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जल विज्ञान एवं हिमनद विज्ञान
1.0 प्रस्तावना
भू-दृश्य में पानी न केवल जीवन के लिए एक अनिवार्य घटक है, बल्कि यह भू-दृश्य अनाच्छादन और स्थलाकृति विकास का आधारभूत उत्प्रेरक भी है। जल विज्ञान उन प्रक्रियाओं का अध्ययन है जो पानी का महासागरों, वायुमंडल और भूतल के बीच आवर्तन करती हैं। यह पृथ्वी और अन्य ग्रहों पर पानी के संचलन, वितरण और गुणवत्ता का वैज्ञानिक अध्ययन है, जिसमें जलीय चक्र, जल संसाधन और पर्यावरणीय जलविभाजन धारणीयता भी शामिल है। उन भौतिक प्रक्रियाओं को समझना, जो पानी की भू-दृश्य के साथ परस्पर क्रिया को निर्धारित करती हैं, बढ़ती हुई पर्यावरणीय चुनौतियों और प्राकृतिक संसाधनों के दबावों के समक्ष हमारे संसाधनों के प्रबंधन की दृष्टि से आधारभूत है।
जल विज्ञान अनेक सदियों से अन्वेषण और अभियांत्रिकी का विषय रहा है। उदाहरणार्थ, 4000 ईसा पूर्व में पिछले बंजर भू-क्षेत्रों की उत्पादकता में सुधार करने के लिए नील नदी के ऊपर बांधों का निर्माण किया गया था। मेसोपोटेमिया के कस्बों को बाढ़ के खतरे से संरक्षित करने के लिए ऊंची मिट्टी की दीवारों का निर्माण किया गया था। यूनानी और प्राचीन रोम वासियों द्वारा जल सेतुओं का निर्माण किया गया था, जबकि चीन का इतिहास दर्शाता है कि उन्होंने सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं का निर्माण किया था। प्राचीन सिंहलियों ने श्रीलंका में जटिल सिंचाई परियोजनाओं के निर्माण के लिए जल विज्ञान का उपयोग किया था, जो उनके मुड़ने वाले फाटक के गड्ढों (Valve Pit) के आविष्कार के लिए जाते थे, जो विशाल जलाशयों, बांधों और नहरों के निर्माण की सुविधा प्रदान करते थे, जो आज भी कार्यरत हैं।
2.0 जलीय चक्र (The Hydrological Cycle)
जलीय चक्र सूर्य की ऊर्जा से संचालित वह प्रक्रिया है जो पानी को महासागरों, आकाश और भूमि के बीच चलाती है।
अपने जलीय चक्र के परीक्षण की शुरुआत हम महासागरों से कर सकते हैं जो इस पृथ्वी ग्रह के कुल जल में से 97 प्रतिशत जल का धारण करते हैं। सूर्य के कारण महासागरीय सतहों पर पानी का वाष्पीकरण होता है। यह जल वाष्प ऊपर की ओर उठती है, और छोटी-छोटी बूंदों के रूप में घनीभूत हो जाती है, जो धूल के कणों के साथ वायुमंडल में लटके रहते हैं। इन्हीं छोटी-छोटी बूंदों से बादलों की निर्मिति होती है। आमतौर पर जल वाष्प वायुमंडल में थोडे़ समय के लिए ही रहती है, व यह अवधि कुछ घंटों से लेकर कुछ दिनों की हो सकती है, जब तक कि जल वाष्प वर्षण में परिवर्तित होकर पृथ्वी पर वर्षा, बर्फ, तुषार वर्षा या ओलों के रूप में गिर नहीं जाती।
जलीय चक्र में शामिल पांच मुख्य प्रक्रियाएं हैं - संघनन (condensation) वर्षण (precipitation) अंतःस्पंदन, (infiltration), अपवाह (runoff) और वाष्पोत्सर्जन (evapotranspiration)। महासागर में, वायुमंडल में, और भूमि पर जल का निरंतर परिसंचरण पृथ्वी ग्रह पर पानी की उपलब्धता की दृष्टि से आधारभूत है।
कुछ वर्षण भूमि पर गिरता है और यह भूमि द्वारा अवशोषित (अंतःस्पंदन) कर लिया जाता है या सतही अपवाह बन जाता है, जो धीमे-धीमे नालियों, धाराओं, तालाबों या नदियों में प्रवाहित हो जाता है। धाराओं और नदियों का पानी महासागरों में प्रवाहित होता है, जमीन में रिस जाता है, या वापस वाष्पीकृत होकर वायुमंडल में चला जाता है।
मृदा का पानी पौधों/वृक्षों द्वारा अवशोषित किया जा सकता है, और फिर यह वाष्पोत्सर्जन नामक प्रक्रिया माध्यम से वायुमंडल में स्थानांतरित हो जाता है। मृदा से पानी वायुमंडल में वाष्पीकृत होता है। इन सभी प्रक्रियाओं को संयुक्त रूप से वाष्पीकृत-वाष्पोत्सर्जन (evapotranspiration) कहते हैं। मृदा का कुछ पानी रिस कर नीचे छिद्रयुक्त चट्टानों के क्षेत्र में चला जाता है, जिनमें भू-जल होता है। एक प्रवेशयोग्य (permeable) भूमिगत चट्टान परत जिसमें पर्याप्त मात्र में पानी का संग्रहण, संचरण और आपूर्ति करने की क्षमता होती है उसे जलभृत कहते हैं।
भूमि पर वाष्पीकरण और वाष्पीकृतवाष्पोत्सर्जन की तुलना में वर्षण अधिक होता है, परन्तु पृथ्वी का अधिकांश वाष्पीकरण (86 प्रतिशत) और वर्षण (78 प्रतिशत) महासागरों के ऊपर होता है। विश्व भर में वर्षण और वाष्पीकरण की मात्रा संतुलित होती है। जबकि पृथ्वी के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में अन्य क्षेत्रों की तुलना में वर्षण अधिक और वाष्पीकरण कम होता है, और इसके विपरीत भी होता है, वैश्विक स्तर पर कुछ वर्षों की अवधि के दौरान सब कुछ संतुलित हो जाता है।
स्थान के अनुसार विश्व की आपूर्ति
महासागर - 97.08 प्रतिशत हिम चादरें और हिमनद - 1.99 प्रतिशत
भूजल - 0.62 प्रतिशत वायुमंडल - 0.29 प्रतिशत
तालाब (मीठे पानी के) 0.01 प्रतिशत अंतर्देशीय समुद्र और खारे पानी के तालाब - 0.005 प्रतिशत
मृदा की आर्द्रता - 0.004 प्रतिशत नदियां - 0.001 प्रतिशत
केवल हिम युगों के दौरान ही पृथ्वी पर जल संग्रहण के स्थानों में उल्लेखनीय अंतर दिखाई देते हैं। इन ठंडे़ चक्रों के दौरान, महासागरों में संग्रहित जल कम होता है और हिम चादरों और हिमनदों में अधिक जल संग्रहित होता है। पानी के एक छोटे से अणु को महासागर से वायुमंडल से भूमि से वापस महासागर का जलीय चक्र पूर्ण करने के लिए कुछ दिनों से लेकर हजारों वर्ष भी लग सकते हैं, क्योंकि वह लंबे समय तक बर्फ में ही अटका हुआ रह सकता है।
3.0 अंतःस्पंदन (Infiltration)
