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जापान का औद्योगीकरण भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
द्वितीय विश्व युद्ध के खंडहर से निकलकर जापानी अर्थव्यवस्था की जबरदस्त वृद्धि, जिसने उसे विश्व के तीसरे सबसे बडे औद्योगिक उत्पादक की स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया है, आधुनिक इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण और अप्रत्याशित परिवर्तन रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध द्वारा लाये गए विध्वंस के बावजूद जापान ने लगभग शून्य से, शक्तिशाली और तकनीकी रूप से अत्याधुनिक उद्योग खडे़ करके विश्व के बडे़ औद्योगिक देशों को पीछे छोड़ दिया है, और स्वयं के लिए विश्व बाजार में एक प्रतिष्ठित स्थान निर्माण किया है। हालांकि इसमें कई आतंरिक विरोधाभास रहे हैं, तीव्र विस्तार के प्रतिकूल दुष्प्रभाव हैं, और बाह्य झटकों का खतरा है, अतः इनका परीक्षण होना आवश्यक है।
2.0 मेइजी युग
1868 में तोकुगावा शोगन (‘महान सेनानी‘) कबीला, जिसने सामंती अवधि में जापान पर शासन किया, अपनी सत्ता खो चुका था और सम्राट को उसकी सर्वोच्च स्थिति में बहाल किया गया। सम्राट ने अपने शासन का नाम मेइजी (‘‘प्रबुद्ध शासन‘‘) के नाम से अपनाया। इसी घटना को मेइज़ी बहाली या मेइजी पुनरूद्धार के रूप में जाना जाता है। 1912 में सम्राट की मृत्यु के बाद जब मेइजी काल का अंत हुआ, तो जापान के पास
- एक केंद्रीयकृत नौकरशाही सरकार थी,
- एक संविधान था जो एक चुनी हुई संसद की स्थापना करता था,
- एक पूर्ण विकसित परिवहन और दूर-संचार व्यवस्था थी,
- एक उच्च शिक्षित जनसंख्या थी, जो सामंती वर्ग के प्रतिबंधों से मुक्त थी,
- एक स्थापित और तीव्र गति से विकसित होता हुआ औद्योगिक क्षेत्र था, जो अत्याधुनिक तकनीक पर आधारित था, और
- एक सशक्त थलसेना और नौसेना थी।
1880 के दशक में, सरकार ने आर्थिक गतिविधियों का नेतृत्व किया, रेलवे और जहाजरानी लाइनों का निर्माण किया, तार सेवा और टेलिफोन सेवा का निर्माण किया, तीन पोत प्रांगणों का निर्माण किया, दस खदानों का निर्माण किया, पांच लड़ाई के सामान निर्माण विभागों का निर्माण किया, और तिरपन उपभोक्ता उद्योगों का निर्माण किया (जिनमें शक्कर, कांच, वस्त्र, सीमेंट, रसायन, और अन्य महत्वपूर्ण उत्पादनों का निर्माण होता था)। यह सब काफी खर्चीला था, और सरकारी वित्त पर पड़ने वाले बोझ के कारण 1880 में सरकार ने इनमें से अधिकांश उद्योग निजी उद्यमियों को बेचने का, और तदुपरांत इस प्रकार की गतिविधियों को रियायतों और प्रोत्साहनों के माध्यम से करने का निर्णय लिया। कुछ सामुराई और व्यापारियों, जिन्होंने इन उद्योगों का निर्माण किया था, उन्होंने महत्वपूर्ण कॉर्पोरेट कंपनियों के संगठन स्थापित किये, जिन्हे ज़ायबात्सु कहा जाता है, जिनका जापान के अधिकांश आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र पर नियंत्रण था।
वे कारक जिन्होंने जापान को पश्चिमी मॉडल को आत्मसात करने के काबिल बनाने में योगदान दिया वे थे शिक्षा और साक्षरता के अपेक्षाकृत उच्च स्तर, औद्योगीकरण-पूर्व अर्थव्यवस्था की परिपक्वता, उत्पादन के क्षेत्र में परिवर्तन को आत्मसात करने के विरुद्ध किन्ही मजबूत पूर्वाग्रहों का अभाव। इन मॉडल्स को आत्मसात किया गया, उन्हें विकसित किया गया, और उन्हें राष्ट्रीय स्थितियों के अनुरूप बनाया गया।
इसका उदाहरण था छोटे एवं लघु उद्योगों के पुराने तरीकों का, शुरू-शुरू में आयातित तकनीकों के साथ, ज्यादा वृहद-स्तरीय व पूंजी-प्रधान उद्योगों के साथ मेल कराना। इससे पहले सिर्फ शिल्प कौशल पर आधारित काम किए जाते थे। पारंपरिक सामग्री का इस्तेमाल होता था, जो मितव्ययी जापानी आपने घरों में इस्तेमाल करते थे। लेकिन बाद में न सिर्फ सस्ते कपड़े और नए उत्पाद बनने लगे, बल्कि खनिज और हथियार भी बनने लगे जिनके लिए वैश्विक व घरेलू बाजार ढूंढे़ गये, एवं जो आर्थिक और राजनीतिक सत्ता की पकड़ मजबूत करने लगे। यह वह आधुनिक क्षेत्र था, जो आयातित प्रौद्योगिकी पर निर्भर करता था, अधिक पूंजी का निवेश मांगता था और बड़ी ईकाइयों में विभाजित था। उत्पादन में होने वाली वृद्धि को घरों में अवशोषित किया जा रहा था। नई मांगें और सरकार की आवश्यकताओं जैसे सशस्त्र बल आदि, के मद्देनज़र विदेशी बाजारों का महत्व भी बढ़ता जा रहा था। कच्चे माल की आर्थिक जरूरत एवं नये बाज़ारों को ढूंढने की जरूरत, जापान की विस्तारवादी राष्ट्रवादिता से मेल खाती थी, एवं इससे जापान शत्रु देशों से दबने से बच सकता था।
चूंकि जनसंख्या ज्यादातर ग्रामीण थी, रेशम उद्योग ने औद्योगिकरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि रेशम उद्योग पहले से काफी स्थापित था, लेकिन कच्चे रेशम का निर्यात भी अब अति-महत्वपूर्ण हो चुका था। श्रमिकों की कमी नहीं थी, घरेलू व विदेशी बाज़ार बनाए जा सकते थे और इसीलिए कपास उद्योग की भी शुरुआत हो गई। पश्चिमी देशों से कई तरह की आधुनिक तकनीकें आने लगी थीं। स्टीम पॉवर भी इन्हीं में से एक था। औद्योगीकरण के प्रारंभिक चरण में ही कई आधुनिक कारखाने बनने लगे थे। लेकिन फिर भी लघु उद्योगों का अपना महत्व कायम था। सरकार के लिए मुख्य उद्देश्य था बड़े उद्योगों को बढ़ावा देना। इससे राष्ट्रवादी जापान को राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता में मदद मिलने की उम्मीद थी। जापान ने उद्योग में देर से कदम रखा, लेकिन उसे फायदा मिला उन आधुनिक तकनीकों को इस्तेमाल करने का जो विकसित देशों में पहले से स्थापित थीं।
आधुनिक जापान की अर्थव्यवस्था के लिए मेइज़ी (1868-1912) के दशक बेहद महत्वपूर्ण साबित हुए। इस काल के अंत तक यह औद्योगीकरण की राह पर चल पड़ा था। जापान में एक आधुनिक क्षेत्र स्थापित हो चुका था जिसमें अब भी मूल सामाजिक और सांस्कृतिक लक्षण मौजूद थे। अतः अब जापान ने अपने पारंपरिक जीवन के सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए रखते हुए, संगठित पूंजीवाद की छत तले एक आधुनिक क्षेत्र बनाना शुरू किया एवं इसमें राष्ट्रवाद व सैन्यवाद ने केन्द्रीय भूमिका निभाई। पुराने औद्योगिक ढ़ांचे को विस्तारित कर जीवंत रखा गया, एवं वृहद-स्तरीय उत्पादन करने में विशाल कंपनीयों व बैंकों ने बड़ी भूमिका निभाई।
