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औरंगजे़ब और मुगल साम्राज्य का पतन, मुगल वास्तुकला और साहित्य भाग - 2
6.0 मुगल साम्राज्य का पतन - औरंगजेब की जिम्मेदारी
औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का तेजी से पतन हुआ। मुगल दरबार मुगल सरदारों के बीच गुटबाजी और आतंरिक झगड़ों का केंद्र बन गया, और जल्द ही प्रांतों के प्रशासक स्वतंत्र व्यवहार करने लगे। मराठों की लूट-पाट डेक्कन से लेकर साम्राज्य के हृदय स्थल, गंगा के मैदानों तक फैल गई। साम्राज्य की कमजोरी तब और अधिक उजागर हो गई जब फारस के शासक नादिर शाह (1736-47) ने 50,000 सेना के साथ मुगल सम्राट को बंदी बना लिया और दिल्ली में लूट पाट की। वह दिल्ली की सडकों पर बहुत भयंकर रक्तपात था।
इतिहासकारों में इस विषय पर काफी चर्चा हुई है, कि मुगल साम्राज्य के पतन के लिए औरंगजेब की मृत्यु के बाद की परिस्थतियाँ किस हद तक जिम्मेदार थीं और औरंगजेब द्वारा लागू की गई गलत नीतियां किस हद तक जिम्मेदार थीं। हालाँकि, जिम्मेदारी से औरंगजेब को पूरी तरह मुक्त नहीं किया जा सकता, फिर भी हाल के समय में यह विचार व्यक्त हुआ है की औरंगजेब के शासन को उस समय की आर्थिक, सामजिक प्रशासनिक और बौद्धिक परिस्थिति के सापेक्ष देखा जाना चाहिए, साथ ही साथ उसके शासन काल के दौरान और उससे पहले उभरते हुए अंतर्राष्ट्रीय रुझानों के सापेक्ष इसका आकलन किया जाना चाहिए।
कहा जा सकता है कि औरंगजेब परिस्थितियों का शिकार था, और जिन परिस्थितियों का वह शिकार हुआ वे उसी के द्वारा निर्मित थीं।
औरंगजेब अत्यंत महत्वाकांक्षी था और अपने साम्राज्य की भौगोलिक सीमा का विस्तार करना चाहता था। यह शायद सिंहासन के उत्तराधिकारियों की बढ़ती संख्या की दृष्टि से भी आवश्यक प्रतीत होता था। हालांकि इसकी उसे मनुष्य हानि और धन हानि के रूप में भारी कीमत चुकानी पडी। मराठाओं, राजपूतों और जाटों के प्रति उसकी हठधर्मिता और उन्हें क्षेत्रीय स्वायत्तता प्रदान करने के उसके इंकार ने उनके और मुगल साम्राज्य के बीच की चली आ रही पुरानी वफादारी को तोड़ दिया।
औरंगजेब ने ऐसे दूर-दराज के क्षेत्रों में भी शासन की एक केंद्रीकृत व्यवस्था को अधिरोपित करने का प्रयास किया जो उसके नियंत्रण से बाहर थे। अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए अच्छे गठबंधन बनाने में वह असफल हुआ, जिसके परिणामस्वरूप वह स्वयं के लिए और मुगल साम्राज्य के लिए अधिकाधिक शत्रुओं का निर्माण करता चला गया। उसकी कट्टरपंथी धार्मिक नीतियों के कारण हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों को उससे दूर कर दिया, जिसने उसके साम्राज्य की स्थिरता को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित किया। 1707 से 1719 के बीच उत्तराधिकार के लिए हुए युद्धों ने दिल्ली को त्रस्त कर दिया था, जिनके कारण भी मुगल साम्राज्य कमजोर हुआ। उत्तराधिकारी कमजोर साबित हुए और उनमें विभिन्न हताश बलों पर काबू पाने और साम्राज्य में एकता स्थापित करने की क्षमता का अभाव था।
सरदारों और उनके आतंरिक प्रभागों के बीच अंतर्कलह भी मुगल साम्राज्य के विघटन का एक प्रमुख कारण था।
मुगल दरबार में सरदारों के चार समूह थे, तूरानी, ईरानी, अफगान और भारत में जन्मे मुसलमान। केंद्र में कमजोर शासकों के पदावरोहण ने उन्हें सत्ता के शक्तिशाली दावेदार बना दिया था। वे सीमित संख्या में अधिक जागीरों और उच्च पदों के लिए आपस में लडते रहते थे। उन्होंने जागीरों से स्वयं के लिए धन एकत्रित किया और सैन्य संख्या में कटौती की जिसने साम्राज्य की सैन्य शक्ति को कमजोर कर दिया। नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली द्वारा किये गए बाह्य आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य की बची-खुची शक्ति को भी तोड़ कर रख दिया। इसके कारण शाही खजाने और संपत्ति पर भारी बोझ पड़ा, और इसने सैन्य प्रशासन और राजनीतिक प्रशासन की अकुशलताओं को उजागर करके रख दिया।
इसने भारत को आतंरिक और बाह्य विघटनकारी शक्तियों के सामने भेद्य बना दिया। मुगल शासन की विदीर्ण स्थिति इस तथ्य से साबित हो जाती है कि 1761 में अहमद शाह अब्दाली के विरुद्ध पानीपत का युद्ध मुगलों द्वारा नहीं बल्कि मराठों द्वारा लड़ा गया था।