अंतःस्पंदन - वायुमंडलीय वर्षण के एक छिद्रयुक्त वायु संचरण क्षेत्र में रिसाव - का अध्ययन भूजल पुनर्भरण या प्राकृतिक संसाधनों के मूल्यों के मूल्यांकन के लिए किया जाता है। भूजल अंतः स्पंदन पुनर्भरण की गहनता का निर्धारण निम्न द्वारा किया जाता हैः (ए) जलवायु कारक (वायुमंडलीय वर्षण और वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन के बीच का अंतर), (बी) स्थलाकृतिक उच्चावच का स्वरुप और परिमाण जो प्राकृतिक अपवाह के स्तर और वायुमंडलीय वर्षण, ढ़ाल अपवाह, और वायु संचरण क्षेत्र में रिसाव के बीच के संबंध को निर्धारित करता है, और (सी) क्षेत्र की भूगर्भीय संरचना, अर्थात वायु संचरण क्षेत्र का निर्माण करने वाली चट्टानों की निस्पंदन विशेषतायें और भूजल की गहराई।
इंफ्लुएशन पर्वतीय चट्टान विखंड़न, कार्स्ट, या छिद्र के माध्यम से वायुमंडलीय वर्षण की एक जलभृत में पैठ की प्रक्रिया को कहते हैं। अंतःस्पंदन की विशेषता है पर्णदलीय भूजल संचरण, और इंफ्लुएशन की विशेषता है अशांत प्रवाह।
अंतःस्पंदन भूजल पुनर्भरण का परिमाण निस्पंदन के गुणों, वायु संचरण क्षेत्र की मोटाई, वायुमंडलीय वर्षण की मात्रा, और इसके वाष्पीकरण द्वारा निर्धारित होती है। इसकी माप एक विशिष्ट समयावधि (आमतौर पर प्रति वर्ष, प्रति माह, या पुनर्भरण अवधि) के दौरान कितने मिलीमीटर पानी भूजल में प्रवाहित होता है इसके द्वारा की जाती है। इसके सामान्य स्वरुप में अंतः स्पंदन पुनर्भरण निम्न जल संतुलन समीकरण द्वारा निर्धारित किया जा सकता हैः
W = P - E - R ± S जहाँ
W है - अंतः स्पंदन
P है - वायुमंडलीय वर्षण
E है - वाष्पीकरण (वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन)
R है - सतही अपवाह, और
S है - वायु संचरण (असंतृप्त क्षेत्र) क्षेत्र में आर्द्रता संग्रह का परिवर्तन।
एक अपेक्षाकृत सपाट भू-दृश्य में अंतःस्पंदन दरारों और अधिक छिद्रयुक्त चट्टानों में संकेंद्रित होता है, साथ ही सूक्ष्म और व्यापक उच्चावचों के स्वतंत्र गड्ढों में होता है। दूसरे मामले में पुनर्भरण अवधियों के दौरान गड्ढ़़ों के नीचे भूजल स्तर के गुंबद के आकार के उन्नयन निर्मित हो जाते हैं। ये उन्नयन बाद में जलभृत पर पुनर्वितरित हो जाते हैं, और समतल वक्र विक्षेपण बन जाते हैं।
पृथ्वी की सतह के नीचे से पंप किया गया भूजल अक्सर सतही जल की तुलना में सस्ता, अधिक सुविधाजनक और प्रदूषण के प्रति कम भेद्य होता है। अतः इसे आमतौर पर सार्वजानिक जल आपूर्ति के लिए उपयोग किया जाता है। जल वैज्ञानिक भूमिगत संग्रहित जल का अनुमान स्थानीय कुओं में जलस्तर के मापन द्वारा लगाते है, और कुआँ-बेधन से प्राप्त भूगर्भीय रिकार्ड्स के परीक्षण के द्वारा लगाते हैं, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि जल धारण करने वाली तलछटों और चट्टानों का परिमाण, गहराई और मोटाई कितनी है। हालांकि भूजल प्रदूषण अक्सर भूमि पर अपशिष्ट के अनुचित निपटान का परिणाम होता है। इसके मुख्य स्रोतों में औद्योगिक और घरेलू रसायन, और कचरा गड्ढे, औद्योगिक अपशिष्ट पश्चजल, बहाव और खदानों का अपशिष्ट जल, तेल कुओं के नमकीन पानी के गड्ढे, रिसते हुए भूमिगत तेल संग्रहण टैंक और पाइपलाइन, मलनिस्सारण गाद और विशाकत (पूतिक) व्यवस्थाएं शामिल हैं। जल वैज्ञानिक अपशिष्ट निपटान स्थलों के निकट कुओं की निगरानी के बारे में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, और नियमित अंतरालों से उनके नमूने एकत्रित करते हैं, यह निर्धारित करने के लिए कि अवांछनीय बह कर आया हुआ नमकीन पानी-जल जिसमें विषाक्त या खतरनाक रसायन शामिल हैं- भूजल में जा रहा है या नहीं। भारत में भूजल एक महत्वपूर्ण संसाधन है जिसका उपयोग देश के 65 प्रतिशत सिंचाई कार्यों के लिए किया जाता है, साथ ही देश की 85 प्रतिशत पेय जल आपूर्ति भूजल के माध्यम से ही की जाती है। हालांकि वर्तमान प्रवृत्तियों के अनुसार ऐसा अनुमान लगाया गया है कि अगले बीस वर्षों में भारत के लगभग 60 प्रतिशत भूजल स्रोत अवक्रमण (degradation) की गंभीर स्थिति में पहुंच जायेंगे। सर्वाधिक प्रभावित उत्तर पश्चिमी राज्यों में हाल का उपग्रह द्वारा किया गया मापन दर्शाता है कि इन क्षेत्रों में 2002 से 2008 के बीच प्रतिवर्ष औसत गिरावट 33 सेंटीमीटर की रही है।
4.0 जलभृत (Aquifiers)
जलभृत संतृप्त चट्टानों का एक निकाय होता है जिसमें से पानी आसानी से प्रवाहित हो सकता है। जलभृत पारगम्य और छिद्रयुक्त, दोनों होना चाहिए, और इसमें ऐसी चट्टानें शामिल होती हैं जैसे बलुआ पत्थर, संचित, खंड़ित चूना पत्थर और असंपिंडित रेत और बजरी। खंडित ज्वालामुखी चट्टानें जैसे स्तम्भाकार बेसाल्ट अच्छे जलभृतों का निर्माण करते हैं। ज्वालामुखी प्रवाह के बीच के मलवा क्षेत्र आमतौर पर छिद्रयुक्त और पारगम्य, दोनों होते हैं, और इसलिए उत्कृष्ट जलभृतों की निर्मिति करते हैं। एक कुँए को उत्पादक होने के लिए उसका बेधन एक जलभृत में किया जाना चाहिए। ग्रेनाइट और परतदार चट्टान आमतौर पर कमजोर जलभृत होते हैं, क्योंकि उनकी सरंध्रता बहुत कम होती है। हालांकि यदि इन चट्टानों को बडे़ पैमाने पर खंडित किया जाए तो वे अच्छे जलभृत बन जाते हैं। कुआँ जलभृत में पैठ बनाने के लिए जमीन में बेधन किया हुआ एक छिद्र होता है। आमतौर पर ऐसे पानी को सतह पर पंप करके लाया जाना चाहिए। यदि पंप करने की गति इसके पुनर्भरण से अधिक होगी तो जलस्तर और नीचे चला जाता है, और कुआँ सूख भी सकता है। जब एक कुँए से पानी पंप किया जाता है, तो जलस्तर एक शंकु के गड्ढे में कुँए के नीचे चला जाता है। भूजल आमतौर पर जलस्तर की ढलान के नीचे कुँए की ओर प्रवाहित होता है।
