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भारतीय अर्थव्यवस्था - राष्ट्रीय आय आकलन
1.0 प्रस्तावना
भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था के एक कल्याणकारी राज्य मॉडल में, समाज के समतावादी स्वरुप को हासिल करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र (सरकारी स्वामित्व) के व्यावसायिक उद्यम और निजी क्षेत्र साथ-साथ विद्यमान रहते हैं। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से ही, भारत की अर्थव्यवस्था का विकास दोहरे उद्देश्यों के विकास से निर्देशित रहा है। ये उद्देश्य हैंः
- अर्थव्यवस्था का तीव्र गति से विकास यह सुनिश्चित करते हुए कि वह तकनीकी रूप से प्रगतिशील बन सके, और इसे लोकतांत्रिक तरीकों से हासिल किया जा सके और;
- एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था तैयार करना, जो न्याय पर आधारित हो और देश के प्रत्येक नागरिक को सामान अवसर प्रदान करती हो।
भारत एक संघीय अर्थव्यवस्था है। इसमें केंद्र में वित्तीय स्वतंत्रता और पर्याप्तता के साथ मजबूत शक्तियां निहित हैं, इस प्रकार यह एक संघीय वित्त प्रणाली बन जाती है। धन, मुद्रा, बैंकिंग और अनन्य और उच्च उत्पादकता वाले राजस्व के अन्य स्रोत केंद्र के क्षेत्राधिकार में आते हैं। समवर्ती कराधान से बचा जाता है और कुशल वित्तीय शक्तियां केंद्र और राज्यों की सरकारों में निहित होती हैं।
आज भी, भारतीय अर्थव्यवस्था एक ठेठ अर्ध-विकसित अर्थव्यवस्था के लक्षण दिखाती है।
ये हैंः एक-तिहाई से अधिक जनसंख्या का गरीबी रेखा से नीचे होना, अत्यल्प प्रति व्यक्ति आय, निम्न जीवन प्रत्याशा, कृषि का अर्थव्यस्था का मुख्य व्यवसाय होना, तीव्र जनसंख्या वृद्धि, पोशण हीनता, उच्च मृत्यु दर, आदि।
2.0 राष्ट्रीय आय की पारंपरिक परिभाषाएँ
बीते वर्षों के दौरान अनेक अर्थशास्त्रियों ने राष्ट्रीय आय, इसके विभिन्न आयामों और उपयोगों को परिभाषित करने का प्रयास किया है और इसके आकलन की विधियां सुझाई हैं। इनमें से जो दो मूलभूत विधियां विकसित हुई हैं वे हैं आय की विधि और व्यय की विधि। राष्ट्रीय आय महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नानुसार हैंः
मार्शलः ‘‘किसी देश के प्राकृतिक संसाधनों पर कार्य करते हुए देश का श्रम और पूँजी प्रति वर्ष कुछ विशिष्ट निवल कुल वस्तुओं, भौतिक और अभौतिक, जिनमें सभी प्रकार की सेवाएं भी शामिल हैं, का उत्पादन करते हैं। यह सही मायने में उस देश की निवल राष्ट्रीय आय या राजस्व या राष्ट्रीय लाभांश है।‘‘
पीगूः ‘‘राष्ट्रीय आय समुदाय की वह वस्तुनिष्ठ आय का वह भाग है, जिसमें निश्चित रूप से विदेश से प्राप्त आय भी शामिल है, जिसकी गणना पैसे में की जा सकती है।‘‘
फिशरः ‘‘राष्ट्रीय लाभांश या आय में केवल वे सेवाएं शामिल हैं जैसे वे अंतिम उपभोक्ताओं को प्राप्त होती हैं, चाहे उनके पदार्थ पर्यावरण से या उनके मानवी पर्यावरण से। इस प्रकार, मेरे लिए इस वर्ष बनाया गया एक पियानो या एक ओवर-कोट इस वर्ष की आय में शामिल नहीं है, बल्कि यह पूँजी में योगदान या वृद्धि है। इन वस्तुओं द्वारा इस वर्ष के दौरान मुझे प्रदान की गई सेवाएं ही आय हैं।‘‘
2.1 राष्ट्रीय आय के प्रति कीन्स का दृष्टिकोण (Keynesian approach)
कीन्स का मॉडल यह मानता है कि सकल आपूर्ति वक्र उत्पादन के पूर्ण रोजगार के स्तर तक पूरी तरह से लोचदार है जिसके बाद यह पूर्ण रूप से बेलोच हो जाता है। अतः पूर्ण रोजगार तक मूल्य स्तर पूरी तरह से आपूर्ति वक्र की ऊँचाई द्वारा निर्धारित होगा। अतः मूल्य चर को कम ध्यान प्राप्त होता है जबकि संपूर्ण ध्यान आय के संतुलन स्तर के निर्धारण पर केंद्रित हो जाता है, जो केवल सकल मांग द्वारा निर्धारित होती है।
द्विक्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में सकल मांग
इसके तत्व निम्नानुसार हैंः
- मूल्य स्थिर या अपरिवर्तनशील हैं
- एक निश्चित मूल्य स्तर पर फर्में उस मूल्य स्तर पर कितना भी उत्पादन बेचने के लिए तैयार हैं
- अल्पकालिक सकल आपूर्ति वक्र पूर्णतः लोचदार या समतल है
- यह माना गया है कि निवेश स्वायत्त है और इस प्रकार वह मूल्य स्तर से स्वतंत्र है
- अर्थव्यवस्था में केवल दो ही क्षेत्र विद्यमान हैं, परिवार (घरबार) और फर्में
अर्थव्यवस्था में मांग की गई कुल वस्तुओं को सकल मांग (AD = Aggregate Demand) कहते हैं। सकल मांग फलन को निम्नानुसार व्यक्त किया जा सकता है
AD = C + I जहां C = उपभोग वस्तुओं की सकल मांग है, I = निवेश वस्तुओं की सकल मांग है