मुगल साम्राज्य के विघटन के कारणों को दो विभिन्न दृष्टियों से समझा जा सकता है। एक यह कि मुगल शासन की व्यवस्था काफी हद तक सम्राट के व्यक्तित्व की प्रभावकारिता पर निर्भर थी। यह निश्चित रूप से साम्राज्य का मुख्य आधारस्तंभ था, जो विघटनकारी शक्तियों को दूर रखने में पर्याप्त सक्षम था।
दूसरा, जिसका श्रेय काफी हद तक जागीरदारी व्यवस्था के तथाकथित संकट को दिया जा सकता है, जो जागीरों की सीमित संख्या और जागीरदारों की संख्या के आधिक्य के कारण निर्माण हुआ था। इसने इस व्यवस्था को शोषक बना दिया था जिसके फलस्वरूप किसान विद्रोह की स्थिति में आ गए थे, और साम्राज्य की स्थिरता असंतुलित हो गई थी।
6.1 नादिर शाह के आक्रमण
नादिर (1688-1747) एक गरीब किसान का बेटा था, जो खुरासान में रहता था, और नादिर अभी छोटा बच्चा ही था जब उसके पिता की मृत्यु हो गई। नादिर और उसकी माँ को उज्बेकों द्वारा गुलाम बना कर ले जाया गया, परंतु नादिर उनके चंगुल से भागने में सफल हुआ और वह सिपाही बन गया। शीघ्र ही उसने अफशर के एक मुखिया का ध्यान आकर्षित किया जिसकी सेवा में रहते हुए नादिर ने तेजी से प्रगति की। अंततः महत्वांकांक्षी नादिर ने मुखिया की नाराजी मोल ले ली। वह एक विद्रोही बन गया और उसने काफी बड़ी सेना एकत्रित कर ली।
1727 में नादिर ने अपनी सेवाएं सफविद राजवंश के उत्तराधिकारी तमस्प द्वितीय (1704-1740) को प्रस्तुत कीं। नादिर ने पर्शिया पर पुनःविजय का अभियान शुरू किया और अफगानों को खुरासान से बाहर खदेड़ दिया। अफगानों भारी क्षति हुई, परंतु भागने से पहले अशरफ ने अस्फहान के 3000 अतिरिक्त नागरिकों का कत्लेआम किया। भागने वाले अधिकांश अफगानों को नादिर की सेना ने पकड़ लिया और उनकी हत्या कर दी, जबकि बाकी बचे हुए अफगानों की रेगिस्तान में मृत्यु हो गई। स्वयं अशरफ को ढूंढ़ कर निकाला गया और उसकी हत्या कर दी गई।
1729 तक नादिर ने पर्शिया को अफगानों से मुक्त कर लिया। तमस्प द्वितीय का शाह के रूप में राज्याभिषेक किया गया, हालांकि वह केवल नाममात्र शासक से अधिक कुछ नहीं था। जब नादिर खुरासान में एक दबाने में व्यस्त था, उसी समय तमस्प ने तुर्कों के विरुद्ध आक्रमण किया और उसने अपने इस प्रयास में जॉर्जिया और अर्मेनिआ को खो दिया। इससे नाराज होकर नादिर ने तमस्प को 1732 में पदच्युत कर दिया, और तमस्प के शिशु पुत्र अब्बास तृतीय (1732-1740) को सिंहासन पर बिठा दिया और स्वयं को राजा का प्रतिनिधि घोषित कर दिया। दो वर्ष के अंदर ही नादिर ने हारे हुए प्रदेशों पर पुनः कब्जा कर लिया और तुर्कों और रूसियों की कीमत पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। 1736 में नादिर को प्रकट रूप से यह प्रतीत होने लगा कि उसकी स्थिति इतनी मजबूती से स्थापित हो चुकी थी कि अब उसे किसी नाममात्र सफविद शाह के पीछे छिपने की कोई आवश्यकता नहीं रही थी, और वह स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया।
1738 में नादिर शाह इस बहाने से भारत पर आक्रमण करने के लिए अग्रसर हुआ कि मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने दिल्ली के शाही दरबार में पर्शियन राजदूत का अपमान किया था। उसने मुगल साम्राज्य की पश्चिमी सीमाओं पर लूटपाट की और इस दौरान उसने 1739 में गजनी, काबुल और लाहौर पर कब्जा कर लिया। जब नादिर शाह ने खैबर दर्रे को पार किया तो पंजाब के गवर्नर ने मुगल साम्राज्य से पंजाब में सुरक्षा को सुदृढ़ करने का अनुरोध किया, परंतु तत्कालीन मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने उसके ईमानदार अनुरोधों को अनसुना कर दिया।
जब नादिर शाह ने पंजाब पर आक्रमण किया, तो खतरे को भांपते हुए मुहम्मद शाह ने खान दौरान और निजाम-उल-मुल्क को नादिर शाह के विरुद्ध सेना का नेतृत्व करने का आदेश दिया। परंतु उन दोनों ने उसके आदेश को मानने से इंकार कर दिया, अंततः मुहम्मद शाह ने स्वयं सेना का नेतृत्व करने का निर्णय लिया। दोनों सेनाओं का करनाल में आमना-सामना हुआ, परंतु शीघ्र ही मुगल सेना को घेर लिया गया और वह पराजित हो गई। अवध के नवाब सआदत खान को बंदी बना लिया गया और खान दौरान गंभीर रूप से घायल हो गया।
