सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
ब्रह्मांड एवं सौर-मण्डल भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
ब्रह्यांड से हमारा आशय उन सबसे है जो हम मनुष्य देख एवं समझ सकते हैं। अतः इसमें षामिल हैं जीवित प्राणी, ग्रह, सितारे, आकाश गंगाऐं, धूल के बादल, प्रकाश और समय भी! वैज्ञानिकों का मानना है कि ब्रह्यांड के उदय से पूर्व, समय, अंतरिक्ष और पदार्थ मौजूद ही नहीं थे। ब्रह्यांड में अरबों आकाश गंगाऐं हैं, और प्रत्येक में करोड़ों तारे हैं। सितारों और आकाश गंगाओं के बीच की दूरी वैसे तो खाली ही होती है लेकिन इसमें भी प्रति घन सेंटीमीटर कुछ धूल के बिखरे हुए कण या हाईड्रोजन परमाणु होते हैं। अंतरिक्ष विकिरण से भी भरा है (उदाहरणार्थ प्रकाश एवं उष्मा), और साथ ही चुंबकीय क्षेत्रों और तीव्र उष्मा कणों से (उदाहरणार्थ ब्रह्यांडीय किरणें)। चूंकि ब्रह्यांड बहुत विशाल है, मानवों द्वारा बनाया हुआ कोई भी यान यदि प्रकाश की गति से चले (300,000 कि.मी. प्रति सेकण्ड) तो भी उसे हमारी आकाश गंगा पार करने में 1 लाख वर्षों का समय लगेगा! हमारा ब्रह्यांड का पूर्ण आकार किसी को भी नहीं पता है, चूंकि हम इसका किनारा नहीं देख सकते, अगर किनारा है तो! जो दृश्य ब्रह्यांड है वह कम से कम 93 अरब प्रकाश वर्ष चौड़ा तो है ही। एक प्रकाश वर्ष वह दूरी है जो प्रकाश एक वर्ष में चलते हुए पूरी करेगा - अर्थात लगभग 9 खरब कि.मी.। हमारा ब्रह्यांड हमेशा एक ही आकार का नहीं रहा है। वैज्ञानिक मानते हैं इसकी षुरूआत एक महा-विस्फोट से हुई (बिग बैंग) जो लगभग 14 अरब वर्ष पूर्व हुआ। तब से अब तक ब्रह्यांड अत्यंत तीव्र गति से बाहर की ओर फैलता जा रहा है। आज आकाश गंगाऐं एक-दूसरे से दूर होती जा रही हैं क्योंकि उनके बीच का अंतरिक्ष फैलता जा रहा है।
2.0 पृथ्वी की रचना के संबंध में दिए गए विभिन्न सिद्धांत
2.1 निहारिका (नेब्यूला) गैस-बादल सिद्धांत (कांत और लाप्लास)
निहारिका संबंधी परिकल्पना 18वीं सदी में इमैनुएल स्वेडेनबोर्ग, इम्मानुएल कांत और पियरे-साइमन लाप्लास द्वारा विकसित की गई थी।
इस सिद्धांत के अनुसार, सौर मंडल एक निहारिका के रूप में शुरू हुआ, जो आकाशगंगा में घूमती ठंड़ी गैस और धूल का विशाल क्षेत्र था। किसी गड़बड़ी के कारण, संभवतः किसी निकटस्थ महानोवा से (महानोवा किसी तारे के भयंकर विस्फोट को कहते हैं, जिससे निकलने वाला प्रकाश और विकिरण इतना विशाल होता है कि यह कुछ समय के लिए आकाशगंगा को धुंधला कर देता है) गैस और धूल के ये बादल घनीभूत होना शुरू हो गए, या संभवतः अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण के बल से एक ओर खिंचने लगे। जैसे-जैसे अधिकाधिक सामग्री इसके केंद्र की ओर खिंचती गई, गुरुत्वाकर्षण अधिकाधिक मजबूत होता चला गया, जिसके कारण घनीभूत होने की गति तीव्र हो गई।
