यूपीएससी तैयारी - अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं - व्याख्यान - 1

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अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक भाग - 1

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1.0 प्रस्तावना 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व भर में स्थिरता और विकास को प्रोत्साहित करने के लिए स्थापित किये गए अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक (डब्लूबी) सह-संगठन हैं। 

1930 के दशक की महान मंदी का परिणाम विद्यमान विश्व अर्थव्यवस्था की तबाही में हुआ। व्यापक रूप बेरोजगारी फैली हुई थी जिसे विभिन्न देशों ने दूसरे देशों में निर्यात करना शुरू कर दिया था। इसके कारण मुद्रा युद्ध शुरू हुआ जिसने विश्व व्यापार को अस्थिर कर दिया था। 

1930 के दशक के मुद्रा युद्ध के शुरू होने की सटीक तिथि बहस का विषय हो सकती है। इस संकट को पैदा करने वाले मुख्य ‘अपराधी‘ थे ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस। 

मंदी और 1929 के शेयर बाजार संकट के कारण, समान हितों के कारण इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका के बीच जो सहयोग स्थापित हुआ था, वह आर्थिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा में परिवर्तित हो गया। शेयर बाजार के संकट के बाद स्टर्लिंग पौंड़ पर बिकवाली का दबाव था, और अमेरिका और फ्रांस ने अपनी मुद्राओं को स्वर्ण मानकों से बाहर निकाल लिया। इसके बाद ग्रेट ब्रिटेन ने भी अपनी मुद्रा को स्वर्ण मानक से बाहर निकाल लिया, और अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया, जिसके कारण मुद्रा अवमूल्यन की एक श्रृंखला सी शुरू हो गई। ये उतार-चढ़ाव अंतर्राष्ट्रीय व्यापारियों के लिए बहुत हानिकारक साबित होने लगे, और वैश्विक व्यापार तेजी से घटने लगा। इसके बाद कई वर्षों तक विश्व व्यापार प्रतिस्पर्धात्मक अवमूल्यनों और प्रतिकारात्मक शुल्कों के कारण अस्तव्यस्त रहा। ऐसा माना जाता है कि 1930 के दशक का मुद्रा युद्ध आमतौर पर 1936 के त्रिपक्षीय मुद्रा समझौते के साथ समाप्त हुआ। 

मुद्रा युद्ध की घटना की पुनरावृत्ति को रोकने की दृष्टि से विभिन्न देशों के बीच सहयोग की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। 

2.0 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक की स्थापना के पूर्व का अंतर्राष्ट्रीय सहयोग 

1941 में स्थापित उधार कार्यक्रम और 1943 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र राहत और पुनर्वास प्रशासन (यूएनआरआरए) आज के विकास सहायता स्थापत्य के बुनियादी प्रणेता थे। शुरुआत में उधार कार्यक्रम चीन और ब्रिटिश राष्ट्रमंडल देशों को भोजन, मशीनों, युद्ध आपूर्तियों, और सेवाओं का हस्तांतरण प्रदान करता था, हालांकि इसे लगभग तुरंत ही सोवियत संघ और ‘‘मुक्त फ्रेंच‘‘ तक विस्तारित कर दिया गया था। उधार अधिनियम अमेरिका के राष्ट्रपति को इस प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं के विक्रय, हस्तांतरण, उधार या पट्टे पर देने का अधिकार प्रदान करता था, और इस प्रकार के हस्तांतरण की शर्तें निर्धारित करने का अधिकार प्रदान करता था। इसका पुनर्भुगतान वस्तुरूप में या संपत्ति के रूप में, या किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ के रूप में किया जा सकता था, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति संतोषजनक मानते हों। 

अगस्त 1945 में इसकी आधिकारिक समाप्ति की अवधि तक कुल उधार प्रतिबद्धताएं स्थिर 2010 डॉलर में 606.60 बिलियन डॉलर से अधिक पहुँच चुकी थीं। 

1943 में जब यूएनआरआरए स्थापित किया गया था, उस समय का संयुक्त राष्ट्र संघ उस प्रकार का नहीं था जैसा आज हम उसे जानते हैं। हालांकि राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट ने 1941 में ‘‘संयुक्त राष्ट्र‘‘ शब्द का प्रयोग उन देशों का वर्णन करने के लिए किया था जो ‘‘एक्सिस‘‘ देशों के विरुद्ध लड़ रहे थे, फिर भी इस शब्द का पहली बार आधिकारिक रूप से प्रयोग 1 जनवरी 1942 को उस समय किया गया था जब छब्बीस देशों ने संयुक्त राष्ट्रों द्वारा घोषणा पर हस्ताक्षर थे, जिसके तहत उन्होंने इस बात की प्रतिबद्धता प्रदर्शित की थी कि वे एक्सिस शक्तियों के साथ कोई स्वतंत्र शांति समझौता नहीं करेंगे। 

जिस समय तक यूएनआरआरए के कार्य संयुक्त राष्ट्र की यूरोप (1947) और एशिया (1949) की अन्य अपेक्षाकृत नई विशेषीकृत एजेंसियों को हस्तांतरित किये जाते, तब तक बावन देशों ने यूएनआरआरए के कार्यक्रमों में भागीदारी की हुई थी। कुल वितरित राशि में से लगभग 62 प्रतिशत यूनाइटेड़ किंगडम को वितरित हुई, उसके बाद सोवियत संघ का क्रमांक था, जिसे लगभग बावन प्रतिशत राशि का वितरण हुआ था। अन्य प्रमुख प्राप्तकर्ताओं में चीन, चेकोस्लोवाकिया, ग्रीस, इटली, पोलैंड, यूक्रेनी एसएसआर और यूगोस्लाविया थे।

यूएनआरआरए अनुभव का सबसे दिलचस्प पहलू यह था कि इसने भविष्य की बहु आयामी सहायता एजेंसियों के लिए संगठनात्मक और वित्तीय मॉड़ल के रूप में कार्य किया। यूएनआरआरए के कुल बजट का आधे से अधिक भाग अमेरिका द्वारा वित्तपोषित किया गया था, परंतु बचा हुआ भाग अन्य सदस्य देशों द्वारा वित्तीय अंशदान के रूप में उनकी 1943 की सकल राष्ट्रीय आय के दो प्रतिशत के बराबर प्रदान किया गया था। विश्व बैंक के संदर्भ में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से वित्तपोषित किये गए अधिकांश संगठनों का वित्तपोषण प्राथमिक रूप से सदस्य देशों के अंशदान के माध्यम से वित्तपोषित किया गया था। 

