुधार लाने का एक ही मौलिक तरीका है, वह है कि किसान की स्वामित्व की प्रणाली शुरू करना जिसके अंर्तगत मिट्टी जोतने वाला खुद ही उसका मालिक होता है और वह राजस्व का भुगतान किसी जमींदार या तालुकदार के हस्तक्षेप किए बिना सीधे सरकार को करे।’’
3.1 भूमि सुधारां की गुंजाइश
सामाजिक न्याय की दृष्टि से भूमि सुधारों का उद्देश्य भूमि के स्वामित्व का पुर्नवितरण और भूमि के अधिकतम उपयोग की दृष्टि से भूमि संपत्ति के परिचालन का पुर्नगठन करना है। किरायेदारी के हिसाब से भूमि सुधारों का उद्देश्य कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करना, किराए का निर्धारण करना, स्वामित्व प्रदान करना आदि है। भूमि सुधारों की पूरी अवधारणा का ही उद्देश्य है बिचौलियों का उन्मूलन करना और वास्तविक कृषक को सीधे राज्य के संपर्क में लाना। किराएदारी की सुरक्षा और किराये के विनियमन के प्रावधानों के कारण एक अनुकूल वातावरण पैदा होता है जिसमें कृषक को यकीन होता है कि उसे उसके परिश्रम का फल अवश्य मिलेगा। भूमि सुधार इसलिए गरीबी उन्मूलन के दृष्टिकोण से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
भूमि सुधारों की गुंजाईश इसलिए निम्नलिखित जरूरतों पर जोर देती हैः
- बिचौलियों का उन्मूलन
- किराएदारी सुधार यानी किराए के विनियमन, किराएदारों के कार्यकाल की सुरक्षा और स्वामित्व प्रदान करना
- भूमि अधिपत्य पर उच्चतम और न्यूनतम सीमा
- कृषि पुनर्गठन जिसमें सम्पत्ति का समेकन और विभाजन और विखंडन की रोकथाम, और
- सहकारी खेतों का संगठन करना।
4.0 आजादी से पहले भूमि स्वामित्व की स्थिति
यह प्रथागत है कि आजादी से पहले की भूमि कार्यकाल प्रणालियों को विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत करने के लिए उन्हें मोटे तौर पर तीन वर्गों में बांटा जाएः जमींदार, महालवारी और र्योतवारी।
4.1 जमींदारी कार्यकाल
जमींदारी प्रणाली के अंतर्गत, जो कि लॉर्ड कॉर्नवालिस ने 1793 में बंगाल में शुरू की थी, इसमें भूमि का अधिग्रहण एक आदमी के पास या ज्यादा से ज्यादा कुछ संयुक्त मालिकों के पास होता है जो भू-राजस्व के भुगतान के लिए जिम्मेदार हैं। यह प्रणाली ईस्टइंडिया कंपनी द्वारा शुरू की गई थी, भूमि में निहित स्वार्थों को पैदा करने के लिए जिससे एक विशेषाधिकार प्राप्त वफादार वर्ग का निर्माण हो सके। कार्यकाल के विभिन्न रूप जैसे जमींदारी, जागीरदारी, और राजसी राज्य आदि कृत्रिम रूप से बनाए गए थे। राजस्व लेने वालों को जमीन मालिक के दर्जें पर पदोन्नति हो गई। पहले वे सिर्फ भू-राजस्व लेते थे, जिसके लिए उन्हें कमीशन मिलता था। जमींदारी प्रणाली ने उन्हें कृषि का स्वामी बनाया जिसके कारण उनमें भूमि के प्रति स्थायी लगाव पैदा हो गया। जमींदारी बंदोबस्त दो प्रकार की थी - स्थायी और अस्थायी।
स्थायी बंदोबस्त प्रणालीः इस प्रणाली में भू-राजस्व को स्थायी तौर पर निश्चित किया गया। यह प्रणाली बंगाल, उत्तर मद्रास और बनारस में चलती थी।
अस्थायी बंदोबस्त प्रणालीः इसके तहत भू-राजस्व का 20 और 40 साल की अवधि के बीच विभिन्न राज्यों में मूल्यांकन किया गया, इसलिए भू-राजस्व में संशोधन हुआ। अस्थायी बंदोबस्त का असर बंगाल और अवध के बचे हुए जमींदारों पर हुआ। चूंकि इसकी मूल्यांकन की अवधि काफी लंबी थी इसलिए अस्थायी बंदोबस्त वास्तव में अस्थायी नहीं था। भू-राजस्व निश्चित कर दिया गया था और ऐसा करने में ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्य उद्देश्य था कि, समय पर भू-राजस्व के भुगतान के लिए जिम्मेदारी तय करना।
4.2 चिरस्थाई बंदोबस्त (Permanent Settlement)
यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और जमींदारों के बीच एक समझौता था जिसके अनुसार जमींदारों को भूमि पर उस समय तक चिरस्थाई वंशानुगत अधिकार प्राप्त थे जब तक वे निर्धारित भू-राजस्व का भुगतान ब्रिटिश सरकार को करते रहते थे। इस व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण पहलू निम्नानुसार थेः
- यह जमींदारों के भूमि पर पूर्ण स्वामित्व को मान्यता देता था। साथ ही यह जमींदारों के वारिसों या कानूनी उत्तराधिकारियों के वंशानुगत अधिकार को भी मान्यता देता था। सरकार का मानना था कि जमींदार ब्रिटिशों के प्रति वफादार बने रहेंगे।
- जमींदारों को यह अधिकार भी प्रदान किया गया था कि यदि वे चाहें तो अपनी भूमि का हस्तांतरण कर सकते थे या उसे बेच भी सकते थे।
- जमींदारों के सभी अधिकार उनके द्वारा किये जाने वाले निर्धारित भू राजस्व के समय पर सरकार के खजाने में भुगतान करने पर निर्भर थे। यदि वे निर्धारित राशि का समय से भुगतान करने में असफल रहते थे तो उनके सभी अधिकार समाप्त हो जाते थे।
- प्रत्येक जमींदार द्वारा उसकी जमींदारी के लिए सरकार को भुगतान की जाने वाली कुल राजस्व की राशि स्थाई रूप से निश्चित थी। यह भी मान्य किया गया था कि भविष्य में कर की राशि में कोई वृद्धि नहीं की जाएगी।
- जमींदारों को पट्टेदारों को पट्टा देना आवश्यक था, जिसमें भूमि के क्षेत्रफल और संग्रहित किये जाने वाले पट्टे की भुगतान राशि का वर्णन होता था। इस प्रकार पट्टेदारों को उनके भू-धारण पर अधिकार प्राप्त हो जाते थे और वे भुगतान किये जाने वाली पट्टे की राशि के बारे में भी जानते थे।
ज़मींदारी प्रणाली की समस्याऐं : ब्रिटिश सरकार का तर्क था कि ज़मींदार ग्रामीण आबादी का सबसे प्रबुद्ध वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है और जमींदारी प्रणाली के कारण भूमि और कृषि में सुधार होगा। परन्तु ये उम्मीदें पूरी नहीं हुईं। और ब्रिटिश शासन के तहत बढ़ती आबादी और खस्ताहाल गांव के उद्योगों के कारण भूमि की मांग बढ़ गई और भूमि मालिकों के लिए भारी किराया अपने किरायदारों से वसूलना संभव हो गया। ऐसा माना गया कि जमींदारी प्रणाली प्रगतिशील कृषि को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई थी, पर उसका पतन हो गया था दूरवासी (अन्यत्रवासी) जमींदारी में। इस प्रकार राज्य और वास्तविक किसान के बीच में एक मध्यस्थ पैदा हो गया था जो कि केवल जमीन में इच्छुक था उस सीमा तक जिससे केवल अत्यधिक किराया वसूला जा सके। ऐतिहासिक तौर पर जमींदारों का एक वर्ग महिलाओं, शराब और बुरे कामों में अपव्यय के लिए जाना जाता है। इसमें भारत के जमींदार कोई अपवाद नहीं थे। इसलिए जो पैसा इन परजीवियों ने किसानों से निकाला था पूंजी निर्माण में सहायक नहीं हुआ अपितु बेतहाशा उपभोग में वृद्धि हुई। जमींदारी गांवों को इसलिए दो वर्गों में विभाजित किया गया - दूरवासी या अन्यत्रवासी मालिक और गैर मालिक कृषक। अन्यत्रवासी मालिक वास्तविक कृषकों का शोषण करते थे। किसी भी प्रकार के राज्य के हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में शोषण करने वाले वर्गों को सामाजिक बुराईयों में लिप्त होने की खुली छूट मिल गई थी जैसे पूर्ण किराये से देना, निष्कासन, बेगार आदि। जमींदार उत्पीड़न और अत्याचार के प्रतीक बन गये थे। भारतीय कृषि का दर्जा एक प्रकार की गुजर बसर खेती के रूप में नीचे गिर गया था। यह बहुत निरूत्साहित करने वाला था पर इससे बचना मुश्किल था क्योंकि यह आम जनता के लिए आजीविका के प्रमुख स्त्रोत का प्रतिनिधित्व करता था।