परंपरागत विशेषताएं जैसे करीबी पारिवारिक संबंध, महिलाओं की पति और पिताओं पर निर्भरता, सामाजिक वरिष्ठ अधिकारियों के प्रति आज्ञाकारिता और अनुशासित श्रम शक्ति की मदद से औद्योगिक उत्पादन में बहुत सहायता मिली। मेइजी पुनरूद्धार से पहले अपेक्षाकृत उच्च स्तर की साक्षरता की मदद से नई तकनीकों का प्रसार जल्दी हुआ। जापानी विदेशियों के साथ विद्यालय जाने के लिए उत्सुक रहे और हमेशा विदेशी मॉडल, विशेषज्ञों और तकनीशियनों के प्रति जिज्ञासु रहे। वे उनकी मदद से नए-नए उद्योग लगाने हेतु उत्सुक रहे। हालांकि उन्होंने हमेशा अपनी संस्कृति बनाए रखी और किसी अन्य पर निर्भर नहीं हुए। शुरुआती दौर में जब उन्होंने विदेशीयों से ज्ञान लिया, तो उन्होंने कई सुधार किए। इस दौरान हुए नए आविष्कारों के लिए जापानी उद्यमी जिम्मेदार थे जिन्होंने तकनीक में सुधार किया और अपने राष्ट्रीय वातावरण के लिए उसे अपनाया। इससे एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई जो केवल गुलाम-नकलची नहीं थी।
3.0 1912-1941
मेईजी पुनरूद्धार ने जापान के समाज की वैश्विक स्थिति को बदल दिया। जापान ने खुद को इतना मजबूत बना लिया कि वह तमाम पश्चिमी उपनिवेशवादी शक्तियों के दबाव के बावजूद एक संप्रभु राष्ट्र बना रहा, एवं शीघ्र ही स्वयं एक उपनिवेशवादी शक्ति बन गया! ताइशो (1912-1926) के शासन के दौरान जापान के नागरिकों ने अधिक सामाजिक स्वतंत्रता के लिए सरकार में अपनी आवाज की मांग की। इस दौरान जापान का समाज और वहां की राजनीतिक प्रणाली पहले से काफी खुल चुकी थी। उस काल को ‘‘ताइशो लोकतंत्र‘‘ कहा गया है। इसका एक स्पष्टीकरण यह दिया गया है कि प्रथम विश्व युद्ध तक जापान आर्थिक रूप से बेहद समृद्ध था। जापानी नागरिकों के पास खर्च करने के लिए बहुत सा पैसा, अधिक आरामदायक जिंदगी और बेहतरीन शिक्षा थी; साथ ही वहां का मीडिया तेजी से बढ़ रहा था। वे अब ज्यादातर रहते भी ऐसे शहरों में थे जहां वे विदेशी प्रभावों के संपर्क में आते रहते थे। औद्योगीकरण अपने आप ही पारंपरिक मूल्यों को कम आंकता था और ज्यादा जोर दक्षता, स्वतंत्रता, भौतिकवाद और व्यक्तिवाद पर देता था। इन वर्षों के दौरान जापान ने बड़े पैमाने पर ‘‘उभरते हुए समाज‘‘ को देखा। इस दौरान भी जापानी सार्वभौमिक पुरूष मताधिकारों की बात करने लगे, जो उन्हें अंततः 1925 में हासिल हुआ। इसके बाद राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ने लगा और 1918 से 1931 के दौरान वे स्वयं अपने प्रधानमंत्री नियुक्त करने लगे।
प्रथम विश्व युद्ध ने जापान के औद्योगीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। औपचारिक रूप से तो जापान युद्ध का एक दल था, लेकिन युद्ध में इसका एक छोटा सा हिस्सा रहा। युद्ध में शामिल प्रमुख देशों के आयात में कटौती से जापानी बाजार में फर्क नहीं पड़ा। बाजारों में जापानी उत्पादों की कमी नहीं थी। जापान का विदेशी व्यापार 300 फीसदी बढ़ गया और यह ज्यादातर निर्यात पर आधारित था। इसी दौरान जापान से कई प्रशांत क्षेत्र के अविकसित देशों ने साझेदारी शुरू कर दी। लगातार बढ़ते व्यापार और निवेश और युद्ध के कारण उद्योग तेजी से बढ़ा। लेकिन नागरिकों के लिए कई कठिनाइयां थीं। जहां एक ओर उत्पादों की कीमतें ढ़ाई गुना बढ़ गई थीं, वहीं दूसरी ओर कारखानों में काम करने वाले कारीगरों के वेतन नहीं बढ़े थे, खासतौर पर उन कारीगरों के जो नए व ग्रामीण क्षेत्रों से थे। इसका प्रभाव ग्रामीणों पर भी पड़ा। गंभीर सामाजिक उपभेद और अशांति के कारण 1918 में चावल दंगे भी हो गए। इस दौरान जापान ने अपने क्षेत्र का विस्तार प्रशांत क्षेत्रों में किया व जर्मनी के कई क्षेत्र छीन लिए एवं मुख्य भूमि पर अपनी स्थिति मजबूत कर ली। चूंकि विश्व की प्रमुख शक्तियों का ध्यान यूरोप पर केंद्रित था, उसकी बाह्य स्थिति में सुधार हो गया। इसी दौरान भुगतान के अनुकूल संतुलन हो जाने के कारण, विदेशी कर्ज चुकता हो गए और जापान खुद एक लेनदार देश बन गया। संक्षेप में कहा जा सकता है कि युद्ध के कारण जापान को सीधे और परोक्ष रूप से अधिक लाभ हुआ।
हांलाकि, प्रथम विश्व युद्ध के बाद जापान एक गंभीर आर्थिक मंदी की चपेट में आ चुका था। ताइशो काल के दौरान रहने वाला उज्जवल माहौल धीरे-धीरे गायब होने लगा। राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार में लिप्त होने लगीं। नतीजतन सरकार और सेना मजबूत, और संसद कमजोर होने लगी। उन्नत औद्योगिक क्षेत्र अब मुख्यतः कुछ विशाल कंपनियों - ज़ायबात्सु - द्वारा नियंत्रित होने लगा। जापान के अंतरराष्ट्रीय संबंध भी, चीन में जापान की गतिविधियों के प्रति चीनीयों एवं विश्व-शक्तियों द्वारा विरोध के कारण तनाव में आने लगे। लेकिन पूर्व एशिया में यूरोपीय शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा में मिलती सफलता से यह माना जाने लगा कि जापान एशिया की मुख्य भूमि पर अपना प्रभाव और बढ़ा सकता था।
इस दौरान जापान एशिया में अपनी शक्ति लगातार बढ़ाने का प्रयास करता रहा। लेकिन पश्चिमी देश लगातार इस प्रयास के विरोधी रहे। अपने प्राकृतिक संसाधनों का विस्तार करने के लिए भी जापान लगातार प्रयत्न कर रहा था। इस दौरान सैन्यवादी शक्तियों को काफी बढ़ावा मिला। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में असुरक्षा होने की वजह से दक्षिणपंथी सैन्य गुट पहले विदेशी, और फिर घरेलू, नीतियों को नियंत्रित करने में सफल होने लगे। चूंकि अब सेना सरकार पर बहुत दबाव डाल रही थी, अतः एक विस्तारवादी काल की शुरूआत हुई।
जब 1931 में जापान ने अपना साम्राज्यवादी विस्तार चीन में किया तब उन्नत प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने वाले, युद्ध से संबंधित उद्योगों का तेजी से विस्तार हुआ। पहले की ही तरह, औद्योगिक द्वैतवाद जारी रहा। काफी औद्योगिक उत्पादन छोटे और मध्यम आकार की इकाइयों में पुराने तरीके से ही हो रहा था। ये अब भी मशीनों की जगह हाथों का इस्तेमाल कर रहे थे। 1920 के दौरान ऐसे उद्योगों और बड़े पैमानों पर स्थापित उद्योगों के बीच का फर्क, उत्पादन और वेतन के मामले में बढ़ता ही गया। हालांकि ये दोनों क्षेत्र पूरी तरह से अलग नहीं थे। बड़े फर्म छोटे उद्योगों से पुर्जे-आदि लेने लगे। यह उन्हें किफायती पड़ने लगा और कार्य प्रबंधन में लचीलापन भी लाया। कुछ छोटे उद्योग बड़े उद्योगों से उनकी पुरानी मशीनें सस्ते दामों में लेकर काम करने लगे। ज्यादातर छोटे उद्योग पारंपरिक उत्पादन करते थे इसलिए उनकी मशीनें भी सिलाई मशीन या लेथों जैसी साधारण होती थीं। कुछ सस्ते उत्पादों ने अपनी जगह विदेशों में भी बनाई, लेकिन इससे जापानी प्रतिष्ठा खराब होने लगी।