जलभृत के बीच से प्रवाहित होने के लिए भूजल को चट्टानों के छिद्र स्थानों और तलछट के बीच से निचुड़ कर निकलना पड़ता है (ऐसे जलभृतों की सरंध्रता (porosity) उन्हें प्राकृतिक शुद्धता के लिए अच्छे निस्पंदन बनाती है) चूंकि छोटे-छोटे छिद्रों में से पानी को निकलने के लिए बल लगाने की आवश्यकता होती है, अतः जैसे-जैसे भूजल प्रवाहित होता जाता है वैसे-वैसे उसकी ऊर्जा कम होती जाती है जिसका परिणाम प्रवाह की दिशा में जलचालित सिरे में गिरावट में होता है। बडे छिद्र स्थानों की भेद्यता आमतौर पर अधिक होती है, वे कम ऊर्जा हानि करते हैं, अतः पानी को अधिक तीव्र गति से प्रवाहित होने में सहायक होते हैं। इसी कारण से भूजल जलभृतों के माध्यम से बडे़ क्षेत्रों पर उस दशा में अधिक गति से प्रवाहित होगा जहाँ सरंध्रता जुड़ी हुए दरारों से निर्मित होती है। खंड़ित चट्टान जलभृतों में पानी अधिक तीव्र गति से प्रवाहित होता है। इसे मामलों मे प्रदूषकों का फैलाव रोकना कठिन या असंभव हो जाता है।
जलभृत प्राकृतिक निस्पंदन होते हैं, जो तलछटों और अन्य कणों को रोक लेते हैं, और उनके माध्यम से प्रवाहित होने वाले भूजल को प्राकृतिक शुद्धिकरण प्रदान करते हैं। एक कॉफी निस्पंदन की तरह एक जलभृत की चट्टान या तलछट के छिद्र स्थानभूजल का कण पदार्थों से शुद्धिकरण करते हैं, परंतु ये घुले हुए पदार्थों का शुद्धिकरण नहीं कर पाते। साथ ही किसी भी निस्पंदन की तरह यदि छिद्र बहुत बडे़ होंगे, तो बैक्टीरिया जैसे कण उनमे से निकल सकते हैं। खंडित चट्टानों के जलभृतों में यह समस्या पाई जाती है (जैसे स्नेक नदी के मैदान, या दक्षिण पूर्वी इडाहो की तलछट से भरी घाटी के बाहर के क्षेत्र)।
एक जलभृत में चिकनी मिट्टी के कण और अन्य खनिज सतहें घुले हुए पदार्थों को भी रोक सकते हैं, या कम से कम उन्हें धीमा कर सकते हैं, अतः वे उतनी तेजी से प्रवाहित नहीं हो पाते जितनी तेजी से जलभृत से निकलने वाला जल प्रवाहित होता है। मृदाओं में प्रा.तिक निस्पंदन पुनर्भरण क्षेत्रों में अत्यंत है, और ऐसे क्षेत्रों में भी जहां गैरपरिरूद्ध जलभृतों के ऊपर सिंचित क्षेत्र हैं, जहां सतह पर दिया गया पानी मृदा में से जल स्तर की ओर रिसता जाता है।
प्राकृतिक शुद्धिकरण के बावजूद भूजल में कुछ पदार्थों का संकेंद्रण ऐसे मामलों में उच्च हो सकता है जहां चट्टानें और जलभृत के कुछ खनिज कुछ तत्वों के उच्च संकेन्द्रण में योगदान देते हैं। कुछ मामलों में जैसे लौह धुंधले में घुले हुए लोहे के उच्च संकेंद्रण के कारण स्वास्थ्य प्रभाव उतने समस्यापूर्ण नहीं बनते जितनी पीने के पानी की आपूर्ति के सौंदर्य की गुणवत्ता। अन्य मामलों में जहां लोराइड, यूरेनियम या आर्सेनिक जैसे तत्व से उच्च संकेंद्रण में पाये जाते हैं, ऐसे मामलों में माने स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है।
कोई भी गतिविधि जो ऐसा मार्ग बनाती है जहां सतह से जलस्तर की ओर पानी के प्रवाह की दर बढ़ जाती है उसका प्रभाव पडता है। उर्वरकों, कृषि रसायनों, और व्यापक क्षेत्रों पर सड़क रसायन की अत्यधिक मात्रा, कृषि रसायन जिसके साथ फसलों, गोल्फ मैदानों और अन्य सिंचित भूमि से या सड़क के किनारे के गड्ढों से बढ़ा हुआ पुनर्भरण प्रदूषण के कुछ ऐसे कारण है जो स्रोत बिंदु से अलग स्थान से जल को प्रदूषित करते हैं।
5.0 वर्षण और वाष्पीकरण (Precipitation and Evaporation)
वर्षण से तात्पर्य ऐसे किसी भी प्रकार के पानी से है, जो पृथ्वी के वायुमंडल में तैयार है और फिर पृथ्वी की सतह पर गिरता है। वाष्प, पानी छोटी बूँदें, जो हवा में लटकी रहती हैं, पृथ्वी के वायुमंडल में निर्मित होती है। वर्षण संघनित होता है, या पदार्थ के इन छोटे-छोटे टुकड़ों के इर्द-गिर्द इकठ्ठा हो जाता है, जिसे बादल संघनन नाभिक कहते हैं। वर्षण जलीय चक्र का एक भाग है। वर्षं जमीन पर बर्फ या वर्षा के रूप में गिरता है। अंततः यह वाष्पीकृत हो जाता है और गैस के रूप में वापस वायुमंडल में उड़ जाता है। बादलों में यह फिर से द्रव या ठोस पानी बन जाता है, और यह वापस पृथ्वी पर गिरता है। लोग पीने, नहाने और खाद्य के लिए फसलों की सिंचाई के पानी के लिए वर्षण पर निर्भर रहते हैं।
वर्षण के सबसे आम प्रकार हैं वर्षा, ओले और बर्फबारी।
वर्षाः वर्षा वह वर्षण है जो पृथ्वी की सतह पर पानी की बूंदों के रूप में गिरता है। वर्षा की बूँदें सूक्ष्म बादल संघनन नाभिक के इर्द-गिर्द निर्मित होती हैं, जिअसे धूल के कण और प्रदूषण के अणु। बादलों से गिरने वाली वर्षा, परंतु जो भूमि पर पहुंचने से पहले ठंडी होकर जम जाती है, उसे तुषार वर्षा या हिमपात कहते हैं।
ओलावृष्टिः ओले ठंडे तूफान बादलों होते हैं। यह तब निर्मित होते हैं जब अत्यंत ठंडी बूँदें जम जाती हैं या जैसे ही वे धूल या गंदगी के संपर्क में आती हैं, वैसे ही वे ठोस में परिवर्तित हो जाती हैं। तूफान ओले के कंकड़ों को बादलों के ऊपर के भाग में बहा कर जाता है। जमीन पर गिरने से पहले और अधिक जमी हुई पानी की बूँदें इनके साथ जुड़ जाती हैं। तुषार वर्षा के विपरीत, जो निर्मित होते समय तरल रूप में होती है, और जमीन पर गिरने से पहले जम जाती है, जबकि ओले ठोस बर्फ के कंकड़ों के रूप में गिरते हैं। ओले आमतौर पर चट्टानों के छोटे टुकडों के आकार के होते हैं, परंतु वे 15 सेंटीमीटर (6 इंच) तक बडे हो सकते हैं, और इनका वजन एक पौंड से अधिक हो सकता है।
हिमपातः हिमपात वह वर्षण है जो बर्फ के माणभ के रूप में गिरता है। ओले भी बर्फ होते हैं, परंतु ओले जमे हुए पानी की बूँदें होते हैं। हिमपात की संरचना काफी जटिल होती है। बर्फ के माणभ बादलों में व्यक्तिगत रूप से निर्मित होते हैं, परंतु जब वे गिरते हैं, तो वे बर्फ के गुच्छे के रूप में एक दूसरे के साथ चिपक जाते हैं। हिमपात तब होता है, जब व्यक्तिगत बर्फ के गुच्छे बादलों से गिरते हैं। एक ओले के तूफान के विपरीत, हिमपात आमतौर पर शांत होता है। ओले के कंकड़ कठोर होते हैं, जबकि बर्फ के गुच्छे नर्म होते हैं। हवा के तापमान और आर्द्रता के अनुसार बर्फ के गुच्छे विभिन्न आकारों में विकसित होते हैं।