मुगल सेना की पराजय ने सेना में भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी। निजाम ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई और वह नादिर शाह को 20 मिलियन रुपये लेकर वापस पर्शिया लौटने के लिए समझाने में सफल हुआ। निजाम के इस प्रयास से प्रसन्न हुए मुगल सम्राट ने उसे ‘‘आमिर-उल-उमरा’’ की उपाधि से विभूषित किया और उसे प्रधानमंत्री भी नियुक्त किया। हालांकि नादिर शाह तक पहुंच कर उसे बताया गया कि उसे इतनी तुच्छ धनराशि से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, जो उसे वहां का केवल एक गवर्नर ही देने में सक्षम था। इसका उस पर्शियन शासक पर उत्तेजित करने वाला प्रभाव हुआ और दिल्ली की भव्यता उसकी आँखों के सामने चमकने लगी।
नादिर शाह ने नतमस्तक मुगल सम्राट के साथ दिल्ली में प्रवेश किया। दिल्ली के किले और खजाने की चाभियां पहले ही समर्पित की जा चुकी थीं। और उसकी वापसी के लिए नादिर शाह के साथ एक राशि भी तय की गई। परंतु इसी समय यह अफवाह फैल गई कि शाह मारा गया था। दिल्ली में दंगे भड़क गए, जिनमें कुछ पर्शियन सैनिक भी मारे गए। जैसे ही नादिर शाह ने इसके बारे में सुना तो वह सीधे घोड़ा दौड़ाते हुए शहर में पहुंच गया जहां उसे मृत पर्शियन सैनिकों के शव सडक पर पडे हुए दिखाई दिए। इससे वह क्रुद्ध हो गया और जहां उसके सैनिकों के शव पडे हुए थे उन सभी क्षेत्रों में उसने व्यापक नरसंहार का आदेश दिया। इसके परिणामस्वरूप 11 मार्च 1739 को दिल्ली के नागरिकों के साथ भारी लूटपाट की गई और उनका कत्लेआम किया गया। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि लगभग 0.2 मिलियन लोगों की हत्या की गई।
57 दिनों तक दिल्ली वासियों की लूटपाट और मारकाट करने के बाद अपनी वापसी पर नादिर शाह अपने साथ शाहजहां द्वारा निर्मित दिल्ली का प्रसिद्ध ‘‘मयूर सिंहासन’’, और उसका प्रसिद्ध ‘‘कोह-ई-नूर’’ भी ले गया, साथ ही वह अपने साथ 600 मिलियन रुपये मूल्य के आभूषण, 10 मिलियन रुपये मूल्य का सोना, और 6 मिलियन रुपये मूल्य के सिक्के भी ले गया। उसकी इस विशाल लूट का कुल मूल्य 700 मिलियन रुपये के बराबर था, साथ ही उसने अपने साथ अपनी सवारी में 100 हाथियों, 7000 कारीगरों, 100 पत्थर काटने वालों और 200 बढ़ईयों को भी शामिल करने का ध्यान रखा। नादिर शाह के आक्रमण ने मुगल साम्राज्य की अपूरणीय क्षति की। सिंधु नदी के तट पर स्थित मुगलों के समस्त प्रदेश पर्शियन प्रदेशों में विलीन हो गए। बाद में नादिर शाह की हरकतों से प्रेरित होकर उसके उत्तराधिकारी अहमद शाह अब्दाली ने भी 1748 और 1767 के बीच अनेक बार भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली में लूटमार की।
7.0 मुगल स्थापत्यकला
औरंगजे़ब के आलावा सभी मुगल शासक महान वास्तुकार थे। मुगलों के आने से भारतीय स्थापत्यकला पर फारसी शैली का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। मुगलों ने शानदार मकबरे, मस्जिदें और किले बगीचे और शहर निर्मित किये। मुगल संरचनाएँ सामान स्वरुप और प्रकृति प्रदर्शित करते हैं।
मुगल स्थापत्य शैली की मुख्य विशेषता इसके कंदीय गुंबद, किनारों पर गुंबज के साथ पतली मीनारें, विशाल कक्ष, मेहराबयुक्त विशाल प्रवेशद्वार और नाजुक सजावट हैं।
बाबर और हुमायूँ द्वारा निर्मित कुछ मस्जिदें स्थापत्यकला की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। सूर वंश का शेरशाह, जिसने हुमायूँ को खदेड़ने के बाद मुगल साम्राज्य पर शासन किया, न केवल एक अच्छा प्रशासक था, वरन् कला का भी प्रेमी था। उसने कई किलों, मकबरों और मस्जिदों का निर्माण किया।
शेरशाह के स्मारक लोधी शैली का विस्तार हैं। मकबरे अष्टकोणी हैं जिनके चारों ओर विशाल बरामदे और ऊपर विशाल गुम्बद हैं। बरामदों में प्रत्येक बाजू में तीन छोटे गुम्बद हैं।
शेरशाह ने दिल्ली में पुराने किले का निर्माण किया। उसके द्वारा शुरू किया गया निर्माणकार्य हुमायूँ द्वारा पूरा किया गया। लाल और बादामी रंग के रेतीपत्थर से बने किले को काले और सफेद संगमरमर और रंगीन टाइल्स से सजाया गया है। किले में स्थित एक सुन्दर मस्जिद सजावटी मेहराबों, फर्शियों, ज्यामितीय रचनाओं और शिलालेखों से सुसज्जित है, जो शेरशाह के समय की वास्तुकला और सजावट के शानदार नमूने हैं।
1549 में बिहार के सासाराम में निर्मित शेरशाह का मकबरा एक वर्गाकार हौद के बीचों बीच बना है और 46 मीटर ऊंचा है। यह एक सपाट प्लेटफार्म पर बना दो मंजिला निर्माण है। ऊपरी छत पर स्तम्भों युक्त गुम्बद, और ऊपरी दो मंजिलों पर चारों कोनों पर खम्भों वाली छतरियां हैं। विशाल केंद्रीय गुम्बद के तल के बत्तीस किनारे हैं। गुम्बद की सजावट रंगीन टाइल्स से की गई है, हालाँकि अब इनमे से बहुत थोड़ी शेष हैं। मकबरे का प्रवेश द्वार गुम्बदवाली संरचनाओं से बना है।