द्विक्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में आय या उत्पादन के संतुलन का निर्धारण
अत्यंत प्राथमिक दृष्टि से एक अर्थव्यवस्था को तब संतुलन की स्थिति में कहा जा सकता है जब फर्मों की उत्पादन योजनाओं और परिवारों की व्यय योजनाओं की पूर्ति होती है। विश्लेषण की मान्यताएं निम्नानुसार हैंः
- अर्थव्यवस्था में केवल दो ही क्षेत्र हैं। वहां कोई सरकारी क्षेत्र या विदेशी क्षेत्र नहीं है।
- उत्पादन के सभी घटक परिवारों के स्वामित्व में हैं जो एक आय अर्जित करने के लिए घटक सेवाओं का विक्रय करते हैं। इस आय के एक भाग से वे वस्तुएं और सेवाएं क्रय करते हैं और बाकी आय की बचत करते हैं।
- चूंकि अर्थव्यवस्था में सरकार कहीं भी नहीं है अतः अर्थव्यवस्था में कोई कर, अनुवृत्तियां और सरकारी व्यय नहीं हैं।
- चूंकि अर्थव्यवस्था में विदेशी क्षेत्र नहीं है अतः अर्थव्यवस्था में निर्यात और आयात नहीं हैं और न ही बाह्य अंतर्वाह या बहिर्वाह हैं।
- जहां तक फर्मों का प्रश्न है, तो अर्थव्यवस्था में कोई अवितरित लाभ नहीं हैं।
- सभी मूल्य स्थिर हैं और उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
- प्रौद्योगिकी और पूँजी की आपूर्ति दी गई है।
2.2 कीन्स ने राष्ट्रीय आय के लिए तीन दृष्टिकोण सुझाये हैंः
आय-व्यय का दृष्टिकोणः इस दृष्टिकोण के अनुसार, राष्ट्रीय आय उपभोग और निवेश वस्तुओं पर किये गए कुल व्यय के बराबर है।
नियोग आय दृष्टिकोणः इस दृष्टिकोण के अनुसार, राष्ट्रीय आय की गणना उत्पादन के सभी कारकों द्वारा प्राप्त की गई कुल आय के रूप में की जाती है।
विक्रय से प्राप्त आय ऋण लागत दृष्टिकोणः इस दृष्टिकोण के अनुसार राष्ट्रीय आय को कुल विक्रय से प्राप्त आय ऋण लागत के रूप में परिभाषित किया जाता है।
2.2 राष्ट्रीय आय का आधुनिक दृष्टिकोण
आधुनिक अर्थशास्त्री राष्ट्रीय आय के तीन पहलुओं को मान्यता देते हैं और इन तीनों पहलुओं की मूलभूत पहचान के बीच अंतर पर बल देते हैं। ये तीन पहलू हैंः
- उत्पाद पहलू
- आय पहलू, और
- व्यय पहलू
संयुक्त राष्ट्र के एक प्रकाशन में राष्ट्रीय आय को तीन प्रकार से परिभाषित किया गया हैः
- ‘‘शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद‘‘ के रूप में एक विशिष्ट समयावधि के दौरान हुई आर्थिक गतिविधि से इसमें जोडे गए शुद्ध मूल्य का कुल योग, जिसमें विदेशों से प्राप्त शुद्ध आय भी शामिल है।
- एक विशिष्ट समयावधि के दौरान उत्पादन के कारकों द्वारा प्राप्त कुल राष्ट्रीय आय के रूप में वितरणात्मक हिस्सों का कुल योग (मजदूरी, लाभ, ब्याज, किराया इत्यादि के रूप में)
- वस्तुओं और सेवाओं के अंतिम उपभोग पर किये गए व्यय के कुल योग के रूप में ‘‘शुद्ध राष्ट्रीय व्यय‘‘, जिसमें घरेलू और विदेशी निवेश भी शामिल हैं।
आधुनिक अर्थशास्त्री राष्ट्रीय आय को उत्पादन, आय और व्यय के प्रवाह के रूप में मानते हैं। जब कंपनियों द्वारा वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, उत्पादन कारकों को मजदूरी, लाभ, ब्याज, किराया, इत्यादि के रूप में आय का भुगतान किया जाता है। ये आय की प्राप्तियां परिवारों द्वारा वस्तुओं के उपभोग के लिए व्यय की जाती हैं और उनकी बचतों को उत्पादकों द्वारा निवेश व्यय के लिए एकत्रित किया जाता है।
इस प्रकार, उत्पादन, आय और व्यय का एक चक्राकार प्रवाह होता है। निश्चित रूप से आय, उत्पादन और व्यय के प्रवाह हमेशा समय की प्रति इकाई बराबर होते हैं। इस प्रकार से एक तिहरी पहचान होती हैः उत्पादन बराबर आय बराबर व्यय (Output = Income = Expenditure)
2.3 राष्ट्रीय आय की गणना के लिए उपयोग की जाने वाली तीन विधियां
राष्ट्रीय आय की गणना के लिए सामान्य तौर पर उपयोग की जाने वाली तीन तकनीकें हैं (I) उत्पाद विधि, (II) आय विधि और (III) व्यय विधि
- उत्पाद विधिः इस विधि के तहत राष्ट्रीय आय की गणना उत्पादन चरण पर की जाती है। एक वर्ष के दौरान अर्थव्यवस्था में उत्पादित कुल उत्पादन के मूल्य की गणना की जाती है। उत्पाद विधि के माध्यम से राष्ट्रीय आय की गणना में केवल अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के बाजार मूल्य को ही ध्यान में रखा जाता है। मध्यवर्ती वस्तुओं के मूल्य को इसमें शामिल नहीं किया जाता। मध्यवर्ती वस्तुओं के मूल्यों को शामिल करने का परिणाम दोहरी गणना में होता है जिसका परिणाम राष्ट्रीय आय के अतिप्राक्कलन में होता है। ब्रेड (अंतिम उत्पाद) के मूल्य में गेहूं, आटे और चीनी (मध्यवर्ती उत्पादों) का मूल्य पहले से ही शामिल होता है क्योंकि इन लागतों का भुगतान उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान किया जाता है।