3.0 द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात का परिदृश्य

ब्रेटन वुड्स सम्मेलन जुलाई 1944 में आयोजित किया गया था, परंतु इसके कई प्रमुख समझौते दिसंबर 1958 तक परिचालित नहीं हो पाये, जब तक कि सभी यूरोपीय मुद्राएं परिवर्तनीय हो गई थीं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का गठन एक स्थाई निकाय के रूप में किया गया था। समझौतों का सारांश कहता है, ‘‘एक दूसरे को प्रभावित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक परिवर्तनों के संदर्भ में देशों को एक दूसरे के साथ सलाह करनी चाहिए और इसपर उन्हें सहमत होना चाहिए। उन्हें उन कानूनों को बाहर कर देना चाहिए जिनकी विश्व समृद्धि में हानिकारकता पर आपसी सहमति बनी हो, और उन्हें एक दूसरे देशों को अल्पकालीन विनिमय कठिनाइयों से बाहर आने में सहायता प्रदान करनी चाहिए।‘‘ अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक (आईबीआरड़ी) का गठन युद्ध पश्चात् के पुनर्निर्माण, राजनीतिक स्थिरता में सहायता, और शांति प्रस्थापित करने के उद्देश्य से किया गया था। इसकी पूर्ति पुनर्निर्माण और विकास कार्यक्रमों की स्थापना के माध्यम से की जानी थी। 

इस समझौते की मुख्य शर्तें निम्नानुसार थींः

  1. अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और आईबीआरडी का निर्माण, जो आज विश्व बैंक के अंग हैं। 
  2. समयोज्यता से आंकी गई विदेशी विनिमय बाजार दर प्रणालीः विनिमय दर प्रावधान के साथ निर्धारित थे व आवश्यकता पड़ने पर उन्हें परिवर्तित किया जा सकता था। 
  3. व्यापार से संबंधित और अन्य चालू खाता लेनदेन के लिए मुद्राओं का परिवर्तनीय होना आवश्यक था। हालांकि सरकारों को दिखावटी पूंजी प्रवाहों को विनियमित करने का अधिकार था।
  4. यह भी संभावना थी कि इस प्रकार से प्रतिस्थापित विनिमय दरें किसी देश के भुगतान संतुलन की दृष्टि से अनुकूल ना हों, ऐसी स्थिति में सरकारों को उन्हें 10 प्रतिशत तक संशोधित करने का अधिकार था। 
  5. सभी सदस्य देशों को अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की पूंजी में अंशदान प्रदान करना अनिवार्य था।

जॉन मेनार्ड़ कीन्स और हैरी डेक्सटर व्हाईट अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के बौद्धिक संस्थापक थे। व्हाईट अमेरिकी कोषागार में मुख्य अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्री थे। 1944 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की अमेरिकी योजना का मसौदा तैयार किया था, जिसकी कीन्स द्वारा मसौदा तैयार की गई ब्रिटिश कोषागार मूलयोजना से प्रतिस्पर्धा थी। 

ब्रेटन वुड्स में स्वीकार किये गए अंतिम अधिनियमों में वाइट की योजना का अधिकांश भाग समाविष्ट किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वित्तीय स्थिरता के माध्यम से वैश्विक आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करने की भूमिका प्रदान की गई। 

कीन्स की सबसे महत्वपूर्ण भूमिकाओं में से एक थी बैंक के आयोग के अध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका। उनके नेतृत्व में विश्व बैंक के संगठन के संबंध में सम्मेलन पूर्व आधार के अभाव के बावजूद बैंक के अनुच्छेदों के मसौदे शीघ्रता से और सफलतापूर्वक तैयार किये गए थे। 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के समझौते के अनुच्छेदों ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के उद्देश्यों के रूप में निम्न बातें प्रस्तावित की थींः

  1. अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग संवर्धन 
  2. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का विस्तार और संतुलित वृद्धि 
  3. विनिमय दर स्थिरता का संवर्धन 
  4. भुगतान की बहुपक्षीय प्रणालियों की स्थापना में सहायता प्रदान करना और विदेशी विनिमय प्रतिबंधों का उन्मूलन 
  5. सदस्यों को उपलब्ध कोष के संसाधन उपलब्ध कराना 
  6. अंतर्राष्ट्रीय भुगतान सन्तुलनों के असंतुलन की अवधियों को छोटा करना और उनकी तीव्रता को कम करना

4.0 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ)

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का गठन औचारिक रूप से 1945 में 29 सदस्य देशों द्वारा किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का घोषित लक्ष्य था द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात विश्व की अंतर्राष्ट्रीय भुगतान प्रणाली के पुनर्निर्माण में सहायता प्रदान करना। विभिन्न देश कोटा व्यवस्था के माध्यम से एक कोष में धन का योगदान करते हैं, जिसमें से ऐसे देश अस्थाई तौर पर उधार प्राप्त कर सकते हैं जो अल्पकालिक भुगतान असंतुलन की समस्या से जूझ रहे होते हैं। इस गतिविधि के माध्यम से और अपने सदस्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं की निगरानी, और आत्म-संशोधन की नीतियों की मांग जैसी अन्य गतिविधियों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष अपने सदस्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं के सुधार की दिशा में कार्य करता है। 2016 तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के 188 सदस्य देश हैं, जो वैश्विक मौद्रिक सहयोग को बढ़ाने, वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़़ावा देने, उच्च रोजगार और धारणीय आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने और विश्व भर में गरीबी को कम करने की दिशा में कार्य कर रहे हैं। 

4.1 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की महत्वपूर्ण शब्दावली 

4.1.1 विशेष आहरण अधिकार (एसडीआर)

एसडीआर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा अपने सदस्य देशों के आधिकारिक भंड़ारों को अनुपूरक करने के लिए 1969 में निर्माण की गई एक आरक्षित परिसंपत्ति है। इसका मूल्य चार प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय मुद्राओं पर आधारित होता है, और एसडीआर का  मुक्त रूप से उपयोग की जाने वाली मुद्राओं के साथ विनिमय किया जा सकता है। 

एसडीआर का निर्माण अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा ब्रेटन वुड्स स्थिर विनिमय दर प्रणाली के समर्थन के लिए 1969 में किया गया था। इस प्रणाली में भाग लेने वाले देश को अपनी विनिमय दर को बनाये रखने के लिए आवश्यक आधिकारिक भंडारों, सरकारी या केंद्रीय बैंक की स्वर्ण धारिताओं और व्यापक रूप से स्वीकार्य विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है, जिनका उपयोग अंतर्राष्ट्रीय विनिमय बाजार में घरेलू मुद्रा खरीदने के लिए किया जा सकता है। परंतु विश्व व्यापार के विस्तार और निर्मित होने वाले वित्तीय घटनाक्रम को समर्थित करने की दृष्टि से आवश्यक दो प्रमुख आरक्षित परिसंपत्तियों - स्वर्ण और अमेरिकी डॉलर - की अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति अपर्याप्त थी। अतः समुदाय ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के तत्वावधान में एक नई अंतर्राष्ट्रीय आरक्षित परिसंपत्ति के निर्माण का निर्णय लिया। 