1920 में जापानी अर्थव्यवस्था ने कई समस्याओं का सामना किया। निर्यात कम होने लगा, विदेश में संरक्षणवाद बढ़ने लगा और एक महंगे येन के चलते, निर्यात 1919 के शीर्ष स्तर को दस वर्षों तक छूने नहीं वाले थे। कीमतें गिरने लगीं, मुनाफा घटने लगा और कई लोग दिवालिया होने लगे। बड़े व्यापार संगठन युक्तिकरण से प्रभावित होने लगे और विदेशी बाजार में निवेश करने लगे। 1927 में वित्तीय संकट आ गया और कई बैंकें ध्वस्त हो गईं। इससे बड़ी बैंकों की स्थिति में सुधार आ गया। 1930-31 में जापान में वैश्विक आर्थिक मंदी के प्रभावों की शुरुआत हुई और कीमतों और निर्यात में गिरावट आ गई। कुछ सालों पहले तक सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला कच्चा रेशम का व्यापार भी नष्ट हो गया। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और यूरोप में ऊंची कीमतों की वजह से निर्यात व्यापार भी धराशायी हो गया।
हालांकि कुछ ही सालों में जापान इस आर्थिक मंदी से उभरने में सक्षम रहा और एकमात्र ऐसा पूंजीवादी देश बना जो मंदी के बावजूद भी तेजी से विकास कर रहा था। इसके दो प्रमुख कारण थेः
- दुनिया भर में गिर रहे व्यापार और कीमतों के दौरान, जापान ने सस्ते कपड़ा व हल्के विनिर्माण उत्पाद निर्यात की शुरुआत की। ऐसा कर उन्होंने उन बाज़ारों में घुसना शुरू किया जो अब तक ब्रिटेन जैसे औद्योगीकृत देशों के नियंत्रण में थे।
- 1936 के बाद से सरकार ने युद्ध सामग्री जुटाना शुरू की, जिससे भारी उद्योग के विस्तार को प्रेरणा मिली। इस बीच जापानी पूंजी मंचूरिया के औपनिवेशिक क्षेत्र को विकसित करने के लिए लगाई गई। सस्ते श्रम, उधार में ली गई प्रौद्योगिकी और एक औपनिवेशिक विस्तारवादी नीति की मदद से यह किया गया। इससे पूर्व एशिया के बाजार में जगह बन पाई। इससे संयंत्रों की मांग बढ़ी जिससे बड़ी कंपनियां देश में ही निवेश करने लगीं। वहीं, उपनिवेश अब कच्चे माल और खाने की आपूर्ति कर रहे थे, जिसकी मातृ देश में कमी थी।
4.0 युद्ध और राष्ट्रवाद का विकास
1930 तक जापान ने अपने सैन्य लक्ष्यों को पश्चिमी शक्तियों के टकराव से दूर रखा। हालांकि, अन्य वैश्विक शक्तियां ज़्यादा समय तक चुप न रहने वाली थीं, व संघर्ष तो होना ही था। निःसंदेह टोक्यो के सत्तारूढ़ वर्ग के रूढ़िवादी तत्वों को उग्रवादी राष्ट्रवादियों द्वारा एक सैन्य जुए में अनिच्छापूर्वक ही धकेला गया। उन्होंने यह जानते हुए भी एशियाई भूमि पर विस्तार किया कि पश्चिमी शक्तियां इसके विरुद्ध होंगी। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि जापान में एक आंतरिक सत्ता-संघर्ष चल रहा था। यह भी साफ था कि आर्थिक संकट का प्रभाव जापान पर गहरा पड़ा था व मेइजी पुनरूद्धार काल से ही, दबे पड़े आंतरिक विरोधाभास अब कूट पड़ने लगे थे।
1930 से लेकर 1945 में जापान के समर्पण तक के दौरान, औद्योगीकरण को उभरते हुए राष्ट्रवाद के संदर्भ में देखना होगा। ग्रामीण इलाकों से शक्ति प्राप्त करने वाली सेना, एवं पारंपरिक सत्ता वर्गों ने राज्य और देश में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जापान के औद्योगीकरण की वजह से सैन्य शासन नए तरीके से सक्षम हो गया। इसका खर्च सरकार ही उठाती थी और इस नीति का ज़ायबात्सु ने स्वागत किया। देशभक्ति और मुनाफा एक साथ बढ़ता चला गया, और सेना को मजबूत बनाता गया। जब 1930 में मंदी आई और पिछले दशक की समस्याएं भी सामने आने लगीं तो प्रभावशाली शासकीय वर्गों के लिए एशिया में जापान के राष्ट्रवादी विस्तार का रास्ता खुल गया। इसके अलावा साम्राज्यवादी विस्तार का अर्थ था संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और ब्रिटेन के साथ युद्ध की आशंका होना। जापान इन दोनों देशों से युद्ध नहीं जीत सकता था। निस्संदेह अन्य विकल्प भी थे, जो समझदार वर्गों द्वारा बताए जा रहे थे, लेकिन वे सभी सत्तावादी शासन द्वारा दबा दिये गये थे।
अचरज की बात थी कि 1941 में अमेरिकी नौसैनिक अड्डे पर्ल हार्बर पर हमले के बाद जापान ने दोनों मोर्चों पर - युद्ध भूमि में, एवं युद्ध की तैयारी करने में - खुद को बेहद अच्छे से संभाला। इस सफलता के पीछे मुख्य कारण था सशस्त्र बलों हेतु उत्पादन में बढ़ोतरी और नागरिक खपत को कम करना। युद्ध मुख्यतः कच्चे माल और ईंधन पर निर्भर करता था। समुद्री मार्ग जापान की सबसे बड़ी कमज़ोरी थे और इनके खतरे में आ जाने के बाद वहां अर्थव्यवस्था डगमगा जाती। हालांकि, प्रशांत सागर में अपने प्रारंभिक सफल फैलाव और पूर्व एशियाई समुद्री क्षेत्रों पर प्रभुत्व जैसी शुरुआती सफलताओं से लगने लगा था कि इस हानि से बचा जा सकता है।
युद्ध के दौरान जब अमेरिका ने अपनी औद्योगिक क्षमता का प्रदर्शन किया, तो जापान उसके सामने काफी कमज़ोर साबित हुआ। जो जापान का सबसे अधिक उत्पादन था, वह संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के दसवें भाग से भी कम था। सैन्य अभियानों की हार से जैसे ही विदेशी स्रोतों से आपूर्ति बंद होने लगी, उद्योग ठंडा पडने लगा और कच्चे माल की कमी होने लगी। लंबे समय तक चलने वाले युद्ध की कोई तैयारी नहीं की गई थी और इस वजह से काफी अराजकता फैल गई। युद्ध में जापान के औद्योगिकरण की अधूरी प्रकृति का पता चला। कम से कम आधी आबादी अब भी प्राथमिक उत्पादन में नियोजित थी। इससे युद्ध उद्योगों में श्रम-शक्ति की कमी हो गई। जनसंख्या के बड़े हिस्से की प्रतिदिन कैलोरी (उर्जा) खपत बहुत गिर गई। अमेरिकी बमबारी और परमाणु बम गिरने के बाद से अर्थव्यवस्था बाधित हो गई और नागरिकों की परेशानियां और बढ़ गईं।