वैश्विक उष्मन् वैश्विक वर्षण में परिवर्तन का कारण होता है। जब ग्रह अधिक गर्म होता है, तो अधिक बर्फ वायुमंडल में वाष्पीकृत होती है। अंततः इसका परिणाम अधिक वर्षाजन्य वर्षण में होता है। इसका अर्थ होता है उत्तरी अमेरिका के भागों में अधिक गीला मौसम, और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अधिक शुष्क स्थितियां, क्षेत्र अधिक उमस भरे होते हैं। पानी पृथ्वी की सतह से उठ कर वायुमंडल में दो विशिष्ट तंत्रों के माध्यम से पहुंचता हैः वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन
वाष्पीकरण को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जहां पानी गैसीय अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। वाष्पीकरण तभी संभव होता है जब पानी उपलब्ध हो। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि वायुमंडल की आर्द्रता वाष्पीकरण होने वाली सतह से कम होनी चाहिए (100 प्रतिशत सापेक्ष आर्द्रता पर वाष्पीकरण हो ही नहीं सकता)। वाष्पीकरण की प्रक्रिया के लिए बड़ी मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, पानी के एक ग्राम वाष्पीकरण के लिए 600 कैलोरी उष्मन ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
वाष्पोत्सर्जन रंध्रों के माध्यम से पौधों से जल हानि की प्रक्रिया को कहते हैं। रंध्र पत्तों की निचली सतह पर पाये जाने वाले छोटे-छोटे छिद्र होते हैं जो संवहनी पौध ऊतकों से जुडे़ होते हैं। अधिकांश पौधों में वाष्पोत्सर्जन एक निष्क्रिय प्रक्रिया होती है जो अधिकांश रूप से वायुमंडल की आर्द्रता और मृदा में नमी की मात्रा से नियंत्रित होती है। पौधे में से प्रवाहित होने वाले वाष्पोत्सर्जीत पानी में से केवल 1 प्रतिशत ही संवृद्धि प्रक्रिया में उपयोग किया जाता है। वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया मृदा से पोषक तत्व लेकर उनका पौधों की जडों में परिवहन भी करती है और उन्हें पौधों की विभिन्न कोशिकाओं तक ले जाती है, और कोशिकाओं को अधिक गर्म होने से भी बचाती है। शुष्क पर्यावरण के कुछ पौधों में अपने रंध्रों को खोलने और बंद करने की क्षमता भी होती है। यह अनुकूलन पौधों के ऊतकों से पानी की हानि को सीमित करने की दृष्टि से आवश्यक है। इस अनुकूलन के बिना भीषण सूखे की स्थिति में ये पौधे जीवित ही नहीं रह पाएंगे। अंतरु पर वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन में अंतर करना कठिन है अतः हम एक संयुक्त शब्द वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन का उपयोग करते हैं। किसी भी समय पृथ्वी की सतह से वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन की दर चार कारकों द्वारा नियंत्रित होती हैः
ऊर्जा उपलब्धताः जितनी ऊर्जा की उपलब्धता अधिक होगी उतनी ही वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन की दर अधिक होगी। एक ग्राम तरल पानी को गैस में परिवर्तित करने के लिए लगभग 600 कैलोरी उष्मन ऊर्जा की आवश्यकता होती है। वायुमंडल में प्रवेश करने वाली जलवाष्प की दर और मात्रा, दोनों अधिक शुष्क हवा में उच्च हो जाते हैं।
हम में से अनेकों ने यह अनुभव किया होगा कि जब तापमान सामान हो, तब भी जिस दिन तेज हवा चलती है उस दिन हमें शांत दिनों की तुलना में पौधों को अधिक पानी देने की आवश्यकता होती है। यह इसलिए होता है क्योंकि हवा वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन की संभावना को बढ़ा देती है। वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया जल वाष्प को जमीन या पानी की सतह से एक निकट की उथली परत पर ले जाती है जो केवल कुछ सेंटीमीटर मोटी होती है। जब यह परत संतृप्त हो जाती है तो वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया रुक जाती है। हालांकि हवा इस परत को अपने स्थान से हटा सकती है, और उसका स्थान शुष्क हवा ले लेती है, जो फिर से वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन की संभावना को बढ़ा देती है।
पानी की उपलब्धताः यदि पानी उपलब्ध नहीं हो तो वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया नहीं हो सकती।
वैश्विक स्तर पर पृथ्वी की सतह पर अधिकांश वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन उपोष्णकटिबंधीय महासागरों में होता है। इन क्षेत्रों में उच्च मात्रा में सौर विकिरण वह ऊर्जा प्रदान करता है जो तरल पानी को गैस के रूप परिवर्तित करने के लिए आवश्यक है। गर्मी के मौसम में मध्यम और उच्च अक्षांशों के भू-क्षेत्रों पर वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन अक्मतौर पर वर्षण से अधिक होता है। एक बार फिर इस समय के दौरान सौर विकिरण की उच्च उपलब्धता वाष्पीकृत वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया को बढ़ा देती है।
6.0 हिमनद विज्ञान (Glaciology)
हिमनद विज्ञान हिमनदों के अध्ययन को कहते हैं, और विशिष्ट रूप से परिभाषित किया जाए तो यह पर्यावरण में विद्यमान बर्फ का अध्ययन है। महत्वपूर्ण घटक हैं मौसमी बर्फ, समुद्री बर्फ, हिमनद, बर्फ की चादरें और जमी हुई जमीन। इन प्रकारों के बर्फों की व्यापकता वर्तमान और पिछली जलवायु को प्रतिबिंबित करती है। बर्फ और समुद्री बर्फ से ढंके हुए विशाल क्षेत्र पृथ्वी की सतह से दूर सौर विकिरण को प्रतिबिंबित करते हैं, और इस प्रकार पृथ्वी के उष्मन संतुलन को प्रभावित करते हैं।
क्योंकि ये बर्फ घटक केवल डेसीमीटर से मीटर तक मोटे होते हैं, वे मौसम जैसे छोटे समय पैमाने पर परिवर्तित हो सकते और सभी समय पैमाने की जलवायु को प्रभावित कर सकते हैं। हिमनद और बर्फ की चादरें सैकडों से लेकर एक हजार मीटर से अधिक मोटे हो सकते हैं, और ये दशकीय या उससे भी अधिक अवधि के समय पैमाने पर परिवर्तित होते हैं। इन बडे़ समय पैमानों पर वे वायुमंडलीय परिसंचरण और वैश्विक समुद्र सतह को प्रभावित कर सकते हैं। अधिक स्थानीय स्तर पर इस प्रकार की बर्फ जल विज्ञान, भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करती है, और विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक खतरे निर्माण करती है।