4.3 महलवारी स्वामित्व (पट्टा)
महलवारी व्यवस्था की शुरुआत वर्ष 1833 में विलियम बेंटिंक के कार्यकाल के दौरान ब्रिटिश भारत के मध्य प्रांत, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, आगरा, पंजाब, गंगा घाटी इत्यादि क्षेत्रों में की गई। इस व्यवस्था में जमींदारी व्यवस्था और रैयतवारी व्यवस्था, दोनों व्यवस्थाओं के प्रावधानों को शामिल किया गया था। इस व्यवस्था में भूमि को महालों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक महल में एक या एक से अधिक गांव शामिल किये गए। स्वामित्व के अधिकार कृषकों में निहित थे। कर संग्रहण की जिम्मेदारी ग्राम समितियों को सौंपी गई थी।
महलवारी समय के तहत गांव की जमींन पर अधिकार संयुक्त रूप से गांव के समुदायों का था, जिसके सभी सदस्य संयुक्त रूप से भू-राजस्व का भुगतान करने के लिए जिम्मेदार थे। यह प्रणाली पहले आगरा और अवध में और बाद में पंजाब में शुरू हुई। इस प्रणाली के तहत आम गांव या शामलत पूर्ण रूप से गांव के समुदाय की संपत्ति है। इसी तरह बंजर भूमि भी गांव के समुदाय की ही है और उसे किराये पर दे सकते हैं और किराए को समुदाय के सदस्यों के बीच में बांट दिया जाए और उसका विभाजन कर उसे कृषि के अंतर्गत लाया जाए किसी सरकारी हस्तक्षेप किए बिना। भू-राजस्व का मूल्यांकन पूरे गांव के लिए होता है जिसके लिए पूर्ण रूप से सह शेयर धारकों का संगठन संयुक्त रूप से जिम्मेदार होता है। गांव का लम्बरदार राजस्व एकत्र करता है जिसके लिए उसे पंचोर्त्र यानी 5 प्रतिशत कमीशन मिलता है।
4.4 र्योतवारी स्वामित्व (पट्टा)
र्योतवारी व्यवस्था की शुरुआत थॉमस मुनरो द्वारा 1820 में मद्रास, बम्बई, असम के कुछ भागों और ब्रिटिश भारत के कुछ प्रांतों के क्षेत्र में की गई थी। र्योतवारी व्यवस्था में स्वामित्व के अधिकार काश्तकारों को प्रदान किये गए। ब्रिटिश सरकार सीधे काश्तकारों से कर वसूल करती थी। र्योतवारी व्यवस्था में राजस्व की दर शुष्क क्षेत्र के लिए 50 प्रतिशत और सिंचित क्षेत्र के लिए 60 प्रतिशत निर्धारित की गई।
र्योतवारी कार्यकाल के तहत भूमि के क्षेत्रां को एक स्वतंत्र जोत क्षेत्र के रूप में रखने की अनुमति दी गई थी। व्यक्तिगत धारक राज्य को भू-राजस्व के भुगतान के लिए सीधे स्वतः ही जिम्मेदार थे। पहला र्योतवारी बंदोबस्त 1792 में मद्रास में हुआ था। इस प्रकार का कार्यकाल मुंबई, बेरार और मध्य भारत में प्रचलित था। र्योत पूरी तरह से स्वतंत्र है अपनी जमीन को किराये से देने के लिए और किरायेदारी के स्थायी अधिकार का आनंद प्राप्त करता है जब तक वह भू-राजस्व के आकलन का भुगतान करता है। जमींदारी कार्यकाल के कुछ तत्व इस प्रणाली में भी प्रकट हुए क्योंकि र्योतवारी क्षेत्रों के किसान अपनी जमीन को उपट्टे पर दे सकते थे (किराये पर लिये हुए को किराये पर उठाना)।
र्योतवारी, महालवारी और जमींदारी के लोकप्रिय नामकरण ने 150 वर्षों के इनके प्रचलन के दौरान हुए विशाल परिवर्तन को छुपा लिया। इस पहलू पर बल देते हुए एच. वेंकट सुबैया ने उल्लेख किया है कि ‘‘यदि लॉर्ड कॉर्नवालिस और सर थॉमस मुनरो, जो जमींदारी और र्योतवारी के संबंधित मुख्य पात्र हैं, 1940 में इस प्रणाली को देखते, तो वे मुश्किल से उसे पहचानते।‘‘
जमींदारी, र्योतवारी और महलवारी के सह-अस्तित्व के कारण उनकी विशेषताओं का मिश्रण हो गया। परन्तु तीनों प्रणालियों का झुकाव जमींदारी प्रणाली के तरफ ही था। उप-किराये पर देना और रैक-किराये पर देना र्योतवारी क्षेत्रों में भी एक आम रवैया बन गया। मध्यप्रदेश, उ.प्र. (आगरा) जैसे राज्यों में महालवारी प्रणाली ने जमींदारी प्रणाली के लक्षणों का अधिग्रहण कर लिया जहां पर भू-राजस्व आंकलन के लिए सरकार ने गांव की संयुक्त जिम्मेदारी पर जोर दिया था। और उसी के साथ महालवारी प्रणाली ने र्योतवारी क्षेत्रों के पंजाब में अनुपस्थित जमींदारी के लक्षणों का भी अधिग्रहित किया जहां पर भू-राजस्व भुगतान की कई लोगों की जिम्मेदारी थी। उसी तरह ईनामदारी और जागीरदारी क्षेत्रों में जमींदारों ने निपटान के रूप में आधे और दो-तिहाई के बीच की मांग की। चूंकि कोई रिकार्ड नहीं थे इसलिए किसानों से किराए वसूलने में बहुत अनिश्चितता था। इसलिए आजादी की पूर्व संध्या पर एक तरफ भूमिहीन मजदूर और अपनी इच्छा से किरायेदार बने लोग थे और दूसरी तरफ थे बड़े जमींदार जो विशाल सम्पदा के मालिक थे। परन्तु बेचैन करने वाली मुख्य बात इस स्थिति में यह थी कि उचित राजस्व अभिलेखों का अभाव था, जिसके कारण बिचौलियों का उन्मूलन अधिक कठिन हो गया था। नतीजतन जोत की पूरी गणना की जरूरत महसूस हुई।
तिभागा आंदोलनः तिभागा आंदोलन वर्ष 1946-47 में बंगाल के बटाईदारों द्वारा किया गया आंदोलन था जो स्वयं के लिए अपने उत्पादन के एक-तिहाई के बदले आधे उत्पादन की मांग कर रहे थे। वास्तव में उनकी एक तिहाई हिस्से के विरुद्ध किये गए आंदोलन के कारण इस आंदोलन का नाम ‘‘तिभागा आंदोलन‘‘ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जैसे-जैसे मांगों का दायरा बढता गया वैसे-वैसे छोटे काश्तकार भी बटाईदारों के इस आंदोलन में शामिल होते चले गए। धीरे-धीरे जैसे-जैसे आंदोलन की तीव्रता बढती गई, वैसे-वैसे यहाँ तक कि मांग-पत्र का दायरा ‘‘जो जोते उसकी जमीन‘‘ के क्रांतिकारी विचार की अवधारणा को छूने लगा।
अनेक क्षेत्रों में प्रदर्शन और आंदोलन हिंसक होने लगे और जमींदार किसान सभा के पास गांवों की अपनी जमीनें छोडकर वहां से पलायन करने लगे। वर्ष 1946 में बंगाल के बटाईदारों ने इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया कि वे किसी भी कीमत पर जोतेदारों को अपने उत्पादन का आधा हिस्सा नहीं देंगे बल्कि केवल एक-तिहाई हिस्सा ही देंगे और यह भी कि फसल का विभाजन निश्चित रूप से उनके गोदामों में किया जायेगा न कि जोतेदारों के गोदामों में। जोतेदार इस तथ्य के कारण प्रोत्साहित थे कि बंगाल राजस्व आयोग, जिसे बाढ आयोग भी कहा जाता था, ने इस प्रकार की सिफारिश पहले ही सरकार के समक्ष प्रस्तुत की गई अपनी रिपोर्ट में की हुई थी। तिभागा आंदोलन का परिणाम जोतेदारों और बरगदारों के बीच संघर्ष में हुआ।
