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भारतीय एकस्व कानून और फार्मा उद्योग
1.0 प्रस्तावना
विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) द्वारा शासित व्यापार संबंधी बौद्धिक संपत्ति अधिकार समझौते (ट्रिप्स) ने बौद्धिक संपत्ति कानूनों की एक रूपरेखा स्थापित की है। इनमें पेटेंट, प्रतिलिप्यधिकार (कॉपीराइट), व्यापार चिन्ह (ट्रेडमार्क), भौगोलिक संकेतक, अनावृत्त जानकारी का संरक्षण, एकीकृत परिपथ (सर्किट) विन्यास रूपरेखा, और औद्योगिक रूपरेखा शामिल हैं। भारत के लिए दिलचस्प संरक्षण क्षेत्र है पारंपरिक ज्ञान का बौद्धिक संपत्ति के रूप में संरक्षण। बौद्धिक संपत्ति के व्यापार से संबंधित पहलुओं पर समझौते के लिए विभिन्न गुण दोषों का विचार किया गया है। विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ समझौता) को स्थापित करने वाला 15 अप्रैल 1994 का मरक्केष समझौता कहता है कि ‘‘प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में किसी भी आविष्कार के लिए पेटेंट उपलब्ध होंगे, चाहे वह उत्पाद हो या उत्पादन की प्रक्रिया हो, बशर्ते कि वे नए हों, उनमें मौलिक प्रक्रिया शामिल है, और वे औद्योगिक अनुप्रयोग में सक्षम हों।‘‘
पेटेंट किसी आविष्कारक को या किसी ऐसे व्यक्ति को, जो किसी आविष्कार का उपयोग या विक्रय करने वाला सच्चा और पहला आविष्कारक (या किसी नई प्रक्रिया की खोज करने वाला) होने का दावा करता है, सरकार द्वारा प्रदान किया गया एक अनन्य अधिकार, या अधिकारों का समुच्चय है, जो आमतौर पर एक निर्दिष्ट समयावधि के लिए प्रदान किया जाता है।
किसी अविष्कार के लिए पेटेंट आविष्कारक को प्रदान किया गया एक संपत्ति अधिकार है जो पेटेंट एवं व्यापार चिन्ह कार्यालय (पीटीओ) द्वारा प्रदान किया जाता है। पेटेंट का उपयोग नए उत्पाद, प्रक्रिया, उपकरण और उपयोगों को संरक्षित करते हैं बशर्ते कि यह आविष्कार पूर्व में किये गए किसी भी कार्य के परिपेक्ष्य में प्रकट नहीं हुआ हो, न ही वह सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में हो, और अनुप्रयोग के समय में वह विश्व में कहीं भी अनावृत्त नहीं हुआ हो। इस अविष्कार का व्यावहारिक प्रयोजन होना आवश्यक है।
पेटेंटों का राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकरण किया जा सकता है। पंजीकरण पेटेंट कराने वाले को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह किसी को भी अविष्कार के निर्माण, उपयोग, विक्रय या आयात को पेटेंट के लिए प्रस्तुत किये गए आवेदन की तिथि से, या विशेष परिस्थितियों में उस तिथि से जब एक पहला संबंधित आवेदन प्रस्तुत किया गया है, 20 वर्षों के लिए प्रतिबंधित कर सकता है, बशर्ते कि उसने रखरखाव शुल्क का भुगतान कर दिया है। पेटेंटों को न्यायालय की प्रक्रियाओं से लागू किया जाता है। इसके अतिरिक्त अनुपूरक संरक्षण प्रमाणपत्र (एसपीसी) के विनियम औषधि और वनस्पति उत्पादों को 5 वर्ष तक का ‘‘पेटेंट विस्तार’’ प्रदान करते हैं, जो आरंभक औषधियों की जीवन अवधि की 25 वर्ष तक की अवधि के लिए प्रदान करते हैं।
सजीव जीवों के पेटेंट, जिनमें वनस्पति और पशु प्रजातियां और संबंधित जैविक और जैवप्रौद्योगिकी समर्थित आविष्कार शामिल हो सकते हैं, को जीवन रूपों या जैव-पेटेंट्स के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
2.0 भारत में बौद्धिक संपत्ति के अधिकार (I.P.R. in India)
1950 में भारत की पेटेंट नीति का उद्देश्य औषधियों के स्थानीय उत्पादन को सुनिश्चित करना था। उस समय विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही भारत में समस्त औषधियों की आपूर्ति करती थीं। विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत के 90 प्रतिशत औषधि उद्योग को नियंत्रित करती थीं, और इसीलिए औषधियों की आपूर्ति और उपलब्धता को निर्धारित करती थीं। औषधियां भारत के बाहर विनिर्मित की जाती थीं, और फिर ऊंची लागतों पर देश में आयात की जाती थीं। उस समय भारत में औषधियों की लागतें विश्व की अधिकतम लागतों में से एक हुआ करती थीं। औषधियों की कीमतें इतनी ऊंची थीं कि 1961 में सीनेटर एस्टेस केफौवर की अध्यक्षता वाली अमेरिकी सीनेट समिति ने टिप्पणी की थी कि औषधियों की दृष्टि से भारत का क्रमांक उच्चतम कीमतों वाले देशों में से एक था।
प्रथम पंचवर्षीय योजना के आंकडें दर्शाते हैं कि उद्योगों से होने वाली आय की सीमा इतनी कम थी कि यह कुल राष्ट्रीय आय का मात्र 6.6 प्रतिशत थी। कुल श्रमशक्ति का मात्र 8 प्रतिशत भाग भारतीय औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कार्य कर रहा था। महामारी रोगों से होने वाली मृत्युएँ कुल मृत्युदर के 5.1 प्रतिशत थीं। प्रथम पंचवर्षीय योजना में यह दर्ज किया गया था कि भारत महामारी रोगों का सबसे बड़ा आश्रय स्थान था। भारत में गरीबी भी अपने चरम पर थी। एक विनाशकारी ब्रिटिश राज के परिणामस्वरूप भारत की लगभग 50 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी में रह रही थी, जो औषधियों के मूल्य वहन करने में सक्षम नहीं थी। इसके परिणामस्वरूप जीवन प्रत्याशा बहुत ही अल्प थी, और बीमारियों के कारण होने वाली मृत्युओं की दर अत्यंत उच्च थी। औषधि अधिनियम 1940 के तहत केंद्र सरकार आवश्यक औषधियों का आयात करती थी।
इस स्थिति में सुधार करने के लिए भारत सरकार ने दो पहलें कीं। पहली, सरकार ने पेनिसिलिन और अन्य प्रतिजैविक औषधियों के उत्पादन के लिए देश में एक कारखाना स्थापित करने के लिए यूनिसेफ के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। इसका परिणाम 1957 में हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड की स्थापना में हुआ, ताकि जनता को सस्ती दरों पर औषधियां उपलब्ध हो सकें। दूसरी, सरकार ने 1957 में न्यायमूर्ति राजगोपाल अय्यंगार समिति की नियुक्ति पेटेंट कानून में उचित संशोधनों की सिफारिशें करने के उद्देश्य से की, ताकि इन्हें औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया जा सके। समिति का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि भारत एक स्थानीय स्तर पर धारणीय औषधि बाजार का विकास करने में सक्षम हो। इस समिति ने 1959 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
संशोधनों की सिफारिशें करते समय अय्यंगार समिति भारतीय संविधान के प्रावधानों से बंधी हुई थी। संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करता है, जिसमें अच्छे स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है। संविधान की प्रस्तावना में ऐसी नीतियों को अनिवार्य बनाया गया है जो सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को संतुलित कर सकें। अतः पेटेंट कानून में संशोधित करते समय सार्वजनिक स्वास्थ्य की चिंताओं को व्यापारी हितों के साथ तौला जाना आवश्यक था। अय्यंगार रिपोर्ट का तर्क था कि अनिर्बंध एकाधिकार प्रस्थापित करने वाली पेटेंट नीति देश की जनसंख्या के बडे़ भाग को औषधियों से वंचित रखेगी। रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची कि निर्बाध एकाधिकार के अधिकार प्रस्थापित करने वाली नीति भारतीय संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन करेगी। समिति ने यूके, जर्मनी और अमेरिका की पेटेंट व्यवस्थाओं का अध्ययन किया और दर्शाया कि जर्मनी का कमजोर पेटेंट संरक्षण रासायनिक उद्योग के विकास को प्रोत्साहित करने वाला था। अतः रिपोर्ट ने औषधियों की पेटेंट प्रक्रिया के लिए एक अनिवार्य अनुज्ञप्ति व्यवस्था की सिफारिश की। अय्यंगार समिति की रिपोर्ट पर आधारित नियम 1972 से प्रभावशाली हुए।
चूंकि स्वास्थ्य सुविधा एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय था, अतः 1970 में औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (Drug Price Control Order) भी जारी किया गया। इस आदेश ने औषधियों के मूल्य नियंत्रण का अधिकार सरकार को प्रदान किया, और इस प्रकार भारतीय कानून के अनुज्ञप्ति के प्रावधानों का अनुपूरण किया। औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश पारित होने के बाद सरकार ने अधिकांश औषधियों के मूल्यों को मूल्य नियंत्रण के तहत रखा।
1970 की पेटेंट नीति के आर्थिक प्रभावों से भारत भी नहीं बच पाया। बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जो एक समय औषधि उद्योग क्षेत्र में महत्वपूर्ण खिलाड़ी थीं, भारत में औषधि बेचने के प्रति उदासीन थीं। 1997 तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की हिस्सेदारी थोक औषधियों के योगों में 30 प्रतिशत और स्थानीय स्तर पर उत्पादित योगों में 20 प्रतिशत थी। अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारतीय बाजार में उपस्थिति के लिए आवश्यक न्यूनतम अनिवार्यताओं का पालन किया (जैसे आयातित थोक सामग्री से सामान्य योगों का उत्पादन), जबकि वे अधिक कठोर पेटेंट संरक्षण का इंतजार करती रहीं। सरकार ने भी धीमे-धीमे औषधियों पर से मूल्य नियंत्रण हटाते हुए प्रतिक्रिया प्रदान की। जहां 1970 में अधिकांश औषधियां औषधि मूल्य नियंत्रण के तहत थीं, वहीं 1984 में मूल्य नियंत्रण के तहत औषधियों की संख्या को घटाकर 347 कर दिया गया, और 1987 में इनकी संख्या को घटाकर 163 कर दिया गया। 1994 में केवल 73 औषधियां मूल्य नियंत्रण के तहत बचीं।
1986 के पेरिस सम्मेलन में भारत के शामिल होने के विषय में देश में काफी बहस हुई। भारतीय औषधि निर्माता संघ (आईडीएमए) इन सभी बहसों के शीर्ष पर था, जो भारत के अंततः गंभीर अंतर्राष्ट्रीय दबावों के चलते इस सम्मेलन में शामिल होने के प्रति समर्पित होने से पहले इस सम्मेलन में शामिल होने के खतरों के प्रति आगाह कर रहा था। उस समय के दौरान, ऐसा समझा जाता है कि, आईडीएमए को सेवानिवृत्त न्यायाधीशों से सलाह प्राप्त हो रही थी, और इसे न्यायपालिका का भी काफी समर्थन प्राप्त था।
भारत गैट समझौते के ट्रिप्स घटक (TRIPS component) का विरोध करने के मामले में काफी सक्रिय था, विशेष रूप से औषधि नवप्रवर्तनों पर उत्पाद पेटेंट के प्रस्ताव पर। 1982 की विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय संवेदना को अत्यंत सारगर्भित ढंग से संक्षेपित कियाः ‘‘बेहतर व्यवस्था वाले विश्व का विचार वह है जिसमें चिकित्सकीय खोजें पेटेंटों से मुक्त होंगी, और जीवन और मृत्यु से किसी भी प्रकार का लाभ अर्जित नहीं किया जायेगा।‘‘ भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर कर दिए, हालांकि काफी अनिच्छा से, अतः वह औषधि उत्पाद पेटेंट 2004 शुरू करने के प्रति प्रतिबद्ध हुआ, और एक लागत-लाभ विश्लेषण भारत के लिए अनिवार्य है।
3.0 भारतीय औषधि क्षेत्र की क्रांति
वर्ष 1970 की पेटेंट नीति ने भारत की स्थिति में नाटकीय परिवर्तन किया। 45 वर्षों के दौरान भारत के औषधि उद्योग का आकार, जो वर्ष 1970 में मात्र 21 लाख डॉलर था, बढकर लगभग 20 अरब डॉलर का हो गया है। वर्तमान में, ब्रांडेड प्रजतिगत औषधियों का बाजार में वर्चस्व है, जो बाजार के लगभग 70 से 80 प्रतिशत हिस्से का निर्माण करती हैं। विश्व स्तर पर भारत स्वदेशी औषधियों का सबसे बडा आपूर्तिकर्ता है, जहाँ लगभग 20 प्रतिशत तक की औषधि आपूर्ति भारत से की जाती है। अनुमान है कि भारत का जैवप्रौद्योगिकी उद्योग, जिसमें जैविक औषधियां, जैविक सेवाएं, जैविक कृषि, जैविक उद्योग और जैविक सूचना विज्ञान शामिल हैं, प्रति वर्ष औसतन लगभग 30 प्रतिशत की दर से वृद्धि करेगा और वर्ष 2025 तक यह बढकर 100 अरब डॉलर तक पहुँच जायेगा। जैविक औषधियां, जिसमें टीके, चिकित्साविधान और निदान शामिल हैं, ऐसा सबसे बडा उप क्षेत्र है जो कुल राजस्व के 62 प्रतिशत अर्थात, 12,600 करोड (1.9 अरब डॉलर) का योगदान देता है। भारत में उपयोग की जाने वाली 465 थोक औषधियों में से 425 का विनिर्माण देश में ही किया जाता है। सल्फामेथोक्सजोल और एथेमब्युटोल जैसी औषधियों के उत्पादन के मामले में भारत विश्व नेता बनकर उभरा है। भारतीय उत्पादन विश्व उत्पादन का लगभग 50 प्रतिशत है।
स्वदेशी औषधियों के विकास के अतिरिक्त भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रजातिगत औषधियों (generic drugs) के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में विकसित हुआ है। एंथ्रेक्स के खतरे के दौरान अमेरिका ने भी भारत से सस्ती प्रजातिगत दवाओं के आयात का विचार किया था। दक्षिण अफ्रीकी एड्स संकटों के दौरान भारत प्रजातिगत एड्स औषधियों के विश्वसनीय निर्यातक के रूप में उभरा था। कुछ अन्य उदाहरण - दस वर्ष पहले भारत में सिप्रोफ्लॉक्सासिन की एक गोली का मूल्य 27 रुपये (60 सेंट) था। सिप्रोलॉक्सासिन का वर्तमान मूल्य 1.50 रुपये (4 सेंट) है। भारतीय औषधि निर्माता सिप्रोफ्लॉक्सासिन के प्रजातिगत संस्करण का निर्यात रूस, ब्राजील, दक्षिणपूर्व एशिया और मध्य पूर्व के देशों को अत्यंत प्रतिस्पर्धी मूल्यों पर करते हैं।
औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग (डीआईपीपी) द्वारा जारी किये गए आंकडों के अनुसार औषधि एवं फार्मा क्षेत्र ने अप्रैल 2001 से सितंबर 2015 के बीच संयुक्त रूप से 13.32 अरब डॉलर मूल्य के विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित किया है। भारत सरकार ने ‘‘औषधि धेय्य 2020‘‘ का अनावरण किया है, जिसका लक्ष्य अंत-से अंत औषधि विनिर्माण में भारत को वैश्विक नेता बनाना है। निवेश को बढ़ावा देने के लिए नई सुविधाओं के लिए अनुमति प्रदान करने की अवधि को कम किया गया है। साथ ही औषधियों को खरीदने की क्षमता और उपलब्धता से निपटने के लिए सरकार ने औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) और राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) जैसे तंत्र शुरू किये हैं। स्वदेशी औषधि उद्योग के इस प्रकार के आक्रामक विकास के बावजूद भारत की मात्र 30 प्रतिशत जनसंख्या को ही आधुनिक औषधियों तक पहुँच प्राप्त है। जब तक संपूर्ण जनसंख्या को औषधियों तक पहुँच प्राप्त नहीं हो जाती तब तक भारत को ट्रिप्स पूर्व पेटेंट नीति को जारी रखना होगा।
भारतीय फार्मा सेक्टर
- भारतीय फार्मास्युटिकल क्षेत्र उद्योग विभिन्न टीकों की वैष्विक मांग का 50 प्रतिषत, अमेरिका की 40 प्रतिषत जेनेरिक मांग एवं ब्रिटेन में सभी दवाओं के 25 प्रतिषत की आपूर्ति करता है।
- भारत में दुनिया का फार्मास्यूटिकल और बायोटेक का दूसरा सबसे बड़ा कार्यबल उपलब्ध है। 2017 में भारत में फार्मास्यूटिकल क्षेत्र का मूल्य 33 बिलियन अमेरिकी डॉलर आँका गया था।
- भारत का घरेलू दवा बाजार का कारोबार जो 2017 में 116,389 करोड़ रुपये (यूएस डॉलर 17.87 बिलियन) था, 9.4 प्रतिषत बढ़कर (वर्ष में), 2018 में 129,015 करोड़ रुपये (यूएस डॉलर 18.12 बिलियन) तक पहुंच गया था। फरवरी 2019 में, भारतीय दवा बाजार में साल-दर-साल 10 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
- बाजार में 71 फीसदी हिस्सेदारी के साथ, जेनेरिक दवाएं, भारतीय दवा क्षेत्र का सबसे बड़ा खंड हैं।
- 2018 में, बढ़ते वार्षिक कारोबार के आधार पर, एंटी-इंफेक्टिव (13.6 प्रतिषत), कार्डिएक (12.4 प्रतिषत), गैस्ट्रो इंटेस्टिनल्स (11.5 प्रतिषत) की भारतीय फार्मा बाजार में सबसे बड़ी हिस्सेदारी थी।
- प्रमुख बाजार के रूप में अमेरिका के अलावा, भारतीय दवाओं को दुनिया के 200 से अधिक देषों में निर्यात किया जाता है।