- आय विधिः आय विधि के तहत भूमि, श्रम, पूँजी और संगठन जैसे उत्पादन के साधनों द्वारा अर्जित आय का कुल योग किया जाता है और इन्हें ही राष्ट्रीय आय की गणना में शामिल किया जाता है। इस विधि को वितरण हिस्सेदारी विधि या साधन भुगतान विधि भी कहा जाता है। इस विधि में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में प्राप्त कुल आय को शामिल किया जाता है। दूसरे शब्दों में, किराया, मजदूरी, ब्याज और लाभ मिलकर राष्ट्रीय आय के बराबर होंगे। हालांकि हस्तांतरण भुगतान इस गणना से बाहर रखे जाते हैं।
- व्यय विधिः व्यय विधि में वर्ष के दौरान अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद पर किये गए कुल अंतिम व्यय को ही ध्यान में रखा जाता है। यह विधि इस मान्यता पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था में कुल आय और कुल व्यय बराबर होते हैं। दूसरे शब्दों में, व्यय विधि सकल घरेलू उत्पाद के निपटान की गणना करती है। इस विधि को श्उपभोग एवं निवेश विधिश् भी कहा जाता है। अंतिम व्यय अंतिम उत्पाद पर किया गया व्यय होता है। अर्थव्यवस्था में उत्पादित कुल आय का उपयोग या तो उपभोग वस्तुओं या निवेश वस्तुओं के क्रय के लिए किया जाता है। अतः कुल अंतिम व्यय या राष्ट्रीय व्यय (L) उपभोग वस्तुओं (C) और निवेश वस्तुओं (I) पर किये गए अंतिम व्यय के योग के बराबर होता है।
प्रतीकात्मक रूप से, Y = C + I
अंतिम उपभोग व्यय में शामिल हैं - (ए) व्यक्तिगत उपभोग व्यय, और (बी) सरकार का अंतिम उपभोग व्यय (सरकार द्वारा क्रय की गई वस्तुओं और सेवाओं पर)
अंतिम निवेश व्यय में शामिल हैं - (ए) सकल घरेलू निजी निवेश, और (बी) शुद्ध विदेशी निवेश या वस्तुओं एवं सेवाओं का शुद्ध निर्यात।
2.4 उपयोग किये गए विभिन्न उपाय
बाजार मूल्य पर सकल घरेलू उत्पाद (GDP at MP): बाजार मूल्य पर सकल घरेलू उत्पाद किसी वर्ष के दौरान देश की घरेलू प्रादेशिक सीमाओं में उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य को कहते हैं। सकल घरेलू उत्पाद सभी उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं को उनके मूल्यों से गुणा करके प्राप्त किया जाता है।
प्रतीकात्मक रूप से, जीडीपी = पी गुणा क्यू (GDP = P × Q)
जहां, GDP at MP बाजार मूल्य पर सकल घरेलू उत्पाद है, पी बाजार मूल्य है और क्यू अंतिम वस्तुएं और सेवाएं हैं।
सकल घरेलू उत्पाद में तीन प्रकार की अंतिम वस्तुओं और सेवाओं को शामिल किया जाता हैः
- लोगों की तत्काल आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए उत्पादित उपभोक्ता वस्तुएं एवं सेवाएं
- पूंजीगत वस्तुएं जिनमें पूँजी निर्माण, आवासीय निर्माण, और तैयार माल और अपूर्ण माल शामिल है, और
- सरकार द्वारा उत्पादित वस्तुएं और सेवाएं।
बाजार मूल्य पर सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP at MP): बाजार मूल्य पर सकल राष्ट्रीय उत्पाद किसी वर्ष के दौरान देश में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मौद्रिक मूल्य और विदेश से प्राप्त शुद्ध घटक आय का योग है। जीएनपी, जीडीपी की तुलना में अधिक व्यापक अवधारणा है। जीएनपी में जीडीपी और विदेशों से प्राप्त शुद्ध घटक आय शामिल होते हैं।
प्रतीकात्मक रूप से, बाज़ार मूल्य पर जीडीपी = बाज़ार मूल्य पर जीडीपी + विदेशों से प्राप्त शुद्ध कारक आय
विदेशों से प्राप्त शुद्ध घटक आय हमारे विदेशों में रहने वाले नागरिकों द्वारा अर्जित घटक आय और विदेशियों द्वारा हमारे देश से अर्जित घटक आय के बीच का अंतर होती है।
बाजार मूल्य पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (NNP at MP): बाजार मूल्य पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद बाजार मूल्य पर सकल घरेलू उत्पाद ऋण स्थाई पूँजी पर मूल्य हृस या स्थाई पूँजी का उपभोग होता है। किसी वर्ष के सकल राष्ट्रीय उत्पाद के मूल्य से स्थाई पूँजी पर मूल्य ह््रास के मूल्य को घटाने से हमें शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद का मूल्य प्राप्त होता है।
प्रतीकात्मक रूप से, बाज़ार मूल्य पर एनएनपी = बाज़ार मूल्य पर जीएनपी - मूल्य हृस
बाजार मूल्य पर शुद्ध घरेलू उत्पाद (NDP at MP) : बाजार मूल्य पर शुद्ध घरेलू उत्पाद बाजार मूल्य पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद और विदेशों से प्राप्त शुद्ध घटक आय के अंतर को कहते हैं।