आंदोलन की प्रतिक्रियास्वरूप प्रांत के तत्कालीन मुस्लिम लीग मंत्रालय ने बरगदारी अधिनियम शुरू किया जिसमें प्रावधान किया गया था कि जमींदारों को दिया जाने वाला फसल का हिस्सा कुल उत्पादन के एक-तिहाई तक ही सीमित रहेगा। परंतु इस कानून का पूर्ण रूप से क्रियान्वयन नहीं किया जा सका। इस आंदोलन ने गरीब काश्तकारों और जनजातीय बटाईदारों में विकसित होती राजनीतिक चेतना को प्रतिबिंबित किया और इसने भारत के कृषि आंदोलनों के इतिहास में एक निर्णायक मोड का भी सूत्रपात किया।
4.5 बंगाल काश्तकारी अधिनियम, 1885
चिरस्थाई बंदोबस्त व्यवस्था ने जमींदारों को निरपेक्ष अधिकार प्रदान किये, जो वंशानुगत जमींदार बने रहते थे और इसी प्रकार शासन करते थे, परंतु इस व्यवस्था में काश्तकारों के अधिकारों को परिभाषित नहीं किया गया था। उन्नीसवीं शताब्दी में भूमि की मांग में वृद्धि हुई और जमींदारों ने किराये और भू राजस्व में वृद्धि कर दी। रैयतों (काश्तकारों) ने जमींदारों की प्रथागत दर से अधिक किराया वृद्धि को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इसके कारण जमींदारों के विरुद्ध काफी विरोध प्रदर्शन हुए और पाबना कृषक विद्रोह जैसे हिंसक विद्रोह हुए। बंगाल काश्तकारी अधिनियम किसानों को डराने-धमकाने के कारण बढ़ी व्यापक बैचेनी और राज्य के शांतिपूर्ण नियंत्रण को भंग करने के प्रयास के परिणामस्वरूप पारित किया गया था। इस अधिनियम ने जमींदारों और उनके काश्तकारों के अधिकारों को परिभाषित किया। इसमें भू-स्वामियों के संबंध में विस्तृत सर्वेक्षण और बंदोबस्त गतिविधियों के आयोजन के संबंध में नियम और विनियम शामिल किये गए थे। इसकी रचना इस प्रकार की भूमि के विविध हितों के साथ ही अधिकारों के संबंध में एक विश्वसनीय दस्तावेज के निर्माण के लिए की गई थी जो जमींदारों से शुरू होकर सबसे निचले काश्तकारों तक जाता था।
परंतु यह अधिनियम इस दृष्टि से असफल हुआ क्योंकि बढी हुई भूमि ने पट्टेदारी के मामले में शिकमी काश्तकार के लिए कोई विकल्प नहीं छोडा था। अतः इस अधिनियम में संशोधन की नितांत आवश्यकता महसूस की गई ताकि इसमें शिकमी काश्तकार के समर्थन में प्रावधानों को शामिल किया जा सके। वर्ष 1928 में इस अधिनियम में आगे संशोधन किया गया। इस संशोधन के द्वारा ऐसे शिकमी काश्तकारों के अधिकारों के संबंध में प्रावधान किये गए जिनके पास निरंतर 12 वर्ष की अवधि से भूमि का अधिकार था। विधेयक में किये गए ऐसे बदलाव के कारण संशोधन अधिनियम भी असफल हो गया जो समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असफल रहा। अतः वर्ष 1938 में एक बार फिर से बंगाल काश्तकारी (संशोधन) अधिनियम अधिनियमित किया गया, जिसके माध्यम से पहले कानून में रही कमियों को पूरा करने का प्रयास किया गया।
5.0 बिचौलियों का उन्मूलन
5.1 नीति और उपाय
मद्रास में कानून के लागू होने के साथ ही बिचौलियों के उन्मूलन के लिए ठोस कदम उठने सन् 1948 में शुरू हो गए थे। कुछ मामूली कार्यकाल और ईनामों को छोड़कर (जैसे असम, गुजरात, मद्रास और महाराष्ट्र), कानून सभी राज्यों में पारित किये गये थे। इसका उल्लेख महत्वपूर्ण है कि पश्चिम बंगाल, वह राज्य जो अनुपस्थित जमींदारी के प्रकोपों से सबसे ज्यादा प्रभावित था, उसी राज्य ने इस कानून को सबसे देर से 1954-55 में अपनाया। अधिकार प्रदान किए जाने के परिणाम स्वरूप करीब 30 लाख किरायेदार और साझे-किसानों ने कृषि की करीब 62 लाख एकड़ से भी ज्यादा ज़मीन पर पूरे देश भर में स्वामित्व का अधिकार प्राप्त कर लिया।
हालांकि उद्देश्य या कृषक और राज्य के बीच में से बिचौलियों का उन्मूलन, परन्तु वास्तव में कानून लागू होने के कारण बिचौलिये जमींदार के बराबर हो गए, और इसके परिणामस्वरूप र्योतवारी के तहत कानून ने किराया-प्राप्तकर्ता और अनुपस्थित जमींदार के वर्ग को अछूता छोड़ दिया। वेंकटसुबैया लिखते हैंः ‘‘केंद्र में सत्तारूढ़ दल व सरकार ने, व राज्य की सरकारों ने गैर-जमींदारी किराया लेनेवालों की शक्ति कम करने पर अपनी कृषि नीति में बहुत बाद में विचार किया’’।
5.2 बिचौलियों को मुआवजा
भारतीय संविधान के तहत संपत्ति पर हक हर भारतीय नागरिक का मूलभूत अधिकार था। इसलिए साम्यवादी देशों के विपरीत बिचौलियों का उन्मूलन भारत में बिना मुआवजे के नहीं किया गया। रूस, चीन और यूगोस्लाविया में जमींदारों को बिना कोई मुआवजा दिए उनकी जमींनें जब्त हो गई थीं। सामूहिक खेतों में उनकी स्थिति मजदूरी अर्जक के स्तर पर गिर गई थी। परन्तु कांग्रेस पार्टी ने आज़ादी के बाद जब सत्ता संभाली तो वह जमीन के मालिकों को मुआवजा देने के लिए प्रतिबद्ध थी। हालांकि संविधान के निर्माताओं ने मुआवजे का प्रावधान किया परन्तु यह स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया कि मुआवजा ‘‘न्यायसंगत’’ हो।। परिणाम स्वरूप जमींदारी उन्मूलन अधिनियमों को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और बाद में सुप्रीम कोर्ट में अधिनिर्णय के लिये ले जाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहण करने के कानून के अधिकार को कायम रखते हुए यह आदेश दिया कि मुआवजा एक न्यायोचित मुद्दा है। मुआवजे की दरें, उच्चतम सीमा और कितना हो और किन सिद्धांतों पर हो इन सभी को संशोधित किया गया और जमींदार बराबर का और किन्हीं मामलों में बराबर से ज्यादा का मुआवजा पाने में सफल रहे।
5.2.1 44वां संविधान संशोधन
यह स्थिति संविधान (44वें संशोधन) कानून, 1978 के बाद बदल गई जिसके कारण नागरिकों का मूलभूत अधिकार वापस ले लिया गया। मुआवजे का आधार और दर हर राज्य में भिन्न थी। जब्त करने के समय मुआवजा मालिक की कुल आय के गुणक के रूप में तय किया गया। यह गुणक कम आय सीमा वाले लोगों के लिए ज्यादा था और ज्यादा आय सीमा वाले लोगों के लिए कम था। कुछ राज्यों में शुद्ध आय का एक समान गुणक मुआवजे के रूप में शुरू किया गया परन्तु जिन मालिकों की आय कम थी उनको पुर्नवास अनुदान का भुगतान भी इसके अलावा किया गया। कुछ राज्यों में मुआवजा राजस्व मूल्यांकन का गुणक था। फिर भी कुछ और राज्यों में मुआवजे को जमीन के बाजार मूल्य से सहसंबद्ध किया गया (जैसे केरल में)।
मुआवजे का भुगतान नकद या बांड के रूप में किया जाना था। इन बांड को विभिन्न राज्यों में 10 से 50 साल की एक लंबी अवधि में समान किश्तों में भुनाया जा सकता था। बड़े मालिकों को बांड दिए गए थे परन्तु छोटे मालिकों को नकद में भुगतान किया गया था। पूर्व बिचौलियों को नकद और बांड के रूप में 670 करोड़ रूपए की राशि मुआवजे के रूप में दी गई।
6.0 किरायेदारी सुधार
6.1 किरायेदारी खेती की समस्या
जमींदारी और र्योतवारी प्रणाली के तहत किरायेदारी खेती भारत में काफी आम थी। किरायेदारी खेती उन छोटे मालिकों द्वारा की जाती थी जिनके पास जमीन अपर्याप्त मात्रा में थी या जो भूमिहीन मजदूरों द्वारा की जाती थी। कभी-कभी वो किरायेदार जिन्होंने जमीन मध्यस्थों के द्वारा ली है वे कृषि के लिए उसे उपट्टे पर दे देते थे। मोटे तौर पर किरायेदारों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया हैः