हालांकि कुछ ही वर्षों के बाद ब्रेटन वुड्स प्रणाली का पतन हो गया और प्रमुख मुद्राएं अस्थायी विनिमय दर व्यवस्था में परिवर्तित हो गईं। इसके अतिरिक्त, अंतर्राष्ट्रीय पूंजी बाजार में हुई वृद्धि ने उधार-सक्षम देशों द्वारा लिए जाने वाले उधार को आसान बना दिया। इन दोनों घटनाक्रमों ने एसडीआर की आवश्यकता को कम कर दिया। 

4.1.2 कोटा सदस्यताएं

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष कोटा प्रणाली ऋण के लिए निधियों के निर्माण के लिए बनाई गई थी। प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष सदस्य देश को एक कोटा, या अंशदान आवंटित किया जाता है, जो संबंधित देश के वैश्विक अर्थव्यवस्था में सापेक्ष आकार को प्रतिबिंबित करता है। प्रत्येक देश को आवंटित कोटा उस देश के मतदान के अधिकार का भी निर्धारण करता है। इस प्रकार सदस्य सरकारों के वित्तीय योगदान को संगठन में उनके मतदान के अधिकार के साथ जोड़ा गया है। 

यह प्रणाली अंशभागधारक नियंत्रित संगठन प्रणाली का पालन करती हैः समृद्ध देशों को नियमों के निर्माण और संशिधन में अधिक अधिकार प्राप्त हैं। चूंकि अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में निर्णय क्षमता प्रत्येक सदस्य की विश्व में सापेक्ष स्थिति को प्रतिबिंबित करती है, अतः समृद्ध देश जो कोष को अधिक धन प्रदान करते हैं, उनका स्थान कम योगदान देने वाले गरीब देशों की तुलना में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में अधिक प्रभावी होता है; फिर भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष पुनर्वितरण पर भी ध्यान केंद्रित करता है। कोटे की प्रत्येक पांच वर्षों में समीक्षा की जाती है, और यदि गवर्नर मंडल द्वारा आवश्यक समझा गया तो कोटे में वृद्धि भी की जा सकती है। 

4.1.3 ऋण के सामान्य समझौते (जीएबी)

जीएबी दस के समूह के सदस्य देशों के ऋण लेने या ऋण प्रदान करने का माध्यम है। ऋण प्रदान करने वाले देशों के सदस्य अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में निधियां जमा कराते हैं, जिन्हें उस सदस्य देश द्वारा निकाला जाता है जिसे ऋण की आवश्यकता है। इसका एक लाभ यह है कि प्रत्येक देश अपनी मुद्रा में व्यवहार करता है, और सभी रूपांतरण के कार्य अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष पर छोड़ देता है। दस के समूह देशों में जापान, फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, यूनाइटेड किंगडम, इटली, बेल्जियम, नीदरलैंड्स, अमेरिका और कनाड़ा शामिल हैं। स्विट्जरलैंड इसका नवीनतम सदस्य है। वे राजनीतिक, वित्तीय और आर्थिक स्थितियों पर विचार-विमर्श के लिए प्रतिवर्ष मिलते हैं 

4.2 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का संगठन 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में गवर्नर मंडल सर्वोच्च प्राधिकारी है। गवर्नर मंडल में सभी देशों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है (आमतौर पर वित्तमंत्री स्तर पर या उसके समकक्ष)। गवर्नर मंडल आमतौर पर वर्ष में एक बार बैठक करते हैं। गवर्नर मंडल की एक समिति, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और वित्तीय समिति वर्ष में दो बार बैठक करके अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली को प्रभावित करने वाले मुद्दों विचार विमर्श करते हैं, और तदनुसार गवर्नर मंडल को सिफारिशें करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के गवर्नर्स की संयुक्त समिति, जिसे विकास समिति कहा जाता है, भी इसी समय बैठक करती है और विकास के नीतिगत मुद्दों पर और विकासशील देशों को प्रभावित करने वाले अन्य मुद्दों पर विचारविमर्श करती है। ये दोनों समितियां अपनी बैठकों के अंत में वक्तव्य जारी करती हैं, जिनमें उनके निष्कर्ष और सिफारिशें समाविष्ट होती हैं। आमतौर पर ये निष्कर्ष और सिफारिशें गवर्नर मंडल द्वारा लिए गए अंतिम निर्णय से पूर्व अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के लिए दिशानिर्देशों के रूप में कार्य करते हैं, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय चिंताओं से संबंधित देशों की नीतियों के विषय में अपने विचार व्यक्त करने के एक माध्यम के रूप में कार्य करते हैं।

परिचालनात्मक नीति के दैनंदिन अधिकार, ऋण प्रदान व अन्य मामले कार्यकारी निदेशक मंड़ल में निहित होते हैं, जो एक 24 सदस्यीय निकाय है, जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की गतिविधियों की देखरेख और पर्यवेक्षण के लिए हते में लगभग तीन या चार बार बैठक करते हैं। इसके पांच सबसे बडे़ अंशभाग धारक देश हैं अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन और फ्रांस, जो सभी मंडल पर अपने प्रतिनिधियों की नियुक्ति करते हैं। अन्य सदस्य विभिन्न देशों द्वारा आमतौर पर भौगोलिक या ऐतिहासिक निकटता के आधार पर चुने जाते है (दो वर्ष की अवधि के लिए)ं। सऊदी अरब, चीन और रूस जैसे कुछ देशों के पास अपने कार्यकारी निदेशक चुनने के लिए पर्याप्त मत उपलब्ध हैं। कार्यकारी निदेशक मंडल पर अधिकांश देशों को कार्यकारी निदेशकों के माध्यम से प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है, जो पांच या बीस अन्य देशों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रत्येक कार्यकारी निदेशक को जिन देशों ने उन्हें नियुक्त किया है या चुना है, उन सभी देशों की संख्या के बराबर का संयुक्त मताधिकार प्राप्त होता है। उन्हें अपना मत एक इकाई के रूप में प्रदान करना अनिवार्य है। कार्यकारी मंडल की अनेक समितियां होती हैं, जो नीतियों, बजट मुद्दों और अन्य मुद्दों इत्यादि पर विचार करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का कार्यकारी निदेशक मंडल प्रबंध निदेशक का चयन करता है, जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्य करता है। 