मुगल स्थापत्य कला की शुरुआत अकबर से होती है, जिसने कई शानदार महलों की योजना और निर्माण द्वारा अपने भवन निर्माण के जूनून को प्रदर्शित किया है। उसके शासन काल में मुगल स्थापत्य कला में कई नए आयाम जुड़े। अकबर ने हिन्दू और फारसी दोनों शैलियों का मुक्त उपयोग किया। लाल रेतीपत्थर में सफेद संगमरमर और दीवारों और छतों पर चित्रित कलाकृतियां अकबर के निर्माणों की प्रसिद्ध विशेषतायें थीं। अकबर ने कई किलों, मीनारों, महलों, मस्जिदों, मकबरों और द्वारों का निर्माण किया। उसके शासन काल में निर्मित अनेक निर्माणों में विशेष उल्लेखनीय दिल्ली में बना हुमायूँ का मकबरा है।
हुमायूँ का मकबराः हुमायूँ का मकबरा उसकी विधवा, हाजी बेगम द्वारा, उसकी मृत्यु के चौदह वर्ष बाद ईस्वी सन 1569 बनाया गया था। यह मकबरा एक चौकोर बंद बगीचे के मध्य बना हुआ है। विशेष मुगल शैलीनुसार यह बगीचा भी अनेक चौकोरों में बंटा हुआ है। बुलंद दो मंजिला संरचना एक बडे़ ऊंचे प्लेटफार्म पर निर्मित है, जिस पर छोटी दीवारों की कतारें हैं जो मेहराबदार मुँहों पर समाप्त होती हैं। केंद्रीय कक्ष अष्टकोणीय है, जिस पर गुम्बद बना हुआ है। मकबरे के सभी ओर बीच में एक बड़ा मेहराबदार कमरा होकर दोनों ओर छोटे कमरे हैं। इसमें मध्य में, एक दोहरा संगमरमर का गुम्बद है, जो खंभोंयुक्त छतरियों और गुम्बजों से घिरा हुआ है। लाल रेतीपत्थर के अंदरूनी भाग में काले, सफेद और पीले संगमरमर इमारत की भव्यता को प्रदर्शित करते हैं। एक फारसी वास्तुविद द्वारा नियोजित और भारतीय कारीगरों द्वारा निर्मित यह संरचना फारसी और भारतीय स्थापत्य शैलियों के सुन्दर मिश्रण का उत्कृष्ट नमूना है। मकबरे का प्रवेश द्वार दो दुमंजिला द्वारों से सजा है।
आगरे का किलाः आगरा के किले का बड़ा भाग अकबर द्वारा बनाया गया है, जिसका निर्माण कार्य ईस्वी सन 1565 में शुरू हुआ और 1574 तक चला। यमुना नदी के किनारे स्थित यह एक अत्यंत विशाल और भव्य रचना है। इस किले की मुख्य विशेषता इसकी ढ़ाई किलोमीटर लम्बी और इक्कीस मीटर ऊंची लाल रेतीपत्थर से बनी गोलाकार दीवार है। पत्थर लोहे के छल्लों से इतनी नजदीक जुड़े हैं कि इनमे से बाल जैसी बारीक चीज भी नहीं गुजर सकती। किले के दो प्रवेश द्वार हैं। मुख्य द्वार, जिसे दिल्ली दरवाजा कहा जाता है, विशेष समारोहों के समय इस्तेमाल होता था। दुसरे छोटे द्वार को हाथी पोल कहा जाता है, क्योंकि इसके दोनों ओर विशाल हाथी बने हुए हैं। यह द्वार निजी प्रवेश के लिए इस्तेमाल होता था।
दिल्ली दरवाजे के प्रवेश तोरणद्वार पर दोनों बाजू, दो दुमंजिले अष्टकोणीय बर्ज हैं, जो अष्टकोणीय गुंबददार छतरियों से सजे हैं। इन दो मंजिलों को एक छज्जा अलग करता है। प्रवेशद्वार संगमरमर के पैनलों और रंगीन टाइल्स के अंदरूनी काम से सजा है।
किला चारों ओर से एक गहरी खाई से घिरा हुआ है। शुरुआत में किले में कई लाल रेतीपत्थर से बनी इमारतें थीं, जिन्हें, शाहजहाँ के काल में गिराकर उनकी जगह संगमरमर के विशाल मण्डप बनाये गए। किले के भीतर की मुख्य इमारतों में जहाँगीर महल, जो जहाँगीर और उसके परिवार के लिए था, मोती मस्जिद और मीना बाजार हैं। जहाँगीर महल एक अत्यंत प्रभावशाली संरचना है, जिसमें एक प्रांगण है जो दुमंजिले दालानों और कमरों से घिरा हुआ है। घोड़िया कोष्ठक, दरवाजे और उनके ऊपर के छज्जों पर काफी नक्काशी की गई है।
कोष्ठकों की वास्तुकला काष्ठशिल्प की नकल लगती है। किले के नियोजन और निर्माण से ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तुकला की राजपूत शैली का काफी इस्तेमाल किया गया है।
फतेहपुर सीकरीः अपने राजधानी शहर फतेहपुर सीकरी का निर्माण अकबर की सर्वोच्च वास्तुकला उपलब्धि थी। इस दीवारों के शहर का निर्माण 1569 में शुरू हुआ और 1574 में पूरा हुआ। इसमें कई अत्यंत सुन्दर इमारतें बनी हैं, जो धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों प्रकार की हैं जो दर्शाती हैं, कि सम्राट सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक एकात्मता प्रस्थापित करना चाहता था। उल्लेखनीय धार्मिक भवनों में जामी मस्जिद और सलीम चिश्ती की दरगाह हैं।