- जेनेरिक दवाओं की मात्रा के मामले में कुल वैष्विक निर्यात 20 प्रतिषत भारत द्वारा किया जाता है, जो देष को वैष्विक स्तर पर जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा प्रदाता बनाता है और आने वाले वर्षों में इसमें और भी अधिक विस्तार की संभावना है।
- भारत का फार्मास्युटिकल एक्सपोर्ट विŸावर्ष 2018 में 17.27 बिलियन और वित्तवर्ष 2019 में 17.15 बिलियन रहा। वित्त वर्ष 18 में 31 प्रतिषत निर्यात अमेरिका को किया गया।
- सरकार के फार्मास्युटिकल्स विभाग द्वारा ‘फार्मा विजन 2020’ का उद्देष्य भारत को एंड-टू-एंड ड्रग डिस्कवरी का एक प्रमुख केंद्र बनाना है।
- इस क्षेत्र ने अप्रैल 2000 और दिसंबर 2018 के मध्य 15.93 बिलियन अमेरिकी डॉलर का संचयी एफडीआई प्राप्त हुआ है। बजट 2019-20 के तहत, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को आवंटन 13.1 प्रतिषत बढ़ाकर 61,398 करोड़ रुपये (यूएस डॉलर 8.98 बिलियन) कर दिया गया है।
- भारतीय फार्मास्युटिकल क्षेत्र के निकट भविष्य में 15 प्रतिषत के सीएजीआर से तथा चिकित्सा उपकरण बाजार के, 2025 तक, में 50 बिलियन डॉलर बढ़ने की उम्मीद है।
3.1 ट्रिप्स पेटेंट नीति
ट्रिप्स पेटेंट नीति की अनिवार्यता है कि विकासशील देश केवल उत्पाद पेटेंट प्रदान करें। अभिनव प्रक्रियाएं विकासशील देशों में पेटेंट योग्य नहीं होंगीं क्योंकि ये देश प्रक्रियाओं को उत्पाद दावों के अनुसार उपयोग नहीं करते। परिणामस्वरूप विकसित देशों में उत्पाद दावों के अनुसार प्रक्रिया उपयोग के कारण पेटेंट योग्य आविष्कार विकासशील देशों के ट्रिप्स अनुवर्ती पेटेंट कानून की परिधि से बाहर होंगे। विकसित देशों में पेटेंट योग्य कुछ प्रजातिगत औषधियां जो उत्पाद दावों के अनुसार प्रक्रिया का उपयोग करते हैं, वे विकासशील देशों में असंरक्षित होंगे।
ट्रिप्स ने, जो गैट संधि के उरुग्वे चक्र का बौद्धिक संपत्ति अधिकार घटक है, विकसित देशों और अल्प विकसित देशों के बीच एक कटुतापूर्ण बहस को जन्म दिया है। विकसित विश्व के व्यापारी हित इस सीमितता के कारण और अल्प विकसित देशों में उनके आविष्कारों के उपयोग से होने वाली विशाल हानियों का दावा करते हैं। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों का भारत जैसे विकासशील देशों को विदेशी निवेश के प्रोत्साहन द्वारा, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को सक्षम करने और अधिक घरेलू अनुसंधान और विकास के द्वारा लाभ होगा। दूसरी ओर अल्प विकसित देशों की सरकारें मजबूत बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों के लिए आवश्यक उच्च कीमतों और शैशवावस्था के उच्च प्रौद्योगिकियों वाले उद्योगों को उनकी शुरुआत के कारण होने वाले संभावित नुकसान के कारण चिंतित थीं।
भारतीय औषधि विनिर्माताओं ने अनन्य विपणन अधिकारों का जोरदार ढंग से विरोध किया। उनका मानना था कि अनन्य विपणन के अधिकारों का परिणाम स्थानीय औषधि उद्योग के विनाश में होगा और यह उत्पाद पेटेंट शासन से भी अधिक प्रतिबंधक था। उनका तर्क था कि विदेशी औषधि कंपनियों को भारत में परीक्षण की प्रक्रिया से गुजरने के पहले ही भारत में अनन्य विपणन अधिकार प्राप्त हो जायेंगे। यह भी डर था कि भारतीय औषधि कंपनियां इस व्यापार से पूरी तरह से बाहर हो जाएँगी।
4.0 2005 के संशोधन
मार्च 2005 में भारतीय संसद ने स्थानीय औषधि कंपनियों द्वारा अन्य उत्पादकों द्वारा विकसित औषधियों की नकल को रोकने के उद्देश्य से, विशेष रूप से पाश्चात्य कंपनियों की नकल करने से रोकने के लिए पेटेंट विनियमों को मंजूरी प्रदान की। नया कानून, जिसके माध्यम से भारत के 1970 के पेटेंट अधिनियम को संशोधित किया गया, इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर सॉफ्टवेयर और औषधियों तक सभी चीजों को प्रभावित करता है, और इसे अगले अनेक वर्षों तक भारत के विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने की शर्त के रूप में देखा जा रहा है। व्यापक रूप से माना जा रहा है कि 2005 के संशोधन मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण ही किये गए थे, क्योंकि विश्व व्यापार संगठन ने यह मांग रखी थी कि भारत अंतर्राष्ट्रीय औषधि पेटेंट्स का पालन करे। 1995 में विश्व व्यापार संगठन के व्यापार संबंधी बौद्धिक संपत्ति के अधिकार का समझौता मोरक्को के मर्राकेश में किया गया था, जहां अन्य अनेक देशों के साथ ही भारत ने भी 1 जनवरी 2005 से औषधि उत्पादों पर 20 वर्षीय पेटेंट प्रदान करने पर सहमति जताई थी। नया विश्व व्यापार संगठन शासन प्रभावी रूप से नई औषधियों के प्रजातिगत उत्पादन को गैरकानूनी बनाता है।
पूर्व में कंपनियां आसानी से अन्य कंपनियों द्वारा खोज की गई या आविष्कार की गई दवाओं की नकल इसकी प्रक्रिया में कुछ हलके परिवर्तन करके कर सकती थीं। जैसा एक शीर्ष भारतीय कंपनी के कार्यकारी कहते हैंः ‘‘विजेता वह व्यक्ति होता था जो अधिक तेजी से नकल करने में सक्षम था। अब यह सब पूरी तरह से बदल गया है, जिसके कारण जो कंपनियां नवप्रवर्तन नहीं करेंगी, वे अंततः खत्म हो जाएँगी, विशेष रूप से औषधि उद्योग में।‘‘
नई पेटेंट व्यवस्था पंजीकृत मूल औषधियों को उत्पादों के रूप में मान्यता प्रदान करती है, फिर उनके उत्पादन की पद्धति चाहे कुछ भी क्यों न हो, और इस प्रकार जो औषधियां अभी भी पेटेंट के तहत हैं उनकी नकल को गैर-कानूनी बनाती है। साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि 2005 के संशोधन ने औषधि पेटेंट्स के ‘‘सदाबहारीकरण‘‘ की पद्धति को भी समाप्त कर दिया है, जिसके तहत पेटेंट मालिक पेटेंट की जीवन अवधि को किसी पूर्व में पेटेंट किये उत्पाद में क्षुद्र ‘‘नवप्रवर्तनों‘‘ के माध्यम से नए पेटेंट्स प्रदान करके, या सूत्रों में सुधार, खुराक के प्रकार में परिवर्तन या गौण रासायनिक परिवर्तनों के माध्यम से विस्तारित करते थे। हालांकि नया कानून यह भी स्पष्ट करता है कि कोई भी नवप्रवर्तन जो पदार्थ की ज्ञात प्रभावोत्पादकता में वृद्धि करता है, या जिसका परिणाम एक नए उत्पाद में होता है, या जो कम से कम एक नए अभिकारक का उपयोग करता है, वह पेटेंट प्राप्त करने के योग्य है, और किसी नए प्रकार की केवल खोज या किसी नई विशेषता या ज्ञात पदार्थ या प्रक्रिया के नए उपयोग को इससे बाहर रखा गया है। यह साबित करना बहुत अधिक कठिन नहीं होगा कि सुधार की गई खुराक अधिक प्रभावोत्पादक है या उत्पाद के निर्माण में एक नया अभिकारक ज्ञात प्रक्रिया में शामिल किया गया है।
भारत के पेटेंट कानून में किये गए इन संशोधनों ने यह चिंता बढ़ा दी है कि भारतीय कंपनियों को कड़ी वैश्विक प्रतियोगिता का सामना करना पडे़गा, और जिन गरीब देशों को भारतीय प्रजातिगत दवाओं की आपूर्ति की जा रही है वहां दवाओं की कीमतों में वृद्धि हो जाएगी। 2000 से ही एक अधिक कठोर पेटेंट शासन के विरुद्ध उठ रहा वैश्विक प्रचलित आवेग एड्स संकट के उदय के कारण एक शक्तिशाली समन्वयक शक्ति बन गया है। अनेक अंतर्राष्ट्रीय सहायता संगठन सस्ती भारतीय प्रजातिगत दवाओं का उपयोग धन बचाने के लिए करते हैं क्योंकि वे जीवन की रक्षा करते हैं। उदाहरणार्थ, भारत एड्स के इलाज में उपयोग की जाने वाली कम लागत वाली प्रजातिगत संस्करण वाली दवाओं का बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अफ्रीका में भारतीय कंपनियों द्वारा निर्यात, विशेष रूप से सिप्ला और रैनबैक्सी लैबोरेट्रीज़ द्वारा, से एंटीरेट्रोवाइरल उपचार का वार्षिक मूल्य, जो एक दशक पूर्व प्रति मरीज 15000 डॉलर था अब घटकर लगभग 200 डॉलर प्रति मरीज तक रह गया है। हालांकि नया पेटेंट कानून इतना प्रतिबंधक नहीं है जितना कई लोग इसे मानते थे, और न ही ये आज की एड्स की प्रजातिगत औषधियों की आपूर्ति को पूरी तरह से सुखा देगा, फिर भी अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को यह चिंता है कि स्वत्वशुल्क के भुगतान की आवश्यकता या अनुज्ञप्ति प्राप्त करने की आवश्यकता शायद नई औषधियों की आपूर्ति को संकुचित कर सकती है। सभी प्रजातिगत औषधियां बाजार से हटाई भी जा सकती थीं। हालांकि भारत में मान्य सभी प्रजातिगत औषधियां अभी भी बेचीं जा सकती हैं, हालांकि विक्रेताओं को अनुज्ञप्ति शुल्क का भुगतान करना अनिवार्य है।
फिर भी भारत की अनेक नवप्रवर्तनशील कंपनियों के अधिक कठोर पेटेंट संरक्षणों का यह कहते हुए स्वागत किया है कि इन परिवर्तनों ने भारत को वैश्विक पैमाने पर अधिक प्रतिस्पर्धी बना दिया है, और इसके कारण भारत में और अधिक नवप्रवर्तनों और निवेदश का मार्ग प्रशस्त हुआ है। अधिक कठोर पेटेंट संरक्षण के साथ यह माना जा रहा है कि और अधिक बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत के अपेक्षाकृत सस्ते अभियंताओं, वैज्ञानिकों और कंप्यूटर प्रोग्रामर्स की सेवाएं उत्पाद रचना, औषधि विकास और नैदानिक परीक्षण के लिए प्राप्त करेंगी। वास्तव में जनरल मोटर्स कारपोरेशन, माइक्रोसॉफ्ट कारपोरेशन और नोकिया कारपोरेशन जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अनुसंधान सुविधाएं पहले से ही भारत में विद्यमान हैं। वित्तीय और देश के विश्लेषकों का अनुमान है कि अनुसंधान आउटसोर्स करने वाला उद्योग वैश्विक स्तर पर अगले पांच वर्षों में 10 बिलियन डॉलर का हो जायेगा।
जैसे-जैसे भारत अपने बाजार को खोलता जायेगा और इसकी कंपनियां विदेशों में उद्यम करेंगी, वैसे-वैसे कंपनियां यह सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगी कि वे अपने स्वयं के नवप्रवर्तनों से लाभ प्राप्त करें। 2004 के शीर्ष आवेदकों की सूची वैश्विक प्रतियोगिता में पेटेंट्स के महत्त्व को दर्शाती है। शीर्ष आवेदकों में सोनी कारपोरेशन, प्रॉक्टर एंड गैम्बल कंपनी, और डेमलर क्रिसलर एजी शामिल हैं - जिनमें से पिछले वर्ष सभी के 300 से अधिक आवेदन थे। भारत की ओर से शीर्ष आवेदकों में डॉ. रेड्डीज लैबोरेट्रीज़ लिमिटेड और रैनबैक्सी लैबोरेट्रीज लिमिटेड शामिल हैं - दोनों ने अपने अनुसंधान एवं विकास के खर्च को दुगना करके कुल राजस्व का लगभग 10 प्रतिशत कर दिया है।
भारत के मुंबई में स्थित एक प्रजातिगत कंपनी निकोलस पिरामल ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अनुसंधान एवं विकास में कई मिलियन डॉलर का निवेश किया है। भारत की प्रजातिगत औषधि कंपनियां, जिन्होंने अभी तक अधिक बिकने वाली विदेशी औषधियों की नकल करके काफी पैसा बनाया है, उन्होंने अब अनुसंधान पर पैसा खर्च करना यह सोच कर शुरू कर दिया है कि वे विश्व औषधि बाजार के लिए अल्प लागत वाली औषधियों का उत्पादन कर सकें। जैसा कि निकोलस पिरामल की रणनीतिक गठबंधन एवं संचार निदेशक डॉ. स्वाति पिरामल कहती हैंः ‘‘यदि कोई भारतीय कंपनी कोई ऐसी औषधि बनाती है जिसकी विकास लागत पश्चिम की एक बिलियन डॉलर से अधिक की विकास लागत की तुलना में 50 मिलियन डॉलर से कम है, तो हम नव औषधि खोज के प्रतिमान को परिवर्तित करने में सक्षम हो जायेंगे।‘‘
4.1 नए कानून की अस्पष्टताएं
पेटेंट कानून में 2005 में किये गए संशोधनों में अनेक अस्पष्टताएं हैं जिनका निराकरण किया जाना आवश्यक है। उदाहरणार्थ कुछ अस्पष्टताएं निम्नानुसार हैंः नए कानून के तहत प्रजातिगत औषधि बनाने वाला किसी पटेंटीकृत औषधि की नकल करने का आवेदन कर सकता है, परंतु वह ऐसा तभी कर सकता है जब उस औषधि के विपणन के तीन वर्ष पूरे हो जाते हैं। हालांकि प्रजातिगत निर्माता को एक ‘‘उचित’’ सत्वशुल्क ;तवलंसजलद्ध का भुगतान करना अनिवार्य है। हालांकि नया कानून ‘‘उचित’’ क्या है इसकी परिभाषा नहीं करता। इसका परिणाम बेबुनियाद जटिलताओं और अंतहीन मुकदमेबाजी में हो सकता है। साथ ही, इन संशोधनों ने इन आशंकाओं को भी जन्म दिया है कि नए कानून के साथ पटेंटीकृत महत्वपूर्ण खोजों की औषधियों की कीमतें बढ़ने की संभावनाओं में वृद्धि हो जाएगी और ये लगभग अमेरिका की दरों जितनी होने की संभावना है, जबकि अधिक सामान्य रूप से उपयोग की जाने वाली औषधियों की कीमतें मध्यम रूप से ही बढ़ेंगी। भारत सरकार ने कहा है कि यदि मूल्य वृद्धि अत्यधिक होती है तो वह हस्तक्षेप करेगी, परंतु उसने यह नहीं कहा है कि वे किस प्रकार निर्धारित की जाएँगी। वास्तव में, नया कानून सरकार को किसी भी पेटेंट पर कम से कम तीन वर्ष तक हस्तक्षेप करने से प्रतिबंधित करता है - यह एक ऐसा प्रावधान है जो ट्रिप्स समझौते के तहत अनिवार्य नहीं है। साथ ही, नया कानून कहता है कि पेटेंट नियंत्रक को सभी प्रकार के मानदंडों के निर्धारण के व्यापक विवेकाधिकार प्रदान किये गए हैं, जैसे ‘‘विवेकपूर्ण क्रय क्षमता‘‘, विवेकपूर्ण मूल्य निर्धारण और ‘‘विवेकपूर्ण स्वत्वशुल्क‘‘।
जैसे फाइज़र इंडिया लिमिटेड के निगम मामलों के वरिष्ठ निदेशक सुब्बारामन रामकृष्ण कहते हैं, कि विधेयक में ‘‘विवेकपूर्ण‘‘ शब्द 42 बार आया है, जो यह संकेत देता है कि स्वत्व शुल्क व्यक्तिपरक ढं़ग से अधिरोपित किये जायेंगे। अंत में, कानून के अनुच्छेद 5 को हटाने से यह स्पष्ट नहीं है कि क्या रासायनिक प्रक्रियाओं में जैवरासायनिक, जैवप्रौद्योगिकीय और सूक्ष्मजैविक प्रक्रियाओं का शामिल किया जाना जारी रहेगा या नहीं।
1970 की पेटेंट नीति ने भारतीय गरीबों की आवश्यकताओं की पूर्ति की है। आज भारतीय औषधि मूल्य विश्व के सबसे सस्ते में से एक हैं और वे लगभग समस्त जनसंख्या के सामर्थ में हैं। भारत में विनिर्मित औषधि अमेरिका में विनिर्मित उसी औषधि की तुलना में औसतन 100 प्रतिशत से भी अधिक सस्ती है। भारत सरकार ने अधिकतम विक्रय मूल्य का निर्धारण करके उचित लाभ छोड़ते हुए भी सामाजिक आर्थिक संतुलन की संवैधानिक अनिवार्यता को प्राप्त किया है।
4.2 विश्व व्यापार संगठन और ट्रिप्स का प्रभाव
ट्रिप्स भविष्य के आविष्कारों और निर्माणों को प्रोत्साहन प्रदान करने के दीर्घकालीन सामाजिक उद्देश्य और लोगों को विद्यमान आविष्कारों और निर्माणों का उपयोग करने की सुविधा प्रदान करने के अल्पकालिक उद्देश्य के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है।
पेटेंट्स के क्षेत्र में ट्रिप्स पेरिस सम्मेलन के महत्वपूर्ण अनुच्छेदों को संदर्भित करता है, और सदस्य देशों के लिए यह अनिवार्य बनाता है कि वे उनका पालन करें। इसकी दोनों अनिवार्यताएं हैं, राष्ट्रीय व्यवहार और सबसे पसंदीदा देश का व्यवहार। इसमें प्रावधान किया गया है कि कोई भी देश प्रौद्योगिकी के क्षेत्र पर आधारित अपनी पेटेंट व्यवस्था में कोई भेदभाव नहीं करे, यह एक ऐसा प्रावधान है जो ऐसे औषधि उद्योगों और जैवप्रौद्योगिकी उद्योगों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है जिनकी औषधियां अनेक सदस्य देशों में पेटेंट के योग्य नहीं थीं।
औषधि पेटेंट्स के लिए लचीलेपन को 2001 की ट्रिप्स और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर दोहा घोषणा में स्पष्ट किया गया है और इसमें वृद्धि की गई है। इस वृद्धि को 2003 में एक निर्णय के साथ क्रियान्वित किया गया जिसके अनुसार वे देश जो स्वयं औषधियों का निर्माण नहीं कर सकते हैं उन्हें यह सुविधा प्रदान की गई कि वे अनिवार्य अनुज्ञप्ति के तहत निर्मित औषधियों का आयात कर सकेंगे। 2005 में सदस्य देशों ने इस निर्णय को ट्रिप्स समझौते के स्थाई संशोधन के रूप में स्थापित करने को सहमति प्रदान की।