प्रतीकात्मक रूप से, बाज़ार मूल्य पर एनडीपी = बाज़ार मूल्य पर एनएनपी - विदेशों से प्राप्त शुद्ध घटक आय
घटक लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद (NDP at FC): घटक लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद या घरेलू आय वह आय होती है जो देश की प्रादेशिक सीमाओं के भीतर उत्पादन के घटकों द्वारा मजदूरी, लाभ, किराया, ब्याज इत्यादि के रूप में अर्जित की जाती है।
घटक लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद या (एफसी पर एनडीपी) घरेलू आय = निविष्टि किराये के साथ किराया + कर्मचारियों का प्रतिदेय या मजदूरी और वेतन + ब्याज + लाभांश + कंपनियों के संरक्षित कोष या निगमित बचतें + निगमित या अन्य प्रत्यक्ष कर + स्वरोजगारों की मिश्रित आय + सार्वजनिक उपक्रमों के लाभ + सरकार की संपत्ति आय + गैर-विभागीय उपक्रमों की बचतें।
घटक लागत पर सकल घरेलू उत्पाद (एफसी पर जीडीपी): घटक लागत पर सकल घरेलू उत्पाद मूल्य हृस या स्थाई पूँजी के उपभोग को घटक लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद को जोड़कर प्राप्त किया जाता है।
प्रतीकात्मक रूप से, घटक लागत पर जीडीपी = घटक लागत पर एनडीपी + मूल्य हृस
घटक लागत पर सकल राष्ट्रीय उत्पाद (एफसी पर जीएनपी): घटक लागत पर सकल राष्ट्रीय उत्पाद विदेशों से प्राप्त शुद्ध घटक आय को घटक लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद को जोड़कर प्राप्त किया जाता है।
प्रतीकात्मक रूप से, घटक लागत पर जीएनपी = घटक लागत पर जीडीपी + विदेशों से प्राप्त शुद्ध घटक आय
घटक लागत पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद या राष्ट्रीय आय (NNP at FC, or NI): घटक लागत पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद या राष्ट्रीय आय मजदूरी, लाभ, किराया, ब्याज इत्यादि के रूप में उत्पादन के सभी घटकों का कुल अर्जन और विदेशों से प्राप्त शुद्ध घटक आय को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, यदि विदेशों से प्राप्त शुद्ध घटक आय को घटक लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद के साथ जोड दिया जाए तो हमें घटक लागत पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद प्राप्त होता है।
प्रतीकात्मक रूप से, घटक लागत पर एनएनपी या एनआई = घटक लागत पर एनडीपी $ विदेशों से प्राप्त शुद्ध आय
(घटक लागत पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद या राष्ट्रीय आय की गणना घटक लागत पर राष्ट्रीय उत्पाद से मूल्य ह््रास को घटाने से भी की जा सकती है)
प्रतीकात्मक रूप से, घटक लागत पर एनएनपी = घटक लागत पर जीएनपी - मूल्य हृस
प्रति व्यक्ति आयः प्रति व्यक्ति आय का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अर्जित औसत आय। प्रति व्यक्ति आय का संबंध विशिष्ट वर्ष के दौरा किसी देश के सामान्य निवासियों द्वारा अर्जित की गई औसत आय से होता है। यह राष्ट्रीय आय को कुल जनसंख्या से भाग देने से प्राप्त की जाती है।
व्यक्तिगत आयः व्यक्तिगत क्षेत्र द्वारा अर्जित की गई आय अर्थात परिवारों और अनिगमित व्यापार की आय व्यक्तिगत आय है। व्यक्तिगत आय में हस्तांतरण भुगतान (transfer income) शामिल होते हैं जैसे कल्याणकारी भुगतान, पेंशन, बेरोजगारी भत्ता इत्यादि।
प्रयोज्य व्यक्तिगत आय (Disposable Personal Income): व्यक्तिगत आय का वह भाग जिसे परिवार अपनी मर्जी से जैसे चाहें वैसे व्यय कर सकते हैं उसे प्रयोज्य व्यक्तिगत आय कहते हैं। इसका संबंध परिवारों की क्रय शक्ति से होता है।
प्रयोज्य आय = व्यक्तिगत आय - प्रत्यक्ष कर
प्रयोज्य आय की संपूर्ण राशि उपभोग पर व्यय नहीं होती बल्कि उसके एक भाग की बचत भी की जाती है। इस प्रकार,
प्रयोज्य आय = उपभोग व्यय + बचत।
3.0 आधार वर्ष
आधार वर्षः विभिन्न वर्षों के आर्थिक मूलतत्वों की उचित तुलना को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है कि एक विशिष्ट वर्ष को संदर्भ वर्ष के रूप में निर्धारित किया जाए। आधार वर्ष वह संदर्भ वर्ष होता है जिसके संदर्भ में आने वाले और बीते हुए वर्षों की जीडीपी संख्याओं की गणना की जाती है। यह मुख्य रूप से उस विशिष्ट अर्थव्यवस्था में उपभोग और उत्पादन की प्रवृत्तियों में होने वाले परिवर्तन के कारण होता है। आधार वर्ष का संदर्भ आमतौर पर तब लिया जाता है जब किसी विशिष्ट वर्ष की जीडीपी संख्याओं पर चर्चा की जाती है।