- अधिभोग किरायेदार (या स्थायी किरायेदार),
- अपनी इच्छा से किरायेदार (या अस्थायी किरायेदार), और
- उप-किरायेदार।
अधिभोग किरायेदारों की किरायेदारी का अधिकार स्थायी है और उन्हें विरासत में मिला है। यदि वे भूमि पर कुछ सुधार करते हैं तो उन्हें जमींदारों से मुआवजा प्राप्त हो सकता है। उन्हें अपने कार्यकाल की स्थिरता और सुरक्षा का पूरा अधिकार था जो उन्हें जमीन का आभासी मालिक बनाते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि अधिभोग किरायेदार और छोटे मालिकों में केवल इतना अन्तर है कि पहले वाले को किराया भूमि मालिक को देना पड़ता है और दूसरे को भूमि के राजस्व का भुगतान राज्य को करना पड़ता है। इसलिए व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए अधिभोग किरायेदारों को ही भूमि का मालिक समझा जाता है।
अपनी इच्छा से किरायेदार और उपकिरायेदारों की स्थिति बेहद कमजोर है। वे क्रूर शोषण के शिकार होते हैं। किराये की लगातार वृद्धि, कई प्रकार के मामूली बहानों पर निष्कासन, वसूली करना, बंधुआ मजदूरी यही कुछ शोषण के तरीके हैं। बढ़ती आबादी के कारण जहां पर ज़मीन की मांग उसकी आपूर्ति की तुलना में ज्यादा है उस देश में कमजोरों का शोषण और असुरक्षित किराएदार एक व्यापक बुराई है। उपज का पचास फीसदी बंटाई या साझा फसल के तहत सामान्य किराया था। कई अवसरों पर किसानों को अपने उत्पादन का दो तिहाई हिस्सा भी किराये के रूप में छोड़ना पड़ता था। इस तरह की स्थिति और उसके साथ असुरक्षा ने किरायेदारी सुधार की जरूरत का अहसास कराया।
6.2 किरायेदारी की सीमा
1953-54 (आठवां चक्र) में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण ने भारत के विभिन्न भागों में किरायेदारी और उप-किरायेदारी के तहत भूमि का अनुमान लगाया (अधिभोग किरायेदारों को शामिल नहीं किया गया)। किराये पर दिए गए क्षेत्र का प्रतिशत 11 से 26 प्रतिशत तक था हालांकि अखिल भारतीय प्रतिशत 20 प्रतिशत था। इस से यह पता चलता है कि करीब कुल क्षेत्र का पांचवा हिस्सा किरायेदारी के तहत था और इसलिए इतने व्यापक क्षेत्र की समस्याओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता। 1961 की जनगणना के अनुसार कुल कृषक परिवारों में से 77 प्रतिशत की सम्पत्ति पर उनका स्वामित्व था, 8 प्रतिशत शुद्ध रूप से किरायेदारी था और 15 प्रतिशत मिश्रित किरायेदारी था।
इस खुली किरायेदारी के अलावा कुल कृषि क्षेत्र की काफी मात्रा (करीब 35-40 प्रतिशत) मौखिक या छिपी हुई किरायेदारी के तहत किरायों पर दी हुई है।
6.3 अनौपचारिक या मौखिक किरायेदारी
अनौपचारिक किरायेदारी परंपरागत कृषि समाज की एक आम सुविधा है। हालांकि कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करने के लिए, भूमि का पुर्नवितरण करने के लिए और निष्पक्ष किराए को पक्का करने के लिए काफी प्रयास किए गए हैं फिर भी अनौपचारिक या मौखिक किरायेदारी अभी तक जारी है। अनौपचारिक किरायेदारी जो कि मौखिक किरायेदारी के रूप में संदर्भित है ऐसी किरायेदारी को संदर्भित करता है जो बिना कानूनी मंजूरी और बिना अनुमति के, और बिना लिखित समझौते के होता है।
श्री डी.एस. चौहान द्वारा दो मामलों में एक पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिले में और दूसरा पश्चिम उत्तरप्रदेश में, किये गए अध्ययन से यह प्रकट हुआ है कि अनौपचारिक उपट्टे पर देने की सीमा कुल कृषि क्षेत्र की 29 प्रतिशत थी और करीब 17 प्रतिशत भूमि मालिक इसमें शामिल थे। पश्चिम उत्तर प्रदेश में कुल कृषि क्षेत्र का 13 प्रतिशत अनौपचारिक रूप से उपट्टे पर दिया जाता था और 28 प्रतिशत भूमि मालिक उसमें शामिल थे। मौजूदा स्थिति में परेशान करने वाली खास बात यह है कि औपचारिक उपट्टे पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संबंधित अध्ययन में कुल कृषि क्षेत्र 1 प्रतिशत से भी कम था, और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 4 प्रतिशत था। दूसरे शब्दों में भूमि की थोक मात्रा अनौपचारिक किरायेदारी के आधार पर किराये पर दी जाती है। समस्या के समग्र परिणाम गंभीर ध्यान देने की मांग करते है।
अनौपचारिक किरायेदारी पर जाने का मुख्य उद्देश्य किरायेदारों से भारी किराया वसूलना है। यह जमींदारों में इस बात को ध्यान में रखते हुए है कि भूमि एक मूल्यवान संपत्ति है और इससे उच्च दर की प्राप्ति होती है। जिस देश में जमीन के लिए भूख हो वहां उच्च किराया वसूलकर इस स्थिति का फायदा उठाया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि अनौपचारिक किरायेदारी व्यवस्थाएें जमींदारों के पास किरायेदारी सुधारां को समाप्त करने की एक सुविधाजनक युक्ति है। इस प्रकार अलिखित और गुप्त किरायेदारीअर्ध-सामंती भूमि प्रणाली को और बढ़ाती है जिसे भूमि सुधारों के उपायों द्वारा खत्म करने की मांग की गई थी।
6.4 किरायेदारी सुधारों के उपाय
बिचौलियों के उन्मूलन के लिए बनाए गए कानून का उद्देश्य था कृषक को जमीन उपलब्ध करवाना परन्तु इससे किरायेदारी की समस्या खत्म नहीं हुई। कुछ भूमि पट्टे पर देना स्वाभाविक रूप से बाध्य है। एक विधवा या एक अविवाहित महिला, एक अवयस्क या एक आदमी जो मानसिक दुर्बलता से पीड़ित है और सशस्त्र बलों के सदस्यों को अपनी ज़मीन पट्टे पर देनी पड़ सकती है। इसके अलावा उच्चतम सीमा के साथ भी एक परिवार के लिए पूरी जमीन पर खेती करना मुमकिन नहीं होता इसलिए कुछ ज़मीन को किरायेदारी पर देना अपरिहार्य है। इसके अलावा खेती-बाड़ी वाली जनसंख्या को गैर कृषि व्यवसायों की तरफ ले जाने के लिए किरायेदारों को कुछ ज़मीन किरायेदारी पर देने की अनुमति दी जा सकती है। जमीन को पट्टे पर या उपट्टे पर देने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना न तो सामाजिक रूप से वांछनीय है और न ही प्रशासनिक रूप से साध्य होगा। इसलिए अधिक तर्कसंगत यही होगा कि किरायेदारी की खेती की बुराईयों को कम करने के उपाय किये जायें। किरायेदारी सुधारां के उपाय निम्नलिखित से संबंधित हैंः
6.4.1 किराये का नियमन
आजादी की पूर्व की अवधि में किराये या तो कस्टम (रिवाजों) द्वारा तय किये जाते थे या बाजार में मांग या आपूर्ति के हिसाब से। जमीन की आपूर्ति या उपलब्धि तय या निश्चित थी परन्तु उसकी मांग जनसंख्या वृद्धि के साथ बढ़ रही थी और इसलिए किराये में भी सतत वृद्धि हो रही थी। हस्तशिल्प के पतन ने जमीन पर निर्भरता को और बढ़ा दिया जिससे किराये में और वृद्धि हुई। पूर्ण भूमि किराये पर देना भारतीय कृषि संरचना की एक आम विशेषता थी।