युद्ध के बाद, इसलिए, जापानी अर्थव्यवस्था खत्म-सी होने लगी थी। भोजन और अन्य सामान की कमी होने लगी और तीव्र मुद्रास्फीति शुरू हो गई। औद्योगिक संयंत्रों का विनाश हो गया था और कच्चे माल और ऊर्जा की कमी होने लगी थी। चूंकि ज्यादातर औद्योगिक अर्थव्यवस्था का इस्तेमाल सिर्फ युद्ध उत्पादन हेतु होने लगा था, अतः शांतिकाल की आवश्यकताओं हेतु उसे पुनः परिवर्तित करना आवश्यक था। उसके पश्चात् ही शांतिकाल अर्थव्यवस्था का उद्धार संभव था। जापानी व्यवसायी अपने बचे हुए उद्योग से ज्यादा से ज्यादा बचाने की सोच रहे थे और उन्होंने अधिकारियों के साथ सहयोग करने में ही बेहतरी समझी। जापानी आक्रमण रोकने के लिए अमेरिका ने भी जापानी अर्थव्यवस्था को पुनर्गठित करने की नीति बनाना शुरू कर दी। जापान की हार एवं आधिपत्य काल ने, हालांकि, अब पुनः मेइजी पुनरूद्धार जैसी संभावनाएं खोल दी थीं। कुछ ही समय में जापान विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया।
सामान्य दरिद्रता की स्थिति में काला बाजार उभर कर सामने आया। भोजन में आत्मनिर्भर रहने के स्थान पर जापान अब अमेरिका के अधिशेषों पर निर्भर हो गया। अर्थव्यवस्था तब तक सामान्य नहीं हो सकती थी जब तक देश में फिर से कच्चा माल आना शुरू नहीं हो जाता और निर्यात की मदद से खर्चे चुकता न हो जाते। आर्थिक उन्नति का मतलब विश्व में स्वयं की बहाली था।
5.0 जापानी अर्थव्यवस्थाः युद्ध के बाद विकास
विद्वानों ने कई सिद्धांत दिए हैं जो बताते हैं कि जापान ने युद्ध के बाद इतनी तेजी से कैसे तरक्की की। सशक्त केंद्रीय सरकार व नौकरशाही ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंतरराष्ट्रीय व्यापार और उद्योग मंत्रालय (MITI) जैसे संगठन के लोक सेवक उस समय व्यापारिक संघ के साथ मिलकर अर्थव्यवस्था को सुधारने की योजना बनाया करते थे।
अब जिसे जापान की ‘‘विकासशील व्यवस्था‘‘ कहा गया, उसने ‘‘औद्योगिक नीति‘‘ के सही इस्तेमाल से जापान की तीव्र-गति वृद्धि को सहारा दिया। ऑटोमोबाइल जैसे उभरते क्षेत्र को बढ़ावा मिला, खनन जैसे ठंड़े क्षेत्र पर योजनाएं बनीं, व निर्यात को बढ़ावा मिला। अन्य पर्यवेक्षकों के हिसाब से अंतरराष्ट्रीय स्थितियां भी जापान के लिए बेहद फायदेमंद साबित हुईं। आसानी से प्रौद्योगिकी उपलब्ध थी और अंतरराष्ट्रीय बाजारों के लिए मार्ग खुल चुके थे। कुछ विद्वानों के मुताबिक सुरक्षित घरेलू बाजार और निर्यात की मदद से यह विकास हुआ, तो कुछ का मानना है कि शीत युद्ध काल के दौरान अपनी सैन्य रक्षा के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका पर निर्भर रहना जापान के लिए स्वतः ही समृद्धि लाया।
वहीं वर्तमान अर्थशास्त्रियों के मुताबिक जापान का सुधरता जीवन स्तर जापान को बीस सालों तक आर्थिक वृद्धि देने में मददगार सिद्ध हुआ। विकास के साथ ही यह युग जापानी राजनीति और नीतियां बनाने के तरीके में भी स्थिरता लाया। 1955 में दो प्रमुख रुढ़िवादी पार्टियों ने मिलकर लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) बनाई। अकसर विरोधियों ने इस पार्टी पर आरोप लगाया कि ये न तो उदार है न लोकतांत्रिक। एलडीपी को ग्रामीण क्षेत्रों से काफी समर्थन मिला। इस पार्टी की विशेषता थी वैचारिक लचीलापन। इसी के आधार पर इस पार्टी ने डायट में अपनी जगह मजबूत बनाते हुए प्रधानमंत्री पद पर 1990 के शुरूआत तक पकड़ बनाए रखी।
चुनावों में एलडीपी के प्रतिनिधियों का प्रभुत्व देखकर कई आलोचकों ने प्रश्न किया कि युद्ध-पश्चात का जापान वाई में कितना लोकतांत्रिक था। कई टिप्पणीकर्ताओं का मानना है कि नीतियां वास्तव में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जगह, एलडीपी नेताओं, शक्तिशाली कंपनियों के प्रमुखों और सरकारी नौकरशाहों के मधुर संबंधों के आधार पर बनाई जाती थीं। कुलीन वर्ग के इस अनौपचारिक गठबंधन को आयरन ट्रायएंगल (लोह त्रिकोण) भी कहा गया। इसने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान के कई महत्वपूर्ण और शीर्ष स्तर के निर्णय लिए। हालांकि ऐसा देखा गया है कि प्रभावशाली व्यक्तित्वों के ऐसे गठबंधन पश्चिम की औद्योगिक लोकतंत्रों में भी मिलते हैं। यानी जापानी, एलडीपी और आयरन ट्रायएंगल से संतुष्ट थे और इसी वजह से आर्थिक समृद्धता और राजनीतिक स्थिरता बनी रही।
1951 में जापान का सकल राष्ट्रीय उत्पाद 14.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। यह जर्मनी से आधा, ब्रिटेन से तीन गुना कम और संयुक्त राष्ट्र अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मात्र 4.2 फीसदी था। लेकिन 1970 के दौरान, जापान ने सभी यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को पछाड़ दिया और अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद के 20 फीसदी से भी ज्यादा स्तर पर पहुंच गया। 1975 मे यह ब्रिटेन का दो गुना हो गया और 1980 में तो यह अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 40 फीसदी तक पहुंच गया।
लेकिन इस विकास दर को अगले तीन दशकों तक स्थिर बनाए रखने में कई घटकों का योगदान रहा।
सबसे पहला, जापान अपनी रक्षा के लिए अमेरिकी सैन्य सुरक्षा पर निर्भर करता था, जिस वजह से सरकार का रक्षा खर्च बचता था। ऐसा ही कुछ पश्चिमी जर्मनी में भी हुआ और इसी प्रकार दोनों देशों ने युद्ध के बाद सबसे ताकतवर आर्थिक वृद्धि का अनुभव किया। हालांकि जापान की वृद्धि दुनिया के किसी भी अन्य देश से कहीं अधिक रही।
1950 में येन को जानबूझकर बेहद कम कीमत पर स्थापित किया गया था। 1945 में जापान पूरी तरह से नष्ट हो चुका था और सारे उद्योग खत्म हो चुके थे। लेकिन अमेरिका किसी भी प्रकार से क्षतिग्रस्त नहीं हुआ और उन्हें पुनर्निमाण करने की कुछ जरूरत नहीं थी। इसलिए जापान को युद्ध के पहले के स्थिति पर पहुंचने में कई वर्ष लग गए। अगर देश युद्ध के बाद समाप्त नहीं हो गया होता, तो यह आर्थिक ‘‘चमत्कार‘‘ नहीं हुआ होता। यही बात जर्मनी के लिए भी कही जा सकती है जिसका सकल राष्ट्रीय उत्पाद 1951 में ब्रिटेन का 68 फीसदी था जबकि पहले यह उससे अधिक था।
