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भारत में भक्तिवाद और सूफी मत भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति छठी शताब्दी ई. में दक्षिण भारत में हुई। यह मध्ययुगीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, और समाज में यह मौन क्रांति सामाजिक, धार्मिक सुधारकों की एक आकाशगंगा द्वारा लायी गई थी। इस क्रांति को भक्ति आंदोलन के रूप में जाना जाता है।
हिंदू परंपरा आम तौर पर अपने लंबे विकास के दौरान महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और धार्मिक कालखंडों में विभाजित की गई है। 2500-400 ईसा पूर्व की प्रारंभिक कालावधि वेदों के रूप में पवित्र ग्रंथों और इंडो-आर्य नामक खानाबदोश लोगों द्वारा जानी जाती है। इस कालखंड को वैदिक काल के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
वेदों के केंद्र में दूरदर्शी व्यक्तित्व ‘ऋषि‘ या ‘दृष्टा‘ हुआ करते थे, ऐसे व्यक्ति जो अनुष्ठान की एक जटिल प्रणाली के माध्यम से (जो केवल एक शक्तिशाली पुजारी द्वारा संपन्न की जा सकती थी) वैदिक विश्व देवालय के विभिन्न देवताओं के साथ संवाद करने में सक्षम थे। मुक्ति, या मोक्ष, अनुष्ठान के सटीक निष्पादन से पायी जा सकती थी।
400 ईसा पूर्व से 600 ईस्वी के कालखंड को महाकाव्य और शास्त्रीय काल कहा जाता है क्योंकि इस कालखंड में महत्वपूर्ण ग्रंथों, अर्थात्, महाभारत और रामायण पर ध्यान केंद्रित किया गया था। ये महाकाव्य नायकों और वीरतापूर्ण लड़ाइयों, राजाओं, रानियों और व्यक्तियों की आदर्श भूमिकाओं के साथ संबंधित हैं। इसके अलावा इस कालावधि में समाज के आदर्श स्वभाव संबंधित नियमों की किताबें केंद्रीय महत्व की थीं। सामाजिक व्यवस्था और स्थिरता लोगों के एक पदानुक्रमित अनुक्रम में निहित थी, साथ ही प्रत्येक व्यक्ति की जीवन अवस्था (आश्रम) और समाज में स्थिति (वर्ण) या जाति द्वारा दी गई विशिष्ट भूमिकाओं में पायी जाती थी। इस प्रणाली की ऊपरी सीढ़ी पर ब्राह्मण पुजारी वर्ग था, इसके बाद क्षत्रिय (योद्धा) और वैश्य (व्यापारी) थे, जिन्हें द्विज वर्गों के रूप में भी जाना जाता है। केवल ये समूह एक दीक्षा समारोह रूप में ‘‘यज्ञोपवीत,‘‘ वेदों का अध्ययन करने और वैदिक अनुष्ठानों में भाग लेने के लिए सक्षम थे। इन तीन समूहों के नीचे शूद्र थे, जो ऊपरी तीन वर्णों के नौकर थे। इस सीढ़ी के नीचे एक और उपधारा आती थी ‘अछूत‘, जिनके व्यवसाय इतने निकृष्ट माने जाते थे कि वे एक क्रमबद्ध समाज में सम्मिलित होने के योग्य नहीं समझे जाते थे। पुनर्जन्म से मुक्ति या मोक्ष के लिए रास्ता धर्म, मान्यता और सामाजिक व्यवस्था के अच्छे रखरखाव के सही समझ में था, जैसा महाकाव्यों और नियमों की पुस्तकों द्वारा उद्धरित और नियंत्रित किया गया था।