मस्जिद के कोने में 1571 में बनी दरगाह एक चौकोर बरामदायुक्त कक्ष है। कब्र के चारों ओर हरी जाली है। धर्मनिरपेक्ष भवनों में, जोधाबाई का महल, पंच महल, दीवान-ए-खास और बुलंद दरवाजा हैं। जोधाबाई का महल एक विशाल इमारत है जिसके प्रांगण के चारों ओर कमरे बने हुए हैं। बीच का भाग और चारों कोने दुमंजिले हैं। लगे हुए पूजाघर में मूर्तियों के लिए आले बने हुए हैं। पंच महल एक पांच मंजिला भवन है, जिसकी प्रत्येक ऊपर जाती मंजिल छोटी होती गई है और सबसे ऊपरी मंजिल केवल एक छतरी के रूप में है।
एक उत्कृष्ट संरचना दीवान-ए-खास, सम्राट की मंत्रिमंडलीय चर्चा और प्रजा की शिकायतें सुनने के लिए बना था। एक अद्वितीय संरचना, यह, बीच में अखण्ड पत्थर के खम्भों, गोलाकार रेलिंगयुक्त प्याले के आकार वाले ऊपरी प्लेटफार्म के साथ एक विशाल हॉल है। प्लेटफार्म गोलाकार जालियों से घिरा है। केंद्रीय प्लेटफार्म से चार आड़ी रेलिंग युक्त गैलरियां निकलती हैं, जो अकबर का उसके दरबारियों पर प्रभुत्व दर्शाता है। गैलरी हॉल के चारों ओर चली जाती है। प्रेक्षक गैलरियों और हॉल में नीचे बैठते थे, जो इसे एक दुमंजिला इमारत का आभास प्रदान करते थे। बीच में बैठ कर अकबर धार्मिक चर्चाएं और प्रवचन सुनता था।
बुलंद दरवाजाः गुजरात पर अकबर की विजय की यादगार के रूप में बाद में, 1571-72 में एक आलीशान द्वार बनाया गया। लाल रेतीपत्थर और संगमरमर से बना यह निर्माण ‘‘सम्पूर्ण भारत में सर्वोत्तम वास्तु उपलब्धि‘‘ के रूप में माना गया। इस 53 मीटर ऊंचे और 36 मीटर चौड़े द्वार तक जाने के लिए सीड़ियां बनी हुई हैं। एक विशाल मेहराबदार आले से इसमें प्रवेश किया जा सकता है। मेहराबदार रास्ते के बाजू में एक-एक चौड़ी आयताकार पट्टी पर सूक्तवाक्य लेखों के रूप में अंकित हैं। कोनों पर नाजुक बुर्ज हैं। खूबसूरत जालीदार रेलिंग और गुंबददार छतरियों की पंक्ति स्मारक की गरिमा को बढाती हैं। द्वार पर अंकित शिलालेख अकबर की धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाते हैं।
हालाँकि, जहांगीर कला का उपासक था, उसे प्राकृतिक सौंदर्य से लगाव था, इसलिए उसने अपना समय शानदार बगीचों के निर्माण में व्यतीत किया। काश्मीर के श्रीनगर में स्थित शालीमार और निशातबाग इसकी गवाही देते हैं। उसे लघु चित्रकारी का भी शौक था। उसके कुछ वर्णनीय निर्माणों में सिकंदरा में अकबर का मकबरा और उसके ससुर इमदाद-उद-दौला का मकबरा शामिल हैं। ये दोनों स्मारक आगरा के निकट स्थित हैं।
अकबर का मकबरा, सिकंदराः आगरा के निकट सिकंदरा में अकबर के मकबरे के निर्माण की शुरुआत अकबर द्वारा की गई और इसका निर्माण उसके बेटे जहांगीर द्वारा 1612 में पूरा किया गया। जहांगीर ने मूल निर्माण के डिजाइन में कुछ बदलाव किये। एक बौद्ध विहार के प्रतिरूप में डिजाइन किया गया यह स्मारक एक वर्गाकार बगीचे के मध्य में स्थित है। दोनों ओर की बाहरी दीवार से लगे हुए दो प्रवेश द्वार हैं। मुख्य प्रवेश द्वार के चारों कोनों में संगमरमरी मीनारें हैं। मकबरे में एक के ऊपर एक पांच छतें हैं, जो ऊपर जाते हुए आकार में छोटी होती जाती हैं। लाल रेतीपत्थर से बना मुख्य प्रवेशद्वार सबसे बड़ा है, जिसे आतंरिक रंगीन पत्थर की चिपों से सजाया गया है। इसके आकर्षक अनुपात के माध्यम से यह अपने आप में कला का एक उत्कृष्ट नमूना है।
इतमाद-उद्-दौला का मकबराः जहाँगीर के राजस्व मंत्री और नूरजहाँ के पिता इतमाद-उद्-दौला का मकबरा आगरा में यमुना के किनारे पर बनाया गया था। जहाँगीर द्वारा शुरू किये गए इस स्मारक का निर्माण नूरजहाँ द्वारा 1628 में पूरा किया गया। सफेद संगमरमर से बने इस छोटे आयताकार स्मारक की अर्धबहुमूल्य पत्थरों और रंगीन कांच की सजावट की गई है। यह नाजुक सुन्दर वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। यह पहला सम्पूर्ण संगमरमर से बना निर्माण है और विशाल लाल रेतीपत्थर से बने ठेठ पूर्ववर्ती मुगल निर्माणों से अलग है। फव्वारों से सजे बगीचे के बीच स्थित इस स्मारक में एक वर्गाकार मंजिल और चारों कोनों पर चार मीनारें हैं। दूसरी मंजिल एक छत युक्त दालान है। केंद्रीय कक्ष में कब्र है, जो चारों ओर से बंद बरामदे से घिरी है। यह स्मारक संगमरमर से बना एक नगीना है, ‘‘मुगल स्थापत्यकला की सम्पूर्ण श्रंखला में इसके जितना खूबसूरत स्मारक दूसरा नहीं है‘‘।
7.1 शाहजहां का योगदान
