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खलजी (खिलजी) और तुग़लक़ भाग - 3
8.0 दिल्ली सल्तनत का पतन और विघटनः फिरोज और उसके उत्तराधिकारी
मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के उत्तरार्ध के दौरान, साम्राज्य के विभिन्न भागों में बार-बार विद्रोह हुए। महत्वाकांक्षी प्रधानों द्वारा विद्रोह, विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में, नई विशेषता नहीं थे। ज्यादातर मामलों में, सुल्तान, केंद्रीय सेना की मदद और वफादार प्रधानों के एक गुट के साथ, उन्हें दबाने में सफल रहा। मुहम्मद तुगलक की कई कठिनाइयाँ थीं। साम्राज्य के विभिन्न भागों में एक के बाद एक विद्रोह हुए-बंगाल में, माबर (तमिलनाडु) में, वारंगल में, कम्पिली (कर्नाटक) में, पश्चिम बंगाल में, अवध में, और गुजरात और सिंध में। मुहम्मद तुगलक किसी पर भी भरोसा नहीं करता था, कम से कम पर्याप्त भरोसा तो नहीं ही। इसलिए विद्रोह को दबाने के लिए, वह देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से दौड़ता रहा, और अपनी सेनाओं को थका दिया। दक्षिण भारत के विद्रोह सबसे गंभीर थे।
सबसे पहले, ये विद्रोह क्षेत्रों के स्थानीय सरदारों द्वारा किए गए। सुल्तान दक्षिण भारत के लिए चल दिया। कुछ समय के बाद, सेना में प्लेग फैला। बताया जाता है कि इस प्लेग में दो तिहाई सेना का नाश हुआ। यह एक ऐसा झटका था, जिससे मुहम्मद तुगलक कभी उबर नहीं पाया। दक्षिण भारत से सुल्तान की वापसी के बाद, जल्द ही दो भाइयों, हरिहर और बुक्का के नेतृत्व में एक और विद्रोह हुआ। उन्होंने एक रियासत की स्थापना की, जिसका धीरे-धीरे विस्तार हुआ। यह था विजयनगर साम्राज्य, जिसने जल्द ही पूरे दक्षिण पर अधिकार कर लिया। (विजयनगर साम्राज्य, जिसे पुर्तगालियों द्वारा दक्कन के पठार क्षेत्र में, ‘विसनगर के साम्राज्य‘ के रूप में निर्दिष्ट किया गया था, दक्षिण भारत में स्थित एक साम्राज्य था। यह संगम राजवंश के हरिहर प्रथम और उनके भाई बुक्का राय प्रथम द्वारा 1336 में स्थापित किया गया था)।
इसके अलावा उत्तर डेक्कन में, कुछ विदेशी प्रधानों ने दौलताबाद के पास एक रियासत की स्थापना की, जिसका विस्तार बहमनी साम्राज्य में हुआ। बंगाल भी स्वतंत्र हो गया। काफी प्रयास से मुहम्मद तुगलक, अवध गुजरात और सिंध के विद्रोह को दबाने में सफल हुआ। सिंध में रहते हुए मुहम्मद तुगलक की मृत्यु हो गई, और उनके चचेरे भाई, फिरोज़ तुगलक उत्तराधिकारी बने। मुहम्मद तुगलक की नीतियों ने प्रधानों और सेना में गहरा असंतोष पैदा कर दिया था। उसका मुस्लिम धर्मशास्त्रियों और सूफी संतों के साथ भी संघर्ष हुआ, जो बहुत प्रभावशाली थे। लेकिन मुहम्मद तुगलक की अलोकप्रियता को अतिरंजित नहीं किया जाना चाहिए। जब वह लंबी अवधि के लिए राजधानी से दूर था, तब भी दिल्ली, पंजाब और उत्तर भारत में साम्राज्य के दूसरे हिस्सों में प्रशासन सामान्य रूप से कार्य कर रहा था।