प्रबंध निदेशक कोष की जारी गतिविधियों (कार्यकारी मंडल के नीतिगत निर्देशों के तहत) का प्रबंधन करता है, लगभग 2800 कर्मचारियों का पर्यवेक्षण करता है, और नीति पत्रों, ऋण आवेदनों और अन्य दस्तावेजों के निर्माण की देखरेख करता है, जो बाद में अनुमोदन के लिए कार्यकारी निदेशक मंडल के समक्ष प्रेषित किये जाते हैं। कार्यकारी मंड़ल के पास जाने वाली अधिकांश सामग्री अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रबंधन या कर्मचारियों द्वारा तैयार की जाती है। हालांकि कुछ दस्तावेज या सिफारिशें स्वयं कार्यकारी निदेशकों द्वारा या जिन देशों का वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उन देशों की सरकारों द्वारा तैयार किये जाते हैं। प्रबंध निदेशक का कार्यकाल आमतौर पर पांच वर्ष का होता है, जिसका नवीनीकरण किया जा सकता है। कार्यकारी निदेशक मंडल प्रबंध निदेशक के प्रमुख सहायकों, प्रथम उप प्रबन्द निदेशक, और दो अन्य उप प्रबंध निदेशकों के चयन का भी अनुमोदन करता है। परंपरागत रूप से यूरोपीय देशों को उन व्यक्तियों का नामांकन करने का अधिकार प्राप्त है, जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रबंध निदेशक चुने जाने वाले हैं (इसी प्रकार का विशेषाधिकार अमेरिका को विश्व बैंक के संबंध में प्राप्त है)। आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का प्रथम उप प्रबंध निदेशक अमेरिकी नागरिक होता है। हाल ही में उत्पान हुए विवादों के कारण मंडल इस बात पर विचार करने लगा है कि प्रबंध निदेशक का चयन भूगोल या राजनीतिक जुड़ाव के बजाय योग्यता के आधार पर किया जाए।

4.3 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से प्राप्त होने वाले ऋण 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है उन सदस्य देशों को ऋण प्रदान करना जो भुगतान संकट की समस्या से या संभावित भुगतान संतुलन की समस्या से जूझ रहे हैं। यह वित्तीय सहायता देशों को अपने अंतर्राष्ट्रीय भंडारों के पुनर्निर्माण, अपनी मुद्रा की स्थिरता, आयातों के भुगतान को जारी रखने, और मजबूत आर्थिक विकास की स्थितियों को बनाये रखने में सहायक होती है, साथ ही निहित समस्याओं को सुधारने के लिए उचित नीतियां बनाने में भी सहायक होती है। विकास बैंकों के विपरीत अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष विशिष्ट परियोजनाओं के लिए ऋण प्रदान नहीं करता। 

4.4 कोई देश अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से किन स्थितियों में ऋण प्राप्त कर सकता है?

यदि किसी देश को भुगतान संतुलन के लिए (वास्तविक या संभावित) आवश्यकता है तो वह अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से ऋण का अनुरोध कर सकता है, अर्थात जब उस देश के पास पर्याप्त भंडार सुरक्षित रखते हुए अपनी अंतर्राष्ट्रीय देयताओं (उदाहरणार्थ, आयात, बाह्य ऋण प्रतिदान) के लिए सस्ती दरों पर पर्याप्त वित्तीय सहायता प्राप्त करने में असफल होता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का ऋण एक गुंजाईश प्रदान करता है, जो देश के भुगतान संतुलन के असंतुलन को सुधारने के लिए आवश्यक समायोजन की नीतियों को आसान बना देता है, ताकि उस देश की आर्थिक विकास की स्थिति मजबूत हो सके।

4.5 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ऋणों का बदलता स्वरुप 

समय के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा प्रदान किये जाने वाले ऋण के परिमाणों में काफी उतार-चढ़ाव हुए हैं। 1970 के दशक का तेल आघात और 1980 के दशक का ऋण संकट, इन दोनों घटनाओं के बाद अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के ऋणों में तीव्र वृद्धि हुई। 1990 के दशक में मध्य और पूर्वी यूरोप की संक्रमणावस्था और उभरते बाजारों में आये संकट के बाद भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के संसाधनों की मांग काफी बढ़ी। लैटिन अमेरिका और तुर्की के गहरे संकट ने 2000 के दशक की शुरुआत में भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के ऋण की मांग को काफी ऊंचा बनाये रखा। 2008 के अंत में भी वैश्विक वित्तीय संकट के मद्देनजर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के ऋण में काफी वृद्धि हुई। 

4.6 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की ऋण प्रक्रिया 

सदस्य देश के अनुरोध के बाद अंतर्राष्ट्रीय संसाधन आमतौर पर एक ऋण ‘‘व्यवस्था‘‘ के तहत उपलब्ध कराये जाते हैं, जिसमें, जिस ऋण उपकरण का उपयोग किया गया है उसके अनुसार संभव है की ऋण का अनुरोध करने वाले देश पर कुछ विशिष्ट आर्थिक नीतियों के अनुसरण की शर्तें लगाई जाएँ, जो उस देश को अपने भुगतान संतुलन की समस्या के निराकरण के लिए मान्य करना अनिवार्य होता है। व्यवस्था को रेखांकित करते हुए आर्थिक नीति कार्यक्रम उस देश द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की सलाह के साथ तैयार किया जाता है, जो अधिकांश मामलों में कोष के कार्यकारी मंडल को ‘‘आशय पत्र‘‘ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। एक बार जब व्यवस्था मंडल द्वारा स्वीकृत हो जाती है, तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के संसाधन चरणबद्ध तरीके से किश्तों में कार्यक्रम के क्रियान्वयन के अनुसार जारी किये जाते हैं। कुछ व्यवस्थाओं में अच्छा प्रदर्शन करने वाले देशों को अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के संसाधन एक ही बार की पहुँच के आधार पर प्रदान किये जाते हैं, जिनमें नीति समझ के पालन की शर्त नहीं लगाई जाती। 

4.7 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के ऋण साधन 

बीते वर्षों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने विभिन्न ऋण साधन विकसित किये हैं, जो उसके विविधता वाले सदस्यों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार होते हैं। न्यून आय वाले देश विस्तारित ऋण सुविधा (ईसीएफ), आपातोपयोगी ऋण सुविधा (एससीएफ), या त्वरित ऋण सुविधा (आरसीएफ) के माध्यम से रियायती शर्तों पर ऋण प्राप्त कर सकते हैं। 

गैर-रियायती ऋण मुख्य रूप से आपातोपयोगी व्यवस्था (एसबीए), लचीली ऋण रेखा (एफसीएल), एहतियाती और तरलता रेखा (पीएलएल) और विस्तारित निधि सुविधा (जो मुख्य रूप से मध्य अवधि और दीर्घ अवधि की आवश्यकताओं के लिए उपयोगी है) के माध्यम से प्रदान किये जाते हैं। तत्काल भुगतान संतुलन की समस्या से जूझ रहे सदस्य देशों के लिए त्वरित वित्तपोषण साधन (आरएफआई) के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष आपातकालीन सहायता भी प्रदान करता है। सभी गैर रियायती ऋण सुविधाएँ अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की बाजार आधारिक ब्याज दरों के तहत होती हैं जिसे ‘‘प्रभार की दर‘‘ कहा जाता है, और विशाल ऋण (एक निर्धारित सीमा से ऊपर) पर अधिभार भी अधिरोपित किया जाता है। अधिभार की दर एसडीआर की ब्याज दर पर आधारित होती है, जिसे हर हते संशोधित किया जाता है, ताकि प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय पूंजी बाजारों में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार उन्हें समायोजित किया जा सके। वह अधिकतम ऋण राशि जो एक देश अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से प्राप्त कर सकता है, जिसे उस देश की उपयोग की सीमा कहा जाता है, ऋण के प्रकार के अनुसार बदलती है, परंतु आमतौर पर यह उस देश के अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के कोटे के गुणज के रूप में होती है। असाधारण परिस्थितियों में यह सीमा बढ़ाई जा सकती है। आपातोपयोगी व्यवस्था, लचीली ऋण रेखा, और विस्तारित निधि सुविधा के लिए कोई पूर्व निर्धारित उपयोग सीमा नहीं होती। 

