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खलजी (खिलजी) और तुग़लक़ भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
1286 में बलबन की मृत्यु के बाद, दिल्ली में कुछ समय के लिए फिर से भ्रम की स्थिति फैल गई। बलबन के चुने हुए उत्तराधिकारी, युवराज मुहम्मद, मंगोलों के साथ एक लड़ाई में पहले ही मारे गए थे। हालांकि, दूसरे बेटे बुघरा खान को सिंहासन संभालने के लिए दिल्ली के प्रधानों द्वारा आमंत्रित किया गया था, लेकिन उसने बंगाल और बिहार पर शासन करने को प्राथमिकता दी। इसलिए, बलबन के पोते को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया गया। लेकिन वह स्थिति से निपटने के लिए युवा और अनुभवहीन था। उच्च पदों पर तुर्की रईसों के एकाधिकार के प्रयास के संदर्भ में भी काफी असंतोष और विरोध का माहौल था। खिलजी जैसे कई गैर तुर्क घुरड़ (गोरी) आक्रमण के समय भारत आये थे। उन्हें दिल्ली में कभी भी पर्याप्त मान्यता नहीं मिली थी, और उन्नति के अवसर के लिए उन्हें बंगाल और बिहार स्थानांतरित होना पड़ा। उन्हें सैनिकों के रूप में रोजगार भी मिल गया था, व उनमें से कई मंगोल चुनौती का सामना करने के लिए उत्तर पश्चिम में तैनात किये गए थे। समय के साथ कई भारतीय मुसलमानों को कुलीन वर्ग में दाखिल किया गया था। जिस तरीके से इमादुद्दीन रैहन को बलबन के खिलाफ खड़ा किया गया था इससे अनुमान लगाया जा सकता है, कि वे भी उच्च पदों पर अनदेखी से असंतुष्ट थे। नसीरुद्दीन महमूद के बेटों को एक तरफ हटाने के बलबन के स्वयं के उदाहरण ने दिखा दिया था कि कुलीनों और सेना का पर्याप्त समर्थन हो, तो एक स्थापित राजवंश के वंशज को हटा कर एक सफल सेनापति सिंहासन पर आरूढ़ हो सकता है।
2.0 खलजी वंश (1290-1320)
इन्ही कारणों से, जलालुद्दीन खलजी (उत्तर पश्चिम के अभियानों का वार्डन, जो मंगोलों के खिलाफ कई सफल लड़ाइयां लड़ा था) के नेतृत्व में खलजी कुलीनों के एक समूह ने 1290 में बलबन के अयोग्य उत्तराधिकारियों को उखाड़ फेंका। कुलीनों के गैर-तुर्की वर्गों द्वारा खलजी विद्रोह का स्वागत किया गया। खिलजियों ने तुर्कों को उच्च पदों से बहिष्कृत नहीं किया, किन्तु सत्ता में खिलजियों के उदय से उच्च पदों पर तुर्की एकाधिकार समाप्त हो गया।
2.1 जलालुद्दीन खिलजी (खलजी)
जलालुद्दीन खिलजी (खलजी) ने छह साल की एक संक्षिप्त अवधि के लिए ही शासन किया। उसने बलबन के शासन के कुछ कठोर पहलुओं को मंद करने की कोशिश की। वह दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था, जिसने स्पष्ट रूप से यह विचार प्रकट किया कि राज्य का आधार शासितों का समर्थन होना चाहिए, और चूँकि भारत में बहुसंख्य लोग हिंदू थे, इसलिए भारत का राज्य एक इस्लामी राज्य नहीं हो सकता। उसने सहिष्णुता और कठोर दंड से बचने की नीति द्वारा कुलीनों से कुछ सद्भावना हासिल करने की कोशिश की। हालांकि, उसके समर्थकों सहित कई लोगों ने इसे एक कमजोर नीति माना, जो समय के हिसाब से उपयुक्त नहीं थी। दिल्ली सल्तनत को कई आंतरिक और बाहरी दुश्मनों का सामना करना पड़ा, और इस कारण असुरक्षा की भावना बनी हुई थी। जलालुद्दीन की नीति को बाद में अलाउद्दीन ने उलट दिया, और उसका विरोध करने का साहस करने वाले सभी को कठोर दंड़ दिया।