यह आंदोलन भारतीय उपमहाद्वीप के हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों द्वारा देवताओं की पूजा के साथ जुड़े कई संस्कार और अनुष्ठानों के लिए जिम्मेदार था। उदाहरण के लिए, एक हिंदू मंदिर पर कीर्तन, दरगाह पर कव्वाली (मुसलमानों द्वारा), और एक गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन सभी मध्यकालीन भारत के भक्ति आंदोलन (800-1700) से व्युत्पन्न हैं। इस हिंदू पुनरुत्थानवादी आंदोलन के नेता शंकराचार्य, एक महान विचारक और एक प्रतिष्ठित दार्शनिक थे। और यह आंदोलन चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, और जयदेव द्वारा प्रतिपादित था। आंदोलन की प्रमुख उपलब्धि मूर्ति पूजा का उन्मूलन थी। राम के रूप में भगवान पर ध्यान केंद्रित करने वाले भक्ति आंदोलन के नेता रामानंद थे। उनके बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, लेकिन ऐसा विश्वास है कि वे 15 वीं सदी के पूर्वार्ध के थे। उन्होंने सिखाया कि भगवान राम सर्वोच्च भगवान हैं, और कहा कि मोक्ष उनसे प्रेम और उनकी भक्ति के माध्यम से, और उनके पवित्र नाम को दोहराने से प्राप्त किया जा सकता था। चैतन्य महाप्रभु 16 वीं सदी के बंगाल में एक तपस्वी हिन्दू साधु और समाज सुधारक थे। भगवान के लिए प्रेम, अर्थात् भक्ति योग, के एक महान प्रस्तावक चैतन्य ने कृष्ण के रूप में भगवान की पूजा की। श्री रामानुज आचार्य एक भारतीय दार्शनिक थे और श्री वैष्णव मत के सबसे महत्वपूर्ण संत के रूप में मान्यता प्राप्त है। रामानंद उत्तरी भारत के लिए वह लाये, जो रामानुज ने दक्षिण भारत में किया।
उन्होंने रूढी़वादी पंथ के बढ़ते औपचारिकतावाद के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई और प्रेम और भक्ति के उपदेश पर आधारित एक नए वैष्णव पंथ की स्थापना की। अपने अनुयायियों के बीच जाति भेद के उन्मूलन में उनका सबसे उत्कृष्ट योगदान है। 12 वीं और 13 वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन के अनुयायियों में भगत नामदेव, और संत कबीर दास जैसे संत शामिल थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भगवान के भजन व भक्ति गायन पर जोर दिया। पहले सिख गुरु और सिख धर्म के संस्थापक, गुरु नानक भी एक निर्गुण भक्ति संत और समाज सुधारक थे। उन्होंने जाति के सभी भेदों, साथ ही साथ धार्मिक प्रतिद्वंद्विताओं और अनुष्ठानों का विरोध किया। उन्होंने भगवान की एकता का प्रचार किया, और इस्लाम और हिंदू दोनों धर्मों में कर्मकांडवाद की निंदा की। गुरु नानक के उपदेश सभी लोगों के लिए थे। उन्होंने सभी मामलों में उनकी समानता का प्रचार किया।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी कई धार्मिक सुधारकों के उदय की गवाह बनी। वैश्णवों में राम पंथ प्रतिपादक और कृष्ण पंथ प्रतिपादक कई संप्रदायों और पंथों की शाखाओं में विस्तारित हुए। राम पंथ के प्रमुख संत कवि तुलसीदास थे। वह एक बहुत ही महान विद्वान थे और उन्होंने भारतीय दर्शन और साहित्य का गहन अध्ययन किया था। रामचरितमानस नामक उनकी महान कविता (लोकप्रिय रूप में तुलसी-कृत रामायण ) हिंदू श्रद्धालुओं के बीच बहुत लोकप्रिय है। उन्होंने लोगों के सामने श्री राम की छवि सर्वगुण संपन्न, सर्व शक्तिमान, विश्व के प्रभु, और सर्वोच्च वास्तविकता (परब्रह्म) के पूर्णावतार के रूप में प्रस्तुत की। कृष्ण पंथ के अनुयायियों ने 1585 ई. में हरिवंश के तहत राधा बल्लभी संप्रदाय की स्थापना की। सूरदास ने बृज भाषा में ‘सूरसागर‘ की रचना की, जो भगवान कृष्ण और उनकी प्रेयसी राधा के आकर्षण के छंदों से भरा है।
2.0 भक्ति आंदोलन