जापानी अर्थव्यवस्था का आकार हर दशक पांच गुना बढ़ता गया। किंतु जापानी आर्थिक चमत्कार केवल देश के पुनर्निमाण करने से, एवं युद्ध के सैन्य खर्चों, संयंत्रों एवं उर्जा को व्यापार की ओर मोड़ देने की वजह मात्र से ही नहीं हुआ। हालांकि जापानी अर्थव्यवस्था अमेरिकी प्रणाली पर आधारित थी, लेकिन सरकार ने व्यापार बढ़ाने के लिए कम ब्याज की दरे रखीं। उन्होंने विकास के लिए बनाए गए क्षेत्रों को ये कर्ज दिए और इससे अर्थव्यवस्था के हर संभव विकास की योजना बनाई। उदाहरण के लिए, अंतरराष्ट्रीय व्यापार और उद्योग मंत्रालय (MITI) ने लोहा और इस्पात उत्पादकों पर ऑस्ट्रियाई ऑक्सीजन फर्नेस का संयुक्त रूप से लाइसेंस प्राप्त करने के लिए दबाव बनाया। इस प्रकार लागत और लाभ दोनों की साझेदारी होती थी। वहीं एंग्लो-सैक्सन मुक्त बाजार व्यवस्था की हर कंपनी को व्यक्तिगत रूप से काफी महंगा लाइसेंस लेना पड़ता था। जापानी उद्योग बैंकों से बड़े पैमाने पर उधार लेते थे, व इन बैंकों के पास धन परिवारों की उच्च बचत से आता था। मुद्रास्फीति के कारण वे बिना किसी कठिनाई के आसानी से धन लौटा सकते थे। हालांकि 1990 में बुलबुला फूटा, व बैंकों के पास बहुत सा अनुव्यापक कर्जा हो गया। इससे दिवालियापन आ गया और राज्य से वित्तीय सहायता की जरूरत पडने लगी।
एम.आई.टी.आई. की भूमिकाः 1949 से 2001 के बीच अंतरराष्ट्रीय व्यापार और उद्योग मंत्रालय (MITI) जापानी सरकार की सबसे शक्तिशाली एजेंसियों में से एक था। इसका प्रभाव जापान की औद्योगिक नीति, अनुसंधान के वित्तपोषण और निवेश निर्देशन पर था। 2001 में इसका काम नवनिर्मित आर्थिक, व्यापार और उद्योग मंत्रालय (METI) करने लगा। एमआईटीआई के निर्माण का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय व्यापार नीति का जापान के बैंकों, आर्थिक योजना एजेंसी और विभिन्न वाणिज्य कैबिनेट से समन्वय था। 1949 में जापान द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आर्थिक आपदा से गुजर रहा था।
लगातार बढ़ रही मुद्रास्फीति और उत्पादकता को बनाए रखने में नाकामी आने के साथ सरकार ने अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की योजना बनाई। इसके लिए एमआईटीआई को जिम्मेदारी सौंपी गई। एमआईटीआई को न सिर्फ आयात और निर्यात का ध्यान रखना था बल्कि सभी घरेलू उद्योगों के संयंत्रों और उपकरणों, प्रदूषण नियंत्रण, ऊर्जा और बिजली में निवेश के क्षेत्रों में मंत्रालयों की भी जिम्मेदारी लेनी थी। इस दौरान एमआईटीआई को मौका मिला प्रदूषण नियंत्रण और निर्यात प्रतिस्पर्धा जैसी परस्पर-विरोधी नीतियों को एकीकृत करने का। इस मंत्रालय ने जापानी औद्योगिक नीति के लिए एक वास्तुकार, औद्योगिक समस्याओं और विवादों पर एक पंच, और एक नियामक के रूप में कार्य किया। मंत्रालय का प्रमुख उद्देश्य देश के औद्योगिक आधार को मजबूत करना था। इसने केंद्र की बनाई हुई योजना के हिसाब से जापानी व्यापार और उद्योग का प्रबंधन तो नहीं किया, लेकिन इसने उद्योगों को प्रशासनिक मार्गदर्शन दिया और
आधुनिकीकरण, प्रौद्योगिकी और संयंत्रों को अपनाने में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों रूप से दिशा दिखाई। साथ ही विदेशी और घरेलू निवेश की राह दिखाई।
1970 के दशक के दौरान जापान का सकल राष्ट्रीय उत्पाद दुनिया में तीसरे स्थान पर था। इससे पहले स्थान था अमेरिका और सोवियत संघ का। वहीं 1990 में प्रमुख औद्योगिक देशों की श्रृंखला में प्रति व्यक्ति जी.एन.पी. आधार में जापान का पहला स्थान था। इस समय इसका प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद 23,801 अमेरिकन डॉलर था। 1980 में यह आंकड़ा 9,068 अमेरिकन डॉलर था। 1980 में हल्की सी आर्थिक मंदी के बाद जापान की अर्थव्यवस्था ने 1986 में विस्तार करना शुरू किया। लेकिन फिर 1992 में यह आर्थिक मंदी के दौर से गुजरने लगा। 1987 और 1989 के बीच औसत 5 फीसदी की आर्थिक वृद्धि हुई। इससे स्टील और निर्माण उद्योगों को पुनर्जीवित किया, जो 1980 के दौरान निष्क्रिय हो चुकी थीं। दोबारा इनके शुरू होने के बाद ये बेहतरीन वेतन और रोजगार देने वाले उद्योगों के रूप में उभरीं। हालांकि 1992 में जापान की सकल राष्ट्रीय उत्पाद विकास दर सिर्फ 1.7 फीसदी रह गई।
1980 के दशक में अभूतपूर्व वृद्धि का अनुभव करने वाले ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग भी 1992 के दशक में मंदी में प्रवेश कर गए। जापानी ऑटोमोबाइल का घरेलू मार्केट भी ढ़लान की ओर था और इसी समय संयुक्त राज्य अमेरिका के बाज़ार में भी जापान का हिस्सा गिरने लगा था। जापानी इलेक्ट्रॉनिक्स की घरेलू ही नहीं, बल्कि विदेशी मांगों में भी कमी आ गई और जापान संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, कोरिया और ताइवान जैसे देशों के मुकाबले, अर्धचालक व्यापार में, अपना नेतृत्व खोने लगा।
1960 और 1970 के दशक में निर्यात ने जापान के आर्थिक विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन इसके विपरीत 1980 के दशक में अर्थव्यवस्था घरेलू खपत से बढ़ी थी। इससे उद्योगों का झुकाव निर्यात पर निर्भर रहने की उपेक्षा घरेलू मांगों की ओर बढ़ा। इससे बुनियादी आर्थिक पुनर्गठन होने लगा। 1986 में उद्योगों में उछाल के पीछे मुख्य वजह थी कि कंपनियों में निजी संयंत्र और उपकरण खरीदने की होड़ लगना। जापान के आयात निर्यात कि तुलना में तेजी से बढने लगे। युद्ध के बाद के तकनीकी अनुसंधान शोध का इस्तेमाल सैन्य विकास की जगह आर्थिक वृद्धि के लिए किया गया। 1980 के दशक में उच्च प्रौद्योगिकी उद्योगों में हुई वृद्धि से उच्च तकनीक वाले उत्पादों की मांग देश में बढ़ गई। साथ ही मांग बढ़ी बेहतर आवास और पर्यावरण मानकों की, बेहतर स्वास्थ्य, चिकित्सा और कल्याण के अवसरों की। समाज में भी ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही थी जिनकी उम्र ज्यादा थी। इसलिए उनके रहने की बेहतर जगहों की मांग भी बढ़ने लगी। घरेलू खपत पर निर्भरता के कारण खपत 1991-92 में सिर्फ 2.2 फीसदी ही बढ़ा।