जैसे-जैसे निहारिका ने केंद्र की ओर खिंचने वाली सामग्री की कोणीय गति को संरक्षित करना शुरू किया, वैसे ही यह वामावर्त घूमना शुरू हो गई। इस कारण से घनीभूत होती निहारिका के केंद्र के चारों ओर की सामग्री एक कुण्डल के आकार में चपटी होती गई। इस चरण पर निहारिका का एक केंद्र था और यह कुण्डल से घिरी हुई लगभग गोलाकार केंद्र बन गई थी। इसे हबल अंतरिक्ष दूरबीन से देखा गया है। निहारिका का बचा हुआ सिद्धांत प्रतिरूपण और अप्रत्यक्ष साक्ष्य पर आधारित है।
गुरुत्वाकर्षण के कारण निहारिका के केंद्र का घनीभूत होना जारी रहा। अंत में इस क्षेत्र का दबाव और तापमान इतना पर्याप्त उच्च हो गया कि नाभिकीय संलयन शुरू हो गया। केंद्रीय क्षेत्र एक तारा बन गया, जिसे आज हम सूर्य कहते हैं।
जब यह हो रहा था तो कुण्डल में भी संघनन होना जारी था। गैस और धूल नजदीक आकर छोटे-छोटे कण निर्मित कर रहे थे, जो धीरे-धीरे अन्य कणों के साथ जुड़ते गए, जिससे अधिकाधिक बडे़ पदार्थ बनते गए। ये पदार्थ बडे़ होते-होते कई सौ किलोमीटर व्यास के बन गए। वे ही आद्य ग्रह (प्रोटो-प्लैनेट) बन गए। आद्य ग्रहों का गुरुत्वाकर्षण उनके आसपास के गैस और धूल के अत्यंत सूक्ष्म कणों की तुलना में अधिक शक्तिशाली था। वे अपने आसपास के कणों को आकर्षित करते हुए लगभग निर्वात स्वच्छक का कार्य करने लगे। आद्य ग्रहों के बीच समय-समय पर टक्कर भी हुई। इन टक्करों, और सूक्ष्म कणों की ‘‘निर्वात स्वच्छता‘‘ ने, सौर मंडल के ग्रहों का निर्माण किया। गुरुत्वाकर्षण ने इन पदार्थों को खींचकर उनके वर्तमान गोलाकार आकारों में परिवर्तित कर दिया।
जब आद्य ग्रहों की निर्मिति हो रही थी, तब निहारिका का कुण्डल मूल के चारों ओर घूम रहा था। आद्य ग्रहों ने नव विकसित सूर्य के चारों ओर घूमते हुए यह गति जारी रखी। साथ ही आद्य ग्रह और ग्रह, जैसे-जैसे वे बनते गए, एक आतंरिक धुरी पर घूमना शुरू हो गए। यह इस कारण हुआ क्योंकि टक्करों द्वारा निर्मित बल में से कुछ बल घूर्णाकार ऊर्जा में परिवर्तित हो गया।
गैस के विशाल ग्रहों के बडे़ चंद्रमा (बृहस्पति, शनि, यूरेनस, और नेपच्यून) ग्रहों के समान ही बनते गए। गैस के बडे़ ग्रहों के छोटे चंद्रमा, और मंगलग्रह और प्लूटो संभवतः ग्रहों की निर्मिति से बचे हुए मलबे हैं जिनपर उनके संबंधित ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण द्वारा कब्जा कर लिया गया। वे कब्जा किये गए चंद्रमा हैं। संभवतः पृथ्वी का चंद्रमा एक अन्य प्रक्रिया द्वारा निर्मित हुआ था, शायद पृथ्वी और किसी अन्य विशाल आद्य ग्रह की टक्कर से।