पेटेंट किसी उत्पाद या प्रक्रिया के लिए प्रदान किया जा सकता है। उत्पाद के मामले में, पेटेंट अंतिम उत्पाद में होता है। और प्रक्रिया के मामले में पेटेंट अंतिम उत्पाद में निहित नहीं होता बल्कि यह केवल उत्पादन की प्रक्रिया में निहित होता है। अधिनियम केवल खाद्य, औषधियों दवाओं और रासायनिक प्रक्रियाओं से संबंधित आविष्कारों के लिए प्रक्रिया पेटेंट प्रदान करता है। इसका प्रभाव यह है कि पेटेंट की स्वीकृति उपरोल्लिखित वर्गीकरण के तहत आने वाले आविष्कारों के निर्माण की प्रक्रिया तक ही सीमित होती है। प्रक्रिया में परिवर्तन के माध्यम से वही उत्पाद एक नए प्रक्रिया पेटेंट के योग्य हो सकता है।
विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों को किसी भी आविष्कार के लिए पेटेंट संरक्षण प्रदान करना होता है, चाहे वह एक उत्पाद हो (जैसे कोई दवा) या कोई प्रक्रिया (जैसे किसी दवा के निर्माण के लिए आवश्यक रासायनिक सामग्री की निर्माण प्रक्रिया के लिए) हो, जबकि इसमें कुछ अपवाद किये जा सकते हैं।
ट्रिप्स समझौता केवल सदस्य देश द्वारा संरक्षित किये जाने वाले अधिकारों के उल्लेख के कारण ही उल्लेखनीय नहीं है, बल्कि यह इस दृष्टि से भी उल्लेखनीय है कि यह अत्यंत विस्तार से उन राष्ट्रीय दीवानी और आपराधिक प्रक्रियाओं को परिभाषित करता है जिनके माध्यम से इनका प्रवर्तन किया जाना है।
4.3 आविष्कारों का पेटेंटीकरण
जो विषयवस्तु ट्रिप्स के तहत पेटेंट योग्य है इसकी विस्तृत परिभाषा दी गई है। समझौते में प्रावधान किया गया है कि ‘‘पेटेंट औषधियों सहित प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में किये गए किसी भी आविष्कार के लिए उपलब्ध होंगे, फिर चाहे वे उत्पाद हों या प्रक्रियाएं हों।’’ अब सदस्य देशों को उत्पाद आविष्कारों और प्रक्रिया आविष्कारों, दोनों को पेटेंट संरक्षण प्रदान करना होगा, बशर्ते कि वे नए और गैर प्रकट हों। इस परिवर्तन के कारण आमतौर पर अल्प विकसित देशों के लिए अनिवार्य होगा कि उन्हें क्या पेटेंट योग्य है इसकी विकसित देशों के कानूनों से सुसंगत विस्तृत परिभाषाओं का पालन करना होगा।
उदाहरणार्थ भारत औषधि दवाओं के लिए उत्पाद पेटेंट प्रदान नहीं करता था। वह केवल प्रक्रिया पेटेंट ही प्रदान करता था। भारतीय प्रचलित कानून प्रजातिगत औषधि उद्योग की वृद्धि को बढ़ावा देते थे, जहां लगभग सभी विदेशी दवाओं का पुनर्निर्माण बिना किसी प्रतिबंध के भय से किया जा सकता था। इस पद्धति के कारण औषधि उद्योग बडे़ पैमाने पर प्रभावित हो रहा था, और जब ट्रिप्स की समझौता वार्ता जारी थी तब इस प्रवृत्ति को उलटना अमेरिका की शीर्ष प्राथमिकता थी।
हालांकि विकासशील देशों ने इसके क्रियान्वयन के लिए उचित अधोसंरचना के बिना इस मापदंड के कठोर अधिरोपण के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। वे कोई मध्यमार्ग चाहते थे जिसके तहत अनुच्छेद 27ः1 निम्नानुसार कहता हैः ‘‘परिच्छेद 2 और 3 के प्रावधानों के तहत, प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में पेटेंट सभी आविष्कारों के लिए उपलब्ध होंगे, चाहे वे उत्पाद हों या प्रक्रियाएं हों, बशर्ते वे नए हों, उनमें कोई मौलिक चरण शामिल हो, और वे औद्योगिक अनुप्रयोग की दृष्टि से सक्षम हों। अनुच्छेद 65 के परिच्छेद 4, अनुच्छेद 70 के परिच्छेद 8 और इस अनुच्छेद के परिच्छेद 3 के तहत उपलब्ध होंगे और पेटेंट के अधिकारों का आविष्कार के स्थान, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र, और उत्पाद स्थानीय रूप से निर्मित हैं या आयातित हैं, इस दृष्टि से बिना किसी भेदभाव के उपयोग किया जा सकता है।‘‘
अमेरिका ने जिस स्तर के संरक्षण की मांग की थी वह अंततः प्रदान किया जायेगा, परंतु वह चरणबद्ध पद्धति से प्रदान किया जायेगा।
इस मध्यमार्ग का परिणाम क्रमशः विकासशील और न्यूनतम विकसित देशों के लिए हुआ। भारत जैसे विकासशील देशों के पास ट्रिप्स समझौते के सभी प्रावधानों को पूरी तरह से लागू करने के लिए 1 जनवरी 2005 तक का समय था जबकि न्यूनतम विकसित देशों के पास 1 जनवरी 2015 तक का समय था। विकासशील देशों को समझौते के क्रियान्वयन के लिए अतिरिक्त 5 वर्षों की अनुग्रह अवधि दी गई, साथ ही उन्हें प्रौद्योगिकी के उन क्षेत्रों में उत्पाद पेटेंट प्रदान करने के लिए अतिरिक्त 5 वर्ष की अवधि प्रदान की गई जिनमें उत्पाद पेटेंट प्रदान नहीं किये जाते थे। हालांकि उन्हें औषधि कंपनियों के लिए ईएमआर प्रदान करने थे। यह किसी औषधि का सदस्य देश में पांच वर्ष के लिए, या जब तक एक उत्पाद पेटेंट या तो प्रदान नहीं किया किया जाता या अस्वीकृत नहीं किया जाता, इन दोनों में से जो भी अवधि कम हो, विपणन करने के लिए प्रदान किया गया अनिवार्य रूप से एक अनन्य अधिकार है। इसके कारण ऐसी कंपनियों के लिए यह संभव हो गया है जो ऐसे आविष्कार विकसित करती हैं ताकि विकासशील देशों में ट्रिप्स के प्रावधानों के पूर्ण रूप से क्रियान्वयन से पहले पेटेंट आवेदन प्रस्तुत किये जा सकें। आवेदक कंपनियां आवेदन प्रस्तुत करने के दिनांक पर प्राथमिकता दिनांक के रूप में दावा भी कर सकती हैं।
ट्रिप्स के तहत यदि अनुग्रह अवधि की समाप्ति तक भी पेटेंट प्रदान नहीं किया जाता, फिर भी संबंधित आविष्कार को आवेदन की तारीख से बची हुई पेटेंट अवधि के लिए पेटेंट संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
ट्रिप्स समझौते के तहत सरकारें पेटेंट अधिकारों के लिए सीमित मात्रा में अपवाद कर सकती हैं, बशर्ते कि कुछ शर्तों का पालन किया गया हो। उदाहरणार्थ, अपवाद ‘‘अमर्यादित रूप से’’ पेटेंट के ‘‘सामान्य’’ दोहन के साथ संघर्ष में नहीं होने चाहियें। सदस्य देश पेटेंटीकरण से निम्न को भी छोड़ सकते हैं
- मनुष्यों और पशुओं के इलाज के लिए नैदानिक, उपचारात्मक और शल्यक पद्धतियों को;
- सूक्ष्म जीवों के अतिरिक्त वनस्पतियों और पशुओं को, गैर-जैविक और सूक्ष्मजैविक प्रक्रियाओं के अतिरिक्त वनस्पतियों या पशुओं के उत्पादन के लिए अनिवार्य रूप से जैविक प्रक्रियाओं को। हालांकि सदस्य देश या तो पेटेंट के माध्यम से या प्रभावी अद्वितीय व्यवस्था के माध्यम से या दोनों के मिश्रण के माध्यम से वनस्पति किस्मों को संरक्षण प्रदान करेंगे। इस उप परिच्छेद के प्रावधानों की समीक्षा विश्व व्यापार संगठन के समझौते के प्रभावी होने में शामिल होने के दिनांक के चार वर्ष बाद की जाएगी।
अनेक देश इस प्रावधान का उपयोग विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उन्नति के लिए करते हैं। वे अनुसंधानकर्ताओं को पेटेंट किये गए आविष्कार की अनुसंधान के लिए उपयोग करने की अनुमति प्रदान करते हैं, ताकि आविष्कार को अधिक पूर्ण रूप से समझा जा सके। अतिरिक्त, कुछ देश प्रजातिगत औषधियों के विनिर्माताओं को पेटेंट मालिकों की अनुमति के बिना और पेटेंट संरक्षण समाप्त होने से पहले पेटेंट किये गए आविष्कारों का उपयोग करने की अनुमति विपणन अनुमोदन प्राप्त करने के लिए प्रदान करते हैं - उदाहरणार्थ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्राधिकरणों से। कभी-कभी इस प्रावधान को ‘‘विनियामक अपवाद’’ या ‘‘बोलर‘‘ (Bolar) प्रावधान भी कहा जाता है।
इसे विश्व व्यापार संगठन के विवाद निर्णय में ट्रिप्स के प्रावधानों के अनुरूप माना गया है। 7 अप्रैल 2000 की अपनी रिपोर्ट में एक विश्व व्यापार संगठन विवाद निवारण पैनल ने कहा था कि विनिर्माताओं को ऐसा करने की अनुमति प्रदान करने वाला कनाडाई कानून ट्रिप्स समझौते से सुसंगत है (इस मामले को ‘‘औषधि उत्पादों के लिए कनाडा पेटेंट संरक्षण‘‘ शीर्षक दिया गया था)।
4.4 अनिवार्य अनुज्ञप्तिकरण (Compulsory Licensing)
अनिवार्य अनुज्ञप्तिकरण तब होता है जब सरकार पेटेंट मालिक की सहमति के बिना किसी अन्य उत्पादक को पेटेंटीकृत उत्पाद या प्रक्रिया के उत्पादन की अनुमति प्रदान करती है। वर्तमान सार्वजनिक चर्चा में इसका संबंध आमतौर पर औषधियों साथ लगाया जाता है, परंतु यह किसी अन्य क्षेत्र के पेटेंट पर भी लागू हो सकता है।
यह समझौता अनिवार्य अनुज्ञप्तिकरण की अनुमति समझौते के विद्यमान औषधियों तक पहुँच को प्रोत्साहित करने और नई औषधियों में अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करने के बीच संतुलन स्थापित करने के समग्र प्रयास के भाग के रूप में प्रदान करता है। परंतु ‘‘अनिवार्य अनुज्ञप्तिकरण‘‘ शब्द का उल्लेख ट्रिप्स समझौते में कहीं भी नहीं किया गया है। इसके बजाय वाक्यांश ‘‘अधिकार ग्रहिता की अनुमति के बिना अन्य उपयोग‘‘ का उल्लेख अनुच्छेद 31 के शीर्षक में दिखाई देता है। अनिवार्य अनुज्ञप्ति इसीका एक भाग है क्योंकि ‘‘अन्य उपयोग‘‘ में सरकार द्वारा अपने स्वयं के प्रयोजन के लिए किया गया उपयोग भी शामिल है।
14 नवंबर 2001 की दोहा की मुख्य मंत्रिस्तरीय घोषणा में विश्व व्यापार संगठन की सदस्य सरकारों ने इस बात पर जोर दिया था कि यह महत्वपूर्ण है कि ट्रिप्स समझौते का क्रियान्वयन और इसकी व्याख्या इस प्रकार की जाए जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सहायक है - जिसमें विद्यमान औषधियों तक पहुंच और नई औषधियों का निर्माण, दोनों को प्रोत्साहित करना शामिल है। अतः उन्होंने ट्रिप्स और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए अलग-अलग घोषणाओं को अंगीकृत किया। वे इस बात पर सहमत थे कि ट्रिप्स समझौता सरकारों को सार्वजनिक स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए किये जाने वाले उपायों से प्रतिबंधित नहीं करता, और इसे ऐसा करना भी नहीं चाहिए। उन्होंने देशों के ट्रिप्स समझौते में निहित लचीलेपन को उपयोग करने की क्षमताओं को अधोरेखित किया, जिनमें अनिवार्य अनुज्ञप्तिकरण और सामानांतर आयातीकरण भी शामिल हैं। साथ ही उन्होंने न्यूनतम विकसित देशों के लिए औषधि पेटेंट संरक्षण पर छूट को 2016 तक बढ़ाने पर भी सहमति प्रदान की।
ट्रिप्स समझौते का अनुच्छेद 31 (एफ) कहता है कि अनिवार्य अनुज्ञप्तिकरण के तहत निर्मित उत्पाद ‘‘मुख्य रूप से घरेलू बाजार में आपूर्ति के लिए ही’’ होने चाहिये। यह उन देशों पर लागू होता है जो औषधियों का विनिर्माण करते हैं - जब औषधि का निर्माण अनिवार्य अनुज्ञप्ति के तहत किया गया हो तो यह उनकी निर्यात की मात्रा को सीमित करता है। इसका उन देशों पर भी प्रभाव पडता है जो औषधियों का निर्माण करने में सक्षम नहीं हैं, और इसलिए प्रजातिगत औषधियों का आयात करना चाहते हैं। उनके लिए ऐसे देशों को खोजना कठिन होगा जो उन्हें अनिवार्य अनुज्ञप्ति के तहत निर्मित औषधियों की आपूर्ति कर सकें।
निर्यात करने वाले देशों की समस्या का निराकरण 30 अगस्त 2003 को तब किया गया जब विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देश कानूनी परिवर्तनों के लिए सहमत हुए जिनके माध्यम से देशों को अनिवार्य अनुज्ञप्ति के तहत निर्मित प्रजातिगत सस्ती औषधियों का आयात आसान हो जाए, यदि वे इन औषधियों का निर्माण करने में स्वयं सक्षम नहीं हैं। जब सदस्य देश इस निर्णय पर सहमत हुए तो सामान्य परिषद के अध्यक्ष ने एक प्रतिवेदन भी पढा कि निर्णय को समझने, व्याख्या करने और उसे क्रियान्वित करने के बारे में सदस्यों की साझा समझ क्या है। इसका निर्माण सरकारों को यह आश्वासन प्रदान करने के लिए किया गया था की इस निर्णय का दुरूपयोग नहीं किया जायेगा।
वास्तव में इस निर्णय में तीन अधित्याग शामिल हैंः
- अनुच्छेद 31 (एफ) के तहत निर्यात करने वाले देशों के दायित्वों का अधित्याग किया गया है - आयातक देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदस्य देश अनिवार्य अनुज्ञप्ति के तहत निर्मित प्रजातिगत औषधियों का निर्यात कर सकते हैं।
- दोहरे भुगतान से बचने के लिए अनिवार्य अनुज्ञप्ति के तहत पेटेंट ग्रहिता को किये जाने वाले भुगतान के आयातक देशों के दायित्वों का अधित्याग किया गया है। भुगतान केवल निर्यात की ओर से ही किया जाना है।
- विकासशील और न्यूनतम विकसित देशों के लिए निर्यात प्रतिबंधों का अधित्याग किया गया है ताकि वे एक क्षेत्रीय व्यापार समझौते के अंदर निर्यात कर सकें, जब निर्णय के समय लगभग आधे सदस्यों को न्यूनतम विकसित देशों के रूप में वर्गीकृत किया गया था। इस प्रकार विकासशील देश पैमाने की मितव्ययिता का उपयोग कर सकते हैं।
इस व्यवस्था के तहत आयात किये गए औषधि उत्पादों पर सावधानीपूर्वक चर्चा करके मान्य की गई शर्तें लागू होती हैं। इन शर्तों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि लाभार्थी देश पेटेंट व्यवस्था को कमजोर किये बिना प्रजातिगत दवाओं का आयात कर सकते हैं, विशेष रूप से संपन्न देशों में। इनमें ऐसे उपाय शामिल हैं जिनके माध्यम से दवाओं को गलत बाजारों में जाने से प्रतिबंधित किया जा सकता है। और इनमें सरकारों के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि जब वे इस व्यवस्था का उपयोग कर रहे हैं तो हर बार उन्हें इस बात की सूचना प्रत्येक सदस्य देश को देनी है, हालांकि विश्व व्यापार संगठन के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है। साथ ही ये शर्ते आयातक देशों के लिए बोझिल और अव्यवहार्य न बन जाएँ इसके लिए ‘‘उनके सामर्थ्य के अनुसार उचित उपाय‘‘ और ‘‘उनकी प्रशासनिक क्षमता के अनुपातिक‘‘ जैसे वाक्यांशों को भी शामिल किया गया है।
5.0 व्यापार चिन्ह (ट्रेड मार्क)
एक प्रतीक (प्रतीक चिन्ह, शब्द, आकार, किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति का नाम और छोटा मधुर गाना) जो किसी उत्पाद या सेवा को एक पहचान योग्य व्यष्टित्व प्रदान करने के लिए और उसे प्रतिस्पर्धी उत्पादों से भिन्नता प्रदान करने के लिए उपयोग किया जाता है। व्यापार चिन्ह उन विशिष्ट घटकों को संरक्षण प्रदान करते हैं जो किसी ब्रांड की विपणन की पहचान बन जाते हैं, जिनमें औषधियां भी शामिल हैं। इन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत किया जा सकता है, जिसके माध्यम से आर चिन्ह का उपयोग किया जा सकता है। व्यापार चिन्ह अधिकारों का प्रवर्तन न्यायालयीन प्रक्रियाओं के माध्यम से किया जाता है जिसमें निषेधाज्ञा और/या क्षतिपूर्ति जैसे प्रावधान उपलब्ध हैं। जालसाजी के मामलों में सीमाशुल्क विभाग, पुलिस या उपभोक्ता संरक्षण जैसे प्राधिकरण सहायता प्रदान कर सकते हैं। एक अपंजीकृत व्यापार चिन्ह के पीछे शब्द टी एम लिखे होते हैं। यदि प्रतिस्पर्धी उसी या उस प्रकार के व्यापार क्षेत्र में उसी प्रकार के नाम का उपयोग करता है तो इसका प्रवर्तन न्यायालय के माध्यम से किया जा सकता है।
सेवा चिन्ह भी व्यापार चिन्ह का ही एक प्रकार होता है, इसमें अंतर केवल इतना है कि यह उत्पाद के बजाय किसी सेवा के स्रोत की भिन्नता को प्रदर्शित करता है। व्यापार चिन्हों और सेवा चिन्हों के लिए आमतौर पर ‘‘व्यापार चिन्ह‘‘ या ‘‘चिन्ह’’ शब्द का उपयोग किया जाता है।
व्यापार चिन्ह अधिकारों का उपयोग अन्य लोगों को भ्रमित करने वाले समान चिन्हों का उपयोग करने से प्रतिबंधित करने के लिए किया जा सकता है, हालांकि इनका उपयोग दूसरों को समान वस्तुएं या सेवाएं उत्पादित करने या उन्हें किसी अन्य नाम से बेचने से प्रतिबंधित करने के लिए नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ औषधि उद्योग के मामले में न्यायालय निर्णय करने से पहले औषधि के प्रकार का और क्रेता के प्रकार का और ऐसे ही अन्य पहलुओं का विचार करता है। विन मेडिकेयर लिमिटेड बनाम वी दुआ फार्मास्युटिकल्स प्राइवेट लिमिटेड के मामले में अभियोक्ता द्वारा डिक्लोमोल का उपयोग किया जा रहा था और प्रतिवादी द्वारा भी डिक्लोमोल का उपयोग किया जा रहा था। न्यायालय ने यह माना कि दोनों उत्पाद समान हैं और इस कारक का विचार किया कि ये औषधियां नुस्खे के बिना बेचीं जा रही हैं। अतः ये औषधियां निरक्षर ग्राहकों द्वारा किसी भी औषधि विक्रेता द्वारा क्रय की जा सकती हैं और इसलिए न्यायालय ने व्यापार चिन्ह के उपयोग को प्रतिबंधित किया और निर्णय दिया कि वे समान हैं।