1980 के दौरान जापानी अर्थव्यवस्था कृषि, विनिर्माण और खनन जैसी प्राथमिक और माध्यमिक गतिविधियों से स्थानांतरित हो कर दूरसंचार और कम्प्यूटर की ओर चली गई। सूचना एक महत्वपूर्ण संसाधन बन गया। सूचना आधारित अर्थव्यवस्था में वृद्धि अत्यधित परिष्कृत प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनुसंधान से हुई। सूचना की बिक्री और इस्तेमाल अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद साबित हुआ। टोक्यो एक प्रमुख वित्तीय केंद्र बन गया। यहां कुछ प्रमुख विश्व बैंक, बीमा फर्म और दुनिया के प्रमुख शेयर बाजार भी खुल गए। यहां दुनिया का सबसे बडा स्टॉक एक्सचेंज - टोक्यो प्रतिभूति और स्टॉक एक्सचेंज - बनाया गया। हालांकि मंदी यहां भी आ गई। 1992 में निक्केई स्टॉक एक्सचेंज 225 शेयर सूचकांक की शुरुआत 23 हजार पॉइंट्स से हुई, लेकिन अगस्त के महीने में यह सिर्फ 14 हजार रह गया। साल के अंत में यह आंकड़ा फिर 17 हजार हुआ।
1989 आर्थिक बुलबुलाः द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दशकों के दौरान जापान ने लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू किया। इसके लिए जापान ने कड़े टैरिफ और नई नीतियां लागू की। बैंकों में ज्यादा पैसा आने लगा और कर्ज और साख प्राप्त करना आसान होने लगा। साथ ही जापान के बड़े व्यापार अधिशेष चलने के साथ विदेशी मुद्राओं की तुलना में येन की ताकत बढ़ने लगी। इससे विदेशी प्रतिद्वंद्वी की तुलना में स्थानीय कंपनियां पूंजी संसाधनों में ज़्यादा आसानी से निवेश करने लगीं। इससे जापानी माल की कीमत कम होने लगी और व्यापार बढ़ने लगा। वित्तीय आस्तियां बेहद आकर्षक होने लगीं।
निवेश के लिए अत्यधिक धन उपलब्ध होने के कारण जोखिम-भरे निवेश अवश्यंभावी थे, खासतौर पर टोक्यो स्टॉक मार्केट एवं संपत्ति बाज़ारों में। निक्की स्टॉक इंडेक्स ने 29 दिसंबर 1989 को उस समय अपने सर्वोच्च अंक को छुआ जब यह 38915.87 पर बंद होने के पूर्व इंट्रा-डे में 38957.44 के उच्च अंक पर पहुँचा। गृह-निर्माण, स्टॉक, और बॉण्ड्स की कीमतों में इतनी वृद्धि हुई कि सरकार ने 100 वर्ष के बॉण्ड्स जारी कर दिये। इसके अतिरिक्त, बैंकों ने जोखिम भरे ऋण बड़ी मात्रा में दिये।
बुलबुले के उच्च स्तर पर, अचल संपत्ति का मूल्य अत्यधिक अधिमूल्यित था। 1989 में टोक्यो के गिंझा जिले में कीमतें अपने सर्वोच्च स्तर पर थीं, जहाँ पसंदीदा संपत्ति 1.5 मिलियन अमेरिकी डालर से भी अधिक मूल्य पर, प्रति वर्गमीटर की दर से, बेची गईं (डॉलर 139000 प्रति वर्गफुट)। टोक्यो के शेष हिस्से में संपत्तियों की कीमतों में मामूली अंतर था। 2004 तक, टोक्यो के आर्थिक जिले मे प्राइम ‘‘ए’’ प्रापर्टी के मूल्य में गिरावट आई और रहवासी घरों की कीमतों में मामूली वृद्धि हुई, किन्तु फिर भी इसने विश्व में सर्वाधिक महंगी प्रापर्टी कीमतों का अपना दबदबा कायम रखा। टोक्या स्टॉक व अचल संपत्ति बाज़ारों के संयुक्त रूप से धराशायी होने के साथ ही खरबों का सफाया हो गया।
जापान की अर्थव्यवस्था जो उच्च दर की पुनर्निवेश द्वारा संचालित थी, को इस गिरावट से बड़ा धक्का लगा। निवेश देश के बाहर जाने लगा, और जापानी विनिर्माण कंपनियां की प्रौद्यागिकीय बढ़त में कुछ क्षति हुई। चूंकि जापानी उत्पाद वैश्विक बाजार में कम प्रतिस्पर्धात्मक रहे, कुछ लोगों ने तर्क दिया कि इससे अर्थव्यवस्था पर कम खपत दर का प्रभाव होगा; परिणामस्वरूप अपस्फीतिकर चक्र निर्मित होगा।
आसानी से मिल जाने वाला क्रेडिट जिसकी मदद से लोग अचल संपत्ति लेने लगे थे, आने वाले कुछ वर्षों के लिए भी समस्या बना रहा। 1997 तक बैंकें अब भी ऐसे कर्ज दे रही थीं कि आशंका हमेशा बनी रहती थी कि ये धन वापस मिलेगा या नहीं। ऋण अधिकारियों और निवेशकों के लिए यह समस्या थी कि वे क्या निवेश करें जिससे उन्हें लाभ मिल सके। इस दौरान बचत करने के लिए 0.1 फीसदी तक की ब्याज दरें हो गईं जिसका अर्थ था कि एक नागरिक अपना धन (पैसा) घर पर ही रख ले तो कोई फर्क नहीं पड़ता। सरकार ने असफल बैंकों और व्यवसायों को रियायत देना शुरू कर दी और इससे क्रेडिट की समस्या का हल ढूंढना और भी कठिन हो गया। आखिरकार एक ऐसा व्यवसाय शुरू हुआ, जिसमें धन जापान से लिया जाता था, निवेश कहीं और किया जाता था और फिर जापानियों को यह पैसा लौटा दिया जाता था। ऐसा करने वाले व्यापारियों को बहुत मुनाफा होता था।
धीरे-धीरे हुए इस अर्थव्यवस्था के पतन को जापान में ‘खोया हुआ दशक‘ या ‘20वीं सदी का अंत‘ भी कहा जाता है। निक्केई 225 स्टॉक एक्सचेंज का आंकड़ा अप्रैल 2003 में मात्र 7603.76 पर आ गिरा। लेकिन जून 2007 में यह 18,138 तक पहुंच गया। हालांकि इसके बाद दोबारा यह गिरता रहा। इस गिरावट की वजह वैश्विक और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था समस्याएं थीं।
1990 से आज तक की अपस्फीतिः जापान में अपस्फीति 1990 के शुरुआत में हुई। 19 मार्च 2001 में जापानी बैंकों और सरकार ने ब्याज दरों को कम कर के इसे दूर करने की नीतियां बनाईं। हालांकि कई समय तक ब्याज दरें लगभग शून्य रहीं लेकिन यह नीति ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं हो सकी। ऐसे समय पॉल क्रुगमैन और जापानी अर्थशास्त्रियों ने कुछ नेताओं को जानबूझकर मुद्रास्फीति को बढ़ावा देने की रणनीति सुझाई। जुलाई 2006 में शून्य दर नीति समाप्त हो गई। 2008 में जापानी केंद्रीय बैंक में विकसित विश्व की सबसे कम ब्याज दर थी, और अपस्फीति से अब भी निज़ात नहीं पाई गई थी।
जापान में अपस्फीति के प्रणालीगत कारणः
संपत्ति की गिरती कीमतेंः 1980 के दशक में जापान में शेयरों और अचल संपत्तियों में कीमतें बुलबले रूप में बढ़ती जा रही थीं।
दिवालिया कंपनियांः बैंकें ऐसी कंपनियों और लोगों को पैसा दे रही थीं, जो अचल संपत्ति में निवेश करती थीं। जब अचल संपत्ति की कीमतें गिर गईं, कई कर्ज लौटाए नहीं जा सके। बैंकों ने जमानत के तौर पर भूमि लेने की कोशिश की, लेकिन अचल संपत्ति की कम कीमतों के कारण इससे कर्ज की कीमत नहीं निकल सकी। बैंकों ने जमानत के तौर पर भूमि लेने का फैसला भी देर से लिया। बैंकों का मानना था कि समय के साथ अचल संपत्ति की कीमतें दोबारा बढ़ जाएंगीं। इस देरी को राष्ट्रीय बैंकिंग नियामकों द्वारा अनुमति दे दी गई थी। कुछ बैंकों ने इन कंपनियों को और भी अधिक कर्ज दिया ताकि वे पहले के ऋण चुका सकें। इस प्रक्रिया को अचेतक नुकसान कहा गया और यह तब तक चलता रहा जब तक संपत्ति की पूरी कीमत वसूल नहीं हो जाए। लेकिन इसने अर्थव्यवस्था के लिए अपस्फीतिकर बल बनाए रखा।