सौरमंडल गतिशील है। सौरमंडल का विकास अभी भी जारी है। संभव है कि ग्रहों की कक्षाएं शुरू में अधिक अंड़ाकार आकार की रही होंगी, और समय के साथ अपने वर्तमान लगभग गोलाकार आकार में परिवर्तित हुईं। गुरुत्वाकर्षण के कब्जे और टक्करों के कारण कुछ ग्रहों के चारों ओर के चंद्रमाओं की संख्या में वृद्धि हुई। सूर्य की शक्ति भी (उत्सर्जित सौर विकिरण की मात्रा) संभवतः परिवर्तित हुई है।
2.2 चेम्बरलिन मोल्टन ग्रहाणु परिकल्पना
चेम्बरलिन मोल्टन ग्रहाणु की परिकल्पना 1905 में भूविज्ञानी थॉमस क्राउडर चेम्बरलिन और खगोल विज्ञानी फॉरेस्ट रे मोल्टन द्वारा प्रस्तावित की गई थी, जो अधिक लोकप्रिय निहारिका गैस बादल सिद्धांत के विपरीत थी।
इस परिकल्पना के अनुसार ग्रहों की उत्पत्ति तीव्र ज्वारीय प्रस्फुटन और सूर्य के पिंड़ के विच्छेद के कारण हुई है। ज्वारीय प्रस्फुटन एक करीब आने वाले तारे के कारण, उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण निर्मित हुए। विच्छेदित सौर सामग्री सूर्य से लंबी दूरी तक फेंकी गई। ज्वारीय निष्कासन के बडे़ नाभिक साथ में इकट्ठे हो गए। जैसे ही निकट आने वाला तारा दूर होता गया, सौर सतह से अलग हुई सामग्री का सूर्य के चारों ओर घूमना जारी रहा, और यही संघनित होकर ग्रहों में परिवर्तित हो गई।
इन बडे़ पिंडों ने छोटे बिखरे हुए पिंडों या ग्रहाणुओं को एकत्रित किया, और अंततः वे सौर मंडल के परिपक्व ग्रहों में परिवर्तित हो गए। ग्रहाणु सूक्ष्म ग्रह होते हैं जो टक्कर के गुरुत्वाकर्षण के आकर्षण के कारण संगठित हो गये थे।
इस सिद्धांत के अनुसार ‘‘ग्रहों का कुल पिंड संपूर्ण सौर मंडल के पिंड का एक सूक्ष्म अंश (1/700 वां) है, परंतु उनमें इसके परिक्रमण की लगभग 98 प्रतिशत ऊर्जा विद्यमान है।‘‘ (वूल्ड्रिज और मॉर्गन)
ग्रहाणु सिद्धांत इस प्रक्रिया का वर्णन करता है कि पृथ्वी के विभिन्न घटक भागों का विकास किस प्रकार हुआ, और छोटी-छोटी शुरुआतों से ग्रहाणुओं के जुड़ने से किस प्रकार ये बडे़ होते गए, पहले तेजी से, किंतु बाद में धीमी गति से। यह इस बात का भी उल्लेख करता है कि विकास की अवधि के दौरान संघनन से किस प्रकार गर्मी पैदा हुई। पृथ्वी का पिंड जब संघनित हो गया और ठोस हो गया, तो किस प्रकार अधिक आसानी से गलनीय घटकों में से पिघले हुए क्षेत्र निर्मित हुए और बाहर की ओर धकेले गए। धातु-सदृश मूल, पथरीली परत, वायुमंडल, महासागर, और यहां तक कि स्थलमंडल भी ग्रहाणु सामग्री से उत्पन्न हुए माने जाते हैं।
2.3 रसेल की द्विआधारी तारा परिकल्पना
द्विआधारी तारा एक ऐसा तारामंडल है जिसमें दो तारे अपने हव्यमान केंद्र के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। इन तारामंडलों में दो, तीन, चार या बहुविध तारामंडल हो सकते हैं। गैर-सहायता प्राप्त आँख को आमतौर पर वे प्रकाश के एक बिंदु के रूप में ही प्रतीत होते हैं, और बाद में अन्य साधनों द्वारा वे दुगने (या अधिक) के रूप में प्रकट होते हैं। पिछली दो सदियों से अधिक का अनुसंधान बताते हैं दृश्य तारों में से आधे से अधिक तारे बहुविध तारामंडलों के भाग होते हैं।