मुगल शासकों में सबसे प्रसिद्ध निर्माणकर्ता शाहजहाँ को, निर्माण का जुनून था। उसका शासनकाल कई महलों, किलों, मस्जिदों और बगीचों के निर्माण से भरा पड़ा है। उसके निर्माण स्त्रीसुलभ नज़ाकत, शालीनता और लालित्य के सुन्दर नमूने हैं। वे अकबर के लाल रेती पत्थर से बने निर्माणों का पौरुष नहीं दर्शाते। उसके शासन काल में मुगल स्थापत्यकला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची। उसके निर्माणों की विशेषताओं में-सफेद संगमरमर पर नजाकत से की गई बारीक नक्काशी पर आतंरिक रंगीन पत्थरों की सजावट और उन पर काले संगमरमर से लिखे सूक्तवाक्य प्रमुख हैं। उसके कुछ उत्कृष्ट निर्माणों में, आगरा के किले में बनी मोती मस्जिद और ताज महल, दिल्ली का लालकिला, जिसके दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास उल्लेखनीय हैं, दिल्ली की जामा मस्जिद, और शाहदरा लाहौर (पाकिस्तान) में बना जहाँगीर का मकबरा शामिल हैं।
दिल्ली की जामा मस्जिद भारत की सबसे बड़ी मस्जिद है और इसका निर्माण 1650 और 1656 के दौरान किया गया था। यह एक ऊंचे चबूतरे पर बनी हुई है जिसमे ऊपर जाने के लिए तीन ओर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। मुख्य द्वार एक दुमंजिला प्रवेशद्वार है, जो एक वृत्ताकार विशाल प्रांगण में खुलता है, खम्भों से बने गलियारे संलग्न हैं। नमाज़ का प्रांगण आयताकार है जिसमे ग्यारह मेहराबें लगी हुई हैं। बीच की ऊंची मेहराब के चारों ओर ऊँची पतली गुम्बजदार मीनारें हैं। मेहराबों में सफेद संगमरमर की पट्टियों पर खुदाई की गई है। नमाज़ मंडप के ऊपर तीन गुंबदों पर बारी-बारी से सफेद और काले संगमरमर की पट्टियां लगाई गई हैं। पूर्वी किनारों पर दो ऊपर की ओर नुकीली होती हुई चार मंजिला मीनारें हैं।
अपनी नई राजधानी शाहजहांनाबाद की नींव रखने के बाद शाहजहाँ ने लाल रेतीपत्थर से बने लाल किले का निर्माण कार्य 1638 में यमुना नदी के किनारे शुरू किया। किले के निर्माण कार्य में नौ वर्ष का समय लगा। दीवारों के शहर के भीतर यह किला 900 मीटर 550 मीटर के आयत में बना हुआ है। प्राचीर की दीवारें लगभग 34 मीटर ऊंची हैं। प्राचीर एक खाई से घिरा है। इसके पांच प्रवेश द्वारों में से दो तीन मंजिला हैं जिनके दोनों ओर टॉवर बने हैं। इन्हे लाहौरी गेट और दिल्ली गेट कहा जाता है। दिल्ली गेट पर हाथी की दो विशाल मूर्तियाँ लगी हुई हैं। किले का मुख्य प्रवेश द्वार लाहौरी गेट है।
एक ढँका हुआ गलियारा, जिसके दोनों ओर दुकानें बनी हुई हैं, किले के भीतरी महल में ले जाता है। सैनिकों की बैरकें, प्रेक्षक हॉल, घोडों और हाथियों के अस्तबल, और खूबसूरत बगीचे किले की अन्य विशेषताएँ हैं। कुछ खूबसूरत इमारतों में, दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास, मोती महल, हीरा महल और रंग महल हैं। बाद के तीनो महलों में सभी हॉल आतंरिक रंगीन पत्थर की चिपों, आकृतियों और रंग और सोने से सजावट की गई है, और इसके फर्श संगमरमर से बने हैं। मोती मस्जिद का निर्माण बाद में 1654 में किया गया। और यह मुगल निर्माण शैली में संतुलन और लय के सामंजस्य का उत्कृष्ट नमूना है।
दीवान-ए-आम (आम जनता की सुनवाई की जगह) एक मेहराबदार स्तम्भों वाला दरबार हॉल है रंगीन पत्थर की चिपों से सजा संगमरमर का सिंहासन एक संगमरमरी मंडप के नीचे रखा हुआ है। सिंहासन के नीचे एक मंच है, जो अर्ध बहुमूल्य पत्थरों से सजा है। सिंहासन के पीछे की दीवार पर रंगीन मीनाकारी काम के साथ फूलों और पक्षियों की नक्काशी की गई है। दीवान-ए-खास (निजी सुनवाई के लिए) एक आयताकार केंद्रीय कक्ष है, जिसमे मेहराबदार गलियारे और पुते हुए खम्बे हैं। छत के चारों कोनों पर खम्बे बने हैं जिनपर छतरियां हैं। दीवारों पर अमीर खुसरो की प्रसिद्ध नज़्में खुदी हुई हैं, जो कहती हैं, ‘‘यदि धरती पर कहीं जन्नत है, तो वह यहाँ है’’।
