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सिंधु घाटी सभ्यता भाग - 1
1.0 भौगोलिक सीमा
सिन्धु घाटी या हड़प्पा संस्कृति, ताम्रपाषाण संस्कृति से अधिक पुरानी रही है, लेकिन सिन्धु व हड़प्पा संस्कृति, ताम्रपाषाण संस्कृति से कहीं अधिक विकसित थी। यह भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिमी भाग में उत्पन्न हुई। हडप्पा सभ्यता को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि इसके पहले सबूत 1921 मे पश्चिम पंजाब के आधुनिक स्थान हडप्पा मे मिले थे। हड़प्पा संस्कृति, पंजाब, हरियाणा, सिंध, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किनारे फैली हुई थी। यह दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने से उत्तर में जम्मू तक, और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान से उत्तर पूर्व में मेरठ तक फैली हुई थी। यह क्षेत्र त्रिकोणाकार था एवं 12,99,600 वर्ग कि. मी. में फैला था, जो पाकिस्तान से बड़ा है, एवं प्राचीन मिस्र और मेसोपाटेमिया से तो बड़ा था ही। तीसरी और दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. में हड़प्पा जैसा बड़ा कोई और सांस्कृतिक क्षेत्र दुनिया में नहीं था।
उपमहाद्वीप मे पूर्वकालीन लगभग 1000 हड़प्पा स्थलों की जानकारी पाई जाती है, किंतु परिपक्व हड़प्पा संस्कृति चरणों से संबंधित स्थलों की संख्या सीमित है, और उनमें से केवल आधा दर्जन को शहरों के रूप में माना जा सकता है। इनमें से दो सबसे महत्वपूर्ण शहर, पाकिस्तान के पंजाब में हड़प्पा व सिंध मे मोहनजोदड़ो (मृतकों का टीला) थे। वे सिंधु नदी से एक साथ जुड़े हुए थे व एक-दूसरे से 483 किलोमीटर की दूरी पर स्थित थे। एक तीसरा शहर चान्हु-दारो में था (सिंध के मोहनजोदड़ो से 130 कि. मी. दक्षिण में)। चौथा पाया गया गुजरात के लोथल में (कैम्बे की खाड़ी के मुहाने पर) और पांचवा था उत्तरी राजस्थान के कालीबंगा में। छठा बनवाली नामक हरियाणा के हिसार जिले में स्थित है। बनवाली में दो संस्कृति चरणों को देखा गया। हड़प्पा काल की नींव मिट्टी की ईंटे बनी और हड़प्पा संस्कृति के इन सभी छह स्थानों पर सड़कों और नालियों का निर्माण उनके परिपक्व और समृद्धिशाली चरण का संकेत है। “सुतकाजेंडोर“ और “सुर्कातड़ा“ के तटीय शहरों में भी हड़प्पा संस्कृति को अपने परिपक्व चरण में पाया जाता है, जो कि प्रत्येक नगर दुर्ग के द्वारा चिह्नित है। तत्पश्चात हड़प्पा चरण गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी में पाया जाता है।
2.0 शहरी रूपरेखा और संरचनाएं
हड़प्पा संस्कृति नगर नियोजन की अपनी प्रणाली द्वारा काफी प्रतिष्ठित हुआ। हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो, प्रत्येक संभवतः शासक वर्ग के सदस्यों के कब्जे में था ,जो अपने नगर दुर्ग या एक्रोपोलिस में रहते थे। प्रत्येक शहर में नगर दुर्ग थे व आम लोग ईंट के घरां मे रहते थे। शहरों के मकानों की व्यवस्था के बारे में उल्लेखनीय है कि वे ग्रिड प्रणाली का पालन करते थे। इसके अनुसार सड़कें लगभग सम कोण (90o) पर बनी थीं व शहर को कई खंडभागां में विभाजित किया गया था। सभी सिंधु बस्तियां इसी प्रकार की थीं।