गरीबी उन्मूलन और विकास न्यास के तहत एक व्यापक सुधार के भाग के रूप में निम्न आय देशों के लिए नई रियायती सुविधाएँ जनवरी 2010 में प्रभावी हुईं, ताकि कोष की वित्तीय सहायता को निम्न आय देशों की विविध आवश्यकताओं के अनुरूप बेहतर और अधिक लचीला बनाया जा सके। संकट पूर्व की अवधि की तुलना में उपयोग सीमा और मानदंड़ लगभग दुगने हो गए हैं। वित्तपोषण की शर्तें अधिक रियायती बनायीं गई हैं, और ब्याज दर की भी प्रत्येक दो वर्ष बाद समीक्षा की जाती है। सभी सुविधाएँ देश के स्वामित्व वाले कार्यक्रमों का समर्थन करती हैं, जिनका उद्देश्य धारणीय समष्टि आर्थिक स्थिति प्राप्त करना है जो मजबूत और टिकाऊ गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों और विकास के अनुरूप हो। 

विस्तारित ऋण सुविधा (ईसीएफ) गरीबी हटाने व प्रगति सुविधा (पी.आर.जी.एफ.) के बाद अब ईसीएफ ही प्रदान की जाती है, जो दीर्घकालिक भुगतान संतुलन की समस्या से जूझ रहे निम्न आय देशों को मध्यम अवधि की सहायता प्रदान करने का कोष का एक प्रमुख साधन है। वर्तमान में ईसीएफ के तहत प्रदान की जाने वाले वित्तपोषण की ब्याज दर शून्य है, जिसकी अनुग्रह अवधि साढे़ पांच वर्ष की है, और अंतिम परिपक्वता अवधि 10 वर्ष की है। 

आपातोपयोगी ऋण सुविधा (एससीएफ) निम्न आय देशों को अल्पावधि भुगतान संतुलन आवश्यकताओं के लिए प्रदान की जाती है। एससीएफ बहिर्जात आघातों की सुविधा के उच्च उपयोग घटक का स्थान लेती है, और इसका उपयोग सावधानतापूर्ण आधार सहित बहुविध परिस्थियों में किया जा सकता है। वर्तमान में एससीएफ सुविधा के तहत प्रदान की जाने वाली सहायता पर ब्याजदर शून्य है, इसकी अनुग्रह अवधि चार वर्ष है, और अंतिम परिपक्वता अवधि 8 वर्ष है। 

त्वरित ऋण सुविधा (आरसीएफ) जो निम्न आय देश तत्काल भुगतान समस्या का सामना कर रहे हैं उन्हें आरसीएफ सुविधा के तहत सीमित शर्तों के साथ त्वरित ऋण सुविधा प्रदान की जाती है। आरसीएफ सुविधा कोष द्वारा निम्न आय देशों को प्रदान की जाने वाली आपातकालीन सहायता को तेज़ बनाती है, और इसका उपयोग लचीलेपन के साथ विविध प्रकार की परिस्थितियों में किया जा सकता है। वर्तमान में आरसीएफ के तहत प्रदान की जाने वाली सुविधा पर ब्याज दर शून्य है, इसकी अनुग्रह अवधि साढे़ पांच वर्ष और अंतिम परिपक्वता अवधि 10 वर्ष है। 

आपातोपयोगी व्यवस्था (एसबीए) ऐतिहासिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की अधिकांश गैर-रियायती सहायता एसबीए के माध्यम से प्रदान की जाती रही है। एसबीए की रचना देशों की भुगतान संतुलन की अल्पकालिक समस्या की पूर्ति की दृष्टि से की गई है। कार्यक्रम के लक्ष्य इन समस्याओं की पूर्ति के उद्देश्य से बनाये गए हैं, और अदायगी इन शर्तों की प्राप्ति के अनुसार की जाती है (सोपाधिकता)। आमतौर पर एसबीए की अवधि 12 से 24 महीने की होती है, और पुनर्भुगतान अदायगी से सवा तीन वर्ष से पांच वर्ष के अंदर देय हो जाता है। एसबीए सावधानी के तौर पर प्रदान किये जा सकते हैं, जहां देश यह निर्णय कर सकते हैं कि वे मंजूर की गई सुविधा का उपयोग नहीं करेंगे, परंतु यदि स्थिति बिगड़ जाती है, और सुविधा की आवश्यकता महसूस होती है तो ही वे उसका उपयोग करेंगे। यह सुविधा समान्य सुविधा सीमा के भीतर और असाधारण सुविधा के मामले में भी लागू होती है। चरणबद्धता की दृष्टि से एसबीए एक लचीलापन प्रदान करती है, और जहां उपयुक्त हो वहां शुरुआती चरण में सुविधा का अधिक भाग भी प्रदान किया जा सकता है। 

लचीली ऋण रेखा (एफसीएल) एफसीएल सुविधा उन देशों के लिए हैं जिनके आधार, नीतियां, नीति क्रियान्वयन का पिछला कार्य निष्पादन रिकॉर्ड अच्छा है, और यह संकट के निवारण और संकट के समाधान दोनों के लिए उपयोगी है। एफसीएल व्यवस्थाएं सदस्य देश के अनुरोध पर अनुमोदित किये जाते हैं, और ये उन देशों के लिए है जो पूर्व निर्धारित योग्यता मानदंडों की पूर्ति करते हैं। एफसीएल की अवधि एक से दो वर्ष होती है (एक वर्ष के बाद योग्यता जारी रहने की समीक्षा की जाती है) और इसकी पुनर्भुगतान की अवधि भी एसबीए के अनुसार ही होती है। सुविधा मामला-दर-मामला आधार पर निर्धारित की जाती है, यह सामान्य सुविधा सीमा के तहत नहीं होती और इसकी अदायगी चरणबद्ध के बजाय शुरुआती एकमुश्त की जाती है। एफसीएल के तहत अदायगी किन्हीं विशिष्ट उचित समष्टि आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन पर सशर्त नहीं होती, जैसा कि एसबीए सुविधा के मामले में होता है, क्योंकि एफसीएल के योग्य देशों का उचित समष्टि आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन का पिछला प्रदर्शन कार्य निष्पादन रिकॉर्ड़ अच्छा होता है। इसमें यह लचीलापन उपलब्ध है कि अनुमोदन के बाद सुविधा का उपयोग किया जा सकता है, या इसे सावधानी के तौर पर मंजूर करा कर भी रखा जा सकता है। यदि कोई देश सुविधा का उपयोग करता है तो इसके पुनर्भुगतान की शर्तें एसबीए के अनुसार ही होती हैं। 