ताज महलः आगरे का ताज महल, जो सफेद संगमरमर का एक स्वप्न है, शाहजहाँ द्वारा अपनी प्रिय बेगम मुमताज की याद में बनवाया गया था। यमुना नदी के किनारे बने ताज महल का निर्माण 1632 में शुरू किया गया और इसे बनाने में 22 साल लगे। इसके निर्माण में मरकाना के संगमरमर और दुनिया के विभिन्न स्थानों से मंगवाए गए बहुमूल्य पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है। इसकी योजना एक फारसी शिल्पकार ईसा द्वारा बनाई गई थी। यह उत्कृष्ट कलाकृति का सर्वोच्च नमूना और अजूबा है। ताज एक एक ऊंचे चबूतरे के बीचों-बीच बना हुआ है। चबूतरे के चारों कोनो पर चार मंजिला मीनारें बनी हुई हैं, जिनके ऊपर गुम्बद लगे हैं। मुख्य निर्माण वर्गाकार है। दोनों मंजिलों के दोनों ओर विशाल गुंबददार खाली जगह, जिसपर छोटे मेहराबों वाले खाली स्थान हैं, निर्माण के चारों ओर के सामने वाले भाग बनाते हैं। एक अष्टकोणी कक्ष में नाजुक जालियों की पट्टियों के बीच मुमताज और शाहजहाँ की मजारें बनी हुई हैं। गुम्बजदार छत के ऊपर बीचों बीच एक उभारदार गुम्बद बना हुआ है जो ऊपर की ओर पत्ते के शिखर की तरह संकरा होता गया है। मजार के ऊपर चार गुम्बद हैं। दीवारों की सतहें अंदर और बाहर से, और कब्रें रंगीन पत्थरों की चिपों, फूलों और ज्यामितीय आकृतियों से सुन्दर रूप से सजाई गई हैं। मुख्य मेहराब की सीमाओं को शिलालेखों द्वारा सजाया गया है। पश्चिम में एक मस्जिद और पूर्व दिशा में इसी तरह का एक निर्माण, समरूपता को पूरा करता है। एक विशाल बगीचा, जिसमें फव्वारे, सजावटी तालाब और झरने बने हुए हैं, ये ताज के सुन्दर प्रवेशद्वार का हिस्सा हैं।
बीबी का मकबराः औरंगजेब नैतिकतावादी होने के नाते कला के किसी भी स्वरुप को प्रोत्साहित नहीं करता था। उसके शासन काल में कला और स्थापत्यकला का जो पतन हुआ वह मुगलों के काल में फिर से विकसित हो ही नहीं सकी। उसके शासन काल के दौरान जो बहुत काम निर्माण कार्य हुआ उसमें से एक ही उल्लेखनीय था, और वह था उसके बेटे द्वारा औरंगाबाद (डेक्कन) में 1679 में निर्मित उसकी बेगम राबिया-उद-दुर्रानी का मकबरा। ताज की एक बहुत ही बुरी नकल, और आकार में उससे आधे इस निर्माण से पता चलता है कि उस काल में वास्तुकला की कितनी अधोगति हुई थी। उसकी उल्लेखनीय विशेषतायें उसका जालीदार अष्टकोणीय सफेद संगमरमर का पर्दा, जो कब्र को आच्छादित करता है, और पीटे हुए पीतल के दरवाजे, जिनपर फूलों के पैनल और कंगूरे कढे हैं, इतनी ही हैं।
7.2 सिक्खों के मंदिर
1579 में सिक्खों के चौथे गुरु, गुरु रामदास ने अमृतसर शहर की स्थापना की उन्होंने सबसे पहले एक तालाब का निर्माण किया और उसे अमृत सर या ‘‘अमृत का तालाब‘ नाम दिया। यह जमीन का टुकडा उन्हें अकबर द्वारा बख्शीश दिया गया था। उनके उत्तराधिकारी गुरु अर्जुनदेव ने, सिक्खों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहब को प्रतिष्ठापित करने के लिए, तालाब के बीचों-बीच एक मंदिर का निर्माण किया। 1803 में पंजाब के शासक महाराजा रंजीत सिंह ने मंदिर में और सुधार किया। मंदिर का निचला आधा हिस्सा संगमरमर से ढं़का हुआ था और ऊपरी आधा हिस्सा तांबे से ढं़का हुआ था, जिस पर 400 किलो शुद्ध सोने की परत चढ़ायी हुई थी। उसी समय से ‘‘हरि मंदिर को ‘‘स्वर्णमंदिर’’ कहा जाने लगा।
चार आधारभूत दिशाओं में इसके चार द्वार हैं। पानी के ऊपर से एक संगमरमरी सेतु प्रवेश द्वार से मुख्य मंदिर को मिलाता है। रंगीन अर्ध बहुमूल्य पत्थरों से बने फूलों के डिजाइन, काँच का काम और आकर्षक भित्तिचित्र मंदिर की भीतरी दीवारों और छत की सजावट के लिए इस्तेमाल किये गए हैं। इसका स्थापत्य हिन्दू और मुस्लिम स्थापत्यकला का सुन्दर मिश्रण है और शांति और पवित्रता को प्रदर्शित करता है।
मंदिर से लगी हुई संगमरमर से बनी एक चौकोर संरचना को अकाल तख्त या अमर सिंहासन कहलाती है, जो सिख धर्म का मुख्य केंद्र है। यहाँ सिख गुरुओं द्वारा उपयोग किये गए हथियार रखे गए हैं। मंदिर के सुन्दर गुंबद, जिनकी परछाई तालाब में पडती है, आँखों को सुकून और मन को शांति देते हैं। पंजाब में सिक्खों के अन्य धर्मस्थल हैं गुरुद्वारा तरन तारण साहिब, जो मुगल शैली में बना है, और सरहिंद का गुरुद्वारा फतेहगढ साहिब, जहाँ औरंगजेब के सरहिंद के गवर्नर वजीर खान ने गुरु गोबिंद सिंह के जवान बेटों को जिंदा दफना दिया था, और आनंदपुर साहिब का गुरुद्वारा, जहाँ गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की शुरुआत की थी।
8.0 मुगलकालीन साहित्य
इस काल में फारसी और स्थानीय भाषा साहित्य का विकास हुआ। उर्दू भाषा की उत्पत्ति भी देखी गई। सम्राटों ने इस काम के लिए उदार हाथों से संरक्षण प्रदान किया। उर्दू का विकास हिंदुस्तान की अपेक्षा डेक्कन में अधिक हुआ। हिंदुस्तान में इसका विकास औरंगजेब के शासन काल में ही शुरू हुआ। साहित्य में सामाजिक सामग्री बहुत कम थी। अधिकतर विषय भारत के बाहर से लिए गए। यह साहित्य आवश्यक रूप से मध्यकालीन सामंतवाद और अभिजात्य जीवन शैली का परिणाम था। ऐतिहासिक लेखों के उदय और गद्य कथन में मोहम्मदियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