बड़ी इमारते हड़प्पा व मोहनजोदाड़ो दोनों को ही विशेष बनाती हैं। पता चलता है कि शासक वर्ग श्रमबल को एकत्रित करने व करारोपण करने में सक्षम था। आमजन इससे प्रभावित होते ही होंगे।
मोहनजोदाड़ो का सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थान नगर दुर्ग टीले में स्थित है जहां ‘‘विशाल स्नानागर‘‘ था, जो कारीगरी का एक सुंदर उदाहरण है। इसका माप 11.88 गुणक 7.01 मीटर और 2.43 मीटर गहरा पाया गया। यहां दोनों छोर पर कदम रखने के लिए उपयुक्त सतह बनाई गई थी। वस्त्र बदलने के लिए कक्ष बने थे। स्नान के तल पक्की ईंटों से बने थे। जल की व्यवस्था एक कुएं द्वारा बगल के कमरे में बड़ी अच्छी तरह से की गई थी और जल की निकासी की भी पृथक व्यवस्था थी। यह महास्नान संकेत देता है कि भारत में किसी भी धार्मिक समारोह या अनुष्ठान के लिए ऐसा स्नान, महत्वपूर्ण एवं पवित्र माना जाता है, और यह महास्नान भी इसीलिए बनाया गया होगा।
मोहनजोदाड़ो में सबसे बड़ी इमारत 45.71 मीटर लंबी और 15.23 मीटर चौड़ी है, जो एक अन्न भंडार है। लेकिन हड़प्पा के गढ़ में ऐसे छह अन्न भंडार हैं। छह अनाजों के भंडार की दो पंक्तियों के आधार के लिए ईंट की श्रृंखला गठित की गई थी। प्रत्येक अन्न भंडार को 15.23 मीटर गुणक 6.09 मीटर मापा गया और नदी तट से कुछ ही मीटर की दूरी के भीतर रखा गया। बारह इकाइयों का संयुक्त फर्श माप 838.1025 वर्ग मीटर था। यह मोहनजोदाड़ो के महाअन्नभंडारण के जितना ही क्षेत्र था। हड़प्पा में स्थित अनाज के भंडार के दक्षिण में स्थित कार्य-मंजिल का निर्माण घुमावदार ईंटों की पंक्तियां व फर्श से श्रृंखलित था। फर्श की दरारों मे गेहूं और जौ पाया गया जिससे जाहिर है, कि ये अनाजभंडार गेहूं और जौ के भंडारण लिए बने थे। हड़प्पा युग मे दो बैरकों वाले कक्ष भी पाए गए जिसमे संभवतः मजदूर वर्ग निवास करते थे।
कालीबंगा में भी, दक्षिणी भाग में, अनाज भंडारण के लिए ईंटां की पंक्तियां पाई गई ,जो दर्शाता है, कि अनाज के भंडार हड़प्पा संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। मिस्र मे समकालीन इमारतों में सूखी ईंटों का मुख्य रूप से इस्तेमाल किया गया, जबकि हड़प्पा शहरों में पक्की ईंटों का उपयोग हुआ। उल्लेखनीय है, कि समकालीन मेसोपाटेमिया में भी पकी हुई ईंटों का उपयोग हुआ लेकिन हड़प्पा शहरों में ये एक बहुत बड़ी संख्या में इस्तेमाल हुइंर्।
मोहनजोदाड़ो की जल निकासी व्यवस्था बहुत प्रभावशाली थी। लगभग सभी शहरों में हर छोटे या बड़े घर का अपने आंगन और स्नानागार थे। कालीबंगा में कई घरों मे कुएं पाए गए। घरों से पानी बहकर सड़कों की नालियों में जाता था। कभी कभी इन नालियों को ईंटों से और कभी पत्थरों से ढांका गया। सड़क पर नालियों की निकासी के लिए मुख्यछिद्र भी दिए गए थे। सड़कों और नालियों के अवशेष को हरियाणा के बनवाली में भी पाया गया है। कुल मिलाकर घरों में पाए गए स्नानागार और नालियों की गुणवत्ता उल्लेखनीय है और हड़प्पा की जल निकासी व्यवस्था लगभग अद्वितीय है। कदाचित ही किसी अन्य कांस्य युग सभ्यता ने स्वास्थ्य और सफाई व्यवस्था पर हडप्पा सभ्यता जितना ध्यान दिया।