5.1 कुछ महत्वपूर्ण मामले
दिल्ली उच्च न्यायालय ने हैदराबाद की अपार फार्मा द्वारा और दिल्ली की साइपर फार्मा द्वारा क्रोसिनेक्स शब्द के उपयोग के विरुद्ध स्मिथक्लीन बीचम लिमिटेड को एक-पक्षीय निषेधाज्ञा प्रदान कर दी जो क्रोसिन चिन्ह के पंजीकृत मालिक थे। दोनों ही चिन्ह औषधि गोलियों के लिए उपयोग किये जाने थे। न्यायालय ने यह माना कि ये शब्द इतने समान हैं कि सामान्य जनता को भ्रमित करने का ही इनका प्रयास था।
दूसरी ओर, कैड़िला लैब बनाम डाबर फार्मा लिमिटेड के मामले में कैड़िला का आरोप था कि कर्करोग के उपचार में उपयोग किये जाने वाले एक विशेष इंजेक्शन के संबंध में जेक्सेट भ्रामक रूप से मेक्सेट के समान था। न्यायालय ने अपने निष्कर्षों के लिए इस तथ्य को आधार बनाया कि ये औषधियां विशेष श्रेणी की औषधियों में आती हैं और इनका क्रय केवल किसी कर्करोग विशेषज्ञ द्वारा दिए गए नुस्खे को दिखाने पर ही किया जा सकता था। यह माना गया कि नुस्खे विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा तैयार किये जाते हैं जो स्वयं ज्ञाता हैं और जो नामों में अंतर करने में सक्षम हैं, अतः न्यायालय ने निर्णय दिया कि व्यापार चिन्हों को अनुमति प्रदान की जा सकती है।
बायोफार्मा बनाम संजय मेडिकल स्टोर के मामले में भी इसी तर्क का अनुसरण किया गया, प्रश्न हृदय रोग के लिए प्रस्तावित किये जाने वाली औषधि में लावेदोन और त्रिवेदोन से संबंधित था। न्यायालय ने इस तथ्य को महत्त्व दिया कि यह दवा औषधि एवं प्रसाधन अधिनियम के तहत एक अनुसूची एच औषधि थी यह है कि यह औषधि किसी दुकानदार के काउंटर से सीधे नहीं खरीदी जा सकती। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन दोनों औषधियों को भ्रामक रूप से समान मानने का कोई औचित्य नहीं है, यह वही तर्क था जो उपरोल्लिखित मामले में दिया गया था।
बायोकेम फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्रीज बनाम बायोकेम सिनर्जी लिमिटेड के मामले में दोनों कंपनियां औषधि और चिकित्सकीय उत्पादों के विक्रय में संलग्न थीं। बायोकेम सिनर्जी थोक दवाओं का व्यापार करती थी जबकि बायोकेम फार्मास्यूटिकल अपनी औषधि का विक्रय दस गोलियों की पट्टियों के रूप में करती थी, जो औषधि एवं दवा विक्रेताओं के पास उपलब्ध होती थीं। यहां यह तर्क दिया गया कि बायोकेम शब्द बायो और केम शब्दों का मिश्रण था अतः यह भिन्न नहीं था।
न्यायालय ने यह माना कि बायोकेम नाम का पंजीकरण बायोकेम फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्रीज द्वारा करवाया गया था और कंपनी के ऐसे 28 व्यापार चिन्ह थे जो इसी नाम से शुरू होते थे। बायोकेम फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्रीज इस व्यापार में पिछले 35 वर्षों से कार्य कर रही थी, जिसके माध्यम से उसने स्वयं के लिए एक प्रतिष्ठा निर्मित की थी। अतः न्यायालय ने माना कि बायोकेम सिनर्जी को बायोकेम शब्द का उपयोग करना बंद कर देना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उपभोक्ता अनावश्यक रूप से भ्रमित नहीं हों।
हाल ही में अलर्जेन इंक. बनाम मिलमेंट ऑप्थो मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सीमा पार प्रतिष्ठा के मुद्दे का विचार किया। अलर्जेन इंक. ओकूफ्लोक्स व्यापार चिन्ह के तहत विनिर्मित होने वाले नेत्र चिकित्सा उत्पादों का विनिर्माता था, और इस कंपनी ने अपने चिन्हों का पंजीकरण 9 से भी अधिक देशों में किया हुआ था। अलर्जेन ने भारत में अपने चिन्ह के पंजीकरण के लिए आवेदन किया था। उसका कहना था कि मिलमेंट ऑप्थो जो स्वयं भी नेत्र चिकित्सा उत्पादों का विनिर्माण करता है, वह भारत में समान उत्पादों के लिए समान चिन्हों का उपयोग कर रहा था। कलकत्ता उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने मिलमेंट को इस चिन्ह का उपयोग करने से प्रतिबंधित करने के लिए एक अंतरिम आदेश जारी किया हुआ था, जो भारतीय कंपनी का प्रतिवेदन सुनने के बाद निष्प्रभावी कर दिया गया था। अपील में मामला सर्वोच्च न्यायालय में गया। न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय की खंड पीठ द्वारा की गई कुछ टिप्पणियों का विचार किया जहां कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह उल्लेख किया था कि ये विदेशी ब्रांड नाम उनकी उच्च यात्रा दर और भारत में उनके बढ़ते विज्ञापन के कारण अब भारतीयों के लिए विदेशी नहीं रह गए हैं। अंततः मिलमेंट ने सर्वोच्च न्यायालय में अपना नाम परिवर्तित करने का प्रस्ताव दिया।
6.0 ग्लिवेक मामला (The Glivec Case)
नोवार्टिस भारत में अपने आविष्कार इमेटिनिब मिसायलेट के बीटा क्रिस्टलीय रूप के पेटेंट संरक्षण के लिए की गई लगभग 7 वर्ष लंबी कानूनी लड़ाई में पराजित हो गया।
सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की पीठ द्वारा दिए गए 112 पृष्ठ लंबे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में मामले के सभी तथ्यों पर की गई चर्चा के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय में अपील किये जाने के कारणों की सभी घटनाओं का और भारत के पेटेंट शासन के ऐतिहासिक वर्णन का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिसमें वे नीतिगत निर्णय भी शामिल हैं जिनके कारण 2005 में अनुच्छेद 3डी को संशोधित किया गया था।
विश्व भर का समस्त औषधि समुदाय उत्सुकता से इस निर्णय की राह देख रहा था, विशेष रूप से यह जानने के लिए कि सर्वोच्च न्यायालय विवादित अनुच्छेद 3डी का क्या अर्थ लगाता है। यहां हम सर्वोच्च न्यायालय की चर्चा और विशेष रूप से अनुच्छेद 3डी के निर्णय की चर्चा करेंगे।
सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए कारण बनी घटनाएं
- नोवार्टिस ने भारतीय पेटेंट कार्यालय में पेटेंट आवेदन क्रमांक 1602/एमएएस/ 1998 प्रस्तुत किया।
- विभिन्न भारतीय प्रजातिगत कंपनियों और कर्करोग पीडित सहायता संघ (सीपीएए) द्वारा पांच पूर्व प्रदत्त विरोध दायर किये गए।
- 5 पूर्व प्रदत्त विरोधों की सुनवाई करने के बाद नियंत्रक द्वारा 2006 में नोवार्टिस का आवेदन खारिज कर दिया गया।
- नोवार्टिस ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील दायर की। अंततः यह अपील बौद्धिक संपत्ति अपीलीय बोर्ड (आईपीएबी) बनने के बाद उसे स्थानांतरित कर दी गई। नोवार्टिस ने भारतीय पेटेंट अधिनियम के अनुच्छेद 3डी को चुनौती देते हुए समादेश याचिका (रिट पिटीशन) भी दायर की, जिसे उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया, जिसके बाद उसपर नोवार्टिस द्वारा आगे कोई कार्यवाही नहीं की गई।
- आईपीएबी ने 2009 में नियंत्रक के निर्णय को सही माना।
- बाद में 2009 में नोवार्टिस ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की।
6.1 विवादित अनुच्छेद 3(डी)
यह मामला मुख्य रूप से इस यही के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या अनुच्छेद 3डी इमेटिनिब मिसायलेट के बीटा क्रिस्टलीय रूप पर प्रहार करता है, और इस प्रकार भारत में पेटेंटीकरण के योग्य नहीं है। निर्णय में इस बात पर विस्तृत चर्चा की गई कि अनुच्छेद 3डी किस प्रकार शुरू हुआ, और संशोधित हुआ, और किस प्रकार अनुच्छेद 3डी पेटेंटीकरण मानदंड का एक भाग है।
अतः पहले हम यह देखते हैं कि अनुच्छेद 3डी का वास्तव में अर्थ क्या हैः अनुच्छेद 3डी ज्ञात पदार्थों के नए प्रकारों को (जिनमें लवण, यौगिक दक्षु (एस्टर), पॉलीमॉर्फ, क्रिस्टलीय रूप, व्युत्पत्तिक इत्यादि शामिल हैं) पेटेंट संरक्षण प्रतिबंधित करता है, जब तक कि नए रूपों का परिणाम ज्ञात प्रभावोत्पादकता में वृद्धि के रूप में नहीं होता (enhancement of the known efficacy)।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह मान्य किया कि में ‘‘ज्ञात पदार्थ’’ ‘‘इमेटिनिब मिसायलेट’’ है न कि मुक्त आधार में इमेटिनिब। सर्वोच्च न्यायालय ने यह मान्य किया कि पूर्व पेटेंट अमेरिकी पेटेंट क्रमांक 5,521,184 (ज़िम्मरमैन पेटेंट) जिसमें इमेटिनिब पर दावा किया गया है, भी इमेटिनिब मिसायलेट को सार्वजनिक करता है अतः ज्ञात पदार्थ, जिसके साथ बीटा क्रिस्टलीय रूप की तुलना की जानी चाहिए ताकि बढी हुई प्रभावोत्पादकता दर्शाई जा सके, भी इमेटिनिब मिसायलेट ही होना चाहिए न कि मुक्त आधार रूप में इमेटिनिब।
नोवार्टिस ने अपने तर्क में प्रभावोत्पादकता में वृद्धि को दर्शाने के लिए इमेटिनिब मिसायलेट के बीटा क्रिस्टलीय रूप की तुलना मुक्त आधार रूप में इमेटिनिब के साथ की थी। (नोवार्टिस ने बीटा क्रिस्टलीय रूप में मुक्त आधार रूप में इमेटिनिब पर 30 प्रतिशत अधिक जैव-उपलब्धता दर्शाई थी, साथ ही उसने अन्य भौतिक रासायनिक विशेषताएं भी दर्शाई थीं जिनकी चर्चा आगे की गई है)
जिस साक्ष्य ने यह सिद्ध किया कि ज़िम्मरमैन पेटेंट में इमेटिनिब मिसायलेट उजागर होता हैः ज़िम्मरमैन पेटेंट मुक्त आधार रूप में इमेटिनिब को उजागर करता है और आगे यह औषधि की दृष्टि से स्वीकृत लवणों (जिनमें अम्ल योग लवण भी शामिल हैं) की व्यापक व्याप्ति को भी उजागर करता है, जहां आमतौर पर मिसायलेट लवण का सुस्पष्ट प्रकटीकरण नहीं होता। यह पेटेंट 1998 में प्रदान किया गया है।
नोवार्टिस ने इमेटिनिब मिसायलेट के बीटा क्रिस्टलीय रूप का एक नया अमेरिकी पेटेंट दायर किया। यह पेटेंट 2005 में प्रदान किया गया है। ग्लिवेक के लिए नया औषधि आवेदन 2001 में दायर किया गया था, जहां औषधि के सक्रिय घटक को इमेटिनिब मिसायलेट के रूप में दर्शाया गया था। नोवार्टिस द्वारा यह भी घोषित किया गया था कि सक्रिय घटक, संयोजन और उपयोग की पद्धति ज़िम्मरमैन पेटेंट द्वारा आवरणित है।
आगे जब 2004 में नोवार्टिस द्वारा यूके में ग्लिवेक का प्रजातिगत संस्करण बेचने वाली कंपनी नेटको को कानूनी नोटिस भेजा गया था, तो नोटिस में नोवार्टिस ने बताया था कि जिम्मरमैन पेटेंट (ईपी का समकक्ष) इमेटिनिब और इसके मिसायलेट लवण जैसे अम्ल योग लवणों पर दावा करता है।
उपरोक्त साक्ष्य के आधार पर न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जिम्मरमैन पेटेंट में इमेटिनिब मिसायलेट उजागर होता है और इस प्रकार यह एक ज्ञात पदार्थ है जिसके साथ बीटा क्रिस्टलीय रूप की तुलना की जानी चाहिए ताकि ज्ञात पदार्थ पर प्रभावोत्पादकता वृद्धि को दर्शाया जा सके।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह मान्य किया कि रासायनिक पदार्थों के मामले में ‘‘प्रभावोत्पादकता‘‘, विशेष रूप से दवा में, ‘‘उपचारात्मक प्रभावोत्पादकता‘‘ (therapeutic efficacy) है।
इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने भी इस मामले में प्रभावोत्पादकता का अर्थ उपचारात्मक प्रभावोत्पादकता ही माना था।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए इसके अर्थ को पुनः स्पष्ट किया, ‘‘प्रभावोत्पादकता का अर्थ है एक वांछित या अभिप्रेत परिणाम का उत्पादन करना।‘‘ अतः ऐसी औषधि के मामले में जो किसी बीमारी का इलाज करने का दावा करती है, प्रभावोत्पादकता का परीक्षण केवल ‘‘उपचारात्मक प्रभावोत्पादकता‘‘ ही हो सकता है। अतः जो स्पष्ट है वह यह है कि सभी लाभदायक या लाभकारी विशेषताएं प्रासंगिक नहीं हैं, परंतु केवल ऐसी विशेषताओं का प्रभावोत्पादकता से प्रत्यक्ष संबंध है, जो औषधि के मामले में उसकी उपचारात्मक प्रभावोत्पादकता में है, जैसा कि ऊपर देखा गया है।‘‘
नोवार्टिस ने प्रभावोत्पादकता में वृद्धि को मुक्त आधार रूप में इमेटिनिब पर बेहतर भौतिक-रासायनिक विशेषताओं द्वारा दर्शाकर सिद्ध करने का प्रयास किया (जैसे बेहतर प्रवाह विशेषताएं, बेहतर ऊष्मा गतिकी स्थिरता, कम द्रवग्रह्यता इत्यादि) हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह मान्य किया कि ये विशेषताएं बेहतर प्रक्रियाकरण भंडारणीयता, स्थिरता, इत्यादि प्रदान कर सकती हैं परंतु ऐसा नहीं माना जा सकता कि इनमें अनुच्छेद 3 डी के तहत इमेटिनिब मेसीलेट पर बढ़ी हुई प्रभावोत्पादकता है (अर्थात उपचारात्मक प्रभावोत्पादकता)।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है किः
‘‘केवल बढ़ी हुई जैव उपलब्धता ही अनिवार्य रूप से उपचारात्मक प्रभावोत्पादकता में वृद्धि करे यह आवश्यक नहीं है। किसी भी दिए गए मामले में जैव-उपलब्धता में वृद्धि का परिणाम उपचारात्मक प्रभावोत्पादकता की वृद्धि में हो रहा है या नहीं यह अनुसंधान आंकड़ों के माध्यम से स्पष्ट रूप से दावा किया जाना चाहिए और इसे स्थापित किया जाना चाहिए।‘‘
यह माना गया कि नोवार्टिस द्वारा यह सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किये गए हैं कि इमेटिनिब मिसायलेट का बीटा क्रिस्टलीय रूप वीवो पशु मॉडल में इमेटिनिब मुक्त आधार पर बढ़ी हुई उपचारात्मक प्रभावोत्पादकता को दर्शाता है।
इस प्रकार अंततः सर्वोच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा और उसने निर्णय दिया कि इमेटिनिब मिसायलेट का बीटा क्रिस्टलीय रूप अनुच्छेद 3(डी) के परीक्षण में असफल हुआ है अतः यह पेटेंट के योग्य नहीं है।
7.0 औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (DPCO) एवं एनपीपीए (NPPA)
राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) का गठन भारत में औषधि मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए एक सरकारी नियामक निकाय के रूप में वर्ष 1997 में किया गया था। इसे डीपीसीओ 2013 का प्रवर्तन करने का अधिकार है। यह विनियंत्रित औषधियों के मूल्यों की निगरानी करता है, और साथ ही विनिर्माताओं द्वारा वसूल की गई अतिरिक्त राशियां भी वापस लेता है। हालांकि ऐसे मामले अक्सर न्यायालयों में ही पहुँचते हैं।
देश भर में स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार और उपलब्धता के उद्देश्य से और मूलभूत औषधियों की सस्ते मूल्यों पर उपलब्धता के उद्देश्य से रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के औषधि विभाग ने मई 2013 में औषधि (मूल्य नियंत्रण) आदेश 2013 (डीपीसीओ 2013) अधिसूचित किया, जो 348 अनिवार्य औषधियों के मूल्यों को परिवर्तित कर सकता है। 2013 के शासन के पहले डीपीसीओ 1995 के प्रभावक्षेत्र में 74 थोक औषधियां शामिल थीं और औषधियों के मूल्य औषधि विनिर्माताओं द्वारा घोषित विनिर्माण लागतों के आधार पर निर्धारित किये जाते थे (अर्थात, सक्रिय औषधि घटकों या थोक औषधियों या योगों के निर्माता)।
राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) को औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश का प्रवर्तन करने के अधिकार दिए गए हैं। यह प्राधिकरण सरकार को औषधि मूल्य निर्धारण और नीति विषयक सलाह भी प्रदान करता है। इस प्राधिकरण के पास राष्ट्रीय अनिवार्य औषधि सूची (एनएलईएम) में सूचित औषधियों के मूल्य नियंत्रण की जिम्मेदारी भी है। जुलाई 2014 में मूल्य नियंत्रण का विस्तार एनएलईएम के बाहर की औषधियों पर भी किया गया और हृदयरोग और मधुमेह से संबंधित 108 औषधियों को मूल्य नियंत्रण तंत्र के अधीन लाया गया। भारतीय औषधि गठबंधन (आईपीए) सहित अनेक उद्योग निकायों ने एनपीपीए के इस कदम की आलोचना की और जुलाई के अंत में आईपीए ने एनपीपीए अधिसूचना को मुंबई उच्च न्यायालय में चुनौती दी। कानूनी विशेषज्ञों की राय लेने के बाद, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय, जिसके तहत एनपीपीए कार्य करता है, ने न्यायालय को बताया कि वह उन दिशानिर्देशों को वापस लेगा जिसे उसने हृदयरोग और मधुमेह से संबंधित 108 औषधियों को मूल्य नियंत्रण के अधीन लाने के लिए जारी किया था। सितंबर 2014 में यह विवादित आदेश जिसके द्वारा मूल्य नियंत्रण का 108 औषधियों के लिए विस्तार किया गया था, वापस लिया गया।
औषधि मूल्यों के विनियंत्रण के समर्थन में जो तर्क दिया जाता है वह यह है कि औषधि मूल्यों की स्थिरता प्रस्थापित करने के लिए बाजार की शक्तियां ही सर्वोत्तम उपयुक्त हैं, और औषधि उद्योग को अधिक लाभदायक बनाया जाना चाहिए ताकि वह अनुसंधान और विकास पर निवेश में वृद्धि करने में सक्षम बन सके और अंततः वैश्विक दृष्टि से प्रतिस्पर्धी बन सके। हालांकि औषधि मूल्यों के विनियंत्रण का तत्काल प्रभाव इन औषधियों के मूल्यों में तीव्र वृद्धि के रूप में हुआ है। औषधि फर्मों को इससे लाभ हुआ क्योंकि उनकी बिक्री का एक निश्चित प्रतिशत मूल्य नियंत्रण शासन से बाहर होगा। इस आदेश के परिणामस्वरूप औषधि कंपनियों के अंशभाग मूल्यों में भी तीव्र वृद्धि अनुभव की गई।
जैसा की पूर्व में कहा गया है डीपीसीओ 2013 ने एनपीपीए को यह अधिकार प्रदान किया है कि वह 348 अनिवार्य औषधियों के मूल्यों का विनियमन कर सके। नए डीपीसीओ 2013 के अनुसार अनिवार्य औषधियों की राष्ट्रीय सूची में निर्दिष्ट सभी उग्रताएं और खुराकें मूल्य नियंत्रण के अधीन होंगी। अब हम डीपीसीओ 2013 के प्रमुख पहलुओं पर परिज्ञान प्रदान करेंगे और उन पद्धतियों की चर्चा करेंगे जिनके आधार पर ऐसे प्रावधान क्रियान्वित किये गए हैं। डीपीसीओ 2013 का परिच्छेद 2 (आई) ‘‘सूत्रीकरण’’ शब्द की निम्नानुसार परिभाषा करता है, कि कोई औषधि प्रक्रियाकृत की गई है, या इसमें किसी औषधीय सहायक के बिना एक या एक से अधिक औषधियां उपस्थित हैं, जिनका उपयोग रोगों के निदान, उपचार, शमन या निवारण के लिए आतंरिक या बाह्य अनुप्रयोग के लिए किया जाता है, परंतु इनमें निम्न का समावेश नहीं किया जायेगा -
- कोई भी औषधि जो किसी प्रामाणिक आयुर्वेदिक (सिद्ध सहित) या यूनानी (टिब्ब) चिकित्सा प्रणाली में शामिल है;
- कोई भी औषधि जो चिकित्सा की होम्योपैथीक प्रणाली में शामिल है; और
- कोई भी पदार्थ जिसपर औषधि एवं प्रसाधन अधिनियम, 1940 (1940 का 23) के प्रावधान लागू नहीं होते;
डीपीसीओ 2013 के अनुसार ‘‘अनुसूचित सूत्रीकरण’’ का अर्थ है प्रथम अनुसूची में शामिल कोई भी सूत्रीकरण फिर चाहे वह प्रजातिगत संस्करण के माध्यम से संदर्भित किया जाता है या ब्रांड नाम के माध्यम से। ‘‘गैर-अनुसूचित सूत्रीकरण’’ को एक ऐसे सूत्रीकरण के रूप में परिभाषित किया गया है जिसकी शक्तियां और खुराकें प्रथम अनुसूची में निर्दिष्ट नहीं हैं।
‘‘अनुसूची‘‘ डीपीसीओ 2013 के साथ संलग्न की गई अनुसूची है।
अनुसूचित सूत्रीकरण का मूल्य निर्धारणः डीपीसीओ 2013 का परिच्छेद 4 किसी अनुसूचित सूत्रीकरण के अधिकतम मूल्य की गणना के लिए निम्नानुसार सूत्र प्रदान करता है -
पहला कदमः सबसे पहले अनुसूचित सूत्रीकरण के खुदरा व्यापारी के लिए औसत मूल्य, अर्थात पी(एस) की गणना निम्नानुसार की जाएगीः
खुदरा व्यापारी के लिए औसत मूल्य, पी (एस) = (खुदरा व्यापारी के लिए मूल्यों का योग किसी औषधि के सभी ब्रांड्स और प्रजातिगत संस्करणों की चलित वार्षिक विक्रय राशि के आधार पर गणना की गई बाजार हिस्सेदारी कुल बाजार की विक्रय राशि के एक प्रतिशत के बराबर या उससे अधिक है)/(औषधि के ऐसे ब्रांड्स और प्रजातिगत संस्करणों की कुल संख्या जिसकी चलित वार्षिक विक्रय राशि के आधार पर गणना की गई बाजार हिस्सेदारी कुल बाजार विक्रय राशि के एक प्रतिशत या उससे अधिक के बराबर है)।
दूसरा कदमः उसके बाद अनुसूचित सूत्रीकरण के अधिकतम मूल्य अर्थात पी(सी), की गणना निम्नानुसार की जाएगीः
पी(सी) = पी(एस) × (1 + एम/100), जहां पी(एस) = पहले कदम में की गई गणना के अनुसार औषधि की समान शक्तियों और खुराकों का खुदरा व्यापारी के लिए औसत मूल्य। एम = खुदरा व्यापारी का प्रतिशत मुनाफा और उसका मूल्य = 16।
डीपीसीओ 2013 में निम्न के अधिकतम मूल्य प्रदान किये गए हैं
- अनुसूचित सूत्रीकरण का अधिकतम मूल्य, ऐसे मामले में जहां प्रतियोगिता के अभाव के कारण मूल्य में कोई कमी नहीं की गई है
- अनुसूचित सूत्रीकरणों के विद्यमान विनिर्माताओं के लिए किसी नई औषधि के खुदरा मूल्य की गणना।
गैर-अनुसूचित सूत्रीकरणों का मूल्य निर्धारणः अनुसूचित सूत्रीकरणों के मूल्य निर्धारण के अतिरिक्त एनपीपीए को सभी औषधियों के अधिकतम खुदरा मूल्यों (एमआरपी) की निगरानी का भी अधिकार प्रदान किया गया है, जिनमें गैर अनुसूचित सूत्रीकरण भी शामिल हैं, वह यह सुनिश्चित करेगा कि कोई भी विनिर्माता किसी औषधि के अधिकतम खुदरा मूल्य में पिछले बारह महीनों के दौरान के अधिकतम खुदरा मूल्य के 10 प्रतिशत से अधिक वृद्धि नहीं कर रहा है, और किसी विनिर्माता द्वारा यदि 10 प्रतिशत से अधिक मूल्य वृद्धि की जाती है तो एनपीपीए को अधिकार है कि वह अगले 12 महीनों के लिए इस वृद्धि में 10 प्रतिशत की सीमा तक कटौती कर सकता है। ऐसे विनिर्माता का दायित्व है कि वह जुर्माने की राशि के अतिरिक्त मूल्य वृद्धि से उसके द्वारा वसूल की गई अतिरिक्त राशि का भुगतान भी मय ब्याज करेगा।
अनुसूचित और गैर-अनुसूचित सूत्रीकरणों के मूल्यों और मूल्य सूची का प्रदर्शनः डीपीसीओ 2013 के परिच्छेद 24 और 25 अनुसूचित और गैर अनुसूचित सूत्रीकरणों के विनिर्माताओं के लिए यह अनिवार्यता करते हैं कि प्रत्येक विनिर्माता बिक्री के उद्देश्य से विनिर्मित किये गए सभी अनुसूचित और गैर अनुसूचित सूत्रीकरणों के डिब्बों के सूचक पत्र (लेबल) पर और खुदरा बिक्री के लिए प्रस्तावित उसके न्यूनतम पैक पर अमिट चिन्हों में उस सूत्रीकरण का अधिकतम खुदरा मूल्य अंकित करेगा, जिसके पहले भाग में ‘‘अधिकतम खुदरा मूल्य’’ शब्द अंकित होने चाहियें और दुसरे भाग में ‘‘सभी करों सहित‘‘ शब्द अंकित होने चाहियें। परिच्छेद 26 निर्धारित करता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी उपभोक्ता को कोई सूत्रीकरण वर्तमान मूल्य सूची में निर्दिष्ट मूल्य या सूत्रीकरण के लेबल पर अंकित मूल्य, इन दोनों में से जो मूल्य कम है, से अधिक मूल्य पर नहीं बेचेगा।
डीपीसीओ 1987 और 1995 के तहत ली गई अधिक मूल्य राशि की वसूलीः परिच्छेद 23 कहता है कि आदेश में शामिल किसी भी बात के बावजूद सरकार नोटिस के माध्यम से विनिर्माताओं, आयातकों या वितरकों के लिए यह अनिवार्यता कर सकती है कि सरकार द्वारा औषधि (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 1987 और औषधि (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 1995 के प्रावधानों के तहत निर्धारित किये गए मूल्यों से अधिक मूल्य वसूल करने के परिणामस्वरूप उनके द्वारा एकत्रित की गई अतिरिक्त राशि को इस आदेश के तहत वापस जमा करवाएं।
खुदरा विक्रेताओं का मुनाफा और अधिकतम खुदरा मूल्यः परिच्छेद 7 निर्दिष्ट करता है कि अनुसूचित सूत्रीकरणों और नई औषधियों के खुदरा मूल्य निर्धारित करते समय खुदरा विक्रेताओं के मुनाफे के रूप में खुदरा विक्रेताओं के लिए निर्धारित किये गए मूल्य का 16 प्रतिशत खुदरा विक्रेताओं के मुनाफे के रूप में मान्य होगा। परिच्छेद 8 निर्दिष्ट करता है कि विनिर्माताओं द्वारा अनुसूचित सूत्रीकरणों का अधिकतम खुदरा मूल्य सरकार द्वारा अधिसूचित अधिकतम मूल्य के आधार पर निर्धारित किया जायेगा, और जहां स्थानीय कर लागू हों वहां स्थानीय कर जोडे़ जायेंगे। यहां तक कि किसी भी सूत्रीकरण की खुली मात्राएँ भी सूत्रीकरण के यथानुपात मूल्य से अधिक मूल्य पर नहीं बेची जाएँगी।
2016 के अद्यतनः आवश्यक औषधियों की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) सूची 2011 को परिवर्तित करके एनएलईएम 2015 कर दिया गया है। एनएलईएम 2011 के तहत 348 औषधियां शामिल की गई थीं। एनएलईएम 2015 में 376 औषधियां शामिल हैं। समग्र रूप से अब 800 से अधिक औषधि यौगिक मूल्य नियंत्रण के तहत शामिल हैं। आज लगभग 1400 मामलों में मुकदमे चल रहे हैं जहाँ एनपीपीए ने औषधि कंपनियों (67 करोड़ डॉलर से अधिक मूल्य के) को दण्ड नोटिस जारी किये हैं। अतः समग्र रूप से वर्ष 2016 में भारत का लगभग 18 प्रतिशत औषधि बाजार अब मूल्य नियंत्रण के तहत शामिल है। सरकार ने मार्च 2015 में ‘‘औषधि जन समाधान‘‘ योजना भी शुरू की है। इसमें औषधियों के मूल्य और उनकी उपलब्धता के संबंध में एक वेब आधारित शिकायत निवारण व्यवस्था है। सरकार का कार्य उद्योग की आवश्यकताओं का सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं के साथ संतुलन स्थापित करना है।
8.0 भारतीय पेटेंट अधिनियम में परिवर्तन का कोई प्रस्ताव नहीं है
फरवरी 2015 में भारत ने पेटेंट कानून में किसी भी प्रकार के संशोधन से इंकार कर दिया, और जोर देकर कहा कि बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों के संरक्षण में कोई रिक्तता नहीं है। राज्यसभा में सवालों के उत्तर देते हुए वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री निर्मला सीतारामन ने कहा कि बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों के विषय में सरकार पर कहीं से भी कोई दबाव नहीं है, और भारतीय कानून अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों की पूर्ति करते हैं। भारतीय पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के संदर्भ में मंत्री महोदया ने कहा कि यह मामला सरकार के संज्ञान में है और सभी पहलुओं पर ध्यान दिया जा रहा है। कांग्रेस नेता और भूतपूर्व वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि अमेरिका के पास एक मजबूत प्रकोष्ठ है जो भारत पर औषधि क्षेत्र में ट्रिप्स के पार जाने के लिए दबाव बना रहा है। इसपर सीतारामन ने कहा कि बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों के मुद्दों से निपटने के लिए अमेरिका के साथ कोई संयुक्त कार्य बल गठित नहीं किया गया है। उन्होंने कहा कि भारत-अमेरिका व्यापार नीति मंच के तहत सरकार उसी तंत्र को जारी रखे हुए है जो 2010 में स्थापित किया गया था। वर्तमान में पांच समितियां हैं, जिनमें बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों की एक समिति भी शामिल है। मंत्री महोदया ने कहा कि बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों पर एक व्यापक नीति पर कार्य करने के लिए एक विचार मंच का गठन किया गया है। इस विचार मंच ने अपनी पहली मसौदा रिपोर्ट भी सौंप दी है जिसपर औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग ने सार्वजनिक टिप्पणियां मांगी हैं।
9.0 भारतीय पेटेंट अधिनियम
भारतीय पेटेंट अधिनियम, 1970 का क्रियान्वयन भारत सरकार द्वारा 1972 में किया गया। इसके द्वारा औषधि उत्पाद नवप्रवर्तनों, साथ ही खाद्य और कृषि रसायनों में नवप्रवर्तनों को भी भारत में पेटेंटीकरण की दृष्टि से अयोग्य बना दिया गया। इसने अन्यत्र पेटेंट किये गए नवप्रवर्तनों की भारत में मुक्त रूप से नकल करने और उनका विपणन करने की अनुमति प्रदान की। साथ ही इस अधिनियम ने तैयार-सूत्रों के आयात को प्रतिबंधित कर दिया, उच्च शुल्क दरें अधिरोपित कीं और कडे़ मूल्य नियंत्रण विनियमों की शुरुआत की। यह अधिनियम बडे़ विदेशी बहुराष्ट्रीय संगठनों के लिए लाभदायक नहीं था और यह वैश्विक पेटेंट व्यवस्था से सुसंगत नहीं था।
विश्व व्यापार संगठन के तहत बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों के शासन का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए, 1970 के अधिनियम में संशोधन करना आवश्यक था। आवश्यकताएं ये थीं कि एक मेलबॉक्स व्यवस्था गठित की जानी थी और अनन्य विपणन अधिकारों (Exclusive Marketing Rights (EMR) की अनुमति प्रदान की जानी थी। अनन्य विपणन अधिकारों के तहत किसी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी को औषधि और कृषि रसायन उत्पादों के क्षेत्र में उत्पादों का भारतीय बाजार में विपणन करने के अनन्य अधिकार एक निर्दिष्ट अवधि (5 वर्ष) के लिए प्राप्त हो जायेंगे। मेलबॉक्स व्यवस्था एक ‘बक्सा’ है जिसमें औषधि और कृषि रसायन उत्पादों के पेटेंटीकरण के लिए सभी आवेदन प्राप्त किये जायेंगे। पेटेंट अधिनियम में इन प्रावधानों का समावेश 1999, 2001 और 2002 के संशोधनों के माध्यम से किया गया। मेलबॉक्स के आवेदनों पर विचार 2005 में किया गया।
हालांकि ये संशोधन दूरगामी थे, फिर भी इन्होने भारतीय पेटेंट अधिनियम को वैश्विक बौद्धिक संपत्ति व्यवस्था के पूर्णतः अनुरूप नहीं बनाया। यह अनुरूपता पेटेंट संशोधन अधिनियम, 2005 के माध्यम से शुरू की गई। इस संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नानुसार थेः
उत्पाद पेटेंटः यह अधिनियम प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में उत्पाद पेटेंट संरक्षण को विस्तारित करता है, अर्थात, औषधि, खाद्य एवं रसायन। पहले केवल प्रक्रिया पेटेंट की ही अनुमति थी, जो पेटेंट अधिकारों को सीमित करती थी। उदाहरणार्थ, प्रक्रिया पेटेंट उस पद्धति के लिए प्रदान किया जाता था जिसके द्वारा, मान लीजिये कि, कर्करोग का उपचार विनिर्मित किया जाता है, यह उपचार के लिए प्रदान नहीं किया जाता था। यह दूसरे विनिर्माताओं को वही उपचार किसी दूसरी पद्धति से विनिर्मित करने की अनुमति प्रदान करता था। अतः इससे मूल विनिर्माता के पेटेंट अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता था। परंतु अब 2005 के संशोधन के बाद पेटेंट कर्करोग के उपचार की पद्धति के साथ-साथ उपचार के लिए भी प्रदान किया जाता है।
अनिवार्य अनुज्ञप्तिकरण (Compulsory Licensing): यह एक ट्रिप्स अनुपालन प्रावधान है जो सरकारों को अधिकार प्रदान करता है ताकि वे पेटेंटों के दुरूपयोग को नियंत्रित कर सकें और उसे प्रतिबंधित कर सकें। पेटेंट के अस्तित्व के बावजूद सरकार अनिवार्य अनुज्ञप्ति को लागू कर है ताकि राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति में लोग पेटेंट किये गए उत्पाद का उपयोग जन गैर-वाणिज्यिक उपयोग के लिए कर सकें। सरकार उस अनिवार्य अनुज्ञप्ति को लागू कर सकती है यदि उसे लगता है कि पेटेंट किये गए उत्पाद के संदर्भ में जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है, और उत्पाद आम जनता को सस्ते मूल्यों पर उपलब्ध नहीं हो रहा है।
उपकरणों के नियंत्रण के लिए सॉफ्टवेयर (Embedded Software) यह अधिनियम उपकरणों के नियंत्रण के लिए सॉफ्टवेयर की अनुमति प्रदान करता है।
अन्य प्रावधानः अधिनियम पेटेंट धारक को अनुज्ञप्ति को चुनौती देने की अनुमति प्रदान करता है ताकि वह अपने उत्पाद के सामान्य उत्पादन को रोक सके। प्रदान पूर्व और प्रदान पश्चात विरोध की धारा का प्रावधान किया गया है। अधिनियम राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित प्रावधानों के सशक्तिकरण के अतिरिक्त ईएमआर से संबंधित प्रावधानों को भी हटाता है ताकि दोहरे उपयोग के विदेश में पेटेंटीकरण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान की जा सके।