इसलिए यह जरूरी था कि किराया कानून द्वारा ही निश्चित किया जाना चाहिए। प्रचलित किराये की दरें उत्पादन का डेढ़ गुना या ज्यादा थीं। अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में जो रिटर्न मिलता है, ये किराया दरें सामाजिक न्याय के किसी भी मानक से अत्यधिक थे। नतीजतन प्रथम और द्वितीय योजना ने सुझाव दिया कि कुल उत्पाद का चौथाई या पांचवा हिस्से से ज्यादा किराया नहीं होना चाहिए। बहुत से राज्यों ने किराये का नियमन करने के लिए जरूरी कानून पारित किया है। परन्तु विभिन्न राज्यों में जो किराया निश्चित किया गया है उसमें काफी भिन्नता है। गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में कुल पैदावार का छठा हिस्सा अधिकतम किराये के रूप में तय हुआ है। असम, कर्नाटक, मणिपुर और त्रिपुरा में अधिकतम किराया सकल उत्पाद का चौथा या पांचवा हिस्सा के बीच रहता है। पंजाब में सकल उत्पाद का एक तिहाई हिस्सा उचित किराये के रूप में माना जाता है, जबकि तमिलनाडु में यह सकल उत्पाद का 33.3 से 40 प्रतिशत के बीच होता है। जम्मू कश्मीर में सकल उत्पाद का एक तिहाई, आंध्र प्रदेश में सकल उत्पाद का एक चौथाई कृषि भूमि के लिए और अन्य मामलों में पांचवा हिस्सा किराये के रूप में तय हुआ है।
किरायेदारों की कमजोर स्थिति और बड़े पैमाने पर भूमि की भूख की व्यापकता के कारण किराये के नियमन के लिए बनाये गये कानून का पालन, अनुपालन की तुलना में उल्लंघन अधिक देखा जाता है। तीसरी योजना के हिसाब से ‘‘जब भूमि पर दबाव हो और गांव के किरायेदारों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो तब उनके लिए कानून का संरक्षण मिलना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा कानूनी प्रक्रियाओं का सहारा महंगा होता है। और किरायेदारां की पहुंच से बाहर होता है। इसलिए कई मायनों में कानून होते हुए भी तराजू मौजू़दा शर्तों के बने रहने के पक्ष में झुक जाता है।‘‘
इस संबंध में एक अन्य सुझाव यह है कि किराया वस्तुरूप करने की बजाय नगद में तय किया जाना चाहिए। ऐतिहासिक तौर पर भारत में किराया वस्तु के रूप में भुगतान किया गया है, लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि बीज, उर्वरक, औजार और जीवन की अन्य आवश्यकताएं खरीदते समय किसानों को पैसों के रूप में भुगतान करना पड़ता है इसलिए यही वांछनीय होगा कि किराये का नगद भुगतान किया जाए। यह उस हिसाब से बिल्कुल ठीक है जिस हिसाब से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आवश्यकताऐं वस्तु विनिमय से पैसे के आदान प्रदान की तरफ तेजी से बदल रही हैं।
6.4.2 स्वामित्व की सुरक्षा
सर आर्थर यंग ने ठीक ही कहा कि ‘‘देखा है कि ‘‘एक आदमी को एक बेरंग चट्टान का सुरक्षित अधिकार दे दो तो वह उसे बगीचे में बदल देगा, उसे नौ साल का एक बगीचे का पट्टा दे दो और वह उसे रेगिस्तान बना देगा‘‘। यह टिप्पणी बलपूर्वक कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करने की जरूरत पर बल देती है। अस्थायी किरायेदारी के अधिकारों के साथ जमीन में कृषक की व्यक्तिगत रूचि बहुत कम होती है। किरायेदार इसलिए ज़मीन को तैयार करने में या, स्थायी बाड़ लगाने में और जमीन पर कुंए या नलकूप बनाकर अपनी पूंजी कम करने की इच्छा नहीं रखते। किरायेदारी के हक का नुकसान होने के डर से जमीन को सुधारने की उनकी पहल खत्म हो जाती है। बंजर धरती को पुनः प्राप्त करना या मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए दीर्घकालिक योजनाएें बनाना इन सब कामों की इच्छा खत्म हो जाती है। नतीजतन सामाजिक न्याय के उद्देश्य से और अधिकतम उत्पादन के मद्देजनर कार्यकाल की सुरक्षा के कानून का पालन करना जरूरी हो गया है। इस तरह के कानून का मुख्य उद्देश्य स्थायी अधिभोग का अधिकार प्रदान करना होना चाहिए।
कार्यकाल की सुरक्षा से संबंधित कानून को तैयार करते समय तीन आवश्यक उद्देश्यों को ध्यान में रखना चाहिए। पहला यह कि किरायेदारों का बड़े पैमाने पर बेदखल नहीं होना चाहिए, दूसरा मालिक द्वारा भूमि की बहाली व्यक्तिगत खेती के लिए ही हो और तीसरा यह कि बहाली स्थिति में निर्धारित न्यूनतम क्षेत्र किरायेदार के पास छोड़ देना चाहिए।
6.4.3 स्वामित्व के अधिकार
ज़मींदारी उन्मूलन के कार्यान्वयन के अनुभव से पता चलता है कि व्यक्तिगत खेती के लिए भूमि की बहाली की दलील पर किरायेदारों का निष्कासन बड़े पैमाने पर हुआ। इसमें कोई शक नहीं है कि कुछ मामलों में और धारकों की कुछ श्रेणियों में बहाली की अनुमति दी जानी चाहिए परन्तु बहाली की दलीलों के कारण बड़े पैमाने पर किरायेदारों की बेदखली नहीं होनी चाहिए। इसलिए सुरक्षा उपायां की जरूरत होती है।
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान राज्यों में मोटे तौर पर निम्नलिखित तीन अलग पैटर्न द्वारा बहाली के लिए प्रावधान तैयार किय गयेः
- मालिकों को व्यक्तिगत खेती का अधिकार दिये बिना सभी किरायेदारों को कार्यकाल की पूर्ण सुरक्षा दी गई है (उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली)
- हालांकि मालिकों को यह अधिकार है कि सीमित क्षेत्र को फिर से उपयोग करें (किसी भी हालत में एक परिवार की जोत से ज्यादा नहीं) परन्तु उसी स्थिति में जब एक न्यूनतम क्षेत्र किरायेदार के पास छोड़ दिया है (गुजरात, केरल, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, असम और पंजाब)
- एक सीमा निश्चित की गई है कि जमीन मालिक कितनी जमीन को फिर से उपयोग कर सकता है परन्तु किरायेदार को यह हक नहीं है कि वह सभी मामलों में खेती के लिए न्यूनतम क्षेत्र अपने पास रख सके (जम्मू और कश्मीर, कनीपुर, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल (बटाईदार के मामले में)।
जाहिर है कि दूसरे प्रकार का कानून ज्यादातर राज्यों द्वारा स्वीकार कर लिया गया है।
6.5 स्वैच्छिक समर्पण और पुनर्स्थापना
‘‘हैदराबाद में जागीरदारी और भूमि सुधार के उन्मूलन के आर्थिक और सामाजिक प्रभाव‘‘ (1948) शीर्षक से डॉ. खुसरो के अध्ययन से यह खुलासा हुआ है कि किरायेदारां का निष्कासन बड़े पैमाने पर हुआ था। 42 प्रतिशत किरायेदारों को अभिजात्य भूमि मालिक वर्ग के हाथों नुकसान उठाना पड़ा और सभी तरीके - नैतिक या अनैतिक - अपनाये गये जिससे उन्हें किरायेदार अधिकारों का समर्पण करने के लिए मजबूर किया जा सके। इसी तरह का एक अध्ययन बी.एम. दांडेकर, जी.जे. खुन्दनपुर ने मुंबई किरायेदारी अधिनियम (1948) पर किया जिससे यह खुलासा हुआ कि पांच सालां में (1947 से 1953) किरायेदारों की कुल संख्या और संरक्षित किरायेदारों का अनुपात 60 प्रतिशत से अधिक से गिर कर 40 प्रतिशत से थोड़ा ज़्यादा पर आ गया है। इसके अलावा यह खुलासा हुआ था कि कागजों पर तो 85 प्रतिशत क्षेत्र जो मालिकों के पास आया था उसका स्वेच्छा से आत्मसमर्पण कर दिया गया था, किंतु सच्चाई ये थे कि दो-तिहाई मामलों में किरायेदार मालिकों द्वारा गंभीर दबाव में थे। अंततः इसका परिणाम यह हुआ कि किरायेदार निम्न स्तर पर एक हिस्से के बँटाईदार के स्तर पर आ गया और जो शोषण का जोखिम का सामना उसे पहले करना पड़ता था वैसा ही वापिस हो चुका था।