2.2 अलाउद्दीन खिलजी
अलाउद्दीन खिलजी (1296-1314) विश्वासघात से अपने चाचा और ससुर जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करके सिंहासन पर बैठ गया। अवध के प्रशासक के रूप में, अलाउद्दीन ने डेक्कन (दक्कन) के देवगीर (देवगिरि) पर हमला करके एक विशाल खजाना जमा किया था। इस खजाने को हथियाने की उम्मीद से जलालुद्दीन अपने भतीजे से मिलने कारा गया था। उसका भतीजा डर कर भाग ना जाये, इसलिए उसने अपनी अधिकांश सेना को पीछे छोड़ दिया, और अपने कुछ अनुयायियों के साथ गंगा नदी को पार किया। परंतु अपने चाचा की हत्या के बाद, अलाउद्दीन ने सोने का उदार उपयोग करके अधिकांश प्रधानों और सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया।
कुछ समय के लिए, अलाउद्दीन को विद्रोह की एक श्रृंखला का सामना करना पड़ा, कुछ असंतुष्ट प्रधानों के, और कुछ अलाउद्दीन के स्वयं के सम्बन्धियों के। अपने विरोधियों को आतंकित करने हेतु अलाउद्दीन खलजी ने अत्यंत क्रूर और निर्मम तरीकों को अपनाया। जिन प्रधानों ने सोने के लालच में उसकी ओर पाला बदल लिया था, उनमे से अधिकांश को मार डाला या हटा दिया गया, और उनकी संपत्तियों को जब्त कर लिया गया। अपने ही परिवार के विद्रोही सदस्यों को कड़े दंड दिए गए। उसने मंगोलों के विरुद्ध थोक में नरसंहार का सहारा लिया, जिनमें से दो हजार (लगभग) जलालुद्दीन के समय में इस्लाम अपनाने के बाद दिल्ली में बस गए थे। इन नए धर्मान्तरितों ने विद्रोह किया था, और वे गुजरात की लूट में एक बड़े हिस्से की मांग कर रहे थे। यहां तक कि, अलाउद्दीन ने इन विद्रोहियों की पत्नियों और बच्चों को कठोर दंड़ दिया। इतिहासकार बरनी के अनुसार, यह एक नई प्रथा थी, जो उसके उत्तराधिकारियों द्वारा जारी रखी गयी थी। अलाउद्दीन ने, प्रधानों को उसके खिलाफ साजिश रचने से रोकने के लिए नियमों की एक श्रृंखला तैयार की। उन्हें सुल्तान की अनुमति के बिना भोज या उत्सव आयोजित करने या शादी के संबंध बनाने के लिए मनाही थी। उत्सव की पार्टियों को हतोत्साहित करने के लिए, उसने शराब और मादक द्रव्यों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। कुलीन क्या कहते थे, व क्या करते थे, यह सभी सुल्तान (स्वयं) को सूचित करने के लिए उसने एक जासूसी सेवा की शुरूआत की।