आधार वर्ष में परिवर्तन करने की आवश्यकता क्यों हुईः राष्ट्रीय लेखा में नियमित रूप से आधार वर्ष परिवर्तित करने का कारण है अर्थव्यवस्था में हुए संरचनात्मक परिवर्तनों को ध्यान में रखना और सकल घरेलू उत्पाद, उपभोग व्यय, पूंजी निर्माण इत्यादि जैसे स्थूल समुच्चयों के माध्यम से अर्थव्यवस्था का सही चित्र प्रस्तुत करना। सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.), राष्ट्रीय आय, उपभोग व्यय, पूंजी निर्माण इत्यादि जैसे स्थूल आर्थिक समुच्चयों के माध्यम से वास्तविक अर्थों में अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन का परीक्षण करने के लिए इन समुच्चयों के अनुमान चयनित वर्ष के मूल्यों पर तैयार किये जाते हैं, जिसे आधार वर्ष कहा जाता है। वर्तमान वर्ष के विद्यमान मूल्यों के अनुमानों को ‘‘वर्तमान मूल्यों पर‘‘ कहा जाता है, जबकि आधार वर्ष पर तैयार किये गए अनुमानों को ‘‘स्थिर मूल्यों पर‘‘ कहा जाता है। विभिन्न वर्षों की स्थिर मूल्यों पर अनुमानों की तुलना, जिसका अर्थ है ‘‘वास्तविक अर्थों में‘‘, वास्तविक वृद्धि की गणना प्रदान करती है।
सर्व प्रथम राष्ट्रीय आय के आकलन जो वर्ष 1956 में प्रकाशित किये गए थे, उनके लिए आधार वर्ष वित्त वर्ष 1949 को लिया गया था। तब से अब तक इनमें सात बार परिवर्तन किया गया है। राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी श्रृंखला के आधार वर्ष अगस्त 1967 में 1948-49 से परिवर्तित करके वर्ष 1961-61 किये गए; जनवरी 1978 में वर्ष 1960-61 से परिवर्तित करके वर्ष 1970-71 किये गए य फरवरी 1988 में वर्ष 1970-71 से परिवर्तित करके वर्ष 1980-81 किये गए य और फरवरी 1999 में वर्ष 1980-81 से परिवर्तित करके वर्ष 1993-94 किये गए। उसके बाद वर्ष 2006 में इन्हें परिवर्तित करके वर्ष 2004-05 किया गया। अंतिम बार जब इनमें परिवर्तन किया गया वह था वर्ष 2015 में किया गया परिवर्तन जिसमें राष्ट्रीय लेखा का आधार वर्ष 2004-05 से परिवर्तित करके इसे वर्ष 2011-12 किया गया।
वर्ष 2015 में सूचना प्रौद्योगिकी, ई-वाणिज्य, मोबाइल टेलीफोनी जैसे अनेक क्षेत्रों ने हमारी अर्थव्यवस्था में प्रमुख योगदान दिया है। वर्ष 2004-05 में उनकी इतनी महत्वपूर्ण भूमिका नहीं थी। अतः यदि आधार वर्ष को परिवर्तित नहीं किया जाता, तो भारत गलत जीडीपी आंकडे़ं दिखाता नजर आता क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों को प्रचालित करने वाली अधिकांश आर्थिक गतिविधियों का वर्ष 2004-05 में प्रतिनिधित्व नहीं था। अतः भारत सरकार ने आधार वर्ष को परिवर्तित करके वर्ष 2011-12 करने का निर्णय लिया। इस परिवर्तित आधार वर्ष का परिणाम ऐसे सभी क्षेत्रों को महत्त्व प्रदान करने में होगा और चूंकि इन क्षेत्रों से प्राप्त उत्पादन भी जीडीपी में जुडेगा, अतः जीडीपी के अंकों में वृद्धि होगी, जबकि पूर्व में यह स्थिति नहीं थी। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) ने 29 जनवरी 2016 को वर्ष 2014-15 के राष्ट्रीय आय, उपभोग व्यय, बचत और पूँजी निर्माण के पहले संशोधित अनुमान जारी कर दिए हैं।
इसके अतिरिक्त, केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने (आधार वर्ष 2011-12 के साथ) वर्ष 2011-12 से वर्ष 2013-14 तक के दूसरे संशोधित अनुमान भी जारी किये हैं।
4.0 सांकेतिक और वास्तविक जीडीपी
इन दो दृष्टिकोण के बीच मूलभूत अंतर या है कि सांकेतिक जीडीपी की गणना में मुद्रास्फीति के प्रभाव को ध्यान में नहीं रखा जाता जबकि वास्तविक जीडीपी की गणना मुद्रास्फीति के प्रभाव का समायोजन करने के बाद की जाती है। दूसरे शब्दों में, सांकेतिक जीडीपी वर्तमान मूल्यों पर गणना किया गया कुल उत्पादन होता है जबकि वास्तविक जीडीपी की गणना आधार वर्ष के मूल्यों पर की जाती है।
जहां P से तात्पर्य मूल्य है, Q मात्रा है, और T संबंधित वर्ष को इंगित करता है (आमतौर पर वर्तमान वर्ष)
हालांकि वर्ष 2008 के 0.5 खरब डॉलर जीडीपी की वर्ष 1990 के 100 अरब डॉलर जीडीपी से प्रत्यक्ष तुलना करना भ्रामक हो सकता है। यह मुद्रास्फीति के कारण होता है। वर्ष 1990 में एक डॉलर का मूल्य वर्ष 2008 के डॉलर के मूल्य से कहीं अधिक था। दूसरे शब्दों में, वर्ष 1990 की कीमतें वर्ष 2008 की कीमतों से भिन्न थीं। अतः, इतनी विशाल अवधि पर आर्थिक उत्पादन की तुलना करने के लिए, जीडीपी की गणना एक विशिष्ट आधार वर्ष की कीमतों का उपयोग करके की जानी चाहिए।
कीमत परिवर्तन (मुद्रास्फीति या अपस्फीति) के लिए समायोजित किये गए सांकेतिक जीडीपी को वास्तविक जीडीपी कहा जाता है। इसकी गणना निम्न सूत्र का उपयोग करके की जा सकती हैः