ग्रह सूर्य से इतनी विशाल दूरी तक किस प्रकार फेंके गए, इसके कारणों को समझाने के लिए एक अमेरिकी खगोल विज्ञानी प्रोफेसर रसेल ने 1937 में एक सुझाव दिया कि सूर्य द्विआधारी तारामंडल का भाग रहा है, और इसका एक साथी तारा था।
शुरू में ग्रह एक दूसरे के काफी निकट थे, और उपग्रहों का जन्म उनके बीच के परस्पर गुरुत्वीय आकर्षण का परिणाम था। यह तीसरा तारा सूर्य से इतनी दूरी पर था कि उसका सूर्य पर कोई प्रभाव होने की संभावना नहीं थी। तीसरा तारा सूर्य के साथी तारे के निकट से गुजरा, जिसका परिणाम सूर्य से एक रेशे के रूप में गैसीय सामग्री के उत्सर्जन में हुआ, जो अंततः उससे अलग हो गई। समय के साथ इस गैसीय रेशे से ग्रहों की निर्मिति हुई। आदिम सूर्य एक द्विआधारी तारा था इस सुझाव को मात्र एक कल्पना के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता। ब्रह्माण्ड के लगभग 10 प्रतिशत तारे द्विआधारी तारे हैं। वास्तव में, कुछ विद्वानों के मतानुसार, द्विआधारी तारों की संख्या संभवतः कुल संख्या का 30 प्रतिशत हो सकती है। यह परिकल्पना हमें ग्रहों की सूर्य से विशाल दूरी, और साथी ही उनके कोणीय वेग को समझाने में सहायता करती है।
3.0 महाविस्फोट सिद्धांत
महाविस्फोट सिद्धांत पृथ्वी की उत्पत्ति के विकास के लिए सबसे अधिक स्वीकार्य सिद्धांतों में से एक माना जाता है। यह सिद्धांत कहता है कि ब्रह्मांड की शुरुआत 13.8 खरब वर्ष पूर्व अति उच्च घनत्व और तापमान के साथ अत्यल्प आयतन से विस्तार के द्वारा हुई। प्रारंभ में ब्रह्माण्ड आपकी त्वचा के एक छिद्र से भी काफी छोटा था। बडे़ धमाके के साथ अंतरिक्ष का तंतु स्वयं एक फूलते गुब्बारे के समान विस्तारित होना शुरू हुआ - पदार्थ केवल फैलते अंतरिक्ष के साथ गुब्बारे की सतह की धूल के सामान सवार होता गया। महाविस्फोट पदार्थ के एक अन्यथा खाली अंतरिक्ष में विस्फोट जैसा नहीं है। बल्कि स्वयं अंतरिक्ष की ही शुरुआत महाविस्फोट के साथ हुई, और जैसे-जैसे यह विस्तारित होता गया, वैसे-वैसे पदार्थ को अपने साथ लेता गया। भौतिकशास्त्रियों का मानना है कि समय की शुरुआत भी बडे़ धमाके के साथ हुई। आज लगभग सभी वैज्ञानिक महाविस्फोट के सिद्धांत को मान्यता प्रदान करते हैं। (1951 में कैथोलिक चर्च ने भी आधिकारिक रूप से उद्घोषणा की कि बडे़ धमाके का सिद्धांत बाइबिल के अनुरूप है।)