दिवालिया बैंकः ऐसी बैंकें जिन्होंने काफी सारा ऋण दे रखा था और उसका भुगतान नहीं किया जा सका। ये बैंके तब तक और पैसा नहीं दे सकतीं जब तक वे अपने पास जमा नकदी भंडार को बढ़ा नहीं लेतीं। इससे कर्ज की मात्रा में कमी आती है और आर्थिक विकास के लिए कम राशि उपलब्ध होती है।
दिवालिया बैंकों का डरः जापानी नागरिकों को डर है कि बैंकों का भी पतन हो सकता है। इसलिए बैंकों में अपने पैसे की बचत करने की अपेक्षा सोना या ट्रेज़री बॉन्ड खरीदना ज्यादा पसंद करते हैं। वे लोग अचल संपत्ति खरीद कर भी बचत कर रहे हैं।
द इकोनॉमिस्ट मैग्जीन के अनुसार दिवालियापन कानून, भूमि हस्तांतरण कानून और कर कानून में सुधार से जापानी अर्थव्यवस्था में सुधार आने की संभावना है। अक्टूबर 2009 में एनएचके के अनुसार जापानी सरकार ने तंबाकू और हरित करों की दर को बढ़ाने, और छोटी और मध्यम आकार की कंपनियों के लिए दर कम करने की योजना बनाई। 2011 में, योशिहिको नोडा के तहत जापान ने प्रशांत सामरिक आर्थिक साझेदारी में शामिल होने के विचार पर फैसला लिया।
6.0 जापान में लंबी अवधि की मंदी के कारण
1990 के दशक की शुरुआत में, जापान की अचल संपत्ति एवं शेयर बाजार का बुलबुला फूटा तथा अर्थव्यवस्था में मंदी आ गई। 1990 के दशक के बाद से, जापान सुस्त आर्थिक विकास की दर व मंदी से जूझता रहा है। इस घटना को ‘जापान का लुप्त दशक’ कहा जाता है। इस अवधि के दौरान जापान की विकास दर दुनिया के प्रमुख विकसित देशों में सबसे कम रही। उदाहरण के लिए, 1995-2002 के दौरान, जापान के वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वार्षिक वृद्धि दर केवल 1.2 प्रतिशत थी। यह दर यूरोजोन की औसत दर 2.7 प्रतिशत से कम होने के साथ ही 7 अन्य देशों के समूह की तुलना में भी कम थी - कनाडा (3.4 प्रतिशत), फ्रांस (2.3 प्रतिशत), जर्मनी (1.4 प्रतिशत), इटली (1.8 प्रतिशत), यूनाइटेड किंगडम (2.7 प्रतिशत), एवं संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) (3.2 प्रतिशत)।
नीचे विभिन्न कारणों की एक सूची दी गई है जिनसे जापान में कई दशकों तक आर्थिक समस्या बनी हुई है।
6.1 कारण # 1 - वृद्ध जनसंख्या
जापान ने दुनिया में सबसे अधिक जीवन प्रत्याशा हासिल की है, लेकिन इसकी सेवानिवृत्ति की आयु अभी भी 65 वर्ष है। ग्राफ से पता चलता है कि कामकाजी आबादी (यानी, जिनकी आयु 15 से 64 के बीच है) बड़े पैमाने पर कम हो रही है जबकि बुजुर्ग आबादी (65 वर्ष एवं उससे अधिक आयु के) तेजी से बढ़ रही हैं। बढ़ती उम्र एवं कम होते कार्यबल जापान में दीर्घकालिक मंदी के सबसे बड़े कारणों में से एक है।
दूसरी और जापान में श्रम की गणना का तरीका वरिष्ठता पर आधारित है। वरिष्ठता - आधारित मजदूरी प्रणाली कंपनियों के लिए बुजुर्ग लोगों को काम पर रखना मुश्किल बनाती है। उन्हें अक्सर सेवानिवृत्त होने के लिए मजबूर किया जाता है, भले ही उनमें से कई काम करना जारी रखना चाहते हो। बड़ी उम्र की अधिक आबादी के कारण, सामाजिक कल्याण की लागत में वृद्धि होने लगी है एवं वर्तमान में सरकारी खर्च का एक तिहाई इस पर आवंटित किया जाता है, जबकि हर साल सरकारी बजट घाटा बढ़ रहा है।
6.2 कारण # 2 - कंद्रीय से स्थानीय सरकारों मौद्रिक स्थानान्तरण
ग्राफ 2015 में जापान सरकार के सामान्य खाते के बजट के खर्च को दिखाता है। कुल सरकारी खर्च का लगभग 16 प्रतिशत स्थानीय सरकारों को आवंटित किया जाता है, जो इसे सामाजिक सुरक्षा के बाद दूसरा सबसे बड़ा सरकारी खर्च बनाते है।
स्थानीय सरकारें केंद्र सरकार से प्राप्त धन पर बहुत अधिक निर्भर हैं एवं क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास नहीं करती हैं। इसके अलावा, कृषि सहकारी समितियों के भीतर एक कठोर वितरण प्रणाली ने किसानों को कमजोर स्थिति में डाल दिया है, जिससे वे कृषि उत्पादन में नवाचार करने में असमर्थ हैं।
6.3 कारण # 3 - बैंकिग विफलताएं
1980 के दशक में, जापानी बैंकों ने संपार्शि्वक के आधार पर ऋण जारी किए। 1991 के बाद से, भूमि की कीमतों में गिरावट शुरू हुई एवं बैंकों में खराब ऋण परिसंपत्तियों का जमावड़ा शुरू हो गया। वित्तीय बुलबुले के फूटने के तुरंत बाद बैंकिंग विफलताओं की संख्या बढ़ने लगी जो लगभग एक दशक बाद अपने चरम पर थी।
बुलबुला फटने से पहले, कोई बैंकिंग विफलता नही थी तथा वित्तीय प्रणाली का बीमा संगठन, डिपॉजिट इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन ऑफ जापान (डीआईसीजे) की सहायता लगभग शून्य थी। जब बुलबुला फूटने के बाद बैंक विफल होने लगे, तो असफल बैंकों की मदद के लिए डीआईसीजे ने वित्तीय सहायता जुटानी शुरू कर दी। बुलबुले के फटने के एक दशक बाद भी यह सहायता चरम पर रही।
बैंकिंग प्रणाली में एक एवं बाधा बेसल पूंजी आवश्यकताओं की है। बेसल 1 नियमों ने बैंकों को, आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना, 8 प्रतिशत पूंजी रखने के लिए मजबूर किया। जापानी बैंकों ने पूंजी की कमी से बचने के लिए अपने ऋण को कम करना शुरू कर दिया, जिससे ऋण संकट पैदा हो गया, एवं एसएमई एवं स्टार्टअप व्यवसायों के लिए बैंकों से पैसा उधार लेना मुश्किल हो गया।
यह ग्राफ बैंक ऑफ जापान द्वारा बड़ी फर्मों एवं छोटे एवं मध्यम आकार के उद्यमों के लिए बैंकों या पूंजी बाजार से धन जुटाने के लिए की गई जांच के परिणामों को दर्शाता है। शून्य से नीचे डेटा बिंदु कंपनियों के लिए धन जुटाने में कठिनाई का संकेत देते हैं। यह दर्शाता है कि छोटे उद्यमों के लिए बड़ी कंपनियों की तुलना में पैसा जुटाना कठिन होता है।
6.4 कारण # 4 - अत्यधिक संकुचनकारी मौद्रिक नीति
1980 के दशक के अंत में जापानी मौद्रिक नीति बहुत विस्तारवादी थी तथा उसने आर्थिक बुलबुले के विकास में योगदान दिया। बुलबुला फटने के बाद, जापान की मौद्रिक नीति सख्त हो गई, जिसने जापानी बैंकों की उधार क्षमता को काफी कम कर दिया।
1990 से 1995 के दौरान ब्याज दर नीति 1982 से 1989 जितनी प्रभावी नही थी।
बी. आई. एस. (बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट्स) की पूंजी आवश्यकता नियम ने जापानी बैंकों को एसएमई, स्टार्टअप व्यवसायों, एवं जोखिम वाले क्षेत्रों को ऋण देने से हतोत्साहित किया।