हिमनद विज्ञान स्वरुप में अंतःविषय होता है क्योंकि यह भूविज्ञान, भौतिक भूगोल, स्थलाकृतिक विज्ञान, जलवायु विज्ञान, जल विज्ञान, जीव विज्ञान को अंतर्निविष्ट करता है और इसके महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी प्रभाव होते हैं।
7.0 संचयीकरण और अंशोच्छेदन (Accumulation and Ablation)
हिमनद एक प्रक्रिया के माध्यम से बढ़ते हैं जिसे संचयीकरण कहते हैं, और एक अन्य प्रक्रिया अंशोच्छेदन के माध्यम से समाप्त हो जाते हैं। संचयीकरण का अर्थ है हिमनद में और अधिक बर्फ का जुड़ाव। विभिन्न प्रक्रियाएं होती हैं जो संचयीकरण की कारक होती हैं, इनमें से सबसे आम है हिमनद पर सीधा हिमपात। संचयीकरण तब भी होता है जब वर्षण के अन्य प्रकार जैसे जमी हुई वर्षा बर्फ के हिम खंड़ से टकराती है। संचयीकरण की एक बड़ी मात्रा के लिए हवा द्वारा उडाई गई बर्फ भी होती है जो जाकर हिमनद पर बैठ जाती है, या एक हिमस्खलन के दौरान उड़ती हुई बर्फ जाकर हिमनद पर जम जाती है।
अंशोच्छेदन संचयीकरण की प्रक्रिया की उल्टी प्रक्रिया होती है। इसका अर्थ है ‘‘हिमनद से बर्फ को हटाना।‘‘ अंशोच्छेदन अधिकांश वर्ष के गर्म महीनों के दौरान बर्फ के पिघले के कारण होता है, परंतु यह हवा के अपक्षरण का परिणाम भी हो सकता है, यह हवा हिमनद से बर्फ को उड़ा कर ले जाती है। ऊर्ध्वपातक, (Sublimation) अर्थात सीधे ठोस से गैस में परिवर्तित होने की प्रक्रिया भी अंशोच्छेदन का एक कारण हो सकता है। ब्यांत अंशोच्छेदन का एक अन्य प्रकार होता है जिसमें बर्फ के बडे़-बडे़ भाग हिमनद से टूट कर पानी में गिर जाते हैं। ब्यांत बर्फ के समुद्र की सतह पर तैरने वाले बर्फ के बडे़-बडे़ टुकड़ों को जन्म देता है, जिन्हें हिम शैल कहा जाता है।
हिमनद गतिशील संरचनाएं होती हैं जो अपना स्वरुप और आकार बदलते रहते हैं। जब हिमनद की अग्र कगार उतने अंतर तक नहीं जाती जितनी वह पहले जाया करती थी तो कहा जाता है कि हिमनद निर्वतन कर रहे हैं, इसका कारण यह है कि अंशोच्छेदन संचयीकरण तुलना में अधिक हो रहा है। दूसरी ओर यदि हिमनद की अग्र कगार अंशोच्छेदन की दर से अधिक तेजी से आगे बढ़ती है तो कहा जाता है कि हिमनद आगे बढ़ रहा है। हिम नाद की अग्र कगार कहां स्थित है, उस स्थिति के मापन के आधार पर वैज्ञानिक यह निर्धारित करते हैं कि हिमनद निवर्तन कर रहा है या आगे बढ़ रहा है। हिमनद की अग्र कगार को कई बार हिमनद की थूथनी भी कहा जाता है, मानों कि हिमनद का नेतृत्व उसकी नाक द्वारा किया जा रहा है।
हिमनद की अग्र कगार के स्थान की स्थिति की जानकारी वैज्ञानिकों को हिमनद के पिंड़ के संतुलन के निर्धारण में सहायक होती है, जो स्पष्ट रूप से संचयीकरण और अंशोच्छेदन के बीच का संतुलन होता है। यदि इन दोनों कारकों के बीच का संतुलन समान है तो कहा जाता है कि हिमनद सम्यवस्था में है, और इसके आकार में परिवर्तन नहीं होता।
7.1 हिमनद निक्षेप (Glacial Deposits)
हिमनद निक्षेपों का संबंध उन विभिन्न साधनों से है जिनके माध्यम से हिमनद द्वारा ले जाई जाने वाली सामग्री बर्फ से अलग होकर आधारभूत सतहों पर या आसपास के क्षेत्रों में जमा हो जाती है। हिमनद निक्षेप सीधे हिमनदों से प्राप्त किये जा सकते हैं या इसकी विभिन्न सम्बद्ध प्रक्रियाओं से प्राप्त होती है जिनका संबंध हिमनद के पिघले हुए पानी से होता है। हिमनद नष्ट हो सकते हैं, और जो सामग्री परिवहन करके अन्यत्र जमा करते हैं उसका आकार महीन मिटटी के कणों से लेकर चट्टानों की विशाल शिलाओं के बराबर हो सकता है जो आकार में सैकडों मीटर की हो सकती हैं। इस प्रकार हिमनद निक्षेपों द्वारा जमा भू आकृतियों की एक व्यापक श्रृंखला विद्यमान है, जिनमें से अधिक महत्वपूर्ण हैं एस्कर, पुराने तालाबों के तल, नदी मुख भूमि, और विभिन्न प्रकार के मोराइन को चोटी वाले से लेकर समतल और टीलेदार मैदान हो सकते हैं। आमतौर पर तलछट की पिघले हुए पानी द्वारा लगभग कोई छंटाई नहीं हुई है, अतः परिणामी निक्षेप कम छंटे हुए हैं और इसमें विभिन्न आकार के कण शामिल हैं, जिसमें मिट्टी के दानों से लेकर बड़ी-बड़ी महाशिलाएं हैं जो एक दूसरे के साथ उलझी हुई हैं। विभिन्न प्रकार के हिमनद और हिम चादरों के निक्षेप निम्नानुसार हैंः
- हिमनद आटा (Glacial flour) - महीन चूर्ण की बनावट की चट्टानें। आमतौर पर यह हिमनद से प्रवाहित होती है, जो हिमनद से निकलने वाली पिघले हुए पानी की धारा की तलछट होती है।
- टिल (Till) - इसका संबंध हिमनद द्वारा निक्षेपित असंपिंडित और बिना छंटे तलछट, मिट्टी, कंकड और चट्टानों के मिश्रण से होता है।
- मोरेन (Moraine) - यह एक फ्रेंच शब्द है जो किसी भी हिमनद से निर्मित संचय से होता है - मोराइन के अनेक प्रकार होते हैं।
- अग्र मोरेन (Terminal moraine) - जहां पहले हिमनद या हिम चादर का अस्तित्व था उसकी सबसे बाहरी कगार पर जमा हुआ संचय अग्र मोराइन कहलाता है।
- निकासी की मोरेन (Recessional moraine) - जो मोराइन सबसे बाहरी कगार के ‘‘पीछे‘‘ स्थित है, और यह ऐसे स्थान पर जमा होती है जहां हिमनद काफी लंबे समय था स्थिर रहा है।
- जमीनी मोरेन (Ground moraine) - बर्फ द्वारा निक्षेपित सौम्य गति से लुड़कते पकरवट और मैदान।
- पार्शि्वक मोरेन (Lateral moraine) - हिमनद की बाजुओं के टिल के कटक।
- मध्यवर्ती मोराइन (Medial moraine) - दो हिमनदों के विलय से निर्मित मोराइन और इनके पार्शि्वक मोराइन इकट्ठे होकर के मोराइन का निर्माण करते हैं।
- धक्का मोरेन (Push moraine) -टिल द्वारा निर्मित मोराइन जो एक पूर्ववर्ती हिमनद द्वारा जमा की गई मोराइन थी जो पहले उस क्षेत्र को घेरे हुए था।
- अंशोच्छेदन मोरेन (Ablation moraine)- हिमनद पर गिरी हुई सामग्री द्वारा निर्मित मोराइन।