भक्ति शब्द को दिव्य के लिए ‘‘समर्पण‘‘ या भावुक प्रेम के रूप में परिभाषित किया गया है। मोक्ष या पुनर्जन्म से मुक्ति नियमों, विनियमों या सामाजिक क्रमण के पालन से प्राप्त नहीं होती, वरन् यह प्राप्त होती है दिव्य के प्रति सरल समर्पण के माध्यम से। आंदोलन के भीतर, समकालीन विद्वानों द्वारा बड़े पैमाने पर उपयोगी भेद बनाये गए हैं। एक ओर थे वे संत कवि जिन्होंने ईश्वर का गुणगान छंद रचना द्वारा गुण या आकार अर्थात् “सगुण” रूप में की, और दूसरी ओर थे वे जिन्होंने ईश्वर का गुणगान गुणों के बिना और गुणों से परे ‘‘निर्गुण‘‘ रूप में किया।
हालांकि इन दो शाखाओं के बीच मतभेद वास्तव में महत्वपूर्ण हैं, किंतु उनकी व्यापक समानताओं को कम नहीं किया जा सकता। दोनों ने एकात्म प्रति समर्पण, ईश्वर के लिए रहस्यवादी प्रेम पर ध्यान केंद्रित किया और परमात्मा के साथ एक व्यक्तिगत संबंध पर विशेष ध्यान केंद्रित किया। व्यक्तिगत समर्पण की केन्द्रीयता में उनके विश्वास को देखते हुए, संत कवि अनुष्ठानपालन के कठोर आलोचक थे, जो ब्राह्मण पुजारियों द्वारा पोषित और बनाये गए थे। कई लोगों के लिए, उनकी आलोचना में जाति व्यवस्था भी शामिल थी जो परंपरागत धार्मिक पदानुक्रम का समर्थन करती थी, व जिसमें पदानुक्रम के शीर्ष पर ब्राह्मण होते थे। कई संत कवि, खास तौर पर जब आंदोलन उत्तर की ओर विकसित हुआ, स्वयं निचली जाति वंश के थे। एक और समानता थी, उनके द्वारा उपयोग की गई जनता की स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा। यह अभिजात्य वर्ग के पुजारियों की पवित्र भाषा संस्कृत के विपरीत थी। यह प्रथा भी आंदोलन के केंद्र में स्थित, दिव्य के प्रति आंतरिक, रहस्यवादी और बेहद निजी समर्पण पर लक्षित होने के कारण उपजी थी।
आरंभ में भक्ति, दक्षिण भारत में महान वैष्णव संतों के माध्यम से विकसित हुई, जिन्हें बारह अलवर (6-9 वीं सदी) के रूप में जाना जाता है। शैव मत की भी अपनी भक्ति परंपरा है, और मोटे तौर पर इसी अवधि के दौरान 63 नयनारों (भक्ति कवि) ने गीत लिखे, जो अब थिरुमुरै की बारह पुस्तकों के रूप में संकलित हैं। कुछ ही समय बाद, और विशेष रूप से 1500 ईस्वी से, पूरे उपमहाद्वीप में एक महान भक्ति पुनर्जागरण व्याप्त हो गया। भक्ति संतों ने काफी हद तक वंशानुगत जाति व्यवस्था और निर्धारित अनुष्ठान पर जोर देने को खारिज कर दिया। इसके बजाय उन्होंने नैतिकता, हृदय की पवित्रता और निःस्वार्थ सेवा के दृष्टिकोण की जरूरत पर जोर दिया। वे अक्सर हजारों अनुयायियों को आकर्षित करके गीत, कविता और संगीत के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया करते थे। उनकी वरीयता नियमों की भाषा के बजाय उनकी भावना के लिए थी, जिसने जाहिर तौर पर निचली जाति के कई अनुयायियों को भाग लेने के लिए सक्षम बनाया। इनमें बड़ी संख्या में प्रसिद्ध महिला संत शामिल हैं। भक्ति संतों का काफी प्रभाव वर्तमान समय तक जारी है।
भक्ति विचारधारा के प्रसार के लिए एक बहुत प्रभावी तरीका स्थानीय भाषाओं का उपयोग था। भक्ति संतों ने अपने छंदों की रचना स्थानीय भाषाओं में की। उन्होंने संस्कृत रचनाओं को व्यापक जनसमुदाय के लिए सरल बनाने के लिए उनका अनुवाद किया। इस प्रकार, हमें ज्ञानदेव की रचनाएँ मराठी में, कबीर, सूरदास और तुलसीदास की हिंदी में देखने को मिलती हैं, शंकरदेव असमिया भाषा को लोकप्रिय बनाते हुए दिखते हैं, चैतन्य और चंडीदास अपने संदेश बंगाली में प्रसारित करते, तो मीराबाई हिंदी और राजस्थानी में लिखती दिखती हैं। इसके अलावा, भक्ति कविता कश्मीरी, तेलुगू, कन्नड़, उड़िया, मलयालम, मैथिली और गुजराती में भी रची गई।