आर्थिक उछाल की अवधि के दौरान, भूमि की बढ़ती कीमतों ने बैंक ऋण को ऊपर की धकेल दिया। जापानी बैंक भूमि को संपार्शि्वक के रूप में उपयोग कर रहे थे एवं भूमि की उच्च कीमतों ने संपार्शि्वक के मूल्य को बढ़ा दिया, जिससे बैंकों को बड़ी मात्रा में धन उधार देने के लिए तैयार होना पड़ा।
जापानी बैंकों ने अन्य बैंकों के व्यवहार को देखते हुए अपने ऋण कैसे आवंटित करें इसका निर्णय लिया। उदाहरण के लिए, सुमितोमो बैंक ने आर्थिक बुलबुले के दौरान अपने ऋण को बढ़ाना शुरू किया एवं कई अन्य बैंकों ने भी इसका अनुसरण किया।
6.5 कारण # 5 - राजकोषीय नीति की प्रभावकारिता में कमी
1990 की धीमी अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए 1991 से 1993 तक जापान के प्रधानमंत्री रहे किचि मियाज़ावा ने राजकोषीय नीति को लागू किया। उन्होंने जापान में एक उच्च विकास अवधि की उम्मीद में एक कीनेसियन नीति का पालन किया, जिसमें सार्वजनिक निवेश से जापानी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिले।
चूँकि प्रमुख राजमार्गों एवं पुलों का निर्माण को पहले ही पूरा कर लिया गया था अतः बुनियादी ढांचे में नए निवेश ने सार्वजनिक निवेश में गुणक में गिरावट के कारण अर्थव्यवस्था की मदद नहीं की। जापान में सार्वजनिक निवेश अप्रभावी वितरण की वजह से सकल राष्ट्रीय उत्पाद पर अधिक प्रभाव पैदा नही कर पाया।
अधिकांश सार्वजनिक निवेश ग्रामीण क्षेत्रों में केंद्रित किया गया, एवं अनुसंधान से पता चलता है कि इस तरह के निवेश का शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है एवं यह कि .षि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश औद्योगिक तथा सेवा क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की तुलना में बहुत कम प्रभावी रहा है।
सार्वजनिक निवेश के आवंटन में इस बढ़ते ग्रामीण एवं .षि पूर्वाग्रह का परिणाम यह हुआ कि सार्वजनिक निवेश के गुणक 2.5 घटकर लगभग 1 जितना कम हो गया। यह दर्शाता है कि इस तरह के सार्वजनिक निवेश से केवल बजट घाटा बढ़ता है,इसे जापानी अर्थव्यवस्था को लाभ नही हुआ।
6.6 कारण # 6 - 1990 के दशक के मध्य में येन में तेजी से बढ़त
एक समस्या 1990-2014 के दौरान डॉलर-येन विनिमय दर में उतार-चढ़ाव की थी। 1990 के दशक के मध्य में येन की बढोतरी, जापानी विनिर्माण कंपनियों को जापान से अन्य एशियाई देशों में स्थानांतरित होने का कारण बनी। वेतन वृद्धि ने भी जापानी कंपनियों को विदेशों में जाने के लिए मजबुर किया।
परिणामस्वरूप, घरेलू उत्पादन कम होने लगा। यह ग्राफ पीआरसी सहित अन्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं हांगकांग, चीन इंडिया एवं इंडोनेशिया में 1989 से 2004 तक जापानी बाहरी विदेशी निवेश को दर्शाता है।
6.7 कारण # 7 - 1998 का बैंकिंग संकट
1990 के दशक के अंत में जापानी बैंक उथलपुथल में थे। कुल मिलाकर, 181 बैंक दिवालिया हो गए। ज्यादातर बैंक जो असफल थे, वे छोटे थे, या क्रेडिट कोऑपरेटिव्स थे।
विफलता के मुख्य कारण थे- (1) विशिष्ट क्षेत्रों (जैसे निर्माण एवं अचल संपत्ति क्षेत्रों) को दिया गया बहुत अधिक उधार (2) क्षेत्रीय मंदी के कारण क्षेत्रीय बैंकों के ऋण देने पर बढ़ा तनाव (3) कुप्रबंधन एवं गलत लोगो को दिया गया उधार एवं (4) प्रतिभूतियों के निवेश में विफलता एवं निवेश ज्ञान की कमी।
1990 के दशक में समस्याग्रस्त बैंकों में पूंजी की आपूर्ति को एक नैतिक खतरा माना जाता था। कई विनिर्माण कंपनियों ने बैंकों के लिए पूंजी की आपूर्ति का विरोध किया क्योंकि विनिर्माण उद्योगों को सरकार द्वारा कभी भी बचाया नहीं गया था। 2000 के दशक में पूंजी की आपूर्ति की गई, हालांकि, तब प्रधानमंत्री कोइजुमी सत्ता में थे।
6.8 कारण # 8 - जापान की अप्रभावी मौद्रिक नीति
जापान की दीर्घकालिक मंदी को अक्सर तरलता जाल के रूप में समझाया जाता है। संरचनात्मक मुद्दों के बजाय मौद्रिक नीति पर बहुत ध्यान केंद्रित दिया गया है, लेकिन जापानी अर्थव्यवस्था की समस्या उसके ऊर्ध्वाधर आईएस वक्र (निवेश/बचत अनुपात = आईएस) में थी।
बहुत कम ब्याज दरों के बावजूद निजी निवेश नहीं बढ़ा। आय की भावी उम्मीद कम थी एवं इसलिए जापान में शायद ही कोई नई तकनीकी प्रगति हुई हो। भले ही केंद्रीय बैंक की अल्पकालिक ब्याज दर शून्य पर रही, लेकिन जापान में निवेश के कम होने का मतलब था कि अर्थव्यवस्था ठीक नहीं हो पा रही थी।
क्योंकि बहुत अधिक आलोचना कॉरपोरेट पुनर्गठन में तेजी लाने के बजाय मौद्रिक नीति पर लक्षित थी, निष्क्रिय क्षमता को कम करने एवं इस तरह के पुनर्गठन के माध्यम से नए निवेश शुरू करने का प्रयास नहीं किया गया था।
7.0 प्रमुख चुनौतियां और एबेनॉमिक्स
जापानी अर्थव्यवस्था आज भी कुछ प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रही है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तुलना में जापान आधी दर पर कंपनियां बना रहा है। नतीजतन कई कंपनियां खत्म हो रही हैं और जापान 24 विकसित देशों की उद्यमिता श्रृंखला में सबसे अंतिम स्थान पर है। देश को कई निगमित प्रशासन सुधारों की जरूरत है, जैसे मजबूत निदेशक मंडल, जो बड़ी कंपनियों में बदलाव ला सकें।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह ही जापान को बेहतर कर नीति की जरूरत हैः वेतन पर कम दर और जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में सुधार आता है, घाटे को दूर करने के लिए अधिक राजस्व बजट। भले ही प्रधानमंत्री अपने विचारों को सख्ती से पेश करें, जापान को तब भी कई महत्वपूर्ण संरचनात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, जापान में घटती हुई जनसंख्या के बावजूद कोई भी आव्रजन कानूनों में सुधार के बारे में विचार नहीं कर रहा है। ना ही श्रम नीतियों में किसी सार्थक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
ऋण की मांग और व्यापार में निवेश में भी अंततः वृद्धि हो रही है। लेकिन टोक्यो, जो किसी समय बेहद आधुनिक हुआ करता था, अब शंघाई जैसे शहरों के समक्ष कमतर हो गया है। इन गर्मियों में एक उदास संवेदनशीलता देखी गई थी जब तापमान बढ़ गया था और जापान ने अपने कार्यालयों के ड्रेस कोड में रियायत दी थी। फुकुशिमा परमाणु घटना के बाद जापान में बिजली संकट के चलते ऐसा हुआ था।
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