1915 में, आइंस्टीन ने अपने प्रसिद्ध सामान्य सापेक्षता सिद्धांत का निर्माण किया, जो अंतरिक्ष, समय और गुरुत्वाकर्षण के स्वरुप का वर्णन करता है। इस सिद्धांत ने अंतरिक्ष के तंतु के विस्तार और संकुचन का सैद्धांतिक वर्णन किया। 1917 में खगोल विज्ञानी विलेम डे सिटर ने इस सिद्धांत को संपूर्ण ब्रह्माण्ड़ पर अनुप्रयुक्त किया और साहसपूर्वक यह दिखाया कि ब्रह्माण्ड़ विस्तारित हो सकता था। एक गणितज्ञ अलेक्सांद्र फ्रीड़मैन और एक ब्रह्माण्ड विद्या विशेषज्ञ और जेसुइट जार्ज लेमैत्रे भी क्रमशः 1922 और 1927 में एक अधिक सामान्य रूप में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे। यह कदम क्रान्तिकारी था, क्योंकि उस समय स्वीकृत विचार यह था कि ब्रह्माण्ड आकार में स्थिर था। इस विस्तारित होते ब्रह्माण्ड की पीछे जाकर खोज करते हुए लेमैत्रे ने कल्पना की कि संपूर्ण पदार्थ शुरुआत में एक सूक्ष्म ब्रह्माण्ड में स्थित था और बाद में यह विस्फोटित हुआ। इन विचारों ने ब्रह्माण्ड के लिए आश्चर्यजनक नई कल्पनाओं की शुरुआत की, परंतु ये उस समय पर्यवेक्षण से स्वतंत्र थे।महाविस्फोट सिद्धांत समर्थन में तीन बुनियादी तर्क दिए जाते हैंः
- ब्रह्माण्ड के विस्तार के कारण आकाशगंगाओं के बीच का अंतर अधिकाधिक बड़ा होता जा रहा है। यह हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि किसी न किसी प्रकार के विस्फोट से पहले सब कुछ एक दूसरे से अत्यंत निकट हुआ करता था।
- महाविस्फोट सटीक रूप से ब्रह्माण्ड में हीलियम और ड्यूटेरियम (हाइड्रोजन का एक समस्थानिक) जैसे अन्य नाभिकों के आधिक्य को समझाता है। शुरुआत में एक गर्म, घना और विस्तारित होता हुआ वायुमंडल ही इन नाभिकों की उस प्रचुर मात्रा में निर्मिति कर सकता था, जिसमें आज वे विद्यमान हैं।
- खगोलविद वास्तव में ब्रह्मांडीय पृष्ठभूमि विकिरण-ब्रह्माण्ड में सभी दिशाओं से विस्फोट की उत्तरदीप्ति-का अवलोकन कर सकते हैं।
सूर्य की निर्मिति तब हुई जब धूल और गैस का एक घूमता हुआ बादल संकुचित हुआ, जिसने पदार्थ को अपने केंद्र की ओर खींच लिया। केंद्र का तापमान जब 10,00,000 अंश सेल्सियस तक बढ़ गया, तो नाभिकीय संलयन हुआ - हाइड्रोजन का हीलियम में संलयन, जिससे ऊर्जा निर्माण हुई - जिसके कारण ऊष्मा और प्रकाश की एक निरंतर धारा छूटी। सूर्य की निम्न परतें हैं।
4.1 कोर
सूर्य की सबसे अंदर की परत अन्तर्भाग है। 150 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर घनत्व के साथ, जो सीसे के घनत्व से 10 गुना अधिक है, ऐसी संभावना व्यक्त की जाती है कि मूल ठोस होगा। हालाँकि मूल का 15.7 मिलियन केल्विन तापमान (27 मिलियन अंश फेरनहाइट) इसे गैसीय अवस्था में रखता है।
अन्तर्भाग के अंदर संलयन प्रतिक्रियाएं गामा किरणों और न्युट्रीनों के रूप में ऊर्जा उत्पादित करती हैं। गामा किरणें उच्च ऊर्जा और उच्च आवृत्ति वाली फोटोन हैं।