पेटेंट अधिनियम, 2005 के अनुसार निम्नलिखित वस्तुओं का पेटेंट नहीं किया जा सकताः
- कोई तुच्छ (frivolous) आविष्कार जो स्थापित प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कोई दावा करता है।
- कोई ऐसा आविष्कार जिसका उपयोग नैतिकता के विरुद्ध होगा या स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होगा।
- किसी वैज्ञानिक सिद्धांत की केवल खोज या किसी निराकार सिद्धांत का सूत्रीकरण।
- किसी नई विशेषता या किसी ज्ञात पदार्थ के नए उपयोग की केवल खोज या किसी ज्ञात प्रक्रिया, मशीन या उपकरण का केवल उपयोग, जब तक कि ऐसे ज्ञात पदार्थ का परिणाम किसी उत्पाद में नहीं होता या जो कम से कम एक नए अभिकारक का उपयोग नहीं करता।
- केवल किन्ही पदार्थों के केवल मिश्रण से प्राप्त किया गया कोई पदार्थ, जिसका परिणाम केवल उसके घटकों की विशेषताओं के संयोजन में होता है या उस पदार्थ के उत्पादन की प्रक्रिया।
- ज्ञात पद्धति से स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाले ज्ञात उपकरणों की केवल व्यवस्था या पुनर्व्यवस्था या उनकी नकल।
- परीक्षण की एक पद्धति या प्रक्रिया जिसका अनुप्रयोग विनिर्माण की प्रक्रिया के दौरान किया जाता है जो उस मशीन, उपकरण या अन्य उपकरणों को अधिक कुशल बनाती है, या विद्यमान मशीन, उपकरण या अन्य उपकरणों में सुधार या उसकी पुनर्प्राप्ति के लिए ताकि विनिर्माण में सुधार किया जा सके या उसे नियंत्रित किया जा सके।
- कृषि या बागवानी की कोई पद्धति
- परमाणु ऊर्जा से संबंधित आविष्कार
9.1 अमेरिका की चिंताएं
अमेरिकी सरकार ने वैश्विक बौद्धिक अधिकारों के शासन पर अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधियों की ‘‘विशेष 301‘‘ वार्षिक रिपोर्ट में भारत को देशों की ‘‘प्राथमिकता निगरानी सूची’’ (Priority Watch List) में इस आधार पर रखा है कि ‘‘भारत में बौद्धिक संपत्ति अधिकारों के संरक्षण और प्रवर्तन के पर्यावरण के संबंध में बढ़ती हुई चिंताएं हैं।’’
अमेरिका के अनुसार, बहुविध क्षेत्रों में भारत में नवप्रवर्तन की स्थिति के भविष्य के संबंध में ‘‘गंभीर प्रश्न’’ मौजूद हैं। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधियों की निकट-निगरानी रिपोर्ट में भारत से आग्रह किया गया है कि वह फिल्म उद्योग को प्रभावित करने वाली ऑनलाइन चोरी और ‘‘कैमकॉर्ड की घटनाओं’’ जैसी चिंताओं को संबोधित करे, ताकि पेटेंट कानून की पूर्वकथनीयता को प्रोत्साहित किया जा सके, जिसमें भारत के पेटेंट अधिनियम के अनुच्छेद 3डी का प्रश्न भी शामिल है, साथ ही यह भी आग्रह किया गया है कि वह अधिनियम के अनुच्छेद 84 से उठने वाली चिंताओं और बौद्धिक संपत्ति अपीलीय बोर्ड के अनिवार्य अनुज्ञप्ति प्रदान करने के समर्थन से उठने वाली चिंताओं को भी संबोधित करे।
अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधियों की रिपोर्ट के अनुसार व्यापार चिन्ह पंजीकरण (Trade Mark Registry) के समक्ष होने वाली सुनवाइयों में भारत की संस्थागत अधोसंरचना में भी काफी विलंब होते हैं। साथ ही व्यापार गोपनीयता के उल्लंघन के लिए उपचार और क्षतिपूर्ति प्राप्त करने में भी काफी कठिनाइयां होती हैं। रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण कार्यवाहियों और स्थानीय विनिर्माताओं के अनुकूल नीतियों का भी उल्लेख करती है जिसके कारण प्रतिस्पर्धी परिदृश्य विकृत हो जाता है।
हालांकि भारत के विश्लेषकों का कहना है कि यह रिपोर्ट विभिन्न देशों पर विश्व व्यापार संगठन के दायित्वों के पार जा कर बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों को स्वीकार करने के लिए दबाव बनाने का एकतरफा उपाय है। जनवरी 2015 में राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा के दौरान भी यह मुद्दा उठा था परंतु इसका कोई समाधान नहीं ढूँढ़ा जा सका।
10.0 औषधि पेटेंटीकरण और मूल्य निर्धारण से संबंधित हाल के प्रमुख मुद्दे
10.1 अमेरिका से प्रशिक्षित पेटेंट परीक्षकों को अनुमति देने के निर्णय के लिए भारत सरकार की आलोचना हुई
मानवीय सहायता संगठन मेडिसिन्स सान्स फ्रोंतिरेस (सीमाविहीन चिकित्सक) (Doctors without Borders) ने अनिवार्य लाइसेंसिंग पर उठे हाल के विवाद के बाद यूनाइटेड स्टेट्स पेटेंट एंड ट्रेडमार्क कार्यालय द्वारा प्रशिक्षित पेटेंट अधिकारियों को लेने के भारत सरकार के निर्णय पर प्रश्न उठाया है। सरकार ने अमेरिकी उद्योग लॉबी समूहों - अमेरिका भारत व्यापार परिषद (यूएसआईबीसी) और अमेरिकी वाणिज्य मंडल - को निजी, मौखिक आश्वासन दिया था कि वह वाणिज्यिक प्रयोजन से ‘अनिवार्य लाइसेंसिंग‘ का उपयोग नहीं करेगी, जिसके द्वारा सरकार ने यह संकेत दिया कि भारतीय पेटेंट कार्यालय पेटेंट कराई गई औषधियों के जातिगत संस्करण के लिए न्यून लागत घरेलू औषधि कंपनियों को तत्परता से पेटेंट नहीं देगा।
अधिकार-आधारित पहुँच अभियानकर्ता कहते हैं कि यूएसआईबीसी, जिसे बहुराष्ट्रीय औषधि कंपनियों की ओर से वित्तीयन प्राप्त होता है, भारतीय पेटेंट परीक्षकों के लिए प्रशिक्षण सत्र आयोजित करता रहा है। डर इस बात का है कि इसके कारण वे बड़ी औषधि कंपनियों के आख्यान के अनुकूल बन सकते हैं।
मुंबई के पेटेंट कार्यालय के एक पेटेंट परीक्षक ने बताया कि यूएसआईबीसी का प्रशिक्षण मापदंड भारतीय परीक्षकों को जीवन रक्षक औषधि उत्पादों के अनुप्रयोग के मूल्यांकन में सहायता प्रदान कर रहा है। यह प्रशिक्षण अमेरिकी पेटेंट एवं ट्रेडमार्क कार्यालय के वरिष्ठ परीक्षकों द्वारा दिया जा रहा है। इसकी अवधि 3-6 दिन से लेकर छह महीने तक की होती है। प्रशिक्षण के लिए भारत से अधिकारियों को अमेरिका भी भेजा गया है। आमतौर पर भारतीय परीक्षक अमेरिका से उनकी सीखने की क्षमता के अनुसार सीख लेते हैं परंतु वे अनुच्छेद 3 (डी) पर हमारी नीति से समझौता नहीं करने का प्रयास करते हैं। हालांकि कार्यकर्ताओं को डर है कि इससे अमेरिकी औषधि उद्योग को, जिसे एक अधिक अनुकूल पेटेंट शासन की चाह है, भारत के पेटेंट कार्यालय के निर्णयों को प्रभावित करने की अनुमति मिल जाती है। एमएसएफ का मानना है कि यह भारत - जो गुणवत्तापूर्ण जातिगत औषधियों का विश्व का महत्वपूर्ण और प्रमुख उत्पादक और आपूर्तिकर्ता है - को बौद्धिक संपदा के ढीले प्रवर्तन के लिए अकेला करने की अमेरिकी नीति का हिस्सा है।
सबसे महत्वपूर्ण आरोप यह है कि चूंकि भारतीय एफडीए के नई औषधियों के न्यून लागत जातिगत संस्करण के पंजीकरण के लिए स्वतंत्र नियामक तरीके हैं। अतः एचआईवी के साथ जीवन जीने वाले करोडों लोग भारतीय विनिर्माताओं द्वारा आपूर्ति की गई औषधियां प्राप्त कर रहे हैं। अतः यूएसटीआर द्वारा समर्थित अमेरिकी औषधि उद्योग चाहता है कि भारतीय अधिकारी अपनी पेटेंट परीक्षण व्यवस्था को उदार बनाएं, और इसके लिए यहाँ तक कि वह व्यापार संगठनों के माध्यम से पेटेंट परीक्षकों को प्रशिक्षण भी दे रहा है।
10.2 अमेरिकी औषधि निर्माता एली लिली भारत में एक अनुकूल पेटेंट शासन चाहता है
एली लिली भारत में एक ऐसा अधिक अनुकूल पेटेंट शासन चाहता है जो ‘‘नवाचार को प्रोत्साहित‘‘ करता हो और इस संबंध में वह सरकार के साथ एक खुली चर्चा का स्वागत करता है। उसका तर्क यह है कि वह एक नवप्रवर्तन संचालित कंपनी है जो भारी लागत खर्च करके और अनेक वर्षों की मेहनत से एक औषधि विकसित करती है। और यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि एक ऐसा वातावरण हो जो नवप्रवर्तन को पुरस्कृत करता हो।
एक अनुकूल पेटेंट शासन के लिए एली लिली का आग्रह ऐसे समय आया है जब अमेरिकी औषधि निर्माताओं की एक लॉबी ने भारत के बौद्धिक संपदा के वातावरण को ‘‘कमजोर‘‘ कहा है। अमेरिकी व्यापार भागीदारों के बीच बौद्धिक संपदा अधिकारों के संरक्षण की स्थिति की समीक्षा करने वाले अमेरिकी औषधि अनुसंधान एवं विनिर्माता संघ ने अपनी वार्षिक विशेष 301 रिपोर्ट में कहा कि भारतीय न्यायिक और नियामक व्यवस्थाएं पेटेंट प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में प्रक्रियात्मक और मूलभूत बाधाएं पैदा करती हैं। अमेरिका की शीर्ष औषधि और जैवप्रौद्योगिकी कंपनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले निकाय पीएचआरएमए ने देश को अपनी प्राथमिकता निगरानी सूची में शामिल कर लिया है।
10.3 औषधि कंपनी वीव (ViiV) द्वारा प्रमुख एचआईवी औषधियों डोलुटेग्रविर और कबोटेग्रविर के लिए पेटेंट प्राप्त करने के प्रयासों का भारत में विरोध
मरीजों द्वारा ‘‘पेटेंट का विरोध‘‘ सस्ती जातिगत औषधियों की उपलब्धता चाहता है।
एचआईवी के साथ जीवन यापन करने वाले लोगों ने दो महत्वपूर्ण औषधियों के पेटेंट आवेदनों का विरोध किया है डोलुटेग्रविर (dolutegravir) और कबोटेग्रविर (cabotegravir)। मेडिसिन्स सान्स फ्रोंतिरेस/सीमाविहीन चिकित्सक इन ‘‘पेटेंट विरोधों‘‘ का समर्थन करता है जो वीव हेल्थकेयर (फाइजर और ग्लैक्सो स्मिथक्लिन का संयुक्त उपक्रम) के भारत में एकाधिकार प्राप्त करने के प्रयास को चुनौती देने के लिए दायर किये गए हैं जबकि उसके अनेक दावे भारतीय पटेंटिकरण मानदंडों के अनुसार संदिग्ध हैं।
कंपनी अभी तक भारत में ऐसे लोगों के लिए डोलुटेग्रविर उपलब्ध करा पाने में असफल रही है जिनके इलाज के अन्य विकल्प समाप्त हो गए हैं। कबोटेग्रविर अभी भी विकास के नैदानिक परीक्षण चरण में है।
एचआईवी पीडित लोगों का कहना है कि अब उन्होंने विद्यमान औषधियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर ली है और अब जीवित रहने के लिए उन्हें नई औषधियों की अत्यंत आवश्यकता है। भारत में निर्मित होने वाली सस्ती जातिगत औषधियां विकासशील देशों के लगभग 1.6 करोड लोगों को एचआईवी के इलाज पर रखने में सक्षम होने की दिशा में महत्वपूर्ण हैं।
अमेरिका और यूरोप में डोलुटेग्रविर उपयोग के लिए लगभग दो वर्ष से उपलब्ध है और अमेरिका में यह एचआईवी के इलाज में प्रथम पंक्ति की औषधि है क्योंकि यह विषाणुओं के स्तरों को अधिक शीघ्रता से कम करती है, अच्छी तरह से सहन की जा सकती है और साथ ही यह प्रतिरोध की उच्च बाधा भी है। विकासशील देशों में कुछ मरीजों के लिए इसकी अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि उन्होंने उपलब्ध प्रथम और द्वितीय पंक्ति की औषधियों के प्रति प्रतिरोध की स्थिति प्राप्त कर ली है। हालांकि भारत में वीव की ओर से यह औषधि उपलब्ध नहीं है क्योंकि कंपनी ने न तो भारत में पंजीयन के लिए आवेदन किया है और न ही वह भारत में मृत्यु की ओर अग्रसर मरीजों के लिए ‘‘सहानुभूतिपूर्ण उपयोग‘‘ कार्यक्रमों के तहत औषधि उपलब्ध कराती है। वर्ष 2014 में वीव ने वीव और औषधि पेटेंट समूह के बीच किये गए एक स्वैच्छिक लाइसेंस के तहत अनेक भारतीय स्वदेशी कंपनियों को डोलुटेग्रविर का लाइसेंस प्रदान किया है, साथ ही उसने कम से कम एक लाइसेंस औषधि पेटेंट समूह के बाहर भी प्रदान किया है। फिर भी वीव ने लाइसेंस की शर्तों के माध्यम से इस औषधि तक पहुंच को प्रभावी रूप से रोका हुआ है जो इसकी आपूर्ति कंपनी की पूर्वानुमति से भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं और गैर-सरकारी संगठनों तक सीमित करती हैं - निजी विक्रय के माध्यम से नहीं। अब यदि वीव को भारत में डोलुटेग्रविर के लिए पेटेंट प्राप्त होता है तो भारतीय उत्पादकों के बीच खुली जातिगत प्रतिस्पर्धा अवरुद्ध हो जाएगी, जो ऐसे मरीजों के लिए औषधि को पहुँच से बाहर कर देगी जिन्हें इसकी तत्काल और तीव्र आवश्यकता है।
भारत में एचआईवी से पीडित लोगों को लंबे विलंबों का सामना करना पड़ा है और इलाज के कार्यक्रम में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन द्वारा नई एचआईवी औषधियों और निगरानी साधनों की शुरुआत करने में अनेक वर्ष लगे हैं। विडंबना यह है कि औषधि का उत्पादन भारत में किया जायेगा और इसका निर्यात अफ्रीका को किया जायेगा, और यह भारत के जरूरतमंद लोगों को उपलब्ध नहीं होगी।
दूसरी औषधि, कबोटेग्रविर, जिसकी संरचना डोलुटेग्रविर के समान ही है, अभी भी वीव द्वारा विकास के स्तर पर ही है। इसके यौगिक के मूल्यांकन के लिए नैदानिक परीक्षण जारी हैं, जिसका विकास एक मौखिक गोली के साथ ही एक दीर्घ कालीन इंजेक्शन योग्य निरूपण के रूप में किया जा रहा है, जो एचआईवी से पीडित लोगों को इलाज के नए विकल्प प्रदान करेगा।
इसपर आरोप यह है कि इन औषधियों के मरीजों का अर्थ है एक ऐसी कंपनी को पूर्ण एकाधिकार का दर्जा जिसने पहले ही भारत में एक महत्वपूर्ण एचआईवी औषधि की उपलब्धता को प्रतिबंधित किया हुआ है। एमएसएफ एचआईवी के साथ रहने वाले विश्व के 2 लाख से अधिक लोगों के लिए भारत में बनी सस्ती औषधियों पर निर्भर है, और यह अन्य अनेक बीमारियों के इलाज के लिए भारतीय जातिगत औषधियों का उपयोग करता है जैसे मलेरिया और क्षयरोग। भारत और विकासशील देशों में एचआईवी से पीडित लोगों के लिए इन नई एचआईवी जीवन रक्षक औषधियों तक पहुँच बनाने का एकमात्र रास्ता यह है कि जातिगत औषधि उत्पादकों के बीच निर्बाध प्रतिस्पर्धा की स्थिति उत्पन्न की जाये।
पृष्ठभूमिः डीटीजी, जो एक इंटिग्रेस अवरोध है, में औषधि के प्रति प्रतिरोध के विकास को बाधित करने की उच्च क्षमता है। ऐसे एचआईवी मरीजों के लिए जिनका इलाज अन्य एंटीरेट्रोवायरल से असफल हो गया है और जिन्हें अब एक तीसरी पंक्ति के परहेज की आवश्यकता है, डीटीजी सहित परहेज काफी उपयोगी है जिसमें रलटेग्राविर जैसे अन्य विकल्पों की तुलना में प्रतिरोध के प्रति अधिक उच्च क्षमता है और जो अधिक शीघ्र प्रतिरोध विकसित करने में सक्षम है। एचआईवी इलाज के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के संशोधित दिशानिर्देशों में अब डीटीजी की एक वैकल्पिक प्रथम पंक्ति की औषधि के रूप में सिफारिश की जाती है क्योंकि यह एक अच्छी तरह से सहन करने योग्य प्रति दिन एक एआरवी है जो विषाणुओं के स्तर को अधिक तेजी से कम करता है, जिसकी प्रतिरोध को रोकने की क्षमता अधिक उच्च है और इसकी औषधि परस्पर क्रियाएं भी काफी कम हैं। संबंधित पेटेंट आवेदन (3865/केओएलएनपी/2007) जो औषधि कंपनियों जीएसके और शियोनोगी द्वारा संयुक्त रूप से दायर किया गया है कोलकाता पेटेंट कार्यालय के समक्ष परीक्षण के महत्वपूर्ण चरण पर है। वीव हेल्थकेयर ने कई इंटिग्रेस अवरोध यौगिकों के लिए अनन्य वैश्विक अधिकार प्राप्त किये हैं, जिनमें जापानी औषधि कंपनी शियोनोगी से प्राप्त किया गया डोलुटेग्रविर भी शामिल है। शियोनोगी को लगातार रॉयल्टी मिलती रहती है और वीव हेल्थकेयर में इसकी 10 प्रतिशत इक्विटी भी है। वीव हेल्थकेयर ग्लैक्सो स्मिथक्लिन (जीएसके) और फाइजर द्वारा नवंबर 2007 में स्थापित की गई कंपनी है। औषधि पेटेंट समूह के लाइसेंस के तहत वीव हेल्थकेयर ने भारत को रॉयल्टी देशों की सूची पर रख है जहाँ इस औषधि की आपूर्ति जातिगत कंपनियों (उप-लाइसेंस) द्वारा की जा सकती है, परंतु यह आपूर्ति कंपनी की पूर्वानुमति से केवल सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं और गैर-सरकारी संगठनों तक ही सीमित रहेगी। ओरोबिंदो जैसी जातिगत कंपनियां अब इस औषधि का भारत में भी निर्माण कर रही हैं, परन्तु यह उत्पादन केवल अन्य देशों को निर्यात के लिए ही किया जाता है, क्योंकि इसका अभी भारत में पंजीकरण नहीं हुआ है। वर्ष 2013 में डेल्ही नेटवर्क ऑफ पॉजिटिव पीपल (डीएनपी) ने आवेदन की स्वीकृति के विरुद्ध पहला विरोध दर्ज किया जो विशाल संख्या में इंटिग्रेस अवरोध यौगिकों का दावा करता है जो एचआईवी औषधियों का एक महत्वपूर्ण वर्ग है। एक मरकुश दावा कंपनियों द्वारा किया जाने वाले एवरग्रीनिंग दावे का अत्यंत आम प्रकार है जो एक अकेले पेटेंट आवेदन में करोडों यौगिकों का दावा करती हैं, परंतु वे यह उजागर नहीं करतीं कि वह विशिष्ट औषधि कौन सी है जिसके विकास और उत्पादन की वे योजना बन रही हैं। (मरकुश दावे पर अधिक जानकारी यहाँ दी गई है http://www.bitlaw.com/source/mpep/803_02.html)