3.0 कृषि
पुरातन काल में उपजाऊ रही सिंधु घाटी आज कम वर्षा की वजह से उतनी उपजाऊ नहीं है। सालाना 15 से.मी. ही वर्षा होती है। पुराने समय में ज्यादा प्राकृतिक वनस्पति वर्षा आकर्षित करती थी। वक्त के साथ, कृषि के विस्तार व बड़े स्तर पर चराई ने वनस्पति नष्ट कर दी जिससे वर्षा भी कम हो गई। तुलनात्मक उपजाऊपन के लिए सिंधु नदी में वार्षिक सैलाब को ज़िम्मेदार माना जाता है। यहां पकी ईंटों से बनी दीवारां को वार्षिक बाढ़ से संरक्षण के लिए उपयोग किया गया। सिंधु मे मिस्र की नील नदी की तुलना में बाढ़ के कारण कहीं अधिक जलोढ़ सामग्री को बाढ़ के मैदानों पर जमा पाया गया। जिस तरह नील ने मिस्र के लोगों का समर्थन किया, वैसे सिंधु नदी ने सिंध बनाया और वहां के लोगों को भरण-पोषण मे सहायता की। सिंधु के लोग, बाढ़ के पानी के बहने के बाद नवंबर में बाढ़ के मैदानों में बीज बोते थे और अगली बाढ़ के आगमन से पहले, अप्रैल में गेहूं और जौ की अपनी फसल काट लेते थे। यहाँ खोज के दौरान कुदाल आदि नहीं मिले, लेकिन राजस्थान के कालीबंगा में पूर्व हड़प्पा चरण के कई क्षेत्रों मे जुताई के लिए शायद लकड़ी के कुदाल आदि उपकरण इस्तेमाल हुए थे। हल पुरुषों या बैलों द्वारा खींचा गया था ये ज्ञात नहीं हो सका है। पत्थर का हंसिया फसलों की कटाई के लिए इस्तेमाल किया गया हो सकता है। पानी के संचय व फसलों मे पानी देने के लिए बांधों की व्यवस्था थी किंतु बलूचिस्तान मे नहर सिंचाई अनुपस्थित रही एैसा लगता है।
ज्यादातर बाढ़ के मैदानों के पास स्थित हड़प्पा गांवों के लोग, न केवल खुद के लिए बल्कि शहर के लोगां के भरण-पोषण के लिए भी बहुत मेहनत करते थे। उन्होने शहर के कारीगरों, व्यापारियों और अन्य उन लोगों के लिए भी पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन किया, जो सीधे खाद्य उत्पादक गतिविधियों के साथ संबंधित नहीं थे।
सिंधु के लोगों ने गेहूं, जौ, राई, मटर आदि का उत्पादन किया। उन्होने दो प्रकार के गेहूं व जौ का विशेष उत्पादन किया। जौ की एक अच्छी मात्रा की बनवाली में खोज की गई है। इसके अलावा, वे तिल और सरसों का उत्पादन करते थे, लेकिन लोथला में स्थिति अलग लगती है। लोथला में 1800 ई.पू. में, चावल के इस्तेमाल के अवशेष पाए गए हैं। अनाजों के, मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा दोनों स्थानों पर व संभवतः कालीबंगा में विशाल भंडार थे। शायद अनाज किसानों से करों के रूप में प्राप्त करने और मजदूरी के भुगतान के लिए भंडारगृहां में संग्रहित किया जाता था। यह सादृश्य है, मेसोपोटेमिया के, जहाँ मजदूरी के भुगतान में जौ दिया जाता था। सर्वप्रथम सिंधु के लोगों ने कपास का उत्पादन किया। ग्रीकवासियों ने इसे “सिंडोन“ कहकर संबोधित किया क्योंकि कपास पहली बार इसी क्षेत्र (सिंध) में उत्पादित हुआ था।
4.0 पशुपालन