भक्ति संतों का मानना था कि मोक्ष सभी के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने ईश्वर के सामने जाति, पंथ या धर्म का कोई भेद नहीं किया। वे स्वयं विविध पृष्ठभूमि से आए थे। रामानंद, जिनके शिष्यों में हिंदू और मुसलमान शामिल थे, स्वयं एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार से थे। उनके शिष्य, कबीर, बुनकर थे। गुरु नानक एक गांव के मुनीम के पुत्र थे, जबकि नामदेव दर्जी थे। संतों ने समानता पर बल दिया, जाति व्यवस्था की अवहेलना की और सांस्थानिक धर्म पर हमला किया। संतों ने स्वयं को विशुद्ध धार्मिक विचारों तक सीमित नहीं किया। उन्होंने सामाजिक सुधारों की भी वकालत की। उन्होंने सती और कन्या भ्रूण हत्या का विरोध किया। महिलाओं को कीर्तन में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। मीराबाई और लल्ला (कश्मीर से) ने छंदों की रचना की, जो आज भी लोकप्रिय हैं। गैर सम्प्रदायवादी भक्ति संतों में सबसे उत्कृष्ट योगदान कबीर और गुरु नानक द्वारा किया गया था। उनके विचार हिंदू और इस्लामी दोनों परंपराओं से लिए गए थे, और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई पाटने के उद्देश्य से रचे गए थे। आईए हम उनके बारे में कुछ विस्तार से पढ़ें।
3.0 वैष्णवमतवादी
3.1 रामानुज
रामानुज का जन्म 1017 ई. के दौरान भारत में हुआ था। ज्योतिषीय गणना के अनुसार, तब सूर्य कर्क राशि में था। उनके माता व पिता, आसुरी केशव और कान्तिमती दोनों, कुलीन परिवारों से थे। रामानुज का बचपन उनके जन्म गांव श्रीपेरुमबुदुर में बीता। 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह रक्षकम्बल के साथ हुआ।
रामानुज का दर्शन विशिष्टद्वैत या सषर्त अद्वैतवाद के रूप में जाना गया। तदनुसार, जीवित प्राणी सर्वोच्च के साथ गुणात्मक दृष्टि से एकरूप माने गये, व उसी समय संख्यात्मक दृष्टि से अलग माना गया। रामानुज का मानना था कि संख्यात्मक अंतर का अर्थ है कि सर्वोच्च के खण्डित भाग सर्वोच्च पर निर्भर होते हैं, किन्तु वे सर्वोच्च नहीं बन सकते।
रामानुज ने आगे समझाया कि यदि सर्वोच्च का अस्तित्व माया द्वारा ढ़ंक दिया जाय, तो माया देवत्व से बड़ी बन जाती है। इसलिए उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि मनुष्य शाश्वत व्यक्तिगत व्यक्तित्व है और सर्वोच्च शाश्वत सर्वोच्च व्यक्तित्व है, किन्तु हमारी सीमित प्रकृति के कारण हम कभी-कभी माया के अधीन हो जाते हैं।
रामानुज ने शंकर द्वारा अस्वीकृत परिवर्तन के सिद्धांत को भी स्वीकार किया। शंकर के अनुसार भौतिक विश्व मिथ्या है व इसका कोई अस्तित्व नहीं है। दूसरी ओर, रामानुज का कहना था कि भौतिक विश्व देवत्व की ऊर्जा है, और भौतिक अभिव्यक्ति के मामले में व्यक्तिपरक वास्तविकता में कोई परिवर्तन नहीं होता, ठीक उसी प्रकार, जैसे एक गायक अपनी ऊर्जा से गीत बनाता है, तो गीत की उत्पत्ति के कारण उसका अस्तित्व कम नहीं होता, बल्कि और अधिक गौरवशाली बन जाता है।