स्वैच्छिक समर्पण की जांच करने के लिए दो सिफारिशें की गई थीं। पहली-किरायेदारों का भूमि का स्वैच्छिक समर्पण को वैध तब तक नहीं माना जाना चाहिए जब तक वह विधिवत राजस्व अधिकारियों द्वारा दर्ज नहीं होती। दूसरी स्वैच्छिक समर्पण के मामलों में जमीन के मालिक को जमीन पर खेती शुरू करने का अधिकार होना चाहिए केवल उस सीमा तक जब तक उसे कानून द्वारा बहाली का अधिकार है। गरीब किरायेदार - जो सबसे कमजोर लेकिन महत्वपूर्ण हिस्सा है ग्रामीण भारत का - उन्हें बचाने के लिए इस संबंध में ज्यादा कार्यान्वयन की जरूरत है।
6.6 किरायेदारों के लिए स्वामित्व के हक
भूमि सुधारों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण गुणधर्म है किरायेदारों के लिए स्वामित्व के अधिकार का प्रावधान। दूसरी योजना के अंतर्गत यह बहुत आवश्यक माना गया कि उन किरायेदारों को जो गैर-पुनः प्रारंभ क्षेत्र के हैं, राज्य के साथ सीधे संपर्क में लाया जाये। पहले खरीदने का अधिकार किरायेदारों के लिए वैकल्पिक था लेकिन यह कारगर साबित नहीं हुआ।
इसलिए तीसरी योजना का सुझाव था कि वैकल्पिक खंड हटाया जाए और किसानों को भूमि खरीदना आवश्यक किया जाए। इस उद्देश्य के लिए कानून विभिन्न राज्यों में लागू किया गया। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में किरायेदार और उप- किरायेदार को पूर्ण रूप से स्वामित्व का अधिकार प्रदान करने के बाद। राज्य से सीधे संपर्क में लाया गया है। पंजाब में खरीदने का अधिकार वैकल्पिक है। गुजरात, केरल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित प्रदेशों में विधान लागू किया गया है। यह काफी निराशाजनक है कि खरीद के वैकल्पिक अधिकार के लिए असम, बिहार, जम्मू कश्मीर और तमिलनाडु में कोई प्रावधान नहीं है। जबकि राज्य जमीन के मालिकों से किरायेदारों को स्वामित्व के अधिकारों के हस्तांतरण की सुविधा प्रदान कर सकता है परन्तु कोई भी वित्तीय भार राज्य पर लगाया नहीं जाता। अभी तक 124.2 लाख किरायेदारों को 156.3 लाख हैक्टेयर के क्षेत्र में संरक्षित अधिकार प्राप्त हो गए है।
7.0 किरायेदारों को कानूनी संरक्षण
ज़मीन के मालिकाना हक के पुर्नवितरण को लाने में असमर्थ रहने के कारण, जमीन के किराये को निश्चित करने के लिए और किरायेदारी की स्थिति को ठीक करने के लिए, विधान द्वारा किरायेदारों को कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास किया गया। मिरड़ल के हिसाब से इस प्रकार का कानून ‘‘जो किरायेदार की दुर्दशा सुधारने के लिए भूमि के मालिक के पास ही भूमि रहने देता है, एक समझौता समाधान है राजनीतिक और आर्थिक रूपों से‘‘। इसके अलावा किरायेदारी कानून व्यापक नहीं होने के कारण किराये पर उच्चतम मूल्य निश्चित करने में और अधिभोग अधिकार की सुरक्षा तय करने में असफल रहा। मिरड़ल निम्नलिखित शब्दों में इस समस्या पर ध्यान केंद्रिंत करते हैं ‘‘किराये पर सीमा के अभाव में कार्यकाल की सुरक्षा के बारे में सभी नियमों को निरस्त माना जा सकता है, और जमींदार किराये को किरायेदार की भुगतान की क्षमता से अधिक बढ़ा सकता है, और भुगतान न होने पर उसे बेदखल कर सकता है। इस प्रकार अधिकतम किराये के लिए बनाया गया कानून भी अर्थहीन हो जाता है यदि उसके साथ किरायेदारी की सुरक्षा न जुड़ी हो तो।‘‘ इसके अलावा इस कानून का उद्देश्य था उन अल्पसंख्यक किरायेदारों को सुरक्षा प्रदान करना जो निश्चित किराया देते हैं और इस कानून ने ज्यादातर उन भागीदार कृषकों को छोड़ दिया जो भारतीय किसानों के अधिक कमजोर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।
श्री लादेनजिंसकी जो भूमि सुधारों के अमेरिकी विशेषज्ञ है; उन्होंने तन्जौर जिले के विस्तृत सर्वेक्षण के बाद कहा है कि ‘‘तन्जौर एक ऐसा जिला है जहां पर देश की सबसे बेकार भूमि कार्यकाल प्रणालियां हैं।, कुछ 20 प्रतिशत किरायेदारों के पास मौखिक पट्टे है जिसके कारण वे किसी भी प्रकार के कानूनी रूप से लागू कार्यकाल की स्थिति से वंचित हैं। हालांकि कानून ने यह निर्धारित किया हुआ है कि जमीन के मालिक को कुल उत्पाद का 40 प्रतिशत से अधिक का अधिकार नहीं होगा, भूमि पर जनसंख्या का दबाव ऐसा है कि भूमि मालिक को अक्सर फसल का 50 या 60 प्रतिशत प्राप्त हो जाता है।‘‘
8.0 भूमि धारण की हदबंदी
दुनिया में भारत और दूसरे स्थानों में भूमि सुधार का मुख्य जोर है एक निश्चित निर्दिष्ट सीमा से परे, जमींदारों की सभी भूमि राज्य द्वारा ले ली जाएगी और भूमि के उपयोगकर्ताओं को आवंटित की जाएगी जिससे भूमि की बर्बादी नहीं होगी, जमीन मालिकों के हाथों में आमदनी का केन्द्रीकरण नहीं होगा और सामाजिक न्याय सुनिश्चित होगा। उनकी हिस्सेदारी आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए, या भूमिहीन मजदूरों को उनकी जमीन की मांग पूरी करने के लिए, जमीन को छोटे मालिकों को हस्तांतरित किया जायेगा।
एक व्यक्ति द्वारा नियंत्रित की जाने वाली भूमि के लिए एक उपरी सीमा को न्यायोचित ठहराते हुए प्रोफेसर डी. आर. गाडगिल ने कहाः ‘‘सभी संसाधनों में, भूमि की आपूर्ति सबसे सीमित है और उसके अधिकार के लिए दावेदार अत्यधिक हैं। इसलिए यदि अन्य भारी कारणों से यह अत्यधिक वांछनीय नहीं है, तो एक ही व्यक्ति द्वारा देश के किसी भी बड़े सतह के शोषण को अनुमति देना, स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण है। इसके अलावा, मौजूदा सामाजिक, राजनीतिक माहौल के संदर्भ में, भूमि का पुनर्वितरण अनिवार्य लगता है।‘‘
इस प्रकार, भूमि धारण सीमा की नीति लागू करने व आगे बढ़ाने के मामले का निम्नलिखित आधारों पर समर्थन किया गया हैः
- ग्रामीण क्षेत्र में जमीन आय का प्रमुख स्रोत है। अगर भूमि ग्रामीण आबादी के केवल एक मामूली अंश को लाभ पहुंचाती है, तो जमीन का स्वामित्व सामाजिक न्याय के उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहता है। इसलिए, आय की असमानताओं में कमी लाने का सर्वोत्तम रास्ता भूमि स्वामित्व की असमानताओं में कमी लाना है।
- भारतीय कृषि में पूंजी-प्रधान तरीकों का उपयोग करने की नीति से भारी पैमाने पर बेरोजगारी को बढ़ावा मिलेगा। नतीजतन, भारत सरकार की नीति यह रही है कि छोटे किसान मालिकों की एक बड़ी संख्या का निर्माण हो। आलोचकों द्वारा आशंका व्यक्त की गई है कि बड़ी सम्पदा तोड़ने की नीति से साधन संपन्न जमींदारों से भूमि का हस्तांतरण साधन-विहीन किसानों या किरायेदारों के लिए होगा। आरोप लगाया गया है कि यह नीति रोजगार तो बढ़ा सकती है, लेकिन उत्पादन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगी।
8.1 क्या बड़ा अनिवार्य रूप से अच्छा है?