इन कठोर तरीकों से, अलाउद्दीन खिलजी ने प्रधानों को भयाक्रांत करके उन्हें दबा दिया और उन्हें पूरी तरह से अधीन कर दिया। उसके जीवनकाल के दौरान आगे कोई विद्रोह नहीं हुआ। लेकिन, लंबे समय में, उसके तरीके राजवंश के लिए हानिकारक साबित हुए। पुराने कुलीन नष्ट हो गए थे और नए कुलीनों को, जो दिल्ली के सिंहासन बैठता था उसे स्वीकार करना सिखाया गया था। 1316 में अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद यह स्पष्ट हो गया। उसके पसंदीदा मलिक काफूर ने अलाउद्दीन के एक नाबालिग बेटे को सिंहासन पर बिठाया, और उसके अन्य पुत्रों को कैद कर लिया या अंधा बना दिया, और प्रधानों ने कोई विरोध नहीं किया। इस के बाद, जल्दी ही महल के रक्षकों ने काफूर को मार डाला, और एक हिंदू धर्मान्तरित खुसरो, गद्दी पर बैठा। हालांकि, उस समय के इतिहासकार खुसरो पर इस्लाम विरोधी और सभी प्रकार के अपराध करने का आरोप लगाते हैं, फिर भी तथ्य यह है कि खुसरो पूर्ववर्ती सम्राटों में से किसी से भी बदतर नहीं था। न ही उसके खिलाफ मुस्लिम प्रधानों या दिल्ली की आबादी के द्वारा खुला रोष था या आवाज उठाई गई थी। यहां तक कि दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने उसके उपहार को स्वीकार कर खुसरो को मान्य किया। इसका एक सकारात्मक पहलू भी था। इससे पता चलता है कि दिल्ली और आसपास के इलाकों के मुसलमान अब नस्लवादी विचारों में बहने वाले नहीं थे और किसी भी परिवार या जातीय पृष्ठभूमि के बावजूद किसी को भी मानने के लिए तैयार थे। इससे कुलीनों के सामाजिक आधार का विस्तार करने में मदद हुई। हालांकि, 1320 में, गियासुद्दीन तुगलक के नेतृत्व में, अधिकारियों के एक समूह ने बगावत का झंडा उठाया। उन्होंने खुला विद्रोह कर दिया और राजधानी के बाहर एक कठिन संघर्षपूर्ण लड़ाई में, खुसरो को हरा दिया और मार डाला।
3.0 तुगलक (1320-1412)
गियासुद्दीन तुगलक ने एक नए राजवंश की स्थापना की, जिसने 1412 तक शासन किया। तुग़लकों ने तीन सक्षम शासक प्रदान किये-गियासुद्दीन, उसका बेटा मुहम्मद बिन तुगलक (1324-1351), और उसका भतीजा फिरोज शाह तुगलक (1351-1388)। इन सुल्तानों में से पहले दो ने एक ऐसे साम्राज्य पर शासन किया, जो लगभग पूरे देश में फैला हुआ था। फिरोज का साम्राज्य छोटा था, लेकिन फिर भी यह अलाउद्दीन खिलजी द्वारा शासित साम्राज्य के लगभग बराबर था। फिरोज की मृत्यु के बाद, दिल्ली सल्तनत विघटित हो गई और उत्तर भारत छोटे राज्यों की एक श्रृंखला में विभाजित हो गया। हालांकि, तुगलक शासन 1412 तक जारी रहा, फिर भी 1398 में तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण तुगलक साम्राज्य का अंत कहा जा सकता है।
4.0 खलजी और तुगलक के तहत दिल्ली सल्तनत का विस्तार
अजमेर और उसके कुछ पड़ोसी प्रदेशों सहित पूर्वी राजस्थान, दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में आ गया था, हालांकि, बलबन के समय से रणथम्भौर, जो सबसे शक्तिशाली राजपूत राज्य था, उसके नियंत्रण से बाहर चला गया था। जलालुद्दीन ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया, लेकिन वह, उसके लिए बहुत मुश्किल काम साबित हुआ। इस प्रकार, दक्षिणी और पश्चिमी राजस्थान, सल्तनत के नियंत्रण के बाहर बना रहा था।