वास्तविक जीडीपी = å pbqt जहां बी से तात्पर्य आधार वर्ष है।
दो वर्षों के वास्तविक जीडीपी की प्रभावी तुलना करने के लिए, हम एक आधार वर्ष का उपयोग करके निर्देशिका का निर्माण कर सकते हैं।
हम किसी देश में एक विशिष्ट वर्ष के दौरान विनिर्मित वस्तुओं और सेवाओं के कुल मूल्य का निर्धारण करने के लिए सांकेतिक जीडीपी के आंकड़ों का उपयोग करते हैं। हालांकि जब हमें आर्थिक वृद्धि के रुझानों के अध्ययन के लिए किसी एक वर्ष के जीडीपी की तुलना पिछले वर्षों से करनी होती है, तो वास्तविक जीडीपी का उपयोग किया जाता है।
परिभाषा के अनुसार (चूंकि वास्तविक जीडीपी की गणना एक दिए गए ‘‘आधार वर्ष‘‘ की कीमतों का उपयोग करके की जाती है) वास्तविक जीडीपी का स्वयं कोई अर्थ तब तक नहीं होता जब तक कि इसकी तुलना किसी भिन्न वर्ष के साथ नहीं की जाती।
यदि विभिन्न वर्षों की वास्तविक जीडीपी के समुच्चय की गणना की जाती है, तो प्रत्येक गणना अपने स्वयं के वर्ष की मात्रा का उपयोग करती है, परंतु सभी गणनाएं समान आधार वर्ष की कीमतों का उपयोग करती हैं। अतः उन वास्तविक जीडीपी के अंतर केवल परिमाण के अंतरों को प्रतिबिंबित करते हैं।
जीडीपी अपस्फीतिकारक नामक एक निर्देशिका प्रत्येक वर्ष के सांकेतिक जीजीपी को वास्तविक जीडीपी से भाग देकर प्राप्त की जा सकती है। यह अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीति या अपस्फीति के समग्र स्तर का संकेत प्रदान करता है।
वर्ष t के लिए t = GDPt / Real GDPt
4.1 जीडीपी अपस्फीतिकारक
जीडीपी अपस्फीतिकारक की अवधारणा का विकास अर्थशास्त्रियों द्वारा वास्तविक जीडीपी और सांकेतिक जीडीपी के बीच तुलना को सुविधाजनक बनाने के लिए किया गया है। जीडीपी अपस्फीतिकारक का अर्थ है एक दिए गए वर्ष के दौरान की सांकेतिक जीडीपी को उसी दिए गए वर्ष की वास्तविक जीडीपी से भाग देना और फिर उसे 100 से गुणा करना।
जीडीपी अपस्फीतिकारक को अंतर्निहित मूल्य अपस्फीतिकारक भी कहा जाता है और यह मुद्रास्फीति की माप है। आसान शब्दों में, यह वर्तमान कीमतों पर एक विशिष्ट वर्ष के दौरान अर्थव्यवस्था द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य और किसी अन्य संदर्भ वर्ष (आधार) के दौरान प्रचलित कीमतों का अनुपात है। यह अनुपात मूल रूप से दर्शाता कि संवर्धित उत्पादन के बजाय उच्च कीमतों के कारण किसी अर्थव्यवस्था में जीडीपी में किस हद तक वृद्धि हुई है या सकल मूल्य संवर्धन हुआ है। चूंकि अपस्फीतिकारक थोक मूल्य सूचकांक या उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की सीमित वस्तु टोकरी के बजाय अर्थव्यवस्था में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की संपूर्ण श्रृंखला को समाविष्ट करता है अतः इसे मुद्रास्फीति की गणना की दृष्टि से एक अधिक व्यापक पैमाना माना जाता है।
भारत में जीडीपी अपस्फीतिकारक में वर्ष 2014 के 114.40 निर्देशिका अंकों से वर्ष 2015 में 117.8 निर्देशिका अंकों की वृद्धि हुई। भारत में वर्ष 2005 से 2015 तक जीडीपी अपस्फीतिकारक का औसत 127.69 निर्देशिका अंक रहा है, जो वर्ष 2013 में अपने सर्वकालिक उच्च स्तर 171.30 निर्देशिका अंक तक पहुंचा था, जबकि वर्ष 2005 में यह अपने सर्वकालिक न्यूनतम स्तर 100 निर्देशिका अंकों तक पहुंचा था। भारत में जीडीपी अपस्फीतिकारक सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी किया जाता है।
5.0 भारत में राष्ट्रीय आय का मापन
ऐतिहासिक पृष्ठभूमिः योजना और नीति की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए राष्ट्रीय आय और संबंधित समुच्चय के आधिकारिक अनुमानों का विकास स्वतंत्रता के बाद शुरू हुआ। नियमित आधार पर राष्ट्रीय आय के अनुमान प्रदान करने की आवश्यकता को समझते हुए भारत सरकार ने 1949 में प्रोफेसर पी.सी. महालनोबिस की अध्यक्षता में ‘‘राष्ट्रीय आय समिति‘‘ नामक एक उच्च शक्ति विशेषज्ञ समिति का प्रथम बार गठन किया।
समिति द्वारा राष्ट्रीय आय और उसके लिए अपनायी गई पद्धितियों की विस्तृत जानकारी समिति द्वारा 1951 और 1954 में प्रकाशित की गई क्रमशः पहली और दूसरी रिपोर्ट में दी गई। राष्ट्रीय आय समिति द्वारा सिफारिश की गई पद्धितियों को अपनाते हुए केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने 1948-49 को आधार वर्ष के रूप में लेकर और स्थिर मूल्यों पर राष्ट्रीय आय के पहले आधिकारिक अनुमान तैयार किये।