10.4 ल्यूकेमिया की एक गोली जिसकी अमेरिका में लागत 9,000 डॉलर है, भारत में 70 डॉलर में बिकती है
भारत का जातिगत औषधि उद्योग (generic drugs industry) वैश्विक मूल्य एक एक छोटे से हिस्से जितनी लागत पर ऐसी अनेक जीवन रक्षक औषधियों का उत्पादन करता रहा है। हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक संभवतः पहली कंपनी होगी जिसने जिका विषाणु के लिए टीका बनाया यदि उसकी प्रभावोत्पादकता साबित हो जाती है। यदि वह सफल हो जाती है तो यह पहली बार नहीं होगा जब भारत विश्व की रक्षा के लिए आगे आया हो। निश्चित ही देश की जातिगत औषधियां केवल निम्न और मध्यम आय देशों में ही नहीं बल्कि विक्षित देशों में भी करोडों लोगों के लिए जीवन रेखा हैं। वर्ष 2001 में भारत के जातिगत उद्योग को विश्व स्तर पर प्रसिद्धि तब प्राप्त हुई जब सिपला ने एड्स के लिए प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम मूल्य पर एक तीन औषधियों का मिश्रण प्रस्तुत किया, यह मूल्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा वसूल किये जाने वाले मूल्य का एक बहुत ही सूक्ष्म हिस्सा था। आज अनेक एचआईवी एड्स औषधियों के अतिरिक्त यह उद्योग अनेक बीमारियों के लिए सस्ती उच्च गुणवत्तापूर्ण औषधियों का उत्पादन कर रहा है जिनमें हैपेटाइटिस बी और सी, कर्करोग, औषधि के प्रति प्रतिरोध प्राप्त क्षयरोग और दमा जैसी बीमारियां शामिल हैं। इसका श्रेय भारत के पेटेंट कानून को दिया जाता है, जिसे आमतौर पर पेटेंट एकाधिकार के दुरूपयोग का प्रतिबन्ध करने वाले और सार्वजनिक हित और औषधि उद्योग के विकास में संतुलन बनाए रखने वाले आदर्श कानून के रूप में माना जाता है।
जनवरी 2016 में जातिगत विनिर्माता नैटको ने घोषणा की कि वह हैपेटाइटिस सी की औषधि डकलतस्विर (daclatasvir) की आपूर्ति 112 विकासशील देशों को करेगी। वर्ष 2013 में हैपेटाइटिस सी का इलाज करने वाली एक औषधि सोफोस्बुविर (sofosbuvir) को इसकी प्रति गोली 1,000 डॉलर की कीमत के कारण अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि प्राप्त हुई। ग्राम से ग्राम की दृष्टि से गणना की जाये तो इसकी कीमत सोने की कीमत से 67 गुना है। बीमारी में उपयोग किया जाने वाला सोफोस्बुविर और डकलतस्विर के संयोजन का मूल्य अमेरिका में 12 हतों के इलाज के लिए प्रति मरीज 150,000 डॉलर है। परंतु भारत में इसकी कीमत उतनी ही अवधि के इलाज के लिए प्रति मरीज मात्र 700 डॉलर या 46,500 रुपये से कुछ अधिक है। और इसकी कीमतों में और भी कमी होने की संभावना है। पेटेंट की गई अनेक औषधियों का मूल्य फ्रांस, स्पेन या यूके जैसे यूरोपीय देशों में अमेरिका से औसतन आधा है। ब्राजील या दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में ये मूल्य अमेरिकी मूल्यों के एक तिहाई या पांचवां हिस्सा हैं। भारतीय मूल्य आमतौर पर अमेरिकी मूल्यों का 1100 वां हिस्सा हैं।
तो भारतीय स्वदेषी उद्योग ऐसा कैसे कर पाता है? पेटेंट प्राप्त करने के लिए नवप्रवर्तन क्या है इस पर भारत का पेटेंट कानून काफी कठोर है। साथ ही कानून के महत्वपूर्ण अनुच्छेद 3 (डी), जिसकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा काफी आलोचना की जाती है, ने ‘‘एवरग्रीनिंग‘‘ को प्रतिबंधित किया है - जिसका अर्थ है पेटेंट की अवधि का विस्तार करने के लिए एक ही औषधि के विभिन्न पहलुओं और सुधारों का पेटेंट करना - जो औषधि व्यवसाय के लिए बहुत ही लाभदायक खेल है।
भारतीय न्यायालयों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरणार्थ, हेपेटाइटिस बी के लिए एंटेकविर (entacavir) और फेफडों के कर्करोग के लिए एरलोटिनिब (erlotinib) के मामले में आँख बंद करके निषेधाज्ञा जारी करने या पेटेंट की वैधता को मान्य करने के बजाय न्यायालय ने जीवन रक्षक औषधि के बारे में सार्वजनिक पहुँच के पक्ष में आदेश जारी किया। इसने सिपला, रैनबैक्सी और नैटको जैसी कंपनियों को ‘‘खतरे के साथ शुरुआत‘‘ के लिए प्रोत्साहित किया, यह एक ऐसा शब्द है जो ऐसी कंपनी का वर्णन करता है जो एक जातिगत संस्करण को शुरू करके पेटेंट को चुनौती देती है। यह पेटेंट प्राप्त कंपनी को उन्हें न्यायालय में घसीटने के लिए मजबूर करता है, और इस प्रकार प्रदान किये गए पेटेंट की वैधता का परीक्षण हो जाता है। मरीजों के समूहों द्वारा दायर किये गए पेटेंट विरोध ने भी कर्करोग, हेपेटाइटिस और एचआईवी औषधियों पर किये गए अनेक फर्जी पेटेंट दावों को अस्वी.त करने के लिए प्रेरित किया, जिससे जातिगत प्रतिस्पर्धा का संरक्षण हुआ।
भारत का पेटेंट कानून अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने का प्रावधान भी करता है - जिसके तहत सरकार सार्वजनिक स्वस्थव के कारणों से पेटेंट धारक के अलावा किसी विनिर्माता को उसके द्वारा निर्धारित रॉयल्टी के आधार पर लाइसेंस प्रदान कर सकती है। इसका उपयोग वहां किया जा सकता है जहाँ औषधियां महँगी हैं या उपलब्ध नहीं हैं। अब तक प्रदान किया गया एकमात्र अनिवार्य लाइसेंस वर्ष 2012 में तब प्रदान किया गया था जब पेटेंट कार्यालय ने जातिगत कंपनी नैटको को बायर द्वारा पेटेंट किये गए सोरफेनिब का विपणन करने की अनुमति दी थी, यह औषधि गुर्दे और जिगर के कर्करोग के इलाज में उपयोग की जाती है। इस कदम को सर्वोच्च न्यायालय ने दिसंबर 2014 में वैध ठहराया जिसके कारण कीमत में 97 प्रतिशत तक की कमी करने में सहायता मिली, जो कंपनी के साथ मूल्य के मोलभाव के माध्यम से करना अकल्पनीय था।
यूनिसेफ द्वारा वितरित की जाने वाली लगभग आधी अनिवार्य औषधियां और अंतर्राष्ट्रीय डिस्पेंसरी एसोसिएशन द्वारा वितरित की जाने वाली 75 प्रतिशत औषधियां, जो 130 देशों से औषिधियाँ की खरीद करते हैं, भारत से क्रय की जाती हैं। उसी प्रकार विकासशील विश्व के लिए एचआईवी एड्स की 80 प्रतिशत औषधियां भी भारत से क्रय की जाती हैं।
परंतु ‘‘पेटेंट प्रवर्तन को मजबूत बनाने के लिए‘‘ यूरोप, अमेरिका और बहुराष्ट्रीय औषधि कंपनियों की ओर से भारत पर भारी दबाव है। इसका अर्थ यह हो सकता है कि पेटेंट की जाने वाली नई कर्करोग और क्षयरोग की औषधियां भारत और विकासशील देशों के करोडों लोगों की पहुँच से बाहर हो जाएँगी और कीमतों में कमी करने के लिए मजबूर करने वाले कोई जातिगत संस्करण भी उपलब्ध नहीं होंगे।
उदाहरणार्थ, स्तनों के कर्करोग और अन्य कडे़ ट्यूमर के लिए लैपैटिनिब (lapatinib), जिसका मूल्य प्रति माह 46,000 रुपये है, एक प्रकार के रक्त के कर्करोग के लिए दस्तानिब, जिसका मूल्य प्रति माह 70,000 रुपये से अधिक है, इनके लिए कोई सस्ते जातिगत संस्करण नहीं हैं। यहाँ तक कि डेलामिनिद जैसी औषधियां भी, जिसका उपयोग औषधि प्रतिरोधक क्षयरोग के इलाज में किया जाता है, भारत या विकासशील देशों में उपलब्ध नहीं होंगी जबकि इस रोग का भारत में सबसे अधिक बोझ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस जापानी कंपनी के पास इसका पेटेंट है, उसने भारत में इसे उपलब्ध नहीं किया है। वर्ष 2005 के पूर्व के पेटेंट शासन के दौरान यदि कंपनी औषधि को भारत में नहीं लाती थी, तो जातिगत कंपनियां इसे भारत में पंजी.त करा लेती थीं और इसकी आपूर्ति शुरू कर देती थीं, परन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता।
भारत विषय औषधि बाजार का केवल 1 से 2 प्रतिशत है। फिर भी इसके पेटेंट कानून पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित है। भारत के पेटेंट कानून पर प्रकाशित एक लेख में जन स्वास्थ्य आंदोलन के डॉ अमित सेनगुप्ता ने समझाया है कि यह ‘‘बडी औषधि कंपनियों के बाजार को भारत और ब्राजील जैसे देशों में विनिर्मित सस्ती जातिगत औषधियों से मिलने वाली प्रतिस्पर्धा से संरक्षित करने के लिए किया गया है।‘‘
10.5 भारत और प्रशांत संधि के दुष्प्रभाव
हाल ही में संपन्न हुए ट्रांस-पैसिफिक सहयोग समझौते (टीपीपीए) का दायरा पारंपरिक व्यापार चिंताओं से कहीं अधिक आगे जाता है। इसमें बौद्धिक संपदा पर सघन दायित्व शामिल किये गए हैं जो बौद्धिक संपदा अधिकारों के विभिन्न पहलुओं पर विश्व व्यापार संगठन समझौते के न्यूनतम मानकों से अधिक हैं।
नैरोबी में (दिसंबर 2015) हुई विश्व व्यापार संगठन की चर्चाओं के कुछ विशिष्ट परिणामों पर भारत की निराशा के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए भारत जैसे देशों को टीपीपीए के निहितार्थों का परीक्षण करना आवश्यक होगा, विशेष रूप से गैर-उल्लंघन शिकायतों के संबंध में। विशेष रूप से चूंकि अमेरिका जैसे विकसित देश भारतीय पेटेंट अधिनियम के अनुच्छेद 3 (डी) में शामिल ट्रिप्स के लचीलेपन के उपयोग के लिए भारत जैसे देशों को विश्व व्यापार संगठन के विवाद निवारण निकाय के समक्ष ले जा सकते हैं। अनेक लचीलेपन टीपीपीए का हिस्सा नहीं हैं।
इसके बजाय टीपीपीए ने अनेक ट्रिप्स - प्लस प्रावधानों को अपनाया है जो वास्तव में एकाधिकार के अधिकारों का विस्तार करते हैं। हालांकि भारत टीपीपीए का एक पक्ष नहीं है, फिर भी ये ट्रिप्स - प्लस प्रावधान भारतीय औषधि उद्योग की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन्हें उसके द्वारा टीपीपीए सदस्यों को किये जाने वाले निर्यात पर लागू किया जायेगा। इसके कारण स्वदेशी औषधियों के प्रवेश में विलंब हो सकता है और वे प्रभावित हो सकेंगी, जिसके कारण सभी के लिए औषधि तक पहुँच की योजना खतरे में पड़ सकती है।
टीपीपीए में शामिल कुछ चिंताजनक आईपी प्लस विशेषताएं हैं पेटेंट मानदंड और अवधि का विस्तार। टीपीपीए का उद्देश्य ऐसे आविष्कारों को पेटेंट प्रदान करना है जो मात्र बदलाव हैं न कि पूर्णतः नए या अभिनव हैं। इससे पेटेंटीकरण की आवश्यकताएँ कमजोर हो जाती हैं जिनका परिणाम उनके ‘‘एवरग्रीनिंग‘‘ और एकाधिकार में कम से कम पांच वर्ष के विस्तार में होता है। इसके कारण किसी औषधि के स्वदेशी संस्करण के प्रवेश में विलंब होगा, जिससे उसकी खरीदने की क्षमता और पहुँच प्रभावित होगी।
साथ ही इसमें आवेदनों की प्रक्रिया में ‘‘अनुचित‘‘ विलंब के लिए पेटेंट की शर्तों के विस्तार का भी प्रावधान है, जो एक ट्रिप्स प्लस मानक है जो पेटेंट धारकों को यह अधिकार प्रदान करता है कि वे अपेक्षा.त कम कीमत वाले बाजार में उस उत्पाद की शुरुआत में विलंब कर सकते हैं, विशेष रूप से विकासशील देशों में, जिसके कारण नई औषधियों तक पहुँच प्रतिकूल प्रभावित होती है।
तृतीय पक्षों को उसी उत्पाद को सुरक्षा या प्रभावोत्पादकता से संबंधित उन्हीं या समान आंकड़ों का उपयोग करके उसके जैसे उत्पादों का विपणन करने की अनुमति नहीं है। फिर चाहे विभिन्न पक्ष उन पांच वर्षों के दौरान स्वदेशी औषधियों के लिए आवेदन स्वीकार ही क्यों न करते हों, विपणन की अनुमति पांच वर्ष की अवधि के समाप्त होने पर ही प्रदान की जाएगी।
भारत जैसे विकासशील देशों के लिए पेटेंट जुडाव (Patent Linkages) अन्य चिंताएं हैं क्योंकि इसके कारण ऐसे अन्य बाजारों में अतिरिक्त एकाधिकार की अवधि में विस्तार किया जा सकता है जिनमें उस प्रकार की औपचारिक व्यवस्थाएं नहीं हैं, जैसी अमेरिका की नारंगी पुस्तक में उपलब्ध हैं (यह ऐसी व्यवस्था है जो औषधि नियामकों को स्वदेशी उत्पादों को निर्धारित समयावधि के अंदर अनुमति प्रदान करने की अनिवार्यता बनाती है), जिसके कारण स्वदेशी औषधियों की शुरुआत में विलंब होता है। चिंताओं की सूची यहीं समाप्त नहीं होती। उदाहरणार्थ, इसके साथ ही सरकार की इस क्षमता पर भी निर्बन्ध हैं कि वह अनिवार्य लइसेंस का उपयोग पेटेंट धारकों के साथ मूल्य में मोलभाव के साधन के रूप में कर सके और विश्व व्यापार संगठन के ट्रिप्स समझौते के अर्थ में मध्यस्थता कर सके।
लीक से हटकर प्रावधानों का समावेश, जैसे बौद्धिक संपदा का निवेश अध्याय में एक परिसंपत्ति के रूप में समावेश करना और सीमा शुल्क अधिकारियों को वैध स्वदेशी औषधियों को जब्त करने का अधिकार प्रदान करना, जिनमें मार्गस्थ माल भी शामिल है, भी स्वदेशी कंपनियों की अनेक बाजारों में पहुँच को सीमित करेंगे। टीपीपीए नवप्रवर्तनों को ऐसे प्रावधानों के माध्यम से कम से कम दस वर्षों के लिए अतिरिक्त एकाधिकार प्रदान करता है जो ट्रिप्स समझौते से कहीं आगे जाते हैं। इसका समाज पर यह प्रभाव पड सकता है कि नवप्रवर्तकों को नई औषधियों पर अनुसंधान और विकास करने के लिए कोई प्रोत्साहन ही नहीं बचेगा, और इसके कारण शायद मरीजों को कम से कम दस वर्षों तक अधिक मूल्य चुकाना पड़ सकता है।
11.0 राष्ट्रीय बौद्धिक संपत्ति अधिकार नीति का मसौदा
(Draft National IPR Policy)
भारत सरकार द्वारा गठित बौद्धिक संपत्ति अधिकार विचार मंच ने राष्ट्रीय बौद्धिक संपत्ति अधिकार नीति पर अपना पहला मसौदा 19 दिसंबर 2014 को प्रस्तुत किया था। इस मसौदा बौद्धिक संपत्ति अधिकार नीति के उद्देश्य निम्नानुसार हैंः
- समाज के सभी वर्गों में बौद्धिक संपत्ति के आर्थिक, सामाजिक और सांस्.तिक लाभों के विषय में जन-जागरण का निर्माण करना ताकि विकास को बढ़ावा दिया जा सके, उद्यमिता को प्रोत्साहित किया जा सके, रोजगार और प्रतिस्पर्धात्मकता में वृद्धि की जा सके।
- बौद्धिक संपत्ति निर्माण को प्रोत्साहित करने वाले उपायों के माध्यम से बौद्धिक संपत्ति के निर्माण और विकास को प्रेरित करना।
- बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों के संबंध में मजबूत, कडे़ और प्रभावी कानूनों को प्रस्थापित करना जो राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों से सुसंगत हों, और जो इन अधिकारों के मालिकों के हितों और सार्वजनिक हितों के बीच संतुलन स्थापित कर सकें।
- बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों और उपयोगकर्ता उन्मुख सेवाओं के कुशल, समयोचित और लागत प्रभावी प्रदाय और प्रबंधन के लिए बौद्धिक संपत्ति प्रशासन को आधुनिक और सशक्त बनाना।
- बौद्धिक संपत्ति अधिकारों के वाणिज्यीकरण को बढ़ावा देना; मूल्यांकन, अनुज्ञप्तिकरण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण।
- बौद्धिक संपत्ति उल्लंघन, चोरी और जालसाजी पर नियंत्रण करने के लिए प्रवर्तन और अधिनिर्णयन का सशक्तिकरण य बौद्धिक संपत्ति विवादों के प्रभावी और तात्कालिक अधिनिर्णयन को सुविधाजनक बनाना; समाज के सभी वर्गों के बीच बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों के विषय में जागरूकता को प्रोत्साहित करना।
- बौद्धिक संपत्ति में शिक्षा, प्रशिक्षण, अनुसंधान और कौशल निर्माण के लिए मानव संसाधनों, संस्थाओं और क्षमताओं का सशक्तिकरण करना।