अलाउद्दीन खिलजी के सत्ता में आने के साथ, एक नई स्थिति उत्पन्न हुई। 25 वर्षों के भीतर, दिल्ली सल्तनत की सेनाओं ने, न केवल गुजरात और मालवा को अपने नियंत्रण में लाया और राजस्थान के ज्यादातर राजाओं को वश में किया, बल्कि डेक्कन और दक्षिण भारत में मदुरै तक पदाक्रांत किया। नियत समय में, इस विशाल क्षेत्र को सीधे दिल्ली के प्रशासनिक नियंत्रण में लाने का प्रयास हुआ। विस्तार का यह नया चरण अलाउद्दीन खिलजी द्वारा शुरू किया गया, उसके उत्तराधिकारियों द्वारा जारी रखा गया, और अपने चरमोत्कर्ष पर मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल के दौरान पहुँचा।
इस समय, मालवा, गुजरात और देवगीर (देवगिरि) राजपूत राजवंशों द्वारा शासित थे, जिनमें से अधिकांश बारहवीं शताब्दी के अंत और तेरहवीं शताब्दी की शुरुआत में अस्तित्व में आये थे। गंगा घाटी में तुर्की शासन की स्थापना के बावजूद, इन राजवंशों ने अपने पुराने तरीकों में शायद ही कोई परिवर्तन किये। इसके अलावा, उनमें से हर एक पूरे क्षेत्र पर वर्चस्व के लिए प्रयत्नशील था। इतना कि, जब तुर्कों ने इल्तुतमिश के तहत गुजरात पर हमला किया, तो मालवा और देवगीर (देवगिरि), दोनों के शासकों ने इस पर दक्षिण से हमला किया। मराठा क्षेत्र में देवगीर (देवगिरि) के शासक तेलंगाना क्षेत्र में वारंगल और कर्नाटक क्षेत्र में होयसाल के साथ लगातार युद्ध में थे। वहीं होयसाल माबर में अपने पड़ोसियों पंड्या (तमिल क्षेत्र) के साथ युद्ध की स्थिति में थे।
इस प्रतिद्वंद्विता ने न केवल मालवा और गुजरात की विजय को आसान बनाया, बल्कि आक्रमणकारी को आगे और आगे जाने के लिए प्रेरित किया। तुर्की शासकों का मालवा और गुजरात के प्रति लालच के लिए मजबूत कारण था। ये क्षेत्र केवल उपजाऊ और अधिक जनसंख्या वाले ही नहीं थे, बल्कि वे पश्चिमी समुद्री बंदरगाहों और गंगा घाटी के साथ उन्हें जोड़ने के व्यापार मार्गों को नियंत्रित भी करते थे। गुजरात के बंदरगाहों से विदेशी व्यापार, पर्याप्त मात्रा में सोना और चांदी लाता था, जो क्षेत्र के शासकों द्वारा जमा किया गया था। गुजरात में उनके शासन की स्थापना के लिए दिल्ली के सुल्तानों के लिए एक अन्य कारण यह था कि यह उन्हें अपनी सेनाओं के लिए घोड़ों की आपूर्ति पर बेहतर नियंत्रण के लिए सही लगता था। मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के उदय के साथ, और दिल्ली के शासकों के साथ उनके संघर्ष में, इस क्षेत्र से दिल्ली के लिए अच्छी गुणवत्ता के घोड़ों की आपूर्ति कठिनाइयों से घिर गई थी। पश्चिमी समुद्री बंदरगाहों से भारत के लिए अरबी, इराकी और तुर्की घोड़ों का आयात आठवीं सदी के बाद से, व्यापार का एक महत्वपूर्ण मद हो गया था।