सीएसओ ने ये अनुमान स्थिर (1948-49) मूल्यों पर और वर्तमान मूल्यों पर तदनुरूप अनुमान और सार्वजनिक प्राधिकरणों के लेखा ‘‘राष्ट्रीय आय के अनुमान’’ नामक प्रकाशन में 1956 में प्रकाशित किये। अनेक वर्षों के दौरान प्राथमिक आंकड़ों की उपलब्धता में सुधार होने के साथ सीएसओ द्वारा राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी की पद्धतियों की व्यापक समीक्षा की जाती रही है, ताकि आंकड़ों को अद्यतन किया जा सके और आधार वर्ष को और नजदीक के वर्ष में परिवर्तित किया जा सके। इसके परिणामस्वरूप, राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी की आधार वर्ष श्रृंखलाएँ निम्नानुसार परिवर्तित की गईंः 1948-49 से 1960-61 अगस्त 1967 में, 1960 61 से 1970-71 जनवरी 1978 में, 1970-71 से 1980-81 फरवरी 1988 में, 1980-81 से 1993-94 फरवरी 1999 में, 1993-94 से 1999-2000 जनवरी 2006 में और 1999-2000 से 2004-05 29 जनवरी 2010 को। राष्ट्रीय लेखा आधार वर्ष में परिवर्तन करने के साथ ही सीएसओ गतिविधियों को समाविष्ट करने की दृष्टि से, नवीनतम ड़ेटा समुच्चय की दृष्टि से और नवीनतम अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देशों की दृष्टि से राष्ट्रीय लेखा श्रृंखला के संकलन में भी सुधार करता रहा है।
6.0 आय का वृत्ताकार प्रवाह (Circular Flow of Income)
आय का वृत्ताकार प्रवाह वह सिद्धांत है जो संपूर्ण अर्थव्यवस्था में व्यय और आय की गतिकी का वर्णन करता है। प्रमुख विनिमयों को एक बंद परिपथ में धन, वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय के प्रवाह के रूप में प्रदर्शित किया जाता है और यह मूल्य में तदनुरूप होते हैं परंतु एक दूसरे से विपरीत दिशा में चलते हैं। यह सिद्धांत राष्ट्रीय आय और स्थूल अर्थशास्त्र के मापन के आधार का निर्माण करता है। अर्थव्यवस्था के प्रत्येक लेन-देन में एक क्रेता और विक्रेता शामिल होता है। परिवार उत्पादित वस्तुओं के क्रय के लिए धनराशि व्यय करते हैं।
इस प्रकार, क्रेताओं की ओर से धन की मांग का प्रवाह आता है। दूसरे शब्दों में, हमारे यहां व्यय पक्ष का लेन-देन होता है। विक्रेता की ओर धनराशि के भुगतान साधन स्वामियों को किराया, मजदूरी इत्यादि के रूप में जाते हैं। कंपनियां निविष्टि सेवाओं के क्रय के लिए धनराशि का व्यय करती हैं। इस प्रकार, विक्रेता की दृष्टि से हमारे यहां आय पक्ष का लेन-देन होता है। ये दोनों एक ही सिक्के की दो बाजू हैं। इसे आय और व्यय का वृत्ताकार प्रवाह कहा जाता है।
वस्तुएं और सेवाएं कंपनियों से इन वस्तुओं और सेवाओं के लिए धन के भुगतान के बदले उत्पाद बाजार के माध्यम से परिवारों की ओर प्रवाहित होती हैं। परिवार कंपनियों को घटक बाजार के माध्यम से घटक निविष्टियां प्रदान करते हैं। बदले में परिवारों को कंपनियों की ओर से मजदूरी, किराया इत्यादि के रूप में धन का भुगतान प्राप्त होता है। निविष्टि सेवाएं किराये पर लेने के लिए परिवारों को किया गया यह आय का भुगतान कंपनियों की आय के बराबर होना चाहिए। एक द्विक्षेत्र अर्थव्यवस्था में यह आय के वृत्ताकार प्रवाह का सार है जहां कोई सरकारी गतिविधि नहीं है और अथव्यवस्था एक बंद अर्थव्यवस्था है। इनको जोड़ने से हमें मिलता है
Y = C + I
जहां Y का अर्थ है राष्ट्रीय आय, C का अर्थ है निजी उपभोग व्यय और I का अर्थ है निजी निवेश व्यय।
एक त्रिक्षेत्र (बंद) अर्थव्यवस्था में सरकार हस्तक्षेप करती है। यह हस्तक्षेप अधिक व्यय के माध्यम से सामान्य जनता और फर्मों के लिए लाभदायक होता है परंतु सरकार अपने व्यय के वित्तपोषण के लिए उनपर कर अधिरोपित करती है। यदि हम सरकारी गतिविधियों को (कर अधिरोपण, T और व्यय करना, G) तो हमें प्राप्त होता है
Y = C + I + G
परिवारों को निविष्टि सेवाओं के विक्रय के माध्यम से धन के रूप में आय प्राप्त होती है। इस प्राप्ति का एक भाग सरकार को करों के भुगतान के लिए उपयोग किया जाता है। सरकार को परिवारों और फर्मों, दोनों से कर प्राप्त होते हैं। सरकार अपने कर राजस्वों का उपयोग करके व्यय करती है। परिवार वित्तीय बाजार में बचत करते हैं। ये दोनों, बचत और कर, वृत्ताकार प्रवाह में रिसाव निर्माण करते हैं। इस प्रकार, धन आय का वृत्ताकार प्रवाह परिवारों के उपभोग व्यय, व्यापारी फर्मों के निवेश व्यय और सरकार की कर लगाने और व्यय करने की योजना पर निर्भर होता है।