- हिमनद की अस्थिरताएं (Glacial erratics) - बर्फ द्वारा लाई गई विशाल शिलाएं जो निक्षेपित हो गई हैं। वे आसपास की टिल की तुलना में आकार में काफी भिन्न होती हैं।
7.2 हिमनदों का संचलन
हिमनद एक दिन में 15 मीटर तक खिसक सकते हैं। हिमनदों के प्रवाह, गति और संचलन को नियंत्रित करने वाले कारक निम्नानुसार हैंः
- बर्फ की ज्यामिति (मोटाई, ढ़लान)
- बर्फ के गुण (तापमान, घनत्व)
- घाटी की ज्यामिति
- आधार की स्थितियां (कठोर, नरम, जमी हुई या पिघला हुआ आधार)
- उपहिमनदीय जल विज्ञान
- अंतिम पर्यावरण (भूमि, समुद्र, बर्फ का किनारा, समुद्री बर्फ), और
- पिंड़ संतुलन (संचयीकरण और अंशोच्छेदन की दर)
शीतोष्ण कटिबंध के हिमनद सबसे तेज गति से गतिमान होते हैं क्योंकि हिमनदों के तल की बर्फ पिघल सक्रि है और सतह को चिकनाई प्रदान कर सकती है। अधिक खड़ी ढलानों पर बर्फ के विशाल आयतन सौम्य ढलानों की बर्फ की तुलना में घाटी के काफी नीचे अधिक तेज गति से गतिविधि करते हैं। विभिन्न प्रकार की हिमनद गतिविधियाँ निम्नानुसार हैंः
- आंतरिक विरूपण (प्लास्टिक प्रवाह)
- आधारीय रपट
- नरम तल उपहिमनद विरूपण
आतंरिक विरूपणः यदि हिमनद केवल आतंरिक विरूपण के कारण प्रवाहित होता है, तो संभव है कि गहराई के साथ उसकी रेंगने की दर धीमी पड जाए, और ऐसे समय बर्फ का सबसे तेज संचलन उसकी सतह पर होगा और सबदे धीमा (या कोई संचलन नहीं होगा) बर्फ संचलन उसके आधार क्षेत्र में और घाटी की बाजुओं पर होगा, प्रतिरोधी तनाव सबसे अधिक होंगे। बर्फ इसलिए विरूपित होता है क्योंकि वह प्लास्टिक है। यदि उसपर विशाल तनाव अनुप्रयुक्त किये जाएं तो वह भंगुर तरीके से विखंडित हो सकता है (जिससे हिम दरारें या हिम शैल निर्मित होते हैं)। प्लास्टिक प्रवाह का परिणाम 50 मीटर से अधिक गहराई तक नीचे दबी हुई बर्फ को एक धीमी गति से संचलित होती प्लास्टिक धारा में परिवर्तित होने में होता है। हिमनद के मध्य और ऊपरी भाग इसके निचले तल और बाजुओं की तुलना में धारा के इन्ही भागों की तरह अधिक शीघ्रता से प्रवाहित होते हैं, जहां बर्फ और घाटी की दीवारों के बीच का घर्षण प्रवाह को धीमा कर देता है।
आधारीय रपटः हिमनद इसलिए फिसल सकते हैं क्योंकि दबाव की स्थिति में बर्फ पिघलती है, जिसके कारण बर्फ के तल के अंतराफलक पर पानी की एक झिल्ली निर्मित हो जाती है। यह अपयुग्मन को सुविधाजनक बना देता है और बर्फ के प्रवाह को तेज कर देता है। यदि हिमनद का तल ऊबड़-खाबड़ है, जिसमें अनेक धक्के और बाधाएं हैं तो इसके कारण पिघलने की गति तेज हो जाती और प्रवाह अधिक तेजी से होने लगता है। इस प्रक्रिया को उपर्युक्त विधि से जमने की क्रिया कहते हैं। यदि जल दबाव काफी अधिक हो जाता है तो बर्फ तल के अंतराफलक पर दरारें निर्मित हो जाती हैं, जिसका परिणाम फिसलन और तल के पृथक्करण में होता है इसके कारण आधारीय घर्षण कम हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप बर्फ का प्रवाह तेज गति से होने लगता है। फिसलने की गति को आधारीय अपरूपण और प्रभावी दबाव के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है, जो बर्फ अधिभार के दबाव और पानी के दबाव के बीच का अंतर होता है और समूचा हिमनद नीचे की चट्टान की सतह पर एक संपूर्ण पिंड के रूप में फिसलता है। हिमनद के वजन से निर्मित दबाव के पानी की परत का निर्माण करता है जो हिमनद को ढलान के नीचे की ओर फिसलने में सहायक होता है। इस प्रक्रिया को आधारीय रपट कहते हैं।
नरम तल उपहिमनद विरूपणः उपहिमनद गाद बिना छंटे हिमनद गाद की तलछटों का निक्षेपण होता है। महीन तलछटें, जैसे चिकनी मिट्टी और रेत संसज्जित नहीं होते अतः जब उनके ऊपर अपरूपण तनाव अनुप्रयुक्त होता है और यदि उनका छिद्र जल दबाव बहुत अधिक हो तो वे आसानी से विरूपित हो जाते हैं (अतः आधारीय रपट की ही तरह उपहिमनद विरूपण भी उच्च आधारीय जल दबाव पर निर्भर होता है)। यदि आधारीय अपरूपण तनाव (गुरुत्वाकर्षण उत्प्रेरक तनाव) गाद की उपज शक्ति से अधिक होता है, तो विरूपण होता है जिससे हिमनदीय स्थला.ति संचलन होते हैं।
8.0 हिमाच्छादन और हिमालय
अंटार्कटिक और अफ्रीका के बाद हिमालय में विश्व के तीसरे सबसे बडे हिम और बर्फ निक्षेपण हैं। हिमालय पर्वत श्रृंखला में लगभग 15000 हिमनद हैं, जिनमें लगभग 12,000 किलोमीटर3 (3,000 घन मील) मीठा पानी है। इसके हिमनदों में गंगोत्री और यमुनोत्री (उत्तराखंड़) और खुम्बू हिमनद (एवेरेस्ट शिखर क्षेत्र), लांगतांग हिमनद (लांगतांग क्षेत्र), और जेमु हिमनद (सिक्किम) शामिल हैं। हिमालय का भारतीय उपमहाद्वीप और तिब्बत के पठारी क्षेत्र की जलवायु पर व्यापक प्रभाव है। वे उदासीन शुष्क हवाओं को उपमहाद्वीप में प्रवाहित होने से रोकते हैं, जो दक्षिण एशिया को अन्य महाद्वीपों के तदनुरूप समशीतोष्ण क्षेत्रों की तुलना में अधिक गर्म बनाये रखता है। यह मानसूनी हवाओं के लिए भी एक बाधा के रूप में कार्य करता है, जो उन्हें उत्तर की ओर प्रवाहित होने से रोकता है, जिसके कारण तराई क्षेत्र में व्यापक स्तर पर वर्षा होती है। ऐसा माना जाता है कि तक्लामकन और गोबी जैसे मध्य एशियाई मरुस्थलों की निर्मिति में भी हिमालय की बड़ी भूमिका है।
सियाचीन हिमनदः सियाचीन हिमनद भारत-तिब्बत सीमा में पास जम्मू कश्मीर एक सबसे उत्तर मध भाग में स्थित है। यह लगभग 72 किलोमीटर लंबे क्षेत्र में फैला हुआ है; ध्रुवीय क्षेत्र के बाहर यह हिमनद विश्व का सबसे बड़ा हिमनद है। सियाचीन हिमनद काराकोरम पर्वत श्रृंखला की उत्तरी ढ़लान पर स्थित है। यह मुतजगह या शख्सगाम नदी का स्रोत है जो तिब्बत में प्रवेश करने से पहले काराकोरम श्रृंखला के सामानांतर प्रवाहित होती है सियाचीन हिमनद का मध्य भाग एक विशाल हिम क्षेत्र है। यह मुख्य रूप से एक विशाल द्रोणिका में स्थित है, जो लगभग 2 किलोमीटर चौड़ी है, जिसके किनारों पर चट्टानें और शिलाएं बिखरी हुई हैं। मोमोस्टांग और शेलकर चोर्टेन जैसे विशाल सहायक हिमनद द्रोणिका के दोनों ओर से मुख्य हिमनद में खुलते हैं। ट्रंक हिमनद और छोटे घाटी हिमनदों के मिलन बिंदु पर अनेक हिम झरने बने हुए हैं। तीन हिमनदों का समूह, अर्थात उत्तरी, मध्य और दक्षिणी सियाचीन के पूर्व में स्थित हैं। इसे रिमो हिमनद समूह के रूप में जाना जाता है इस हिमनद की ऊँचाई समुद्र सतह से 6,000 से 7,000 मीटर है। सियाचीन हिमनद की यात्रा लद्दाख के स्कार्दू के मार्ग के माध्यम से की जा सकती है।