हड़प्पा संस्कृति मे हालांकि कृषि कार्य हुआ, किंतु जानवरों को एक बड़े पैमाने पर रखा गया था। यहां बैल, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर आदि पालतू पशु थे। हड़प्पा सभ्यता मे बैल, कुत्तां व बिल्लियों के पालतू जानवर के रूप में पाले जाने के संकेत हैं, क्योंकि यहाँ कुत्तों और बिल्लियों के पैरों के चिन्ह पाए गए थे। वे भार ढ़ोने के लिए गधे और ऊंट का भी इस्तेमाल करते थे। घोड़े के साक्ष्य मोहनजोदाड़ो की एक सतही स्तर से और लोथल के एक संदिग्ध टेराकोटा मूर्ति से ज्ञात है। घोड़े के अवशेष गुजरात के पश्चिम में स्थित “सुर्कोतड़ा“, से भी मिले जो लगभग 2000 ईसा पूर्व के हैं, लेकिन पहचान संदिग्ध है। घोड़े का हड़प्पा काल में नियमित रूप से इस्तेमाल नहीं था, यह स्पष्ट है। हाँ, वे हाथियों व गैंडे की प्रजाति से परिचित थे। मेसोपोटामिया के समकालीन सुमेरियन शहरों में व्यावहारिक रूप से हड़प्पा के समान ही खाद्यान्न का उत्पादन किया गया और पालतू जानवर पाले गये, किंतु जो अंतर था वह यह कि गुजरात में हड़प्पा के लोग मेसोपोटेमिया शहरों के लोगों से भिन्न चावल का उत्पादन करते थे व हाथियों को पालते थे।
5.0 प्रौद्योगिकी और शिल्प
हड़प्पा संस्कृति कांस्य युग के अंतर्गत आती है। हड़प्पा के लोगों ने कई उपकरण और पत्थर के औजारां का इस्तेमाल किया किंतु वे बहुत अच्छी तरह से पीतल के निर्माण और उपयोग से परिचित थे। टिन व तांबे के मिश्रण से पीतल का निर्माण कारीगरों द्वारा किया गया था। ये दो धातुएं हड़प्पा निवासियां के लिए आसानी से उपलब्ध नही थीं। अयस्कों की कमी के कारण तांबा बलूचिस्तान व राजस्थान के खेतड़ी की खानों से प्राप्त करते थे। वहीं टिन बिहार के हजारीबाग व अफगानिस्तान से मुश्किल से लाया जाता था। हड़प्पा स्थलों से बरामद पीतल उपकरणों और हथियारों मे टिन का कुछ प्रतिशत पाया गया हालांकि हड़प्पा द्वारा छोड़े पीतल के सामान, हड़प्पा समाज में कारीगरों के एक महत्वपूर्ण समूह के गठन को दर्शाते हैं। वे न केवल आकृतियां और बर्तन बनाते थे बल्कि कुल्हाडीयों, आरी, चाकू और भाले के रूप में विभिन्न उपकरणों और हथियारों का उत्पादन भी करते थे। कई अन्य महत्वपूर्ण शिल्पकलाएं भी हड़प्पा शहरों में विकसित हुइंर्। बुना कपास का टुकड़ा और कपड़ों की छापों को कई वस्तुओं पर मोहनजोदाड़ो से बरामद किया गया है। बुनाई, कताई व बुनकरों द्वारा इस्तेमाल किया गया ऊन और कपास के कपड़े भी प्राप्त हुए। विशाल ईंट संरचनाएं वहाँ के महत्वपूर्ण शिल्प थे। यहा मिस्त्री के एक वर्ग का अस्तित्व भी पाया गया, व नाव बनाने के अभ्यास भी किये गये। मुहर बनाना और टेराकोटा भी यहाँ के महत्वपूर्ण शिल्प में शामिल थे। सुनारों द्वारा चांदी, सोने और कीमती पत्थरों के आभूषण बनाए जाते थे। हड़प्पा के लोग मनका बनाने में भी विशेषज्ञ थे। सोना-चांदी शायद अफगानिस्तान से, और कीमती पत्थर दक्षिण भारत से लाये गये होंगे।
कुम्हार चाक का उपयोग करते थे। हड़प्पा की विशेषता चमकदार बर्तनों का उत्पादन भी थी।
6.0 व्यापार
सिंधु के लोगों के जीवन में व्यापार का महत्व न केवल हड़प्पा, मोहनजोदाड़ो और लोथल में पाए अनाज के भंडारों से, बल्कि यहा एक व्यापक क्षेत्र में पाए गए, कई तरह की मुहरें, विनियमित बाट और माप की उपस्थिति से भी साक्ष्यांकित होता है। हड़प्पा सभ्यता में, सिंधु संस्कृति के क्षेत्र के भीतर पत्थर, धातु, खोल आदि के व्यापार को आगे बढ़ाया गया हालांकि, वे उत्पादित वस्तुओं के लिए आवश्यक कच्चा माल अन्य क्षेत्र से लाते थे। वे धातु की मुद्रा का उपयोग नहीं करते थे। अधिकांश शायद वे वस्तु विनिमय के माध्यम से आदान-प्रदान करते थे।