प्रारंभिक 1299 में, अलाउद्दीन खिलजी के दो विख्यात सेनापतियों के नेतृत्व में एक सेना ने राजस्थान के रास्ते से गुजरात के विरुद्ध कूच किया। रास्ते में, उन्होंने जैसलमेर पर भी छापा मारा और कब्जा कर लिया। गुजराती शासक राय करण के लिए यह अप्रत्याशित था और वह सामना किये बिना ही भाग गया। अनहिलवाड़ा सहित, जहां कई खूबसूरत इमारतों और मंदिरों का पीढ़ियों से निर्माण किया गया था, गुजरात के मुख्य शहरों को तहस नहस कर दिया गया। बारहवीं सदी में पुनर्निर्मित सोमनाथ का प्रसिद्ध मंदिर भी लूट लिया गया और तहस नहस कर दिया गया। भारी लूट एकत्र की गई थी। खंभात के धनी मुस्लिम व्यापारियों को भी नहीं बख्शा गया। यही वह जगह थी जहां मलिक काफूर को बंदी बनाया गया, जिसने दक्षिण भारत के आक्रमण का नेतृत्व किया। उसे अलाउद्दीन के समक्ष प्रस्तुत किया गया, और जल्द ही वह उसकी नज़रों में चढ़ गया।
गुजरात अब दिल्ली के नियंत्रण में आ गया था। जिस तेजी और आसानी के साथ गुजरात पर विजय प्राप्त की गई, उससे पता चलता है कि गुजरात शासक अपनी प्रजा के बीच लोकप्रिय नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका एक मंत्री जो उससे अलग हो गया था, उसने गुजरात पर आक्रमण करने के लिए अलाउद्दीन से संपर्क किया था, और उसे मदद की थी। हो सकता है, कि गुजराती सेना भी अच्छी तरह से प्रशिक्षित नहीं हो और प्रशासन ढ़ीला हो। देवगीर के शासक रामचंद्र की मदद से अपदस्थ शासक राय करण, दक्षिण गुजरात के एक हिस्से पर पकड़ बनाये रखने में कामयाब रहा।
4.1 राजस्थान
गुजरात की विजय के बाद, अलाउद्दीन ने राजस्थान पर अपने शासन की मजबूती की ओर ध्यान दिया। सबसे पहले उसका ध्यान रणथम्भौर की ओर आकर्षित हुआ, जो पृथ्वीराज के चौहान उत्तराधिकारियों द्वारा शासित था। इसके शासक, हमीर देव ने, अपने पड़ोसियों के विरुद्ध जंगी अभियानों की एक श्रृंखला शुरू की थी। उसे धार के राजा भोज और मेवाड़ के राणा के विरुद्ध जीत का श्रेय जाता है। परन्तु ये विजय ही उसके नाश का कारण बनी। गुजरात अभियान के बाद दिल्ली के लिए वापसी के रास्ते पर, लूट की हिस्सेदारी के एक विवाद को लेकर मंगोल सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह को कुचल दिया गया, और इसकी परिणति बड़े पैमाने पर नरसंहार में हुई। दो मंगोल सरदार शरण के लिए रणथम्भौर भाग गए।
अलाउद्दीन ने मंगोल सरदारों को मारने या निष्कासित करने के लिए हमीर देव को संदेश भेजा। परन्तु हमीर देव ने शरणागत के प्रति गरिमा और दायित्व की एक उच्च भावना, और अपने किले और अपनी सेनाओं की ताकत पर पूरा भरोसा करके अहंकारी जवाब भेजे। वह अपने आकलन में गलत भी नहीं था, क्योंकि रणथम्भौर राजस्थान में सबसे मजबूत किला माना गया था और पहले जलालुद्दीन खिलजी को भी निराश कर चुका था। अलाउद्दीन ने अपने प्रतिष्ठित सेनापतियों में से एक की कमान में एक सेना भेजी लेकिन हमीर देव ने उसे भारी नुकसान के साथ खदेड़ दिया। अंत में, अलाउद्दीन को खुद रणथम्भौर के खिलाफ कूच करना पड़ा। अलाउद्दीन के साथ प्रसिद्ध कवि, अमीर खुसरो थे, जिन्होंने घेराबंदी का एक शब्द शः विवरण दिया है। घेराबंदी के करीब तीन महीने बाद, भयभीत करने वाली जौहर की रस्म हुई, महिलाएं चिता में चढ़ गईं, और सभी पुरुष अंतिम युद्ध के लिए बाहर निकले। यह फारसी में जौहर का हमारे पास पहला वर्णन है। सभी मंगोल भी, राजपूतों के साथ लड़ते हुए मारे गए। यह घटना 1301 में हुई थी।