वेष्टन से सूर्य के बाहर की ओर अपनी यात्रा के दौरान अनेक अणुओं द्वारा गामा किरणों को अवशोषित किया जाता है और पुनः उत्सर्जित किया जाता है। गामा किरणें जब अणुओं को छोड़ती हैं, तो उनकी औसत ऊर्जा कम हो जाती है। हालांकि ऊष्मप्रवैगिकी का प्रथम सिद्धांत (जो कहता है कि ऊर्जा न तो निर्मित की जा सकती है, और न ही इसका नाश किया जा सकता है) अपनी भूमिका अदा करता है और फोटोनों की संख्या में वृद्धि हो जाती है। सौर वेष्टन को छोड़ने वाली प्रत्येक उच्च ऊर्जा गामा किरण अंततः हजारों अल्प ऊर्जा फोटोनों में परिवर्तित हो जाएगी।
न्युट्रीनो विद्युतीय रूप से तटस्थ, दुर्बलता से प्रभाव ड़ालने वाला आधे पूर्णांक चक्रण के साथ प्राथमिक उपपरमाण्विक कण है। न्युट्रीनो का कोई विद्युत प्रभार नहीं होता, इसका अर्थ यह है कि वे विद्युतचुंबकीय बलों से प्रभावित नहीं होते, जो इलेक्ट्रान और प्रोटॉन जैसे प्रभारयुक्त कणों पर कार्य करते हैं। न्युट्रीनो की निर्मिति कुछ विशिष्ट प्रकार की रेडियोधर्मी सड़न या परमाणु प्रतिक्रियाओं का परिणाम होती हैं, जैसे सूर्य में, परमाणु प्रतिघातकों, या जब ब्रह्मांडीय किरणें अणुओं से टकराती हैं तब घटित होती हैं। पृथ्वी से गुजरने वाले अधिकांश न्युट्रीनो सूर्य से उत्पन्न होते हैं। पृथ्वी के क्षेत्र के सूर्य की दिशा के लंबवत प्रत्येक वर्ग सेंटीमीटर से प्रति सेकंड लगभग 65 बिलियन सौर न्युट्रीनो गुजरते हैं।
न्युट्रीनो अत्यधिक गैर-प्रतिक्रियाशील होते हैं। एक प्ररूपी न्युट्रीनो को रोकने के लिए व्यक्ति को उसे सीसे के एक प्रकाश वर्ष लंबे माध्यम से भेजना पडे़गा! सूर्य से न्युट्रीनो के उत्पादन की गणना करने के लिए अनेक प्रयोग किये जा रहे हैं। जिन रसायनों के तत्वों के साथ न्युट्रीनो प्रतिक्रिया करते हैं, उन्हें खदानों में बडे़ तालाबों में रखा जाता है, और इन तालाबों से न्युट्रीनो के गुजरने की गणना उनके द्वारा तालाबों के नाभिकीय में होने वाले दुर्लभ परिवर्तनों के माध्यम से की जा सकती है। उदाहरणार्थ, परक्लोरोइथेन में क्लोरीन के कुछ समस्थानिक होते हैं, जिसके नाभिक में 37 कण होते हैं (17 प्रोटॉन, 20 न्यूट्रॉन)। ये सीएल-37 अणु न्युट्रीनो को अंदर ले सकते हैं और रेडियोधर्मी एआर-37 (18 प्रोटॉन, 19 न्यूट्रॉन) बन सकते हैं। उपस्थित आर्गन की मात्रा से न्युट्रीनो की संख्या की गणना की जा सकती है।
अन्तर्भाग के बाहर रेडियोधर्मी वेष्टन होता है, जो संवहनी वेष्टनों से घिरा होता है। इसका तापमान 4 मिलियन केल्विन (7 मिलियन अंश फेरनहाइट) होता है। इसे सौर वेष्टन कहते हैं। सौर वेष्टन का घनत्व अन्तर्भाग के घनत्व से काफी कम होता है। मूल के 10 प्रतिशत आयतन में सूर्य का 40 प्रतिशत पिंड होता है, जबकि सौर वेष्टन में पिंड का 60 प्रतिशत 90 प्रतिशत आयतन में होता है।
सौर वेष्टन अन्तर्भाग पर दबाव बनाता है और अन्तर्भाग के तापमान को बनाये रखता है।