उसके परिग्रहण (राज्याभिशेक) के बाद, फिरोज तुगलक को दिल्ली सल्तनत की आसन्न टूट को रोकने की समस्या का सामना करना पड़ रहा था। उसने प्रधानों, सेना और धर्मशास्त्रियों खुश करने की नीति अपनाई, और केवल ऐसे क्षेत्रों पर अपना अधिकार जताने की कोशिश की, जो केन्द्र से आसानी से प्रशासित किये जा सकें। इसलिए उसने दक्षिण भारत और डेक्कन में फिर से अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। उसने बंगाल में दो अभियानों का नेतृत्व किया, लेकिन दोनों में असफल रहा। इस प्रकार, सल्तनत ने बंगाल को खो दिया। फिर भी, सल्तनत अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों जितनी ही बड़ी बनी रही। फिरोज ने जाज नगर (उड़ीसा) के शासक के खिलाफ एक अभियान का नेतृत्व किया। उसने वहाँ के मंदिरों को अपवित्र किया और एक समृद्ध लूट इकट्ठा की, लेकिन उड़ीसा को अनुबद्ध करने का कोई प्रयास नहीं किया। उसने पंजाब के पहाड़ी इलाकों में कांगड़ा के खिलाफ भी एक अभियान का नेतृत्व किया। उसके सबसे लंबे अभियान में गुजरात और थट्टा में विद्रोह से निपटने के लिए थे। हालांकि, विद्रोह को कुचल दिया गया, लेकिन कच्छ के रण में रास्ता भटकने की वजह से सेना को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा।
8.1 आनुवंशिकता का विस्तार
इस प्रकार, फिरोज एक प्रतिष्ठित सैन्य नेता नहीं था। लेकिन उसका शासनकाल शांति और शांत विकास का काल था। उसने फैसला किया, कि जब भी एक कुलीन की मृत्यु हो, तो उसके बेटे को उसके इक्ता सहित उसका पद मिलने की अनुमति दी जानी चाहिए, और यदि उसे कोई बेटा न हो, तो उसके दामाद और उसकी अनुपस्थिति में, उसके दास को दी जानी चाहिए। फिरोज ने, प्रधानों और उनके अधिकारियों के खिलाफ, उनके इक्ता के खातों के अंकेक्षण के समय यदि कोई राशि शेष हो, तो उन्हें यातना देने की प्रथा को समाप्त कर दिया। इन कदमों से प्रधान खुश थे, और गुजरात और थट्टा के मामूली अपवाद को छोड़ कर, प्रधानों द्वारा विद्रोह के अभाव के लिए यह एक प्रमुख कारक था। हालांकि, लंबे समय में, पदों और इक्ता को वंशानुगत बनाने की नीति हानिकारक सिद्ध होना लाज़मी था। इसने एक संकीर्ण गुट के बाहर की सेवा में भर्ती की संभावना कम कर दी, और सुल्तान को एक संकीर्ण कुलीन तंत्र पर निर्भर बना दिया। फिरोज ने आनुवंशिकता के सिद्धांत को सेना तक बढ़ा दिया। पुराने सैनिकों को शांति से आराम करने, और उनकी जगह उनके बेटों या दामादों को भेजने की अनुमति दे दी गई थी।
सैनिकों को नकदी में भुगतान नहीं किया जाता था, बल्कि गांवों के भू-राजस्व पर कार्य द्वारा भुगतान किया जाता था। इस का मतलब यह था कि सैनिक को अपना वेतन इकट्ठा करने के लिए या तो सेवा से खुद को अनुपस्थित करके गांवों में जाना पड़ता था, या किसी बिचौलिए को कार्यभार देना पड़ता था, जो उसके मूल्य का आधा या एक-तिहाई ही उसे देता था। इस प्रकार, सैनिक को लंबे समय में लाभ नहीं होता था। संपूर्ण सैन्य प्रशासन ढीला हो गया, और सैनिक लिपिकों को रिश्वत देकर मस्टर (मुआयने) पर बेकार घोड़े पारित करा लेते थे।
8.2 धर्मशास्त्रियों को जीतने के प्रयास
फिरोज़ ने, यह कह कर कि वह एक सच्चा मुसलमान राजा था, और उसका राज्य वास्तव में एक इस्लामी राज्य था, धर्मशास्त्रियों का दिल जीतने की कोशिश की। दरअसल, इल्तुतमिश के समय से ही, राज्य की व्यवस्था और भारत के गैर-मुसलमानों के प्रति राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीति के बारे में सुल्तानों और रूढ़िवादी धर्मशास्त्रियों के बीच एक लड़ाई चल रही थी। जैसा कि पहले कहा गया है, इल्तुतमिश के समय से, और विशेष रूप से अलाउद्दीन और मुहम्मद तुगलक के समय में, तुर्की शासकों ने धर्मशास्त्रियों को राज्य की नीति को प्रभावित करने की अनुमति नहीं दी। उनकी सुविधा अनुसार वे हिन्दू शासकों के विरुद्ध जिहाद छेड़ देते थे। धर्मशास्त्रियों को संतुष्ट रखने के लिए उनमें से कई को उच्च पदों पर नियुक्त किया गया। न्यायपालिका और शिक्षा प्रणाली, बेशक, धर्मशास्त्रियों के हाथों में ही रहे।