नई मसौदा नीति में ऐसे अनेक प्रस्तावों का भी प्रयास किया गया है जो इसे ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ अभियानों के साथ जोड़ते हैं। इस मसौदा नीति की मुख्यतः इस आधार पर आलोचना की गई है कि मसौदा नीति में जो उपाय सुझाये गए हैं उनके लिए भारत में विदेशी बौद्धिक संपत्तियों के संरक्षण और संवर्धन के लिए विशाल सरकारी वित्तपोषण की आवश्यकता है, हालांकि मसौदे में कहा गया है कि बौद्धिक संपत्ति अधिकारों के संरक्षण का प्राथमिक दायित्व बौद्धिक संपत्ति के स्वामियों का होगा। प्रतिलिप्याधिकार (कॉपीराइट) संरक्षण के संबंध में राज्य कानून के संदर्भ के कारण कुछ विशेषज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि नीति में संतुलन समाज के विरुद्ध बौद्धिक संपत्ति धारकों के पक्ष में झुका हुआ है।
जनवरी 2016 में, सरकार ने कहा कि वह राष्ट्रीय आईपीआर नीति को अंतिम रूप दे रही है। नई नीति आर्थिक विकास के साथ ही सामाजिक-आर्थिक कार्यसूची को भी बढ़ावा देगी।
12.0 डीपीसीओ 2013 एवं मोदी-मुंडी फार्मा केस/द इंडोको रेमेडिज़ मामला
- भारत सरकार ने दवा मूल्य निर्धारण के लिए जनता को प्राथमिकता देने नीति अपनाई है, जिन्हें अदालतों का सामान्य समर्थन प्राप्त रहा है।
- मूल्य नियंत्रण नियमों (डीपीसीओ) की व्याख्या अदालतों के समक्ष कई विवादास्पद मुकदमों के लिए एक विषय है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने 17 जुलाई, 2018 को मोदी-मुंडी फार्मा प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ के मामले में फैसला सुनाया।
- अदालत ने कहा है कि वृद्धिशील नवाचार या एक नई दवा वितरण प्रणाली के माध्यम से विकसित की गई दवाएं यदि स्पष्ट रूप से सूचीबद्ध हो तो ही उन्हें केवल कीमतों की सीमा तय करने, खरीद आदि को ठीक करने के उद्देश्य से आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची 2015 (एनएलईएम) में शामिल किया जा सकता हैं।
- इसलिए, अदालत ने स्पष्ट किया कि किस तरह की दवाएं शामिल की जानी हैं।
- आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 (ईसी अधिनियम) आवश्यक वस्तुओं जैसे कि अनाज, खाद्य पदार्थों या उपभोक्ताओं को बेची जाने वाली दवाओं की कीमतों को विनियमित करने के लिए एक केंद्रीय कानून है।
- ईसी अधिनियम की धारा 3 और राष्ट्रीय फार्मास्यूटिकल्स मूल्य निर्धारण नीति -2012 (एनपीपीपी 2012) के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, केंद्र सरकार ने ड्रग्स (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 2013 (डीपीसीओ 2013) लागू किया है, जो अनुसूचित दवाओं कीमतों को विनियमित करने का तरीका निर्धारित करता है।
- इसके अनुसरण में, एनएलईएम सरकार द्वारा घोषित की जाने वाली सभी आवश्यक दवाओं की एक सूची है और इसे डीपीसीओ 2013 अनुसूची 1 के रूप में जोड़ा गया है। सभी दवाएं जो एनएलईएम के तहत सूचीबद्ध हैं, उन्हें ‘अनुसूचित फॉर्म्युलेशन’ तथा इसी प्रकार गैर-लिस्टेड दवाओं को ‘गैर-अनुसूचित फॉर्म्युलेशन’ कहा जाता है। महानिदेशक स्वास्थ्य सेवा (डीजीएचएस) द्वारा गठित विशेषज्ञों की एक समिति एनएलईएम को कम लागत और उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करने के एक उपकरण के रूप में तैयार करती है और तदनुसार, ‘आवश्यक’ मानी जाने वाली दवाएं उचित मूल्य पर उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराई जाती हैं।
- याचिकाकर्ता, एक फार्मास्युटिकल कंपनी, के अनुसार ‘ट्रामाडोल 100 ग्राम सीआर 10’ (ट्रामाडोल सीआर 10) की मूल्यसीमा तय करने के संबंध में राष्ट्रीय फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) द्वारा पारित आदेश के खिलाफ एक फार्मास्युटिकल कंपनी ने दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि ‘ट्रामाडोल सीआर 10’ को केवल कैप्सूल और इंजेक्शन रूपों में एनएलईएम 2015 में सूचीबद्ध किया गया था, जबकि उनका निर्माण एक निरंतर नियंत्रित रिलीज दोहरी तंत्र दवा वितरण प्रणाली (सीआर-प्रौद्योगिकी) का उपयोग करता है, जो विशेष रूप से एनएलईएम -2015 में शामिल नहीं था, एवं, इस प्रकार, डीपीसीओ-2013 के तहत एक ‘अनुसूचित फॉर्म्युलेशन’ नहीं है।
- डीपीसीओ 2013 के तहत फॉर्म्युलेशन को निम्नानुसार परिभाषित किया गया है - (ए) ‘अनुसूचित फॉर्म्युलेशन’ का अर्थ है पहली अनुसूची में शामिल किए गए कोई भी फॉर्म्युलेशन चाहे वे जेनेरिक संस्करणों या फिर ब्रांड नाम से संदर्भित हो। (बी) ‘गैर-अनुसूचित फॉर्म्युलेशन’ का अर्थ है फॉर्म्युलेशन, खुराक एवं स्ट्रेंथ, जो पहली अनुसूची में निर्दिष्ट नहीं हैं।
- याचिकाकर्ता ने अपने दावे के समर्थन में स्पष्टीकरण (2) एनएलईएम 2015 पर भरोसा करते हुए कहा कि निरंतर रिलीज/नियंत्रण रिलीज जैसे नवाचारों को अनुसूचित रूप में केवल तभी माना जाएगा, यदि उन्हें एनएलईएम में विशेष रूप से शामिल किया गया हैं।
- दूसरी ओर उत्तरदाताओं ने कहा कि केवल इसलिए कि खुराक फॉर्म को शामिल नहीं किया गया था, फॉर्मूला एनपीपीए द्वारा मूल्य सीमा के दायरे से बाहर नहीं होगा। यदि कोई निर्माता प्रशासन की संरचना या मोड के संदर्भ में अपने उत्पाद को घुमाता या संशोधित करता है, तो यह डीपीसीओ के तहत मूल्य नियंत्रण शासन के दायरे से दवा के बहिष्करण का परिणाम नहीं होगा।
- एनएलईएम 2015 के लिए स्पष्टीकरण (1) और (2) - स्पष्टीकरण (1) का सार यह है कि एनएलईएम में शामिल होने वाली प्रत्येक दवा को साथ में एक खुराक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। अन्य किसी खुराक (यानी टैबलेट, कैप्सूल, पाउच आदि) के रूप में, यह मानते हुए कि यह समान स्तर की दवा है एवं इसके लेने के तरिकों (यानी मौखिक रूप से, इंजेक्शन से) फार्माकोकाइनेटिक्स या फार्माकोडायनामिक्स के संदर्भ में में कोई महत्वपूर्ण अंतर नही है, तो ऐसी दवा को डीपीसीओ के तहत अनुसूचित फॉर्म्युलेशन की सूची में शामिल माना जाएगा।
- इसके विस्तार के रूप में, स्पष्टीकरण 2 यह बताता है कि वृद्धिशील नवाचार (एक मौजूदा गुणवत्ता पर एक अतिरिक्त नवाचार) या नव दवा वितरण प्रणाली (निरंतर/निरंतर रिलीज) के माध्यम से विकसित फॉर्म्युलेशन्स को तब तक शामिल नहीं किया जा सकता है जब तक कि दवा के साथ सूची में विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया जाता है। समावेशन, उत्पाद, इसकी खुराक, उपयोग का तरिका और विशेष विशेषताएं जो इसे दूसरों से अलग करती हैं के लिए स्पिसीफीक होना चाहिए।
- ‘दिल्ली उच्च न्यायालय ने दोनों स्पष्टीकरणों के पीछे की मंशा का पता लगाने के लिए ‘आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची के संशोधन की कोर समिति की रिपोर्ट 2015’ को देखा। यह निष्कर्ष निकाला है कि अगर वहाँ प्रौद्योगिकी सम्मिलीत वृद्धिशील नवाचार के माध्यम से विकसित, पारंपरिक फॉर्म्यलेशन के उपयोग के साथ जुड़े कुछ नुकसान को दूर करने के लिए एक बेहतर फॉर्म्युलेशन है, तो उसी को एनएलईएम 2015 के भाग के रूप में नहीं पढ़ा जाएगा जब तक कि विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया जाता है।
- इसके मद्देनजर, याचिका की अनुमति दी गई थी और ट्रामाडोल सीआर 10 को इसकी मूल्यसीमा प्रभावित अधिसूचना के दायरे से हटा दिया गया था।
- यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि, भले ही कोई दवा एनएलईएम का हिस्सा न हो, फिर भी यह कीमतों की निगरानी के अधीन होगी, क्योंकि अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) की वृद्धि डीपीसीओ 2013 के पैराग्राफ 20 के आधार पर एक साल में 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती है। यह एनपीपीए को गैर-अनुसूचित फॉर्म्युलेशन की कीमतों की निगरानी करने की शक्ति देता है।
- यह निर्णय फार्मास्यूटिकल उद्योग के लिए एक स्वागत योग्य कदम था क्योंकि यह, विशेष रूप से भारत में दवा क्षेत्र को परिभाषित करने वाले सख्त नियामक ढांचे के प्रकाश में, वृद्धिशील नवाचार या नव ड्रग डिलीवरी सिस्टम से संबंधित क्षेत्र के लिए नवाचार, अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करता है।
- माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘एनएलईएम 2015’ में, 2016 में संशोधन के माध्यम से डाले गए स्पष्टीकरण को पर्याप्त रूप से स्पष्ट किया है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि माननीय उच्च न्यायालय ने भी उपरोक्त प्रावधानों की व्याख्या करने में एक सुसंगत .ष्टिकोण का पालन किया है, जैसा कि इंडोको रेमेडीज केस में देखा गया था, जो कि जल्द ही तय किया गया था जबकि विभिन्न फार्म्यलेशन्स के बीच महत्वपूर्ण अंतर के होने का प्रश्न, इंडोको रेमेडीज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने आया।
- यहाँ, याचिकाकर्ता एक फॉर्म्युलेशन का उपयोग कर रहा था, जिसमें उसके पास एनएलईएम में सूचीबद्ध सेट्रीजीन की तुलना में की 5मीग्रा/मीली स्ट्रेंथ की डायल्युटेड सेट्रीजीन सिरप थी।
- न्यायालय ने देखा था कि निर्धारित मात्रा से किसी भी भौतिक अंतर को स्थापित करने के लिए मात्र मात्रात्मक अंतर अपर्याप्त होगा और इसे मोदी मुंडी फार्मा मामले से अलग किया जाएगा।
- अदालत ने यह भी कहा किरू ‘यह स्वीकार करना असंभव है कि विधायिका का इरादा अनुसूची से योगों को बाहर करना था, केवल वें की ताकत में कमजोर पड़ने या एकाग्रता के आधार पर? यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि, भले ही कोई दवा एनएलईएम का हिस्सा न हो, फिर भी यह कीमतों की निगरानी के अधीन होगी, क्योंकि अधिकतम खुदरा मूल्य (ष्डत्च्ष्) की वृद्धि 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती है डीपीसीओ 2013 के अनुच्छेद 20 के आधार पर। यह गैर-निर्धारित योगों की कीमतों की निगरानी करने के लिए छच्च्। को शक्ति प्रदान करता है।
- यह निर्णय फार्मास्यूटिकल उद्योग के लिए एक स्वागत योग्य कदम था क्योंकि यह वृद्धिशील नवाचार या उपन्यास ड्रग डिलीवरी सिस्टम से संबंधित क्षेत्र के लिए नवाचार, अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करता है, विशेष रूप से भारत में दवा क्षेत्र को परिभाषित करने वाले सख्त नियामक ढांचे के प्रकाश में।
- माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने एनएलईएम 2015 में स्पष्टीकरण को पर्याप्त रूप से स्पष्ट किया है, 2016 में संशोधन के माध्यम से एनएलईएम में डाला गया है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि माननीय उच्च न्यायालय ने भी उपरोक्त प्रावधानों की व्याख्या करने में एक सुसंगत .ष्टिकोण का पालन किया है। जैसा कि इंडोको रेमेडीज केस से देखा गया था, जो कि जल्द ही तय किया गया था कि योगों के बीच इस महत्वपूर्ण अंतर के गठन के सवाल के बाद, इंडोको रेमेडीज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने क्या आया।
- यहाँ, याचिकाकर्ता एक सूत्रीकरण का उपयोग कर रहा था, जिसकी एनएलईएम में सूचीबद्ध ‘‘सेट्रीज़ीन’’ की 5 उह ध्उस ताकत की तुलना में इसके सिरप में सेट्रीज़ीन की पतला शक्ति थी।
- न्यायालय ने यह देखा कि केवल मात्रात्मक अंतर शेड्यूल फॉर्मेशन में किसी मटेरियल डिफरेंस को स्थापित करने के लिए अपर्याप्त होगा एवं इसे मोदी मुंडी फार्मा मामले से अलग माना जाएगा।अदालत ने यह भी कहा कि - ‘यह स्वीकार करना असंभव है कि विधायी द्वारा अनुसूची 1 से, बताई गई दवाइयों को निकालने का कारण केवल उनकी क्षमता में डायल्युशन या कॉन्सनट्रेशन था।’
13.0 उपसंहार
भारत में औषधि पेटेंटों की शुरुआत के प्रभाव के आकलन लिए निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय हैंः 1) भारतीय अर्थव्यवस्था की सुसंगत वृद्धि दर, 2) आय के बढ़ते स्तर, 3) सभी मोर्चों पर बीमे की बढ़ती पैठ, विशेष रूप से बीमा क्षेत्र में निजी क्षेत्र को प्रदान की गई अनुमति के बाद, 4) भारत के 60 प्रतिशत ‘‘गरीबों‘‘ के लिए, जिनकी अभी तक औषधियों तक पहुंच नहीं है, पेटेंट की शुरुआत के कारण हुई मूल्य वृद्धि और मांग संवेदनशीलता अप्रासंगिक है। इस प्रकार बाजार का एक छोटा भाग ही नए शासन के कारण प्रभावित होगा, 5) भारत ऐसी द्वारा शासित है जो अपने अस्तित्व के लिए अधिकतर लोकलुभावन राजनीति पर निर्भर है, और यह सुनिश्चित करेगा कि अंतर्राष्ट्रीय दबावों के समक्ष बहुत अधिक झुके बिना समग्र जनसंख्या के सर्वोत्तम हितों की ओर ध्यान दिया गया है। समग्र रूप से नई पेटेंट व्यवस्था से भारत को लाभ ही है, जहां निहित लागतें अनेक कारकों के माध्यम से हाशिये पर चली गई हैं।
वैश्विक आर्थिक शक्ति केन्द्र और एक आकर्षक निवेष गंतव्य के रूप में भारत की भूमिका उसकी एक मज़बूत आईपीआर शासन लाने की क्षमता से जुड़ी है जो मज़बूत संरक्षण प्रदान करने में सक्षम हो।
धारा 3 - पेटेंट अधिनियम, 1970
क्या ‘आविष्कार’ नहीं हैं - इस अधिनियम के अर्थ में निम्नलिखित ‘आविष्कार’ नहीं हैं, -
- एक आविष्कार जो तुच्छ है या जो स्पष्ट रूप से स्थापित प्रा.तिक कानूनों के विपरीत कुछ भी दावा करता है।
- एक आविष्कार जिसके प्राथमिक या इच्छित उपयोग या व्यावसायिक शोषण, सार्वजनिक व्यवस्था या नैतिकता के विपरीत हो सकता है या जो मानव, पशु या पौधों के जीवन या स्वास्थ्य या पर्यावरण के लिए गंभीर पूर्वाग्रह का कारण बनता है।
- किसी वैज्ञानिक सिद्धांत की केवल खोज या एक एब्सट्रेक्ट थ्योरी 20 का गठन (या प्र.ति में होने वाली किसी भी जीवित चीज या गैर-जीवित पदार्थों की खोज।)
- किसी ज्ञात पदार्थ के एक नए रूप की मात्र खोज, जिसके परिणामस्वरूप उस पदार्थ की ज्ञात प्रभावकारिता में वृद्धि या किसी नई संपत्ति की मात्र खोज जो किसी ज्ञात पदार्थ के नए उपयोग या मात्र उपयोग के लिए नहीं होती है ज्ञात प्रक्रिया, मशीन या उपकरण जब तक कि इस तरह की ज्ञात प्रक्रिया एक नए उत्पाद में परिणत नहीं होती है या कम से कम एक नया अभिकारक नियुक्त नही करती है। स्पष्टीकरण - इस खंड के प्रयोजनों के लिए, लवण, एस्टर, ईथर, पॉलीमॉर्फ, मेटाबोलाइट्स, शुद्ध रूप, कण आकार, आइसोमर्स, आइसोमर्स का मिश्रण, कॉम्प्लेक्स, संयोजन और ज्ञात पदार्थ के अन्य डेरिवेटिव को एक ही पदार्थ माना जाएगा, जब तक कि उनके प्रभावकारिता के संबंध में गुणों में काफी भिन्नता ना हो।
- एक मात्र प्रवेश द्वारा प्राप्त पदार्थ जिसके परिणामस्वरूप घटकों के गुणों का एकत्रीकरण होता है या ऐसे पदार्थ के उत्पादन के लिए एक प्रक्रिया।
- ज्ञात तरीके से, एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से, कार्य करने वाले ज्ञात उपकरणों की केवल व्यवस्था या पुर्नव्यवस्था या दोहराव।
- कृषि या बागवानी की कोई विधि।
- औषधीय, शल्यचिकित्सा, उपचारात्मक, रोगनिरोधी, उपचारात्मक, प्रोफेलेटिक (डायग्नोस्टिक, थेरेपेटिक) या मनुष्यों के अन्य उपचार या जानवरों के समान उपचार की कोई प्रक्रिया जो उन्हें रोग मुक्त करे या उनके या उनके किसी उत्पाद के आर्थिक मूल्य को बढ़ाए।
- सूक्ष्म जीवों के अलावा संपूर्ण या उनके किसी भी हिस्से के रूप में पौधे एवं जानवर लेकिन जिनमे बीज, पौधों और जानवरों की विभिन्न किस्मों और प्रजातियों सहित उत्पादन या प्रसार के लिए अनिवार्य रूप से जैविक प्रक्रियाएं।
- एक गणितीय या व्यावसायिक विधि या एक कंप्यूटर प्रोग्राम या एल्गोरिदम।
- सिनेमाई कार्य या टेलीविजन शो सहित, एक साहित्यिक, नाटकीय, संगीत या कलात्मक कार्य या कोई अन्य सौंदर्य रचना।
- एक मात्र योजना या नियम या मानसिक कार्य करने की विधि या खेल खेलने की विधि।
- सूचना की प्रस्तुति।
- एकीकृत सर्किट की स्थला.ति।
- एक आविष्कार जो पारंपरिक रूप से प्रभावी है, या जो पारंपरिक रूप से ज्ञात घटक या घटकों के ज्ञात गुणों का एकत्रीकरण या दोहराव है।
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