मुगल काल में अध्ययन की एक सुधारित पद्धति की शुरुआत हुई। प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में कुरान के हिस्सों का अध्ययन, अक्षर ज्ञान, और अन्य अध्ययन लकडी के पटलों पर शुरू हुआ। माध्यमिक संस्थाओं में प्रशासन की कला, गणित, बीज गणित, विज्ञान, हिसाब-किताब, अर्थशास्त्र, इतिहास, कानून, साहित्य, नैतिकता, और दर्शनशास्त्र विषय पढ़ाये जाने लगे। शिक्षा का उद्देश्य छात्रों के अव्यक्त संकायों को उजागर करना, उनमे अनुशासन को बढ़ाना, चरित्र निर्माण और उन्हें जीवन के लिए और आजीविका के लिए तैयार करना था। शिक्षा के सभी पहलूओं के मूल में धर्म था। गुरुजनों का बहुत आदर किया जाता था। विश्वविद्यालय आवासीय होते थे। उपदेशक पद्धति का अवलंब किया जाता था। शिक्षा निःशुल्क थी और छात्रवृत्तियां प्रदान की जाती थीं। इन्ही नियमों के अनुसार हिन्दू संस्थाएं भी थीं।
अकबर के शासन के कारण साहित्य का विकास हुआ। इन्हे अनुवाद, इतिहास, साहित्य और छंद में वर्गीकृत किया जा सकता है। अनुवाद संस्कृत ग्रंथों से किये जाते थे। इस काल की प्रसिद्ध इतिहास पर रचनाएँ मुल्ला दाऊद की तारीख-ए-अकबरी, अबुल फज़्ल की आईन-ए-अकबरी और अकबरनामा, बदायुनीं की मुन्तखब-उत-तवारीख निजाम-उद्-दीन अहमद की तबकात-ए-अकबरी, फज़ी-सरहिंद की अकबरनामा और अब्दुल बकी की मआसिर-ए-रोहिनी थीं। अबुल फज़ल सबसे संपन्न लेखक माने जाते थे। वे एक कवि, निबंधकार, आलोचक और इतिहासकार थे। उनकी आईन-ए-अकबरी प्रसिद्ध थी। यह एक विश्वकोश है जिसमें सभी प्रकार की जानकारी मिलती है, और समाज के सभी वर्गों के लोग इसका उपयोग सन्दर्भ, निर्देश और मनोरंजन के लिए आसानी से कर सकते थे।
मुगल शासन के दौरान कवित्व अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। बाबर और हुमायुं स्वयं कवि थे और अकबर ने उनकी विरासत को आगे बढाया। उस काल के कवियों में अबुल फजल, अब्दुर रहीम, अब्दुल फतेह, गिजाली, मोहम्मद हुसैन नाजिरी और शिराज के सैय्यद जमालुद्दीन उर्फी शामिल थे।
जहाँगीर के पास साहित्य की अच्छी तासीर थी। उसकी आत्मकथा सामग्री और शैली के मामले में बाबर के बाद दूसरी सबसे प्रसिद्ध थी। उसके दरबार में गियास बेग, नकीब खान, मुतामिद खान, नियामतुल्लाह और अब्दुल हक देहलवी जैसे नगीने थे। अब्दुल हामिद लाहौरी द्वारा रचित मासीर-ए-जहाँगीरी, बादशाह-नामा, इनायत खान द्वारा रचित शाहजहाँ-नामा और मुहम्मद सालिह शाह द्वारा रचित अमल-ए-साहिली इस काल की ऐतिहासिक रचनाएँ थीं। इस काल के दौरान दो विशिष्ट साहित्य श्रेणियों का विकास हुआ, भारत-फारसी व षुद्ध फारसी। अबुल फज़ल भारत-फारसी पंथ का उत्कृष्ट प्रतिनिधि था। अब्दुल हामिद लाहौरी, मुहम्मद वारिस, चन्द्र भान और मुहम्मद सालिह इसी के प्रतिनिधि थे। इस ने भारतीय विचारों और चिंतन को समाविष्ट किया। कवि गजलें, कसीदे, मसनवी और चाटुकारिता की कवितायें लिखते थे। गिलानी, कलीम, कुदसी, रफी, मुनीर, हाजिक,और माहिर अन्य महान कवि थे। अन्य प्रकार का गद्य लेखन भी हुआ, उदाहरणार्थ, शब्दकोष, वैद्यकीय, और धार्मिक लेखन, ज्योतिष, सांख्यिकीय और संस्कृत से अनुवाद। औरंगजेब को गद्य या पद्य में रूचि नहीं थी। उसके काल में ऐतिहासिक रचनाएँ छिप कर लिखी जाती थीं। उसके समय के प्रसिद्ध काम थे मिर्जा मुहम्मद काजिम द्वारा रचित आलमगीरनामा, खफी खान द्वारा रचित मुन्तखब-उत्-लुबाब, सुजान राय खत्री द्वारा रचित खुलसत-उत-तवा-रिख और ईश्वर दास द्वारा रचित फतुहात-ए-आलमगिरी।
इस काल में प्रांतीय भाषाओँ का अच्छा विकास हुआ। इस काल को हिंदुस्तानी साहित्य का शास्त्रीय काल कहा जा सकता है। हिंदी अपने महानतम विकास के लिए अनेक संतों और कविओं की ऋणी है। इस काल में तुलसीदास, कबीर, सूरदास, सुन्दर दास, चिंतामणि, कवीन्द्र आचार्य, केशव दास, मतिराम, भूषण, बिहारी, देवा, पद्माकर, आलम, घनानंद, और कई अन्य अपने चरम पर थे। इन कवियों द्वारा मुख्य रूप से धर्म, पराक्रम, मानवी प्रेम और सम्राट की प्रशंसा विषयों पर रचनाएँ की गई। बंगाल में वैष्णव साहित्य का काफी विकास हुआ, और वहां कृष्णदास, जयानंद, त्रिलोचनदास और मुकन्दराम ने इसमें पर्याप्त योगदान दिया।
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