रणथम्भौर के बाद, अलाउद्दीन का अगला लक्ष्य चित्तौड़ था, जो रणथम्भौर के बाद, राजस्थान का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था। इसलिए, इसे वश में करना अलाउद्दीन के लिए जरूरी हो गया था। इसके अलावा, इसके शासक रतन सिंह ने, गुजरात कूच के लिए उसकी सेनाओं को मेवाड़ प्रदेशों से अनुमति देने से इनकार करके उसे नाराज किया था। चित्तौड़ अजमेर से मालवा तक के मार्ग पर भी हावी था। एक लोकप्रिय दंतकथा है कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर हमला इसलिए किया क्योंकि वह रतन सिंह की सुंदर रानी पद्मिनी को चाहता था। कई आधुनिक इतिहासकार इस कथा को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि इसका उल्लेख पहली बार एक सौ साल से अधिक बाद किया गया है। इस कहानी में, पद्मिनी सिंघल द्वीप की राजकुमारी है और रतन सिंह उस तक पहुँचने के लिए सात समंदर पार करके कई साहसिक कारनामों के बाद उसे वापस चित्तौड़ लाता है, जो असंभव दिखाई देते हैं। पद्मिनी दंतकथा इस विवरण का एक हिस्सा है।
घिरे हुए लोगों द्वारा कई महीनों के अथक प्रतिरोध के बाद, अलाउद्दीन ने 1303 में चित्तौड़ के किले पर धावा बोल दिया। राजपूतों ने जौहर का प्रदर्शन किया और अधिकांश योद्धा लड़ते हुए मारे गए। परन्तु ऐसा लगता है कि रतन सिंह जिंदा पकड़े गए और उन्हें बंदी रखा गया था। चित्तौड़ अलाउद्दीन के नाबालिग बेटे खिज़्र खान को सौंप दिया गया, और किले में एक मुस्लिम चौकी तैनात की गई। कुछ समय के बाद, इसका प्रभार रतन सिंह के चचेरे भाई को सौंप दिया गया।
अलाउद्दीन ने गुजरात मार्ग पर बसे जालोर को भी कुचला। राजस्थान के लगभग सभी अन्य प्रमुख राज्यों को समर्पण करने के लिए मजबूर किया गया। हालांकि, ऐसा लगता है कि उसने राजपूत राज्यों में सीधे प्रशासन स्थापित करने की कोशिश नहीं की। राजपूत शासकों को शासन की अनुमति दी गई, लेकिन उन्हें नियमित रूप से नज़राना देना और सुल्तान के आदेशों का पालन करना आवश्यक था। अजमेर, नागौर आदि जैसे महत्वपूर्ण शहरों में मुस्लिम चौकियां तैनात की गईं। इस प्रकार, राजस्थान को पूरी तरह से वश में किया गया।
4.2 दक्कन और दक्षिण भारत
राजस्थान की अधीनता को पूरा करने से पहले अलाउद्दीन ने मालवा पर विजय प्राप्त की, जो अमीर खुसरो कहते हैं, इतना व्यापक था, कि बुद्धिमान भूगोलविद भी इसकी सीमाओं को परिसीमित करने में असमर्थ थे। राजस्थान के विपरीत, मालवा प्रत्यक्ष प्रशासन के तहत लाया गया था, और एक प्रशासक उसकी देखभाल के लिए नियुक्त किया गया था।