खेत प्रबंधन अध्ययन से पता चलता है कि प्रति एकड़ सकल उत्पादन बड़े खेतों की तुलना में छोटे खेतों में अधिक होता है। प्रोफेसर लुईस के अनुसार, खेत का आकार उच्च पैदावार हासिल करने का केवल एक ही आधार नहीं है। जापान, जहां छोटे खेत आदर्श माने जाते हैं, का अनुभव इस बात को सही ठहराता है कि श्रम प्रधान तरीकों के कारण प्रति एकड़ उच्च उत्पादकता प्राप्त की जा सकती है। जापान में, जोत का औसत आकार 1.2 हेक्टेयर है और चावल की प्रति हेक्टेयर उपज 52.5 क्विंटल है। संयुक्त राज्य अमेरिका में जोत का औसत आकार 124 हेक्टेयर है, व प्रति हेक्टेयर उपज जापान के लगभग बराबर 52 क्विंटल है। इसी तरह, पूर्व सोवियत संघ के बड़े आकार के सामूहिक खेत जापान के बराबर उपज दरों का उत्पादन करने में सक्षम नहीं रहे हैं। सोवियत संघ में चावल की प्रति हेक्टेयर उपज 40 क्विंटल थी। नतीजतन, यह विपरीत ऐतिहासिक साक्ष्य उच्च भूमि धारण सीमा के लगाने का समर्थन करती है क्योंकि ऐसी नीति रोजगार बढ़ा सकती है, और किसी भी तरह से उत्पादकता कम न करते हुए सामाजिक न्याय के उद्देश्य को पूरा करती है।
मौजूदा जोत और इकाई पर भूमि सीमा के लिए कानून दो चरणों में लागू किया गया है। पहले चरण के दौरान जो 1972 तक चला, सीमा कानून काफी हद तक भूमि धारक को उपयोग की इकाई के रूप में मानता था। 1972 के बाद, जोत का आधार परिवार को मानने का फैसला किया गया। इसके अलावा, इस दुर्लभ संपत्ति का और अधिक समान वितरण लाने के लिए सीमा को भी कम किया गया। मौजूदा भूमिधारण पर सीमा का अधिरोपण एक विकट समस्या है। इस मामले में, वर्तमान भूमि व्यवस्था का पुनर्गठन करना होगा। इस के लिए, स्वामित्व अधिकारों का पूरी तरह से सत्यापन किया जाना आवश्यक है। इसके साथ कई समस्याएं जुडी हैं, जैसे कि बदनीयति से किये हस्तांतरण, छूट और अधिशेष भूमि का निपटान।
8.2 ‘‘भूमि सीमा’’ लगाने में समस्याएं
निम्नलिखित कारक भूमि के उचित मालिकों की पहचान करने और इसलिए भूमि सीमा लागू करने को अप्रभावी बनाने में योगदान करते हैं।
8.2.1 बुरी नीयत के हस्तांतरण
जोत पर सीमा से संबंधित कानून ने बुरी नीयत के हस्तांतरण की एक बड़ी संख्या को जन्म दिया। यह हस्तांतरण मुख्य रूप से तीन प्रकार के हैंः
- परिवार के सदस्यों के बीच स्थानान्तरण/हस्तांतरण,
- बेनामी हस्तांतरण और अन्य हस्तांतरण जो एक पंजीकृत दस्तावेज के माध्यम से नहीं किये गए व जिनके लिए मूल्य नहीं लिया गया। और
- एक पंजीकृत दस्तावेज के माध्यम से उचित मूल्य लेकर किये हस्तांतरण।
8.2.2 मुआवजा और ‘‘अधिशेष भूमि’’ का आवंटन
भूमि सीमा कानून का उद्देश्य है एक निर्दिष्ट सीमा से ऊपर अधिशेष भूमि प्राप्त करने के लिए और फिर उसे छोटे धारकों, बेदखल किये किरायेदार या भूमिहीन व्यक्तियों के लिए खरीद मूल्य के भुगतान पर हस्तांतरित करना है। इस प्रकार, इस समस्या के दो पहलू हैंः
- अधिशेष भूमि के अधिग्रहण के लिए जमीन मालिकों को मुआवजे का भुगतान और
- अधिशेष भूमि के आवंटियों से जो मूल्य बरामद किया जा सके।
आवंटी से बरामद करने की कीमत के संबंध में, सुझाव दिया गया है कि यह खरीद मूल्य इस तरह से निश्चित किया जाना चाहिए कि आवंटी के ऊपर आने वाले मुआवजे की किस्तों के कारण का वार्षिक बोझ और उसके ऊपर देय ब्याज, यदि कोई हो, और भू-राजस्व, उचित किराया यानी एक-चौथाई या सकल उत्पाद का एक पंचम से अधिक नहीं होना चाहिए। मुआवजे के रूप में देय कुल राशि आवंटी से बरामद की जानी चाहिए ताकि राज्य पर कोई शुद्ध दायित्व न हो।
8.3 भूमि हदबंदी कानून के तहत किए गए उपायों की प्रगति
1972 तक, पुराने सीमा अधिनियमों के तहत, भारत में केवल 23 लाख एकड़ ज़मीन को अधिशेष घोषित किया गया जिसमें से में केवल 13 लाख एकड़ जमीन पुनः वितरित की गई। बिहार, कर्नाटक, उड़ीसा और राजस्थान में, भूमि सीमा कानून के लगाने के लिए कोई जमीन अधिशेष नहीं घोषित की गई। जाहिर है, भूमि का विभाजन या बेनामी स्थानान्तरण, सीमा कानून लगाने से पहले हो चुका था। सीमा कानून और इसे लागू किया जा रहे तरीके के बारे में देश में काफी आलोचना हुई थी। जुलाई 1972 में आयोजित ‘‘मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन’’ में भूमि सीमा के कार्यान्वयन के लिए निम्नलिखित दिशानिर्देश स्थापित किए गए थेः
- मिट्टी की उर्वरता और अन्य शर्तों को ध्यान में रखते हुए, सुनिश्चित सिंचाई और एक वर्ष में कम से कम दो फसलों की उपज करने में सक्षम, राज्य में भूमि के सबसे अच्छे वर्ग की सीमा 10 से 18 एकड़ चाहिए होनी चाहिए।
- कम गुणवत्ता भूमि के मामले में, सीमा ऊपर जा सकती है लेकिन 54 एकड़ से अधिक नहीं होनी चाहिए।
- आवेदन की इकाई पांच सदस्यों का एक परिवार होगा, व परिवार की परिभाषा में पति, पत्नी और तीन छोटे बच्चे शामिल हैं। जहां परिवार में सदस्यों की संख्या पांच से अधिक है, पांच से अधिक प्रत्येक सदस्य के लिए जमीन की अनुमति इस तरीके दी जा सकती है कि परिवार के लिए देय कुल क्षेत्र पांच सदस्यों के परिवार की सीमा के दुगुने से अधिक नहीं है।
- यह सीमा चाय, कॉफी, रबर, इलायची और कोको के तहत नियंत्रित जमीन पर लागू नहीं करनी चाहिए।
- गैर-कृषि प्रयोजनों के लिए औद्योगिक या वाणिज्यिक उपक्रमों द्वारा नियंत्रित भूमि पर सीमा लागू नहीं करनी चाहिए।
- राज्य सरकार अपने विवेक में, सार्वजनिक प्रकृति के मौजूदा धार्मिक, धर्मार्थ और शैक्षणिक ट्रस्टों को छूट दे सकती है।
- अधिशेष भूमि के वितरण में प्राथमिकता विशेष रूप से भूमिहीन कृषि मजदूरों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को दी जानी चाहिए।
- सीमा कानूनों के लगाने पर अधिशेष भूमि के लिए देय मुआवजा अच्छी तरह से संपत्ति के बाजार मूल्य से कम तय किया जाना चाहिए ताकि यह नए आवंटी की क्षमता के भीतर हो।
- मुआवजा वर्गीकृत स्लैब में और बेहतर भूमि के लिए देय भू-राजस्व के गुणक में तय किया जा सकता है।