बालटोरो हिमनदः बालटोरो हिमनद काराकोरम पर्वत श्रृंखला की दक्षिणी ढलान पर जम्मू कश्मीर के बाल्टिस्तान नामक क्षेत्र में स्थित है। इसकी लंबाई 62 किलोमीटर है। यह हिमालय क्षेत्र का दूसरा सबसे बडा हिमनद है। शिगर नदी, जो सिंधु नदी की एक उपनदी है, इस हिमनद से निकलती है। अन्य बडे़ सहायक हिमनद मुख्य बालटोरो हिमनद को आपूर्ति करते हैं। इसके मध्य भाग में एक विशाल हिम क्षेत्र है, और इस हिमनद की द्रोणिका काफी चौडी है इस हिमनद तक भी लद्दाख के स्कार्दू के मार्ग से पहुंचा जा सकता है।
बैफो हिमनदः बैफो हिमनद काराकोरम पर्वत श्रृंखला की दक्षिणी ढलान पर जम्मू कश्मीर के लद्दाख के बाल्टिस्तान नामक क्षेत्र में स्थित है। इसकी लंबाई 60 किलोमीटर है। मुख्य धारा, जो बैफो हिमनद से उपजी है, सिंधु नदी की उपनदी शिगर नदी में प्रवाहित होती है। इस क्षेत्र में जरा भी वनस्पति क्षेत्र उपलब्ध नहीं है।
हिस्पर हिमनदः हिमालय क्षेत्र में हिस्पर हिमनद तीसरा सबसे बड़ा हिमनद है। यह हिमनद काराकोरम पर्वत श्रृंखला की दक्षिणी ढ़लान पर जम्मू कश्मीर के लद्दाख में स्थित है। इसकी लंबाई 60 किलोमीटर है। इस क्षेत्र में किसी प्रकार की कोई वनस्पति नहीं पाई जाती। दोनों ओर के अनेक हिमनद मुख्य हिमनद से जुड़ते हैं। हिमनद का मध्य भाग एक विशाल हिम क्षेत्र है, जबकि इसके किनारों पर बर्फ के संचलित होने वाले हिम शैलों द्वारा छोडा गया मलबा जमा हुआ है।
नुब्रा हिमनदः नुब्रा हिमनद काराकोरम पर्वत श्रृंखला की दक्षिणी ढ़लान पर जम्मू कश्मीर के लद्दाख में स्थित है। नुब्रा नदी का उद्गम इस हिमनद से होता है, जो श्योक नदी में प्रवाहित होती है। अन्य हिमनदों की ही तरह इस हिमनद का मध्य भाग भी एक विशाल हिम क्षेत्र के रूप में है। यहां वनस्पति का पूर्णतः अभाव है, क्योंकि यह क्षेत्र हिम रेखा के ऊपर स्थित है। इस क्षेत्र में लद्दाख के लेह मार्ग से पहुंचा जा सकता है।
उत्तराखंड क्षेत्र के कुछ अन्य हिमनद हैं
- बंदरपूंछ हिमनद
- ड़ोकरियानी हिमनद
- चोरमारी बमक हिमनद
- खतलिंग हिमनद
- दूनागिरि हिमनद
- टिपराबमाक हिमनद
हिमालय के हिमनदों की मौसमी पिघली हुई बर्फ का पानी मीठे पानी के भंड़ार का मुख्य स्रोत है जो सीधे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की जल आपूर्ति को बनाये रखता है, विशेष रूप से शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्रों में। विभिन्न स्तरों पर और भिन्न-भिन्न समयवधियों में हिमालयीन घाटी क्षेत्र में रहने वाले लगभग 1.3 बिलियन लोग पिघली हुई बर्फ के पानी और मानसून पानी, दोनों पर अपनी जल आपूर्ति निर्भर रहते हैं, जिसका उपयोग मुख्य रूप से सिंचाई के लिए, पीने के लिए, स्वच्छता के लिए और औद्योगिक कार्यों के लिए किया जाता है। सिंचाई के लिए जल की शुद्ध मांग इस क्षेत्र में उच्च है, परंतु प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता बहुत कम है - लगभग 2000 से 3000 एम 3 प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष - जो विश्व औसत 8549 एम 3 प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष की तुलना में काफी कम है।
हिमालयीन हिमनदों की निगरानी पर भू-आधारित अध्ययनों के लिए समय और संभार तंत्र की दृष्टि से काफी प्रयासों की आवश्यकता होती है, क्योंकि उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में वायुमंडलीय ऑक्सीजन का अभाव होता है, और इन अध्ययनों लिए इन ऊबड़-खाबड़ घाटियों और अत्यंत ठंडे़ मौसम में ट्रेकिंग करना कठिन परंतु आवश्यक होता है। इन कठिनाइयों के बावजूद अनेक अभियान दलों द्वारा किये गए प्रयासों के कारण हिमालयीन हिमनदों में परिवर्तनों के विषय में महत्वपूर्ण जानकारियां पाई हैं। सुदूर संवेदन एक अन्य तकनीक है जिसका उपयोग किया गया है।
प्रकृति जलवायु परिवर्तन पर 2012 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार तिब्बत के पठार के अधिकांश हिमनद और आसपास के क्षेत्र पीछे हट रहे हैं। तिब्बत का पठार और इसके आसपास के क्षेत्र में ध्रुवीय क्षेत्र के बाहर विश्व के अधिकांश हिमनद स्थित हैं इस क्षेत्र का कुल हिमनद क्षेत्र 100,000 वर्ग किलोमीटर है। सबसे सघन संकुचन हिमालय में (काराकोरम को छोड़ कर) पाया गया है। इसके विपरीत सबसे कम गिरकवत पामीर पठार में देखी गई है।
हालांकि ये परिणाम उन परिणामों के विपरीत हैं जो हिमालयीन हिमनद हानि पर ग्रेस उपग्रह द्वारा दर्शाये गए हैं। ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट सॅटॅलाइट मापनों ने पाया है कि वास्तव में तिब्बती पठार के हिमनद बढ़ रहे हैं, और आमतौर पर एशियाई हिमनदीन में बर्फ की हानि पहले बताई गई थी उससे काफी कम है। प्रकृति जलवायु परिवर्तन लेख के अनुसार अध्ययन कालावधि के दौरान (1970 के दशक से 2000 के दशक तक) हिमालयीन हिमनदों (दक्षिण पूर्वी तिब्बती पठार) के संकुचन की दर लंबाई के मान से 48.2 मीटर प्रति वर्ष थी, और क्षेत्र गिरावट की दर 0.57 प्रतिशत प्रति वर्ष थी। पिंड़ संतुलन ऋणात्मक(जिसका अर्थ है हिम की अधिक हानि) था, और इसकी सीमा - 1,100 मिलीमीटर प्रति वर्ष से - 760 मिलीमीटर प्रति वर्ष के बीच थी, जो औसतन - 930 मिलीमीटर प्रति वर्ष थी। पामीर पठार के मामले में निवर्तन की दर केवल 0.9 मीटर प्रति वर्ष थी, और क्षेत्र संकुचन दर 0.07 प्रतिशत प्रति वर्ष थी। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि पूर्वी पामीर क्षेत्र के मुज्तग अता हिमनद का पिंड़ संतुलन धनात्मक है, और यह पर्यवेक्षण लगातार चार से पांच वर्षों तक किया गया था।