एहतियाती और तरलता रेखा (पीएलएल) पीएलएल ने एहतियाती ऋण रेखा का स्थान लिया है, जिसमें इसकी मजबूतियों में वृद्धि की गई है और इसके लचीलेपन में भी वृद्धि की गई है। पीएलएल का उपयोग जिन देशों का आधार और नीतियां सशक्त हैं, और ऐसी नीतियों के क्रियान्वयन का जिनका पिछला निष्पादन रिकॉर्ड़ अच्छा है उनके द्वारा संकट निवारण के लिए भी किया जा सकता है और संकट के समाधान के लिए भी किया जा सकता है। 

पीएलएल देशों को मध्यम दर्जे की भेद्यता का सामना करना पड सकता है, और शायद ये देश एफसीएल की योग्यताओं की पूर्ति कर पाने में असमर्थ हो सकते हैं, परंतु उन्हें व्यापक नीति समायोजन की आवश्यकता नहीं होती जो एसबीए के साथ जुड़ी होती हैं। पीएलएल में योग्यता (एफसीएल के समान) और केंद्रित अदायगी शर्तों का मिश्रण होता है, जिनका उद्देश्य अर्ध वार्षिक समीक्षा के संबंध में बची हुई भेद्यताओं की पूर्ति करना होता है। पीएलएल व्यवस्थाओं की अवधि छह महीने या एक से दो वर्ष की हो सकती है। छह महीने की पीएलएल सुविधा के तहत सुविधा सामान्य समय में कोटे के 250 प्रतिशत तक सीमित होती है, परंतु असाधारण परिस्थितियों में यह सीमा 500 प्रतिशत तक विस्तारित की जा सकती है, जहां भुगतान संतुलन की आवश्यकता की समस्या बाह्य आघातों कर कारण होती है, जिसमें क्षेत्रीय या वैश्विक तनाव भी शामिल हैं। एक से दो वर्ष की पीएलएल व्यवस्था कोटे की वार्षिक पहुँच सीमा के 500 प्रतिशत होती है, और संचयी सीमा कोटे के 1000 प्रतिशत तक होती है। पीएलएल की पुनर्भुगतान की शर्तें एसबीए के अनुसार ही होती हैं।

विस्तारित निधि सुविधा (ईएफएफ) इस सुविधा की स्थापना 1974 में की गई थी, जिस उद्देश्य देशों को मध्य कालिक और दीर्घकालिक भुगतान संतुलन की समस्याओं से निपटने के लिए सहायता प्रदान करना था, और यह विशेष रूप से उन देशों के लिए थी जिन्हें बुनियादी आर्थिक सुधारों की आवश्यकता है। हाल की संकट अवधि के दौरान इसका उपयोग व्यापक रूप से बढ़ा है, जो कुछ देशों की भुगतान संतुलन की संरचनात्मक समस्याओं को प्रतिबिंबित करता है। ईएफएफ की व्यवस्थाएं आमतौर पर एसबीए की व्यवस्थाओं से अधिक लंबी होती हैं, जो अनुमोदन के बाद तीन वर्षों से अधिक अवधि के लिए नहीं होती। हालांकि अधिकतम अवधि को चार वर्षों के लिए विस्तारित भी किया जा सकता है, जो भुगतान संतुलन की अनुमानित अवधि की तीन वर्ष की अवधि के आगे आवश्यकता, और समष्टि आर्थिक स्थिरता को पुनर्प्रस्थापित करने के लिए आवश्यक समायोजन की दीर्घकालीन आवश्यकता, साथ ही साथ सदस्य देश द्वारा गहरे और धारणीय संरचनात्मक सुधारों के क्रियान्वयन की इच्छा और क्षमता के पर्याप्त आश्वासन के अनुसार बढ़ाया जा सकता है। पुनर्भुगतान अदायगी के साढ़े चार से दस वर्षों के अंदर देय हो जाता है। 

त्वरित वित्तपोषण साधन (आरएफआई) आरएफआई की शुरुआत पूर्व की आपातकालीन सहायता नीतियों को प्रस्थापित करने और इसके क्षेत्र को विस्तारित करने के उद्देश्य से की गई थी। आरएफआई उन सभी सदस्य देशों को सीमित शर्तों के साथ त्वरित सहायता प्रदान करती है, जो तत्काल भुगतान संतुलन की समस्याओं का सामना कर रहे हैं। आरएफआई के तहत प्रदान की जाने वाली सहायता कोटे के 50 प्रतिशत तक सीमित होती है, और इसकी संचयी सीमा कोटे के 100 प्रतिशत तक सीमित होती है। आपातकालीन ऋण उन्हीं शर्तों के तहत प्रदान किये जाते हैं जो एफसीएल, पीएलएल और एसबीए पर लागू हैं, और इसका पुनर्भुगतान सवा तीन वर्ष से 5 वर्ष के भीतर करना होता है

4.8 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में मतदान के अधिकार 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की आधारभूत निर्णय प्रक्रिया में भारित मतदान का उपयोग किया जाता है, जिसमें सदस्य देश और कार्यकारी निदेश भिन्न-भिन्न संख्या में मतों का उपयोग करते हैं, जो उनके वित्तीय योगदान को प्रतिबिंबित करते हैं। यह सर्व विदित है कि इस प्रकार की भारित मतदान की प्रणालियों का गुण यह होता है (इसके अन्य उदाहरण हैं ईयू मंत्री परिषद, संयुक्त शेयर कंपनी के अंश भागधारकों की बैठक) कि सामान्य निर्णय को प्रभावित करने की एक सदस्य की शक्ति उसके अंशभागों की हिस्सेदारी के बराबर नहीं होती। इस प्रणाली की रचना विभिन्न सदस्य देशों को असमान शक्ति प्रदान करने के उद्देश्य से की गई है, परंतु इसके क्रियान्वयन का परिणाम बहुत अधिक असमानता या बहुत कम असमानता में हो सकता है। 

अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए मतों के 85 प्रतिशत जितने उच्च विशेष बहुमतों की आवश्यकता होती है, जिसके कारण अमेरिका को - 17 प्रतिशत मतों के साथ - एक प्रभावी निषेधाधिकार प्राप्त हो जाता है। इस बहुत ही उच्च बहुमत आवश्यकता की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि यह निर्णय प्रक्रिया को बहुत ही कठोर बना देती है, साथ ही साथ इसकी यह आलोचना भी की जाती है कि यह अन्य देशों के लिए अमेरिकी प्रस्तावों को प्रतिबंधित करना आसान बना कर अमेरिका की संप्रभुता को भी क्षति पहुंचाती है। 1943 में जब ब्रेटन वुड्स प्रणाली की योजना बनाई जा रही थी, उस समय जॉन मेनार्ड कीन्स को इसके प्रति सचेत किया गया था। 