1306-07 में, अलाउद्दीन दो अभियानों की योजना बनाई। पहला राय करण के विरुद्ध था, जो गुजरात से अपने निष्कासन के बाद, मालवा की सीमा पर बगलाना क्षेत्र को पकड़े हुए था। राय करण बहादुरी से लड़े, लेकिन वह लंबे समय के लिए रोक नहीं सके। दूसरा अभियान देवगीर (देवगिरि) के शासक राय रामचंद्र के विरुद्ध था, जो राय करण के साथ गठबंधन में था। पहले के एक अभियान में, राय रामचंद्र दिल्ली को एक वार्षिक नज़राना देने के लिए सहमत हुए थे। यह बकाया था। दूसरी सेना की कमान अलाउद्दीन के गुलाम, मलिक काफूर को सौंपी गई। राय रामचंद्र, जिन्होंने काफूर के समक्ष आत्मसमर्पण किया, उनसे सम्मानजनक ढंग से व्यवहार किया गया और दिल्ली ले जाया गया, जहां कुछ समय बाद, उन्हें राय रायन की उपाधि के साथ उनके क्षेत्र में बहाल किया गया। एक लाख टंका के उपहार के साथ उसे एक सुनहरे रंग का चंदवा (शामियाना) दिया गया था, जो शासन का प्रतीक था। उसे गुजरात का एक जिला भी दिया गया था। उनकी एक बेटी की शादी अलाउद्दीन से की गई थी। राय रामचंद्र के साथ गठबंधन डेक्कन में उसकी आगे की उन्नति में अलाउद्दीन के लिए मूल्यवान साबित होने वाला था।
1309 और 1311 के बीच, मलिक काफूर ने दक्षिण भारत में दो अभियानों का नेतृत्व किया-पहला तेलंगाना क्षेत्र में वारंगल के विरुद्ध और दूसरा द्वार समुद्र और मालाबार (आधुनिक कर्नाटक) और मदुरै (तमिलनाडु) के विरुद्ध। इन अभियानों के बारे में काफी कुछ लिखा गया है, आंशिक रूप सक इसलिए क्योंकि इन्होंने समकालीनों की कल्पना को उत्तेजित किया है। दरबारी कवि, अमीर खुसरो ने उन्हें एक किताब का विषय बनाया है। ये अभियान साहस, आत्मविश्वास और दिल्ली के शासकों की ओर से साहस की भावना की एक उच्च श्रेणी परिलक्षित करते हैं। पहली बार, मुस्लिम सेनाएं दूर दक्षिण में मदुरै जैसे क्षेत्र में प्रवेश कर गईं और अनकही दौलत लेकर वापस लौटीं। उन्होंने दक्षिण की स्थिति के बारे में अद्ययावत जानकारी प्रदान की, हालांकि, उन्होंने शायद ही कोई ताजा भौगोलिक ज्ञान प्रदान किया। दक्षिण भारत के व्यापार मार्गों की अच्छी जानकारी थी, और जब काफूर की सेनाएं मालाबार में पाटन पहुंची, उन्हें वहाँ मुस्लिम व्यापारियों की एक बस्ती मिली। शासक की सेना में मुस्लिम सैनिकों की एक टुकड़ी भी थी। इन अभियानों ने सार्वजनिक आकलन में काफूर का कद काफी ऊंचा उठाया, और अलाउद्दीन ने उसे मलिक-नायब, या साम्राज्य का उप राज-प्रतिनिधि नियुक्त किया।
हालांकि, राजनीतिक दृष्टि से इन अभियानों के प्रभाव सीमित थे। काफूर ने वारंगल और द्वार समुद्र के शासकों को शांति के लिए याचना, उनके सभी खजाने और हाथियों का समर्पण और एक वार्षिक नज़राने का वादा करने के लिए मजबूर कर दिया। परंतु यह ज्ञात था कि इन नजरानों को सुरक्षित करने के लिए वार्षिक अभियान की जरूरत होगी। मालाबार के मामले में इस औपचारिक समझौते का भी पालन नहीं हो रहा था। वहाँ के शासक एक घमासान युद्ध से बचे थे। काफूर, चिदंबरम (आधुनिक मद्रास के निकट) जैसे कई धनी मंदिरों सहित जितना लूट सकता था, को लूटता रहा। परंतु, तमिल सेनाओं को पराजित किये बिना उसे दिल्ली लौटना पड़ा।