रामानुज इतने प्रतिभाशाली थे कि अद्वैतवादी दार्शनिकों को जल्द ही किसी भी राज्य में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना मुश्किल हो गया। रामानुज ने इतनी मजबूती से भक्ति के सिद्धांतों की स्थापना की, कि कोई भी उनका विरोध नहीं कर पाया। कई महान विद्वान उन्हें सुनने के लिए आते थे, और उनके शिष्य बन गए।
रामानुज वास्तव में एक महान धर्मशास्त्री थे, जिनके जीवन और उपदेशों का भारत में ईश्वरवादी विचारधारा के विकास पर स्थायी प्रभाव पड़ा है। रामानुज की अति व्यक्तिपरक विशेषताओं के साथ देवत्व के संपूर्ण अस्तित्व की अवधारणा, और उनके देवत्व के प्रति भक्ति की शुरुआत ने भविष्य के ईश्वरवादी सुधारकों के लिए दरवाजे खोल दिए, जो आने वाले समय में पूरी तरह ईश्वर और उसके शाश्वत सेवकों के प्रेम संबंध में आत्मा की उच्चतम क्षमता प्रकट करने वाले थे।
3.2 सूरदास
सूरदास (1483-1563) प्रसिद्ध शिक्षक, वल्लभाचार्य के शिष्य थे। वह एक नेत्रहीन कवि थे, जिनके गीत कृष्ण के आसपास केंद्रित रहे। उनके सुरसागर में कृष्ण के बचपन और युवावस्था के क्रियाकलाप, अत्यंत कोमल स्नेह और रमणीयता से वर्णित किये गए हैं।
कृष्ण के लिए प्रेम मीराबाई (1503-73) के गीतों में भी व्यक्त किया गया था। कम उम्र में विधवा, उनका विश्वास उनके प्रभु के साथ आध्यात्मिक विवाह में था। उनकी कविताओं की अपनी एक गुणवत्ता है और आज भी लोकप्रिय है।
3.3 चैतन्य महाप्रभु
चैतन्य (1484-1533) के प्रयासों से पूर्व में वैष्णव आंदोलन का प्रसार हुआ। चैतन्य ने कृष्ण को विष्णु के मात्र एक अवतार के रूप में ही नहीं, बल्कि ईश्वर के सर्वोच्च रूप में माना। कृष्ण के लिए भक्ति संकीर्तन (श्रद्धालुओं द्वारा भजन सत्र) के माध्यम से व्यक्त की गई थी, जो घरों, मंदिरों और यहां तक कि सड़क पर जुलूस के रूप में होते थे।
अन्य भक्ति संतों की तरह, चैतन्य भी अपने खेमे में हर जाति का स्वागत करने के लिए तैयार थे। इस प्रकार संतों ने लोगों के बीच समानता की भावना को बढ़ावा दिया। राम की पूजा रामानंद (1400-1470) जैसे संतों द्वारा लोकप्रिय की गई। वह राम को सर्वोच्च ईश्वर के रूप में मानते थे। महिलाओं और जाति-बहिष्कृतों का स्वागत किया जाता था। सबसे प्रसिद्ध राम भक्त तुलसीदास (1532-1623) थे जिन्होंने रामचरितमानस की रचना की। वैष्णव संतों ने हिंदू धर्म के व्यापक ढ़ांचे के भीतर अपने दर्शन का विकास किया। उन्होंने धर्म में सुधारों के लिए, और प्राणिमात्र के बीच प्रेम का आव्हान किया। उनका दर्शन मोटे तौर पर मानवतावादी था।
3.4 वल्लभाचार्य
वल्लभाचार्य एक तैलंग ब्राह्मण थे। उन्होंने कृष्ण के रूप में विष्णु की उपासना का प्रचार किया। वह तेलुगू देश में 1479 में पैदा हुए थे। उन्होंने मथुरा, वृंदावन और कई अन्य पवित्र स्थानों की यात्रा की और अंत में वाराणसी में बस गए। भक्ति की भावना या समर्पण ऋग्वेद में पाई जा सकती है। ऋग्वेद की पहली ऋचा ही उच्चतम परमेश्वर के साथ अंतरंगता की भावना को अभिव्यक्ति देती है। कथा उपनिषद् में कहा गया है कि, किसी को बचाने के लिए (अर्थात् आत्मा को) दैवीय सहायता आवश्यक है, जो भक्ति का पुरस्कार है।
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