4.9 अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की आलोचनाएँ 

समय के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की विविध प्रकार से आलोचनाएँ भी होती रही हैं, आमतौर पर ये आलोचनाएँ ऋणों की शर्तों पर अधिक केंद्रित रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की आलोचना इसकी जवाबदेही के अभाव और उन देशों को भी ऋण प्रदान करने की इच्छा पर की जाती है जिनका मानवाधिकारों के प्रति रिकॉर्ड़ अच्छा नहीं रहा है। 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की विभिन्न आलोचनाओं में से कुछ आलोचनाएँ निम्नानुसार हैंः

  1. सरकारी उधार में कमी - उच्च कर और अल्प व्यय 
  2. मुद्रा स्थिरीकरण के लिए उच्च ब्याज दरें 
  3. असफल फर्मों को दिवालिया होने की अनुमति प्रदान करता है 
  4. संरचनात्मक समायोजन - निजीकरण, अविनियमन, भ्रष्टाचार व नौकरशाही कम करना

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की संरचनात्मक समायोजन की नीतियां और समष्टि आर्थिक हस्तक्षेप स्थिति को और भी अधिक बिगाड़ देती हैं। 2001 में अर्जेंटीना को इसी प्रकार की वित्तीय संयम की नीति के लिए मजबूर किया गया था। इसका परिणाम लोक सेवाओं में निवेश की गिरावट में हुआ, जिसके कारण अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंची। 

विनिमय दर सुधारः 1990 के दशक में जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने केन्या में हस्तक्षेप किया था, तो उन्होंने केंद्रीय बैंक को पूंजी के प्रवाह पर से नियंत्रण हटाने के लिए मजबूर किया। इस विषय में आम सहमति यह थी कि इसके कारण भ्रष्ट रानीतिज्ञों को पैसा अर्थव्यवस्था से बाहर हस्तांतरित करना आसान हो गया (इसे गोल्ड्मन घोटाले के रूप में जाना जाता है)। आलोचकों का तर्क है कि यह एक और उदाहरण है जो दर्शाता है कि किस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष देश की गतिकी को समझने में नाकाम सिद्ध हुआ - वह समग्र सुधारों के लिए आग्रही था। 

अर्थशास्त्री जोसफ स्टिग्लिट्ज ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के हाल के वर्षों के अति मौद्रिक दृष्टिकोण की आलोचना की है। उनका तर्क है कि यह विकासशील देशों के कल्याण में सुधार करने के लिए सर्वोत्कृष्ट नीति हासिल करने में असफल रहा है। उनका कहना था की ‘‘अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष किसी षड़्यंत्र में शामिल नहीं हो रहा है, परंतु यह पश्चिमी वित्तीय समुदाय की विचारधारा और उनके हितों को प्रतिबिंबित कर रहा है।‘‘

अवमूल्यनः शुरुआती दिनों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की एक आलोचना यह भी होती रही है कि इसने मुद्रास्फीतीय अवमूल्यन की अनुमति प्रदान की। 

नव उदारवादी आलोचनाः निजीकरण जैसी नव उदारवादी नीतियों की भी आलोचना हुई है। तार्किक दृष्टि से ये मुक्त बाजार नीतियां हमेशा देशों की स्थितियों के लिए अनुकूल नहीं रही हैं। उदाहरणार्थ निजीकरण के कारण निजी एकाधिकार निर्मित हो सकते हैं जो उपभोक्ताओं का शोषण करते हैं। 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की मुक्त बाजार के लिए आलोचनाः ‘‘मुक्त बाजार सुधार‘‘ क्रियान्वित करने को लेकर होने वाली आलोचनाओं के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की आलोचना इस बात के लिए भी की जाती है कि वह अत्यंत हस्तक्षेपवादी है। मुक्त बाजार के मानने वालों का तर्क है कि बेहतर यह होगा कि पूंजी बाजारों को बिना हस्तक्षेप के मुक्त रूप से परिचालित होने देना चाहिए। उनका यह भी तर्क है कि विनिमय दरों को प्रभावित करने के कारण स्थिति और भी अधिक बिगड़ जाती है। मुद्राओं को उनके बाजार के स्तर तक जाने देना चाहिए। 

इस बात की भी आलोचना की जाती है कि बडे़ भारी कर्ज के साथ खैरात देश नैतिक खतरा निर्माण करते हैं। खैरात देकर स्थिति से बाहर निकाल लिया जायेगा इस संभावना के कारण लोग अधिक ऋण लेने के लिए प्रवृत्त होते हैं। 

पारदर्शिता और भागीदारी का अभावः अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की इस बात के लिए भी आलोचना की जाती है कि प्रभावित देश के साथ किसी भी प्रकार की सलाह किये बिना, या बहुत अल्प सलाह के साथ अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष देशों पर अपनी नीति थोपता है। 

हार्वर्ड इंस्टिट्यूट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट के अध्यक्ष जेफरी सैक्स ने कहा थाः

‘‘कोरिया में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने आग्रह किया सभी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार तत्काल एक समझौते का ‘‘अनुलेखन करें‘‘ जिसके मसौदा निर्माण या उसपर बातचीत में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी, और उनके पास उसे समझने के लिए समय भी नहीं था। स्थिति नियंत्रण बाहर है। यह मानना तर्कशक्ति की समझ के बाहर है कि 1000 अर्थशास्त्रियों का एक छोटा सा समूह वाशिंगटन की 19 वीं सड़क पर बैठ कर लगभग 1.4 बिलियन जनसंख्या के 75 देशों को जीवन की आर्थिक स्थिति के बारे में आदेश दें।‘‘

सैन्य तानाशाही का समर्थन करता हैः ब्राजील और अर्जेंटीना में सैन्य तानाशाही का समर्थन करने के लिए भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की आलोचना की गई है, जैसे 1960 के दशक में कास्तेल्लो ब्रांको को अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की वे निधियां प्राप्त हुईं जो अन्य देशों को इंकार कर दी गई थीं। 

4.10   1997 के एशियाई संकट में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की भूमिका 

1997 के एशियाई मुद्रा संकट के दौरान इंडोनेशिया, मलेशिया और थाईलैंड़ जैसे देशों को अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा बजट घाटे को कम करने, और विनिमय दरों को मजबूत बनाने के लिए कठोर मौद्रिक नीति (उच्च ब्याज दर) और कठोर वित्तीय नीति अपनाने के लिए मजबूर किया गया था। हालांकि इन नीतियों के कारण एक हलकी सी सुस्ती एक गंभीर मंदी में परिवर्तित हो गई जिसके कारण विशाल पैमाने पर बेरोजगारी निर्मित हुई। 