बाहरी दिखावे के बावजूद, में फिरोज़ ने अपने पूर्ववर्तियों की नीति का ही पालन किया। विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि उसने धर्मशास्त्रियों को राज्य नीति को प्रभावित करने की अनुमति दी। परन्तु उसने धर्मशास्त्रियों को महत्वपूर्ण रियायतें दी। उसने रूढ़िवादी धर्मशास्त्रियों द्वारा गैर-इस्लामी मानी गई प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की। इस प्रकार, उसने मुस्लिम महिलाओं द्वारा फकीरों की कब्र पर पूजा करने की प्रथा निषिद्ध की। उसने कई मुस्लिम संप्रदायों को सताया, जिन्हे धर्मशास्त्रियों द्वारा विधर्मी करार दिया गया था। फिरोज के समय के दौरान जज़िया को एक अलग कर बनाया गया। इससे पहले, यह भूमि-राजस्व का हिस्सा था। फिरोज ने जज़िया के भुगतान से ब्राह्मणों को छूट देने से इनकार कर दिया, क्योंकि शरीयत में इसके लिए प्रावधान नहीं किया गया था। इससे, केवल महिलाएं, बच्चे, विकलांग और निर्धन मुक्त थे। इससे भी बदतर, उसने मुसलमानों को उपदेश देने वाले एक ब्राह्मण को सार्वजनिक रूप से, इस आधार पर जला दिया था, कि यह शरीयत के विरुद्ध था। इसी आधार पर उसने अपने महल के सुंदर भित्तिचित्र भी मिटाने का आदेश दिया। फिरोज तुगलक के ये संकीर्ण विचार निश्चित रूप से हानिकारक थे। इसी समय, फिरोज तुगलक, हिन्दू विचारों और प्रथाओं की एक बेहतर समझ के लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों को संस्कृत से फारसी में अनुवाद करने के लिए कदम उठाने वाला पहला शासक था। उसके शासनकाल के दौरान संगीत, चिकित्सा और गणित पर कई पुस्तकों का भी संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया गया।
8.3 मानवतावादी उपाय
फिरोज ने कई मानवतावादी उपाय भी किये। उसने चोरी और अन्य अपराधों के लिए, हाथ, पैर, नाक आदि काटने जैसे अमानवीय दंड पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने गरीबों के मुक्त इलाज के लिए अस्पतालों की स्थापना की, बेरोजगार व्यक्तियों की सूची बनाने के लिए कोतवालों को आदेश दिया, और गरीब की बेटियों के लिए दहेज उपलब्ध कराया। हालांकि, संभव है कि ये उपाय मूल रूप से बुरे समय में घिरे अच्छे परिवारों के मुसलमानों की मदद करने के लिए बनाये गए हों। यह, फिर से, मध्ययुगीन काल के दौरान भारत में राज्य की सीमित प्रकृति को दर्शाता है। हालांकि फिरोज़ ने ज़ोर देकर कहा कि राज्य केवल दंड देने और कर संग्रह के लिए नहीं था, वरन् साथ ही यह एक उदार संस्था थी। मध्ययुगीन काल के संदर्भ में, परोपकार के इस सिद्धांत का अभिकथन मूल्यवान था, और फिरोज को इसके लिए श्रेय मिलना चाहिए।
फिरोज की देश के आर्थिक सुधार में पूरी रुचि थी। उसने लोक निर्माण के एक बड़े विभाग की स्थापना की, जो उसके निर्माण कार्यक्रम की देखभाल करता था। फिरोज ने कई नहरों की खुदाई और मरम्मत की। सबसे लंबी नहर लगभग 200 किलोमीटर की थी, जो सतलुज से हांसी तक थी। एक और नहर जमुना से निकाली थी। ये और अन्य नहरें सिंचाई प्रयोजनों के लिए, और फिरोज द्वारा निर्मित नए शहरों में से कुछ के लिए पानी उपलब्ध कराने के लिए थीं। ये शहर, हिसार फिरोज़ा या हिसार (आधुनिक हरियाणा में) और फिरूज़ाबाद (आधुनिक उत्तर प्रदेश में फिरोज़ाबाद) आज भी मौजूद हैं।