गैस जितनी अधिक गर्म होगी, वह उतनी ही अधिक पारदर्शी होगी। अतः सौर वेष्टन अन्तर्भाग की तुलना में अधिक ठंड़ा और अपारदर्शी होता है। इसके कारण ऊर्जा का विकिरण के द्वारा गतिमान होना कम कुशल हो जाता है, और रेडियोधर्मी क्षेत्र के बाहर ऊर्जा निर्मित होना शुरू हो जाती है। ऊर्जा कई सौ किलोमीटर व्यास वाली परिसंचारी गैस की विशाल कोशिकाओं में संवहन के द्वारा गतिशील होना शुरू हो जाती है। बाहरी भाग के निकट की संवहन कोशिकाएं आतंरिक कोशिकाओं की तुलना में छोटी होती हैं। प्रत्येक कोशिका के शीर्ष को कणिका कहते हैं। दूरबीन की सहायता से देखने पर कणिका प्रकाश के सूक्ष्म धब्बों के समान दिखाई देती है। कणिकाओं के अंदर के कणों के वेग में अंतर के कारण सूर्य द्वारा उत्सर्जित वर्ण पट में मामूली तरंगदैर्ध्य परिवर्तन होते हैं।
4.2 सूर्य का बाह्य प्रभामंडल (फोटोस्फीअर)
सूर्य का बाह्य प्रभामंडल सूर्य की चमकदार बाह्य परत होता है जहां से अधिकांश विकिरण उत्सर्जित होता है, विशेष रूप से दृश्य प्रकाश। इसमें 300 किलोमीटर मोटा जलती गैसों का एक क्षेत्र होता है। सूर्य का बाह्य प्रभामंडल एक अत्यंत असमतल सतह होती है। सूर्य के बाह्य प्रभामंडल के बाहर के भाग का प्रभावी तापमान 6000 अंश केल्विन (11000 अंश फेरनहाइट) होता है। सूर्य का बाह्य प्रभामंडल वह क्षेत्र होता है जहां से हमें दिखाई देने वाला सूर्य प्रकाश उत्सर्जित होता है। सूर्य का बाह्य प्रभामंडल वेष्टन को आच्छादित करने वाली न्यून दाब की गैसों की एक तुलनात्मक रूप से पतली परत होता है। सूर्य के बाह्य प्रभामंडल की रचना, तापमान और दबाव सूर्य प्रकाश के वर्ण पट द्वारा उजागर होते हैं वास्तव में हीलियम की खोज 1896 में विलियम रामसे द्वारा तब की गई थी, जब सौर पट का विश्लेषण करते समय उन्हें कुछ ऐसी विशेषतायें दिखाई दीं जो पृथ्वी पर ज्ञात किसी भी गैस में विद्यमान नहीं होती। नए से खोजी गैस का हीलियम नाम हेलियोस के सम्मान में रखा गया था जिसे ग्रीक पुराणशास्त्र में सूर्य का देवता माना जाता है।
4.3 वर्णमण्ड़ल
यह सूर्य के वायुमण्डल की तीन में से दूसरी मुख्य परत है व लगभग 2000 कि.मी. गहरी होती है। इसका घनत्व बाहृ प्रभामंड़ल का 1/10000 वां ही होता है। यह बाहृ प्रभामंड़ल के उपर व सौर संक्रमण क्षेत्र के बीच होता है। इसका तापमान 6000 k से घटकर 3800 k तक आता है, और पुनः बढ़कर 35,000 k से ज्यादा हो जाता है।
4.4 सूर्यकलंक