वे तैयार माल और संभवतः खाद्यान्न के बदले में, स्वउपयोगी धातुओं की खरीद करते थे। पड़ोसी क्षेत्रों से सामान वे नावों और पहिया-गाड़ियों द्वारा लाते थे। वे अरब सागर के तट पर नौका चालन के कई अभ्यास किया करते थे। साथ ही वे ठोस पहियों के साथ पहिया गाड़ियों का उपयोग भी जानते थे। हड़प्पा के लोग कई आधुनिक एक्का का उपयोग भी जानते थे, ऐसा प्रतीत होता है।
हड़प्पा के, राजस्थान के एक क्षेत्र, व अफगानिस्तान और ईरान के साथ भी व्यावसायिक संबंध थे। ये भी जाहिर है कि उन्होंने उत्तरी अफगानिस्तान में एक व्यापारिक नगर की स्थापना की थी, जिसने मध्य-एशिया के साथ व्यापार मे मदद की। उन्होंने महानद शहरों के साथ भी वाणिज्य कार्य किए। यहां भी कई हड़प्पा मुहरों की खोज की गई है। मेसोपोटामिया की तरह हड़प्पा सभ्यता मे भी शहरी लोगों द्वारा इस्तेमाल कुछ सौंदर्य प्रसाधनों की झलक मिली है।
हड़प्पा ने लाजवर्त (अर्द्ध कीमती पत्थर) में लंबी दूरी के व्यापार को आगे बढ़ाया। शासक वर्ग ने ही सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए इसका उपयोग हो सकता है। मेसोपोटेमिया रिकॉर्ड के अनुसार 2350 ई.पू. सिंधु क्षेत्र को “मेलुहा“ प्राचीन नाम दिया गया था। मेसोपोटेमिया के ग्रंथों में मेसोपोटामिया और मेलुहा के बीच मध्यवर्ती व्यापार अड्ड़ों को “दिलमुन व माकन“ नाम दिए गए। दिलमुन संभवतः बहरीन जो कि फारस की खाड़ी पर स्थित है। हां हज़ारां कब्रें जांच का इंतजार कर रहीं हैं।
7.0 राजनीतिक संगठन
हम हड़प्पा सभ्यता के राजनीतिक संगठन के बारे में स्पष्ट रूप से नही कह सकते। हड़प्पा में देखी गई सांस्कृतिक प्रगति को यदि राजनीतिक के समतुल्य माना जाए, तो इतनी बड़ी सभ्यता महाद्वीप में मौर्य साम्राज्य के उदय के साथ ही आई। इस इकाई की उल्लेखनीय स्थिरता ने लगभग 600 वर्षों के लिए अपनी निरंतरता को प्रदर्शित किया है।
मिस्र और मेसोपोटामिया के विपरीत, हड़प्पाकालीन स्थलों पर कोई मंदिर नही पाए गए। प्रक्षालन के लिए इस्तेमाल किये गये महास्नान को छोड़कर किसी भी तरह की धार्मिक संरचनाए नहीं पाई गई हैं। हड़प्पा के शहरों में पुजारी राज करते थे, यह सोचना गलत होगा, जैसे मेसोपोटामिया में थे। वहाँ बाद के चरण में गुजरात में लोथल में आग दहन के अभ्यास के कुछ संकेत भी मिले हैं। लेकिन ये प्रक्रिया मंदिरों से संबंधित नहीं लगती। शायद हड़प्पा के शासक वाणिज्य क्रिया से ही संबंधित थे, और सैन्य विजयों से नहीं, और हड़प्पा में संभवतः व्यापारियों का ही शासन था।
8.0 धार्मिक प्रथाएं
हड़प्पा में महिलाओं की कई टेराकोटा की मूर्तियां मिली हैं। एक मूर्ति में एक स्त्री के गर्भ से एक पौधा निकलता प्रतीत होता है, कदाचित यह छवि पृथ्वी की देवी का प्रतिनिधित्व करती है और यह धारणा पौधों की उत्पत्ति और विकास के साथ जुड़ी थी। हड़प्पा, पृथ्वी को उत्पत्ति की देवी के रूप मे पूजते थे, जैसे मिस्त्रवासी नील देवी आइसिस की पूजा करते थे। मिस्त्रवासी मातृसत्तात्मक थे। लेकिन हड़प्पा समाज में उत्तराधिकार की प्रकृति के बारे में हमें पता नहीं है। मिस्र की तरह वे भी मातृसत्तात्मक लोग थे या नही यह जानकारी नहीं है।