8.4 गुलामी का संवर्धन
एक और कदम जो फिरोज़ ने उठाया, वह आर्थिक और राजनीतिक दोनों था। उसने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि जब भी वे किसी जगह पर हमला करें, तो सुंदर और हृश्ट- पुश्ट जन्मे युवा लड़कों का चयन करें और गुलामों के रूप में सुल्तान के पास उन्हें भेज दें। इस तरह, फिरोज ने धीरे-धीरे लगभग 1,80,000 गुलाम एकत्र किये। इनमें से कुछ को उसने विभिन्न हस्तशिल्प के लिए प्रशिक्षित किया, और उन्हें सारे साम्राज्य की शाही कार्यशालाओं (कारखानो) में तैनात किया। दूसरों से उसने सैनिकों के एक कोर का गठन किया, जो सुल्तान पर सीधे निर्भर होगा और इसलिए, उसने आशा व्यक्त की, कि उसके प्रति पूरी तरह से वफादार होगा। यह नीति नई नहीं थी। हमने देखा है, कि भारत में प्रारंभिक तुर्की सुल्तानों के समय भी गुलामों की भर्ती की प्रथा थी।
लेकिन अनुभव ने दिखाया कि इन गुलामों पर अपने स्वामी के वंशज के प्रति वफादारी के लिए निर्भर नहीं किया जा सकता था, और वे जल्द ही कुलीनों से अलग एक अलग समूह का गठन कर लेते थे। 1388 में जब फिरोज़ की मृत्यु हुई, तो हर सुल्तान की मौत के बाद जो प्रशासनिक और राजनीतिक समस्याएं आती हैं, वे सतह पर आ गईं। सुल्तान और प्रधानों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष एक बार फिर से शुरू हुआ। स्थानीय जमींदार और राजाओं ने स्वतंत्रता के लिए स्थिति का फायदा उठाया। इस स्थिति में एक नया पहलू सक्रिय हुआ, फिरोज़ी गुलामों का हस्तक्षेप और सिंहासन पर अपना उम्मीदवार डालने के लिए उनके प्रयास। फिरोज़ का बेटा सुल्तान मोहम्मद, उनकी मदद से स्थिति को स्थिर करने में सफल हुआ। लेकिन जो पहला काम जो उसने किया, वह था इन गुलामों की शक्ति को तोड़ने का। उनमें से कई को उसने मार डाला और कैद कर लिया, और बाकी को तितर-बितर कर दिया। हालांकि, न वह और न ही उसका उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन महमूद, जिसने 1394 से 1412 तक शासन किया, महत्वाकांक्षी प्रधानों और दुराग्रही राजाओं को नियंत्रित कर पाये। शायद, इसके लिए प्रमुख कारण फिरोज़ के सुधार थे, जिन्होंने कुलीनों को मजबूत और सेना को अक्षम कर दिया था। प्रांतों के प्रशासक स्वतंत्र हो गए, और दिल्ली का सुल्तान दिल्ली के आसपास के एक छोटे से क्षेत्र में ही सीमित हो गया था। विनोदपूर्ण रूप में कहा जाता था, ‘‘ब्रह्मांड के भगवान (दिल्ली के सुल्तानों का खिताब) का प्रभुत्व दिल्ली से पालम तक फैला हुआ है‘‘।
9.0 तैमूर का आक्रमण
11 अप्रैल 1336 को तैमूर लंग, जिसे तिमूर लेंग (फारसी), या तमेरलंग (अरबी) के रूप में भी जाना जाता है, दक्षिण समरकंद के पहाड़ों के किनारे पर स्थित केश में पैदा हुआ था, जिसे शहर-ए-सब्ज़ के रूप में भी जाना जाता है, जो उसके साम्राज्य की भविष्य की राजधानी बननी थी।
तैमूर लंग, चंगेज खान के सीधे वंश से होने का दावा करता था, हालांकि यह कभी साबित नहीं हो पाया। जब वह केवल 21 साल का था, उसने दुनिया जीतने की अपनी यात्रा शुरू कर दी थी। 1358 तक उसने एक सैन्य नेता के रूप में खुद को स्थापित कर लिया था।
तैमूर लंग की सेना में मुख्य रूप से तुर्क और तुर्की बोलने वाले मंगोल थे। उसने तुर्किस्तान में प्रतिद्वंद्वी बलों को जीतने से अपने अभियान की शुरुआत की। 1370 तक तुर्किस्तान और समरकंद दोनों उसके नियंत्रण में थे। उसने राजधानी शहर समरकंद में पश्चिमी भाग में एक गढ़ के रूप में और चारों ओर गहरे नालों के साथ एक गढ़ की स्थापना की। समरकंद उसका पसंदीदा शहर बन गया, जिसे, उसने खुद को एक धनी और शक्तिशाली शासक के रूप में दिखाने के लिए, शानदार वास्तुकला के साथ एक भव्य शहर के रूप में फिर से बनाया।