सूर्यकलंक सूर्य के बाह्य प्रभामंडल पर पाये जाने वाले उन गहरे धब्बों को कहा जाता है जिनका व्यास लगभग पृथ्वी जितना होता है। इनका तापमान सूर्य के बाह्य प्रभामंडल की तुलना में कम होता है। धब्बे का मध्य, जिसे प्रतिछाया कहते हैं, यदि भारी निस्पंदन करके देखा जाए तो गहरा धूसर दिखाई देता है, और इसका तापमान केवल 4500 केल्विन होता है (सूर्य के बाह्य प्रभामंडल के 6000 केल्विन की तुलना में)। इसके चारों ओर पेनुम्ब्रा होता है, जो हल्के धूसर रंग का दिखाई देता है (यदि निस्पंदन करके देखा जाए)। सूर्यकलंक चक्रों में आते हैं, जो पहले तीव्रता से बढ़ते हैं (संख्या में) और बाद में तेजी से घटते हैं। इस सौर चक्र की अवधि लगभग 11 वर्ष की होती है।
सूर्य में विशाल संगठित चुंबकीय क्षेत्र होते हैं जो धुरी से धुरी तक पहुंचते हैं। चुंबकीय क्षेत्र के छोर संवहन वेष्टन में संवहन का विरोध करते हैं, और सतह पर ऊर्जा के प्रवाह को रोकते हैं। इसका परिणाम सतह पर ठंडे़ धब्बों में होता है, जो गर्म क्षेत्रों की तुलना में कम प्रकाश देते हैं। इन ठंडे़ गहरे धब्बों को सूर्यकलंक कहा जाता है। ये इसके चारों ओर के वर्णमण्डल की तुलना में ठंडे़ होते हैं। व्यक्तिगत सूर्यकलंक की जीवन-अवधि कुछ दिनों से लेकर कुछ महीनों की हो सकती है। प्रत्येक सूर्यकलंक का एक मध्य या प्रतिछाया होती है, और इसे घेरे हुए एक हल्का क्षेत्र या पेनुम्ब्रा होता है। दृश्य सूर्यकलंकों की संख्या ग्यारह वर्षों के चक्र में परिवर्तित होती रहती है। ऐसा कहा गया है कि जब सूर्य पर धब्बे नहीं होते तो वह 1 प्रतिशत ठंड़ा होता है, और यह भी कहा जाता है कि सौर विकिरण का यह परिवर्तन पृथ्वी की जलवायुओं को प्रभावित कर सकता है।
4.5 कोरोना
सूर्य की बाहरी परत कोरोना कहलाती है। केवल ग्रहण के दौरान ही दिखाई देने वाली कोरोना एक कम घनत्व वाले प्लाविका का बादल होता है, जिसकी पारदर्शिता अंदरूनी परतों की पारदर्शिता से अधिक होती है। सफेद कोरोना सूर्य की अंदरूनी परतों की तुलना में दस लाख गुना कम चमकीली होती है, परंतु यह कई गुना बड़ी होती है।
कोरोना कई अंदरूनी परतों की तुलना में अधिक गर्म होती है। इसका औसत तापमान 1 मिलियन केल्विन (2 मिलियन अंश फेरनहाइट) होता है, बल्कि कई क्षेत्रों में तो यह 3 मिलियन केल्विन (5 मिलियन अंश फेरनहाइट) तक जा सकता है।
जैसे-जैसे हम अन्तर्भाग से दूर जाते हैं, वैसे-वैसे तापमान तेजी से कम होने लगता है, परंतु सूर्य के बाह्य प्रभामंडल के बाद वह फिर से बढ़ना शुरू हो जाता है। इसका स्पष्टीकरण देने के अनेक सिद्धांत हैं, किंतु अभी तक कोई भी सिद्धांत सिद्ध नहीं हो पाया है।
4.6 सौर तेजाग्नि
कोरोना में, और सूर्यकलंकों, और जटिल चुंबकीय क्षेत्र स्वरूपों के ऊपर, सौर तेजाग्नि होती है। ऊर्जा की ये चिंगारियां कभी-कभी पृथ्वी के आकार जितनी बड़ी हो जाती हैं, और ये कुछ घंटों तक बनी रह सकती हैं। इनके तापमान 11 मिलियन केल्विन (20 मिलियन अंश फेरनहाइट) तक दर्ज किये गए हैं। अत्यधिक गर्मी एक्स-रे किरणों का निर्माण करती है, जो कोरोना की गैसों से टकराने के बाद प्रकाश पैदा करती हैं।
COMMENTS