कुछ वैदिक ग्रंथों से प्रतीत हेता है कि हड़प्पा के लोग पृथ्वी की देवी मे श्रद्धा रखते थे। हिंदू धर्म में सर्वोच्य देवी की आराधना को विकसित होने में एक लंबा अंतराल लगा। केवल छठी शताब्दी ई. से दुर्गा, अंबा, काली, चंडी के रूप में विभिन्न देवीमाँओं को पुराणों में और तंत्र साहित्य में देवी के रूप में माना जाने लगा। उस समय से, हर गांव की अपनी अलग देवी होने लगी।
8.1 सिंधु घाटी में पुरुष देवता
सिंधु घाटी की एक मुहर पर पुरुष देवता का प्रतिनिधित्व किया गया है। इस पुरुष देवता के तीन सिर दर्शाए गए हैं, वे योगी की तरह आसन पर एक पैर पर दूसरे पैर को रखकर बैठे हैं। यह भगवान एक हाथी, एक शेर व एक गैंडे से घिरे हुए हैं और उनके सिंहासन के नीचे एक भैंस है व उनके चरणों में दो हिरण दिखाई देते हैं। इसे देखकर तुरंत हमारे मन मे पशुपति महादेव की परंपरागत छवि उभर आती हैं। चारों पशु पृथ्वी की चार दिशाओं में देख रहे हैं।
बाद में हिंदू धर्म में हर भगवान की गतिविधियों के लिए पशुरूपी वाहन माने जाने लगे, क्योंकि वे देवताओं के लिए वाहन के रूप में कार्य कर सकते हैं। शिव की छवि का उपयोग जो कि लिंग के रूप मे किया जाता है, उसी प्रकार पत्थर का बना लिंग और महिला यौन अंगों के कई प्रतीक सिंधु घाटी सभ्यता में भी पाए गए। हड़प्पा सभ्यता में वे संभवतः पूजा के लिए बने थे। ऋग्वेद लिंग उपासक गैर आर्यन लोगों के बारे में कहता है। हड़प्पा के दिनों में ही लिंग पूजा को हिन्दू समाज में एक सम्मानजनक रूप में पहचाना जाने लगा।
8.2 पेड़ां और पशुओं की पूजा का रिवाज़
सिंधु क्षेत्र के लोग पेड़ों की पूजा करते थे। एक मुहर पर एक भगवान की तस्वीर पीपल की शाखाओं के बीच में पाई गई। यह पेड़पूजा इन दिनां भी जारी है।
पशुओं की भी हड़प्पा काल में पूजा होती थी और उनमें से कई मुहर पर अंकित पाए गए। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कूबड़ वाला बैल है। इसी तरह आज भी एक बैल जब सड़कों पर से गुजरता है तब भारतीय इसे पवित्र प्रतीक मानकर गुज़रने के लिए रास्ता दे देते हैं। इसी तरह, पशुपति महादेव के साथ नंदी बैल की पूजा होती थी, ऐसे संकेत मिलते हैं। जाहिर है सिंधु क्षेत्र के निवासियों ने पेड़ ,जानवरों और मनुष्य के रूप में देवताओं की पूजा की। लेकिन यहां प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया की तरह देवताओं को मंदिरों में स्थान नहीं दिया गया। हम बड़ी संख्या में उनके मिले लेख को पढ़ने मे सक्षम हुए बिना हड़प्पा सभ्यता के धार्मिक विश्वासों के बारे में कुछ भी नही कह सकते हैं। शायद हड़प्पा भूत-प्रेत और बुरी ताकतों मे विश्वास करते थे व उनके खिलाफ अपनी रक्षा के लिए ताबीज़ आदि का इस्तेमाल करते थे। गैर आर्यन परंपरा मे भी अथर्ववेद में भी कई तावीजों और मंत्रां से संबंधित ज्ञान पाया गया है, जो रोगों और बुरी ताकतों से दूर रहने के लिए इनके इस्तेमाल की सिफारिश करता है।
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