भारत में तैमूर का आक्रमण वर्ष 1398 ई. में हुआ था। भारत पर हमला करने का तैमूर का उद्देश्य भारत के शासकों के खिलाफ लड़ना और उन्हें नष्ट करके उनकी संपत्ति लूटना था। तैमूर ने अप्रैल 1398 ई. में समरकंद से भारत की ओर अपनी यात्रा शुरू की। उसने सितंबर में सिंध नदी को पार किया और पंजाब में प्रवेश किया। तैमूर का आक्रमण दिल्ली सल्तनत और तुगलक राजवंश की शक्ति के विनाश का कारण बना।
उसके आक्रमण करने से पहले काबुल का गवर्नर, उसका पोता पीर मुहम्मद, भारत के खिलाफ एक अभियान बल भेज चुका था, जिसने उच पर कब्जा कर लिया और मुल्तान को घेर लिया था। मुल्तान के कब्जे के बाद पीर मुहम्मद तैमूर के साथ शामिल हो गया। भटनेर के किले के गवर्नर ने एक संक्षिप्त प्रतिरोध किया और समर्पण कर दिया, और तैमूर ने किले और शहर को नष्ट कर दिया। इसके बाद तैमूर लोगों को काटता हुआ और रास्ते में आने वाली हर चीज को नष्ट करते हुए दिल्ली की दिशा में रवाना हुआ।
तब तक तुगलक वंश के सुल्तान नासिर-उद-दीन ने आक्रमणकारी का विरोध करने के लिए कुछ भी नहीं किया था। अंत में जब सुल्तान और उनके वजीर मल्लू इकबाल ने तैमूर की सेना पर हमला किया, तो वे आसानी से हार गए। 1398 में भारतीय सल्तनत की सेना और तैमूर के बीच एक और लड़ाई हुई और भारतीय सेना बुरी तरह से हार गई। सुल्तान और उनके वजीर राजधानी से भाग गए। दिल्ली में तैमूर पहले उलेमा द्वारा अनुरोध पर नागरिकों को क्षमा करने के लिए सहमत हो गया, लेकिन नागरिकों द्वारा जब तैमूर के सैनिकों के अत्याचारी व्यवहार का विरोध किया गया, तो उसने नरसंहार और लूट का आदेश दे दिया। यह कई दिनों के लिए जारी रहा, जिसमें हज़ारों मारे गए, हज़ारों गुलाम बना लिए गए, और शहर की पूरी संपत्ति लूट ली गई।
तैमूर पंद्रह दिनों के लिए दिल्ली में रहा और अपार संपत्ति लूटी। अपने वापसी के रास्ते पर उसने फिरोज़ाबाद, मेरठ, हरिद्वार, कांगड़ा और जम्मू को लूटा। वह भारत में असीमित तबाही लाया। वह जहाँ भी गया, सब कुछ पूरी तरह से नष्ट कर दिया। हजारों गांव जला दिए गए, लाखों लोग मारे गए और सभी शहरों को बुरी तरह से लूट लिया गया। तैमूर ने दिल्ली सल्तनत और तुगलक वंश को नष्ट कर दिया। पुरुषों और महिलाओं के इस महान नासमझ कातिल ने भारत छोड़ने से पहले, खिज़्र खान को मुल्तान, लाहौर और देपालपुर के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया।
तैमूर के आक्रमण से एक बार फिर से भारत में एक कमजोर सरकार के खतरों का पता चला। इससे भारत से बड़ी मात्रा में संपत्ति, सोना, चांदी, आभूषण, आदि का ह््रास हुआ। तैमूर, बड़ी संख्या में राजमिस्त्री, पत्थर काटने वाले, बढ़ई, आदि भारतीय शिल्पकारों को भी अपने साथ ले गया। उनमें से कुछ ने उसकी राजधानी, समरकंद में कई आलीशान निर्माणों में मदद की। लेकिन तैमूर के भारत आक्रमण का प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभाव ज्यादा नहीं था। तैमूर का आक्रमण दिल्ली के सुल्तानों के मजबूत शासन के अंत के रूप में माना जा सकता है, हालांकि, तुगलक वंश 1412 तक घिसटता रहा।
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