9.0 अधिशेष भूमि का वितरण
मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों के बाद, राज्य सरकारों ने राज्यों में मौजूदा स्थितियों पर आधारित सीमा की मर्यादा को कम कर के सीमा कानून संशोधित किया था।
31 मार्च, 2004 तक कृषि जोत पर सीमा कानूनों की स्थापना के बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट (2004-05) के मुताबिक, पूरे देश में घोषित अधिशेष भूमि की कुल मात्रा 73.36 लाख एकड़ जमीन थी, जिस में से 64.97 लाख एकड़ जमीन का कब्जा ले लिया गया था और 54.03 लाख एकड़ जमीन का कुल क्षेत्र 54.84 लाख लाभार्थियों को वितरित किया गया, जिन में से लगभग 36 फीसदी लोग अनुसूचित जाति के और 15 फीसदी के आसपास लोग अनुसूचित जनजातियों के हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि, अधिशेष भूमि के वितरण की प्रगति प्रत्यक्ष रूप से धीमी थी। मार्च 1990 से मार्च 2004 के 14 वर्ष की अवधि के बीच, केवल 7.36 लाख एकड़ जमीन वितरित की जा सकी है।
54.03 लाख एकड़ सीमा अधिशेष भूमि जमीन का वितरण करने के अलावा, सरकारी बंजर भूमि का 147.5 लाख एकड़ क्षेत्र भी भूमिहीनों और गरीबों के बीच वितरित कर दिया गया है।
भूदान भूमि के 39.16 लाख एकड़ जमीन के कुल क्षेत्र में से, 31 मार्च 2004 तक 21.75 लाख एकड़ वितरित किया गया है।
अब तक घोषित अधिशेष क्षेत्र कुलन कृषि क्षेत्र के 2 प्रतिशत से भी कम है। ग्रामीण विकास मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट (1992-93) में सरकार द्वारा उल्लेखित मुख्य कारण इस प्रकार हैंः
- 5 से अधिक सदस्यों के परिवार के द्वारा सीमा से दो गुना तक भूमि को नियंत्रण में रखने का प्रावधान;
- परिवार में बड़े बेटों के लिए अलग सीमा देने का प्रावधान;
- संयुक्त परिवार के हर हिस्सेदार को उच्चतम सीमा की मर्यादा के लिए एक अलग इकाई के रूप में समझने का प्रावधान;
- चाय, कॉफी, रबर, इलायची और कोको वृक्षारोपण को मिली छूट, और सामान्य उच्चतम सीमा से परे धार्मिक और धर्मार्थ संस्थाओं द्वारा नियंत्रित भूमि;
- उच्चतम सीमा को पराजित करने के लिए बेनामी और फर्जी (काल्पनिक) स्थानांतरण;
- छूट और भूमि के गलत वर्गीकरण का दुरूपयोग;
- हाल में सार्वजनिक निवेश से सिंचित भूमि के लिए उचित उच्चतम सीमा को लागू न करना।
सरकार को, हालांकि, पता है कि आधिकारिक तौर पर अनुमान लगाया हुआ अधिशेष बड़े स्वामित्व की सम्पत्ति में नियंत्रित क्षेत्र का केवल एक अंश है। ‘‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (26 वा राउंड, 1971-72) के अनुसार, 30 एकड़ या उससे अधिक स्वामित्व के नियंत्रण वाला क्षेत्र 57.81 मिलियन एकड़ जमीन थी। अधिशेष मालिकों द्वारा स्वयं खेती को शामिल कर, संभावित अधिशेष 21.51 मि. एकड़ होगा। इसी प्रकार 50 एकड़ या अधिक की जोत में स्वामित्व क्षेत्र 25.87 मिलियन एकड़ जमीन थी और स्वयं खेती की कटौती के बाद संभावित अधिशेष 8.37 मि. एकड़ होगा।’’ इस अनुमान के अनुसार, अधिशेष भूमि 300 लाख एकड़ होनी चाहिए और मात्र 74 लाख एकड़ नहीं। 1977 से जिस सतही तौर से भूमि सुधार को लागू किया गया है, उसने पर्यवेक्षकों के मन में कोई संदेह नहीं छोड़ा कि अधिशेष भूमि का अधिग्रहण, किरायेदारी खेती में खामियों को नष्ट करना, किराए को कम करना, भूमि रिकार्ड और भूमि का भूमिहीन मजदूरों और सीमांत किसानों के बीच पुनर्वितरण यह सब बातें लापरवाही भरीं और उत्साहहीन रहेंगी।
भूमि उच्च सीमा की धीमी प्रगति आंशिक रूप से मुकदमेबाजी से समझी जा सकती है। उच्च सीमा कानूनों के तहत अधिशेष घोषित क्षेत्र का 16 लाख एकड़ (या 38 फीसदी) मुकदमेबाजी के तहत था जिस में 5 लाख प्रकरणों के साथ आंध्र प्रदेश प्रथम क्रमांक पर था उसके बाद पश्चिम बंगाल और उसके बाद कर्नाटक का क्रमांक था। हालाँकि, मुकदमेबाजी एक बाधा कारक रहा है, इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं कि जो रिट याचिकाओं से प्रभावित नहीं ऐसे हजारों एकड़ की छानबीन क्यों नहीं की गई है।
10.0 हदबंदी कानूनों का कार्यान्वयन
उच्च सीमा कानूनों को लागू करने के लिए, गांव में विभिन्न व्यक्तियों के परिवारों द्वारा स्वामित्व में भूमि का एक सर्वेक्षण पूरा करना आवश्यक है। भूमि का विभाजन, उच्च सीमा कानून से बचने के लिए स्वैच्छिक समर्पण या मजबूर निष्कासन जैसी समस्याओं का अध्ययन करने के लिए भूमि के स्वामित्व का एक ऐतिहासिक विश्लेषण करने के लिए गांवों में बड़े जमींदारों की पहचान करना और प्रत्येक परिवार के लिए वंशावली़ तैयार करना प्रासंगिक होगा। उच्च सीमा कानून की शुरूआत से पहले स्वामित्व में रखी गई भूमि की राशि का पता करने और वह परिवार के सदस्यों के बीच किस तरह से बांटी गई थी, यह समझने में इससे सरकार को मदद मिलेगी। कभी कभी सरकारी अभिलेखों से समय के साथ भूमि के स्वामित्व के आवंटन को समझना बहुत मुश्किल है। विभिन्न कौशलपूर्ण उपकरणों के द्वारा भूमि मालिक स्वामित्व छिपाने या गुप्त स्थानान्तरण करने की कोशिश करते हैं। उदहारण के लिए, भूमि मालिक भूमि को बगीचों, गन्ना वृक्षारोपण, टैंक मत्स्य पालन, आदि तरह छूट दी गई श्रेणियों के तहत पुनः वर्गीकृत करते हैं। इसी प्रकार, छूट पाने के लिए फर्जी धर्मार्थ धार्मिक ट्रस्ट निर्माण किये जाते हैं। इन सब दिखावे और गुप्त कार्रवाई के लिए, जमींदार दीवानी अदालतों की मुहर प्राप्त करने में सक्षम हैं। अभिजात्य वर्ग के साथ मिलीभगत करके सिविल अदालतों द्वारा की गई भूलों को ठीक करने हेतु, अधिकार के अभिलेख में परिणामी सुधार लाने के लिए हाजिर सर्वेक्षण उपयुक्त होगा। पहले से न्यायाधिकरण/न्यायालय द्वारा तय मामलों को दोबारा खोलने में सक्षम करने के लिए भूमि सुधार कानून में प्रावधान भी होना चाहिए।
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