8.1 कारण
वायुमंडलीय परिसंचरण और वर्षण और हिमनद संकुचन के बीच सीधा संबंध है। हिमालय क्षेत्र में सघन हिमनद संकुचन का कारण परिसंचरण की प्रवृत्ति, और इसके परिणामस्वरूप होने वाले वर्षण में खोजा जा सकता है। हिमालय को उसका वर्षण भारतीय मानसून से प्राप्त होता है, जबकि पामीर पठार को उसका वर्षण पश्चिमी हवाओं से प्राप्त होता है। रिकार्ड्स इस बात की पुष्टि करते हैं की 1979 से 2010 के दौरान हिमालय के वर्षण में गिरावट दर्ज हुई है, जबकि पूर्वी पामीर पठार क्षेत्र में इसमें वृद्धि हुई है। साथ ही भारतीय मानसून कमजोर होता जा रहा है, जबकि पश्चिमी हवाएँ मजबूत होती जा रही हैं, जो वर्षण प्रवृत्तिओं को प्रभावित करता है। इसके कारण हिमालय क्षेत्र के हिमनदों संकुचन हुआ है जबकि पामीर पठार लंबाई और क्षेत्र के मान से ‘‘न्यूनतम संकुचन‘‘ और धनात्मक पिंड़ संतुलन (जिसका अर्थ है हिम संचयीकरण में वृद्धि) दर्शा रहा है।
तापमान वृद्धि भी हिमनद संकुचन को प्रभावित करती है। रिपोर्ट के अनुसार तिब्बती पठार के उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्र पर गर्मी में वृद्धि की प्रवृत्ति देखी गई है, और ऊँचाई के साथ उष्मन में वृद्धि हो रही है। उष्मन ‘‘मध्य समुद्र सतह से 4800 मीटर से 6200 मीटर तक की ऊँचाई वाले क्षेत्र में सर्वाधिक‘‘ रहा है। जिन क्षेत्रों पर पश्चिमी हवाओं का वर्चस्व है, जैसे काराकोरम और पामीर पठार, हिमनदों के पिंड़ सर्दी के मौसम के हिमपात से अपनी बर्फ प्राप्त करते हैं, अतः इनपर उष्मन का कम प्रभाव हुआ है, क्योंकि आज भी सर्दियों के दौरान तापमान शून्य से नीचे ही बना रहता है। पूर्वी और मध्य हिमालय क्षेत्र में हालांकि, यह केवल मानसून के दौरान ही दिखाई देता है, और गर्मी के तामपान में हलकी सी वृद्धि भी हिमनदों को काफी प्रभावित कर सकती है।
8.2 प्रभाव
वैश्विक उष्मन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप का भारत-गंगा बेसिन, जहां जल आपूर्ति पर मुख्य रूप से पिघलने वाली बर्फ का वर्चस्व रहता है, गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का सामना करने वाले हैं। जल आपूर्ति में मौसमी परिवर्तन, बाढ़ का खतरा, और वर्षण में बढ़ती हुई विविधता सहित नकारात्मक प्रभाव अंततः हिमनदों के पिघलने से प्राप्त अल्पावधि लाभों को नष्ट कर देंगे। तिब्बत के हिम क्षेत्र और हिमनद विश्व की जनसंख्या के छठवें भाग के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण संसाधन हैं, क्योंकि वे प्रमुख नदियों के शुष्क अवधि के कमजोर प्रवाहों को बनाये रखने में सहायक हैं, जैसे दक्षिण पश्चिम हिमालय क्षेत्र की सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियां। वर्तमान में सिंधु नदी और गंगा नदी का शुष्क मौसम में समुद्र की ओर प्रवाह अत्यंत अल्प है, और जलवायु परिवर्तन और बढती हुई पानी की मांग के कारण इन नदियों पर मौसमी नदियां बनने का खतरा मंड़रा रहा है। ऐसा अनुमान है कि तिब्बती पठार के क्षेत्र में हिमनदों का सतही क्षेत्र 1995 में मापे गए 500,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से घट कर 2030 तक 100,000 वर्ग किलोमीटर रह जायेगा, और इस प्रकार क्षेत्रीय नदियों और जल संसाधनों की दृष्टि से यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक और खतरनाक है। हिमालय के हिमनद जलाधिक्य को पिघला देते हैं जिनमे पश्चिमी तिब्बती पठार उच्च ऊंचाइयों पर हिम क्षेत्रों का पतला होना भी शामिल है, जिसके कारण ऐसा अनुमान किया जा रहा है कि ये हिम क्षेत्र पिछले अनुमान से अधिक तेजी से पिघलते जायेंगे, जिसके प्रतिकूल प्रभाव लगभग एक बिलियन लोगों पर पडेंगे। हिमनदों और हिम के निवर्तन के साथ ही अनेक अर्ध शुष्क पर्वत, जहां लगभग 17 करोड़ लोग निवास करते हैं, अपने अनेक स्थानीय झरनों और धाराओं को खो देंगे, जो स्थानीय गांवों और पशुधन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इसके अतिरिक्त, अचानक आने वाली बाढ़ की संख्या में वृद्धि, और भूस्खलन सड़कों को भी क्षतिग्रस्त कर देते हैं।
जलवायु परिवर्तन पर भारतीय राष्ट्रीय कार्य योजना विकासात्मक मार्गों के दिशा परिवर्तन के माध्यम से देश की तात्कालिक और महत्वपूर्ण चिंताओं का निपटारा करती है। यह उन उपायों की पहचान करती है जो विकास के उद्देश्यों को प्रोत्साहित करेंगे, जबकि जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दों का कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढं़ग से निराकरण करेंगे। हिमालय क्षेत्र की पारिस्थितिकी इसके आठ ध्येयों में से एक है, जिसके लिए उसने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण और ठीक ढंग से निर्धारित समय सीमा की कार्य योजना तैयार की है। पारिस्थितिकी के प्रति संवेदनशील हिमालयीन पर्वत श्रृंखला ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और क्षेत्र में चलने वाली विकास की गतिविधियों के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के प्रवण है।
हिमालय क्षेत्र का एक विशाल क्षेत्र है और इसमें बारहमासी हिम आच्छादन है, साथ ही इसमें ध्रुवीय क्षेत्र के बाहर विश्व का सबसे बड़ा हिमनद क्षेत्र है। हिमनद लगभग 8.6 गुणा 106 घन मीटर जल प्रतिवर्ष प्रदान करते हैं। वैश्विक स्तर पर इस बात की चिंता की जा रही है कि जलवायु परिवर्तन और वैश्विक उष्मन के कारण हिमनद अत्यंत तेज गति से निवर्तित होते जा रहे हैं।
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