अलाउद्दीन की मौत से उपजी परेशानियों के बावजूद, उसकी मौत के डेढ़ दशक के भीतर उपरोक्त सभी दक्षिणी राज्यों का सफाया कर दिया गया, और उनके क्षेत्रों को दिल्ली के प्रत्यक्ष प्रशासन के तहत लाया। अलाउद्दीन स्वयं दक्षिणी राज्यों के सीधे प्रशासन के पक्ष में नहीं था। हालांकि, इस नीति में परिवर्तन उसके अपने जीवनकाल में शुरू हो गया था। 1315 में राय रामचंद्र की मृत्यु हो गई, जो दिल्ली के लिए लगातार वफादार बना रहा था, और उसके पुत्रों ने दिल्ली की बेड़ियों को दूर फेंक दिया। मलिक काफूर शीघ्रता से आया और विद्रोह को कुचल दिया और क्षेत्र का प्रत्यक्ष प्रशासन ग्रहण किया। हालांकि, कई दूरस्थ क्षेत्रों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया, जबकि कुछ राय वंश के नियंत्रण में रहे।
सिंहासन पर आरूढ़ होने पर, मुबारक शाह ने फिर से देवगिरि को वश में कर लिया, और वहां एक मुस्लिम गवर्नर (प्रशासक) अधिष्ठापित किया। उसने वारंगल पर भी छापा मारा, और उसके जिलों में से एक हवाले करने और 40 सोने की ईंटों का एक वार्षिक नज़राना देने के लिए शासक को मजबूर किया। सुल्तान के एक गुलाम, खुसरो खान, ने मालाबार में जबर्दस्त हमला किया पाटन के समृद्ध शहर को लूट कर तहस नहस कर दिया। क्षेत्र में कोई विजय अभियान नहीं किया गया।
1320 में गियासुद्दीन तुगलक के राज्यभिषेक के बाद एक निरंतर और जोरदार ‘आगे की नीति‘ पर काम शुरू किया गया था। इस उद्देश्य के लिए सुल्तान के बेटे, मुहम्मद बिन तुगलक को देवगिरि में तैनात किया गया। वारंगल के शासक ने निर्धारित नज़राने का भुगतान नहीं किया था इस बहाने मुहम्मद बिन तुगलक ने फिर से वारंगल को घेर लिया। पहली बार उसे हार का सामना करना पड़ा। दिल्ली के सुल्तान की मौत की एक अफवाह के बाद, दिल्ली सेना बेतरतीब हो गयी और रक्षकों ने उन्हें भारी नुकसान पहुंचाया।
मुहम्मद बिन तुगलक को पीछे देवगिरि तक हटना पड़ा। अपनी सेनाओं का पुनर्गठन करने के बाद, उसने फिर से हमला किया, और इस बार राय को कोई मौका नहीं दिया। इस के बाद मालाबार को जीता गया और इस पर भी कब्जा कर लिया। मुहम्मद बिन तुगलक ने फिर उड़ीसा पर छापा मारा, और समृद्ध लूट के साथ दिल्ली लौट आया। अगले वर्ष, उसने बंगाल को वश में किया, जो बलबन की मौत के बाद से स्वतंत्र था।
इस प्रकार 1324 तक, दिल्ली सल्तनत का क्षेत्र मदुरै तक पहुंच गया। क्षेत्र की आखरी हिन्दू रियासत, दक्षिण कर्नाटक के कम्पिली पर 1328 में कब्जा कर लिया था। मुहम्मद बिन तुगलक का एक चचेरा भाई, जिसने विद्रोह किया था, उसे वहां शरण दी गई थी। इस प्रकार, हमला करने के लिए एक सुविधाजनक बहाना प्रदान कर दिया।
दिल्ली सल्तनत के, दूर दक्षिण और पूर्व में उड़ीसा तक अचानक विस्तार ने, मुहम्मद बिन तुगलक के लिए जबरदस्त प्रशासनिक और वित्तीय समस्याएं पैदा की।
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