एक चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था को इस मायने में खुली अर्थव्यवस्था कहा जाता है कि देश को अपनी वस्तुओं को बाहर भेजने से अर्थात निर्यात (X) के माध्यम से धनराशि प्राप्त होती है और वह विदेशी वस्तुओं को क्रय करने के लिए धनराशि का व्यय करती है अर्थात आयात (M) दूसरे शब्दों में एक खुली अर्थव्यवस्था में विभिन्न देशों के बीच व्यापार संबंध बनते हैं। (X - Y) को उपरोक्त समीकरण में जोडने से हमें मिलता है
Y = C + I + G + (X – M)
7.0 अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था
2017 और 2018 की शुरुआत में तेजी से वृद्धि के बाद, वैश्विक आर्थिक गतिविधियां 2019 की दूसरी छःमाही में काफी धीमी हो गई, जिसमें कई कारणों ने प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित किया। छाया बैंकिंग पर लगाम लगाने और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ व्यापार तनाव के चलते आवश्यक नियामक संयोजन लागू करने के बाद चीन की वृद्धि में गिरावट आई। उपभोक्ता और व्यापार विश्वास में कमी आने, जर्मनी में नए उत्सर्जन मानकों के लागू होने से बाधित कार उत्पादन, इटली में संप्रभु बाँड उपज फैलाव का संकट गहराने से वहाँ निवेश कम हो जाने और विशेष रूप से उभरते एशिया से, बाहरी मांग के कम रहने के कारण, यूरो क्षेत्र की अर्थव्यवस्था के संवेग में कमी अपेक्षा से अधिक थी। जापान में प्रा.तिक आपदाओं ने अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाई। व्यापार तनाव बढ़ने से व्यापार विश्वास में आई कमी ने पहले 2018 के बसंत ऋतु में कमजोर अर्थव्यवस्थाओं पर तथा बाद के महिनों में उन्नत अर्थव्यवस्थाओं अपना प्रभाव डाला। अमेरिकी फेडरल रिजर्व के अधिक समायोजनकारी मौद्रिक नीति रुख का संकेत देने तथा उससे बाजार के यूएस-चीन व्यापार सौदे के प्रति अधिक आशावादी होने से, 2019 में स्थितियाँ सुधरीं लेकिन उतनी नहीं।
7.1 वैश्विक विकास मध्य-अवधि में संयत होगा, और फिर मामूली रूप से उठाव रहेगा
इन कारणों के परिणामस्वरूप, वैश्विक विकास की दर अब 2020 में 3.6 प्रतिशत पर लौटने से पहले, 2019 में, 2018 की दर 3.6 प्रतिशत से कम अर्थात 3.3 प्रतिशत रहने का अनुमान है। वर्ष 2018 की दूसरी छमाही में रही आर्थिक नरमी के कारण, वर्ल्ड इकॉनोमिक आऊटलुक अक्टूबर 2018 की तुलना में विश्व आर्थिक दर को 0.1 प्रतिशत अंक से कम किया गया है। 2019 और 2020 के पूर्वानुमान अब क्रमशः 0.4 प्रतिशत अंक और 0.1 प्रतिशत अंक कम किए गए हैं। वर्तमान पूर्वानुमान के अनुसार वैश्विक वृद्धि 2019 की पहली छमाही में बराबर आने के बाद, बढ़ेगी। 2019 की दूसरी छमाही का यह अनुमान चीन में हाल में हो रहे नीति परिवर्तन, वैश्विक वित्तीय बाजार की सोच में हुए हालिया सुधार, यूरो क्षेत्र में वृद्धि दर बढ़ने के कुछ अस्थायी वाकयों और अर्जेंटीना एवं तुर्की के साथ अन्य संकटग्रस्त उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के तनाव में स्थितियों के क्रमिक स्थिरीकरण के कारण किया जा सकता है। उभरते हुए बाजार और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए बढ़ी हुई के गति 2020 में बने रहने से वर्तमान में व्यापक आर्थिक संकटों का सामना कर रही अर्थव्यवस्थाओं में सुधार की संभावना है। इसके विपरीत विकसित अर्थव्यवस्थाओं में अमेरिकी राजकोषीय प्रोत्साहन के प्रभाव कम होने तथा वृद्धि दर के कम होने के अनुमान के कारण अर्थव्यवस्थाओं में मंद गति से सुधार की संभावना है।
7.2 जोखिमों के ऋणात्मक होने की संभावना
हालांकि वैश्विक विकास आश्चर्यजनक रूप से अनूकुल हो सकता है यदि व्यापार मतभेदों को जल्दी से हल कर लिया जाता है, जिससे व्यापारिक विश्वास और निवेशकों की भावनाओं में सुधार होगा, किंतु जोखिम-संतुलन के ऋणात्मक होने की ही ज़्यादा संभावना होगी। व्यापार तनाव और नीति अनिश्चितता में वृद्धि विकास को और कमजोर कर सकती है। बाजार की भावनाओं में गिरावट की संभावना बनी हुई है जिससे जोखिम वाली संपत्तियों के पोर्टफोलियो से निवेश के हटने तथा सुरक्षित बाज़ार प्रतिभूतियों में लगाए जाने तथा आमतौर पर विशेष रूप से कमजोर अर्थव्यवस्थाओं की वित्तीय स्थितियों में तनाव रहेगा। इस तरह की परिस्थितयों के निर्माण के संभावित कारणों में इंग्लैंड के ईयू से बिना कोई सौदा किए बाहर होने, लगातार प्राप्त हो रहे कमजोर आर्थिक आंकड़े जो कमजोर वैश्विक विकास की ओर इशारा करते हैं, लंबे समय से बनी राजकोषीय अनिश्चितता तथा इटली की बढ़ी यील्ड को विशेषतः जोड़कर देखा जाए, तो यह यूरो क्षेत्र की अन्य अर्थव्यवस्थाओं के लिए संभावित प्रतिकूल वातावरण का निर्माण कर सकती है।
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