1990 के दशक में पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक अर्थव्यवस्था की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं के रूप में घोषित किया जाता था (शेर), वे अर्थव्यवस्थाएं जिनकी औसत वृद्धि दर भविष्य में लंबे समय तक 6 से 8 प्रतिशत के बीच रहेगी। जब 1997 की गर्मियों में इन अर्थव्यवस्थाओं का पतन हुआ तो वैश्वीकरण की शासित विचारधारा पर इसका प्रभाव बहुत ही विशाल हुआ। शायद इस संकट का सबसे भयानक पहलू विकासशील देशों के लोगों के लिए जो था वह था इसका सामाजिक प्रभाव। कुछ ही हफ्तों के अंदर थाईलैंड़ के एक अधिक और इंडोनेशिया के 21 मिलियन से अधिक लोगों ने स्वयं को गरीब होते हुए देखा था।

अचानक ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष व्यापक रूप से बदनाम हो गया, उसे पूंजी खाते की परिवर्तनीयता का शिल्पकार माना गया जिसके कारण यह संकट निर्माण हुआ था, और इसके बाद हुए अनेक संकुचनों के लिए इसे जिम्मेदार माना गया। काफी हद तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष संकुचन के विस्तार के लिए जिम्मेदार था भी, क्योंकि उसने मांग की थी कि जो देश मंदी में डूबे हुए थे उन्हें सरकारी व्यय कम करना चाहिए - जबकि यह संकुचन की स्थिति में दी जाने वाली एकदम ठीक विपरीत सलाह थी। 

संपूर्ण विकासशील विश्व में जनवरी 1988 का तत्कालीन अंरर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रबंध संचालक मिचेल कामदस्सुस का चित्र, हाथ बंधे हुए, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो के ऊपर खडे़ हुए, और राष्ट्रपति अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए, जिसमे स्थिरता की कठोर शर्तें अनिवार्य की गई थीं, तीसरे विश्व की दासता का प्रतीक से एक घृणास्पद अधिपति के रूप में परिवर्तित हो गया। 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष इतना अलोकप्रिय हो गया था कि थाईलैंड़ में थाकसिन शिनावात्रा और उनकी थाई रक थाई राजनीतिक पार्टी और जिस प्रशासन ने 2001 में उसकी नीतियों को प्रायोजित किया था, उसके विरुद्ध खडे़ हो गए और उनके लिए एकतरफा विजय प्राप्त की और उसके साथ ही उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष विरोधी विस्तारवादी नीतियों का उद्घाटन किया जिसने थाईलैंड़ की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर दिया। 

मलेशिया में प्रधानमंत्री मोहमद महाथीर ने पूंजी नियंत्रण को नियंत्रित करके अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की अवहेलना की, यह एक ऐसा कदम था जिसके कारण सट्टेबाज निवेशकों की ओर से तीव्र आवाज उठी थी, परंतु यह एक ऐसा कदम साबित हुआ जिसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने भी अनमने भाव से स्वीकार किया कि उसने एक गंभीर संकट में फंसी अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान की। 

बाद में एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के मूल्यांकन ने अंततः स्वीकार किया - हालांकि व्यंजनापूर्ण रूप में - कि एशियाई वित्तीय संकट के प्रति विनिमय दरों की स्थिरता के वित्तीय कठोरता और उसके माध्यम से निवेशकों का विश्वास संपादन करने का उसका संपूर्ण दृष्टिकोण ही गलत था। ‘‘वित्तीय नीति का रुझान अंततः अलग ही साबित हुआ, क्योंकि आर्थिक वृद्धि, पूंजी प्रवाह और विनिमय दरों की मूल मान्यता पूरी तरह से गलत साबित हुई।‘‘

कोष की अमेरिकी हितों के साथ निकट भागीदारी -इसे आमतौर पर अमेरिकी राजकोषीय विभाग का ताबेदार माना जाता है - ने कोष को और अधिक बदनाम कर दिया। 

एशियाई संकट के दौरान घटी एक घटना, जिसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष को आवश्यक रूप से अमेरिका के एक साधन के रूप में उजागर कर दिया वह थी जापान के ‘‘एशियाई मुद्राकोष‘‘ के प्रस्ताव पर हुई लड़ाई। अगस्त 1997 में टोक्यो ने संभावित 100 बिलियन डॉलर के पूंजीकरण के साथ एक कोष का प्रस्ताव रखा था, जब दक्षिण एशियाई मुद्राओं में मुक्त रूप से गिरावट जारी थी। 

विचार यह था कि एक बहुउद्देशीय कोष स्थापित करना, जो एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को सट्टेबाजों के विरुद्ध अपनी मुद्राओं को संरक्षित करने में सहायता प्रदान करेगा, भुगतान संतुलन के लिए आपातकालीन वित्तपोषण प्रदान करेगा, और आर्थिक समायोजन के लिए दीर्घकालीन वित्तपोषण प्रदान करेगा। जापानी विदेश मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा रेखांकन किये अनुसार, विशेष रूप से प्रभावी वित्तमंत्रालय अधिकारी एइसुके सककिबारा द्वारा, एशियाई मुद्राकोष अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की तुलना में अधिक लचीला होगा, क्योंकि इसके द्वारा निर्धारित अनिवार्यताएं ‘‘सहायता प्राप्त करने के लिए कम एकसमान, शायद कम कठोर आवश्यक नीतिगत सुधार की आवश्यकता होगी।‘‘ आश्चर्य नहीं है कि एशियाई मुद्राकोष को दक्षिण पूर्वी एशियाई सरकारों का मजबूत समर्थन प्राप्त हुआ।

जैसा कि अनुमान था एशियाई मुद्रा कोष का अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और अमेरिका, दोनों ने तीव्र विरोध किया। सितंबर 1997 में हांगकांग में हुई अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष - विश्व बैंक की वार्षिक बैठक के दौरान अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रबंध संचालक मिचेल कामदेस्सुस उक्त उनके अमेरिकी सहायक स्टैनले फिशर ने तर्क दिया कि एक वैकल्पिक वित्तपोषण के स्रोत के रूप में एशियाई मुद्राकोष वित्तीय संकट के दौरान एशियाई देशों से कठोर आर्थिक सुधार सुनिश्चित कराने की अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की क्षमता को कमजोर करेगा। 

विश्लेषक एरिक अल्ट्बाच का दावा है कि कुछ अमेरिकी अधिकारी ‘‘एशियाई मुद्राकोष को केवल एक बुरे विचार से कुछ अधिक मानते थे; उन्होंने इसकी व्याख्या एशिया में अमेरिकी प्रभाव के लिए एक खतरे के रूप में की। कोई आश्चर्य नहीं है कि वाशिंगटन ने टोक्यो के प्रस्ताव को मारने के सभी सम्भाव्य प्रयास किये। अमेरिकी इच्छा के विरुद्ध एक एशियाई गठबंधन का नेतृत्व करने के अनिच्छुक जापान ने अंततः अपने उस प्रस्ताव त्याग दिया जिसने संभवतः एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के पतन को रोक दिया होता। इस संपूर्ण घटना ने अनेक एशियाई देशों को अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और अमेरिका दोनों के प्रति काफी क्रोधित और निराश कर दिया।



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Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं - व्याख्यान - 1
यूपीएससी तैयारी - अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं - व्याख्यान - 1
सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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